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साराराक
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केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा गाणं । तह दंसणं पि जज्जह णियप्रावरणक्खयस्संते ॥५॥ सुत्तम्मि पेव 'साई अपजवसियं' ति केवलं वृत्त । सुत्तासायणभीरूहि तं च दन्वयं होई ॥७॥ संतम्मि केवले दंसबम्मि गाणस्स संभवो एत्थि । केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाई ॥८॥ दसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुब्वअरं । होज समं उप्पाओ हंदि दुवे पत्थि उवोगा ॥९॥ अण्णायं पासंतो अद्दिट्ट च अरहा वियाणंतो । किं जाणइ किं पासइ कह सवण्णू ति वा होइ ॥१३॥ णाणं अप्पुढे अविसए य अथम्मि दंसणं होइ । मोत्तण लिंगो जं अणगयाईयविसएसु ॥२५॥ जं अप्पुट्ठ भावे जाणइ पासइ य केवली णियमा । .
तम्हा तं णणं दसणं च अविसेसो सिद्ध ॥३०॥
इसीसे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अमेदवादके पुरस्कतो माने जाते हैं। टीकाकार अभयदेवसूरि और ज्ञानविन्दुके कर्ता उपाध्याय यशोविजयने भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है। ज्ञानविन्दुमें तो एतद्विषयक सन्मति-गाथाओंकी व्याख्या करते हुए उनके इस वादको "श्रीसिद्धसेनोपज्ञनव्यमतं" (सिद्धसेनकी अपनी ही सूझ-बूझ अथवा उपजरूप नया मत) तक लिखा है। ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनाके आदिमें पं० सुखलालजीने भी ऐसी ही घोषणा की है।
(२) पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिशिकाएँ युगपद्वादकी मान्यताको लिये हुए हैं; जैसा कि उनके निम्न वाक्पोंसे प्रकट है:क-"जगनै कावस्थं युगपदखिलाऽनन्तविषय
यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस-सिद्धस्तु विदुषां
समीक्ष्यैतवारं तव गुण-कथोत्का वयमपि ॥१-३२॥" ख-"नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि नाऽप्यवेत्सी
ने ज्ञातवानसि न तेऽच्युत ! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य-नित्य-विषमं युगपच विश्वं
पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥२-३०॥" ग-"अनन्तमेक युगपत् त्रिकालं शब्दादिभिनिप्रतिघातवृत्ति ॥५-२१॥"
दुरापमाप्तं यदचिन्त्य-भूति-ज्ञानं त्वया जन्म-जराऽन्तक तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः ॥५-२२॥"