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________________ १२४ अनेकान्त [वर्ष ९ साहित्य - परिचय और समालोचन १ राजुल [कान्य] समझे जग हमको क्यों कायर, ऐसी भी क्या हम क्षीण हुई। लेखक, श्रीबालचन्द्र जैन विशारद काशी। प्राप्ति नारी ऐसी क्या हीन हुई। स्थान, साहित्यसाधनासमिति जैनविद्यालय भदैनी 'उत्सर्ग' अध्यायमें राजुल जब गिरनार पर्वतपर काशी । मूल्य ११)। नेमिकुमारके पास जाकर अपने आपको उनके चरणोंयह पद्यकाव्यप्रन्थ हालमें प्रकट हुआ है । यह में समर्पण कर देती है तब कविने नेमिकुमारके द्वारा लेखककी अपनी दूसरी रचना है। इसके पहले वे उनके समर्पणको स्वीकार करते हुए उनके मुखसे 'श्रात्मसमर्पण' पाठकोंको भेंट कर चुके हैं, जिसका कितना सैद्धान्तिक उत्तर दिलाया हैपरिचय पिछली किरणमें प्रकट होचुका है। “श्राश्रो हम दोनों ही जगके दुखके कारणकी खोज करें , इसमें कविने राजुल और नेमिकुमारका पौराणिक बन्धन जगके हम काटेंगे बस यही भावना रोज करें । ऐतिहासिक चरित्र आधुनिक रोचक ढङ्गसे चित्रित रत्नत्रय अपना परम माध्य तप ओं' संयमको अपनाएँ, किया है। इसमे दर्शन, स्मरण, विराग, विरह और उत्सर्ग ये पांच अध्याय है। प्रथम अध्याय कविने निश्चय ही बन्धन मुक्त बने स्वातन्त्र्य-गीत फिर हम गाएँ ।" कल्पनाके आधारपर रचा है और शेष चार अध्याय कहनेका तात्पर्य यह कि यह काव्य कई दृष्टियोंसे पुराणवर्णित कथानुसार निर्मित किये है । कविसे यह अच्छा बना है। विदुषीरत्न प० ब्र० चन्दाबाईजीकी काव्य उत्कृष्ट कोटिका बन पड़ा है। काव्यमे जैसी महत्वकी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाने तो स्वर्ण कलशका कुछ कोमलता, सरलता, शिक्षा, नीति, सुधार काम किया है। इस उदीयमान कविसं समाजको कवित्वकला आदि गुण अपेक्षित हैं वे प्रायः सब इस बहुत कुछ आशा है। हम उनकी इस रचनाका 'राजुल में विद्यमान हैं। इसके कुछ नमूने देखिये- स्वागत करते हैं । 'स्मरण' अध्यायमे कवि राजुल-मुखसे कहलाता है- २ मुक्तिमन्दिर पिद्यमय रचना] जीवन सूनासा लगता था यदि नेमि न श्राए जीवनम, लेखक. पण्डित लालबहादुर शास्त्री । प्राप्तिस्थान जीनेका क्या उपयोग ! अरे उत्साह न श्राए जीवनमे । ___ यहाँ नीतिकी कितनी सुन्दर पुट है। ' नलिनी सरस्वती मन्दिर, भदैनी बनारस । मूल्य ।)। विरह' अध्यायमें राजल विरहीकी अवस्थाको यह क्षमा, निरभिमानता, सरलता, सत्य, निर्लोप्राप्त करती हुई भी अपने नारीत्वके अभिमानको भता, सयम, तप, त्याग, अपरिग्रहता और ब्रह्मचर्य नहीं भूलती। कवि राजुलके मुखसे वहाँ कहलाता है- इन दश मानव-धर्मोका, प्रत्येकका पाँच-पाँच सुन्दर बन बनमें मैं सँग सँग फिरती गिरिमें भी मै सँग सँग तपती. एवं सरल पद्योंमे, कथनकरने वाली नवीन शैलीकी बना संगिनी जीवनकी फिर भी मुझको कायर माना । एक उत्तम रचना है। यह मामान्य जनतामे काफी तुमने कब मुझको पहिचाना । संख्यामे प्रचार-योग्य है और लोकचिके अनुकूल है। ऐसी सरल रचना करनेके लिये लेखक समाजके नारी ऐसी क्या हीन हुई। धन्यवादपात्र है। तनकी कोमलता ही लेकर नरके सम्मुख वह दीन हुई ! जो पुरुष करे कर हम न सके ! जीवन-पथमें क्या बढन सके। -दरबारीलाल जैन, कोठिया
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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