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________________ ३३८ ] अनेकान्त [वर्ष यह अनियत है। जिस समय जो शक्ति विकसित होगी पाकर इलाहाबादमें बदली और इलाहाबादकी गन्दगी तथा अनुकूल निमित्त मिल जायगा उसके बाद वैसा आदिके कारण काशीकी गङ्गा जुदी ही हो जाती है। परिणमन हो जायगा। अतः नियतत्व और अनियतत्व यहाँ यह कहना कि "गङ्गाके जलके प्रत्येक परमाणुका दोनो धर्म सापेक्ष हैं । अपेक्षाभेदसे सम्भव है। प्रतिसमयका सुनिश्चित कार्यक्रम बना हुआ है उसका नियतिवाद नहीं जिस समय परिणमन होना है वह होकर ही रहेगा" ___ जो होना होगा वह होगा ही. हमाग कुछ भी द्रव्यकी विज्ञानसम्मत कार्यकारणपरम्पराके प्रतिकूल है। पुरुषार्थ नहीं है. इस तरह के निष्क्रिय नियतिवादके 'जं जस्स जम्मि' आदि भावनाएं हैंविचार जैनतत्त्वस्थितिके प्रतिकूल हैं। जो द्रव्यगत स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामे सम्यग्दृष्टिके चिन्तनमें ये शक्तियाँ नियत हैं उनमें हमारा काई पुरुषार्थ नहीं. दो गाथाएँ लिखी हैंहमाग पुरुषार्थ तो कोयलेकी हीरापुर्यायक विकास जंजम्स जम्मि देसे जेण विहारोण जम्मि कालम्मि। कराने में है। यदि कोयलेके लिए उसकी हीरापर्यायके णादं जिणेण णियदं जम्मं व अहव मरणं वा ॥३२॥ विकासके लिए आवश्यक सामग्री न मिले तो या तो तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । वह जलकर भस्म बनेगा या फिर खानिमें ही पड़े पड़े को चालेद सक्को इदो वा अह जिणि वा ॥३२२।। समाप्त हो जायगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि जिसमे अर्थात् जिसका जिस समय जहाँ जैसे जन्म या मरण उपादान शक्ति नहीं है उसका परिणमन भी निमित्त- होना है उसे इन्द्र या जिनेन्द्र कोई भी नहीं टाल से हो सकता है या निमित्तमें यह शक्ति है जो निरु- सकता. वह होगा ही। पादानको परिणमन करा सके। इन गाथाओंका भावनीयार्थ यही है कि जो जब उभय कारणोंसे कार्य होना है होगा उसमें काई किसीका शरण नहीं है आत्मनिर्भर रहकर जो आवे वह सहना चाहिए । इस कार्योत्पत्तिके लिए दोनों ही कारण चाहिएँ उपा तरह चित्तसमाधानके लिए भाई जानेवाली भावदान और निमित्त; जैसा कि स्वामीसमन्तभद्रने कहा नाओसे वस्तुव्यवस्था नहीं हो सकती । अनित्यहै कि “यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः' अर्थात् कार्य भावनामें ही कहते है कि जगत स्वप्नवत् है इसका बाह्य-श्राभ्यन्तर दोनो कारणोसे होता है। यही अनाधनन्त वैज्ञानिक कारण-कार्यधारा ही द्रव्य है जिसमें अर्थ यह कदापि नहीं कि शून्यवादियोंकी तरह जगत् पदार्थोंकी सत्तासे शून्य है बल्कि यही उसका तात्पर्य है पूर्वपर्याय अपनी सामग्रीके अनुसार सदृश, विमहश. कि स्वप्नकी तरह वह आत्महितके लिए वास्तविक कार्यअर्धसदृश, अल्पसदृश श्रादिरूपसे अनेक पर्यायोकी कारी नहीं है। यहाँ सम्यग्दृष्टिके चिन्तन-भावनामें उत्पादक होती है। मान लीजिए एक जलबिन्दु है. स्वावलम्बनका उपदेश है। उससे पदार्थव्यवस्था नही उसकी पर्याय बदल रही है, वह प्रतिक्षण जलबिन्द रूपसे परिणमन कर रही है पर यदि गरमीका निमित्त की जा सकती। मिलता है तो तुरन्त भाप बन जाती है। किसी मिट्टी- सबसे बड़ा अस्त्र सर्वज्ञत्वमें यदि पड गई तो सम्भव है पृथिवी बन जाय । यदि नियतिवादी या तथाक्त अध्यात्मवादियोंका सबसे साँपके मुंहमे चली गई जहर बन जायगी। तात्पर्य बड़ा तर्क है कि सर्वज्ञ है या नहीं? यदि मर्वज्ञ है यह कि एकधारा पूर्व-उत्तर पर्यायोंकी बहती है उसमें तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात भविष्यज्ञ भी होगा। जैसे जैसे संयोग होते जायेंगे उसका उस जातिमें परि- फलतः वह प्रत्यक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण णमन हो जायगा। गङ्गाकी धारा हरिद्वारमं जो है वह जो होना है उसे ठीकरूपमें जानता है। इस तरह कानपुरमें नहीं. और कानपुरकी गटर आदिका संयोग प्रत्यक परमाणुकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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