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________________ १०६ अनेकान्त [ वप सरस्वतीमें उस समय पढ़ा था। उनके दर्शन न हुए भाड़ा दिये बिना पार काना. चुङ्गीवालोंको चकमा तो न सही, उनकी कार्यस्थली मोरनाको रज ही किसी देना, स्टेशन बावुओंको झांसा देना, कुलियों-तांगेतरह मम्तकपर लगाऊँ. उनके समवयस्क और सह- वालोंको बातामे राजी करना, थडेको भी विस्तर योगियांस उनके संम्मरण सुनकर कानोको तृप्त करू बिछाकर सकिण्ड बना लेना, धर्मशालाके चपरासिऐमी प्रबल इच्छा बनी रहती थी कि दिसम्बर १६४० यांसे भी भरपुर सुविधा लेना और इनामकी जगह में परिपके कायकर्ताओं के साथ मोरेना जानेका अव- अंगूठा दिखा देने में जो जितना प्रवीण होता है, वही सर भी प्राप्त हो गया। वरैयाजीके सामोदार ला० प्रवासमें रखने के लिये उपयुक्त समझा जाता है। अयोध्याप्रमाद तथा बा० नमिचन्द वकील श्रादि वरैयाजी इस शिक्षामें कोरे थे। इन्हें शिक्षित और १०-१२ बन्धुसि रातभर वरयाजोके सम्बन्धमें चतुर समझकर टिकिट लाने का कार्य दिया गया । ये कुरेद-कुरेद कर बातें जानने का प्रयत्न किया किन्तु टिकिटॉम फुछ कतरव्यांत तो क्या करते उल्टा लगेज एक-दो घटनाके सिवा कुछ नहीं मालूम हो सका। तुलवाकर उसका भी भाड़ा दे आये । आज उन्हीं स्मृतिको धुन्धली रेखाओंको कागजपर सेठ और रायबहादुर होकर उनका सामान तुल खींचनेका प्रयास कर रहा हूं। जाए इससे अधिक और सेठ साहबका क्या अपमान जिन मज्जनोंको उनके सम्बन्धमें कुछ उल्लेख- होता ? धनियाँक यहां चापलस और चुगलखोरोंकी नीय बातें मालुम हो, या पत्र सुरक्षित हो, वे हमारे क्या कमी? उन्होंने वरैयाजीक बुड़बक होनेका ऐसा पास कृपा-पूर्वक भिजवाएँ । हम उनका उपयोगी सजीव वर्णन किया कि वेचारे शिकारपुरी न होते हुए अंश धन्यवाद पूर्वक अनेकान्तमें प्रकाशित करेंगे। भो सेठ साहबकी नजरमि शिकार पूरी होकर रह गये। ऐसे ही छोटे छोटे संस्मरण और पत्र इतिहास निर्मा- जहां सत्यका प्रवेश नहीं, यथाथ बात सुननेका चलन णकी बहुमूल्य सामग्री बन जाते हैं। जैनसमाजके नहीं। धोखा, उल, फरेब, मायाचार ही जहां अन्य काय-फायांक भी संस्मरण और पत्र भेजने के उन्नति के साधन हों बिलफ और चकमा खाना ही लिये हम निमन्त्रण देते हैं। भले ही वह संस्मरण जहां अभीष्ट हो वहां वरयाजी कितने दिन निमते ? और पत्र साधारणसे प्रतीत होते हों, फिर भी उन्हें किनाराकशी ही स्वाभिमानको रक्षाक लिये उन्होंने भिजवाइये। न जाने उसमे क्या कामको बात आवश्यक सममी। निकल पाये। यह मूवता करके वरैयाजी पछताये नहीं, यह सामाजिक क्षेत्र में आनेसे पूर्व किसी समय वरया अचौर्यत्रत्त उनके पञ्चागवत्तोमेसे तीसरा आवश्यक जो एक रायबहादुर सेठ के यहां ३०) २० मासिक- व्रत्त था। एकवार वे सपरिवार बम्बईसे आगरे पर कार्य करते थे। एकबार सेट साहब आपको भी पाये। घर आकर कई रोज बाद माग-व्यय आदि तीर्थयात्रामें अपने साथ ले गये । शास्त्रप्रवचनके लिखा तो मालूम हुआ नौकरने उनके तीन वर्षक साथ-साथ गुमास्तको उपयोगिताका भी विचार करके बालकका टिकट ही नहीं लिया। मालूम होनेपर बड़ी इन्हें साथ लिया गया था। वरयाजी शास्त्र-प्रवचन आत्म ग्लानि हुई और आपने तत्काल स्टेशनमास्टरक में तो पटु थे। किन्तु गुमास्तगीरीकी कलामें कोरे पास पहुंचकर क्षमा याचना करते हुए टिकिट का मूल्य थे। सफरमे रेल्वे टिकिटांको कतरव्यति, लगेज, उनकी मेजपर रख दिया। स्टेशनमास्टरने समझाया ॐ मम्भवतया यही नाम था, यदि भूलमं दसरा कि २।वर्षसे अधिककी श्रायुपर टिकट लेनेका नियम नाम लिखा गया हो तो वबन्धु क्षमा करेंगे। है तो पर कौन इम नियमका पालन करता है। हम तो नाम मैने जान बूझकर नदी लिखा है। - वर्पक बालकको नजरन्दाज कर देते हैं। आपने
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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