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अनेकान्त
[वर्ष ९
गनीमत थी, भटकते-भटकते कभी तो सच्चे मार्ग- भी मिल गई और स्वयं नेता भी बन गये। दर्शकका पता पाते । परन्तु यहाँ तो कोई नेता है ही नेता बनना बुरा नहीं यदि त्याग और तपस्याके नहीं, नेताओंके वेषमे भेड़िये, बावले, अबोध और साथ-साथ कुछ कर गुजरनेकी चाह हो । परन्तु अकर्मण्य हमारे चारों ओर घूम रहे हैं। और अपनी केवल आजीविकाके लिये, अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूर्ण जुदा-जुदा डफली बजा रहे हैं, उम डफलीकी तानपर करने के लिये और अपनको अर्थ-चिन्तास निराकुल मस्त होकर कौन कुएमें गिरेगा और कौन खाईमें करनेके लिये नेता बनने का प्रयत्न दुखिया समाजको इसकी इन्हे न चिन्ता है और न सोचनेका समय है। पीठमे छुरा भोंकना है।
जैन ममाजके तीनों सम्प्रदायोंमें अखिलभारतीय ४ अल्पसंख्यकोंके सुधारमंस्था तीन भी होती तो भी ठीक थीं। परन्तु २
सन् १९२८ को दशलाक्षणीके दिन थे। मैं और दर्जनसे तो अब भी कम नहीं और कई संस्थाओं के
स्वर्गीय रायबहादुर साह जगमन्दरदासजी नजीबाबीजारोपण होरहे हैं । और तारीफ यह है कि इनके
बादमे धार्मिक और सामाजिक चर्चा कर रहे थे। अधिकारियोंको अपने निजी कार्योंसे लहमेभरकी
सुधारोंको लेकर जैनसमाजकी तू-तू, मैं-मै का भी फुरसत नहीं। कार्यालय मामली क्लर्क चलाते है
प्रमङ्ग छिड़ गया। रायबहादुर माहब एक ही सुलझे और इनकी ओरसे बहुत साधारण टकेपन्थी एक-एक
हुए आदमी थे, वे सहमा गम्भीर हो उठे और दो-दो उपदेशक गाँव-गाँवमे घूमते है। वे कहाँ जाते
बोले:-"गोयलीयजी, समाजकी शक्ति इन व्यर्थके है और क्या-क्या अनाप-शनाप कह पाते और
कार्योमे नष्ट होती देखकर मुझे बड़ा दुग्व होता है। उसका क्या फल होता है, यह जानने तकका अवकाश
इन छोटे-छोटे सुधारोंको लेकर हमारी समाजमे किसीके पास नहीं है। इन अखिल भारतीय मभाओं व्यर्थकी उथल-पथल मची हुई है" के अधिवेशन होते है । वह अधिवेशन क्यों होग्हा सधारांक विपक्षमे रायजनी करते सुनकर में है और क्या उपयोगी योजनाएँ ममाजके लिये रखनी
कुछ कहना ही चाहता था कि वे बोले-“घबराओ है, इसपर कार्यकारिणी कभी विचार तक नहीं करती। नहीं. मैं सधारोंका विरोधी नहीं आपसे अधिक विचार करनेको ममय ही नहीं, बमुश्किल बड़े दिन पक्षपाती है. परन्तु मैं समाजमे उन्हीं आन्दोलनोंका या ईस्टरकी छटियाम कंवल अधिवेशनमें मम्मिलित समर्थक है जो जैनसमाजसे मम्बन्ध रखते है और होनेको समय निकल पाना है। परिणाम यह होता है जैनतर बहमंख्यकों पर आश्रित नही है। मै कब कि विषय निर्वाचनीमे बैठे हुए महानुभाव वहीकी कहता है कि शास्त्रोद्धारका आन्दोलन बन्द कर दिया वही परम्पर विरोधी उलल-जुलूल प्रस्ताव गढ़ते जाय, यह आन्दोलन तो इतने वेगसे चलाया जाय रहते है, घण्टों बहम होती रहती है और अन्तमे कि एक भी शास्त्र अमुद्रित न रहने पाए, दस्साकुछका कुछ पाम होजाता है । न कोई यह मोचता है पजनाधिकार, अन्तर्जातीविवाहका आन्दोलन कि इस प्रस्तावका क्या प्रतिफल होगा, न कोई उसे श्राप खूब कीजिये। बाल और वृद्ध विवाह रोकिये, अमली रूप देनकी योजनापर ही विचार करता है। वर-विक्रय, वेश्यानृत्य, नुक्ता प्रथाको अविलम्ब बन्द
जिनके पास मस्थाएँ है, वे कुछ कर नहीं पारहे कराइये । यह सब आन्दोलन केवल अपनी समाजसे है, जिनके पास नहीं है वे किसी न किसी बहाने सम्बन्ध रखते हैं अत: इन्हे सहर्ष चलाइये और अपनी नई संस्था खोलने जारहे है। पानकी दुकान सफलता प्राप्त कीजिये।" खोलनेमें शायद असुविधा हो, परन्तु सस्था खोलने. "मरा प्राशय तो यह है कि वे आन्दोलन जो में कोई परेशानी नहीं। समाजसे चन्दा मिल ही हमारे इतर भिन्न धर्मियों, पड़ोसियों और सज तिओंजाता है, बस अपने दो-चार आदमियोंको आजीविका से सम्बन्ध रखते हैं उन्हे न छेड़ा जाय । क्योंकि यदि