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किरण १० ]
है, प्रणाम करता है और कुशल पूछता है:
अपभ्रंशका एक कार-वीर काव्य
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तं नियविकुमार समुट्ठियउ दरपणमिय सिरु समहिट्ठियउ । अणोरणालि गण रसभरिया वह पीढहिं वेणेवि वइसरिया । पुच्छ्रिज्जइ कुसलु पंथ समिउ बहुदिवस माम कहि कहि भमिउ ॥६- १८ ||
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जम्बूका चरित्र सब प्रकारसे एक धर्ममें दृढ़ आदर्श योद्धा, उदात्तचरित्र व्यक्ति विरक्त त्यागी महापुरुपका है। अन्य पात्रोंके चरित्रमें सम्यक विकास नही मिलता और न वह आवश्यक ही था । विद्युवरके दर्शन एक सब प्रकार से भले किन्तु चोरके रूपमें होते हैं - अन्तमे वह भी तपस्वी हो जाता है। महिलाओके चरित्र में जम्बूकी पत्नियां और उसकी माताके चित्र मिलते हैं । उनमें स्वाभाविक कोमलता और सरता है । वे सब अन्तमे श्रर्यिकाएं होजाती है । प्रायः ऐसी धारणा है कि जैनसाहित्यमे स्त्रियांकी निन्दा की गई है. वह ग़लत है । इन कृतियोंमे आदर्श के चित्र मिलत है। नारीके प्रति घृणाका भाव नही मिलता, मूल दुष्प्रवृत्तिका कहीं कहीं उन्हें कारण मानकर उनकी भर्त्सना अवश्य की गई है यथा जब जम्बूकी पत्नियाँ हाव-भाव दिखाकर उसे श्रासक्त करना चाहता है तब वह कहता है :
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हा हा महिला - मोह णिबद्ध उ मण काल - सप्पाहि जगु खद्धउ । बुच्चइ हरु अमिय महु वासउ अवरु जो गाउ विउ वयणासउ ॥ ६-१ ॥ वर्णन:- अन्य अपभ्रंश जैन काव्योंके समान प्रस्तुत कृतिमें भी अनेक समृद्ध वर्णन मिलते हैं । नगर, ग्राम, अरण्य, ऋतु सूर्योदय, सूर्यास्त, नखशिख, सेना युद्ध आदिके सरल और कहीं-कहीं अलंकृत वर्णन कविने प्रस्तुत किये है। बड़े-बड़े वर्णनांके अतिरिक्त छोटे छोटे चित्र भी कविने सफलता पूर्वक चित्रित किए हैं: - श्रोणिकराजके उन्मत्त हाथी के चित्रणसे कुछ पंक्तियों इस प्रकार हैं; उसकी
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विकरालताका स्पष्टस्वरूप सामने आ जाता है: उद्दंड - सुंडकय - सलिलविट्ठि पयभार asar कुमपि । दुद्धर - रिउ वलहरु णं णव जलहरु-गरुय गज्जिर - रव भरियदरि । जण - मारण-सीलउ वइवसलीलउ - सो संपत्तउ तेत्थु करि ||४-२०|| इसी प्रकार थोडेसे शब्दोंमे विद्युवरका चित्रण किया है:
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पयडिय किराउ मयवेसपडु, आजाणु लंब परिहाण पडु । वंकुडिय कच्छकयढिल्ल कडि, कण्ांत लुलाविय केसलडि । पुट्टीनिहित्त कयबद्ध भरु, उग्गंटिय वि सरिस कु चधरु |
उत्तमंग पंगुरियतणु सिढिलाह रोहदंतरु वयणु । डोल्लंत बाहुलय ललिय-करु वासहरि पयट्ठउ विज्जुच्चरु ।
।। ६-१८ ॥
अलङ्कारो प्रयोग कविने दो प्रकारके किये हैं. एक चमत्कार प्रदर्शनके लिये और दूसरे स्वाभाविक प्रयोग । प्रथम प्रकारके प्रयोगके उदाहरणरूपमे विध्याटवी वर्णनसे निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की जामकती हैं; जिनमें कोई रस नहीं है :
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मारह - रणभूमिव स - रहभीए हरि अज्जुण उल सिहंडि दीए । गुरु आसस्थाम कलिगवार गयगज्जिर ससर महीस सार । लंकारणयरी व स- रावणीय चंदणहि चार कलावणीय । सपलास सकंचरण अक्खघट्ट, सविहीसरण कइकुल फलरसह ।। ५-८ ॥ उपर्युक्त पंक्तियों में श्लेषके प्रयोगसे दो अर्थ निकलते हैं. स-रह ( रथ सहित और एक भयानक जन्तु हरि - कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष. नहुल और नकुल जीव, शिखडि और मयूर आदि) ।
इस कवि चमत्कारके अतिरिक्त सरसता बर्द्धक प्रयोग भी कविने किये हैं। यद्यपि वे हैं इसी प्रकारके; माला यमकका एक उदाहरण इस प्रकार है: