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________________ किरण २] समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने से प्रसिद्ध है और पृथिव्यादि भूतोंके समागमपर चैतन्यका सर्वथा उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होना व्यवस्थापित नहीं किया जा सकता। क्योंकि शरीराकार-परिणत पृथिव्यादि भूतोंके सङ्गत. अविकल और अनुपहत वीर्य होनेपर भी जिस चैतन्यशक्तिके वे अभिव्यञ्जक कहे जाते हैं उसे या तो पहलेसे सत् कहना होगा या असत् अथवा उभयरूप। इन तीन विकल्पोंके सिवाय दूसरी कोई गति नहीं है। यदि अभिव्यक्त होनेवाली चैतन्यशक्तिको पहलेसे सत्रूप (विद्यमान) माना जायगा तो सर्वदा सतरूप शक्तिको ही अभिव्यक्ति सिद्ध होनेसे पैतन्यशक्तिके अनादित्व और अनन्तत्वकी सिद्धि ठहरेगी। और उसके लिये यह अनुमान सुघटित होगा कि- चैतन्यशक्ति कथंचित् नित्य है, क्योंकि वह सतरूप और अकारण है, जैसे कि पृथिवी श्रादि भूतसामान्य ।' इस अनुमानमें सदकारणत्व हेतु व्यभिचारादि दोपोंसे रहित होने के कारण समीचीन है और इसलिये चैतन्यशक्तिको अनादि अनन्त अथवा कथञ्चित नित्य सिद्ध करने में समर्थ ह द अनन्त अथवा कथञ्चित् नित्य सिद्ध करने में समर्थ है। यदि यह कहा जाय कि पिछोदकादि मद्यांगोंसे अभिव्यक्त होनेवाली मदशक्ति पहलेसे सतरूप होते हुए भी नित्य नहीं मानी जाती और इसलिये उस सत् तथा अकारणरूप मदशक्ति के साथ हेतुका विरोध है, तो यह कहना ठीक नहीं क्योंकि वह मदशक्ति भी कथञ्चिन्नित्य है और उसका कारण यह है कि चेतनद्रव्यके हो मदशक्तिका स्वभावपना है, सर्वथा अचेतनद्रव्योंमें मदशक्तिका होना असम्भव है; इसीसे द्रव्यमन तथा द्रव्येन्द्रियोंके, जो कि अचेतन है, मदशक्ति नहीं बन सकती-भावमन और भावेन्द्रियोंके ही. जो कि चे हैं, मदशक्तिकी सम्भावना है। यदि अचेतनद्रव्य भी मदशक्तिको प्राप्त होवे तो मद्यके भाजनों अथवा शराब की बोतलोंको भी मद अर्थात् नशा होना चाहिये और उनकी भी चेष्टा शराबियों जैसी होनी चाहिये; परन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुत: चेतनद्रव्य में मदशक्तिकी अभिव्यक्तिका बाह्य कारण मद्यादिक और अन्तरङ्ग कारण मोहनीय कर्मका उदय है-मोहनीयकर्मके उदय बिना बाह्यमें मद्यादि का संयोग होते हुए भी मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। चुनांचे मुक्तात्माओंमें दोनों कारणोंका अभाव होनेसे मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं बनती। और इसलिये मदशक्तिके द्वारा उक्त सदकारणत्व हेतुमें व्यभिचार दोष घटित नहीं हो सकता , वह चैतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध करने में समर्थ है। चैतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध होनेपर परलोकी और परलोकादि सब सुघटित होते हैं। जो लोग परलोकोको नहीं मानते उन्हें यह नहीं कहना चाहिए कि 'पहलेसे सतरूपमें विद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है।' यदि यह कहा जाय कि अविद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है तो यह प्रतीतिके विरुद्ध है, क्योंकि जो सर्वथा असत् हो ऐसी किसी भी चीजकी अभिव्यक्ति नहीं देखी जाती। और यदि यह कहा जाय कि कथञ्चित् सप तथा कथंचित् असत्रूप शक्ति ही अभिव्यक्त होती है तो इससे परमतकी-स्याद्वादकीसिद्धि होती है, क्योंकि स्याद्वादियों को उस चैतन्यशक्तिकी कायाकार-परिणत-पगलोंके द्वारा अभिव्यकि अभीष्ट है जो द्रव्यदृष्टि से सतरूप होते हुए भी पर्यायदृष्टि से असत् बनी हुई है। और इसलिये सर्वथा चैतन्य की अभिव्यक्ति प्रमाण-बाधित है, जो उसका जैसे तैसे वंचक वचनोंद्वारा प्रतिपादन करते हैं उन चार्वाकोंके द्वारा सुकुमारबुद्धि मनुष्य निःसन्देह ठगाये जाते हैं। इसके सिवाय जिन चार्वाकोंने चैतन्यशक्तिको भूतसमागमका कार्य माना है उनके यहां सवे चैतन्य शक्तियों में विशेषका प्रसङ्ग उपस्थित होता है-कोई प्रकारका विशेष न रहनेसे प्रत्येक प्राणो में बुद्धि आदिका विशेष (भेद) नहीं बनता। और विशेष पाया जाता है अत: उनको उक्त मान्यता मिथ्या है। इसी बातको अगली कारिकामें व्यक्त करते हुए प्राचार्य महोदय कहते हैं
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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