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________________ किरण ३] रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमे मेरा विचार और निर्णय १०३ और त्रिमृढतारहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया म्पसे उल्लेख करनेकी जरूरत होती, बल्कि उसीमे गया है उनका क्रमशः स्वरूप निर्देश करते हुए, इम अन्तर्भत है । टीकाकारने भी शान्दके 'लौकिक' और पद्यमे पहले 'प्राप्त' का और इसके अनन्तर 'तपाभृत' शास्त्रज' ऐस दो भेदोंकी कल्पना करके, यह सूचित का स्वरूप दिया है. यह पा यहां दोनोके मध्यम किया है कि इन दोनोंका ही लक्षण इम आठवे पद्यअपने स्थानपर स्थित है, और अपने विषयका एक में आगया है। इससे ९वे पद्यम शाब्दक 'शवाज' ही पद्य है । प्रत्युत इमक, न्यायावतारम, जहाँ भी यह भेदका उल्लेख नहीं, यह और भी स्पष्ट होजाता है। नम्बर ९ पर स्थित है, इस पद्यकी स्थिति मौलिकता- तीमरे, प्रन्थभरमे, इमसे पहले, 'शास्त्र' या 'प्रागमकी दृष्मिं बहुत ही मन्दिग्ध जान पड़ती है-यह उमका शब्दका कही प्रयोग नहीं हश्रा जिमके स्वरूपका कोई आवश्यक अङ्ग मालम नहीं होता और न इमको प्रतिपादक ही यह ९ वा पदा समझ लिया जाता, निकाल देने वहाँ ग्रन्थक मिमिलेम अथवा उमके और न शास्त्रज' नामक भेदका ही मूलग्रन्थमे कोई प्रतिपादा विषयम ही कोई बाधा आती है। न्याया- निर्देश है जिसके एक अवयव (शाम्र) का लक्षणवतारम परोक्ष प्रमाणके 'अनुमान' और 'शब्द' में प्रतिपादक यह पदा हो सकता । चौथे, यदि यह कहा दो भेदोंका कथन करते हुए, म्वार्थानुमानका प्रतिपादन जाय कि व पाम 'शाब्द' प्रमाणको जिम वाक्यम और समर्थन करने के बाद इस पाम ठीक पहले उत्पन्न हुश्रा बतलाया गया है उमीका 'शान' नामम 'शाब्द' प्रमाणके लक्षणका यह पद्य दिया हुआ है-- अगले पद्यम स्वरूप दिया गया है तो यह बात भी 'पाव्याहनाद्वाम्यान परमार्थाभिधायिनः । नहीं बनती, क्योंकि वे पदाम ही 'टाव्याहती' तत्त्वग्राहितयात्पन्न मानं शाब्द प्रकीर्तितम ॥ श्रादि विशेषग्णाकं द्वारा वाक्यका स्वरूप दे दिया गया इम पाकी उपस्थितिम इमकं बादका उपयुक्त है और वह स्वरूप अगले पद्यम दिय हा शासक स्वरूपसे प्रायः मिलता जुलता है-उसके 'दएटापदा. जिमम शास्त्र (आगम) का लक्षण दिया हुआ है, व्याहत' का 'अरणाविराधक' क माथ माम्य है कई कारणांस व्यथ पडता है। प्रथम ता उमम शास्त्र और उममे 'अनुल्लघ्य' तथा 'श्रामोपझ' विशेषणोंका लक्षण अागम-प्रमाणरूपमं नहीं दिया----यह नहीं का भी ममावेश हो मकना है, 'परमार्थाभिधायि' बतलाया कि ऐसे शास्त्रमे उत्पन्न हुश्रा ज्ञान' श्रागम विशंपण 'कापथघटन' और 'माव' विशंपणांक भावप्रमाण अथवा शाब्दप्रमाग कहलाता है, बल्कि मामान्यतया आगमपदार्थक रुपम निदिष्ट हश्रा है, " का द्यानक है; और शाब्दप्रमाणको 'तत्वमा ह. नयात्पन्न प्रतिपादन करने यह स्पष्ट ध्वानन है कि जिसे 'रत्नकरण्डम मम्यग्दशनका विषय बनलाया वह वाक्य 'तत्वापदशकृत' माना गया है-हम नरह गया है। दुमर, शाब्दप्रमाणम शाम्रप्रमाण कोइ भिन्न । दानों पद्याम बहन कुछ माम्य पाया जाना है। मी वस्तु भी नहीं है, जिसकी शाब्दप्रमागकं बार पृथक हालनम ममधन उद्धरणक मिवाय प्रन्थ-मन्दभक १ मिर्पिको टीकाम इम पयमे पहले यह प्रना-ना वाक्य माथ उसकी दुमरी कोई गति नहीं: उमका विषय दिया हुअा है-"तदेव स्वानुमानल नण प्रतिपा पनरक्त ठहरता है । पाँचव, प्रन्थकारने म्वय अगल नद्वता भ्रान्तताविप्रतिपनि च निगकृत्य अधुना प्रतिपादित पद्यम वाक्यको उपचारमे 'पगानुमान' बनलाया पगवानुमानलक्षण एवाल्यवक्तव्यत्वान नावच्छाद है। यथा--- लक्षणमाद”। म.निश्चयवदन्येषां निश्रयोत्पादन बुध । २ म्व-परावभामी निर्वाध जानको हीन्यायावतारके प्रथम पम परराथे मानमाख्यान वाक्य नदुपचाग्नः ॥१८॥ प्रमाणका लक्षण बतलाया है, इसलिये प्रमाण प्रत्येक १ "शान्द च द्विधा भवति--- नाकिक शाम्बज चति । भेदमे उमकी व्याप्ति होनी चाहिये । तत्रद योरपि माधारण लक्षण प्रतिपादितम"।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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