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________________ 01 J जावयां वयवहा तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया गयवाया तावइया चैव परसमयो ||४७|| जं काविलं दरिसणं एयं दव्वट्ठियस्स बत्तव्वं । सुद्धोरण- तणस्स उ परिसुद्धो पजवविअप्पो ||४८ || दोहि वि एहि णीयं सत्थमुलूए तह वि मिच्छत्त ं । जं सविसप्पहारण तरणेण अणोरणणिरवेक्खा ॥ ४९ ॥ इनके अनन्तर निम्न दो गाथाओ में यह प्रतिपादन किया है कि 'सांख्योंके सद्वादपक्षमें बौद्ध और वैशेषिक जन जो दोष देते हैं तथा बौद्धो और वैशेषिकोके असद्व (दपक्षमें सांख्य जन जो दोष देते है वे सब सत्य है- सर्वथा एकान्तवाद में वैसे दोप आते ही हैं। ये दोनों सद्वाद और असद्वाद दृष्टियाँ यदि एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए संयोजित हो जायँ - समन्वयपूर्वक अनेकान्तदृष्टिमें परिणत हो जायँ -- तो सर्वोत्तम सम्यग्दशन बनता है; क्योंकि ये सत असतरूप दोनों दृष्टियाँ अलग अलग संसारके दुःखसे छुटकारा दिलाने में समर्थ नहीं हैं—दोनोंके सापेक्ष संयोगसे ही एक-दूसरेकी कमी दूर होकर संसारके दुःखोंसे शान्ति मिल सकती है:-- जे संतवाय-दोसे सकोल्या भांति खाणं । संखाय सव्वाए तेमिं सव्वे वि ते सच्चा ॥ ५०॥ उ भयोवणीया सम्मद्द मरणमणुत्तर होंति । जं भव- दुक्ख-विमोक्खं दो वि एण पूति पाडिक ॥५१॥ इस सब कथनपरसे मिथ्यादर्शनों और सम्यग्दर्शनका तत्त्व सहज ही समझ में जाता है और यह मालूम हो जाता है कि कैसे सभी मिध्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शनके रूपमें परिणत हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन अथवा जैनेतरदर्शन जब तक अपने अपने वक्तव्यके प्रतिपादनमें एकान्तताको अपनाकर परविरोधका लक्ष्य रखते हैं तब तक वे सम्यग्दर्शनमें परिणत नहीं होते, और जब विरोधका लक्ष्य छोड़कर पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते है तभी सम्यग्दर्शन में परिणत हो जाते हैं और जैनदशन कहलाने के योग्य होते हैं । जैनदर्शन अपने स्याद्वादन्याय द्वारा समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए है- समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है, न कि विरोध - और इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने अपने विरोधको भुलाकर उसमें समा जाते है । इसीसे प्रन्थकी अन्तिम गाथामें जिनवचनरूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मङ्गलकामना करते हुए उसे 'मिथ्य - दर्शनोंका समूहमय' बतलाया है। वह गाथा इस प्रकार है: भद्द मिच्छादंसण - समूहमइयरस अमयसारस्स ॥ जिणवयणस्स भगवओो संविग्गसुहाहिगम्मस्म ॥७०॥ इसमें जैनदर्शन ( शासन) के तीन खास विशेषणोंका उल्लेख किया गया है— पहल विशेषण मिथ्यादर्शनसमूहमय दूसरा अमृतसार और तीसरा संविग्नसुखाधिगम्य है । मिथ्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिध्यात्वरूप नहीं हैं, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्ष नयवाद में सन्निहित है-सापेक्ष नय मिथ्या नहीं होते, निरपेक्ष नय ही मिथ्या होते हैं'। जब सारी विरोधी दृष्टियाँ एकत्र स्थान पाती हैं तब फिर १ मिध्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥१८ - नामिमपलभतः
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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