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________________ सम्पादकीय भारतीय स्थिति - मिल जानेसे प्रत्येक प्रान्तवाले स्वच्छन्द और उन्मत्त हो उठे हैं। मानो बन्दरोंके हाथमे डण्डे देकर उनके भारतके बेर और फूट दो प्रसिद्ध मेवे हैं, इन्हीं समक्ष गुड़की भेली डाल दीगई है, जो गुड़का उपभोग की बदौलत भारतको अनेक दुर्दिन देखने पड़े है। न करके एक-दसरेको मार भगानेमे व्यस्त हैं। धार्मिक संकीर्णता, अनुदारता, प्रान्तीयता और जातिमदको परतन्त्रताका अभिशाप समझा जाता प्रत्येक प्रान्तवाले अपने-अपने प्रान्तमे नौकरी, था। लोगोंका विचार था कि जिस रोज परतन्त्रता- व्यापार, उद्योग-धन्धे और राजकीय सुविधाएँ सब गक्षसीका जनाज़ा निकलेगा, ये दुषित विचार म्वय अपने प्रान्तवालोंके लिये सुरक्षित रखना चाहते है। उसके साथ दफन हो जाएंगे। परन्तु यह धारणा अभारतीयसे अधिक अब अन्य प्रान्तीय विदेशी स्वप्रकी तरह क्षणभरको भी मधुर न हो मकी ममझा जाने लगा है। और तारीफ यह है कि इम "वही रफ्तार वेढगी जो पहले थी मो अब भी है।" प्रान्तीय रोगस ग्रसित प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रान्तकं अतिरिक्त अन्य प्रान्तोंमे भी अपने प्रान्तवालोंके लिये म्वतन्त्र होने के बाद देश-विभाजनके फलम्वरूप पूरी सुविधा चाहता है । भारतवासी होनेके नाते य जो नर-मेध-यज्ञ, सीता-हरण और लङ्का-दहन-काण्ड लोग भारतकं हर कोनेमे व्यापार, उद्योग-धन्धे, उसपर बर्द्धमान-कालीन यज्ञोंके पराजित नौकरियों आदिमे समान अधिकार चाहते है, किन्तु पुरोहित, रावण और दुर्योधन, राक्षस और हलाकू- अपने प्रान्तमे अन्य प्रान्तवासीको फूटी आँखसे भी चैगेज, तैमूर-नादिरशाह, डायर-ओडायरके प्रेत देखना नहीं चाहते। "जब तुम हमारे घर आओगे ठहाका मारकर हँस रह है। दरिन्दे जानवर अपनको तो क्या लायोगे ? और जब हम तुम्हारे यहाँ भुनगा समझने लगे हैं, गधे हमारी करतूतोपर आएँगे तो क्या दोगे?" किमी कजूमका कहा हश्रा मुस्करा रहे है और चील-कौओं, शृगाल और गिधों यह वाक्य इस ममय शतप्रतिशत चरितार्थ हो रहा है। को इस बात का अभिमान है कि वे मनुष्य नहीं है। "बङ्गाल बङ्गालियोंका है, ये मारवाड़ी यहूदी हैं, भारतकी इस दयनीय स्थितिको संक्रमण (प्रसव) पचाबी उहण्ड और झगडालू है" यह धारणा बजकाल समझकर धैर्य रखे हुए थे कि सम्भवतया वासियोमे बैठाई जा रही है । बिहारमे बिहारी, स्वतन्त्रताके बाद ऐमा होना आवश्यक था। किन्तु बझाली. उडियाको लेकर मर्ष चलने लगे है। यह मक्रमणकाल तो भारतको मक्रामक-कीटाणुओं- महाराष्टीय, गजराती, पारसी, मद्रासी कभी प्रान्तीयता की तरह नष्टप्राय किये दे रहा है। भारतकी यह और जातीयताके कृपसे निकले ही नहीं। मी०पी०, नाजुक हालत देखकर देशकै कणधारोंक मुंहसे बबस य०पी० और दिल्ली प्रान्त इस छतकी बीमारीसे निकल पड़ा है-“यदि भारतकी यही स्थिति रही तो अछते थे किन्तु जबसं पाकिस्तानी हिन्दुओंका प्रवेश वह अपनी स्वतन्त्रताको खो बैठेगा।" हुआ है, तबसे उनके सक्रामक-कीटाणु इनमे भी जो कुसंस्कार और कुविचार परतन्त्रताकी विषैली प्रवेश करते जारहे हैं। यदि शीघ्र इम बीमारीका बायुसे मान्दसे दीख पड़ने लगेथे, वे ही स्वच्छन्दताके उपचार न हुआ तो भारत जैसा विशाल देश युरुप, झोंकसे प्रज्वलित हो उठे है । प्रान्तीय स्वतन्त्रता इङ्गनेण्ड, फ्रान्स, बेलजियम, स्वीडन, डेनमार्क,
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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