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अनेकान्त
[ वर्ष ६
हारिक । जिसमें श्रात्माकी विविध अवस्थाओंका कर्ता गये हैं किन्तु धर्म दो नहीं हैं। यह तो एक ही वस्तुको स्वयं आत्माको बतलाकर अपनी शुद्ध अवस्थाको दो पहलुओसे समझनेका तरीका है। प्रकृतमें धर्म है प्राप्तिके लिये प्रात्म-पुरुषार्थको जागृत किया जाता है, जीवका स्वभाव और अधर्म है जीवमें विकारी भाव । वह अध्यात्म-दृष्टि है और जिसमें अशुद्धताका कारण जहाँ अधर्मका त्याग कर धर्मको धारण करना चाहिये, निमित्तको बतलाकर उसके त्यागका उपदेश दिया ऐसा उपदेश दिया जाता है वहाँ इसका यह अर्थ जाता है वह व्यावहारिक दृष्टि है। इस हिसाबसे धर्म लिया जाता है कि काम, क्रोध, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य दो भागों में बँट जाता है-अध्यात्म धर्म और व्यवहार आदि विकारी भावोंका त्याग कर क्षमा, मादव, धर्म । अध्यात्म धर्मका दूसरा नाम निश्चय धर्म है और आर्जव आदि भावोंको धारण करना चाहिये। व्यवहार धर्मका दूसरा नाम उपचार धर्म है।
अधिकतर लोकमें बाह्य क्रियाकाण्डपर अधिक पुराणोमें एक कथा आई है। उसमें बतलाया है जोर दिया है और उसे ही धर्म माना जाता है। कि श्रमण भगवान महावारके समयमें वारिषेण और आन्तरिक परिणतिके सुधारपर कदाचित भी ध्यान पुष्पडाल नामक दो मित्र थे। वारिपेण राजपुत्र था नहीं दिया जाता है। यह स्थिति उत्तरोत्तर बढ़ती ही
और पुष्पडाल वैश्यपुत्र । एक समय वारिषेण श्रमण जा रही है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें इसका एकाधिकार भगवान महावीरका उपदेश सुनकर साधु हो गया। है। जो अपनेको साधु, त्यागी या व्रती मानते है जब यह बात पुष्पडालको ज्ञात हुई तो मित्रस्नेहवश उनमें भी इस अवस्थाका बोलबाला है। हमने अपनेवह भी दीक्षित होगया । पुष्पडाल साधधर्ममे तो को माधु, त्यागी या व्रती माननेवाले से कई मनुष्य दीक्षित होगया किन्तु वह अपनी एकमात्र कानी स्त्रीको देखे है जो स्वभावसे क्रोधी है. मायावी है. दम्भी हैं न भुला सका।
या झूठ बोलते है और भोजनके समय आकाशजब वारिपेरणने इस बातको जाना तो वह विचार- पातालको एक कर देते है । उनका दावा है कि पिण्डमें पड़ गया और गृहस्थ अवस्थाकी अपनी बत्तीस शुद्धि (शरीर-शुद्धि) के बिना आत्म-शुद्धि हो ही नहीं स्त्रियोंको दिखाकर उसका मोह दुर किया।
सकती। इसके लिये वे गायको नहला कर उसका दूध __ यद्यपि इस कथानकमे पुष्पडालके सच्चे साधु न दुहाते हैं। चौके में धुले हुए कपड़े पहने ऐसे आदमीको, बन सकनेका कारण व्यवहारसे उसकी एकमात्र कानी जिसे दुसरेने स्पर्श कर लिया हो घुसने नहीं देते। स्त्रोको बतलाया गया है किन्तु अध्यात्मिक पहलू हर किसीको पानी नहीं भरने देते । सिजाए हए इससे भिन्न है। इस दृष्टिसे तो साधु बनने में बाधक भोजनको चौकसे बाहर नहीं लाने देत । छूताछूतको ममताको ही माना जा सकता है। स्त्रियाँ दोनोंके थीं मानकर जिन्हे वे छूत ममझते है उन सबके हाथका फिर भी एक साधु बन जाता है और दूसरा नहीं बन भोजन नही लेते। गृहत्यागी होकर भी पैसे रखते हैं पाता है, इसका मुख्य कारण उनकी आन्तरिक परि. और इस बातको अच्छा समझते हैं कि हम किसीका णति ही है। बाह्य निमित्त तो उपचारसे ही किसी न खाकर अपना ही खाते हैं। स्वयं अपने हाथसे कार्यके होने या न होनेमें साधक बाधक माने जाते हैं। दाल. चावल आदि सोधते हैं। दिनका बहुभाग इसीमें निश्चयसे जिस वस्तुकी जिस कालमे जैसी योग्यता निकाल देते है । धर्मको स्वीकार करने-करानेमें भेद होती है तदनुकूल कार्य होता है। निश्चय धर्म और करते हैं। यह अवस्था केवल इन्हीकी नहीं हैं ऐसे व्यवहार धर्म इसी अन्तरको बतलाते हैं। इसीसे कई गृहस्थ है जो इनका अन्धानुसरण करते है। निश्चय घटि उपादेय मानी गई है और व्यवहार किन्तु जैनधर्म ऐसे क्रियाकाण्डको स्वीकार नहीं दृष्टि हेय ।
करता । भोजन शुद्धि एक बात है और भोजन शुद्धिके इस प्रकार यद्यपि दृष्टि-भेदसे धर्म दो बतलाये नामपर घृणा और अहंकारका प्रचार करना दुसरी