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किरण है ]
इस पुस्तक आचार्य कुन्दकुन्द के पचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार नामके तीन प्रन्थोंके मुख्य विषयोका अपने ढङ्गसे एकत्र सग्रह और सङ्कलन किया गया है। इससे संक्षेप- प्रिय पाठकोको विषय-विभागसे तीनों ग्रन्थोका रसास्वादन एक साथ होजाता है । लेखकका यह प्रयत्न और परिश्रम प्रशंसनीय है । पुस्तकके उपोद्घातमे प्रन्थकर्ता. उनके ग्रन्थों तथा उनकी गुरुपरम्पराका भी संक्षेपमें परिचय दिया है। पुस्तक अच्छी उपयोगी एवं संग्रहणीय है । छपाई - सफाई सब ठीक है ।
१४. करलक्खण (सामुद्रिकशास्त्र) – संपादक प्रफुल्लकुमार मोदी एम० ए०. प्रो० किङ्ग एडवर्ड कॉलेज अमरावती । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी | पृष्ठ संख्या सब मिलाकर ३८ । मूल्य, सजिल्द प्रतिका १)
इस अज्ञात कतृक पुस्तकके नामसे ही उसके विषयका परिचय मिल जाता है। इसमें शारीरिक विज्ञानके अनुसार हाथकी रेखाओकी आकृति. बनावट रूप रङ्ग कोमलता कठोरता स्निग्धता और रूक्षता तथा सूक्ष्म-स्थूलनादिकी दृष्टिसे विभिन्न रेखाका विभिन्न फल बतलाया गया है। शरीर सबन्धी चिह्नो या रेखाओं के द्वारा मानवीय प्रवृत्तियोके शुभाशुभ फलका निर्देश करना भारतीय सामुद्रिकग्रन्थीकी प्राचीन मान्यता है । इस विपयपर भारतीय साहित्य में अनेक ग्रन्थोकी रचना हुई है। प्राक्कथनद्वारा डाकर ए.एन. उपाध्ये एम.ए ने इमपर संक्षेपतः प्रकाश डाला है ।
वीरसेवामन्दिर में भी एक अज्ञान कर्तृ के कररेहालक्खण' नामका ५६ गाथाप्रमाण छोटा-सा सामुद्रिक ग्रन्थ है जो एक प्राचीन गुटकेपरसे उपलब्ध हुआ है। इन दोनों ग्रन्थोका विषय परस्पर मिलता-जुलता है और कहीं-कहीपर गाथा तथा पदवाक्य भी मिलते हैं। परन्तु मङ्गलाचरण दोनोका भिन्न-भिन्न है। दोनों प्रथोको सामने रखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उनपर एक दूसरेका प्रभाव स्पष्ट है। वे मङ्गल पद्य इस प्रकार है:पणमिय जिणममित्रगुणं गयरायसिरोमणि महावीरं । वुच्छं पुरिसत्थीगं करलक्खणमिह समासेणं ||१|| - मुद्रित प्रति
साहित्य-परिचय और समालोचन
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वंदित्ता अरिहंते सिद्ध आयरिय सव्वसाहूय । संखेवेण महत्थं कररेहालक्खणं वुच्छं ॥१॥ - लिखित प्रति मुद्रित प्रतिमें मङ्गलाचरणके बाद निम्न गाथा दी हुई है :
पावइलाहालाहं सुहदुक्खं जीविश्रं च मरणं च । रेहाहि जीवलोए पुरिसोविजयं जयं च तहा ||२|| परन्तु लिखित प्रतिमें इस स्थानपर निम्न दो गाथाएँ दी हुई हैं जिनमेंसे प्रथम गाथाका चतुर्थ चरण भिन्न है शेष तीन चरण मिलते-जुलते हैं । किन्तु तीसरी गाथा मुद्रित प्रतिमें नहीं मिलती।
पाइलाला सुह- दुक्खं जीविय मरणं च । रेहाए जीवलोए पुरिसो महिलाइ जाणिज्जइ ॥२॥
पुत्तं च धणं कुलवंसं देह- संपत्ती | पुव्वभव संचियाणि य पुन्नाणि कहंति रेहा ॥३॥ इन उद्धरणोसे स्पष्ट है कि एक ग्रन्थपर दूसरेका प्रभाव अवश्य है ।
१५. मदनपराजय- मूल लेखक, कवि नागदेव । अनुवादक-सम्पादक. पं० राजकुमारजी साहित्याचार्य । प्रकाशक. भारतीय ज्ञानपीठ काशी । पृष्ठ संख्या. सब मिलाकर २४२ । मू० सजिल्द प्रतिका ८) रुपया ।
प्रस्तुत ग्रन्थ एक रूपक-काव्य है. जिसमें कामदेव के पराजयकी कथाका भावपूर्ण चित्रण किया गया है। कविने अपनी कल्पना - कलाकी चतुराईसे कथावस्तुकी घटनाको अपूर्व ढङ्गसे रखनेका प्रयत्न किया है और वह इसमें सफल भी हुआ है। प्रस्तुत रचना बड़ी ही सुन्दर एवं मनोमोहक है और पढ़नेमे अच्छी रुचिकर जान पड़ती है । सम्पादकद्वारा प्रस्तुत प्रथका मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद भी साथमें दिया हुआ है । प्रन्थके आदिमे महत्वपूर्ण प्रस्तावनाद्वारा भारतीय कथासाहित्यका तुलनात्मक विवेचन करके उसपर कितना ही प्रकाश डाला गया है। पं० राजकुमारजी जैनसमाजके एक उदीयमान विद्वान और लेखक हैं। आशा है भविष्य में आपके द्वारा जैन साहित्य सेवाका कितना ही कार्य सम्पन्न हो सकेगा। प्रस्तुत प्रन्थ पठनीय व संग्रहणीय है । - परमानन्द शास्त्री