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________________ किरण ३ ] पण्डित गोगलदास जी वरैया १०७ आप टिकटका पैमा देने कोई हमारे पास शाया हो. थो, फिर भी क्या हुआ. आपसदारीके नाते भी तो हमें एसा मृग्वे कभी नहीं मिला। आप बड़े भोले हमारी टेक रखनी थी। जब पण्डितजीने हमाग मालूम होते हैं. यह दाम आप उठा लीजिये, सब यूही रत्तीभर लिहाज नहीं किया तो अब इनसे क्या साझेचलता है।” परन्तु वरैयाजी चालाक और पूर्व में निभाव होगा? भई ऐसे तोते चश्मसे तो जुदा दुनियांके लिये सचमुच मुव थे, वे दाम छोड़कर चले ही भले।" आये और बुद्धिपर जोर देनेपर भी अपनी इस इमी तरह के विचारोंसे प्रेरित होकर लाला मूर्खताका रहस्य न समम पाये और जीवनभर एसा साहबने पण्डितजीसे सामा बांट लिया, बोलचाल मूग्वता करते रहे। बन्द कर दी। वरयाजोसे किसीने इस आशारहित निर्णय के सम्बन्धमें जिक्र किया तो बोले-"भाई ला० अयोध्याप्रसादजीके साभेमें मोरेनामें इष्टमित्रोंको खातिर मैं अपने धर्मको तो नहीं बेचूंगा। वरैयाजीकी आदतकी दुकान थी। लाला साहबका जब मुममें न्यायीको स्थापना दोनों पक्षोंने कर दी तो एक व्यक्तिसे लेन-देनका झगड़ा चल रहा था। पाखिर फिर मैं अन्यायीका रूप क्यों धारण करता ? मेरा व्यक्ति तङ्ग आकर बोला-"आपके सामी वग्याजी जो धर्म मुझे न छोड़े, चाहे सारा संसार मुझे छोड़ दे तो निर्णय देगें, मुझे मंजूर होगा।" लालाजीने सुना भी नुझे चिन्ता नहीं।" तो बांहें खिल गई। मनकी मुगद पर फाड़कर लालाजीने मुझे स्वयं उक्त घटना सुनाई थी। आई। परन्तु निर्णय अपने विपक्षमें सुना तो उसी फर्माते थे कि-थोड़े दिन तो मुझे पण्डितजीके इस तरह निस्तब्ध रह गये जिस तरह ऋद्धिधारी मुनिके व्यवहारपर रोष मारहा। पर धीरे-धीरे मेरा मन हाथाम गरमागरम ग्वीर परोसकर रत्नोंकी वारिश मुझे ही धिक्कारने लगा और फिर उनकी इस न्यायदेखनेको बुढ़िया आतुरतापूर्वक आकाशकी और प्रियता, सत्यवादिता, निष्पक्षता और नैतिकताके देखने लगी थी और वा न होने पर लुटी-सी खड़ी आगे मेग सर भुक गया, श्रद्धा भक्तिसे हृदय भर रह गई थी। गया और मैंने भूल स्वीकार कर के उनसे क्षमा मांग लाला साहबको वरीयाजीका यह व्यवहार पसन्द ली। पंडित जी नो मुझसे मथे ही नहीं, मुझे ही न आया। "अपने होकर भी निर्याय शत्र-पज्ञ मान हो गया था, अत: उन्होंने मेरी कोली भर ली दिया, मी नसी इस न्यायप्रियताको। डायन भी और फिर जीवन के अन्त तक हमारा स्नेह-सम्बन्ध अपना घर बख्श देती है. इनसे इतना भी न हआ। बना रहा। हमें मालूम होता कि पण्डितजीक मनमे यह कालोस मुझे जिम तरह और जिस भाषामें उक्त संम्मरण है तो हम क्या इन्हें पंच स्वीकार करते? इसस तो सुनाये गये थे, न वे अब पूरी तरह स्मग्गा ही रहे हैं अदालत ही ठीक थी. सौ फीसदी मकदमा जीतनका न उस नरहको भाषा हो व्यक्त कर सकता है, फिर भी वकीलने विश्वास दिलाया था। पाह साहब, अच्छी आज र आज जो बैठे बिठाये याद आई तो लिम्बने बैठ गया। इन्हनि आपसदारी निभाई। माना कि हमारी ज्यादती डालमिया नगर, (विहार) ४ मार्च १६४८
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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