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रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
[सम्पादकीय]
(गत किरणमे प्रागे)
अब मैं प्रा. हीगलालजीकी शेप नीनों आपत्तियों- समय (ईसवी सन् ८१६के लगभग) के पश्चात और पर भी अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना वादिराजके समय अर्थात शक स० ९४७ (ई. सन चाहता है; परन्तु उसे प्रकट कर देनके पूर्व यह बतला १०२५) से पूर्व सिद्ध होता है। इस समयावधिके देना चाहता है कि प्रो० साहबने, अपनी प्रथम मूल प्रकाशमे रत्नकरण्डश्रावकाचार और रत्नमालाका श्रापत्तिको “जैन-माहित्यका एक विलुप्त अध्याय' रचनाकाल समीप आजाते है और उनके बीच नामक नियन्धमे प्रस्तुत करते हए, यह प्रतिपादन शताब्दियोंका अन्तराल नहीं रहता"' साथ ही आगे किया था कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्यके चलकर उसे तीन आपत्तियोंका रूप भी दे दिया२; उपदेशोंके पश्चात उन्हीके समर्थनमे लिखा गया है, परन्तु इस बातको भुला दिया कि उनका यह सब
और इसलिये इसके कर्ता वे ममन्तभद्र होसकते हैं प्रयत्न और कथन उनके पूर्वकथन एव प्रतिपादनके जिनका उल्लेख शिलालम् व पट्रालियोंम कुन्दकुन्द- विरुद्ध जाता है। उन्हें या तो अपने प्रवकथनको के पश्चात पाया जाता है । कुन्दकुन्दाचार्य और वापिस ले लेना चाहिये था और या उसके विरुद्ध उमाम्यामिका समय वीरनिर्वाण लगभग ६५० वर्ष इस नये कथनका प्रयत्न तथा नई आपत्तियोंका पश्चात (विम० १८०) सिद्ध होता है-फलत: रत्न- आयोजन नहीं करना चाहिये था। दोनों परस्पर करण्डश्रावकाचार और उसके कर्तासमन्तभद्रकासमय विरुद्ध बातें एक साथ नहीं चल सकती। विकमकी दूमरी शताब्दीका अन्तिम भाग अथवा अब यदि प्रोफेसर साहब अपने उम पूर्व कथनको तीमरी शताब्दीका पूर्वाध होना चाहिये (यही ममय वापिस लेते है तो उनकी वह थियोरी (Theon) जैनममाजमे आमतौरपर माना भी जाता है)। माथ अथवा मत-मान्यता ही बिगड़ जाती है जिसे लेकर ही, यह भी बतलाया था कि 'पत्रकाण्डके कर्ता वे 'जैन-साहित्यका एक विलुप्त अध्याय' लिखनेमे ये ममन्तभद्र उन शिवकोटिक गुरु भी होसकते है प्रवृत्त हुए है और यहाँ तक लिख गये है कि वोडिकजो रत्रमालाके कर्ता है"। इम पिछली बातपर सङ्घके संस्थापक शिवभूति, विरावलीमे उल्लिखित आपत्ति करते हुए प० दरबारीलालजीने अनेक प्राय शिवभूति, भगवती आराधनाके कता शिवार्य युक्तियांक आधारपर जब यह प्रदर्शित किया कि रत्न- और उमास्वातिक गुरुके गुरु शिवश्री ये चारों एक माला एक आधुनिक प्रन्थ है, रनकरण्डश्रावकाचारसे ही व्यक्ति है। इसी तरह शिवभूतिके शिष्य एवं शताब्दियो बादकी रचना है, विक्रमकी ११वीं शताब्दी- उत्तराधिकारी भद्र, नियुक्तियोंक कर्ता भद्रबाहु, द्वादशके पूर्वकी तो वह हो ही नहीं सकती और न रन- वर्षीय दुर्भिक्षकी भविष्यवाणी के कर्ता व दक्षिणापथकरण्डश्रावकाचारके कर्ता ममन्तभद्र के साक्षात शिष्य को विहार करने वाले भद्रबाह, कुन्दकुन्दाचार्यके गुरु की कृति ही होसकती है तब प्रो० माह बने उत्तरकी भद्रबाह, बनवासी सहक प्रस्थापक मामन्तभद्र और धुनम कुछ कल्पित युक्तियोंके आधारपर यह तो लिख आप्रमीमांसाके कर्ता समन्तभद्र ये सब भी एक दिया कि "रलकरण्डकी रचनाका ममय विद्यानन्दके ही व्यक्ति है।' १ जैन इतिहासका एक विलुप्त श्रयाय पृ० १८, २०। १ अनेकान्त वर्ष ७, किरण ५-६, पृ० ५४ । २ अनेकान्त २ अनेकान्त वर्ष ६, किरगा १२, पृ० ३८० ३८२ | वर्ष ८,कि ३, पृ० १३२ तथा वर्ष ६, कि १ पृ०६,१० ।