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________________ किरण ७] दान-विचार २७३ दरिदोकी वृद्धि और आलमी मनुष्योंकी संख्या बढ़ती व्यापार बन्धके उत्पादक नहीं होते । अथवा यों कहना है और तीसरे अनर्थ परम्पराका बीजारोपण होता है. चाहिये कि जो सर्वोत्तम मनुष्य हैं वे बिना स्वार्थ ही परन्तु यदि से मनुष्य बुभुक्षित या रांगी हों तो उन्हे. दुसरका उपकार किया करते है। और उन्ही विशुद्ध (दान दृष्टिसे नहीं अपितु) कृपादृष्टिमे अन्न या परिणामोंके बलसे सर्वोत्तम पदके भोक्ता होते है । जैसे औपधि दान देना वर्जित नहीं है। क्योकि अनुकम्पा प्रखर सूर्यकी किरणोसे सन्तप्त जगतको शीतांशु दान देना प्राणीमात्रक लिय है। (चन्द्रमा) अपनी किरणो द्वारा निरपेक्ष शीतल कर दान देनेमें हेतु देता है, उसी प्रकार महान पुरुपोका स्वभाव है कि वे दान देनेमे प्राणियोके भिन्न-भिन्न हेत होते है। समार-तापमे सन्ता पित प्राणियोके तापको हरण कर लेते है। म्थूलदृष्टिसे परके दुःखको दूर करनेकी इच्छा मर्व माधारणकी कही जासकती है परन्तु पृथक-पृथक् मध्यम दावार दानागे भिन्न-भिन्न पात्रोमें दान देनेके हेतुऑपर यदि जो पराये दुःग्यको अपने स्वार्थके लिये दान करते आप मूत्मतम प्टिसे विचार करेंगे तव विभिन्न अनेक + है वह मध्यम दानार है। क्योंकि जहाँ इनके स्वार्थमे कारण दिखाई पडेंगे। उन हेतुओंमे जो मर्वोत्तम हेतु , 1 वाधा पहुँचती है वहाँपर यह परोपकारके कार्यको हो वही हमको ग्रहण करना चाहिये । १-किनने ही त्याग देन है। अतः इनके भी वास्तविक दयाका मनुष्य परका दुःख देख उन्हे अपनेसे जघन्य स्थिति विकाम नही होता परन्तु धनकी ममता अत्यन्त प्रबल में जानकर "दुखियाकी सहायता करना हमारा कर्तव्य है. धनको त्यागना सरल नहीं है अतः इनके द्वारा यदि है" मा विचारकर दान करते है। २-कितने ही अपनी कीर्ति के लिये ही धनका व्यय किया जावे मनुष्य दृमगक दुःव दूर करनेके लिये, परलोकम मुम्ब प्रानि और इम लोकमे प्रतिष्ठा (मान) के लिये किन्तु जब उसमे दमरे प्राणियोका दुःग्य दूर होता है तब परकी अपेक्षामे इनके दानको मध्यम कहने में दान करत है। ३-और कुछ लोग अपने नामके लिय काई मंकोच न करेगा। क्योकि वह दान से दान कानि पानेका लालच और जगतमे वाहवाहीके लिये करने वालेके आत्म-विकाममे प्रयोजक नहीं है। आपने द्रव्यको परोपकारमें दान करते है। दातारके भेद जघन्य दातार मुग्न्यनया दातारके तीन भेद होते है १-उत्तम जो मनुष्य केवल प्रतिष्ठा और कार्तिके लालचसे दातार २-मध्यम दातार ओर ३-जघन्य दाताह। दान करते है वे जघन्य दातार है। दानका फल लाभ उत्तम दातार निरशनपूर्वक शान्ति प्राप्त होना है. वह इन दातागेको जो मनुष्य निःस्वार्थ दान देते है पगय दुःश्वको नहीं मिलता। कमांकि दान देनसे शान्तिके प्रतिबन्धक दर करना ही जिनका कर्तव्य है वही उत्तम दातार हैं आभ्यन्तर लोभादि कपायका अभाव होता है अतएव परोपकार करते हुए भी जिनकं अहम्बुद्धिका लेश नहीं प्रात्मामे शान्ति मिलती है। जो कीर्तिप्रमारकी इच्छावहीं सम्यकदानी है और वही संसार मागरमे पार से देते है उनके आत्म-सुम्ब गुणक घातक कर्मकी हांत है; क्याकि निष्काम (निम्वार्थ) किया गया कार्य हीनना तो दूर रही प्रत्युत बन्ध ही होता है । अतएव बन्धका कारण नहीं होना । जो मनुष्य इच्छापूर्वक सदान देने वाले जो मानवगण हैं उनका चरित्र कार्य करंगा उमे कार्य मिद्धान्तके अनुमार नजन्य उत्तम नहीं । परन्तु जो मनुष्य लोभके वशीभूत होकर बन्धका फल अवश्य भोगना पड़ेगा। और जानिष्काम १पाई भी व्यय करने में संकोच करते है उनसे यह 'वृत्तिस कार्य करंगा उमके इच्छाके बिना कायादिकृत उत्कृष्ट है।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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