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________________ २६० अनेकान्त [वर्ष ६ जैन माहित्यमें यह दीप बराबर चालू है । इसी दाषके स्पष्ट घोपणा की थी कि सब मनुष्य एक है। उनमें कारण जैन जनताको कर्मकी अप्राकृतिक और काई जातिभेद नहीं है। बाह्य जो भी भेद है वह अवास्तविक उलझनम फमना पड़ा है। जब वे कथा- भाजीविकाकृत ही है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य यह जैनधर्म प्रन्यामे और सुभापितामे यह पड़ते हैं कि पुरुषका का मार है। इसकी उसने मदा रक्षा की है। यद्यपि भाग्य जागनेपर घर बैठे ही रत्न मिल जाते है और जैन लेखकाने अपने इस मतका बड़े जोरांसे समर्थन भाग्यके अभावमे भमुद्रमे पैठनेपर भी उनकी प्राप्ति किया था, किन्तु व्यवहारमें वे इसे निभा न सके। नहीं होती। मर्वत्र भाग्य ही फलता है। विद्या और धीरे-धीरे पडौमी धर्मके अनुमार उनमे भी जातीय पौरुष कुछ काम नहीं आता । तब वे कर्मवादके भेद जार पकड़ता गया। जैन कर्मवाटके अनुमार मामन अपना मस्तक टक दत है। व जैन कर्मवादके उच्च और नीच यह भेद परिणामगत है और चारित्र आध्यात्मिक रहस्यको मदाकं लिय भूल जाते है। उसका अाधार है । फिर भी उत्तर लेखक इम मत्यका वतमान कालीन विद्वान भी इम दापसे अन भूलकर आजीविकाके अनुमार उच्च-नीच भदको नही बचे हैं । वे भी धनसम्पत्तिके मद्भाव और। मानन लगे। असद्भावको पुण्य - पापका फल मानते है । उनक यद्यपि वर्तमानम हमार साहित्य और विद्वानोकी मामन आर्थिक व्यवस्थाका रमियाका सुन्दर उदाहरण यह दशा है तब भी निराश होनका काई बात नहीं है। है। मियामे आज भी थाड़ी बहन आर्थिक विपमता हम पुनः अपनी मूल शिक्षाओंकी और . नहीं है. एसा नहीं है। प्रारम्भिक प्रयोग है। यदि है। हम जैन कर्मवादक रहस्य और उसकी मर्यादाओं उचित दिशाम काम होता गया और अन्य परिग्रह- को समझना है और उनके अनुमार काम करना है। वार्दा अतण्व प्रकारान्तरसे मोनिकवादी राष्ट्रोका माना कि जिस बुराईका हमने ऊपर उल्लेख किया है अनुचित दबाव न पड़ा तो यह आर्थिक विषमता थाई वह जीवन और माहित्यम घुल-मिल गई है पर यदि ही दिनकी चीज है। जैन कर्मवादके अनुसार सांता- इस दिशाम हमारा दृढतर प्रयत्न चालू रहा तो वह असाता कमकी व्याप्ति सुग्व-दुखके साथ है. बाह्य पूजी- दिन दूर नहीं जब हम जीवन और माहित्य दानाम क मद्राव-असद्भावक माथ नहीं। किन्तु जैन लेखक आइ हुई इस बुराईका दूर करनमें सफल होंगे। अंर विद्वान आज इम मत्यका मा भूले हुए है। समताधर्मकी जय। गरीबी और पूँजीको पाप-पुण्य ___ मामाजिक व्यवस्थाकं सम्बन्धमे प्रारम्भमे यद्यपि कर्मका फल न बतलाने वाले कर्मवादकी जय । छूत जैन लेग्बकाका उतना दोष नहीं है। इस सम्बन्धम और अछूतको जातिगत या जीवनगत न माननेवाले उन्हान सदा ही उदारनाकी नीति बरती है। उन्होंने कर्मवादी जय । परम अहिमा धर्मकी जय । जैन जयतु शासनम
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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