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किरण १२ ]
ब्रह्मथ तसागरका समय ार साहित्य
हुए थे, जिनमें प्रथम पुत्र कर्मसिह. जिमका शरीर भूरिरनगुणोसे विभूषित था और दूसरा पुत्र कुलभूषण काल था, जो शत्रुकुलके लिय कालस्वरूप था, तीसरा पुत्र पुण्यशाली श्रीघापर, जो सघन पापरूपी गिरीन्द्र के लिये वनके समान था और चौथा गङ्गाजलके ममान निर्मल मनवाला गङ्ग । इन चार पुत्रांके बाद इनका एक बहिन भी उत्पन्न हुई थी जो ऐमी जान पड़ती थी कि जिनवरके मुग्बम निकली हुई सरस्वती हो अथवा दृढ़सम्यक्त्ववाली रेवती हो, शीलवनी माता हो और गुणरत्नगशि गजुल हा' । श्र नसागरजीने स्वयं संघसहित उसके माथ गजपन्थ और तुङ्गीगिर आदिकी यात्रा की थी और वहाँ उसने नित्य जिन पूजनकी. तप किया और संघको दान दिया था। जैसा कि उक्त प्रशस्तिके निम्न पदासे स्पष्ट है:
"श्रीभानुभूपति मजासिजलप्रवाह निर्मग्नशत्रकलजातततप्रभावः । सद द्ध्यहुबृहकुल वृहतीलदुर्ग श्रीमाजराजइति मत्रिवरा बभूव ॥४४॥" भायोग्य सा विनयदव्यभिधासुधीपमोद्गारवाककमलकातमुखी सखीव । लक्ष्म्याः प्रभार्जिनवरस्य पदाजभङ्गी साध्वीपनिवतगुणामणिचन्महाा ॥४॥ सा मूत भूरिगुणारत्नविभूपितागं श्रीकममिहमितिपत्रमनकरत्न । काल च शत्रकुलकाल मननपुराय श्रीघापरं घनतरागिरान्द्रवज ॥१५॥ गङ्गाजलप्रविलाच्यमनोनिकत तयं च वर्यतरमगजमत्र गंग । जाता पुरस्नदनुपुनन्तिका स्वमपा वकष मजिनपरम्य सरस्वतीच ॥४॥ सभ्यस्त्वदाय कलिता किलविताव मातव शीलमलिलीक्षितभूरिभूमिः । गजामतीव सुभगागुरागरत्नराशि वलासरस्वती इवाचति पुत्तलाह ॥४८॥ यात्रा चकार गजपगिरी ससघातनपा सिदधनी पुढव्रता सा । रान्छान्तिक गणममर्चनमहदीश निन्यार्चनं सकलसंघ मदत्तदानं ॥26॥ तुगागरो च बलभद्रमुनः पदाजभनी तथा सकतं यतिमश्चकार । श्रामालभूपणगुरुप्रवर्गपदशाच्छाब व्यधाय यदिदतिना दादाटं ॥५॥
-पत्यविधान कथा प्रशस्ति । उक्त प्रशस्ति पद्याम उल्लिम्बित भानुभूपनि इंटरक गटारवशा राजा थे। यह गवपूजाजी प्रथम पुत्र और गव नागयगादामजाक भार थे और उनके बाद गज्यपदपर आसान हा थ। इनके समय वि. स. १५ मे गुजगनके बादशाह मुहम्मदशाह द्वितीयन इंटरपर चढ़ाई की थी तब उन्होंने पहामि भागकर अपनी रक्षा की. बादमे उन्होंने मुलह करली थी। फारसी नवारीयोम इनका वारगय नामसे उल्लंग्य किया गया है। इनके दो पुत्र थे सूरजमल्ल और भीमसिह । रावनारगजान स. १५ मे १५५: नक गज्य किया है। इनके बाद गवमूरजमल्लजी म. १५५-में गच्यामान हुए थे। गवभागजाक गन्यकालम ही उक्त पयविधान कथा'की रचना हुई हैं। इसमें अ नमागरका ममय विक्रमको माइलवी शताब्दीका प्रथमद्वितीय चग्गा निश्चित हाना है।
श्रतमागरकी मृत्यु कब और कहाँ हुई उसका कोई निश्चित आधार अबतक नहीं मिला इमाम उनके उत्तर समयको निश्चित मामा निर्धारित करना कठिन है. फिर भी म. १५८से पूर्व तक उमी मीमा जम्र है और जिसका अाधार निम्न प्रकार है:
श्रतमागरने पं० आशाधरजाक महाअभिपकपाठपर एक टीका लिखी है जो अभिषेकपाठमग्रहमे प्रकाशित हो चुकी है। उसकी लेग्यक प्रशम्नि सं० १५८-की है. जिम १ देग्यो, भारतके प्राचान गजवश भाग ३ पृ. ४२७। २ स. १५८५की लिखी हुई श्र नमागरका पट पाहुट टाकाकी एक प्रति श्रामर के साम्नभण्डारमे मौजूद है और उसकी लेखक प्रशस्ति मेरी नाटबुकम उद त है।