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________________ ३६८ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ हो जाता है। और कविने शृङ्गारके अनेक उपकरणों- विहुणवि सिरु विभियचित्त बुचई मामु ण वणियवरु । के साथ जम्बू और नव परिणीतावधुओंके संभोग पञ्चक्षु दइउ इय सत्तिए अवस होसि तुहं वीरणरु ।१९। शृङ्गारका वर्णन किया है। कविने इस सन्धिको विस्मितचित्त होकर शिर हिलाकर कहता हैअत्यन्त उपयुक्त विवाहोत्सव' नाम दिया है (संधि ) मामा वणिकमात्र ही नहीं है, प्रत्यक्ष देवसे प्राप्त शक्ति __ महिलाओंके मोहसे उत्पन्न प्रेमसे जम्बूके हृदयमें से युक्त अवश्य तुम वीर पुरुष हो । (सन्धिह) वैराग्य उत्पन्न होता है। महिलाओंकी वे निन्दा करत दसवी सन्धिमे कई मनोहर आख्यान जम्यू और हैं. उनकी विरक्ति भावनाको दूर करनेके लिए जम्बू- विद्युञ्चरद्वारा कहे गये है। जम्बू वैराग्यमें उपसंहार की प्रियतमाएँ कमलश्री. कनकश्री. विनयश्री, रूपश्री होनेवाल आख्यान कहकर विषय-भागाकी निस्सारता प्राचीन कथानक कहती है; जम्बू इसके विपरीत दिखाते हैं और विद्युञ्चर वैराग्यको निरर्थक बतानेवाले वैराग्यकं महत्वको प्रतिपादित करनेवाली कहानियाँ पाख्यान कहता है। अन्तमे जम्बूकी दृढ़तासे वह कहत है । बात करते-करते इस प्रकार आधी रात प्रभावित होजाता है। जम्बू सुधमस्वामीसे तपस्याकी बीत गई किन्तु कुमारका मन सांसारिक प्रेममें नहीं दीक्षा ले लेत है, सभी उनकी पत्नियाँ आर्यिका होजाती लगा. इमी समय विद्युचर चोरी करता हुआ नगरमें है विद्युञ्चर भी प्रव्रज्याका व्रत ले लेता है। सुधर्मआया स्वामी निर्वाण प्राप्त करते हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान गउ अद्धरत्त वोल्लंतहो तो वि कुमार ण भव रमई। प्राप्त करते हैं और अन्तमें संल्लेखना करते हुए निर्वाण तहें काले चोर विज्जुचरु चोरेवइ परे परिभमई ॥१॥ प्राप्त करते हैं । विद्युञ्चर भ्रमण करता हुआ ताम्रलिप्त नगरमें घूमता हुश्रा जम्बूके गृहमें विद्यचर पुरमे पहुंचता है जहाँ कात्यायनी भद्रमासके प्राधान्य पहुंचता है। जम्बूकी माता मोई नहीं थी, चारका के समाचार जाननेपर उसने कहा कि वह जो चाह सो ग्यारहवी मन्धिमे विद्युमरके दविधधर्म पालनले ले। विद्यञ्चरका जब जम्बूकी माता शिवदेवासे जम्ब द्वारा और तपस्याद्वारा अन्तमे ममाधिमरण पूर्वक की वैराग्य-भावनाके विषयमें ज्ञात हा तो उसने सर्वार्थसिद्धि प्राप्तिका वर्णन है ग्रन्थकी ममाप्ति करते प्रतिज्ञा की कि या तो वह जम्बूकुमारके हृदयमें हुए कविन कहा है कि उसकी कृतिका पाठ करनेसे विषयोंमें रति उत्पन्न कर देगा और नहीं तो स्वयं मङ्गलकी प्राप्ति होती है। तपस्या-व्रत ले लेगा जम्बूस्वामिचरितकी ग्यारह सन्धियोमेसे प्रायः वहुवयण-कमल-रसलंपुड भमरु कुमारु ण जइ करमि । । प्रत्येक सद् काव्यकी प्रशसा की गई है। कविने आएणसमाणु विहाणए तो तव चरणु हउं विसरमि।२३। १ सन्धि प्रथममे कई उल्लेखोंके साथ अन्तमे कहा है वधुओके वदनकमलमें कुमारको रम-लम्पट 'कव्वेय पूर्वसिद्धर्थ वा भयोपक्रियते मया' । भ्रमर यदि नहीं करूँ तो मैं भी इसीके समान प्रातः- सन्धि ३के प्रारम्भमे निम्न प्राकृत पद्य है:काल तपश्चरण करूंगा।' - वालक्कोलासुवि वीर वयण पसरत कब्ब-पीऊस । जम्बूकी माता रात्रिको उसी समय उस चोरको करणपुडएहि पिजह जणेहि रस मउलियछेहि ॥१॥ अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके समीप लेजाती है। भरहालकारसलक्खणाइ लक्खे पयाइ विरयती । जम्बू वेष बदले हुए विद्युञ्चरको देखकर उसमे कुशल वीरस्स वयणरगे सरस्सई जयउ गच्चती ॥२॥ प्रश्न करके पूछते हैं कि उसने किन-किन देशो भ्रमण सन्धि ५के प्रारम्भमे स्वयम , पुष्पदन्त ओर देवदत्त किया। व्यापारके भ्रमण किय देशोके नामांको सुनकर कवियोंकी प्रशसाके साथ वीरकी प्रशसा की गई है:जम्बू उसे बड़ा वीर समझते हैं दिवसेहिं दह कवित्त णिलए णिलयम्मि दूरमायगणं ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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