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सन्नास-सत्ताक
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लब्ध नहीं होता। इतनेपर भी प्रबन्ध-वर्णित सिद्धसेनकी कृतियों में उसे भी शामिल किया जाता है ! यह कितने आश्चर्यकी बात है इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं।
प्रन्थकी प्रस्तावनामें पं० सुखलालजी आदिने, यह प्रतिपादन करते हुए कि 'उक्त प्रबन्धोंमें वे द्वात्रिंशिकाएँ भी जिनमें किसीकी स्तुति नहीं है और जो अन्य दर्शनों तथा स्वदर्शनके मन्तव्योके निरूपण तथा समालोचनको लिये हुए है स्तुतिरूपमें परिगणित हैं और उन्हें दिवाकर(सिद्धसेन)के जीवनमें उनकी कृतिरूपसे स्थान मिला है, इसे एक पहेली' ही बतलाया है जो स्वदर्शनका निरूपण करनेवाले और द्वात्रिंशिकाओसे न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेवाले) 'सन्मतिप्रकरण'को दिवाकरके जीवनवृत्तान्त और उनकी कृतियोंमें स्थान क्यों नहीं मिला। परन्तु इस पहेलीका कोई समुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रायः इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया गया है कि 'सन्मतिप्रकरण यदि बत्तीस श्लोकपरिमाण होता तो वह प्राकृतभाषामें होते हुए भी दिवाकरके जीवनवृत्तान्तमें स्थान पाई हुई संस्कृत बत्तीसियोके साथमें परिगणित हुए विना शायद ही रहता।' पहेलीका यह हल कुछ भी महत्व नहीं रखता । प्रबन्धोसे इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बातका कोई पता ही चलता है कि उपलब्ध जी द्वात्रिशिकाएँ स्तुत्यात्मक नहीं हैं वे सब दिवाकर सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तमें दाखिल हो गई है और उन्हें भी उन्हीं सिद्धसेनकी कृतिरूपसे उनमें स्थान मिला है, जिससे उक्त प्रतिपादनका हो समर्थन होता-प्रबन्धवर्णित जीवनवृत्तान्तमें उनका कही कोई उल्लेख ही नहीं है। एकमात्र प्रभावकचरितमे 'न्यायावतार'का जो असम्बद्ध, असमर्थित और असमञ्जम उल्लेख मिलता है उसपरसे उसकी गणना उस द्वाविशद्वात्रिंशिकाके अङ्गरूपमें नहीं की जा सकती जा सब जिन-स्तुतिपरक थी. वह एक जुदा ही स्वतन्त्र ग्रन्थ है जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है। और सन्मतिप्रकरणका बत्तीस श्लोकपरिमाण न होना भी सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तसे सम्बद्ध कृतियोमें उसके परिगणित हानेके लिये कोई बाधक नहीं कहा जा सकता-खासकर उस हालतमें जब कि चवालीस पद्यसंख्यावाले कल्याणमन्दिरस्तोत्रको उनकी कृतियाम परिगणित किया गया है और प्रभावकचरितमे इस पद्यसंख्याका स्पष्ट उल्लेख भी माथमे मौजूद है। वास्तवमें प्रबन्धोपरसे यह ग्रन्थ उन सिद्धसेनदिवाकरकी कृति मालूम ही नहीं होता. जो वृद्धवादीके शिष्य थे और जिन्हे आगमग्रन्थोंको संस्कृतमें अनुवादित करनेका अभिप्रायमात्र व्यक्त करनेपर पारश्चिकप्रायश्चित्तक रूपमे बारह वर्ष तक श्वताम्बर संघसे बाहर रहनेका कठार दण्ड दिया जाना बतलाया जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थका उन्हीं सिद्धसेनकी कृति बतलाना, यह सब बादकी कल्पना और योजना ही जान पड़ती है।
पं० सुखलालजीने प्रस्तावनामे तथा अन्यत्र भी द्वात्रिंशिकाओ. न्यायावतार और सन्मतिसूत्रका एककतृत्व प्रतिपादन करनेके लिये कोई खास हेतु प्रस्तुत नहीं किया, जिससे इन सब कृतियोका एक ही प्राचार्यकृत माना जा सके, प्रस्तावनामे केवल इतना ही लिख दिया है कि 'इन सबके पीछे रहा हुश्रा प्रतिभाका समान तत्त्व ऐसा माननेके लिये ललचाता है कि ये सब कृतियाँ किसी एक ही प्रतिभाके फल है।' यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकारसे अपनी मान्यताका प्रकाशनमात्र हैं; क्योकि इन सभी प्रन्थोपरसे प्रतिभाका ऐसा कोई असाधारण समान तत्व उपलब्ध नहीं होता जिसका अन्यत्र कही भी दर्शन न होता हा । स्वामी समन्तभद्रके मात्र स्वयम्भूस्तोत्र और आप्तमीमांसा ग्रन्थोंके साथ इन ग्रन्थोकी तुलना करते हुए स्वयं प्रस्तावनालेखकाने दोनोंमें 'पुष्कल साम्य'का होना स्वीकार किया
१ ततश्चतुश्चत्वारिशद्वृत्तां स्तुतिमसो जगी । कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्यातां जिनशासने ॥१४४॥
-वृद्धवादिप्रबन्ध पृ०१०१।