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________________ किरण १ ] श्राचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी [ २७ हैं। बसवा निवासी पं०देवीदास गोधा को भी आपके रागादिक भावही बरे हैं। सो या ऐसी समम नाहीं पास कुछ समय तक तत्त्वचर्चा सुनने का अवसर यह पर द्रव्यनिका दोपदेखि तिनविष द्वापरूप उदासीप्राप्त हुआ था। नता करें है। सांची उदासीनता तौ वाका नाम है जो ५० टोडरमल्लजी केवल अध्यात्मनोंके ही कोई भी परद्रव्यका गुण वा दोष न भास, तात काह नेत्ता या रसिक नहीं थे; किन्त साथमें व्याकरण, को भला बुरा न जाने, परतें किछ भी प्रयोजन मेरा साहित्य, सिद्धान्त और दर्शनशास्त्रके अच्छे विद्वान नाहीं. ऐसा मानि साक्षिभूत रहे, सो ऐसी उदासीनता थे । आपकी कृतियांका ध्यानसे समीक्षण करने पर ज्ञानी ही के होय।" इस विषय में संदेहको कोई गुजायश नहीं रहती। (पृ०२४३-४) आपके टीका ग्रन्थोंकी भाषा यद्यपि द्वंदारी (जयपुरी) यहां पंडितजी ने सम्यग्दृष्टिकी आत्मपरिणतिरूप है फिर भी उसमें ब्रज भापाकी पूट है और वह इतनी वस्तुतत्वका भी फितना सुन्दर विवेचन किया है जो परिमार्जित है कि पढ़ने वालोंका उसका सहज ही अनुभव करते ही बनता है। परिज्ञान हो जाता है। आपकी भाषामें प्रौढ़ता सरसता समकालीन धार्मिकस्थिति और विद्वद्गोष्ठी-- और सरलता है वह श्रद्धा नि:स्पृहता और नि:स्वार्थ भावना से ओत-प्रोत है जो पाठकोंको बहुत ही रुचि उस समय जयपुरको ख्याति जैनपुरीके रूप में हो कर प्रतीत होती है। उसमे आकर्षण मधुरता और रही थी, वहां जैनियोंक सात-आठ हजार घर थे, जैनियोंकी इतनो गृहसंख्या उस समय सम्भवत: अन्यत्र लालित्य पद पद मे पाया जाता है और इसीसे जैन कहीं भी नहीं थी। इसीसे ब्रह्मचारी रामलालजीके समाजमें उसका आज भी समादर बना हुआ है। जैसा शब्दोंमें वह साक्षात 'धर्मपुरी थी। वहां के अधिकि उनके मोक्षमागे प्रकाशकको निम्न पंक्तियोंसे काश जैन राज्य के उच्च-पदापर नियुक्त थे, और वे प्रकट है: राज्य में सर्वत्र शांति एवं व्यवस्थामें अपना पूरा पूरा "कोऊ कहेगा सम्य म्हष्टि भी तो बुरा जानि सहयोग देते थे। दीवानग्तनचन्द जी और बालचन्द परद्रव्यको त्याग है। ताका समाधान- सम्यग्दृष्टि जी उनमे प्रमुख थे। उस समय माधवसिंहजी प्रथम पर द्रव्यानिकों बुग न जाने है । आप मरागभावको का राज्य चल रहा था, वे बड़े प्रजावत्सल थे। राज्य छोरे, तात ताका कारणका भी त्याग हो है। में जीव-हिमाकी मनाई थी। और वहां कलाल, वस्तु विचारें कोई परद्रव्य तो भला बुग है नाई।। कसाई और वेश्याएं नहीं थीं। जनता प्राय: सप्तको ऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है । ताका उत्तर-परद्रव्य व्यमनस रहित थी। जैनियों में उस समय अपने जोरावरी ते क्याई विगारता नाही। अपने भाव विगरे । धर्मके प्रति विशेष प्रेम और आकर्पण था और तब वह भी बाह्य निमित्त है। बहरि वाका निमित्त प्रत्येक साधर्मी भाईके प्रति वात्सल्य तथा उदारताका बिना भी भाव विगरे हैं । ताने नियमरूप निमिन भी व्यवहार किया जाता था। जिनपूजन, शास्त्रस्वाध्याय नाहीं । ऐसे परद्रव्यका दोष देखना मिथ्या भाव है। नयी सामायिक और पाकिमान श्रद्धा, भक्ति और विनयका अपूर्व दृश्य देखने में आता १ "मो दिल्लीमू पढ कर वम्या ग्राय पाई जयपरम था। कितने ही स्त्री-पुरुष गोम्मटसारादि सिद्धांतथोड़े दिन टोडरमल्ल जी महाबुद्धिमान के पामि मुननेका ग्रन्थांकी तत्त्वचर्चासे परिचित हो गये थे। महिलाए निमिन भल्या, वसुवा गा" भी धार्मिक क्रियात्राक सद्अनुष्टानमें यथेष्ठ भाग लेने दगी मिदानमारकी टीकापशनि लगी थी। पं० टोडरमलजीक शास्त्र-प्रवचनमें
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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