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________________ ३४८ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ बुद्धके मस्तकपर उष्णीष होता है और जैन तीर्थङ्करों- हैं. पीछे छायामण्डल और छातीपर श्रीवत्साङ्क है। की मूर्तियोंमें इसका अभाव है। कुषाणकलाका यह सुन्दर उदाहरण है। बी १२ ___मूर्ति-निर्माणकी दृष्टिसे हम मथुरा कलाको त्रिधा ऋषभदेवकी प्रतिमा है और इसपर उनका चिह्न विभाजित कर सकत हैं: बैल उत्कीर्ण है। • (१) कुषाणकालीन कला-कुषाणकालकी जैन (1) गुप्तकालीन कला-भारतीय कलाके इलिमूर्तियोमें समयके प्रभावकी वही सब विशेषताएँ हैं जो हासमे गुप्तयुग स्वर्णयुग माना जाता है। इस युगमे बुद्ध मूर्तियों में हैं । इस समयकी जैन मूर्तियाँ खड़गासन पाकर कला पूर्ण विकसित हाचका थी और भाव और पद्मासन दानो आसनोंमें पाई जाती है और प्रदर्शन उसका मुख्य लक्ष्य हो गया था। इस काल में उनमेंसे अधिकांश अभिलिखित हैं । नं० बी २-३-४- बनी मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर सुडौल समानुपात और ६३ आदि पद्मासन और बी ३५-३६ आदि खड़गा- प्रभावकतापूर्ण है। सारनाथकी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रासनके नमूने है। में स्थित बुद्धमूर्ति और मथुराकी भिक्षु यशदिन्न द्वारा बी • कुपाग राजा वासुदेवके राज्यकालमं शक दान की गई अभय मुद्रामे खड़ी बुद्धमूर्ति (नं० ए. ५) सं०८३मे जिन-दामी द्वारा दान की गई थी। बी४ इमी कालकी देन हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी अभिलिखित प्रतिमा है और जैन मूर्तियोमेसे मथुग संग्रहालयकी नं. बी उसपर लिया गया मूल लेग्व इस प्रकार है:- की मृति विशेष महत्त्वकी है जो दरीची नं. २ १. सिद्ध महाराजस्य रजतिरजम्य देवपुत्रम्य (Court B) दक्षिणी भागमे अनेक मृनियांक (शाही) वासुदेवस्य राज्यमंवत्सरं ८ (+)४ साथ प्रदर्शित है। इसमे एक तीर्थङ्कर उत्थित पद्माग्रीष्ममासे द्वि. मनमे समाधिमुद्रामे बैठे है। उनकी दृष्टि नामिकाक २. दि ५ एतस्य पूर्वाया भट्टदत्तम्य उगनिदकम्य कारणपर जमी हुई है. ला जैन शास्त्रोम ध्यानका वधुये स्य कुटुबिनी ये गृत्त कुमार (द) श्रावश्यक अङ्ग बताया गया है । पीछ हस्तिनम्व. त्तम्य निर्वर्तन मणिबन्ध और अनेक प्रकारके बेलवृटोसे अलंकृत ३. भगवतो अरहती रिपभदेवम्य प्रतिमा प्रतिष्ठा- प्रभामण्डल है जो गुप्तकालकी विशेषता है । यह मूर्ति पिता धरसहम्य कुटुबिनीये . . . . मथुरामे प्राप्त तीर्थङ्कर मूर्तियोंमे कला और प्रभावइम लेखमे महाराज वासुदेवकी सभी राजकीय शीलताम सर्वोत्कृष्ट है। उत्थित पद्मासन एक कठिन उपाधियो तथा संवतः४में भगवान अहन ऋषभदेव- आमन माना गया है और यह उसका उदाहरण है। की प्रतिमा प्रतिष्ठित किए जानेका उल्लेख है। मूर्ति मंख्या बी ६-७-३३ गुप्तकालीन कलाके ____ नं. ४६० वर्धमान स्वामीको प्रतिमा थी जिसकी अन्य नमूने है। बी ३३ खड्गामन मूर्ति है जिमके चौकी मात्र अवशिष्ट रह गई है। इसे मंवत ८४ नीचे और ऊपरका भाग टूट गया है. मिफ धड़ बाकी (१६२ ई०)मे दमित्रकी पुत्री अोखरिका आदिने दानमे है। तीर्थङ्करके दाना और दो पार्श्वचर (?) कमलपर दिया था। मूल लेग्व इस प्रकार है: खड़े है और पाछे अलकृत प्रभामण्डल है। नबी १. सिद्ध स८० (+ ) ४ व ३ दि २० (+) ६-पद्मासन और ध्यान मुद्राकी मूर्तियाँ है और ५एतस्य पूर्वाया दमित्रस्य धित आंख ऋषभनाथकी हैं। इनके कन्धोपर बाल लटक रहे है २. रिकाये कुटुबिनीये दत्ताये दीनं वर्धमान प्रतिमा जो ऋषभनाथका विशेष चिह्न है। दानी मूर्नियामे ३. गणातो कोहियातो __.. दानों और पार्श्वचर है और पीछ पूर्ववन बलबृटोसे बी ६३ पद्मामन मूर्ति है और इसम चौकीपर धर्मचक्र- अलंकृत प्रभामण्डल भी है। की पूजाका दृश्य है। तीर्थकरके टोना और दो पार्श्वचर वैसे तो इस कालकी और भी अनकों मूर्तियाँ
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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