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अनेकान्त
[ वर्ष ९
का गलन आश्रय लेते फिर है जिनमे एक 'धर्ममंग्रह- लक्ष्यम लेकर लिखा गया है-तीन ही उसमे नम्बर श्रावकाचार' जैमा अनार्ष प्रन्थ भी शामिल है, जो हैं। पहले नम्बरपर व्याकरणाचार्य पं० वन्शीधरजी विक्रमकी १६वीं शताब्दीक एक पण्डित मेधावीका का नाम है, दूसरे नम्बरपर मेग नाम (जुगलकिशोर) बनाया हुआ है। यह है अध्यापकजीक न्यायका एक 'सुधारकशिरोमणि' के पदसे विभूषित ! और नमूना, जिसे आपने स्वय जजका जामा पहनकर तीसरे नम्बरपर 'मम्पादक जैनमित्रजी' ऐमा नामोअपने पास सुरक्षित रख छोड़ा है और यह घोषित ल्लेख है। परन्तु इम चैलेञ्जकी कोई कापी अध्यापककिया है कि "इम चैलजका लिखित उत्तर सीधा जीन मेरे पास भेजने की कृपा नहीं की। दूसरे हमारे पास ही आना चाहिये अन्यथा लेखोंके हम विद्वानोंके पाम भी वह भेजी गई या कि नहीं, इसका जुम्मेवार नहीं होंगे।"
मुझे कुछ पता नहीं, पर खयाल यही होता है कि. इसके मिवाय, लेख में सुधारकोंको 'आगमके शायद उन्हें भी मेरी तरह नहीं भेजी गई है और विरुद्ध कार्य करने वाले', 'जनताको धोखा देने वाले यों ही-मम्बद्ध विद्वानोंको खासतौरपर सूचित किये और 'काली करतूतों वाले' लिखकर उनके प्रति जहाँ बिना ही-चैलेञ्जको चरितार्थ हुआ समझ लिया अपशब्दोंका प्रयोग करते हुए अपने हृदय-कालुष्यको गया है | अम्तु। व्यक्त किया है वहाँ उसके द्वारा यह भी व्यक्त कर लेखम व्याकरणाचार्य पं० वन्शीधरजीका एक दिया है कि श्राप सुधारकोंके किसी भी वाद या वाक्य, कोई आठ वर्ष पहलेका, जैनमित्रमे उद्धृत प्रतिवाद के सम्बन्धमे कोई जजमेंट (फैसला) देन किया गया है और वह निम्न प्रकार हैअधिकारी अथवा पात्र नहीं हैं।
__ "जब कि भगवानके ममोशरणमे नीचसे नीच गालबन इन्हीं मब बातों अथवा इनमेसे कुछ व्यक्ति स्थान पाते हैं तो ममझमे नहीं आता कि श्राज यातको लक्ष्यम लेकर ही विचार-निष्ठ विद्वानोंने दम्मा लोग उनकी पूजा और प्रक्षालम क्यों गके अध्यापकजीके इस चैलेज-लेखको विडम्बना-मात्र
डम्बना-मात्र जाते है।" समभा है और इमीम उनमसे शायद किमीकी भी इम वाक्यपरमं अध्यापकजी प्रथम तो यह अब नक इमक विषयम कुछ लिम्बनकी प्रवृत्ति नहीं फलित करते है कि "दम्माओंके पूजनाधिकारका हुई. परन्तु उनके इस मीन अथवा उपेक्षाभावमे सिद्ध करने के लिा ही आप (व्याकरणाचायजी) अनुचित लाभ उठाया जा रहा है और अनेक स्थलो मांशरणमें शदीका उपस्थित होना बतलाते है।" पर उसे लेकर व्यर्थकी कूद-फांद और गल-गजना की इमक अनन्तर-"तो इसके लिये हम आदिपुराण जाती है। यह सब देखकर ही श्राज मुझे अवकाश और उत्तरपरारण आपकं ममक्षमे उपस्थित करते है" नहाते हुए भी लेखनी उठानी पड़ रही है। मैं अपने ऐसा लिवकर व्याकरणाचार्यजीको बाध्य करते है इम लेख-द्वारा यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कि वे उक्त दोनों ग्रन्थोंक आधारपर "शूद्रोंका किमी अध्यापकजीका चैलेंज कितना बेहूदा, बेतुका तथा भी तीर्थकरके समोशरणमे उपस्थित होना प्रमाणों आत्मघातक है और उनके लेखमे दिये हुए जिन
द्वारा सिद्ध करके दिखलावे। साथ ही तर्कपूर्वक प्रमाणोंके बलपर कूदा जाता है अथवा अहंकारसे पूर्ण
अपने जजमेटका नमूना प्रस्तुत करते हुए लिम्बते है बात की जाती है वे कितने नि:मार, निष्प्राण एवं --"यदि आप इन ऐतिहामिक प्रन्थों द्वारा शूद्रोंका श्रमजत हैं और उनके आधारपर खड़ा हुधा किसी समोशरणमे जाना सिद्ध नहीं कर सके तो दस्सायों का भी बहकार कितना बेकार है।
के पूजनाधिकारका कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध उक्त चैलेज लेख सुधारकोंके साथ आमतौरपर हो जायगा" और फिर पूछते है कि "मङ्गठनकी आड सम्बद्ध होते हुए भी खासतौरपर तीन विद्वानोंको लेकर जिन दस्साओंको आपने आगमके विरुद्ध