________________
अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख
किरण १० ]
कारण, पृथ्वीका भूषण स्वरूप और शाश्वतिक महान् आनन्दको देनेवाला श्रीशान्तिनाथ भगवानका यह प्रतिबिम्ब निर्मापित किया ।
संवत १२३७ अगहन सुदी ३, शुक्रवार, श्रीमान् परमर्द्धिदेवके विजय राज्यमें
६ - इस लोकमे जब तक चन्द्रमा सूर्य, समुद्र और तारागण मनुष्योके चित्तोंका हरण करते हैं तब तक धर्म्मकारीका रचा हुआ सुकीर्तिमय यह सुकीर्त्तन विजयी रहे।
के पुत्र महामतिशाली मूर्तिनिर्माता और वास्तु शास्त्र ज्ञाता श्रीमान पापट हुए. उन्होने इस प्रतिविम्बकी सुन्दर रचना की ।
नोट - इम लेखकी प्रथम पंक्ति में बाणपुरके जिस सहस्रकूट चैत्यालयका उल्लेख आया है वह वहाँ अब भी विद्यमान है । यद्यपि उसकी भी अधिकांश मूर्त्तियाँ खडित हो चुकी है तथा वे सभी मूर्तियाँ और चैत्यालय उत्कृष्ट शिल्पकलाके उत्तम आदर्श हैं।
दूसरे में जो "बसुहाटिकायां" पद आया है इससे विदित होता है कि यह किसी प्रसिद्ध नगरीका नाम रहा होगा।
इस श्लोक में वर्णित नन्दपुर भी इसी नगरके करीब होना चाहिये जो उस समय प्रसिद्ध था ।
तथा "मदनेशसागरपुर” जो पद श्राया है उससे ज्ञात होता है कि वह सम्भवत: इसी स्थान - अहार —का नाम रहा होगा। यहाँ के तालाबको आज भी 'मदनमागर' कहते हैं ।
फुट
यह मूर्ति क़रीब १३ फुटकी शिलापर क़रीब ११ ऊँनी खड्गासन । मूर्त्तिके कुछ उपाङ्ग छिल गये हैं । नासिको उपस्थ इन्द्रिय तथा पैरोंके अंगूठे टूट गये हैं । बाँया हाथ पुनः जोड़ा गया है। शिला लेखका बहुभाग टूट गया है। भाव को लेकर पूर्ति की है । चिह्न बकरेका है। पालिश मटियाले रङ्गकी है। लेख नम्बर २
ॐ नमो वीतरागाय । बभूव रामा नयनाभिरामा, श्रीरहणस्येह महेश्वरस्य । गंगेवगंगागत
[ ३८५
पंकसंगा, जड़ाशयानेव परं नवोढ़ा ||१|| गार्हस्थधर्मनितरां ग्रहणप्रवीणा, निरंतरप्र मनिधानधात्री । पुत्रत्रयं मंगलकार्यसूता, येषां च कीर्त्तिरिव सत्वरधर्मवृत्तिः ॥२॥ तेषां गगियकल्पः प्रथमतनुभवः पुण्यमूत्तिः प्रसूतः । स्कन्दो भूतेशमेवागुणवतिरुदयादित्यनामापरस्य । ख्याताधर्मे कुमुदशशिलघुभ्रातृयुग्मेवियुक्त', संसारासारतां ...... हिवुद्धिः || ३ || वित्तानि विद्युदिव सत्वर गत्वराणि, राजीविनी जलसामनि व जीवतानि । तुल्यानि "गणस्यहि यौवनानि
**** 118 11
भावार्थ:- वीतराग के लिये नमस्कार हो । श्रीरल्हूण के महेश्वरकी तरह पापोंसे रहित नवविवाहित नयनोको प्यारी गङ्गा नामकी स्त्री हुई | १|| जो हमेशा गृहस्थ धर्मको ग्रहण करनेमें चतुर तथा हमेशा प्रेमकी निधानभूत थी । उमने मङ्गलरूप तीन पुत्र पैदा किये। जिनकी कीर्त्तिके समान जल्दी धर्ममें प्रवृत्ति हुई | २ || उन तीनो पुत्रामेंसे पुण्यकी मूर्तिके समान महादेवको कार्त्तिकेयके मानिन्द पहला पुत्र पैदा हुआ। उसने अपने छोटे दो भाइयोके वियोग होनेसे तमाम संसार की असारताको जाना। तथा दान और धर्ममें है बुद्धि जिसकी ऐसे उसने धनको बिजलीके समान जल्दी नाशवान जाना। तथा जीवनको जल-बुदबुदेके समान माना । तथा बादलोकी चञ्चलताके समान यौवनको माना । फिर तमाम धनको निज हित में लगाकर ही धन्य माना । ४ ॥
यह क़रीब ६ इनका मटियाले पाषाणका एक भग्नावशेष मात्र है । इसकी पालिश बहुत कुछ शान्तिनाथकी मूर्त्तिसे मिलती है। चिह्नकी जगह कुछ अस्पष्ट निशान है जो अच्छी तरह नहीं देखा जा सकता। शिलालेखका बहुत भाग टूट गया है। कुछ शब्द पढ़े गये जो नीचे उद्धृत किये जाते हैं:--- लेख नम्बर ३
सं० १२३७ मार्ग सुदी ३ शुको साहु श्रीपाल सुत साहु गेल्या.... ........। बाक़ी हिस्सा नहीं है ।
यह मूर्ति मन्दिर नं० १ के प्रांगणकी दीवार में खचित है। मूर्त्तिका शिर धड़ से अलग है. परन्तु