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धर्मका रहस्य (लेखक-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री)
शामकी चर्चा करना जितना मरल है उसके रहस्य और स्पर्शसे रहित है। राग, द्वेष, ईर्षा, मद. मात्सर्य, च (सत्यरूप) को हृदयङ्गम करना उतना ही कठिन अज्ञान. अदर्शन आदि दोष भी उसमें नही है । घर, है। यों तो अहिसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और स्त्री. सन्तान, कुटुम्ब, धन, दौलत. शरीर, वचन, मन, परिग्रहपरिमाणको सबने धर्म माना है। पर क्या इन्द्रियाँ, स्वदेश, विदेश, स्वराज्य, परराज्य आदि तो इतने मात्रसे हम धर्मका निर्णय कर सकते है। यह उसके हो ही कैसे सकते है। वह इनमें ममकार तथा एक सामान्य प्रश्न है जो प्रत्यक विचारशीलके हृदयमे अहङ्कार भी नहीं करता है। वह वर्णभेद तथा जातिभेदसे उठा करता है। और जबकि इन सब बातोके रहते भी पर है। छूत. अछूतका भी भेद उसमे नहीं है। वह हुए भी इनके माननेवाले परम्परमे घात-प्रत्याघात न किसीका आदर ही करता है और न अनादर ही। करते है बात-बातमे झूठ बोलते हैं, नफा-नुकसानको स्वयं भी वह किसीसे पूजा-सत्कार नहीं चाहता। न्यूनाधिक बताकर चारी करत है. अब्रह्मक सहायक इच्छा और वासना तो उसे छू तक नहीं गई है। उसे साधनांके जटानेमे लगे रहते है और जितना अधिक न भूख लगती है और न प्यास ही। जन्म, जरा, परिग्रह जुडता जाता है उतना ही अपना बड़प्पन मरण, आधि-व्याधि, आदि भी उसके नहीं होते। वह समझते है तब उसका हृदय सन्तापसे जलने लगता न ता शस्त्रसे काटा ही जा सकता है और न अग्निसे है और वह क्रमशः धर्मकी निःसारताको जीवनमे जलाया ही जा सकता है। वह किसी अन्य वस्तुका अनुभव करने लगता है। वह यह मानने लगता है कर्ता भाक्ता भी नहीं है। यदि कर्ता भोक्ता है भी तो कि ईश्वरवादके ममान यह भी एक वाद है जो व्यक्ति- प्रति समय होनेवाले अपने परिणामोंका ही कर्ता की स्वतन्त्रताका शत्रु है और पब अनर्थीकी जड़ है। भोक्ता है। विश्व अनादि और अविनश्वर है। उसका परन्तु विचार करनेपर ज्ञात होता है कि यह सब बनानेवाला भी वह नहीं है। ऐसा सर्व शक्तिमान धर्मका दाप नहीं है। किन्तु जिस अधर्मका त्याग ईश्वर भी नहीं है जिसने इसे बनाया हो। यह हमारा करने के लिये धर्मकी उत्पत्ति हुई है यह उसीका दाप बुद्धि-दाप है जिससे हम सवशक्तिमान ईश्वरकी कल्पना है। इस लिये मानवमात्रका कर्तव्य है कि वह धर्मका कर उसे विश्वका कना मानत है। यद्यपि जीव ऐसा है कित अनुमन्धान कर उसके सत्यरूपको समझनेका अनादि कालसे माह और अज्ञानवश वह अपने इस प्रयत्न कर।
स्वभावमच्युत हो रहा है। जैसे भाजनम नमक मिला धर्म शब्द 'धृ' धातुमें 'मप' प्रत्यय जोडनेमे देनपर उमका रम बदल जाता है या जैसे वर्षाका बनता है जिसका अर्थ धारण करनेवाला होता है। शुद्ध जल पात्रोंके मंदसे अनेक रसवाला हो जाता है इसके अनुसार धर्म जीवनकी वह परिणति है जिसके वैसे ही जीवके साथ कर्मका बन्धन होनेसे उसमें धारण करनेसे प्रत्येक प्राणी अपनी उन्नति करने में अनेक विकारी भाव पैदा होगये हैं। जिसके धारण सफल होता है।
करनेसे जीवकं य विकारी भाव दूर होते है उसीका धर्म सब पदार्थोंमें व्याप रहा है। वह व्यापक नाम धर्म है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। सत्य है। जिमका जो स्वभाव है वहीं उसका धर्म है। धर्मका विचार मुख्यतः दो दृष्टियोसे किया जाता जीवका स्वभाव ज्ञान. दर्शन है। वह रूप, रस. गन्ध है। पहली प्राध्यात्मिक दृष्टि है और दूसरी व्याव