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________________ अनेकान्त वह - - कि सत्य का प्रकाशन और सत्य का ग्रहण हो। किसी तरहके साहित्य का निर्माण ही कर सकता है। न्यायालयमें भी झठे पक्षकी आलोचना की ही और यह प्रकट है कि चलता दिमाग मुख्यतः न्याय जाती है। न्यायशास्त्रका अध्येता प्राय: परीक्षा शास्त्रसे होता है उसे दिमागको तीक्षण एवं द्रत चक्षु कहा जाने योग्य होता है। गति से चलता करनेके लिये उसका अवलम्बन जरूरी है। सोने में चमक कसौटी पर ही की जाती है। । अत: साहित्यसेवी और विद्वान बनने के लिये न्याय न्यायशास्त्र से होता है। जाड़ामें रुई से भरा या का पढना उतनाही जरूरी है जितना आज राजनीति ऊन से बना कपड़ा लोग क्यों पहिनते हैं ? गरीब और इतिहासका पढ़ना जरूरी है। लोग आग जला जला कर क्यों तापते हैं ? इसका। ६-न्यायशास्त्र में कुशल व्यक्ति सब दिशाओं में उत्तर है कि उन चीजोंसे ठंड दूर होती है जासकता है और सब क्षेत्रोमें अपनी विशिष्ट उन्नति उसके कारण हैं और ठंड दर होना उनका कार्य है और कारणसे कार्य होता है आदि बातोंका ज्ञान कर सकता है - वह असफल नहीं होसकता। सिर्फ शर्त यह कि वह न्याय प्रन्थोंका केवल भारतर्कशास्त्र से होता है। यह अलग बात है कि जो तकशास्त्र नहीं पढ़ा उसे भी उक्त प्रकारका ज्ञान वाही न हो। उसके रससे पूर्णत: अनुप्राणित हो। होता है परन्तु यह अवश्य है कि उसका ज्ञान तो -निसर्गज तर्क कम लोगों में होता है। देखा देखी है और तर्कशास्त्र के अभ्यासीका ज्ञान अधिकांश लोगोंमें तो अधिगमज तर्कही होता है अनुमान प्रमाणसे स्वयं का निर्णात ज्ञान है वह जो साक्षात अथवा परम्परया न्यायशास्त्र-तर्कशास्त्र उसकी व्यवस्थित मीमांसा जानता है। के अभ्याससे प्राप्त होता है। अतएव जो निसर्गत: तकशील नहीं हैं उन्हें कभी भी हताश नहीं होना ४-न्यायशास्त्र का प्रभाव क्षेत्र व्यापक है, चाहिये और न्यायशास्त्र अध्ययन द्वारा अधिगमज व्याकरण, साहित्य, राजनीति, इतिहास, सिद्धान्त तक प्राप्त करना चाहिये। इससे वे न केवल आदि सब पर इसका प्रभाव है। कोई भी विपय अपनाही फायदा उठा सकते हैं किन्तु वे साहित्य ऐसा नहीं है जो न्याय के प्रभाव से अछूता हो। और समाजके लिये भी अपूर्व देनकी सृष्टि कर व्याकरण और साहित्य के उच्च ग्रन्थों में न्यायसूये सकते हैं। का तेजस्वी और उज्ज्वल प्रकाश सर्वत्र फैला हुआ मिलेगा। मैं उन मित्रों को जानता हूँ जो व्याकरण -समन्तभद्र. अकलंक, विद्यानन्द आदि जो बड़े बड़े दिग्गज प्रभावशाली विद्वानाचार्य हये हैं वे और साहित्य के अध्ययन के समय न्याय के अध्ययनकी अपनेमें कमी महसूस करते हैं और सब न्यायशास्त्रक अभ्यास से ही बने हैं। उन्होंने उसको आवश्यकता पर जोर देते हैं। इससे न्यायशास्त्र रत्नाकरका अच्छी तरह अवगाहन करके ही उत्तम उत्तम ग्रन्थ रत्न हमें प्रदान किये हैं स्पष्ट है कि न्यायका पढ़ना कितना उपयोगी और जिनका प्रकाश आज जग जाहिर है और जो हमें लाभदायक है। धरोहरके रूपमें सौभाग्य से प्राप्त हैं। हमारा ५- किसीभी प्रकारको विद्वत्ता प्राप्त करने और कर्तव्य है कि हम उन रत्नोंकी प्राभाको अधिकाधिक किसीभी प्रकारके साहित्यनिर्माण करनेके लिये रूपमें दुनियांके कोने कोने में फैलायें जिससे जैन चलता दिमाग चाहिये। यदि चलता दिमाग़ नहीं शासनकी महत्ता और जैन दर्शनका प्रभाव लोकमें है तो वह न तो विद्वान बन सकता है और न ख्यात हो।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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