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________________ अनेकान्त [ वर्ष मनोभावोसे काम न लिया जाय । मत्यको प्रकट कर उपर्युक्त पंक्तियोंसे जैनोंके कलात्मक विशिष्ट अयदेने में ही जैनधर्मकी ठोम सेवा है। शेषांका स्थूलाभाम मिल जाता है एवं इस बातका • प्रतिमा लेखांकी चर्चा या तो प्रसङ्गानुमार भी पता चल जाता है कि हमारे पूर्व पुरुषोंने कितनी उपर्यत पंक्तियां मे होचुकी है कि दशम शतीके बाद महान अखूट सम्पत्ति रख छोडी है। सच कहा जाये इसका विकास हुआ। ज्या-ज्यो प्रतिमाएँ बड़ी-बड़ी तो किमी भी मभ्य समाजके लिये इनसे बढ़कर बनती गई त्या-त्या उनके निर्माण-विधानमे भी कला- उचित और प्रगति-पथ-प्रेरक उत्तराधिकार हो ही क्या काराने परिवर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। १२वी शनी मकता है ? सांस्कृतिक दृष्टिसे इन शिलाखण्डोंका बहुत मे लगातार आज तक जो-जो मूतिये बनी उनकी बडा महत्त्व है मैं तो कहेंगा हमारी और मार राष्ट्रकी बैठकके पश्चान और अग्रभागमे स्थान काफी छूट जाता उन्नतिके अमर तत्त्व इन्होम लुम है। बाहरी अनायथा वहीं पर लेख वदवाए जाते थे। म्पष्ट कहा जाय म्लेच्छांके भीपण अाक्रमणोक बाद भी सत्य पारतो दमीलिय स्थान छोडा जाता था। जब कि पूर्वमं म्परिक दृष्टिसे अखगिडत है। अतः किन किन दृष्टियो इस स्थानपर धर्मचक्र या विशेष चिह्न या नवग्रह आदि से इनकी उपयोगिता है यह आजक युगमे बनाना बनाये जाते देखे गय है। लेखोमें प्रतिस्पर्धा भी थी. पूर्व कथित उक्तियोका अनुसरण या पिटपेषण मात्र है धातुप्रतिमाओपर भी मंवत. प्रतिष्ठापक प्राचाय, समय निःस्वार्थभावसे काम करनेका है। समय अनु. निर्मापक, स्थान आदि सूचक लेख रहते थे. जब पूर्व- कूल है। वायुमण्डल साथ है। अनुशीलनके बाह्य कालीन प्रतिमाओंमें केवल संवत और नामका ही साधनाका और शक्तिका भी अभाव नहीं। अब यहाँ निर्देश रहता था। हाँ, इतना कहना पड़ेगा कि जैनाने पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इतने विशाल प्रदेशचाहे पापाण या धातुकी ही प्रतिमा क्या न हो, पर मे प्रमारित जैन अवशेषोकी सुरक्षा कैसे की जाय उनम लिपि-सौदर्य ज्योका त्यो सुरक्षित रखा. मध्य- और उनके सार्वजनिक महत्वसे हमारे अजैन विद्वतकालीन लिपि-विकासके इतिहासमं वर्णित जैन लेखा समाजका कैसे परिचय कगया जाय, दानो प्रश्न का स्थान अनुपम है। दिगम्बर जैनसमाजकी अपेक्षा गम्भीर तो है पर जैन जैसी धनी समाजके लिये श्वेताम्बरोंने इसपर अधिक ध्यान दिया है । कभी-कभी असम्भव नहीं है। जो अवशेष भारत मरकार द्वारा प्रतिमाओंके पश्चात भागोमे चित्र भी खाद जांत थे। स्थापित पुरातत्त्वके अधिकारमे और जैन मन्दिरोमे ये लेख हजारांकी संख्याम प्रकट होचुके है पर अप्रका- विद्यमान है व तो मुरक्षित हैं ही, परन्तु जो यत्र तत्र शित भी कम नहीं' । २५८० बीकानेरके हैं ५०० मेरे सर्वत्र खण्डहरोमे पड़े हैं और जैन समाजके अधिमंग्रहम है, श्रीसाराभाई नबाबके पाम सैकडों है और कारम भी ऐसी वस्तु है जिनके महत्वका न तो भी होगे। इनकी उपयोगिता केवल जैनोंके लिये ही समाज जानता है न उनकी ओर कोई लक्ष ही है। है इसे मैं स्वीकार न करूंगा। मैने अवशेषांके प्रत्येक भागमे सूचित किया है कि जैन पुरातत्त्व विषयक एक स्वतन्त्र ग्रन्थमाला ही स्थापित १ आज भी अनेको प्रतिमाएं ऐसी हैं जिनके लेख नहीं की जाय जिसमे निम्न भागोका कार्य सञ्चालित हो:लिये गये । दिगम्बर प्रतिमाओंकी सख्या इसमें अधिक १-जैनमन्दिरोका मचित्र ऐतिहासिक परिचय । है। जैन मुनि विहार करते हैं वे कम से कम पाने वाले -जैन गुफाएँ और उनका स्थापत्य. सचित्र । मन्दिरके लेख लेले, तो काम हल्का होजायगा, दि० ३-जैन प्रतिमाओंकी कलाका क्रमिक विकाम । मुनियोंके साथ जो पडितादि परिवार रहता है वह भी इसे चार भागोमे बॉटना होगा । तभी कार्य सुन्दर कर सकता है। क्योंकि दि० मन्दिरोंमे श्वेताम्बशेको स्वा और व्यवस्थित हो सकता है। भाविक सुविधा नहीं मिलती है, मुझे अनुभव है। जैनलेग्य । इसे भी चार भागोमे विभाजित करना
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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