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________________ २३८ अनेकान्त [वर्ष ९ तन्त्रोंमे कुछ विकास अवश्य हुआ है। मूर्तिकला भी जैन-मन्दिरमें जिनदेवके सम्मुख खड़ी कर देते थेप्रत्येक समय नये तत्त्व अपनानेको तैयार थी, क्योंकि आज भी कहीं-कहीं इस प्रथाका परिपालन किया यहाँ उनको पर्याप्त स्थान था जो जिनमूर्ति में न था, जाता है । कलाकी दृष्टि से इनका खास महत्व नहीं वहाँ नियमोंका पालन और मुद्राकी ओर ध्यान है। धातु और कहीं पापाण-प्रतिमाओंमे भी भक्तोंका देना अनिवार्य था । प्रदर्शन अवश्य ही दृष्टिगोचर होता है। बौद्ध-मूतियों जैन सरस्वतीकी भी प्रस्तर-धातु प्रतिमाएँ पाई गई मे तो सम्पूर्ण पूजनकी सामग्री तक बताई जाती है। हैं।बीकानेरकं गज-आश्चर्यगृहम विशाल और अत्यन्त ऐसी मूर्ति मेरे मंग्रहमे है। आबू पादलिप्तपुरकी यात्रा सुन्दर दो जैनमरस्वतीकी भव्य मूर्तियों है जो कला- करनेवाले उपयक्त प्रतिमाओं की कल्पना कर सकते है। कौशलमे १२वी १३वी शतीक मध्यकालीन शिल्प- वस्तुपाल, तेजपाल, उनकी पत्नी, वनराज चावड़ा, स्थापत्य-कलाका प्रतिनिधित्व करती है। मैंने सरस्वती मोतीशा आदिकी प्रतिमा एक-सी है । मै स्पष्ट करदू की मृतियाँ तो बहुत देखीं पर ये उन सबमे शिरोमणि कि इसप्रकारकी मूर्ति बनवानमे उनका उद्देश्य खुदकी हैं। मैंने स्टेलाक्रेमशीशको जब इनकं फोटो बताये वे पूजा न होकर एकमात्र तीर्थङ्करकी भक्ति ही था, हाथ मारे प्रसन्नता नाच उठी, उनका मन पाल्हादित जोड़कर खड़ी हुई मुद्रा इसीलिये मिलती है। हो उठा, तत्क्षण उनने अपने लिये इसकी प्रतिकृति ३-वास्तुकलाके सम्बन्धमे जो उल्लेख जैनलेली । धातकी विद्यादेवीकी प्रतिमा तिरूपति- साहित्यमे आये है. उनमे यह भी एक है कि जैनकुनरममे सुरक्षित है। इनकी कलापर दक्षिणी भारत मन्दिर या अन्य आध्यात्मिक माधनाके जो स्थान हों की शिल्पका बहुत बड़ा प्रभाव है। वहाँपर जैनधर्म और कथाओंसे सम्बद्ध भावोंका ३ (उ) उपर्यत पक्तियोंमे मूचित प्रतिमाओंसे अङ्कन अवश्य ही होना चाहिए जिसको देखकरके भिन्न और जो-जो प्रतिमाएं जैन-संस्कृतिमे मम्ब- आत्म-कर्तव्यकी ओर मानवका ध्यान जाय! इमप्रकार न्धित पाई जाती है वे सभी इस विभागम सम्मिलित के अवशेष विपुलरूपमे उपलब्ध हुए भी है जो की जाती है, जो इस प्रकार हैं: तीर्थङ्कगेका समोमरण, भरत-बाहुबलि युद्ध, श्रेणिक१-जैन-शासनकी महिमामे अभिवृद्धि करनेवाले की सवारी, भगवानका विहार, समलिविहार परम तपम्वी त्यागी विद्वान आचार्य या मुनियोंकी (भृगुमच्छ )की पूर्व कहानी आदि अनेकों भाव मृतियाँ भी निर्मित हुई है। इनमेसे कुछ ऐतिहासिक उत्कीण पाये जाते हैं परन्तु इन भावोंके विस्तृत भी हैं-गौतम म्वामी, धन्ना, शालीभद्र, (राजगृह) इतिहास और परिचय प्राप्त करनेके आवश्यक हेमचन्द्रसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनवल्लभमूरि, जिन- साधनोंके अभावमे लोग तुरन्त उन्हें पहिचान नहीं प्रभमुरि, जिनप्रबोधसूरि, जिनकुशलसूरि, अमरचन्द्र- पाते । अतः कहीं-कहीं तो इनकी उपेक्षा और अनासृरि, हीविजयसरि, देवसूरि आदि अनेक आचार्यों वश्यकतापर भी कुछ कह डालते है । जीर्णोद्धार की स्वतन्त्र मूर्तियां उनके भक्तों द्वारा पूजी जाती है। करनेवाले बुद्धिहीन धनी तो कभी-कभी इन भावोंको कहीं-कहीं तो गुरु-मन्दिर स्वतन्त्र है। इन सभीमे जान-बूझकर चूना-सीमेण्ट मे ढकवा देते हैं-राणक"दादा साहब"-जो श्रीजिनदत्तसूरिजीका ही प्रच- पुरमे कोशाका नृत्य और स्थूलभद्रजीक जीवनपर लित मंक्षिप्त नाम है-की व्यापक प्रतिष्ठा है । इन प्रकाश डालनवाल भाव प्रस्तरोंपर अङ्कित थे जो साफ प्रतिमानोंमे कोई खास कला-कौशल नही मिलता. तौरसे बन्द करवा दिये गये, जब वहाँ जैनकलाके कंवल ऐतिहासिक महत्व है। विशेषज्ञ साराभाई पहुंचे तब उन्हें ठीक करवाया। २-जैन राजा और मन्दिदि निर्माण कराने धानकोको अपना धन कलाकी हिसा-हत्यामे व्यय न वाले सद्गृहस्थ भी अपनी करबद्ध प्रतिमा बनवाकर करना चाहिए । विवेक न रखनेसे हमारे ही अर्थसे
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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