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समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
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पर्यायभाव ठहरता है। पर्यायभाव होनेपर परस्पर भेदका-तब अस्तित्व बनता ही नहीं।' प्रतियोगी पदोंमें भी सभी मानवोंके द्वारा, घट-कुट व्याख्या-उदाहरणके तौरपर-जो सत्ताऽद्वैतशब्दोंकी तरह, चाहे जिसका प्रयोग किया जा सकता (भावैकान्तवादी यह कहता है कि अस्ति' पदका है । और चाहे जिसका प्रयोग होनेपर सपूर्ण अभिधेय अस्तित्व नास्ति' पदके अभिधेय नास्तित्वसे अभिधेयभूत वस्तुजात अन्य प्रतियोगीसे च्युत सर्वथा अभेदी (अभिन्न) है उसके मतमें पदों तथा (रहित) होजाता है-अर्थात् अस्तित्व नास्तित्वसे अभिधेयांका परस्पर विरोध भेदका कर्ता है क्योंकि सर्वथा रहिर होजाता है और इसमें सत्ताऽद्वैतका सत्ताऽद्वैत मतम सम्पूर्ण विशेषों-भेदोंका अभाव होने प्रमङ्ग पाना है। नास्तित्वका सर्वथा अभाव होनेपर से अभिधान और अभिधेयका विरोध है दोनों मत्ताऽद्वैत आत्महीन ठहरता है; क्योंकि पररूपके घटित नही होमकते, दोनोंको स्वीकार करनेपर त्यागके अभावमे स्वरूप-ग्रहणकी उपपत्ति नहीं बन अदेनता न होती है और उमसे सिद्धान्तविरोध सकती-घटकं अघटरूपके त्याग बिना अपने स्वरूप- र्धाटत होता है । इमपर यदि यह कहा जाय कि की प्रतिष्ठा नहीं बन सकती । इसी तरह नास्तित्वक 'अनादि-विद्याके वशसे भेदका सद्भाव है इससे सर्वथा अस्तित्वरहित होनेपर शून्यवादका प्रमङ्ग दोष नहीं तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि
आता है और अभाव भावके बिना बन नही सकता, विद्या-अविद्या भेद भी तब बनते नहीं। उन्हें यदि इससे शून्य भी श्रात्महीन ही होजाता है। शून्यका माना जायगा तो द्वैतताका प्रसङ्ग आएगा और उसमे म्वरूपसे भी अभाव होनपर उसके पररूपका त्याग सत्ताऽद्वैत मिद्धान्तको हानि होगी-वह नहीं बन अमभव है-जैसे पटक स्वरूप ग्रहणक अभावम सकेगा। अथवा अस्तित्व नास्तित्व अभेदी है यह शाश्वत अपटरूपके त्यागका अमभव है। क्योंकि कथन केवल आत्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी वस्तुका वस्तुत्व स्वरूप ग्रहण और पररूपकं त्याग- है (ऐसा 'च' शब्द प्रयोगसे जाना जाता है); क्योंकि की व्यवस्थापर ही निर्भर है। वस्तु ही पर द्रव्य-क्षेत्र जब भदका सर्वथा अभाव है तब अस्तित्व और कालकी अपेक्षा अवस्तु होजाती है। सकल स्वरूपसे नास्तित्व भेदोंका भी अभाव है। जो मनुष्य कहता शुन्य जुदी कोई अवन्तु संभव ही नही है । अत: है कि 'यह इमसे अभेदी है। उसने उन दोनोंका कोई भी वस्तु जो अपनी प्रतिपक्षभूत अवस्तुसे कचित् भंद मान लिया, अन्यथा वह वचन बन वर्जित है वह अपने प्रात्मस्वरूपको प्राप्त नहीं हाती'। नहीं सकता: क्योंकि कथंचित (किसी प्रकारसे) भी
यदि (मत्ताद्वैतवादियों अथवा सर्वथा शून्य- भेदीक न होनपर भदीका प्रतिवेध-अभेदी कहनावादियोंकी मान्यतानुसार मर्वथा अभेदका डावलम्बन विरुद्ध पडता है-कोई भेदी ही नहीं तो अभेदी (न लेकर) यह कहा जाय कि पद-अस्ति या नास्ति- भेदी) का व्यवहार भी कैसे बन सकता है ? नहीं (अपने प्रतियोगि पदके साथ मवथा) अभेदी है- बन सकता।
और इसलिये एक पदका अभिधेय अपने प्रतियोगि यदि यह कहा जाय कि शब्दभेद तथा विकल्पपरके अभिधेयसे च्युत न होनेके कारण वह श्रात्म- भेदके कारण भेदी होनेवालोंका जो प्रतिपेध है वह हीन नहीं है तो यह कथन विरोधी है अथवा इमसे उनके स्वरूपभेदका प्रतिषेध है तब भी शब्दों और उस पदका अभिधेय आत्महीन ही नहीं किन्तु विकल्पोंके भेदको म्वयं न चाहते हुए भी मझीके विरोधी भी होजाता है; क्योंकि किसी भी विशेषका- भेदको कैसे दूर किया जायगा, जिसमे द्वैनापत्ति होती १ "वस्त्वेवाऽवस्तृता याति पक्रियाया विपर्ययात् ।" है ? क्योंकि संझीका प्रतिपेध प्रतिषेध्य-महीके विरोधि चाऽभेद्यविशेषभावात्तयोतनः स्याद् णतो निपातः। अस्तित्व बिना बन नहीं सकता। इसके उत्तरमें यदि विपाद्य मन्धिश्च नांऽगभावादवाच्यता प्रायस लोपहेतुः ॥४३ यह कहा जाय कि 'दूसरे मानते हैं इसीसे शब्द और