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इन पद्योंमें ज्ञान और दर्शनके जो भी त्रिकालवर्ती अनन्त विषय हैं उन सबको युगपत् जानने-देखनेकी बात कही गई है अर्थात् त्रिकालगत विश्वके सभी साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित आदि पदार्थ अपनी-अपनी अनेक-अनन्त अवस्थाओं अथवा पर्यायों-सहित वीरभगवान्के युगपत् प्रत्यक्ष हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। यहाँ प्रयुक्त हुआ 'युगपत्' शब्द अपनी खास विशेषता रखता है और वह ज्ञान-दर्शनके योगपद्यका उसी प्रकार द्योतक है जिसप्रकार स्वामी समन्तभद्रप्रणीत आप्तमीमांसा (देवागम)के "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम्" (का० १०१) इस वाक्यमें प्रयुक्त हुआ 'युगपन्' शब्द, जिसे ध्यानमें लेकर और पादटिप्पणीमे पूरी कारिकाको उद्धृत करते हुए पं० सुखलालजीने ज्ञानबिन्दुके परिचयमें लिखा है-"दिगम्बराचार्य समन्तभद्रने भी अपनी 'प्राप्तमीमांसा में एकमात्र योगपद्यपक्षका उल्लेख किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'भट्ट अकलङ्क'ने इस कारिकागत अपनी 'अष्टशती' व्याख्यामें योगपद्य पक्षका स्थापन करते हुए क्रमिक पक्षका, संक्षेपमें पर स्पष्टरूपमें, खण्डन किया है, जिसे पादटिप्पणीमे निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है:
"तज्ज्ञान-दर्शनयोः क्रमवत्तौ हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्यात् । तस्तत्सिद्धिरिति चेत् सामान्य-विशेष-विषययोर्विगतावरणयारयुगपत्प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराऽभावात् ।"
ऐसी हालतमे इन तोन द्वात्रिंशिकाओके कर्ता वे सिद्धसेन प्रतात नहीं होते जो सन्मतिसूत्रक कर्ता और अभेदवादके प्रस्थापक अथवा पुरस्का है, बल्कि वे सिद्धसेन जान पड़त हे जो केवलाके ज्ञान और दर्शनका युगपत् होना मानत थे । एस एक युगपद्वादी सिद्धसेनका उल्लेख विक्रमी वी-हवी शताब्दीक विद्वान आचार्य हरिभद्रने अपना 'नन्दीवृत्ति में किया है। नन्दीवृत्तिम 'केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य कंवली नियमा' इत्यादि दो गाथाओंको उद्धृत करके, जो कि जिनभद्रक्षमाश्रमणके विशेषणवता' ग्रन्थकी है. उनकी व्याख्या करत हुए लिखा है
"केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणंति, कि ? 'युगपद' एकस्मिन्न व काले जानाति पश्यति च, कः ? केवली, न त्वन्यः, नियमात् नियमेन ।"
नन्दीसूत्रके ऊपर मलयगिरिसूरिने जो टीका लिखी है उसमे उन्होंने भी युगपद्वादका पुरस्कर्ता सिद्धसेनाचार्यको बतलाया है । परन्तु उपाध्याय यशोविजयने, जिन्होने सिद्धसेनको अभेदवादका पुरस्कर्ता बतलाया है, ज्ञानबिन्दुमे यह प्रकट किया है कि 'नन्दीवृत्तिमें सिद्धसेनाचार्यका जो युगपत् उपयोगवादित्व कहा गया है वह अभ्युपगमवादके अभिप्रायसे है, न कि स्वतन्त्रसिद्धान्तके अभिप्रायसे; क्योकि क्रमोपयोग और अक्रम ( युगपत् ) उपयोगके पर्यनुयोगाऽनन्तर ही उन्होंने सन्मतिमे अपने पक्षका उद्भावन किया है, जो कि ठीक नहीं
है। मालूम होता है उपाध्यायजीकी दृष्टिमे सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन ही एकमात्र सिद्धसेनाचाय- के रूपमे रहे हैं और इसीसे उन्होंने सिद्धसेन-विषयक दो विभिन्न वादोंके कथनोसे उत्पन्न हुई
असङ्गतिको दूर करनेका यह प्रयत्न किया है, जो ठीक नहीं है। चुनॉचे पं० सुखलालजीने उपाध्यायजीके इस कथनको कोई महत्व न देते हुए और हरिभद्र जैसे बहुश्र त आचार्यके इस प्राचीनतम उल्लेखकी महत्ताका अनुभव करते हुए ज्ञानबिन्दुके परिचय (पृ०६०)में अन्तको यह लिखा है कि 'समान नामवाले अनेक प्राचार्य होते आए हैं। इसलिये असम्भव नहीं कि १ "यत्त युगपदुपयोगवादित्व सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्त तदभ्युपगमवादाभिप्रायेण, न तु स्व
तन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाऽक्रमोपयोगद्वंयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मती उद्भावितत्वादिति हव्यम ।" -ज्ञानबिन्दु पृ० ३३ ।