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अनेकान्त
[ वर्ष ९
इन मब बातों अथवा कारणाम यह स्पष्ट है कि अनुमार यह कह ही नहीं सकते कि वह ग्रन्थका न्यायावतारमे 'श्रामोपज्ञ' नामक व पाकी स्थिति अङ्ग नहीं-प्रन्थकारक द्वारा योजित नही हुआ बहुत ही मन्दिग्ध है, वह मूल प्रन्थका पद्य मालम अथवा ग्रन्थकारमं कुछ अधिक समय बाद उसमें नहीं होता । उम मृलग्रन्थकार-विचिन ग्रन्थका प्रविष्ट या प्रक्षिम हुआ है। चुनांचे प्रो० साहबने वैसा
आवश्यक अङ्ग मानने पूर्वोत्तर पद्यांक मध्यम उमकी कुछ कहा भी नहीं और न उस पद्य न्यायावतारमे ति व्यर्थ पड़ जाती है, ग्रन्थकी प्रतिपादन-शैली उदधृन हानकी बानका स्पष्ट शब्दाम काई युक्तिपुरस्मर भी उसे स्वीकार नहीं करनी, और इलिय वह विरोध ही प्रस्तुत किया है-वे उमपर एकदम अवश्य ही वहाँ एक उदधृत पद्य जान पड़ता है, जिसे मान हो रहे है। 'वाक्य' म्वरूपका समर्थन करने के लिय रत्नकरण्डपरम "उक्तम्ब' आदिकं रुपम उदधृत किया गया है।
श्रनामे प्रबल माहित्यिक उल्लग्योंकी मौजदगीउद्धरणका यह कार्य यदि मलग्रन्थकारके द्वारा नही
म रत्नकरण्डको विक्रमकी ५५वी शताब्दीकी रचना हा है तो वह अधिक ममय बादका भी नही है;
अथवा रत्नमालाकारकं गुरुकी कृति नहीं बतलाया क्योंकि विक्रमकी १८वी शताब्दीक विद्वान आचार्य
जा मकता और न इम कल्पित समयकं आधारपर सिद्धपिकी टीकाम यह मूलरूपम परिगृहीत है, जिमम
उमका आप्तमीमामाम भिन्नकतृत्व ही प्रतिपादित यह मालूम होता है कि उन्हें अपने ममयम न्याया
किया जा मकता है । यदि प्रोल माहब माहित्यक वतारकी जो प्रतियों उपलब्ध थी उनमें यह पय
उल्नबादिको कोई महत्व न देकर ग्रन्थके नामोल्लेबमृलका अङ्ग बना हुआ था। और जबतक मिद्धपिमे
को ही उमका उल्लेग्य ममझते हों तो वे आप्रमीमामापूर्वकी किमी प्राचीन प्रतिम उक्त पय अनुपलब्ध न
फी कुन्दकुन्दाचार्य पर्वकी नो क्या, अकलङ्कके हो तबतक प्रो० माहब तो अपनी विचार-पद्धति'क
ममयस पृर्वकी अथवा कुछ अधिक पूर्वकी भी नहीं
कह मकंगे क्योंकि अकलङ्कम पूर्वक माहित्यम उमका १पो० माहबकी दम विचारपद्धतिका दर्शन उम पत्रपरम नामोल्लेख नहीं मिल रहा है। ऐसी हालतमे प्रो० भले प्रकार होमकना है जिसे उन्होंने मर उम पत्रके माहबकी दृमरी आपत्निका कोई महत्व नहीं रहता,
नरम लिया था जिमम उनसे रत्नकरराडके उन मान वह भी समुचित नही कहीं जा मकनी और न उसके पयो की बाबत मयुक्तिक गय मांगी गई थी जिन्ह मनं द्वाग उनका अभिमन ही मिद्ध किया जा सकता है। रनकरगडकी प्रस्तावनाम मन्दिग्ध कर दिया था पार
(अगली किरणम ममास) जिस पत्रको उन्हो ने गरे पत्र सहित अपने पिछले लेग्व (अनेकान्त वर्ग कि०१पृ० १२) में प्रकाशित किया है।
वीरसेवामन्दिरको सहायता
श्रीमान ला० घनश्यामदामजी जैन मी मुलतान वान प्राप्राइटर 'इन्द्राहोजरी मिल्म' जयपुरन, । प० अजितकुमारजा शास्त्री की अंग्णाका पाकर स्वर्गीय ला विरीलालजीकं दानमम १०५). वीरसेवामन्दिरको उमकी लायब्रर्गको महायतार्थ प्रदान किये है। इसके लिय उक्त लाला माहब और शास्त्रीजी दोनों ही धन्यवादका पात्र है।
अधिमाता