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________________ ३८८ ] यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के चौककी दीवारमें स्वचित है। मूर्त्तिका शिर धड़ से अलग होनेपर पुनः जोड़ दिया है। चिह्न जगह एक कमल है। जो किसी कलाका द्योतक है । २। फुट पद्मासन है । पाषाण काला है। लेख नम्बर १५ सं० १२०९ आषाढ वदी ८ गुरौ जयसवालान्वये साहु श्रीवाहड़ तत्सतो सोमपति मल्हणौ तथा साहु श्री नमिचन्द्र तत्सुतौ माहिल - पंडित देल्हणौ तथा साहु श्रीरत तत्सुताः - सीद - भावु - कल्हणाः एते नित्यं प्रणमन्ति । भावार्थ:- जैसवालवंशों पैदा हुए शाह श्रीबाहड़ उनके पुत्र दो - सोमपति और मल्हण । तथा शाह श्रीनमिचन्द्र उनके पुत्र दो - माहिल पंडित तथा देल्हण । तथा शाह श्रीरत उनके पुत्र तीन-सीद, भाव और कल्ह इन्होंने सं० १२०० आषाढ़ वदी ८ गुरुवारको प्रतिष्ठा कराई। ये सब सदा प्रणाम करते हैं। यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १के चौकमे शिर जोड़ कर चिन दी गई है। चिह्न शेरका है । २। फुटकी ऊँची पद्मासन है । काला पाषाण है । बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है लेख नम्बर १६ 1 सं० १२३७ मार्ग सुदी ३ शुक्र । उपशमक्षमः ॥ श्रीवीरदेव इत्यासीत्, खण्डेलान्वयभास्करः । प्रतिद्यावार्यतेयोभूत्तत्पुत्रो कमला निवास वसतिः, कमलदलाक्षः प्रसन्न मुखकमलः । बुधकमल- कमलबन्धुः विकलंकः कमलदेव इति ॥ श्री वीरवर्द्ध मानस्य विम्बं तत्पुण्यवृद्धये । कारितं केशवेनेदं तत्पुत्रेण निर्मलम् ॥ साहु श्रीमामटस्याऽपि पुत्रो देवहरानिघः । तेनापि कारितं चैत्यं तर्वादेवात्र वेतसा । भावार्थ: खण्डेलवाल वंशोत्पन्न सद्वशके लिये सूर्यके समान वीरदेव हुए। जो बड़े बुद्धिमान थे। उन के पुत्र अनुपमेय था । जो लक्ष्मीका निवास था. जिसकी आँखें कमलपत्र के समान थीं। जिसका मुख अनेकान्त [ वर्ष प्रसन्न था । और जो पंडितरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिये सूर्य था । और जो निर्मल था - ऐसे कमलदेव हुए । उनके पुत्र केशवने पुण्य-वृद्धि के लिये श्रीवीर बर्द्धमान भगवानकी प्रतिमा बनवाई | यह मूर्ति भी मन्दिर नं १ के चौकमे चिनी है । शिर धड़से अलग है । पुनः जोड़ा गया है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है । करीब २ फुट पद्मासन है । पाषाण काला है। चिह्न दण्डका है । लेख नम्बर १७ सं० १९६६ चैत्र सुदी १३ गर्गराटान्वये साहु वाक तस्य सुत साह लालसाल्हण नाइव तम्य सुत साहु मालुराज सोमदेव एते नित्यं प्रणमन्ति । भावार्थ:-राट वंशमें पैदा होनेवाले शाह वाक उनके पुत्र शाह लालसाल्हण नाइब उसके पुत्र दो - मालुराज और सोमदेवने १९६६ के चैत्र सुदी १३को विम्ब प्रतिष्ठा कराई। ये सब सदा प्रणाम करते है । यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १ के चौकमं शिर जोड़ कर चिन दी गई है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर । चिह्न शेर प्रतीत होता है | १|| फुटकी ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है । लेख नम्बर १८ कुट कान्वये पंडितस्रीलक्ष्मणदेवस्तस्य शिष्य श्रीमदार्यादेवः तथा आर्यिका ज्ञानस्त्री साहेलिकामामातिणी एतया जिनविम्बं प्रतिष्ठापितम् ॥ सं १२१३ । भावार्थ:- कुटकवंशमे पैदा होनेवाले पंडितश्री लक्ष्मणदेव उनके शिष्य श्रीमदार्यदेव तथा श्रर्यिका ज्ञानस्त्री-सहेल्लिका-मामातिणी इन्होने सं० १०१३ में fararast प्रतिष्ठा कराई। यह मूर्त्ति मन्दिर नं० १के बाहरी जीनाके बाई तरफ एक छोटी कुटी में विराजमान है। दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं। आसनके नीचे देत्रियाँ बैठी हैं। दाई तरफका आसन टूट जानेसे देवीकी मूर्ति भी टूट गई है । मूर्ति प्रायः अखण्डित है । सिर्फ घुटनोंपर तथा नासिका तथा दाढ़ीका हिस्सा छिल गया है। दाएँ हाथका अंगूठा तथा पासकी अंगुली टूट गई है।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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