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किरण ७ ]
जैन पुरातन अवशेष
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कलावशेषांका ज्ञान प्राप्त करनेकी व्यवस्था होनी को प्रकाशित करने वाले मौलिक माधन सुरक्षित रखे चाहिए, कमसे कम मनाहम एकलाम तो होना ही जाये, अलग-अलग कुछ गृहस्थोके पास सामप्रियाँ हैं चाहिए । इमसे विद्यार्थियांक हृदयम कला भावनाके पर उनका देवना सभीके लिय मम्भव नही जब तक अंकुर फूटने लगेग. होसकता है उनमेसे कर्मठ कार्य- उनकी वैयक्तिक कृपा न हो। कर्ता भी तैयार होजाये । ग्रीष्मावकाशमं जो-शिक्षण में जैनतीर्थों और प्राचीन मन्दिरोंके जीणोद्धार शिविर" हाना है उसमें भी ३-४ भापण इस विषयपर करानेवाले धनत्रानोका कहूँगा कि जहाँ कहींका भी प्रायोजिन हो तो क्या हर्ज है गत वर्ष कलकत्तासे मैंने जीणोद्धार कगवं भूलकर भी प्राचीन वस्तुको समूल विद्वत परिपदक मन्त्रीजीका ध्यान शिल्पकलापर नष्ट न करें, न जाने क्या बुरी हवा हमार समाजपर भापण दिलानेकी ओर आकृष्ट किया था पर ३-३ पत्र अधिकार जमाए हुए है कि लोग पुरानी कलापूर्ण देनके बावजूद भी उनका श्रीरसे कोई उत्तर आज तक मामग्रीका हटाकर तुरन्त मकरानंक पत्थरसे रिक्त मै प्रान न कर सका । संस्कृतके विद्वानांको इतनी इन- स्थानकी पूर्ती कर देन है और वे अपनेको धन्य भी की उपेक्षा न करनी चाहिए । जिम युगमे हम जाते हैं मानते है। यही बर्दा भाग भूल है। न केवल जैन और आगामी नवनिर्माणम यदि हम अपना साम्कृतिक ममाजका ही अपितु सभी भारतीयांका मंगमरमर योगदान करना है तो पापाणोंमे ही मस्तिष्कको टक- पापाणका बड़ा माह लगा हुआ है जो मूक्ष्म कलागाना होगा। इसमें काई सन्देश नहीं कि इस विषयका कौशलको पनपने नहीं देता। प्राचीन मन्दिर और माहित्य मामूहिक रूपमे एक स्थानमं प्रकाशिन नहीं कलापूर्ण जैनाद प्रतिमा एवं अन्य शिल्पांक दर्शनका हुआ. अतः वक्ताका परिश्रम तो करना होगा. उन्हें जिन्हें थाडा भी मौभाग्य प्राप्त है व दृढ़ता पूर्वक कह पर्याप्त अध्ययनक बाट वर्णित ऋनियांक माथ चक्षु- मकत है कि पुगनन प्रबल कल्पनाधार्ग कलाकार मयांग भी करना आवश्यक होगा। अस्तु, आग ध्यान और श्रीमन्तगण अपने ही प्रान्तम प्राप्त होने वाल दिया जायगा ना अच्छा है । मैं विश्वामक पाथ पापागणापर ही विविध भावोत्पादक शिल्पका प्रवाह कहना है कि वे दि इम विपयपर ध्यान दंग ना वना बड़ी ही योग्यता पूर्वक प्रवाहिन करन-करवान थे. की कर्मा नहीं रहेगी वनमानमे मै देखना है कि लोग वे इतनी शक्ति रखन थे कि कम भी पापारणको वे शीघ्र कह डालन है कि क्या करें. कोई विद्वान नहीं अपने अनुकूल बना लेने थे. उनपर कीगई पालिश मिलता है इसका कारण यही प्रतीत होता है कि मभी आज भी म्पर्धाकी वस्तु है। अल्प परिश्रममे आज विषयक विद्वानांका सम्पर्क न होना।
लांग मुन्दर शिल्पी जो आशा करन है वह जैन शिल्पकलाकं विशाल ज्ञान प्राम करनका दुगशा मात्र है। यह भी मार्ग है कि या ताम्वनन्त्रमपम इमक गम्भीर मरी मचि थी कि मैं जैन शिल्पकलांक जो जो माहित्यादिका अध्ययन किया जाय बादमे अवशेषां फुटकर चित्र जहाँ कहाँ मा प्रकाशित हा उनकी का विशिष्ट प्ठम ग्वामकर तुलनात्मक ष्टम मम- विस्तृत सूची एवं जिन महानुभावाने उपयुक्त विषयचिन निरीक्षण किया जाय अथवा पद्विषयक विशिष्ट पर आजतक महान परिश्रम कर जो महद् प्रकाश विद्वानोंक पास रहकर कुछ प्राप्त किया जाय दृमग डाला है उन प्रकाशित स्थान या पत्रादिका, उल्लंग्व तर्गका मर्व है बिना मा किय हमाग अध्ययन- कर दूं परन्तु
सायन- कर दं परन्त यां भी नाटका निबन्ध ना बन ही गया मूत्र विस्तृत और व्यापक मनांभावो तक पहुँचंगा है अनः अब कलवर बढ़ाना उचित न जानकर केवल नहीं। अस्तु ।
अनि मंतिमरूपस इतना ही कहंगा कि 'भारतीय जैन जैन ममाजके पास काई भी गमा व्यापक अजा- तीर्थ और उनका शिल्प स्थापन्य' नामक एक अन्य यबघर भी नहीं जिमम मांस्कृतिक सभी समस्याओं जैन शिल्प विद्वान श्री साराभाई नवाबने श्रम