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अनेकान्त
[वर्ष ९
अगर आप हमें न देकर मिर्फ १-२ को देकर चले अपनी दानशीलताकी खाज मिटाई गई। कारमें सब जायेंगे तो सारा गाँव इन्हें हलका समझेगा, ताना साथी मुँह लटकाये दिल्ली वापिस जारहे थे, हम बड़े मारेगा, इसी डरसे यह लोग नहीं लेते हैं न लेंगे। या ये किसान, शायद इसी समस्याको सब
बड़ा जी खराब हुआ, जिन्हे मचमुच सहायताकी सुलझा रहे थे। जरूरत थी, उन्हें भी सहायता न दी जासकी ।
-४लाचार कार में बैठकर नहरकी पटरी-पटरी दिल्लीकी डालमियाँनगरमें सहारनपुरके चौ० कुलवन्तओर वापिस जारहे थे कि नहरके किनारे कुछ राय जैन रहते थे । ५०-५५ वर्षकी आयु होगी। लोग औरतों बच्चों ममेत दिग्बाई दिये तो कार जीशकर, खशपोश और बड़ी वजह कतहके बुजुर्ग रुकवा ली। पूछने पर मालूम हुआ कि गाँवमे पानी
थे। घर के आसूदा थे, मगर व्यापारमें घाटा आजानेश्राजानेसे यह लोग यहाँ श्रागये हैं और ज्यादातर से यहाँ सर्विस करके दिन गुज़ार रहे थे। मामूली किसान जाट हैं।
वेतन और मामूली पोस्ट पर काम करते थे। मेरे पास हमने जब इमदाद देनेकी बात उठाई तो वे
अक्सर आया करते और बड़ी नजमवेकी बाते लोग बातको टाल गये, दुबारा कहा तो ऐसे चुप
सुनाया करते थे। निहायत खुश अखलाक बामजाक, होगये जैसे कुछ सुना ही नहीं। फिर तनिक ज़ोर
नकचलन और कायदा करीनक इन्सान थे। उनकी देकर कहा तो बोले-आपकी मेहरबानी, हमे किसी
सुहबतमे जितना भी वक्त सर्फ हुआ, पुरलुत्फ रहा। चीज़की दरकार नही, भगवानका दिया सब
हर इन्सानको घरेलू परेशानियाँ और नौकरी
मम्बन्धी अमुविधाएं होती है, मगर २.३ सालके उस गाँवकी भिक्षुक मनोवृत्ति देखकर हम जो असेंम एकबार भी जबानपर न लाये। मिल क्षेत्रोंमे गाँव वालोंके प्रति अपनी राय कायम कर चुके थे जहाँ बैठे बिठाये, लोगोंको उत्पात सझते रहते है। वह उड़ती नजर आई तो हमने अपनी दानवीरताक इक्रीमेण्ट, (वार्षिक तरक्की) बोनस (नौकरीके अतिबड़प्पनके स्वरमे तनिक मधुरता घालते हुए कहा- रिक्त वार्षिक भत्ता) डेज़िगनेशन (पद) और ऑफि"सोचकी कोई बात नही, तुम्हारा जब सब उजड़ ससकी शिकायते, किन्कलाब, मुर्दावाद और हाथगया है, तो यह सामान लेनेमे उन किस बातका ? हाथके नारोंसे अच्छे अच्छोंक श्रासन और मन यह तो लाये ही आप लोगोंके लिये हैं।"
हिलजाते है । तब भी उनके चहरंपर न शिकन हमारी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी, शिष्टाचारके दिखाई दी, न जबानपर हफेशिकायत । नाते उन्होंने कहा तो शायद कुछ नहीं, फिर भी उनका इकलौता लड़का रुड़की कॉलेजमे इञ्जीउनके मनोभाव हममे छिपे नही रहे। उन्होंने मौन नियरिङ्ग पढ़ रहा था । शायद ८०) रु. मासिक रहकर ही हमपर प्रकट कर दिया कि जो स्वयं भेजने पड़ते थे । मै जानता था यह उनके बूतेके अन्नदाता है, वे हाथ क्या पसारेगे? फिर भी हमारे बाहर है, उन्हे बमुश्किल इतना कुल वेतन मिलता मन रखनको उनमेसे एक बूढ़ा बोला-"लाला- था। अतः मै समझता था कि या तो धीरे-धीरे बचे हम सब बड़े मौजमे हैं, अगर कुछ देनेकी समाई है खुचे जेवर सर्फ होरहे है या सरपर ऋण चढ़ रहा तो उस टीलेपर हमारे गाँवका फकीर पड़ा है, उसे है। पूछनेकी हिम्मत भी न होती थी, पू→ भी जो देना चाहो दे आओ । हम सब अपनी-अपनी किस मुंहसे ? गुजर-बसर कर लेगे। उसकी इमदाद हमारे आखिर एक रोज़ जी कड़ा करके मैने रास्तेमे बसकी नहीं।"
उनसे माहू साहबसे छात्रवृत्ति लेने के लिये कह ही आखिर उस फकीरको ही थाटा-वस्त्र देकर दिया। सुनकर शुक्रिया अदा करके मन्दिरजी चले