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________________ २६० ] श्रात्मान्तराभाव-समानता न वागास्पदं स्वाssश्रय-भेद - हीना । भावस्य सामान्य विशेषवत्त्वादेrये तयोरन्यतरभिरात्म ॥५३॥ ' (यदि यह कहा जाय कि एकके नानात्मक अर्थके प्रतिपादक शब्द पटुसिंहनाद प्रसिद्ध नहीं है; क्योकि बौद्धों श्रन्याऽपोहरूप जो सामान्य है, उसके वागा स्पदता --वचनगोचरता - है, और वचनोके वस्तुविषयत्वका असम्भव है, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि) श्रात्मान्तरके अभावरूप - आत्मस्वभावसे भिन्न अन्य अन्य स्वभाव के अपाहरूप - जो समानता (सामान्य) अपने श्राश्रयरूप भेदोंसे हीन (रहित) है. वह वागास्पद - वचनगोचरं – नही होती; क्योकि वस्तु सामान्य और विशेष दोनों धर्मोको लिये हुए है।' ¿ ( यदि यह कहा जाय कि पदार्थ के सामान्यविशेषवान होनेपर भी सामान्यके ही वागास्पदता युक्त है; क्योंकि विशेष उसीका आत्मा है, और इस तरह दोनोंकी एकरूपता मानी जाय तो ) सामान्य और विशेष दोनोंकी एकरूपता स्वीकार करनेपर एकके निरात्म (अभाव) होनेपर दूसरा भी (अविनाभावी होनेके कारण) निरात्म (प्रभावरूप ) हो जाता है— और इसतरह किसीका भी अस्तित्व नहीं बन समता अतः दोनोंकी एकता नहीं मानी जानी चाहिए ।' श्रमेयमश्लिष्टममेयमेव भेदेऽपि मत्यपवृत्तिभावात् । वृत्तिश्च कृत्स्नांश - विकल्पतो न अनेकान्त [ वर्ष लगाया जासकता - और अष्ट है - किसी भी प्रकार के विशेष (भेद) को साथमें लिये हुए नही है - वह ( सर्वव्यापी, नित्य, निराकाररूप सत्त्वादि) सामान्य अमेय - अप्रमेय ही है-- किसी भी प्रमाणसे जाना नहीं जासकता । भेदके माननेपर भी - सामान्यको स्वाश्रयभूत द्रव्यादिकोके साथ भेदरूप स्वीकार करने पर भी - सामान्य प्रमेय नहीं होता; क्योंकि उन द्रव्यादिकोमें उसकी वृत्तिकी अपवृत्ति (व्यावृत्ति) का सद्भाव है -- सामान्यकी वृत्ति उनमे मानी नहीं गई है, और जब तक सामान्यकी अपने आश्रयभूत द्रव्यादिकोमें वृत्ति नहीं है तब तक दोनोका संयोग कुण्डीमें बेरोके समान ही होसकता है, क्योकि सामान्य के अद्रव्यपना है तथा संयोगका अनाश्रयपना है और संयोगक द्रव्याश्रयपना है। ऐसी हालत में सामान्यकी द्रव्यादिकमे वृत्ति नही बन सकती ।' मानं च नाऽनन्त- समाश्रयस्य ॥५४॥ ' ( यदि यह कहा जाय कि श्रात्मान्तराभावरूप - अन्यापोहरूप —- सामान्य वागास्पद नहीं है, क्योंकि वह श्रवस्तु है; बल्कि वह सर्वगत सामान्य ही वागास्पद है जो विशेषोसे लिष्ट है - किसी भी प्रकारके भेदको साथमें लिये हुए नहीं है - तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योकि ) जो अमेय है— नियत देश, काल और आकार की दृष्टिसे जिसका कोई अन्दाजा नहीं "यदि सामान्यकी द्रव्यादिवस्तुके साथ वृत्ति मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो सामान्यको कृत्स्न (निरंश) विकल्परूप मानकर बनती है और न अंश विकल्परूप |क्योकि अंशकल्पनासे रहित कृत्स्न विकल्परूप सामान्यकी देश और काल से भिन्न व्यक्तियोंमे युगपनवृत्ति सिद्ध नहीं की जासकती । उससे अनेक सामान्योकी मान्यताका प्रसङ्ग आता है, जो उक्त सिद्धान्तमान्यता के साथ माने नहीं गये है; क्योंकि एक तथा अनशरूप सामान्यका उन सबके साथ युगपत् योग नहीं बनता। यदि यह कहा जाय कि सामान्य भिन्न देश और कालके व्यक्तियोके साथ युगपन सम्बन्धवान् है, क्योंकि वह सर्वगत, नित्य और अमूर्त है. जैसे कि आकाश, तो यह अनुमान भी ठीक नहीं है । इससे एक तो साधन इष्टका विघातक हो जाता है अर्थात् जिस प्रकार वह भिन्न देश कालके व्यक्तियोंके साथ सम्बन्धिपनको सिद्ध करता है उसी प्रकार वह सामान्यके आकाशकी तरह सांशपनको भी सिद्ध करता है जोकि इष्ट नहीं है; क्योंकि सामान्यको निरंश माना गया है। दूसरे, सामान्यके निरंश होनेपर उसका युगपत् सर्वगत [ शेषांश पृष्ठ ३२० पर ]
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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