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________________ किरण ह] जैन अध्यात्म [३३६ उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी होना था। माना जगनके परिणमनाको ऐसा ही होना उसके ज्ञानके बाहिर नहीं है। सर्वज्ञ माननेका दूसरा था' इम निर्यात भगवतीने अपनी गोदमे लेरग्बा हो। अर्थ है नियतिवादी होना । पर, आज जो सर्वज्ञ नहीं अध्यात्मकी भकर्तृत्व भावनाका उपयोगमानते उनके सामने हम नियनिचक्रको कैसे सिद्ध कर ___ तब अध्यात्मशास्त्रकी अकर्तृत्वभावनाका क्या मकत है ? जिम अध्यात्मवादके मूलमें हम नियति- . अर्थ है ? अध्यात्ममे ममस्त वर्णन उपादानयोग्यताक वादको पनपाने है उम अध्यात्मपिसे मर्वज्ञता व्यव आधारमे किया गया है। निमित्त मिलानेपर यदि हारनयको अपेक्षासे हैं । निश्चयनयसे तो आत्मज्ञतामें उपादानयोग्यता विकमित नहीं होती. कार्य नहीं हो ही उमका पर्यवसान होता है जैसाकि स्वयं आचाय सकेगा । एक ही निमित्त-अध्यापकसे एक छात्र प्रथम कुन्दकुन्दने नियमसार (गा. १५८)मे लिखा है श्रेणीका विकाम करता है जबकि दृमग द्वितीय श्रेणी"जाणदि पस्सदि सव्वं व्यवहारणएण केवली भगवं । का और तीमरा अज्ञानीका अज्ञानी बना रहता है। केवलणाणी जाणदि पम्सदि णियमण अप्पाणं ॥" अतः अन्ततः कार्य अन्तिमक्षणवर्ती उपादानअर्थात केवली भगवान व्यवहारनयसे सब पदार्थांका योग्यतास ही होता है। हॉ. निमित्त उस योग्यताको जानन देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी विकासोन्मुख बनाते हैं. तब अध्यात्मशास्त्रका कहना आत्माको जानता देखता है। है कि निमित्तका यह अहङ्कार नहीं होना चाहिए कि अध्यात्मशास्त्रमें निश्चयनयकी भूतार्थता और पर. हमने उसे ग्मा बना दिया. निमित्तकारणका मांचना मार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूताथतापर विचार चाहिए कि इसकी उपादानयोग्यता न होती तो मैं करनेसे तो अध्यात्मशास्त्रमे पूर्णज्ञानका पर्यवमान क्या कर मकता था अतः अपने मे कतृ त्वजन्य अन्तनः आत्मज्ञानमे ही होता । अतः सर्वज्ञत्वकी अहङ्कारके निवृत्तिके लिए उपादानमे कतत्वकी दलालका अध्यात्मचिन्तनमूलक पदार्थव्यवस्थामे उप- भावनाका दृढमूल करना चाहिए ताकि परपनार्थयोग करना उचित नहीं है। कर्तृत्वका अहङ्कार हमारे चित्तमे आकर रागद्वेषकी नियतिवादमें एक ही प्रश्न एक ही उत्तर सृष्टि न करे । बड़ेसे बड़ा कार्य करके भी मनुष्यका यही सोचना चाहिए कि मैने क्या किया ? यह तो नियतिवादमे एक ही उत्तर है ऐमा ही होना था, उसकी उपादानयोग्यताका ही विकास है मै नो एक जो हाना हागा सो होगा हा इसमे न कोई तक है. न साधारण निमिन ई । “क्रिया हि द्रव्यं विनयति कोई पुरुषार्थ और न कोई बुद्धि । वस्तुव्यवस्थामे इस नाद्रव्यं' अर्थान क्रिया योग्यमें परिणमन कराती है प्रकारके मृत विचारीका क्या उपयोग ? जगतमें अयोग्यमें नहीं । इस तरह अध्यात्मकी अकतृत्वविज्ञानसम्मत कार्यकारणभाव है । जैमी उपादान- भावना हमें वीतरागताकी ओर ले जानेके लिए है। योग्यता और जो निमित्त होगे तदनुमार चेतन-अचे न कि उसका उपयांग नियतिवादके पुरुषार्थ विहीन तनका परिणमन होता है। पुरुषार्थ निमित्त और कुमार्गपर लेजानेको किया जाय । अनुकूल सामग्रीके जुटानेमे है । एक अग्नि है पुरुषार्थी यदि उसमें चन्दनका चूग डाल देता है तो समयसारम निमित्ताधानउपादान पारणमनसुगन्धित धुआँ निकलेगा, यदि बाल आदि डालता है ममयसार (गा०८६-८८)मे जीव और कर्मका तो दुर्गन्धित धूआँ उत्पन्न होगा । यह कहना कि चूग- परम्पर निमित्तनाम को उममे पड़ना था. पुरुपको उसमे डालना था. अग्निका है किउमे ग्रहण करना ही था। इसमे यदि कोई हर-फर "जीवपरिणामहंदु कम्मत्त पुग्गला परिणमंति । करता है तो नियतिवादीका वहीं उत्तर कि नया ही पग्गलकम्मणिमित्त तहब जीवो वि परिणमदि।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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