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________________ किरण ७ ] कर्म और उसका कार्य २५४ ही होती है। पहले साता वेदनीयका उदय होता है. इस बुराईको दूर करना है और सब जाकर इट सामग्रीकी प्राप्ति होती है ऐमा नहीं है किन्तु इष्ट मामग्रीका निमिन पाकर माता __ यद्यपि जैन कमवादी शिक्षाओं द्वारा जनताको वेदनीयका उदय होता है ऐमा है। यह बतलाया गया कि जन्मसे न कोई छूत होता है और न अछूत । यह भेद मनुष्यकृत है। एकके पास रेलगाड़ीसे सफर करनेपर या किसी मेलामें हमे अधिक पूँजीका होना और दृसंरके पास एक दमडी कितने ही प्रकारक आदमियाका समागम होता है। का न होना, एकका माटरोमे घूमना और दुसरंका काई हॅमता हुआ मिलता है तो काई राता हुआ। भीख मांगते हुए डालना यह भी कर्मका फल नहीं है, इनसे हमे सुग्व भी होता है और दुख भी। तो क्या क्योकि यदि अधिक पूंजीका पुण्यका फल और पूंजी य हमार शुभाशुभ कर्मोके कारण रेलगाडीमे सफर के न हानेको पापका फल माना जाता है तो अल्पकरने या मला ठंला देखने आय है ? कभी नहीं। संतापी और माधु दांना ही पापी ठहरंगे। किन्तु इन जैसे हम अपने कामसे सफर कर रहे है वसे वे भी शिक्षाओका जनता और साहित्यपर-स्थायी असर अपने अपने काममे सफर कर रहे है। हमारे और नहीं हुआ। उनके मंयोग-वियोगमे न हमारा कर्म कारण है और न अन्य लेग्यकोने ती नैयायिकांके कर्मवादका उनका ही कर्म कारण है। यह मंयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकतालीयन्यायसे समर्थन किया ही, किन्तु उत्तरकालवर्ती जैन लेग्वकाने सहज होता है । इसमें किसीका कर्म कारण नहीं है। जो कथामाहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक फिर भी यह अच्छे बुर कर्मके उदयमे सहायक होता कर्मवादका ही समर्थन होता है। वे जैन कर्मवादक रहता है। आध्यात्मिक रहस्यका एक प्रकारमे भूलने ही गये और उनके ऊपर नंयायिक कर्मवादका गहरा रंग नैयायिक दर्शनकी आलोचना चढ़ता गया । अन्य लग्बको द्वारा लिखे गय कथा साहित्यको पढ़ जाइयं और जन लेखको द्वारा लिखे इम व्यवस्थाको ध्यान रख कर नैयायिकोके गय कथा-साहित्यका पढ़ जाइय । पुण्य-पापके वर्णन कर्मवादकी आलोचना करनेपर उसमे हमे अनेक दोष करनेमे दानाने माल किया है। दाना ही एक दृष्टिदिखाई देते है। वास्तवमे देखा जाय तो आजकी काणसे विचार करत है । अन्य लखकांक ममान सामाजिक व्यवस्था. आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्रके जैन लेग्वक भी बाह्य आधारका लेकर चलन है। वे प्रति नैयायिकाका कर्मवाद ओर ईश्वरवाद ही उत्तरदायी जैन मान्यताके अनुमार कर्मोकं वर्गीकरण और उनके है। इमाने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका गुलाम बनाना अवान्तर भेदोका मवथा भूलने गय । जैन दर्शनम सिखाया । जातीयताका पहाड लाद दिया। परिग्रह- यद्यपि कर्मोक पुण्य-कर्म और पाप कर्म से भेद वादियोंकी परिग्रहके अधिकाधिक मंग्रह करने में मदद मिलते है पर इममे बाह्य मम्पत्तिका प्रभाव पाप दी। गरीबीका कर्मका दुर्विपाक बताकर सिर न कर्मका फल है और मम्पनि पुग्य कर्मका फल है यह उठाने दिया । दूत-अछून और स्वामी सेवक-भाव नहीं सिद्ध होता। गरीब होकर भी मनुष्य मुवी देवा पैदा किया। ईश्वर और कर्मके नामपर यह सब हममे जाता है और सम्पत्निवाला होकर भी वह दुखी देखा कराया गया। धर्मने भी इममे मदद की। विचारा जाता है। पुण्य और पापकी व्याप्ति मुख और दुग्यमे कम तो बदनाम हुआ ही धर्मका भी बदनाम होना की जा सकती है, अमीरी गरीबीसे नहीं। इमर्मास जैन पड़ा। यह संग भारतवर्ष में ही न रहा। भारतवर्षके दर्शनमें सातावेदनीय और अमाता वेदनीयका फल बाहर भी फल गया। सुख दुख बतलाया है, अमीरी गरीबी नहीं। किन्तु
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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