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किरण ११ ।
सन्मात-सिद्धसनाक
। ४३९
"द्वष्य-श्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्वयद्वात्रिंशिकैकोनविंशतिः।"
दूसरी किसी द्वात्रिशिकाके अन्तमें ऐसा कोई पुष्पिकावाक्प नहीं है। पूर्वकी १८ और उत्तरवर्ती १ऐसे १६ द्वात्रिंशिकाओंके अन्तमें तो कर्ताका नाम तक भी नहीं दिया हैद्वात्रिंशिकाकी संख्यासूचक एक पंक्ति 'इति' शब्दसे युक्त अथवा वियुक्त और कहीं कहीं द्वात्रिंशिकाके नामके साथ भी दी हुई है।
(६) द्वात्रिंशिकाओंकी उपर्युक्त स्थितिमें यह कहना किसी तरह भी ठीक प्रतीत नहीं होता कि उपलब्ध सभी द्वात्रिंशिकाएँ अथवा २१वीको छोड़कर बीस द्वात्रिंशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेनकी ही कृतियाँ हैं; क्योंकि पहली, दूसरी, पाँचवीं और उन्नीसवीं ऐसी चार द्वात्रिंशिकाओंकी बाबत हम ऊपर देख चुके हैं कि वे सन्मतिके विरुद्ध जानेके कारण सन्मतिकारकी कृतियाँ नहीं बनतीं । शेष द्वात्रिंशिकाएँ यदि इन्हीं चार द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनामेसे किसी एक या एकसे अधिक सिद्धसेनोंकी रचनाएँ हैं तो भिन्न व्यक्तित्वके कारण उनमेंसे कोई भी सन्मतिकार मिद्धसेनकी कृति नहीं हो सकती। और यदि ऐसा नहीं है तो उनमेंसे अनेक द्वात्रिशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेनकी भी कृति हो सकती हैं परन्तु हैं
और अमुक अमुक है यह निश्चितरूपमें उस वक्त तक नहीं कहा जा सकता जब तक इस विपयका कोई स्पष्ट प्रमाण सामने न आजाए।
(७) अब रही न्यायावतारकी बात, यह ग्रन्थ सन्मतिसूत्रसे कोई एक शताब्दीसे भी अधिक बादका बना हुआ है, क्योकि इसपर समन्तभद्रस्वामीके उत्तरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) जैसे जैनाचार्योंका ही नहीं किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्योंका भी स्पष्ट प्रभाव है। डा. हर्मन जैकोबीके मतानुसार' धर्मकीर्तिने दिग्नागके प्रत्यक्षलक्षण में 'कल्पनापोढ' विशेषणके साथ 'अभ्रान्त' विशेषणकी वृद्धिकर उसे अपने अनुरूप सुधारा था अथवा प्रशस्तरूप दिया था और इसलिये "प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम" यह प्रत्यक्षका धर्मकीर्ति-प्रतिपादित प्रसिद्ध लक्षण है जो उनके न्यायबिन्दु ग्रन्थमें पाया जाता है और जिसमें 'अभ्रान्त' पद अपनी खाम विशेषता रखता है। न्यायावतारके चौथे पद्यमे प्रत्यक्षका लक्षण, अकलङ्कदेवकी तरह 'प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशं प्रत्यक्षम" दिया है और अगले पद्यमे, अनुमानका लक्षण देते हुए, 'तदभ्रान्त प्रमाणवात्समक्षवन" वाक्पके द्वारा उसे (प्रत्यक्षको) 'अभ्रान्त' विशेषणसे विशेषित भी सूचित किया है उससे यह साफ ध्वनित होता है कि सिद्धसेनके सामने-उनके लक्ष्यमे-धर्मकीर्तिका उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होंने अपने लक्षणमें ग्राहक' पदके प्रयोग-द्वारा जहाँ प्रत्यक्षको व्यवमायात्मक ज्ञान बतलाकर धर्मकीर्तिके 'कल्पनापोढ' विशेषणका निरसन अथवा वेधन किया है वहाँ उनके 'अभ्रान्त' विशेषणको प्रकारान्तरसे स्वीकार भी किया है। न्यायावतारके टीकाकार सिद्धर्षि भी ग्राहक' पदके द्वारा बौद्धो (धर्मकीर्ति)के उक्त लक्षणका निरसन होना बतलाते हैं । यथा
___"ग्राहकमिति च निर्णायकं दृष्टव्यं, निर्णयाभावेऽर्थग्रहणायोगात् । तेन यत् ताथागतैः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्षं कल्पनापाढमभ्रान्तम्' [न्या. बि. ४] इति, तदपास्तं भवति । तस्य युक्तिरिक्तत्वात् ।"
इसी तरह 'त्रिरूपालिङ्गाद्यदनुमेय ज्ञान तदनुमानं' यह धर्मकीर्तिके अनुमानका लक्षण है। इसमें त्रिरूपात्' पदक द्वारा लिङ्गको त्रिरूपात्मक बतलाकर अनुमानके साधारण १ देखो, 'समराहच्चकहा की जैकोबीकृत प्रस्तावना तथा न्यायावतारकी डा. पी. एल. वैद्यकृत प्रस्तावना । २ "प्रत्यक्ष कल्पनापोढ नामजात्याद्यसयुतमा” (प्रमाणसमुच्चय)।