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________________ किरण ११ । सन्मात-सद्धसनाक । ४३५ सिद्धसेनदिवाकरसे भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों जो कि युगपद्वादके समर्थक हुए हों या माने जाते हों।" वे दूसरे सिद्धसेन अन्य कोई नहीं, उक्त तीनों द्वात्रिंशिकाओंमेंसे किसीके भी कर्ता होने चाहिये । अतः इन तीनों द्वात्रिंशिकाओंको सन्मतिसूत्रके कर्ता आचार्य सिद्धसेनकी जो कृति माना जाता है वह ठीक और सङ्गत प्रतीत नहीं होता। इनके कर्ता दूसरे ही सिद्धसेन है जो केवलीके विषयमें युगपद्-उपयोगवादी थे और जिनकी युगपद्-उपयोगवादिताका समर्थन हरिभद्राचार्य के उक्त प्राचीन उल्लेखसे भी होता है। (३) १९वीं निश्चयद्वात्रिशिकामें "सर्वोपयोग-द्वविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्" इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवोके उपयोगका द्वैविध्य अविनश्वर है।' अर्थात् कोई भी जीव संसारी हो अथवा मुक्त, छमस्थज्ञानी हो या केवली सभीके ज्ञान और दर्शन दोनो प्रकारके उपयोगोका सत्व होता है-यह दूसरी बात है कि एकमें वे क्रमसे प्रवृत्त (चरितार्थ) होते हैं और दूसरेमें आवरणाभावके कारण युगपत् । इससे उस एकोपयोगवादका विरोध आता है जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्रमें केवलीको लक्ष्यमें लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है। ऐसी स्थितिमें यह १६वीं द्वात्रिंशिका भी सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी कृति मालूम नहीं होती। (४) उक्त निश्चयद्वात्रिंशिका १६में श्र तज्ञानको मतिज्ञानसे अलग नहीं माना हैलिखा है कि 'मतिज्ञानसे अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नही है. श्रुतज्ञानको अलग मानना व्यर्थ तथा अतिप्रसङ्ग दोषको लिये हुए है। और इस तरह मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका अभेद प्रतिपादन किया है। इसी तरह अवधिज्ञानसे भिन्न मनःपर्ययज्ञानकी मान्यताका भी निषेध किया है-लिखा है कि 'या ता द्वीन्द्रियादिक जीवोके भी, जो कि प्रार्थना और प्रतिघातके कारण चेष्टा करते हुए देखे जात हैं, मनःपर्ययविज्ञानका मानना युक्त होगा अन्यथा मन:पययज्ञान कोई जुदा वस्तु नहीं है। इन दानो मन्तव्योके प्रतिपादक वाक्य इस प्रकार है:"वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यधिकं श्रतम् । सर्वेभ्यः केवलं चक्ष स्तमः-क्रम-विवेककृत् ॥१३॥" "प्रार्थना-प्रतिघाताभ्यां चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः । मनःपर्यायविज्ञानं युक्त तेषु न वाऽन्यथा ॥१॥" यह सब कथन सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योकि उसमे श्रुतज्ञाम और मनःपर्ययज्ञान दोनाका अलग ज्ञानांके रूपमे स्पष्टरूपसे स्वीकार किया गया है-जैसा कि उसके द्वितीय' काण्डगत निम्न वाक्योसे प्रकट है: "मणपजवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ॥३॥" "जेण मणोविसयगयाण दसणं णस्थि दध्वजायाणं । तो मणपञ्जवणाणं णियमा गाणं तु णिद्दिढ ॥१९॥" "मणपजवणाणं दमणं ति तेणेह होइ ण य जुत्त । भएणइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादयो जम्हा ॥२६॥" "मइ-सुय-णाणणिमित्तो छडमत्थे होइ अत्थउवलंभो । एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दंसणं कत्तो ? ॥२७॥ जं पञ्चक्खग्गहणं णं इंति सुयणाण-सम्मियो अत्था । तम्हा दंसणसदो ण होइ सयले वि सुयणाणे ॥२८॥" १ तृतीयकाण्डमें भी भागमश्र तज्ञानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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