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अनेकान्त
[ वर्ष ९
विशाल स्तम्भ करनेकी प्रथा विशेषतः दिगम्बर जैन जीने श्रमपूर्वक प्रकाशित करवाये हैं। मथुराके समाजमें ही रही है। चित्तौड़का कीर्तिस्तम्भ इसका लेख जैन-इतिहासमें बहुत बड़ा महत्व रखते है। प्रत्यक्ष प्रमाण है। जैनधर्मकी दृष्टि से इन स्तम्भोंका डा० याकोबीने इनकी भाषाके आधारपर ही जैन बड़ा महत्व भले ही हो । परन्तु शिल्पकलाके इति- आगमोंकी भाषा की तीक्ष्ण जाँचकर प्राचीन स्वीकार हासपरसे मानना होगा कि यह अजैन वास्तुकी दैन किया है। विन्सेण्टस्मिथने मथुराके पुरातत्त्वपर एक है जिसको जैनोन अपना स्वरूप देकर अपना लिया, स्वतन्त्र ग्रन्थ ही प्रकट किया है । डा० अग्रवाल ये म्तम्भ भी दक्षिण भारतमे बहुत बड़ी संख्याम आदि महानुभाव समय-समयपर यहाँकी जैन पुरापाये जाते है। इनम जो कलाकौशल पाया जाता है तत्त्व-विषयक सामग्रीपर प्रकाश डालते रहे है। उमके महत्व जैनसमाज तक अनभिज्ञ है। मांची- कलकत्ता निवासी म्ब० बाय पूर्णचन्दजी नाहरने के उपरिभागमे जिन प्रतिमाएँ रहती थीं, कहा जाता मथुराके तमाम शिलालेग्योंकी जाँच दुबारा स्वयं है कि ये शूद्रोंके दर्शनार्थ रखी जाती थीं । आज भी जाकर की थी, डा०म्मिथने जो भूले की थी उनका प्रत्येक दिगम्बर जैनमन्दिरके आगे एक स्तम्भ यदि संशोधन करके अनन्तर उन समस्त जैन लेखोंका मृल खडा हो नो ममझना चाहिये कि यहाँ मानस्तम्भ है। पाठ शुद्धकर, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में उनका इनपर भी एक ग्रन्थ आमानीसे प्रस्तुत किया जामके
अनुवाद कर एक विशाल मग्रह तैयार कर रखा था, इतनी मामग्री विद्यमान है।
पर अकालमे ही उनकी मृत्युने इस महान कामको ५ लेख
रोक दिया, वरना न जाने क्या क्या माधन प्रस्तुत जैन पुरातस्वकी आत्मा है किसी भी राष्ट्रकी करते। जैन साहित्यमे जहाँ जहाँ मथुराका उल्लेख राजनैतिक स्थितिके वास्तविक ज्ञान वृद्धचर्थ उसके भी आया है उन कई उल्लेखोंको नोट करके वहाँकी शिलालेखोंका परिशीलन आवश्यक है ठीक उसी जैन सम्कृति विषयक प्रचण्ड मामग्री भी मश्चित कर प्रकार जैन संस्कृति के तत्त्वोंका अनुशीलन अनिवार्य रखी थी। उनके सुयोग्य पुत्र राष्ट्रकने श्रीविजयसिह है । इसमे धार्मिक और सामाजिक इतिहासकी जी नाहर सहर्प प्रकट करनको भी तैयार है। मैं विशाल मामग्री भरी पड़ी है। राजनैतिक दृष्टिसे भी अपने सहयोगियोकी खोजम हैं। यदि समय और शक्ति ये उपेक्षणीय नहीं । तत्कालीन मानव जीवनक ने साथ दिया तो काम किश्चित् तो हो ही जायेगा। सम्बन्धमे जो बहुमूल्य तत्वोंका समीकरण हुआ था गुपकालीन भारतका उत्कर्ष चरम सीमापर था, चनका आभास भी इन प्रस्तरोत्कीर्ण शिलाखण्डोसे इस काल के मवत वाले जैनलेख अल्प मिले हैं। राजमिलता है। पश्चिम भारतके लेख ब्राह्मी या अधि. गृहीम मोन भण्डारम जो लेख लिम्बा है वह जैनकाशत देवनागरीमें मिले है जब दक्षिणभारतम धर्मसे सम्बन्धित होना चाहिय; क्योंकि वह स्मारक कनाडीमे । जैन लेखोंको यों तो कई भागोंमे बांटा जा ही शुद्ध जैन-मस्कृतिसे सम्बद्ध है । जैन-प्रतिमाएं सकता है पर मैं यहाँ कंवलदो भागोंम विभाजितकरूंगा। स्पष्टरूपसे उत्कीणित है । भारत सरकारके प्रधान (१) शिलाओंपर उत्कीर्ण लेख
लिपि वाचक श्रीयुत डा० बहादुरचन्द छावड़ाने (२) प्रतिमाओंपर उत्कीर्ण लेख
इसका इम्प्रेशन गत मासमें मँगवाया है इससे श्रदाज प्रथम श्रेणीक लेख बहुत ही कम मिलते हैं। है कि वे इसपर प्रकाश डालनका कष्ट करेगे। आचार्य खारवेलका लेख अत्यन्त मूल्यवान् है जो ईम्वी पूर्व मुनि वैरदेव नामका एक लघु लेख श्रीयुत भवरदूसरी शतीका है । उदयगिरि खण्डगिरिमे और भी लालजी जैनने मुझं कलकत्ताम बताया था, लिपि जो प्राकृत शिलालेख पाये जाते है उन सभीपर अन्तिम गुप्तकालीन थी। नालन्दाकी तलहटीमे एक विस्तृत विवरणके माथ पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजय गुफा बनवानेका उल्लेख था। (अगली किरणम समास)