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अनेकान्त
[ वर्ष ।
परिहार नहीं होता, वसतिकापर प्रेम उत्पन्न होता है, अलसता, सौकुमार्यभावना, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च सुखमें लम्पटपना उत्पन्न होता है, आलस्य आता है, दोषाः। पज्जो समणकप्पो नाम दशमः । वषोसुकुमारताकी भावना उत्पन्न होती है, जिन श्रावकोंके । यहां आहार पूर्व में हुआ था वहां ही पुनरपि आहार कालस्य चतुषु मासेषु एकत्रवावस्थानं भ्रमणलेना पड़ता है, ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये त्यागः । स्थावरजङ्गमजीवाकुलो हि तदा क्षितिः मुनि एक ही स्थानमें चिरकाल तक रहते नहीं हैं।' तदा भ्रमणे महानसंयमः, वृष्टया शीतवातपातेन दशवें स्थितिकल्पमें चतुर्मासमें एक ही स्थानपर रहने का विधान किया है और १२० दिन एक स्थानपर रह
वात्मविराधना । पतेद् वाप्यादिषु स्थाणुकएटसकनेका उत्सर्ग नियम बतलाया है। कमती बढ़ती कादिभिर्वा प्रच्छन्नजलेन कद्देमेन बाध्यत इति दिन ठहरनेका अपवाद नियम भी इसप्रकार बतलाया विंशत्यधिक दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्ययमुहै कि श्रुतग्रहण, (अभ्यास) वृष्टिकी बहुलता शक्तिका त्सर्गः। कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वासस्थान, अभाव, वैयावृत्य करना आदि प्रयोजन हो तो ३६ दिन और अधिक ठहर सकते हैं अर्थात् आषाढशुक्ला
संयतानां आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच दशमीसे प्रारम्भ कर कार्तिक पौर्णमासीके श्रागे तीस दिन तक एक स्थानमें और अधिक रह सकते हैं। बहुलता, श्रतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्यकरणं कम दिन ठहरनेके कारण ये बतलाये हैं कि मरी रोग, प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्ट--- दुर्भिक्ष, ग्राम अथवा देशके लोगांको राज्य-क्रान्ति श्रादिसे अपना स्थान छोड़कर अन्य प्रामादिकोंमें कालः । मायौं, दुर्भिक्षे, ग्रामजनगदचलने वा जाना पड़े, संधके नाशका निमित्त उपस्थित हो जाय गच्छनाशनिमिचे समुपस्थिते देशान्तरं याति । आदि, तो मुनि चतुर्मासमें भी अन्य स्थानको विहार अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । कर जाते हैं। विहार न करनेपर रत्नत्रयके नाशकी पौर्णमास्यामापोट्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु सम्भावना होती है। इसलिये आषाढ़ पूर्णिमा बीत जानेपर प्रतिपदा आदि तिथियों में दूसरे स्थानको जा दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विंशति-दिवसा सकते हैं और इसतरह एकसौबीस दिनोंमेसे बीस दिन एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एष दशमः स्थिति-- कम हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त वर्षों ठहरनेका वहां कल्पः" -विजयोदया टी० पृ०६१६ । कोई अपवाद नहीं है। यथा
आचार्य शान्तिसागर महाराज सङ्घ सहित वषभर __"ऋतुषु पटसु एकेकमेव मासमेकत्र वसति- शोलापुर शहर में किस दृष्टि अथवा किस शास्त्रके रन्यदा विहरति इत्ययं नवमः स्थितिकल्पः। आधारसे ठहरे रहे। इस सम्बन्धमें सबको अपनी
दृष्टि स्पष्ट कर देना चाहिए, जिससे भविष्यमे दिगएकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमुद्गमदोपं च न
म्बर मुनिराजाम शिथिलाचारिता और न बढ़ जाय । परिहतुं क्षमः। क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता,
-दरबारीलाल कोठिया