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किरण १२
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जैनाचार्योंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। उनके सामने आदर्श था भगवान महावीरका । जिसमें अपनी विचार धाराका निर्मल प्रवाह तत्कालीन प्रान्तीय भाषा द्वारा बहाया था। भगवान बुद्धके उपदेश भी इस बातके प्रमाण हैं। जैन विद्वान संस्कृत आदि विद्वद्भोग्य भाषाओं में ग्रन्थ निर्माण करके ही चुप नहीं रहे हैं। उन्होने विभिन्न प्रान्तोमें रहकर प्रत्येक शताब्दियोंमें लोक भोग्य साहित्यकी सरिता बहाकर तत्कालीन लोक संस्कृतिको श्रालोकित किया। लौकिक भाषामें संस्कृतके प्रकाण्ड पण्डितोने रचना करना अपना अपमान समझा इससे वे एकाङ्गी साहित्य निर्माता ही रह गये । जिन जीवोकी गहराई तक वे न पहुंच सके। जब कि जैनाचार्योके सम्मुख सबसे बड़ी समस्या थी जनता की। वे जनताको दर्शन, एवं साहित्यक उच्चकोटिके तत्त्वोंका परिज्ञान सरल और बोधगम्य भाषामें कराना चाहते थे। इस कायमें वे काफी सफल रहे । इसका अर्थ यह नहीं कि वे विद्वद्रोग्य साहित्य निर्माणमें पश्चात् याद रहे। आज हम किसी भी प्रान्तके लोक साहित्यको उठा कर देखेंगे तो पता चलेगा कि प्रत्येक प्रान्तकी जनभाषाओके विकासमें भी जैनोंने साहित्य निर्माणमे कितना असांप्रदायिकतासे काम लिया है जब जिस भाषाका प्रभुत्व रहा उसीकी साधनामे वे तल्लीन रहे हैं। कारण कि जब संस्कृतिके नैतिक उत्थानकी भावनाओसे उनका हृदय ओत-प्रोत था। ऊपर हम लिख
आए है कि हिन्दी भाव और भाषाकी दृष्टिसे अपभ्रंशकी पुत्री है अपभ्रंशका साहित्य जो कुछ भी आज भारतमे प्राप्त होता है, वह जैनांकी बहुत बड़ी देन है। भाव स्वातन्त्र इमकी बहुत बड़ी विशेषता है। राहुलजीके शब्दोमें
"अपभ्रशके कवियोंका विस्मरण करना हमारे लिए हानिकी वस्तु है। यही कमी हिन्दी काव्यधाराके प्रथम स्रष्टा थे। वे अश्वघोष, भास, कालिदास और बागकी सिर्फ नूठी पत्तलें नही चाटते रहे । बल्कि उन्होंने एक योग्य पुत्रकी तरह हमारे काव्य-क्षेत्रमें नया सृजन किया है। नये चमत्कार नए भाव पैदा किए हैं।
हमारे विद्यापति, कबीर, सूर, जायसी, और तुलसीके यही उज्जीवक और प्रथम प्रेरक रहे है। उन्हें छोड़ देनसे बीचके कालममे हमारी बहुत हानि हुई और आज भी उसकी सम्भावना है। - जैनोंने अपभ्रंश साहित्यकी रचना और उसकी सुरक्षामें सबसे अधिक काम किया है।"
१३ तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंशमें प्रौढत्व रहा। बादमे वही अपभ्रंश क्रमशः विकसित होते होते प्रान्तीय भाषाओके रूपमें परिणित हो गई। एक समय वह जनताकी भाषा थी ज्यो-ज्या उच्चकोटिके कलाकारो द्वारा समाहत होती गई त्या-त्यो वह विद्वद्भाग्य साहित्यकी प्रधान भाषा बन गई। अपभ्रंश भाषाका शब्द भण्डार विस्तृत है और बहुत कुछ अंशोमें वह संस्कृतकी अपेक्षा प्राकृतका अनुधारण करता है। अतः बिना किसी हिचकसे कहा जा सकता है. कि हिन्दीका उत्पत्ति स्थान अपभ्रंश है। जो परिवर्तनशील भाषा रही थी। दःख इस बातका है कि हिन्दी साहित्यके मर्मज्ञ विद्वान जैनोके इस विशाल अपभ्रश साहित्यसे एकदम परिचित नहीं है। यही कारण है कि आज राष्ट्र-भाषाकी समस्या उलझी हुई है।
हिन्दी, गुजराती, मराठी, तामिल, कन्नड़ और राजस्थानी आदि सभी प्रान्तीय भाषाप्रोमे जैनोने न केवल भगवान महावीर' द्वारा प्रचारित मानव संस्कृति और सभ्यताके उच्चतम अमर तत्वोका सुबोध भाषामें गुम्फन किया अपितु तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, रीतिरिवाज एवं आध्यात्मिक तत्त्वोकी ओर भी सङ्केतकर जनताके नैतिक स्तरका ऊंचा उठाने का प्रयास किया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रान्तमे जब कभी जिस भाषाका प्रभुत्व रहा उसीके माध्यम द्वारा जैनोंने अपने विचार जनताके समक्ष रक्खे हैं। 'प्रान्तीय' जानतिक