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अनेकान्त
[वर्ष ९
से वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति करके नाना कुयोनियोंमे है ? उमका मूल स्थान बतलायें ? गया। क्या उसके इस अभिमानका उल्लेख प्राचीन मुखमाल्हादनाकारं विज्ञान मेयबोधनम् । शास्त्रोंमे आया है ?
शक्तिः क्रियानुमेया स्यादयूनः कान्ताममागमे ।। ९ समाधान हाँ, आया है। जिनसेनाचार्य ११ समाधान-उक्त पद्य अनेक ग्रन्थोंसे कृत आदिपुराण के अतिरिक्त भद्रबाहुकृत आवश्यक उधृत पाया जाता है। प्राचार्य विद्यानन्दने अष्टनियुक्तिमे भी मरीचिके अभिमानका उल्लेख मिलता सहस्रो (पृ. ७८) में इसे 'इतिवचनात' शब्दोंके साथ है और वह निम्न प्रकार है
दिया है । आचार्य अभयदेवने सन्मतिसूत्र-टीका तव्ययण मोकण तिवइ श्राफोडि ऊग तिक्ग्युत्तो । (पृ०४७८)मे इस पद्यको उद्धृत करते हुए लिखा हैअब्भहियजा यह रिमो तत्थ मरीई इम भणई ।।४३०॥ "नच सोगतमतमेतत् न जैनमतमिति वक्तव्यम् , जइ वासुदेबु पढमो मूअाइ विदेहि चक्कट्टित्त । 'महभाविनी गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः' [ ] इति चरमो तित्थयराण होऊ अलं इत्तिय मम ॥४३१॥ जैनैरभिधानात् । तथा च सहभावित्व गुणाना प्रतिपादयता
१० शङ्का-पूजा और अर्चामे क्या भेद है ? दृष्टान्तार्थमुक्तम्-" क्या दोनों एक है?
इसके बाद उक्त पद्य दिया है। सिद्धिविनिश्चय १० ममाधान-याप मामान्यतः दोनोंमे कोई टीकाकार बड़े अन-तवीयने इसी पद्यका निम्न प्रकार भेद नहीं है, पर्याय शव्दीक रूपम दोनोंका प्रयोग उल्लेख किया हैरूढ़ है तथापि दोनोंमे कुछ सूक्ष्म भेद जरूर है। इस कथमन्यथा न्यायविनिश्चये 'सहभुवो गुणाः' इत्यस्य भेदको श्रीवीरसेनस्वामीने पट खण्डागमके 'बन्ध- 'मुग्वमाल्हादनाकार ' इति निदर्शनं स्यात् ।"-(टी०लि. स्वामित्व' नामके दूसरे खण्डकी धवला टीका पुस्तक पृ० ७६ ।) आठमे इस प्रकार बतलाया है
अभयदेव और अनन्तवीयके इन उल्लेखोंसे "चरु बलि पाय फल-गन्ध धृव-दीवादीहि सगभत्तिप- प्रतीत होता है कि
- प्रतीत होता है कि गुणोंके महभावीपना प्रतिपादन घामो अच्चण गाम । एदाहि मह अइधय कप्परुप्य महा
करने के लिय दृष्टान्तकं नौरपर उसे अकलङ्कदेवने मह सम्वदोभट्टादिमहिमाविहाण पूजा णाम ।" पृ०६२।
न्यायविनिश्चयमें कहा है। परन्तु न्यायविनिश्चय मूल अर्थात चरु, बलि (अक्षत), पुष्प, फल, गन्ध,
म यह पद्य उपलब्ध नहीं होता । हो सकता है उसकी धूप और दीप इत्यादिसे अपनी भक्ति प्रकाशित करना
म्वोपज्ञवृत्तिमे उमे कहा हो । मृलमे तो सिर्फ ५११वी अर्चना (अर्चा) है और इन पदार्थोके माथ ऐन्द्रध्वज
कारिकाम इतना ही कहा है कि 'गुण पययवद्रव्य कल्पवृक्ष, महामह, मर्वतोभद्र आदि महिमा (धर्म- ते महक्रमवृत्तयः' । यदि वस्तुतः यह पदा न्यायप्रभावना)का करना पृजा है।
विनिश्चयवृत्तिम कहा है तो यह प्रश्न उठता है कि तात्पर्य यह कि फलादि द्रव्योंको चढ़ा (म्वाहा- वहाँ वृत्ति कारने उसे उद्धृत किया है या स्वय रचकर पूर्वक समर्पण कर मक्षपम लघ भक्तिको प्रकट उपस्थित किया है ? यदि उद्धृत किया है तो मालम करना अर्चा है और उक्त द्रव्यां सहित समारोह होता है कि वह अकलङ्कदवसे भी प्राचीन है। और पूर्वक विशाल भक्तिका प्रकट करना पूजा है। यदि म्वय रचा है तो उसे उनके न्यायविनिश्चयकी यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रध्वज
स्वोपज्ञवृत्तिका ममझना चाहिए । वादिराजमृरिने आदि पूजामहोत्सवका विधान वीरसेनम्वामीसे
न्यार्यावनिश्चयविवरण (प० २४. पूर्वाः) मे 'यथाक्तं बहुत पहलेसे विहित है और जैन शामनकी प्रभावना . स्याद्वादमहाणवे' शब्दोंके उल्लेख-पूर्वक उक्त पद्यको मे उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
प्रस्तुत किया है, जिससे वह 'स्याद्वादमहार्णव' नामक ११ शङ्का-निम्न पद्य किम ग्रन्थका मूल पद्य किसी जैन दार्शनिक ग्रन्थका जाना जाता है। यह