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________________ प्रकाशकीय वक्तव्य वर्षके प्रारम्भमें 'अनेकान्त'के रूपमें परिवर्तन करने और उसमें प्रगति लानेके लिये श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया, पं० परमानन्दजी शास्त्री और मेरी वीरसेवामन्दिरमें एक बैठक की गई थी। इस बैठकमें काफी ऊहापोहके बाद सम्पादक मण्डलका निमाण किया गया था और उसमें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त श्रद्धास्पद मुनि कान्तिसागरजीको भी सम्मिलित किया गया था तथा मेरी और पं० दरबारीलालजी कोठियाकी सेवायें भी स्वीकृत की गई थीं। हर्ष है कि मुनि कान्तिसागरजीने भ्रमणमें रहते हुए भी अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया। आन्तरिक अभिलाषा थी कि 'अनेकान्त'को जिस तरह हम देहलीसे प्रारम्भमे तीन वर्षोंसे प्रकाशित करते रहे हैं उसी तरहसे वह नियमितरूपमें निकलता रहे । लेकिन सहारनपुरके अच्छेसे अच्छे और जिम्मेदारसे जिम्मेदार प्रेससे मनमाने दामोंपर कण्ट्रेक्ट करनेपर भी न 'अनेकान्त' समयपर निकाल सके और न उसे सुन्दर ही बना सके। और इसी आत्मग्लानिके कारण हम जैनेतर विद्वानोसे लेख मॉगनेमें भी हिचकिचाते रहे। श्रद्धेय मुनिजीका विचार है कि 'अनेकान्त'का प्रकाशन बनारससे हो, जिससे प्रेसादि सम्बन्धी बहुत कुछ असुविधाओसे बचा जा सकेगा तथा जैनेतर विद्वानोके लेखोंसे भी उसे अलंकृत किया जा सकेगा। इसके लिय जो व्यय होगा ज्ञानपीठ उसको उठानेके लिये प्रस्तुत है। इस वर्षमे ज्ञानपीठने 'अनेकान्त'को काफी घाटेमें प्रकाशित किया है, जबकि आज हिन्दीके पत्र-पत्रिकाएँ लाभमे चल रही है तब जैनसमाज-जैसे सम्पन्न समुदायका पत्र यूँ रिं रि करके प्रकाशित हा, हमार सब उत्साहपर पानी फर देता है। समझमें नहीं आता कि हम किस मुंहसे बहुश्रुत विद्वानांसे लेख माँगे और प्रेसमे जूतियों चटकातं फिरें। खैर इसमे दोष हम अपना ही समझत है। जैसी पाठ्यसामग्री चाहिए वैसी उन्हें नहीं दे पाये और कलापूर्ण प्रकाशन भी नहीं कर पाय । हमारा विश्वास है कि हम काश : एसा करत तो अनेकान्तक हितैषियोको सख्या आवश्यकतासे अधिक बढ़ती और अनेकान्त और भी ज्यादा लोकप्रिय होता। हम अब आगामी वर्ष इस कमीका भी पूरा करनेका प्रयत्न करेगे। और अनेकान्तके निम्न स्थायी स्तम्भ जारी रखेंगे १-कथाकहानी, २-स्मृतिकी रेखाएँ, ३-कार्यकताओके पत्र, ४-गौरवगाथा, ५-हमारे पराक्रमी पूर्वज, ६-पुरानी बातोंकी खोज, ७-सुभाषित, ८-शङ्कासमाधान और ह-सम्पादकीय। अयोध्याप्रसाद गोयलीय मन्त्री 'भारतीय ज्ञानपीठ' काशी। लोक-प्रिय बने हुए हैं और लोक-हृदयोमे विशिष्ट आदरको प्राप्त है। निःसन्देह यह सद्भाग्य उनकी सेवाओका प्रतिरूप है, जो कम लोगोंको प्राप्त होता है। गत फरवरीमे आपके पौत्रका देहलीमे विवाह था, जो कहते हैं देहलोके ज्ञात इतिहासमे अभूतपूर्व था, उसके उपलक्षमे आपने छयालास हजार ४६०००)का अनुकरणीय दान किया है। पञ्चीस हज़ार देहलीकी विभिन्न संस्थाओके लिये और इक्कीस हजार समाजकी विविध संस्थाओंके लिये दिये गये हैं। जहॉतक हमे ज्ञात है. विवाहात्सवपर इतना बड़ा दान समाजमें पहला दान है। हमारे यहाँ विवाइके दूसर मदोंमे तो बड़ा खर्च किया जाता है पर दानमें बहुत कम निकाला जाता है। यदि समाज फिजूलखर्चीको घटाकर इस दिशामे गति करे तो विवाह एक बोझा मालूम न पड़ेगा और सामाजिक संस्थाएँ भी समृद्धि तथा समुन्नत होंगी। सरसेठ साहबने उक्त दानमेंसे दोसौ एक २०१) रुपये वीरसेवामन्दिरकी सहायतार्थ भी भिजवाये हैं जिसके लिये वे धन्यवादके पात्र है। -दरबारीलाल जैन, कोठिया
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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