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भनेकान्त
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आधुनिक 'रथयात्रा' उसीका विकसित रूप है। मिलता है. यह ई० पू० का जैनग्रन्थ है । उसमें अशोककी अहिंसा नीतिका उद्देश्य अकारण हिंसा अहिंसाका यह लक्षण किया है। एवं भोंडी करताको रोकना था प्रायः वह सबके प्रति 'मरद व जियद व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिसा । समचयाका पक्षपाती था, उसके सारे कार्य और नीति पयदस्स पत्थि बंधो हिसामित्तण समिदस्स ॥' इसी भावनासे अनुप्राणित थे एक राजाके नाते वह जीव मरे या न मरे, किन्तु जो श्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति जिस प्रकारकी अहिमा बिना किसी साम्प्रदायिक करता है वह हिसक है पर जो प्रयत्नशील है हिंसा आग्रहके प्रसारित कर सकता था उसमें अशोकने कोई हो जानेगरी निर्दोष है। कार-कसर नहीं रखी, कुछ ऐतिहामिकोंने मार्य प्राचार्योंने इसीलिये 'मा' और 'प्रमाद' को साम्राज्यके पतनमें उसकी 'धर्मविजय' की नीतिको हिंसा कहा है। इसी सिद्धान्नको तत्त्वार्थसूत्र में इस दोषी ठहराया है, पर जिन्होंने इतिहासका बारीकीसे प्रकार प्रथित किया गया है-'प्रमत्तयोगा-प्राणव्यपरोमनन किया है. उनसे यह बात छिपी नहीं कि अशोक पणे हिंसा अर्थ है कि प्रमादके योगसे प्राणोका की नीतिके कारण ही भारत महत्तर बना और वह वियोजन करना, ये प्राण परके भी हो सकते हैं और अपनी संस्कृति एशिया तथा अन्य राष्ट्रों में फैला सका अपने भी। जैन अहिसाकी मौलिक और दार्शनिक यदि मौर्य साम्राज्यके पतनका कारण अशोककी नीति मीमांसा इससे बढ़ कर दसरी नहीं हो सकनी ? को माना जाय, तो शुङ्ग अरि गुप्त साम्राज्यके पतनका मनुष्य बृद्धि जो परे है और जबसे उसमें यह चेतना कारण क्या था ? अस्तु ! यहाँ इतिहासको छानबीन जाग्रत हुई वह किसी भी तत्त्व' को बिना दर्शनके करना हमाग लक्ष्य नहीं है। अशाकके बाद जिन स्वीकार नहीं करता। वेदयुगका क्रियाकांड भले ही लोगोंने अहिंसा और शान्तिकी नीतिको आगे बढ़ाया जिज्ञासा और भयमुलक रहा हो परन्तु आगे आर्य उनमे सम्प्रतिका नाम मर्वप्रथम लिया जायगा। विचारकोंने सृष्टि ईश्वर, लोक परलोक आदि पर सम्प्रतिने जैनधर्मके प्रसारके लिये अनेक जतन किये खूब चिन्तन किया बिना दार्शनिक समाधानके उन्होंने परन्तु यहाँ जैनधर्म या बौद्धधमका संकुचित अर्थ नहीं किसी बातको स्वीकार नहीं किया। लेना चाहिये।
मनुष्य 'अहिमा' को क्यो अपनाए ? हिंसा क्या ___ मौर्य साम्राज्यके पतनके बादसे ई० प्रथम सदी है ? इत्यादि प्रश्नांका उत्तर खोजनेपर 'चेतन' 'तत्त्व' तक हम दो विचारोंका साथ-साथ विकास देखत है, की अनुभूति हुई; इस चेतन या जीव तत्त्वकी सत्ता पुष्यमित्र शुङ्गने न केवल शुगराज्य स्थापित किया अपितु प्रथक है यह वह जड़से उत्पन्न है ? वह स्वतन्त्र एक 'अश्वमेध-पुनरुद्धार' और धार्मिक रूढ़ियोंको पुनः इकाई है, या परमार्थसत्ताका एक अंश है. इन प्रश्नोंस्थापित किया उसकी घोषणा थी-“यो मे श्रमणशिपे का बहुत समय विचार होता रहा और तरह तरहके दास्यति तस्याहं दीनारं-शतं दास्यामि"-पिछले युगों मत खड़े हुएउनमें जो लोग 'ईश्वर'को कर्तारूप में भारतीय संस्कृतिसे जो धार्मिक हिसा उठती जारही मानते थे उनके विचारोका अन्त वेदान्त' विचार थीः इस युगमें वह पुनः जीवित हो उठी ठीक धारामें हुश्रा पर जो 'जीव'का स्वतन्त्र अस्तित्व इसी समय 'अहिंसाका वैज्ञानिक विवेचन लिखितरूप समझते थे, या जिन्होंने आत्मवाद'के गहरे मोहका में हमें देखनेका मिलता है। ऐसा जान पड़ता है कि निरसन करनेके लिए-अनात्मवाद और अनीश्वरशशासकोकी प्रतिक्रिया अधिक नहीं टिक सकी। वादका समर्थन किया-उनकी विचाराधारा श्रमण
आर्य विचारकोंके सामने प्रश्न आया कि अहिंसाका कहलाई । इस प्रकार-आत्मानुभूति द्वारा चेतन'की दार्शनिक आधार क्या हो? इसका प्रथम विश्लेषण सत्ता हो जानेपर-भारतीय विचारकोकी दृष्टि बाह्य जहाँ तक इस लेखकका अनुमान है. 'श्रोधनियुक्ति में से हटकर अन्तरकी ओर उन्मुख हुई । उन्होंने हिसा