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अनेकान्त
तथा उसके किसी विषय विशेषका । वादिराज से पूर्व का जो साहित्य अभीतक अपनेको उपलब्ध है उसमे यदि प्रन्थका नाम 'रत्नकरण्ड' उपलब्ध नहीं होता तो उससे क्या ? रत्नकरण्डका पद-वाक्यादिकं रूपमे साहित्य और उसका विपर्याविशेष तो उपलब्ध होरहा है: तब यह कैसे कहा जा सकता है कि 'रत्नकरण्डका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है' ? नहीं कहा जा सकता।
पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धिमे स्वामी समन्नभद्रके मन्थोंपर से उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थको कही शब्दानुमरणकं, कहीं पदानुसरणके, कहीं वाक्यानुसरके, कहीं अर्थानुसरणके, कही भावानुसरणके, कही उदाहर णके, कही पर्यायशब्दप्रयोग के और कही व्याख्यान - विवेचनादिकं रूपमें पूर्णतः अथवा श्रशतः अपनाया है - प्रहरण किया है और जिसका प्रदर्शन मैंन 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक अपने लेख किया है। उसमे आतमीमांसा, स्वयभूस्तोत्र और युक्तयनुशासनके अलावा रत्नकरण्डश्रावकाचार के भी कितने ही पद-वाक्योंको तुलना करके रखा गया है जिन्हें सर्वार्थसिद्धिकारने अपनाया है, और इस तरह जिनका सर्वार्थसिद्धिमं उल्लेख पाया जाता है। अकलङ्कदेवकं तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्द वातिकमे भी ऐसे उल्लेखांकी कमी नही है । उदाहरण के तौरपर तत्त्वार्थसूत्र-गत ॐ वं अध्यायके 'दिग्देशाऽनर्थदण्ड' नामक २१ वे सूत्र से सम्बन्ध रखने वाले "भांग- परिभोग-सख्यान पचविधत्रसघातप्रमाद बहुवधाऽनिप्राऽनुपसेव्य विषयभेदान " इस उभय-वानिक-गत वाक्य और इसकी व्याख्याओंको रत्नकरण्डके 'महतिपरिहरणार्थ,' 'अल्पफल बहुविघातात' 'यदनिष्ट तद् व्रतयेत्' इन तीन पथों (न० ४, ५, ६ ) के साथ तुलना करके देखना चाहिये, जो इस विषय मे अपनी खास विशेषता रखते है ।
[ वर्ष ९
तौरपर प्रो० साहबके सामने यह बतलाने के लिये रखे गये कि 'रत्नकरण्ड मर्वार्थसिद्धिके कर्ता । पूज्यपाउसे भी पूर्वकी कृति है और इसलिये रत्नमालाके कर्ता शिवकोटिक गुरु उसके कर्ता नहीं हो सकते' तो उन्होंने उत्तर देते हुए लिख दिया कि "सर्वार्थसिद्धिकारने उन्हें रत्नकरण्डसे नहीं लिया, किन्तु सम्भव है रत्नकरण्डकारने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धि के आधार से की हो" । साथ ही रत्नकरण्डके उपान्त्य - पद्मयेन स्वय वीतकलङ्कविद्या'को लेकर एक नई कल्पना भी कर डाली और उसके आधारपर यह घोषित कर दिया कि 'रत्नकरण्डकी रचना न केवल पूज्यपाद में पश्चातकालीन है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दसे भी पीछे की है'। और इसीको आगे चलकर चौथी आपत्तिका रूप दे दिया । यहाँ भी प्रो० साहबने इस बातको भुला दिया कि 'शिलालेखोंके उल्लेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्यके उत्तरवर्ती जिन समन्तभद्रको रत्नकरण्डका कर्ता बतला आए है उन्हें तो शिलालेखोंमे भी पुत्र्यपाद, अक्ल और विद्यानन्दके पर्ववर्ती लिखा है, तब उनके रत्नकरण्डकी रचना अपने उत्तरवर्ती पूज्यपादादिके बाद की अथवा सर्वार्थसिद्धि के आधारपर की हुई कैसे हो सकती है ?' अस्तु, इस विषय में विशेष विचार चौथी आपत्तिके विचाराऽवसरपर ही किया जायगा ।
यहापर मै साहित्यिक उल्लेखका एक दूसरा स्पष्ट उदाहरण ऐसा उपस्थित कर देना चाहता हूँ जो ईमाकी ७वी शताब्दी के ग्रन्थम पाया जाता है और वह है रत्नकरण्ड श्रावकाचार के निम्न पद्यका मिद्धसेनकं न्यायावतार में ज्योंका त्यों उद्धृत होना
परन्तु मेरे उक्त लेख पर से जब रत्नकरण्ड और सर्वार्थसिद्धिके कुछ तुलनात्मक अश उदाहर एकं १ श्रनेकान्त वर्ष ५, किरण १० ११, पृ० ३४६ ३५२
मोपज्ञमनुल्लध्यम दृष्ट-विरोधकम् । तोपदेशकृत्मार्थ शास्त्र कापथ घट्टनम ||९|| यह पद्य रत्नकरण्डका एक बहुत ही आवश्यक अङ्ग है और उसमे यथास्थान- यथाक्रम मूलरूपसे पाया जाता है। यदि इस पद्यको उक्त प्रन्थसे अलग कर दिया जाय तो उसके कथनका सिलसिला ही विगड जाय । क्योंकि ग्रन्थमे, जिन श्रम, आगम (शास्त्र) और तपोभृत (तपस्वी) के अष्ट अङ्गसहित