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अनेकान्त
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अतः अब इस प्रबल आन्दोलनको आवश्यकता वाला अनुष्ठान होना चाहिये सो नहीं हो पाता। जबतक है कि नारीसे बलात्कार करनेपर भी उसका सतीत्व प्राचीन कीर्तिकलाकी जड़ें कुछ अंशोमें हरी न होजायें अखण्ड रहता है। कोई पापी कुछ ही ग्विलादे और तबतक कोई भी व्यक्ति हमारे समाजको शिक्षित कैसे और कुछ भी करले. पर धमभृष्ट नहीं होता। क्योकि मान सकता है ? जैन विद्यालयों में जो बालकोको शिक्षा धर्म आत्माकी तरह अजर-अमर है। न इसे कोई नष्ट दी जाती है वह उनके नैतिक विकासके लिये तो कर सकता है. न छीन सकता है, न अपवित्र कर पर्याप्त है ही परन्तु यदि समाज अजैन शिक्षा-विपयक सकता है। जो धर्म आत्माको परमात्मा बनानेकी संस्थाओमें जैन पीठ स्थापितकर मांस्कृतिक अनुअमोघ शक्ति रखता है. वह किसीसे भी छिन्न-भिन्न शीलनका काम करे-करवावे तो बौद्धिक जीवन यापन नहीं हो सकता। .
करनेवाले समाजका बहुत बड़ा उपकार हो सकता है। दालमियानगर (विहार)
-गोयलीय और मै तो मानता है कि जैन संस्कृतिर्की सच्ची सेवा १६ जौलाई १६४८
किसी न किसी रूपमें हो सकती है। मै समाजका श्रीशान्तिनिकेतनमें जैनशिक्षापीठकी
ध्यान कविवर श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रस्थापित
शान्तिनिकेतन आश्रमकी ओर खीचना चाहता हूँ, • आवश्यकता
जहाँपर भारतीय संस्कृति और सभ्यताके सभी अङ्गाआज दुनियाके सामने जो जलती हुई समस्याएँ का समुचित अध्ययन बड़े मनोयोग-पूर्वक कराया हैं उनमें शैक्षणिक समस्या बहुत ही अधिक महत्त्व जाता है । शायद ही भारतका काई शिक्षित व्यक्ति रखती है क्योंकि किसी भी राष्ट्रकी सांस्कृतिक स्थिति- ऐसा होगा जो वहॉकी शिक्षण - प्रणालिकासे की रक्षा शिक्षाकी मजबूत नींवपर ही अवलम्बित है। अपरिचित हो। मानवके आधिभौतिक और आध्यात्मिक उन्मतिके कलकत्तासे पटनाकी और विहार करते हए मुझे मूल इसीमें सन्निविष्ट है। बात बिल्कुल दीपकवत कुछ यहां पर रहनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, वहाँ स्पष्ट है। अतः शिक्षा-विषयक अधिक लिखना या पर मैंने चीनाभवन. हिन्दीभवन, प्राच्यविद्याभवन, विचार करना उपयुक्त नहीं; परन्तु यदि सचमुचमे कलाभवन आदि पृथक पृथक विद्याकी शाखाओकी हमे यह हमारी कमजोरी दीखती है तो उसे क्रियात्मक सुसाधना करनेवाले शिक्षा मन्दिरीका अवलोकन उपायोसे अविलम्ब दूर करना चाहिये। कथन और किया एवं अध्यापकोसे भी एतद्विषयक विचार विनिमय मननका जमाना गया, जमाना है ठोस काम करनेका, किया। चीनी फारसी अरबी. पाली, हिन्दी. सस्कृत, वह भी मूकभावसे । वर्तमान जैनसमाजकी शिक्षण- बंगला आदि भारतकी सभी प्रान्तीय भाषाओं और प्रणालिकापर यदि दृष्टि कर उसपर गम्भीरतापूर्वक विविध साहित्योंका गभीर अध्ययन तथा मनन यहॉपर विचार करेंगे तो बड़ी भारी निराशा होगी । जिस होता है। यही कारण है कि विदेशोंमें इस आश्रमका पद्धतिके अनुसार जैन बालक और प्रौढोकी शिक्षा जो स्थान है वह किमीको प्राप्त नहीं हुआ। विदेशी होनी चाहिये उमका हमारे सर्वथा अभाव भले हीन हो गवेपक और भारतीय संस्कृतिके प्रमो विद्वान यहॉपर पर वह दिशा अवश्य ही उपेक्षित है। इसके कटुफल आते ही रहते हैं। वे तो यही समझते है कि भारतीय हमारी सन्तानको चग्वना पड़ेंगे। आजका सांस्कृतिक सभी धर्मो और माहित्याका प्रधान कन्द्र शांतिनिकेतन वायुमण्डल जैनोके अनुकूल होनेके बावजूद भी समाज है और बात भी कुछ अंशोमे सच है । परन्तु यहॉपर इसपर समुचित ध्यान नहीं दे रहा है। कहनेको तो दा बाताकी मैने जो कमी देखी वह मुझे उसी समय शिक्षालय-गुरुकुलोकी हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है बहुत ही अखरीक तो इतनी विशाल लायब्ररीमे परन्तु फिर भी जो सांस्कृतिक गौरव-गरिमाको बढ़ाने उच्च श्रणिके जैन-माहित्यका सर्वथा अभाव जो अनु