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पाकिस्तानी पत्र
[पं० उग्रसेन गोस्वामी बी० ए०, एल-एल० बी० रावलपिंडी जिले के अन्तर्गत सैय्यद कसरा गॉवके रहने वाले हैं | विभाजन होनेसे पूर्वं कई लाखके आदमी थे । मकान-बगीचा था, सैकड़ों बीघे जमीन थी । गॉव में अपनी भद्रता और वंश प्रतिष्ठा के कारण श्रादर-सम्मान की दृष्टिसे देखे जाते थे । आजकल डालमियानगरमें रहते हैं और मेरे पास उठते बैठते हैं। इनके बाल्य-सखा कसरा साहबके अक्सर पत्र पाकिस्तान से आते रहते हैं । एक पत्र उनमेसे नीचे दिया जा रहा है। कमरा साहब उर्दू के ख्यातिप्राप्त शायर और लेखक हैं। बड़े नेक सहृदय मुसलमान हैं । डालमियानगर में भारत-विभाजनसे पूर्व एक बार तशरीफ लाये थे; तब उनकी पत्नीका देहान्त हुए ४ रोज हुए थे। फिर भी मेरे यहाँ बच्चे की वर्षगाँठ में सम्मिलित हुए मुबारकबादी- ग़जल पढी । रातके १२-१ बजे तक शेरोशायरीका दौर चला, परन्तु यह श्राभान तक न हो सका कि श्रापपर पत्नी वियोगका पहाड़ टूट पडा है । उनके जानेके बाद ही उक्त घटनाका पता चला । ऐसा वज्र-हृदय मनुष्य भी पञ्जाबका रक्त-काण्ड देखकर रो उठा । - गोयलीय ]
मुहन्विये दिलनवाज जनाब गोस्वामी साहब,
यह ख़त क्यों भेज रहा हूँ, कुछ न पूछिये । मैने सैयदके हालात सुने है, अभी गया नहीं। लेकिन जो कुछ सुना है, वह इतना है कि मै और आप अपने हमवतनोकी रजालत, मजहबी दीवानगी और दरिन्दगी की वजह से कभी किसी मौजिज शख्शके सामने शर्मिन्दगीसे सर नही उठा सकेंगे। एक दीवानगीका सैलाब था, जो आया और रास्तेमें जो कुछ भी मिला उसे बहाकर ले गया । गाँवके एक-एक मकान को जलाया गया। स्कूलको खाकिस्तर कर दिया । यह नही सोचा कि आइन्दा बच्चो की तालीमका क्या होगा ? चीज मिटाई तो आसानीसे जा सकती है, लेकिन बनाना मुश्किल होता है । फिर इस क़िस्मके अदारे जिसमें हर कौम और हर मज़हबके बच्चे अपने मजाक और काबलियत के मुताबिक फायदा उठा सकते है । इनको मिटाना एक ऐसा गुनाह है जिसको कोई माफ़ नही कर सकता ।
रावलपिडी, जेहलम, केमलपुर या जैसे अजला जहाँ अहले नूद और सिक्ख भाइयोकी तादाद कम है। ह! इस अकलियतको किस तरह बरबाद किया गया । ऐसा जुल्म तो किसी बडे-से-बड़े जालिम बादशाहने भी मखलू के खुदापर नहीं किया । चंगेज और हलाकू फिसाने बनकर रह गये । इस तरक्की के जमानें यह बरबरेयत ? या अल्लाह ! ख़ुदाकी पनाह, दिल नही चाहता कि ऐसे मुल्क में रहें । यह मुल्क दरिन्दोका मुल्क है । इन्सानियतकी क़ीमत यहाँ कुछ भी नहीं । जज्चये शराफत नापैद और खिजफे रजालत अनगिनत । अत्र कैसा सलाम और कैसी दुआ ? मिलें भी तो कैसे मिलें ? वे सिल्सिले ख़त्म हो गये । वे दिन जाते रहे । इन्सानियत बदल गई। मेरे भाई, मै आपसे निहायत शर्मिन्दा हॅू कि मेरी क़ौमने दरिन्दगीका वह मजाहिरा किया जिसके लिये मेरा सर हमेशा नीचा रहेगा। - गुलाम हुसैन कसरा मिनहास