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________________ किरण ६] तीन चित्र [३४१ हम कषायपङ्कसे नहीं निकल सकते । अतः निश्चय- की आवाज अब फिरसे उठी है और वह भी कुन्द नयका सम्पूर्ण वर्णन हमारे सामने कागजपर मोटे कुन्टके नामपर। भावनीय पदार्थ जुदा हैं उनसे मोटे अक्षरोंमें लिखा हुश्रा टॅगा रहे ताकि हम अपनी तत्त्वव्यवस्था नहीं होती यह मै पहले लिख चुका हूँ। उम परमदशाको प्राप्त करनेकी दिशाम प्रयत्नशील यो ही भारतवर्षने नियतिवाद और ईश्वरवादके रहे। न कि हम तो सिद्ध है कर्मासे अस्पृष्ट हैं यह कारण तथा कर्मवादके स्वरूपको ठीक नही समझनेके मानकर मिथ्या अहङ्कारका पोषण करें और जीवन- कारण अपनी यह नितान्त परतन्त्र स्थिति उत्पन्न चारित्र्यस विमुख हो निश्चयकान्तरूपी मिथ्यात्वको कर ली थी । किसी तरह अब नव-स्वातन्त्र्योदय बढ़ावें। हुआ है। इम युगमें वस्तुतत्त्वका वह निरूपण हो जिमसे सुन्दर समाजव्यवस्था-घटक व्यक्तिका निर्माण ये कुन्दकुन्दके अवतार हो।धर्म और अध्यात्मके नामपर और कुन्दकुन्दाचार्यमानगढ़में यह प्रवाद है कि श्रीकानजीस्वामी के सुनामपर आलस्य-पापक नियतिवादका प्रचार न कुन्दकुन्दके जीव हैं और वे कुन्दकुन्दके समान ही हो। हम सम्यक तत्त्वव्यवस्थाका समझे और मद्गुरुरूपसे पुजते हैं। उन्हें सद्गुरुभक्ति ही समन्तभद्रादि प्राचार्योंके द्वारा परिशीलित उभयमुखी विशिष्ट आकर्षणका कार्यक्रम है। यहॉसे नियतिवाद- तत्त्वव्यवस्थाका मनन करें। -भारतीयजानपीट काशी। तीन चित्र (लेग्बक-श्रीजमनालाल जैन, माहिल्यग्न्न ) दग्बनेकी वस्तु दीख विना कैमे रह ' परन्तु यदि उठी है । काई उमे देख नहीं पाता ता वस्तुका क्या दाप' और पर? जो नहीं देखना चाहता उसे भी कम दाप दिया जाय? पर वह अपने आपमे अकेला है, अनन्त मे ही कई प्रश्रोका लेकर मै हैरतमे पड़ गया है।.. आकाश तथा विस्तृत वसुधाके बीच उसका अस्तित्व एक कलाकार है। उसने अपनी मानमिक अधरताका प्रतीक है। उमका ऐसा कोई नहीं जा उसे भूमिकापर गहराई तथा वेदनाको अनुभूतियोका बल अपना कह सके, काई नहीं जो उसको निन्दा करनेकी पाकर अपने पॉव स्थिर किये हैं और जगतको अपनी मामर्थ्य रख सके । प्रकृतिके जिन कुरूप-सुरूप साधना द्वारा सत्य शिव तथा सुन्दरकी अभिव्यक्ति उपादानोका. ज्यातिमण्डलके प्रकाशमान नक्षत्रोको. दी है। उसकी रेखा-रेखामे, शब्द-शब्दम. कल्पनाके नद-नदी-निर्भगका उमने अविभाज्य प्यार किया. कण-कणमें कविताकी लहर-लहरमें जीवन बोल रहा अपनेमे श्रात्म-सान किया. क्या वे भी उमम दूर नहीं है. गा रहा है नाच रहा है। पढ़ते. सुनते तथा देखते है ? उमके एकाकी. निरीहपनको अनुभव कर शायद समय ऐसा लगता है मानो प्रत्यक प्राणीकी श्रात्म- यह सब भी अपनी विवशताओंका. दुर्बलताओंको देख. पुकार उसकी अपनी व्यथामें समाहित हो गई है। आँखोसे ओझल हो जाते रहते है। और वह है जो अपना उसकी कला विश्वमानवताकी प्रतीक. प्रतिनिधि हो कार्य अनवरत किये जा रहा है। विश्वकी मानवताको
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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