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________________ ३००] अनेकान्त [वर्ष मणिकारने यह कहीं नहीं लिम्बा कि उन्होंने गुणभद्रके छा गया और समस्त नगरवामी सन्तापमें मग्न होगये उत्तरपुराणसे अपने ग्रन्थोंमें जीवन्धरचरित निबद्ध तथा शोक करने लगे। इसी समयकी उक्त गद्य है किया है। गद्यचिन्तामणिका जो पद्य प्रस्तुत किया गया और जो पाँचवे लम्बमे पाई जाती है जहाँ सत्यन्धरहै उसमें सिर्फ इतना ही कहा है कि इसमें का कोई सम्बन्ध नही है-उनका तो पहले लम्ब तक जीवन्धरस्वामीके चरितके उद्गावक पुण्यपुराणका ही सम्बन्ध है । वह पूरी प्रकृतोपयोगी गद्य इस सम्बन्ध होने अथवा माक्षगार्मा जीवन्धरके पुण्य- प्रकार हैचरितका कथन होनमे यह (मंग गद्यचिन्तामणिरूप 'अद्य निराश्रया श्रीः, निराधारा धरा, निरालम्बा वाक्य-समूह) भी उभय लाकके लिये हितकारी है। सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम, निःसारः संसारः, और वह पुण्यपुराण उपर्युक्त वागर्थसंग्रह भी हो नीरसा रसिकता, निराम्पदा वीरता इति मिथः प्रवर्तयति सकता है । वह गुणभद्रका उत्तरपुराण है. यह उससे प्रणयाद्गारिणी वाणीम् .' -पृ. १३१ । मिद्ध नहीं होता। इसके सिवाय, गद्यचिन्तामणिकारने इस गद्यके पद-वाक्योंके विन्यामको देखते हुए वस्तुतः उम जीवन्धरचरितका गद्यचिन्तामणिमे कहने यही प्रतीत होता है कि यह गद्य मौलिक है और की प्रतिन्ना को है जिसे गणधरने कहा और अनेक वादीभसिंहकी अपनी रचना है। हो सकता है कि उक्त सूरिया (आचार्यो) द्वारा-न कि केवल गुणभद्रद्वारा-- परिमल कविने इमी गद्यक पदोको अपने उक्त श्लोकमें जगतमे ग्रन्थरचनादिके रूपमें प्रख्यापित हुअा है। यथा- समाविष्ट किया है । यदि उल्लिम्वित पद्यकी इसमे इत्यवं गणनायकन कथितं पुण्यास्रवं शृण्वता छाया होती ना अद्य' और 'निराधारा धग' के बीचमें तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं मूरिभिः । निगश्रया श्री:' यह पद न पाता। छायामें मूल ही विद्याम्फूर्तिविधायि धर्मजननीवाणीगुणाभ्यर्थिनां तो आता है। यही कारण है कि इस पदको शास्त्रीजी वक्ष्य गद्यमयेन वाडमयसूधावरण वाक्सिद्धय ॥१५॥ और प्रेमीजी दोनो विद्वानोन पूर्वोल्लिखित गद्यमे उद्धत अतः वादीभमिहका गणभद्राचार्यका उत्तरवर्ती नहीं किया-उसे अलग करक और 'अदा' का निरामिद्ध करनेके लिय जो उक्त हेतु दिया जाता है वह धाग धरा' के साथ जोड़कर उपस्थित किया है । अतः युक्तियुक्त न होनेसे वादीभसिंहके उपरोक्त समयका यह दूसरी बाधा भी निबल एवं अपने विपयकी बाधक नहीं है। अमाधक है। २. दृमरी बाधाको उपस्थित करते हुए उसके पुष्पसेन और ओडयदेव उपस्थापक श्रीकुप्पुम्वामी शास्त्री और उनके समर्थक वादीभसिहके साथ पुष्पसेनमुनि और प्रोडयदेवप्रेमीजी दानी विद्वानोको एक भ्रान्ति हुई है जिमका का सम्बन्ध बतलाया जाता है। पुष्पसेनको उनका अनुसरण अन्य विद्वानों द्वारा आज भी होता जारहा गुरु और आडयदेव उनका जन्म-नाम अथवा वास्तवहै और इम लिय उमका परिमार्जन होजाना चाहिए। नाम कहा जाता है। इसमें निम्न पद्य प्रमाणरूपम वह भ्रान्ति यह है कि गद्यचिन्तामणिकी उक्त जिस दिये जाते हैगद्यको मत्यन्धर महाराज शाकके प्रमगमे कही गई पुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो, बतलाई है वह उनके शोकक प्रमद्गमे नहीं कही गई। दिव्यो मन्ह दि सदा मम संनिदध्यात् । अपितु काठाङ्गारके हार्थीको जीवन्धरस्वामीने कडा यच्छक्तितः प्रकृतमूढमतिर्जनोऽपि, मारा था. उससे कद्ध हुए कामागारके निकट जब वादीभसिहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥ जीवन्धरस्वामीका गन्धोत्कटने बाँधकर भेज दिया और कामागारने उन्हें वधस्थानमे लेजाकर फॉसी देने- श्रीमद्वादीभसिहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः । की मजाका हुकुम दे दिया तो माग नगरम मन्नाटा स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः ।।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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