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।। श्री ।। जीवराज जैन ग्रंथमाला प्रकाशन
श्रावकाचार संग्रह
भाग वा
संपादक स्व. पं. हीरालाल जैन शास्त्री
जैन संस्कृती संरक्षक संघ,सोलापूर
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जीवराज जैन ग्रंथमाला, सोलापूर
( हिंदी विभाग पुष्प ३१)
श्रावकाचार-संग्रह
(हिन्दी छन्दोबद्ध श्रावकाचारों और दो क्रियाकोषों का संग्रह)
पांचवा भाग
- सम्पादक एवं अनुवादक - स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. हीरालाल शास्त्री, न्यायतीर्थ हीराश्रम. पो. साढूमल जिला- ललितपुर ( उ. प्र.)
- प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ
( जीवराज जैन ग्रंथमाला ) संतोष भवन, ७३४, फलटण गल्ली, सोलापुर-२
Co: ३२०००७
वीर संवत्
ई. सन
२५२५
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प्रकाशक
सेठ अरविंद रावजी अध्यक्ष- जैन संस्कृति संरक्षक संघ, ७३४, फलटण गल्ली, सोलापुर-२
द्वितीय आवृत्ति : ३०० प्रतियाँ
वीर संवत् २५२५ ई. सन १९९८
मूल्य १६० रुपये
• सर्वाधिकार सुरक्षित
मुद्रक कल्याण प्रेस
२, इंडस्ट्रियल इस्टेट, होटगी रोड, __Jain Eसोलापुर-३onal
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* जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय *
सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोसे संसारसे उदासीन होकर धर्म कार्य में अपनी वत्ति लगाते रहे। सन् १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनो न्यायोपाजित सम्पत्तिका उपयोग विशेष रूपसे धर्म तथा समाजकी उन्नतिके कार्य में करे ।
तदनुसार उन्होंने समस्त भारतका परिभ्रमण कर अनेक जैन विद्वानोंसे इस बातको साक्षात और लिखित रूपसे संम्मत्तियाँ संगृहीत की, कि कौनसे कार्यमें सम्पत्तिका विनियोग किया जाय ।
अन्तमें स्फुट मतसंचय कर लेने के पश्चात् सन् १९४१ के ग्रीष्मकालमें ब्रह्मचारोजीने सिद्धक्षेत्र श्री गजपंथजीकी पवित्र भूमिपर अनेक विद्वानोंको आमंत्रित कर उनके सामने ऊहापोहपूर्वक निर्णय करने के लिए उक्त विषय प्रस्तुत किया।
विद्वत्सम्मेलनके फलस्वरूप श्रीमान् ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति तथा जैन साहित्यके समस्त अंगोंके संरक्षण-उद्धार-प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की । तथा उनके लिये रु. ३०,०००/- का बृहत् दान घोषित कर दिया।
आगे उनको परिग्रह निवृत्ति बढती गई। सन १९४४ में उन्होंने लगभग दो लाखको अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अर्पण की।
इसी संघके अन्तर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' द्वारा प्राचीन संस्कृतप्राकृत-हिन्दी तथा मराठी ग्रन्थों का प्रकाशन कार्य आज तक अखण्ड प्रवाहसे चल रहा है।
आज तक इस ग्रन्थमाला द्वारा हिन्दी विभागमें ४८ ग्रन्थ तथा मराठी विभागमें १०१ ग्रन्थ और धवला विभागमें १६ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं।
-रतनचंद सखाराम शहा मंत्री- जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर.
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० प्रकाशकीय निवेदन 0
यह श्रावकाचार संग्रह ग्रन्थ उपासकाध्ययनांगका चरणानुयोगका प्रकाशक अनुपम ग्रन्थ है। इसमें सब श्रावकाचारोंका संग्रह एकत्रित किया है। श्रावकधर्मका स्वरूप क्या है, आत्मधर्मके उपासककी दिनचर्या कैसी होनी चाहिये, परिणामोंकी विशुद्धि के लिये क्रमपूर्वक व्रत-संयमका अनुष्ठान नितांत आवश्यक है इसका विस्तारपूर्वक विवरण इस ग्रन्थका पठन-पाठन करनेसे ज्ञात हो सकता है। स्व. श्रीमान् डा. ए. एन उपाध्ये ने सब श्रावकाचार ग्रंथोंकी नामावली भेजकर यह ग्रन्थ प्रकाशित करनेके लिये मूल प्रेरणा दी इसलिये यह संस्था उनकी कृतज्ञ है।
श्रावकाचारके इस भागका संपादन एवं हिंदी अनुवाद स्व. पं. हीरालालजी शास्त्री ब्यावर ने तैयार करके ग्रंथमालाको जिनवाणीका प्रचार करने में सहयोग दिया है, जिसके लिये हम उक्त जैनधर्मसिद्धांत के मर्मज्ञ विद्वान्को हार्दिक धन्यवाद समर्पण करते है।
इस ग्रन्थका मुद्रण कार्य सुचारु रूपसे करने में कल्याण प्रेस, सोलापुर के संचालक वर्गने सहयोग दिया है इसलिये हम उनका भी आभार मानते हैं।
अंतमें इस ग्रन्थका पठन-पाठन घर-घरमें होकर श्रावकधर्मकी प्रशस्त तीर्थप्रवृत्ति अखंड प्रवाहसे सदैव कायम रहे यह मंगल भावना प्रकट करते हैं।
-रतमचंद सखाराम शहा
__ मंत्री ( जीवराज जैन ग्रंथमाला, सोलापूर )
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स्वर्गीय ब्र, जीवराज गौतमचंद दोशी स्वर्गवास ता. १६-१-५७ (पौष शु. १५ )
Jain Education Interational
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सम्पादकोय वक्तव्य श्रावकाचार-संग्रहका यह पंचम भाग पाठकोंके कर-कमसोंमें उपस्थित करते हुए मुझे महान् हर्ष हो रहा है । ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवनमें पदम कविकृत 'श्रावकाचार'की एक प्रति विद्यमान है, उसे देखकर और पढ़कर उसकी महत्ताने हृदयपर यह प्रभाव अंकित किया कि इसका भी प्रकाशन हो जाना चाहिए। उसमें यतः श्रावकको ५३ क्रियाओंका वर्णन किया गया है अत: पं. किशनसिंह जो और पं० दौलतरामजोके क्रियाकोषोंको प्रस्तुत संग्रहमें संकलन करनेको भावना उत्पन्न हुई और गत वर्ष इसी मईमें श्रद्धेय, परम पूज्य मुनि श्री १०८ समन्तभद्र जी महाराजके चरण-सान्निध्यमें कुम्भोज पहुंचा। वहाँपर संस्थाके मानद मंत्री श्री वालचन्द्रजी देवचन्द्रजो शहा पहिलेसे ही उपस्थित थे। तथा श्री. पं० माणिकचन्द्रजी चदरे कारंजा, श्री ब्र० पं० माणिकचन्द्रजी भिसीकर और श्री रायचन्द्रजीकी भक्त मण्डली भी मौजूद थी। उन सबके सामने मैंने उक्त तीनोंका प्रकाशन श्रावकाचार-संग्रहके पांचवें भागके रूपमें करनेका प्रस्ताव रखा। सबके द्वारा समर्थन और अनुमोदन किये जानेपर संस्थाके मंत्रीजीने प्रकाशनकी स्वीकृति दो और इस विषयमें जीवराज-ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीके साथ परामर्श करनेको कहा । यथा समय मैने उनसे परामर्श किया और तदनुसार हिन्दी छन्दोबद्ध श्रावकाचारोंका यह पाँचवाँ भाग पाठकोंके सामने उपस्थित है।
हिन्दी भाषामें रचित होनेसे उनका अर्थ देनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । पदम कविरचित श्रावकाचारका सम्पादन ऐ० सरस्वती भवनकी एक मात्र प्रतिके आधारपर हुआ है । प्रयत्न करने पर भी अन्य स्थानसे दूसरी प्रति उपलब्ध नहीं हुई। शेष दोनों क्रियाकोषोंका सम्पादन पूर्व-मुद्रित प्रतियोंके आधारपर हुआ है और उसमें किशनसिंहजीके क्रियाकोषका संशोधन श्रीमान् सर सेठ भागचन्द्र जो सोनी अजमेरके निजी भंडारकी हस्तलिखित प्रतिके आधारपर हुआ है। पं० दौलतरामजीके क्रियाकोषका संशोधन ऐ० सरस्वती भवनको हस्तलिखित प्रतिके आधारपर हुआ है, अतः हम उक्त सभीके आभारो हैं।
इस भागके शीघ्र प्रकाशनार्थ गतवर्ष नवम्बरमें में वाराणसी आया । एक मासके बाद ही मैं दमेसे बीमार पड़ गया और देश वापिस जाना पड़ा । दमेके शान्त होते हो हृदय-रोगसे पीड़ित गया और कुछ स्वस्थ होते ही पुनः वाराणसो मार्चके प्रारम्भमें आया । कमजोरी अधिक होनेसे श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजो सिद्धान्तशास्त्री और महावीर प्रेसके मालिक पं० बाबूलालजी फागुल्ल एवं अन्य वाराणसो-स्थित विद्धानोंने मुझे सर्व प्रकारसे संभाला और स्वास्थ्य-लाभमें सहायक बने । इसके लिए मैं उक्त सभी विद्वानोंका बहुत आभारी हूँ।
संस्थाके मानद मंत्री श्रीमान् सेठ बालचन्द्र देवचन्द्र शहा और ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्रीका आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने पत्रोंके द्वारा एवं मौखिक सत्परामर्श देकरके समय-समयपर मुझे अनुगृहीत किया है। वर्धमान मुद्रणालयने तत्वरताके साथ इसका मुद्रण किया है इसके लिए में आप सबका आभारी हूं।
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श्रावकाचार-संग्रह ___ अन्तमें परम पूज्य श्री १०८ मुनि श्री समन्तभद्रजी महाराजका मैं किन शब्दोंमें आभार व्यक्त करूं जिनसे पूरे वर्षभर पत्रोंके द्वारा स्वास्थ्य-लाभके लिए शुभाशीर्वाद और कार्य-प्रगतिके लिए सत्प्रेरणाएँ प्राप्त होती रही हैं जिससे प्रभावित होकर मैं उनके चरण-सान्निध्यमें बैठकर तीसरे भागके सम्पादकीय वक्तव्यमें उल्लिखित विशेषताओंके साथ श्रावकाचारकी विस्तृत प्रस्तावना लिखनेके लिए उत्सुक हो रहा हूँ।
पूर्वानुपूर्वीके क्रमसे नवीन उपलब्ध कुन्दकुन्दश्रावकाचारको प्रस्तुत संग्रहके चौथे भागमें विस्तृत प्रस्तावना और श्लोकानुक्रमणिकादि परिशिष्टोंके साथ दिया गया है और तदनन्तर-रचित होनेके कारण इस संग्रहमें हिन्दीकी उक्त तीन रचनाओंको दिया जा रहा है । तीनोंके रचयिताओंका संक्षिप्त परिचय, समय और उनकी विशेषताओंकी समीक्षाको प्रस्तावनामें दिया गया है।
आशा है, पूर्व भागोंके समान इस भागका भी स्वाध्यायप्रेमी जन समादर करेंगे । श्री पाश्वनाथ दि जैन मन्दिर
। हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री भेलपुर, वाराणसी (उ० प्र०)
3 हीराश्रम, साढूमल २७५/७८
। जिला ललितपुर (उ० प्र०)
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प्रस्तावना
पदम कविका परिचय और समय प्रस्तुत संग्रहमें सर्वप्रथम हिन्दी छन्दोबद्ध श्रावकाचार श्रीपदम-कविकृत संग्रहीत है। इन्होंने इसके अन्तमें जो प्रशस्ति दी है, उसके अनुसार इस श्रावकाचारकी रचना सम्वत् १६१५ के माघ सुदी पंचमी शक्रवारको पूर्ण हुई है यथा
संवत् संख्या जिनभावना", आनन्दा, संवच्छर संख्या प्रमाद"तो। मास माहु सोहामणो आनन्द,. भाइ वा सुत मर्याद तो॥६०॥ तिथि संख्या चारित्र मेदे, आनन्दा, रस संख्या शुभवार तो।
शुभ नक्षत्रे शुभ योगे, आनन्दा, कीयो मैं श्रावकाचार तो ॥६१।। (पृष्ठ ११०) इन्होंने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है उसके अनुसार ईडर शाखाके भट्टारक श्री पद्मनन्दी तत्पट्टे भ० सकलकीर्ति हुए जिनका समय [संवत् १४५०-१५१० तक] का था उनके पट्ट पर भ. भुवनकीर्ति बैठे जिनका समय [संवत् १५०८-१५२७] तक है। उनके पट्ट पर भट्टारक ज्ञानभूषण बटे जिनका समय ( सं० १५३४-१५६० ) तकका है उनके पट्टपर भ० विजयकीर्ति बैठे जिनका समय (सं०१५५७-१५६८) तकका है। उनके पट्टपर भ० शुभचन्द्र बैठे जिनका समय (सं० १५७३१६१३) तकका है इनके शिष्य भ० कुमुदचन्द्र हुए जिनको पदम कविने अपने गुरु रूपसे नमस्कार किया है।
पदम कविने अपनेको भ० शुभचन्द्रकी आम्नायका उल्लेख किया है, विनयचन्द्रको आगम गुरु और कर्मश्री ब्रह्मको अध्यात्म गुरु लिखा है। हीर ब्रह्मन्द्रका शिक्षा गुरुके रूपमें उल्लेख किया है। भ० शुभचन्द्रका अन्तिम समय सं० १६१३ तकका उल्लेख ऊपर किया गया है उनके शिष्य कुमुदचन्द्रका गुरु रूपसे उल्लेख कर प्रस्तुत श्रावकाचारकी रचना सं० १६१५ में हुई है यह उक्त भ० पट्टावलीसे भी सिद्ध होता है । (पृ० १०७)
पदम कविने जिन आचार्योंके श्रावकाचारोंके आधारपर अपने श्रावकाचारको रचना की है उसमें स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्ड, वसुनन्दिका धावकाचार, पं० आशाधरका सागारधर्मामृत, और सकलकीतिका श्रावकाचार प्रमुख हैं। फिर भी श्रावक की वेपन क्रियाओंका वर्णन इन्होंने विस्तारके साथ किया है, इन्होंने श्रावकाचारको रत्नदीप और वेपन क्रियाओंको चिन्तामणि रत्न कहा है । यथा
श्रावकाचार ते रत्नदीप आनन्दा, ओपन क्रिया चिन्तारल तो।
सुगुरु रत्न मूल्य नहीं, आनन्दा, दया करो तस जल तो ॥४४॥ (पृ० १०९) पदम कविने अपने श्रावकाचारका ग्रन्थ परिमाण २७५० श्लोक प्रमाण कहा है और इसे छब्बीस प्रकारके रासोंमें रचा है । यथा
छब्बीस भेद भासे भण्यों आनन्दा, श्लोक शत सत्तावीस तो। पंचास अधिक सही आनन्दा, ग्रन्थ-संख्या अशेष तो ॥५८।। (पृ० ११०)
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श्रावकाचार-संग्रह उन छब्बीस रासोमेंसे कुछ प्रमुख रासोंके नाम इस प्रकार हैं-१. चौपाई, २. दोहा, ३. भास रास, ४. मालंतडानी ढाल, ५. जसोधरनी भास, ६. वस्तु छन्द, ७. अविकानी भास, ८. सहीनी ढाल, २. वीनतीनी भास, १०. भद्रबाहुनी ढाल, ११. हेलिनी ढाल, १२. ढाल, १३. हिंडोलानी ढाल, १४. नरेसुआनी ढाल, १५. गुणराजनी ढाल, १६. वैरागी भास, १७. विणजारानी भास, १८. सहेलडीनी ढाल, १९. सहेलीनी ढाल, २०. रसना देवीनी ढाल, २१. आनन्दानी ढाल, २२. रासनी ढाल ।
उक्त ढालोंमें दोहा, चौपाई और वस्तु छन्दको छोड़कर प्रायः सभी ढालें गुजरात और राजस्थानके सीमावर्ती प्रदेश में प्रचलित रही हैं अतः प्रस्तुत श्रावकाचारकी भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है ढाल, रास और छन्द ये तीनों एकार्थवाचक हैं।
पदम कविने अपने माता-पिताके नामका कोई उल्लेख नहीं किया। केवल अपनेको वाग्वर (वागर) देशके सापुर (शाहपुर) नगर वर्ती श्री आदिनाथके मन्दिरका और नन्दी संघ वाले हुंबड़ जाति-खदिर गोत्री और विरीत कुल का अवतंस कहा है। (देखो पृ० ११० पद्य ४९-५२)
पदम कविका परिचय 'राजस्थानके जैन सन्त, व्यक्तित्व एवं कृतित्व' नामक ग्रन्थमें नहीं दिया गया है। इससे ज्ञात होता है कि उम्म कविने प्रस्तुत श्रावकाचारके सिवाय अन्य किसी ग्रन्थकी रचना नहीं की है। इसको एकमात्र प्रति ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन, ब्यावरसे प्राप्त हुई । अन्य शास्त्र भण्डारोंकी ग्रन्थ सूचियोंमें इसका नाम दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
किशनसिंह जीका परिचय और समय प्रस्तुत संग्रहमें दूसरा हिन्दी छन्दोबद्ध श्रावकाचार श्री किशनसिंह जी का है जिसे उन्होंने स्वयं क्रियाकोष नामसे उल्लेखित किया है। (देखें अन्तिम पुष्पिका, पृ० २३९) इन्होंने अपने क्रियाकोषको सं० १७८७ के भादों सुदी पूनमको ढूंढाहर देश (वर्तमान राजस्थान) के सांगानेर नगरमें पूर्ण किया है।
(देखो पृ० २३८ पद्य ९१) ये रामपुराके निवासी थे । रामपुरा उणियारा-टोंकके समीप है तथा जो आजकल अलीगढ़ के नामसे प्रसिद्ध है। किशनसिंहजीके पिताका नाम सुखदेव जी था उन्होंने रामपुरामें एक विशाल मन्दिर बनवाया, जिसकी नींव सं० १७३१ में पड़ी थी। ये दो भाई थे छोटे भाईका नाम आनन्द सिंह था। इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र पाटनी था। किशनसिंह जी रामपुरासे आकर सांगानेर रहने लगे थे। इनकी अन्य १०. रचनाएँ और भी उपलब्ध हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं
१. णमोकार रास, २. चौबीस दण्डक, ३. पुण्यास्रव कथाकोष, ४. भद्रबाहु चरित, लब्धि विधान कथा, ६. निर्वाणकाण्ड भाषा, ७. चतुर्विशति स्तुति, ८. चेतन गीत, ९. चेतन लोरी और १०. पद संग्रह।
प्रस्तुत क्रियाकोषका ग्रन्थ परिमाण २९०० श्लोक प्रमाण है। (देखो पृ० २३८, पद्य ९४) इस क्रियाकोष की रचना १. हिन्दीके चौपाई, २. पद्धड़ी, ३. सोरठा, ४. अडिल्ल, ५. गीता, ६. कुण्डलियां, ७. मरहठा, ८. छप्पय, ९. तेईसा, १७. इकतीसा सवैया और तथा त्रिभंगीमें तथा संस्कृतके त्रोटक, द्रुत विलम्बित और भुजंगप्रयात छन्दोंमें की है। इन्होंने अपनी अन्तिम प्रशस्ति में इनकी छन्द संख्या भी दी है।
(देखो प० २३८)
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प्रस्तावना
यह क्रियाकोष लगभग ५० वर्ष पूर्व सूरतसे प्रकाशित हुआ था जो अब अप्राप्य है।
श्री किशनसिंह जीने उक्तं च करके १४ श्लोक और गाथाएँ उद्धृत की हैं। जिनमेंसे २ श्लोक प्रश्नोत्तर श्रावकाचारके हैं, १ श्लोक उमास्वाति श्रावकाचारका है तथा एक गाथा त्रिलोकसार और एक गाथा द्रव्य संग्रहसे ली गयी है। इन्होंने अपने गुरु आदिका कोई उल्लेख नहीं किया है । इससे ज्ञात होता है कि इनका श्रावकाचार सम्बन्धी ज्ञान स्वयं के शास्त्र-स्वाध्यायजनित था। अपने समयमें प्रचलित मिथ्यात्वी व्रतों और कुरीतियोका वर्णन कर उनके त्यागका प्रभावक वर्णन
दौलतरामजीका परिचय और समय प्रस्तुत संग्रह में तीसरा हिन्दी छन्दोबद्ध श्रावकाचार श्री दौलत राम जी का है जिसे उन्होंने स्वयं क्रियाकोष नाम दिया है । ( देखो पृ० २४०)
इन्होंने इस क्रियाकोष की रचना उदयपुर में सं० १७९५ के भादों सुदी बारस मंगलवार को पूर्ण की हे ! यथा
संवत सत्रासै पच्याण्णव, भादव सुदि बारस तिथि जाणव ।
मंगलवार उदै पुर माह, पूरन कीनी संसय नाहै ॥ ( देखो पृ० ३८९) ___ श्री दौलत राम जी ने श्री किसन सिंह जी के क्रियाकोष की रचना ( सं० १७८४ ) के ११ वर्ष पश्चात् ( सं० १७९५ ) अपने क्रियाकोष को रचा है। इन्होंने अपनी रचना का परिमाण नहीं दिया है और न रचे गये छन्दों के नाम ही दिये हैं। फिर भी हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध दोडा. चौपाई, बेसरी छन्द, जोगीरासा, इकतीसा सवैया, चाल छन्द, कवित्त, सवैया तेईसा और सोरठा छन्दों में इस क्रिया कोष को रचना की है।
पं० दौलतराम जोने अपने इस ग्रन्थमें उक्तं च करके कुछ गाथाएँ और श्लोक दिये हैं जिनकी संख्या ६ है । जिनमें से मयमूढमणायदणं यह गाथा रयणसार की है, ३ श्लोक ज्ञानार्णव के हैं और २ लोक प्रश्नोत्तर श्रावकाचार के हैं।
डॉ० कस्तूरचन्द्र जी काशलीवालने इनकी १८ रचनाओंका उल्लेख किया है, और उन्हें तीन भागों में विभाजित किया है
१. मौलिक रचनाएँ, २. अनूदित रचनाएँ और टब्वा-टीकाएँ।
मौलिक रचनाएँ आठ उपलब्ध हैं। यथा-१. क्रियाकोष, २. जीवन्धर चरित, ३. अध्यात्मा बारह खड़ी, ४. विवेक विलास, ५. श्रेणिक चरित, ६. श्रीपाल चरित, ७. चौवीस दण्डक, और सिद्धपूजाष्टक में सभी रचनाएँ छन्दोबद्ध है।
____अनूदित रचनाएं सात उपलब्ध है। यथा-१. पुण्यास्रवकथाकोष, २. पद्मपुराण, ३. आदिपुराण, ४. हरिवंश पुराण, ५. पुरुषार्थ सिद्धथुपाय, ६. परमात्म प्रकाश, और ७ सारसमुच्चय । ये सभी ढूंढारी भाषा में गद्य अनुवाद हैं।
तीसरे प्रकार की रचनाओं में-१. तत्त्वार्थसूत्र टब्बा-टीका, २. वसुनन्दि श्रावकाचार टब्बा-टीका और ३. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा टब्बा-टीका ये तीन उपलब्ध हैं।
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श्रावकाचार-संग्रह उक्त रचनायों पर दृष्टिपात करने से यह सहज ही ज्ञात होता है कि पं० दौलतराम जी चारों ही अनुयोगोंके अच्छे ज्ञाता थे।
पं० दौलतराम जीका जन्म वसवां ( राजस्थान ) में सं० १७४९ के आषाढ़ सुदी १४ को हुआ। इनके पितामहका नाम घासीराम और पिताका नाम आनन्दराम था। जाति खंडेलवाल
और गोत्र काशलीवाल था। इनका अध्ययन कहाँ और किससे हुआ, इसका कोई उल्लेख उन्होंने अपनी रचनाओंमें कहीं नहीं किया है। पर इनकी रचनाओंको देखते हुए ये प्राकृत और संस्कृतके अच्छे ज्ञाता थे, यह सहजमें ही ज्ञात हो जाता है । तथा इनके पिता यतः राज्यके उच्च पद पर आसीन रहे हैं, अतः इनकी शिक्षा-दीक्षा भी उभय-भाषा विशेषज्ञ विद्वानोंके द्वारा हुई होगी, ऐसा निश्चित है। चारों अनुयोगोंका ज्ञान इनका स्वोपार्जित प्रतीत होता है।
समीक्षा पद्म कवि कृत श्रावकाचार और दोनों क्रिया-कोषोंमें क्या समता और क्या विशेषता है इसका कुछ यहां विचार किया जाता है
जिस प्रकार पदम कविने अपने श्रावकाचारको भूमिकामें समवशरणमें ले जाकर श्रेणिकके द्वारा गौतम गणवरसे श्रावक धर्मके जाननेकी इच्छा प्रकट की, उसी प्रकार किशनसिंह जीने भी कराई है, किन्तु दौलतराम जीने ऐसा न करके मंगलाचरणके पश्चात् वेपन क्रियाओंका वर्णन यह कहकर प्रारम्भ किया है कि गृहस्थको अनेक क्रियाओंमें अपन क्रियाएँ प्रधान हैं।
दोनों ही क्रिया कोषोंमें त्रेपन क्रियाओंकी नाम वाली एक ही गाथा 'उक्तं च' कहकर लिखी है। वे वेपन क्रियाएँ इस प्रकार हैं-मूलगुण ८, व्रत १२, तप १२, समभाव १, श्रावक प्रतिमा ११, दान ४, जलगालन १, अनस्तमित व्रत (रात्रि भोजन त्याग) १, दर्शन १, ज्ञान १, चारित्र १. = ५३ ।
प्रस्तुत संग्रहमें निवद्ध तीनों ही ग्रन्थकारोंने वेपन क्रियाओंकी मुख्यतासे ही श्रावकके आचारका वर्णन किया है इसके पूर्व श्री राजमल जीने अपनी लाटी संहितामें भी उक्तंच करके त्रेपन क्रियाओंके नाम कली उसी गाथाका उल्लेख किया है जिसे कि उक्त दोनों क्रियाकोष कारों ने उद्धृत किया है।
पदम कविने आगे कहे जानेवाले विषयका निर्देश पूर्व कथनके उपसंहारके साथ छन्द में ही कर दिया है. किन्तु किशनसिंह जी ने उसके साथ वर्ण्य विषय का निर्देक्ष पृथक् शीर्षक देकरके किया है, जिससे पाठक को आगे वर्णन किये जानेवाले विषय का बोध सरलता से हो जाता है । दौलतराम जीने शीर्षक नहीं दिये हैं।
___ भक्ष्य-अमक्ष्य वस्तुओंकी काल-मर्यादाका निर्देश पदम कवि और किशनसिंह जीने पूर्वागत गाथाओंको देकर सप्रमाण वर्णन किया है, किन्तु दौलतरामजीने उक्त वर्णन करते हुए भी प्रमाण उद्धृत नहीं किये हैं।
पदम कविने गृहीत मिथ्यात्वके पांचों भेदोंका जितना स्पष्ट और विस्तृत वर्णन किय है, वैसा शेष दो क्रिया कोषकारोंने नहीं किया है।
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प्रस्तावना
__ मिथ्यात्वपूर्ण एवं मन-गढन्त लोक-प्रचलित मिथ्यावतों का वर्णन कर उनके त्याग का जैसा उपदेश किशनसिंह जीने दिया है वैसा शेष दोने नहीं किया है।
पदन कविने मिथ्यात्वके निरूपणके पश्चात् सम्यक्त्व-प्राप्तिको योग्य भूमिका वर्णन कर सप्त तत्त्वोका और सम्यक्त्वके भेदोंका स्वरूप विस्तारसे कहा है। किन्तु किगनसिंह जीने वेपन क्रियाओं को गिनाकर और मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्वका कुछ भी वर्णन न करके मूलगुणोंका वर्णन करते हुए इस प्रकारके अमक्ष्योंका विस्तारसे वर्णन किया है। दौलतराम जीने भी मंगलाचरणके पश्चात् मिथ्यात्व-सम्यक्त्वका वर्णन न करके अमक्ष्य-पदार्थोंका वर्णन किया है। साथ ही दोनोंने भक्ष्य अभक्ष्य वस्तुओंको काल-मर्यादा का वर्णन प्राचीन गाथाओं के प्रमाण के साथ किया है।
पदमकविने रत्नकरण्डकके समान सर्वप्रथम सम्यक्त्व के अगोंका विस्तृत स्वरूप और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों की प्रश्नोत्तर शावकाचार के ममान कथाओं का निरूपण किया है। किन्तु किशन सिंह जी ने सम्यक्त्व के अंगों का और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों को कथाओं का कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। दौलतराम जो ने अति संक्षेप में आठों अंगों का स्वरूप कह कर उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के केवल नामोंका ही उल्लेख किया है।
पदम कवि ने उक्त प्रकार से सभ्यग्दर्शन का सांगोपांग विस्तृत वर्णन करके पश्चात् दर्शन प्रतिमा का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम सप्त व्यसन-सेवियों में प्रसिद्ध पुरुषों का उल्लेख कर उनके त्याग का उपदेश दिया। तत्पश्चात् अष्टमूलगुण, पालने जल-गालने और रात्रिभोजन के दोष बताकर उसके त्यागका उपदेश दिया। सदनन्तर व्रत प्रतिमाके अन्तर्गत श्रावकके बारह व्रतोंका विस्तार से वर्णन किया है। किन्तु किशनसिंहजीने प्रतिभाओं के आधार पर उक्त वर्णन न करके आठ मूल गुणों का वर्णन कर अत्यक्ष्य पदार्थों का विस्तार से वर्णन कर उनके त्याग का और चौके के भोतर ही भोजन करने का विधान किया है।
पदम कविने सम्यक्त्वके अंगोंका और उनमें प्रसिद्ध पुरुषोंको कथाओंका वर्णन कर व्रत प्रतिमा आदिका विस्तारसे वर्णन कर अन्तमें छह आवश्यक, बारह तप, रत्नत्रय धर्म और मैत्री-प्रमोवादि आवनाओंका वर्णन कर अन्तमें समाधिमरणका वर्णन कर अपनी वृहत् प्रशस्ति दी है। किन्तु किशनसिंहजीने अभक्ष्य वर्णनके पश्चात् रजस्वला स्त्रीके कर्तव्योंका विस्तारसे वर्णन कर श्रावकके बारह व्रतोंका और समाधि मरणका वर्णन किया है । तद. नन्तर श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका संक्ष पसे वर्णन कर जल-गालन, रात्रि भोजन-त्यागरूप अणथम (अनस्तमित) व्रत और रत्नत्रय धर्मका वर्णन कर केर-सांगरी आदिकी घृणित उत्पत्ति, गोंद, अफीम, हल्दी और कत्था आदिको जिन्द्य एवं हिंसामयी उत्पत्तिका विस्तारसे वर्णन किया है। तत्पश्चात् मिथ्यामतोंका निरूपण करते हुए लू कामतको आचार-हीनता का, और जिन-प्रतिमा का विस्तारसे वर्णन किया है।
पदम कवि ने लूंकामत का कोई उल्लेख नहीं किया है और दौलतराम जीने नामोल्लेख न करके उनके मतकी समालोचना कर जिन प्रतिमाकी महत्ताका शंका-समाधान पूर्वक वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि पदम कविके समयमें लू कामतका या तो प्रारम्भ ही नहीं हुआ था, और यदि हो भी गया होगा, तो उसका प्रचार उनके समयमें नगण्य-सा था।
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श्रावकाचार-संग्रह किशन सिंह जोने जन्म-मरणकी मिथ्या क्रियाओंका, सूतक-पातकका ग्रह-शान्ति, ज्योतिषचक्र और सूर्य-चन्द्रके ग्रहणका जैन मान्यताके अनुसार विस्तारसे वर्णन किया है। किन्तु पदम कविने और दौलतराम जीने यह कुछ भी वर्णन नहीं किया है।
पदम कविने मंत्र-जापके समय विभिन्न अंगुलियों परसे उसके विभिन्न फलोंका वर्णन किया है, किन्तु किशन सिंह जीने जाप्य मंत्रोंका वर्णन करते हुए भी विभिन्न अंगुलियों परसे जाप करने के विभिन्न फलों को का कोई वर्णन नहीं किया है। दौलतराम जी ने सामायिका विस्तृत वर्णन करते हुए भी उक्त विवेचन नहीं किया है ।
पूजन का वर्णन यद्यपि तीनों की ग्रन्थकारोंने किया है, परन्तु पूजन-प्रक्षाल करते समय मुखपर कपड़ा बांधनेका विधान केवल किशन सिंहजी ने ही किया है। मुखपर कपड़ा बांधकर पूजन-प्रक्षाल करनेका रिवाज मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैनोंमें आज भी प्रचलित है और कुछ समय पूर्व तक बुन्देल खण्डके दि० जैनियोंमें भी था।
पदम कवि ने निर्माल्य भक्षण के महादोष का वर्णन किया है, परन्तु दोनों क्रिया कोषकारों ने इस विषय पर कुछ नहीं कहा है।
किशन सिंह जीने लोक-प्रचलित मन-गढन्त मिथ्या व्रतोंका निषेध कर आष्टाह्निक, सोलह कारण आदि अनेक जैन व्रत-विधानोंका जैसा विधि-पूर्वक विस्तृत विवेचन किया है, वैसा शेष दोनोंने नहीं किया है।
दौलतरामजीने बारह प्रकारके तपोंका जैसा विस्तृत वर्णन किया है, वैसा शेष दोनों ने नहीं किया है।
किशनसिंहजीने जिन-मन्दिरमें नहीं करने के योग्य चौरासी आसादनाओं का तथा मिथ्यात्वमयी नवग्रह-शान्ति का निषेध कर जैनविधि से नवग्रह-शान्ति और ज्योतिष चक्र का वर्णन किया है, पर शेष दोनों ने इस पर कुछ नहीं लिखा है।
विवाह के समय एवं जन्म-मरण के समय की जाने वाली मिथ्यात्वपूर्ण क्रियाओं का जैसा निषेध पदम कविने किया है, वैसा शेष दोने नहीं किया है।
किशनसिंहजीने प्रातःकालीन पूजनको अष्ट द्रव्योंसे, मध्याह्न पूजन सुन्दर पुष्पोंसे और सायंकालकी पूजन को दीप-धूप से करनेका वर्णन किया है, वैसा शेष दोने नहीं किया है।
__ पूजकको नौ स्थानोंपर तिलक लगाने और आभूषण धारण करनेका वर्णन भी किशनसिंहजीके सिवाय शेष दोने नहीं किया है। वस्तुतः यह विधि पंचकल्याणकादि विशिष्ट पूजाविधानोंके लिए है, फिर भी भक्तजन अपने नवों अंगोंमें चन्दन लगाकर उक्त कर्तव्य को पूर्ति कर ही लेते हैं।
__ जाप करते समय पभोकारमंत्रको तीन श्वासोच्छ्वासोंके द्वारा उच्चारण करनेका विधान इन्होंने किया है। यथा प्रथम पदको श्वांस खींचते हुए, दूसरे पदको श्वास छोड़ते हुए, तीसरे पदको श्वास खींचते हुए और चौथे पदको श्वास छोड़ते हुए तथा पंचम पदके ‘णमो लोए' पदको श्वास लेते हुए और 'सव्वसाहणं' पदको श्वास छोड़ते हुए उच्चारण करना चाहिए। इस प्रकार से तीन श्वासोच्छ्वासोमें उच्चारण करनेसे मन इधर-उधर न भागकर स्थिर रहता है।
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प्रस्तावना
सभीने पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके पूजन और जाप करने का विधान किया है।
पं० दौलतरामजीने अष्ट मूलगुणोंके वर्णनसे साथ ही अभक्ष्य वस्तुओंने त्यागका, चौका, चक्की, परंडा आदिको श द्धिका, रजस्वला-प्रसूतादि स्त्रीके हाथसे स्पर्शी वस्तुओंकी अग्राह्यता का, और सप्त व्यसनों का जैसा भावपूर्ण वर्णन किया है, वह पढ़ते ही बनता है । शेष दोनों के वर्णनमें वैसी भावपूर्ण सरसता नहीं है।
इसी प्रकार व्रती श्रावकके नहीं करने योग्य व्यापारोंका, सम्यक्त्वके भेदोंका विशद और सरस वर्णन तथा अहिंसाणुव्रतके वर्णनमें दया का अपूर्व विस्तृत वर्णन भी बार-बार पढ़ने के लिए मन उत्सुक रहता है ।
पदम कविने सामायिकके ३२ दोषों का वर्णन तीसरी प्रतिमामें किया है। किन्तु किशन मिहजोने दूसरो ही प्रतिमामें किया है । पर दौलतरामजोने उनका कहीं कोई वर्णन नहीं किया है । इन बत्तीस दोषोंका वर्णन अनेक श्रावकाचार-कर्ताओंने भी किया है। पर वस्तुतः ये दोष साधुओंके लिए ही मूलाचार आदिमें बतलाये गये हैं। श्रावकको जितना संभव हो, उतने दोषोंसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
पदम कविने चार शिक्षा ब्रतोंका वर्णन कुन्दकुन्दके अनुसार किया है, किन्तु किशनसिंह जी और दौलतरामजीने तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार किया है।
श्रावकके १७ नियमोंका वर्णन तीनोंने ही किया है।
अन्तमें एक ही प्रश्न विचारणीय रह जाता है कि किशन सिंहजीके द्वारा सांगानेर (राजस्थान) में रहते हुए स. १७८४ में क्रिया कोषको रचना करनेके केवल ११ वर्षके बाद ही दौलत रामजीने उदयपुर में अपने क्रिया कोषको रचना क्यों की? दोनों क्रियाकोषोंको गंभीर और सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेपर हम दो निष्कर्षोंपर पहुंचे हैं। प्रथम तो यह कि संभव है कि दौलतरामजीको किशनसिंहजीके क्रियाकोषके दर्शन ही नहीं हुए हों। और संस्कृत क्रियाकोषके मिलनेपर उन्हें उसकी उपयोगिता प्रतीत होनेसे भाषा छन्दोंमें सर्वसाधारण पाठकोंके लिए उसकी रचना करना आवश्यक प्रतीत हुआ हो।
दूसरा कारण यह भी संभव है कि किशनसिंहजी-रचित क्रिया कोषमें उन्हें भट्टारकीय या वोसपन्थ-आम्नायको गन्ध आई हो और इसलिए उन्होंने विशुद्ध तेरापन्थ-आम्नायके अनुसार क्रियाकोषको स्वतंत्र छन्दोबद्ध रचना करना अभीष्ट रहा हो।
किशनसिंहजीके क्रियाकोषमें वीसपन्थको गन्ध आनेके कुछ स्थल इस प्रकार हैं(१) मध्याह्न पूज-समए सु एह, मनुहरण कुसुम बहु देखि देह । अपराह्न भविक जन करिह एव, दीपहि चढ़ाय बहु धूप खेइ ॥३॥
(प्रस्तुत संग्रह पृ० २०४) (२) जो भविजन जिन-पूजा रचे, प्रतिमा परसि पखालहि सचे। मौन-सहित मुख कपड़ो करे, विनय विवेक हरष चित धरै ॥४८॥
(प्रस्तुत संग्रह पृ० २०५)
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श्रावकाचार-संग्रह
(३) पं. किशनसिंहजीने श्रावकके बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओंके वर्णनके बाद जलगालन, प्रासुक जल-विधि और रात्रिभोजन-त्याग आदिका वर्णन किया है। पं० दौलतरामजीको
छ व्यत्क्रम-सा प्रतीत हआ हो और इसीलिए उन्होंने श्रावकके बारह ब्रतोंका वर्णन करनेके पूर्व ही उक्त वर्णन सर्वप्रथम करना उचित समझा हो।
जो कुछ भी हो, फिर भी दौलतरामजीको वर्णन-शैली बहुत ही भावपूर्ण. सरल और रोचक है । उन्होंने अहिंसादि प्रत्येक अणव्रतका वर्णन विधि और निषेध-मुखसे किया है । जैस अहिंसाणुव्रतका वर्णन करते हुए पहिले अहिंसा या. दया-करुणाकी महत्ता ६७ छन्दोंमें बताकर पुनः हिंसा पापके दोषोंका वर्णन २४ छन्दोंमें किया है । ( देखो पृ० ५६३-२६८ )
इसी प्रकार सत्य-असत्य, चौर्य-अचौर्य, ब्रह्म-अब्रह्म और परिग्रह-अपरिग्रहके गुण-दोषोंका वर्णन भी खूब विस्तारसे किया है।
उपसंहार यद्यपि तीनों ही संग्रहोंमें ५३ क्रियाओंका वर्णन है, तथापि पदम कविने पूर्व परम्पराके अनुसार उत्थानिकामें श्रेणिकके प्रश्न करनेपर गौतम-गणधरके द्वारा श्रावकके व्रतोंका वर्णन कराया है और संस्कृतमें रचित श्रावकाचारोंको दुरुहताके कारण सर्वसाधारणके लाभार्थ उसे अपनो मातृभापामें उन्हें रचनेको प्रेरणा हुई है। यही कारण है कि उन्होंने अपनी रचनाको 'श्रावकाचार'के नामसे ही उल्लिखित किया है। पं० किशनसिंहजो और पं० दौलतरामजीने यत: संस्कृत कियाकोषके आधारपर अपनी रचनाएँ की हैं. अतः उन्होंने अपनी रचनाओंका नाम 'क्रियाकोष' देना ही उचित समझा है। तीनों रचनाओं को अपनी अपनी स्वतन्त्र विशेषता है, अतः तीनों ही पढ़ने. मनन करने और तदनुकूल आचरण करनेके योग्य हैं।
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श्रावकाचार-संग्रह पंचम भागकी विषय-सूची
पदम-कृत श्रावकाचार
मंगलाचरण और श्रावकाचार विधि वर्णन के लिए शारदा से प्रार्थना जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र मगध देश और राजगृह नगरी का वर्णन राजा श्रेणिक का वर्णन और समवशरण में पदार्पण
गौतम गणधर से गृहस्थ धर्म का कथन करने की प्रार्थना
त्रेपन क्रियाओं का नामोल्लेख कर गौतम स्वामी द्वारा उनका निरूपण
सम्यक्त्व के बिना संसार परिभ्रमणका वर्णन
द्रव्य और भाव मिथ्यात्व का निरूपण तथा द्रव्य मिध्यात्व के पांच भेद और उनके
प्रचारकों का वर्णन
सम्यक्त्व के स्वरूप का निरूपण
सप्त तत्व और नव पदार्थों का वर्णन
सम्यक्त्व के भेदों का स्वरूप
सम्यक्त्व के पच्चीस दोषों का वर्णन
सम्यक्त्व के आठ अंगों का नामोल्लेख कर निःशंकित अंग में प्रसिद्ध अंजन चोर की कथा निः कांक्षित अंग का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध अनन्तमती की कथा निर्विचिकित्सा अंग का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध उद्दायन राजा की कथा अमूढ दृष्टि अंग का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध रेवती रानी की कथा उपगूहन अंग का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध जिनेन्द्र भक्त सेठ की कथा स्थिति करण अंग का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध वारिषेण की कथा वात्सल्य अंग का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध विष्णु कुमार की कथा प्रभावना अंग का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध वज्रकुमार की कथा दर्शन प्रतिमा का वर्णन
सप्त व्यसनों में प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन और उनके त्याग का उपदेश
पंच उदुम्बर फल और तीन मकार के दोष बताकर उनके त्यागने का उपदेश
जल गालन का उपदेश और उसको विधि तथा प्रासुक करने विधान रात्रि भोजन के दोष बताकर उसके त्याग का उपदेश
व्रत प्रतिमा का निरूपण और अहिंसाणुव्रत का स्वरूप अणुव्रत में प्रसिद्ध यमपाल चाण्डाल की कथा सत्याणुव्रत का निरूपण
सत्याणुव्रत में प्रसिद्ध धनदेव सेठ की कथा
पृष्ठ सं० १-१११
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१२
श्रावकाचार-संग्रह अचौर्याणुव्रत का निरूपण और उसमें प्रसिद्ध वारिषेण की कथा ब्रह्मचर्याणुव्रत का वर्णन और उसमें प्रसिद्ध नीलीबाई की कथा परिग्रह परिमाण अणुव्रत का वर्णन परिग्रह परिमाण व्रत में प्रसिद्ध जयकुमार की कथा गुणवत के भेद और उनका स्वरूप शिक्षावत के भेद कहकर प्रथम शिक्षाक्त भोग-परिमाण का वर्णन दूसरे शिक्षाव्रत उपभोग-परिमाण का निरूपण तोसरे शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग का वर्णन पात्र, कुपात्र और अपात्र का स्वरूप और उनको दान देने का फल चौथे शिक्षाबत सल्लेखना का निरूपण आहार दान में प्रसिद्ध श्रीषेण राजा की कथा औषवदान में प्रसिद्ध वृषभसेना को कथा ज्ञानदान में प्रसिद्ध कुण्डेश को कथा अभय ( वसतिका ) दान में प्रसिद्ध सूकर की कथा जिन पूजा के फल को पाने वाले मेंढक की कथा सामायिक प्रतिमा का स्वरूप और उसकी विधि का वर्णन मन्त्र जाप की विधि और विभिन्न अंगुलियों से जाप का फल-वर्णन सामायिक के पाँच अतोचार और बत्तीस दोषों का वर्णन प्रोषध प्रतिमा का विस्तृत स्वरूप सचित्त त्याग प्रतिमा का वर्णन रात्रि भुक्ति-विरति प्रतिमा का स्वरूप ब्रह्मचर्य प्रतिमा का स्वरूप और स्त्री सम्पर्क के सर्वथा त्याग का उपदेश आरम्भ त्याग प्रतिमा का स्वरूप परिग्रह त्याग प्रतिमा का स्वरूप अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरूप उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का स्वरूप सात स्थानों पर मौन रखने का विधान और मौन के गुणों का वर्णन भोजन के अन्तराय उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा के दोनों भेदों का स्वरूप उद्दिष्ट ( आधार्मिक ) भोजन के दोष षट आवश्यका का वर्णन बाह्य तपों का वर्णन अनशन तप के अन्तर्गत नन्दीश्वर-पूजन, रोहिणी, मुकुट सप्तमी आदि के उपवासों आदि __ का निरूपण अवमोदर्य आदि बाह्य तपोंका वर्णन प्रायश्चित आदि अन्तरंग तपोंका स्वरूप
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विषय-सूची
आर्त्त - रौद्रका ध्यानका स्वरूप और उसके त्यागका उपदेश धर्मध्यान और शुक्लध्यानका वर्णन निर्माल्य भक्षणके दोषोंका वर्णन रत्नत्रय धर्मका विस्तृत वर्णन
व्यवहार रत्नत्रयके बिना निश्चय रत्नत्रय सम्भव नहीं चारों कपायोंके दोष बतलाकर उनके त्यागका उपदेश मैत्री प्रमोद आदि भावनाओंका वर्णन
पंचेन्द्रिय विषयोंके दोष बताकर उनके त्यागका उपदेश समाधिमरणका निरुपण
ग्रन्थकार की प्रशस्ति और अपनी लघुताका निरूपण
किशनसिंह कृत क्रियाकोष
मंगलाचरण
राजगृह नगरी और राजा श्रेणिकका वर्णन
वनपालके द्वारा श्री वर्द्धमानक समवशरण आनेका श्रेणिकसे कथन
श्रेणिकका समवशरण में गमन और भगवानका स्तवन
गौतम स्वामीसे श्रावककी त्रेपन क्रियाओंके वर्णन की प्रार्थना
आठ मूल गुणों का वर्णन
बाईस अभक्ष्यों का वर्णन और उनके त्यागका उपदेश
द्विदल भोजनके दोष बताकर उसके त्यागका उपदेश
कांजी भक्षणका निषेध
गोरस मर्यादाका कथन चर्माश्रित वस्तु दोष वर्णन
सात स्थानोंपर चन्दोवा लगानेका विधान
रात में पिसे चून आदिके त्यागका उपदेश
अचार मुरब्बा आदिके दोष बताकर उनके त्यागका उपदेश
चौकेके भीतर भोजन करनेका विधान
रजस्वला स्त्रीकी क्रियाका वर्णन
अहिंसा व्रतका स्वरूप अहिंसा व्रत अतीचारोंका वर्णन
सत्याणुत्रतका स्वरूप और उसके अतीचारोंका वर्णन अणुव्रतका स्वरूप और उसके अतीचारोंका वर्णन ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप और शीलकी नवबाड़ों का वर्णन ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतीचारोंका वर्णन
परिग्रह परिमाण अणुव्रत और उनके अतीचारोंका वर्णन दिग्विरति गुणवतका स्वरूप और उसके अतीचारोंका वर्णन
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મેજ
देशव्रतका स्वरूप और उसके अतीचारोंका वर्णन अनर्थदण्ड त्याग गुणवतका वर्णन अनर्थदण्ड त्यागव्रतके अतीचारोंका वर्णन सामायिक शिक्षाव्रतका स्वरूप सामायिक शिक्षाव्रतके अतिचार प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतका स्वरूप प्रोषधोपवास की विधिका विस्तृत वर्णन भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रतका स्वरूप भोगोपभोग परिमाणव्रतके अतीचार अतिथि संविभाग शिक्षाव्रतका स्वरूप
पात्र, कुपात्र और अपात्रके भेदोंका स्वरूप
पात्र दानके फलका विस्तृत निरूपण अतिथि संविभागव्रतके अतीचार श्रावकके सत्रह नियमोंका वर्णन भोजनके सात अन्तरायोंका कथन सात स्थानपर मौन रखनेका विधान
संन्यास मरणका विधान ज्ञानकी आराधनाका वर्णन चारित्र आराधनाका वर्णन निश्चय आ गघनाका वर्णन आराधनाके अतिचार
समभावका वर्णन
दर्शन प्रतिमाका वर्णन
व्रत प्रतिमा आदि पाँच प्रतिमाओंका संक्षिप्त वर्णन
ब्रह्मचर्यं आदि शेष प्रतिमाओं का वर्णन
जलगालनका विधान
श्रावकाचार संग्रह
प्रासुक जल का विधान
अथम ( अनस्तमित या रात्रिभोजन त्याग ) व्रत का वर्णन रात्रिभोजन के दोषों का और रात्रिभोजो पुरुषके, दुःख विपाकों का वर्णन सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का कथन
गोंद, अफोम, हल्दो, पान ( ताम्बूल ) कत्था की हिंसामयी उत्पत्ति का वर्णन खींचला, केर, सांगली आदि के दोषों का निरूपण
शुद्ध घी की मर्यादा का वर्णन
मिथ्यामतों का वर्णन
लूंका ( ढूंढिया ) मतके हीन आचार का निरूपण जिन प्रतिमा की महिमा का वर्णन
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विषय-सूची
लोक में प्रचलित अनेक मिथ्यामतों का विस्तृत वर्णन और उनका निषेध जन्म मरण की मिथ्या क्रियाओं का कथन सूतक, पातक का विधान
तम्बाकू, भांग आदि के निषेध का उपदेश गृह शान्ति और ज्योतिष चक्र का वर्णन नव गृह शान्ति का विधान
सूर्य चन्द्र ग्रहण का जैन शास्त्रोक्त वर्णन अपने शरीर सम्बन्धी क्रियाओं का कथन मन्त्र जाप और पूजा का विधान
त्रिकाल पूजन का विधान
मुख पर कपड़ा बाँध कर प्रतिमा-प्रक्षाल और पूजन का उपदेश
जिन मन्दिर में नहीं करने के योग्य चौरासी आसादनाओं का पृथक्-पृथक् वर्णन
अपने क्रियाकोष की रचना के आधार का वर्णन
प्रस्तुत कथाकोष में निबद्ध विषयों का वर्णन
लोक प्रचलित और मनगढ़ंत मिथ्या व्रतों का निषेध कथन
व्रत कथ
सोलह कारण व्रत वर्णन रत्नत्रय व्रत विधान
लब्धि व्रत विधान
अक्षय निधि, मेघमाला, ज्येष्ठ जिनवर, षट्रसो, पाक्षिक, ज्ञान पच्चीसी और समवशरण व्रत विधान
आकाश पंचमी, अक्षय दशमी, चन्दनषष्ठी, निर्दोष सप्तमी सुगन्ध दशमी श्रवण द्वादशी, अनन्त चतुर्दशी और नवकार पैंतीसी व्रत का विधान
त्रेपन क्रिया व्रत, जिनेन्द्र गुण संपत्ति व्रत, पंचमी व्रत, और शील कल्याणक व्रत का विधान
शील व्रत, नक्षत्र माला व्रत, सर्वार्थ सिद्धि व्रत और तीन चौबीसी व्रत का विधान श्रुत स्कंध व्रत, जिन मुखावलोकन व्रत, लघु सुख संपत्ति व्रत, वृहत् सुख-संपत्ति व्रत और बारह व्रत का विधान
एकावली और द्विकावली व्रत का विधान
रत्नावली, कनकावली, मुक्तावली, मुकुट सप्तमी और नन्दीश्वर पंक्ति व्रत का विधान लघु मृदंग मध्य, वृहद् मृदंग मध्य, धर्मचक्र, सूक्तावली, भावना पच्चीसी, नवनिधि और श्रुतज्ञान व्रत का विधान, सिंह निष्क्रोडित, लघु चौतीसी, बारहसे चौतीसी और पंचपरमेष्ठी गुणव्रत का विधान
पंचपरमेष्ठी के गुणों का वर्णन
पुष्पांजली व्रत, शिवकुमारका बेला, तीर्थंकरोंका वेला और जिनपूजा पुरंदर व्रतका विधान
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श्रावकाचार -संग्रह
रोहिणी, कोकिला पंचमी और कवलचन्द्रायण व्रतका विधान
मेरु पंक्ति व्रतका विधान
पल्लि व्रतका विधान
रुक्मिणी व्रत और विमान पंति व्रतका विधान
निर्जर-पंचमी, कर्म-निर्जरणी और आदित्य (रवि) व्रतका विधान कर्मचूर, अनस्तमित और पंचकल्याणक ब्रतका विधान गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक और तपकल्याणक तिथियोंका वर्णन ज्ञान कल्याणक और निर्वाण कल्याणक की तिथियोंका वर्णन व्रतोंके उद्यापन की विधिका विधान
निर्वाण कल्याणकका वेला और लघु कल्याणक व्रतका विधान ग्रन्थकार की प्रशस्ति और अपनी लघुताका निरूपण
क्रियाकोष वर्णित छन्दों की संख्याका प्रमाण अन्तिम मंगलाचरण
बोलतराम कृत क्रियाकोष
मंगलाचरण और क्रियाकोष को रचना का निर्देश
अढाई द्वीप का वर्णन
भरत क्षेत्र सम्बन्धी त्रेसठ सलाका आदि महापुरुषों का वर्णन
त्रिकालवर्ती चौबीसी और विदेह सम्बन्धी बीस तीर्थंकरोंका स्मरण तत्वार्थसूत्र, सिद्धान्तग्रन्थ, समयसार, समाधितंत्र का स्मरण कर कुन्दकुन्द मुनि
की वन्दना चतुर्विधसंघकी वन्दना
श्रावककी त्रेपन क्रियाओंके वर्णनकी प्रतिज्ञा गाथोक त्रेपन क्रियाओंके नाम
अष्ट मूल गुणों का वर्णन
भक्ष्य वस्तुओंकी काल-मर्यादा
द्विदलका वर्णन और उसके त्यागका उपदेश
कच्चे दूध में एक अन्तर्मुहूर्तं पश्चात् असंख्य त्रस जीवोंकी उत्पत्तिका वर्णन
दही और छांछकी मर्यादा
प्राक जलकी मर्यादा
बाजारू दही दूधके त्यागका उपदेश दही जमानेकी विधिका वर्णन
चमड़े में रखी वस्तुओंके त्यागका उपदेश रसोई, परण्डा, चक्की आदि क्रियाओंका वर्णन मिट्टी के बर्तन में खान-पान करनेका निषेध हरी शाक आदिके सुखानेका निषेध
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विषय-सूची अपने भोजनके पात्रोंको अज्ञात और मांसाहारी मनुष्योंको खानपानके लिए देनेका निषेध २५२ भोजनको रसोई घरसे बाहर ले जाकर खानेका निषेध
२५३ जलगालनकी विधि
२५४ उष्णजलकी मर्यादा, प्रसूता और रजस्वला स्त्रीकी शुद्धिका विधान
२५५ सप्तव्यसन सेवन करने में प्रसिद्ध पुरुषोंका उल्लेख कर व्यसनोंके त्यागका उपदेश श्रावकको धान्य, मिष्ठान्न और हींग, हरताल, घृत, तेल आदिके व्यापार करनेका निषेध सम्यक्त्वकी महिमा बताकर उसके भेदों और २५ दोषोंका वर्णन
२६० सम्यक्त्वके आठ अंगों और उनमें प्रसिद्ध पुरुषोंका संक्षिप्त निरूपण
२६० सात धर्म-क्षेत्रोंका वर्णन और उनमें धन खर्च करनेका विधान
२६१ अहिंसाणुव्रतका वर्णन
२६३ मैत्री आदि भावनाओंका वर्णन
२६५ रात्रिमें पिसे अन्न और रात्रिमें बने भोजनके खानेका निषेध
२६६ स्व-दया और पर-दयाका विधान
२६७ अहिंसाणुव्रतके अतीचार सत्य अणुव्रतका वर्णन और असत्यके भेदोंका स्वरूप
२६९ सत्यवचनकी महिमा
२७० सत्याणुव्रतके अतीचारोंका वर्णन
२७१ अचौर्याणुव्रतका स्वरूप और चोरीके दोषोंका विस्तृत वर्णन
२७३ अचौर्याणुव्रतके अतीचारोंका वर्णन
२७५ ब्रह्मचर्याणुव्रतका वर्णन
२७७ शीलकी महिमाका विस्तृत वर्णन
२७९ दशलक्षणधर्ममें क्षमा आदि चार धर्मोको प्रधानताका वर्णन
२८२ संयम आदि शेष धर्मोकी महिमाका वर्णन
२८५ समता, उदासीनता और ज्ञानचेतना आदिको महिमाका वर्णन
२८६ अहमिन्द्र आदिकी महत्ता बताकर सम्यक्त्वकी महिमाका वर्णन
- २८९ एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि जीवोंको शरीर-अवगाहनाका वर्णन षटकायिक जीवोंकी जघन्य अवगाहनाका वर्णन व्यभिचारी-सा पापाचारी और ब्रह्मचारी-सा सदाचारी और कोई नहीं
२९४ निश्चय-शीलके स्वरूपका वर्णन व्यवहार-शीलका विस्तृत वर्णन परदारा-सेवनके दोषोंका वर्णन
२४८ बालब्रह्मचारिणी ब्राह्मी सुन्दरी आदिका वर्णन
२९९ कामवासनाके दशरूप और शीलकी नव बाड़ोंका वर्णन ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचारोंका वर्णन नामोल्लेख कर शील-प्रभावका वर्णन नामोल्लेख कर परस्त्री-सेवियोंके उदाहरण
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परिग्रह परिमाण अणुव्रतका विस्तृत वर्णन बहुआरम्भी और परिग्रहीकी मन-मालिनताका वर्णन सन्तोषके समान और कोई धर्म और सुख नहीं परिग्रह परिमाणव्रतके अतीचार दिग्विरति गुणव्रतका वर्णन दिग्विरति गुणव्रतके अतीचार
देशविरति गुणव्रतका वर्णन और उसके अतीचार अनर्थदण्ड व्रतका स्वरूप और उसके भेदोंका विस्तृत वर्णन
अनर्थदण्ड व्रतके अतीचार
श्रावकाचार संग्रह
सामायिक शिक्षाव्रतका विस्तृत वर्णन
सामायिक शिक्षाव्रतके अतीचार प्रोषघोपवासका विस्तृत वर्णन प्रोषधोपवास व्रतके अतीचार भोगोपभोग परिमाण व्रतका विस्तृत वर्णन
भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतीचार
अतिथि संविभाग शिक्षाव्रतके स्वरूपका विस्तृत वर्णन तीनों प्रकारके सुपात्रोंके तीन-तीन भेदोंका निरूपण
अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकारकी कषायोंके क्रोधादिका पाषाण - रेखा आदिके
दृष्टान्त द्वारा वर्णन
पात्रदानके फलका वर्णन
निर्मल बारह व्रतधारी श्रावक ही व्रत प्रतिमाका धारक होता है सामायिक आदि चार प्रतिमाओंका संक्षिप्त वर्णन
सातवीं, आठवीं और नवमी प्रतिमाका वर्णन
दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा विस्तृत वर्णन
श्रावक, श्राविका, मुनि और आर्यिकाको दान देनेका उपदेश सम्यक्त्वके नौ भेदोंका वर्णन
नवधा भक्ति और दाताके सात गुणोंका वर्णन
पात्र, कुपात्र और अपात्र दानके फलका वर्णन
चारों प्रकारके दान देनेकी प्रेरणा
अतिथि संविभाग व्रतके अतीचार देशावकाशिक व्रतका वर्णन
देशावकाशिक व्रतके अन्तर्गत सत्रह नियमों का सप्रमाण विस्तृत वर्णन
यम, नियम आदि योगके आठ अंगोंका निरूपण
सल्लेखनाका विस्तृत वर्णन
निश्चय और व्यवहाररूप चारों आराधनाओंका वर्णन
सल्लेखनाके अतीचार
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बारह व्रतोंमें प्रथम अनशन तपका वर्णन सावधि और निरवधि अनशनका वर्णन अवमोदर्य तपका वर्णन और उसका महत्त्व व्रत परिसंख्यान तपका वर्णन
रस परित्याग तपका वर्णन
विविक्त शय्यासन तपका वर्णन
विषय-सूची
कायक्लेश तपका वर्णन
अन्तरंग सपमें प्रथम प्रायश्चित्त तपका वर्णन विनय तपका वर्णन
वैय्यावृत्त तपका वर्णन
स्वाध्याय तपका सभेद वर्णन
व्युत्सर्ग तपका वर्णन
ध्यान तपका वर्णन
आर्त्त और रौद्र दुर्ष्यानोंका वर्णन
धर्मध्यानका स्वरूप और उसके आज्ञाविचय आदि चार मेदोंका वर्णन
धर्मंध्यानके पिण्डस्थ और पदस्थध्यानका वर्णन रूपस्थ और रूपातीत ध्यानका वर्णन धर्मध्यानके गुणस्थानोंका वर्णन शुक्लध्यानके भेद और उनके गुणस्थानोंका वर्णन पृथक्त्व वितर्क सविचार शुक्लध्यानका स्वरूप एकत्व वितर्क अवीचार शुक्लध्यानका स्वरूप सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यानका स्वरूप समुच्छिन्न क्रिया निर्वात शुक्लध्यानका स्वरूप समभावका वर्णन
अनन्तानुबन्धी कषाय आदिके अभाव होनेपर सम्यक्त्व देशव्रत, सकलव्रत और यथाख्यात
चारित्र उत्पन्न होनेका वर्णन
गुणस्थानोंके अनुसार मोहकर्मकी प्रकृतियोंका अभाव समभावकी अवस्थाका विस्तृत वर्णन
समभावकी महिमाका वर्णन
सम्यक्त्वका वर्णन
श्रावक प्रतिमाका स्वरूप
सम्यक्त्वके प्रशम संवेग आदि आठ गुणोंका सप्रमाण वर्णन क्षायिक सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेका समय और उसका स्वरूप
उपशम सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेका समय और उसका स्वरूप
क्षयोपशम सम्यक्त्वका स्वरूप
वेदक सम्यक्त्वके चार प्रकारोंका वर्णन
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२०
श्रावकाचार -संग्रह
सम्यग्दृष्टिकी परिणतिका विस्तृत वर्णन
अविरत सम्यक्त्वी वन्दनीय है और मिथ्यादृष्टि तपस्वी भी निन्दनीय है
सम्यक्त्वके निःशंकित आदि आठ अंगोंका स्वरूप
सम्यक्त्वके दोष और अतीचारोंका त्यागौ ही सम्यग्दृष्टि है अविरत सम्यक्त्वकी परिणतिका वर्णन
श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओं का उपसंहार दर्शन प्रतिमाका पुनः स्वरूप वर्णन दूसरी, तीसरी और चौथी प्रतिमाका वर्णन पाँचवीं और छठी प्रतिमाका स्वरूप
सातवी, आठवीं और नवमी प्रतिमाका स्वरूप
दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाका स्वरूप
पुनः दानको महिमा बताकर आहार दान देने और अनुमोदना करनेवालों का उल्लेख धर्म साधनभूत सात क्षेत्रोंका वर्णन और उनमें धन खर्चनेकी प्रेरणा
अचेतन प्रतिमा के दर्शन पूजन करनेसे कैसे स्वर्गादिकी प्राप्ति सम्भव है ? इस शंकाका
समाधान
धन होनेपर ही दान देंगे, इस विचारका त्यागकर प्रतिदिन जितना भी सम्भव हो उतने दान देनेका उपदेश
जलगालनकी विधि
अगालित जल-पानके दोषोंका वर्णन
गालित और उष्ण जलकी मर्यादाका वर्णन
रात्रि भोजनके दोषोंका वर्णन
रात्रिभोजी ब्राह्मणके अनेक भवोंतक दुर्गतियोंमें परिभ्रमणका वर्णन रात्रिभोजन-परित्यागके फलका वर्णन
रत्नत्रय धर्मका अंगोंके साथ विस्तृत वर्णन
रत्नत्रय धर्म तो मुक्ति-कारक ही है, किन्तु उससे इन्द्रादिके पदकी प्राप्ति शुभका
अपराध है, क्योंकि मुक्तिका उपाय बन्धनरूप नहीं होता
त्रेपन क्रियाओंका उपसंहार और अपनी लघुताका प्रदर्शन
परिशिष्ट
किशनसिंह - कृत क्रियाकोषमें उद्धृत गाथा - श्लोक सूची दौलतराम - कृत क्रियाकोषमें उद्घृत गाथा - श्लोक सूची पदमकवि-कृत श्रावकाचारमें निर्दिष्ट आचार्य नामादि
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श्री पदम कत श्रावकाचार
मंगलाचरण
वस्तु छन्द सकल जिनेश्वर चरण-कमल ते नमुं
गुण छैतालीस सद्धारक वारक मोह-तिमिर-हर । पंचकल्याण-नायक, · दायक
शिवसुखकार मनोहर । शारदा स्वामीनें मन धरू
आण धरूं गुरु निर्ग्रन्थ पाय । श्रावकाचार-विधि . वरण,
जो तुम्हों करो अवसाय ॥१
चौपाई महीतल द्वीप असंख्य मझार, जम्बू द्वीप जम्बु तरु धार । द्वीप लक्ष योजन विस्तार, चौत्रीस क्षेत्र सोहै सविचार ॥२ ते मध्य मेरु सुदर्शन नाम, लक्ष योजन ऊँचो गुण दाम । कनक-तणा सोल जिनगेह, त्रिण काल वंदुं हुं नेह ॥३ मेरु तणी दक्षिण दिस जान, भरतक्षेत्र नामें मन आन । षट् खंडे करि सोहै तेह, पंच मलेच्छ एक आरज एह ॥४ आरज खंड मांहे शुभ ठाम, जनपद जानु मगध सुनाम । गिरि-गुहा वन वाडी कूप, वावि खंडोर बलि नदी स्वरूप ॥५ द्रोण कर्वट मटंब खेट ग्राम, पुर पाटण वाहन भेद नाम । मणि माणिक मोती परबाल, धन धान्ये भरिआ हु विशाल ॥६ ठामि ठामि दीसे जिन गेह, हेम रत्न प्रतिमा नहि छेह । ऋषि मुनी जती अनगार, संघ सहित ते करें विहार ॥७ सरस मगध देश मांहि मझार, राजगृही नयरी गुणधार । गढ गोपुर खाई जलभृत्त, मटकोसीसा शोभाजुत्त ॥८ नगर मांहे सोहे जिनगेह, हाट मन्दिर नाला नहि छेद । चतुःवर्ण वसे परजा लोक, मनुष्य जन्म पामा करि रोक ॥९ जिन पूजे पोषे यति पात्र, तीर्थ सिद्धक्षेत्र करे जात्र । पुण्यतणां करे षट् कर्म, चार वर्ग साधे ते मर्म ॥११
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श्रावकाचार-संग्रह राजभवन राजा बसे चंग, श्रेणिक नाम भूप उत्तिंग । क्षायिक समकित सोहे सार, देव शास्त्र गुरु भक्ति उदार ॥११ चेलणा राणी आदि बहु नार, अभय वारिषेण आदि कुमार । राजा सुख भोगवे संसार, साधर्मी जन करे उपकार ॥१२ एक दिवस श्रेणिक महिपाल, सभा पूरि बैठो गुणमाल । प्रधान पुरोहित श्रेष्ठी भूपती, बहुविध बात करे निजमती ॥१३ तिण अवसर आव्यो वनपाल, करंड भरि फल फूल अपार । भेंट मुकीने करेय जुहार, स्वामी मुझ बोनती अवधार ॥१४ 'विपुलाचल मस्तक सुविशाल, समोसरयां श्रीवीर गुणमाल । बार सभाने दे उपदेश, त्रिभुवनपति सेवें जिनेश ॥१५ तब आनंद्यो श्रेणिक राय, तिणी दिशं सात पग जाय । परोक्ष नमोऽस्तु कियो जोड़ी हाथ, विनय सहित भूप रुक साथ ॥१६ पछे मालीने कीयो पसाय, वस्त्र आभूषण आख्या राय । आनंद मेरी तब उछली, वन्दन चाल्यो भप मन रली ।।१७ राज प्रजा लोके संचरयो, अन्तःपर भविजन पर वस्यो। हय गय रथ पालखी पदांति, गीत नृत्य बाजित जय क्षांति ॥१८ समोसरण मांही जब गया, तब आनन्द भवियण मन भया । मुखतें करतां जय जयकार, भेंटया जिननर त्रिभुवन तार ॥१९ तीन प्रदक्षिणा जावे दोध, अष्ठ प्रकारी पूजा कीध । जल गन्ध अक्षत पुष्प नैवेद्य, दीप धूप-फल अर्घ वसु भेद ॥२० जिन पूजी स्तवन उच्चरी, भाव-सहित भक्ती घणुं करी। अनन्त गुणसागर जिनदेव, सुर नर फणिपति करें जिन सेव ॥२१ सफल चरण जाणों तेह तणा, जे जिन यात्र धरि आपणां । प्रशस्त हस्त कमल ते कही, जिन पूजे ते पात्र-दान तें सही ॥२२ धन्य मुख जिह्वा तेह तणी, स्तवन करो जे जिन गुण भणी। नयन सफल कोधो वली नेह, दीठ स्वामी जु जिन जेह ॥२३ जिनवाणी सुनी निज करण, सफल मस्तक तें नमें जिन-चरण । तप जप ध्यान अध्ययन अभ्यास, उत्तम शरीर जे साधे शिववास ॥२४ पूजी स्तवी वांछे भूप इष्ट, जन्म जरा मृत्यू हरो अनिष्ट । दुक्ख करमनो क्षय जिन करो, जनमि जनमि पाइ अनुसरो ॥२५ साष्टांग प्रणमी जिन पाय, पाछे वंद्या गौतम गुरु पाय । यथायोग्य भगति सहुं करी, साधरमी जन विनय अनुसरी ॥२६ नर सभाइ कोयों परवेश, निज निज स्थाने बैठ्या नरेश । धर्म वांछा करें भविजन्न, जिम चातक मेह जीवन्न ॥२७ दिव्य वाणि प्रगट तब भई, निज निज भासा पृच्छ जु जुई। अध मागधि श्री जिनवर भाष, सर्व संदेह करे विनाश ॥२८
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पदैम-कृत श्रीवकाचार
द्विधा धर्म कियो परकाश, द्रव्य पदारथ तत्त्व निवास । षद्रव्य पंचासतिकाय, जुजुआ लक्षण गुण पर्याय ॥२९ लोकालोक तणु स्वरूप, त्रिकाल गोचर रूप अरूप । श्री जिनवाणी सूर्य समान, टाले मोह तिमिर अज्ञान ॥३० धर्म हस्त अवलंब आपिया, स्वर्ग मोक्ष पद भवि थापिया। महाव्रत अणुव्रत समकित सार, निजशक्ति मिलिया भवतार ||३? धर्म सुणी आणंद्यो राय, वली प्रणमी श्री जिनवर पाय । गौतम गणधर वली वंदिया, धर्म वृद्धि सहुनें दिया ॥३२ कर-पद्म जोडी वीनवे ते भूप, गौतम स्वामी नुगुण-कूप । गृहस्थ धर्म तणों विस्तार, विधी सहित कहो श्रावक आचार ॥३३ मति श्रुत अवधि मनः परियय ज्ञान, सप्त रिद्धि जाणों निधान । गणपति कहे सावधाने सुणों, सप्तम अंगमाहे जिन भणो ॥३४ द्विविध धर्म तणी न हि आदि, सदाकाल सास्वतो अनादि । भूत भावि छि अनें वर्तमान, त्रिलोक्य माहि दीपे जिम भांन ।।३५ द्वादश अंग कहीइ श्रुत ज्ञान, सातमा उपासकाध्ययन अभिधाम । उपासक व्रत तणो विचार, बहुविध कहं ते अंगमझार ॥३६ श्रावक अंग तणो सुणो मान, जे जिम कहीउ श्री वर्धमान । लक्ष एकादश पद परिमाण, सत्तरि सहस्र अधिक सू जाण ।।३७ तिन अक्षर पद एक ज तणा, सोलसे चौत्रीस कोडि तस भणा । असी लक्ष सप्त सहस्र कही, आठ से अठयासी अक्षर सही ॥३८ बत्तीस अक्षर तणा सलोक, संख्या केती कहि कोविद लोक । कोडि एकावन अधिक अष्ट लक्ष, सहस्र चौरासी ते समक्ष ॥३९ छै से अधिका साढा एकवीस, श्लोक संख्या कहि जगदीश । धर्म धर्म सहु को जिन कहे, धर्म भेद ते विरला लहे ॥४० कनक जेम चहविध परखीय. छेद भेद कष ताप निरखीय । चहुं गति मांहि पामे जीव दुक्ख, धर्म विना कले न हिं कांई सुक्ख ॥४१ अघोगति पड़ता जे उद्धरे, सार्थक नाम धर्म शिव करे । श्रावक ते जे समकित धरे, ज्ञान-सहित निज तप जे करे ॥४२ दया-सहित व्रत पाले सार, भावसहित दान दे चार।
"||४३
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अथ त्रेपन किया वर्णन
दोहा दया शील तप भावना, सुध समकित भवतार । सुर नर वर पदवी देइ, आये शिव-धर-बार ॥१ देव-कुदेव गुरु-कुगुरु, वली साहास्त्र विचार | धर्म-अधर्म गुणउ लखी, तत्त्व-कुतत्त्व मेदसार ॥२ चैत्य' एकादश कजली, उत्तम अष्ट मूल गुण मूल । नेम निशा भोजन तणों, जल-पालन निपुण ॥३ चतुर्विध दान समतापणों, द्वादश व्रत विशाल । तप द्वादश रत्नत्रय, त्रेपन क्रिया गुण माल ॥४ एणिपरि श्रावक क्रिया कही, संक्षेपे सविचार । जे नर नारी पालसी, ते तरसी संसार ॥५
अब भास रासनी . गौतम स्वामी ऊचरे ए, सुनो श्रेणिक सावधान तू। मन वच काय निश्चल करीए. परिहारि मोह अज्ञान तू ॥६ श्रावक धर्म तरु तणो ए, मूल ए समकित सार तो। दृढ पाइ थलहर थिर ए, प्रासाद पीठ उद्धार तो ॥७ समकित विण सोभा नहीं ए, जल विण जिम तलाब तो। दंत विना दंती जेम ए, केसरि दंष्टरा त्याग तो॥८ चन्द्र विना रजनी जेम ए, हंस विना जेम काय तो। गंध सुगंध विना पुष्प जेम ए, राज विना जेम राय तो ॥९ धर्म विना जीव तेम ए, वृथा तस अवतार तो। मनुष्य वेर्षे पशू रूप ए, जेहवो नर आकार तो ॥१० अनादि काल ए बातमा ए, संसार-सागर मझार तो। नाना विध दुख सहू ए, भमतां दुर्गति च्यार तो ॥११ मिथ्यात पाप तणो फल ए, बस थावर जोनि माहे तो। नित्य-इतर निगोदे रही ए, कष्ट बहुविध चाहि तो ॥१२ मूल मिथ्यात एक भेद ए, उत्तर पंच असार तो। उत्तरोत्तर अनेक मेद ए. असंख्य लोक प्रकार तो ॥१३ दर्शन मोह तणे उदये, जीवने होइ मिथ्यात तो। तत्त्व श्रद्धा ते न वि करे ए, रुचि नहीं तस बात तो ॥१४ जिम मतवालो जीवड़ो ए, ते न लहे हेयाहेय तो। दुर्धर ज्वर जिम ऊपने ए, न वि रुचि औषध पीय तो ॥१५ भाव मिथ्यात अनादि काल ए, द्रव्यरूप तणी आदि तो। पाखंडी मेद घणा ए, विरुद्ध करें वावाद तो ॥१६
१. प्रतिमा ।
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पदम-कृत श्रीवकांचार
एकान्त विपरीत संशयपणो ए, विनयमत अज्ञान तो । द्रव्य भाव सहूउ लखी ए, टालो विष समान तो ॥१७ असत्य वस्तु अहितकारी ए, स्थापना भाव एकान्त तो । द्रव्य रूप बौद्ध मत ए, करूं बोधकीति असंत तो ॥१८ श्री पार्श्वनाथ तीर्थं समे ए, पलास नयर-नदी तीर तो । पिहिताश्रव सूरी शिष्य ए, बुद्धि कीर्ति मुनि भीरु तो ॥ १९ कर्म व भामरि गयो ए, वेश्यातणें बली गेह तो । अजाणपणें चोरी करी ए, अखादि भक्ष कीयो तेह तो ॥ २० निज गुरु ते सांभल्यु ए, पछें कीयो तस निषेध तो । छेदोपस्थापना ल्यो वच्छ ए, न वि माने ते अवेदतो ॥ २१ चारित्र भ्रष्ट होइ बापड़ो ए. आदरयो वरथा तिणें रक्त तो । पात्र - पतित पवित्र कह्यो ए, खादि - अखादि असक्त तो ॥२२ तिलमात्र -मांस जु भक्षि ए, जीव-हिंसा- पापवंत तो ।
...॥२३
मद्य-बिन्दु जो जीव विस्तरी ए, सो माइ नहिं त्रिलोक्य मझार तो । कृत्य-अकृत्य ते न वि लहे ए, विह्वल करे जीव संघार तो ॥२४ मद्य मांस दोष ण भक्ष ए, न वि माने ते पाप तो ।
ए.
क्षणिक शून्य जीव कही ए, मोह मिथ्यात्वे व्यापतो ॥ २५ कर्मतर्णी कर्ता जुदू ए, तस फल भोग वे अन्य तो । क्षिण जादू आवे क्षिण जिम परिणामें मन्य तो ॥ २६ बुद्ध देव नाम कहु ए, तस प्रतिमा सविकार तो । ऊर्ध्वं कर जपमालिका ए, यज्ञोपवोत कंठ धारतो ॥ २७ ए आदेइ विकृत धणी ए, थापी मत एकान्त तो । घोर नरकें ते बापड़ा ए, दुर्धर दुःख सहंत तो ॥२८ सुगत मत जे आदरी ए, मिथ्या कदाग्रही जेह तो । काल अनन्त ते जीवडा ए, भवि भवि दुक्ख सहंत तो ॥२९ इम जाणि आसन्न भव्य ए, परिहरो मत एकांत तो । जिन वाणी हृदय घरो ए, स्याद्वाद जिनमत सत्य तो ॥३० विपरीत मिथ्यात तम्हें सुणो, जेह करे जीव अहित तो ।
ं ह ं जेजूजू तु ए, ते जाणों विपरीत तो ॥३१ वस्त्रापूत जल पीजिए, वली कहु वहि तिन ही दोष तो । कन्दमूल दूषण कहियिए, वली खाइ ते मोख तो ॥३२ रयणी नीर दोष कह्यो ए, वलो रयणी भोजन तो । रुधिर मांस समुं जल अन ए, ए मार्कंड-वचन तो ॥३३ एह वो दोष जे उचरि ए, वली करे निस आहार तो । माहरी माँ ने वांझणी ए, ए विपरीत अपार तो ॥३४
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श्रावकाचार-संग्रह
ब्रह्मचारी देवनें कही ए, अर श्री लक्ष्मी नार तो। राधासू क्रीड़ा करि ए, सोल सहस्र स्त्री भरतार तो ॥३५ जीव दया धर्म कहे ए. करे जीवनों घात तो। पुण्य कारण प्राणी हणे य, धर्म तणी कहे क्षात तो ॥३६ यागि अग्नि जीव होमो ए, नरक जवाजा बाग तो । मीढा महिष जे बावड़ा ए, पसुअ प्राण करे घात तो ॥३७ वेद माही दया कही ए, वेद मध्य हिंसा कर्म तो। जस कर्मे जीव हणिए, ए विपरीत कुधर्म तो ॥३८ शौच काजि स्नान करिए, नवि हणि मांहि चर्मपात्र तो। अशुचि अस्थि वली आदरीए, ते विपरीत कुशास्त्र तो॥३९ जीव हणी स्वर्ग वांछोए ए, तो नरकें किम होइ तो। पाप करे जो सुख होइए, तो पुण्य निष्फल जोइ तो ॥४० जलता जीव जु सुख होइ ए, तो क्यों न दीइ माय बाप तो। विपरीत भाष्या मोटा जीव ए, ते वाहे पर आप तो ॥४१ दीन जीव तृण-भक्षक ए, ते बोल्या बलि कर्म तो। बाघ सिंह क्यों न कह्या ए, ते दे बलि तो मर्म तो ॥४२ सहस्र अठ्यासी रिखि कह्या ए, जदू जुद् भाष्यो तेण तो। विपरीत मत ते जाणीए, ते वर्णव्यों जाइ केणि तो॥४३ श्रावस्ती नयरी पती ए, वसु नामि नरेन्द्र तो। क्षीर कदम्बा द्विज सूरी ए, तस पुत्र पर्वत भद्र तो ॥४४ निज पिताइ दीक्षा ग्रही ए, पर्वत रह्यो निज गेह तो। नारद सख्य-शिरोमणि ए, आसन्न भव्य जीव तेहू तो ॥४५ वेद पढ़ता पर्यंत कहू ए, अज सबदि छाग जाणि तो। अज त्रयो वरसतणा व्रीही ए, इम कहें नारद वाणि तो॥४६ माहो माहे विवाद करिए, माने नहि पर्वत मूढ तो। गुरु-भ्राता जे वस्तु करया ए, तेह वचन सत्य प्रौढ़ तो ॥४७ पर्वत-माता ए सांभल्युं ए, पुत्र-वाणी असत्य तो। पृच्छनपणे वसु वीनव्यो ए, वर-दान मांगि अनुमति तो ॥४८ मुझ पुत्र-वाणी थापज्यो ए, कृपा करी वसु भूपाल तो। मूढपणों तिण मांनीउ ए, निज घर आवी ते बाल तो ॥४९ राजसभा सह देखता ए, नारद पर्वत कहे वाणि तो। आपणे गुरू अर्थ कुण कह्यो, अज शब्द तणो जाणि तो ॥५० पर्वत दोल ते यापीए तु ए, भूप होय वसु मिथ्यात तो। फटिक सिंहासन कांपीओ ए, भूमिओ उ निपात तो॥५१ कूटी साख जब भूप कझो ए, तब हुओ हा-हाकार तो। धरा विकसी अधो गति गयो ए, सातमी नरक मझार तो ॥५२
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पदम-कृत श्रावकाचार
सुर-नर खग धिक्कार करी ए, कीयु पर्वत निःसार तो। नारद वाणी सत्य सही ए, जिन-शासन जयकार तो ॥५३ पर्वत वन जाय चितवि ए, मुझ वचन कयुं विस्तार तो। कर्मयोगे कालासुर साहाज ए, मधुपिंगल जीव गमार तो ॥५३ यजुर्वेद याग रच्यो ए. जीवतणा बहुघात तो। याजक जन स्वर्ग लहे ए, एहवी कहे खोटी बात तो ॥५४ भोला लोक भ्रमें पड्या ए, न लहि धर्म-विचार तो। पर्वत मरि नरके गया ए, दुक्ख सहे पंच प्रकार तो ॥५५ ए मिथ्यात जिणे कर्यो ए, करै छ करसी जेह हो । तेहनां दक्ख नो पार नहिं ए.ये घणं सं वर्णवं तेह तो ॥५६ मुनिसुव्रत तीर्थ समिए ए, उपज्यो मिथ्यात्व विपरीत तो। पंचम काल घणुं विस्तर्यो ए, दुर्द्धर दीसे कलि रीत तो ।।५७ जे जिन शासन थी जुओ ए, तेह मिथ्यात नुं जाण तो। संक्षेपे कवि कथा हुँ कह्य ए, विस्तार महापुराण तो ॥५८ विनय मिथ्यात्व मरीचि यथा ए, भरत चक्री तणुं पुत्र तो। दर्शन रूप पाखंड घणा ए, कर्म वशि विचित्र तो ॥५९ एक दंड त्रिदंड धरिए, शिखा शिर एक मुंड तो। नग्न वेष जटा धरिए ए, काने मुद्रा करि-दंड तो ॥६० चरम कंबल कोपीन धारिए, शींगी वाइ गीत ग्यान तो। शंख बजावे भस्म लगाइ ए, पवनपुरे चलि रीत तो ॥६१ विनय करी, गुणि निर्गुणी ए, दंडरूपे नमस्कार तो। बाल वृद्ध सहु ने नमें ए, न वि लहे तत्त्व विचार तो ॥६२ कंदमूल वारिए ए, अणगल जल करि स्नान तो। अपेय अभक्ष ते आदरे ए, न वि जाणे विज्ञान तो ॥६३ शिला धरि कभो रह्यो ए, अधो शिर ऊँचा चरण तो। पंचाग्नि साधे तप ए, कष्ट करे वली मरण तो॥६४ नैयायिक सांख्य मत ए, चारवाक मत कीध तो। सोल पंचवीस तत्त्व कह्यो ए, निज निज कल्पे बुद्धि तो।।:५ आत्म स्वरूप ते न वि लहे ए, एक कडु चन्द्र आकाश तो। जल कुम्भ-प्रतिबिम्ब जिम ए, जू जूआ शरीर निवास तो ॥६६ आदोश्वर आदि करीए, आज लगे उतपन्न तो।। हित-अहित ते न वि लहे ए, न वि लहे कृत्य-अकृत्य तो ॥६७ कुदर्शन कुज्ञान तप ए, कुत्सित ते आचार तो। तिसहु कर्म विडम्बणा ए, विनय मिथ्यात विकार तो ।।६८ जिनवाणी हृदय धरो ए, जुओ तत्त्व विचार तो। विनय मिथ्यात सहु परिहरो ए, अनुसरो जिनधर्म सार तो ॥६७
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श्रावकाचार संग्रह
संशय मिथ्यात्व हवे सुणो ए, भावरूपें सदा होय तो । द्रव्यरूपे किहां उपन्नों ए तेह विचार नु जोय तो ॥७० विक्रम राय चम्प्यां पुरे ए, वरस एक सौ छत्रीस तो । सोरठ देश मां कही ए, विलहण नय निवेस तो ॥७१ पंचम श्रुत केवली हुआ ए, श्री भद्रबाहु गणेन्द्र तो । तत्रासीस शांति सूरी ए, तेह शिष्य जिनचन्द्र तो ॥७२ दुर्भिक्ष दोष ते विभचरा ए, शिथिल थया आचार तो । निजगुरें संबोधीया ए, मानें नहीं गमार तो ॥७३ आपण बुद्धि कल्पना करी ए. श्वेतपट परि थाप तो । कंधे कंबल लाठी करी ए, राखे छिद्र लांबा कान तो ॥७४ पात्र परिग्रह ते ग्रही ए, भिक्षा याचे गेह गेह तो । स्वेच्छापणें भक्षण करी ए, प्रत्याख्यान नहि तेह तो ॥७५ निर्दोष देव दूषण कहे ए, उपजावे संदेह तो ।
बाह्य आभूषण थापना ए, सविकार प्रतिमा देह तो ॥७६ श्री वीरनें दूषण दीइए, ब्राह्मणी उरे अवतार तो । पछें इन्द्र विस्मापिओ ए, गरभ कोयो परिहार तो ॥७७ त्रिशला राणो कूखें वो ए, पछे हृवो गर्भ वृद्धि तो । बाले मेरू कंपावीयो ए, एह वी थापी खोटी बुद्धि तो ॥७८ वीर पाणिग्रहण कहिए, पुत्री तणी उतपत्ति तो ।
वैराग उपजे घर रह्या ए, वरस लगे सनमंत तो ॥७९ दीक्षा लेई ध्यानें रह्या ए, उपसर्ग गोवाल तो । करणां खीला कांनें ठव्या ए, पग पय पाक विशाल तो ॥८०
ध्यान थका कायर हुआ ए, दीन पणें करी बुंबतो । वीर वेदना उपजी घणी ए, एह् वा बोल ज बोल तो ॥८१ केवल ज्ञान उपज्यां पुठे ए, घर घर जावे आहार तो । क्षुधा तृषा राग रोग कह यु ए, रोग कह्यो वली सार तो ॥८२ वीर विगो घणु कह्यो ए, तेसुं कही ए बात तो । कुक्कुट पाक औषध देई ए कीधी रोगनों घात तो ॥८३ संशयमत मां इम कह्यो ए. केवलीनें आहार-निहार तो । प्रासु अन्न जिहा मल्यो ए, ते लीज अविचार तो ॥८४ चउदै उपग्रहण ते ग्रही ए. अवर लिंग जाइ मोक्ष तो । स्त्री सातमी नरकें जाई ए, स्त्रीय लहे शिव - सौख्य तो ॥८५ घोटक गणधर नें कहे ए, मलिन जिन स्त्रीलिंग तो । ग्रही नें मुकतें कही ए, इह वां बोले बहुं विंग तो ॥८६ अस्थि चरम वली आदरथा ए, न वि मानें लौकिक छोत तो । पुष्पवती नारी दोष ए, कहे नहि सूतक प्रसूति तो ॥८७
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पदम-कृत श्रावकाचार
छणं अथाणा आदरि ए, रसाईया जीव तणु भक्ष तो। अंतराय पाले नहिं ए, अन्न वासी लेई रक्ष तो ॥८८ ए आदि बहु दूषण ए, आगम तत्त्व विरुद्ध तो । थापना करि अछेरा कही ए, संशय ज्ञान अमुद्ध तो ॥८९ प्रथम चौरासी गच्छ कही या ए, बहु हुआ अधिकने टोल तो। आप आपणी बुद्धि कल्पिए ए, जुजूआ माने बोल तो ॥९० कृहित दृष्टान्त देई करी ए, थापे संशय कुमत्त तो। मूढजीव माने घणा ए, न वि लहे सत्य-असत्य तो ॥९१ इणी परि श्वेतपट मत करी ए, जिनचन्द्र पामी मरण तो। प्रथम नरकि ते ऊपज्यो ए, दुःख सहे नहिं कोई सरण तो ॥९२ माया मार्ने मूढनी ए देई ए,धूर्त बाहि पर आप तो। ते पापी संसार मां ए, वि भवि सहे संताप तो ॥९३ पारसनाथ तणो गणधर ए, तेह तणो शिष्य अज्ञान तो। मशक पूरणं नामे मुनी ए, वश थई मिथ्या मान तो ।।९४ श्री वर्धमान तीर्थ समै ए. अवगणना पामी दष्ट तो। जिनशासन गुण परिहरी ए, हुओ आचारतें भ्रष्ट तो ॥९० पश्चिम दिश जइने रह्यो ए, खोटा शास्त्र तेणे क्षुद्र तो। अज्ञानी लोक वश कीया ए, बोली जिनशासन छाइ तो ॥९६ अज्ञान पणे मुक्ति कह्यो ए, मुक्ति जीव नहि ज्ञान तो। गमनागमन नहि वली ए, अवर कहे बह भ्रांति तो॥९७ हजह जीरा थापीया ए, माने शून्य आकार तो। हिंसा कर्म ते बहु करि ए, पसुतणां संधार तो ॥९८ जे जे जिनतत्त्व हुता ए, ते माने विपरीत तो। अणाचार अति आदरयो ए, अवली देखा डेरीत तो ॥९९ जिन शासन सूरोस करि ए, सूरज देखी जिम घूक तो। चैत्यालय भंजन करे ए, रंजक अग्यानी लोक तो ॥१०० अग्यान मिथ्यात नरक हुआ ए, जाणें नहीं कृत्य अकृत्य तो। निगोद माहे ते दुख सहे ए, पापी पामी ते मृत्यु तो ॥१०१ जे अज्ञान पणु आचरि ए, तेहनों होइ बहु पाप तो। जनमि जनमि ते जे जीवडा ए, सहि संसार संताप तो ॥१०२
दोहा मूल मिथ्यात्व ते एक कह्यो, उत्तर भेद ते पांच । अवर असंख्य लोक भेद, किम कही जाय ते वाच ॥१०३ मिथ्यात्व घणु स्यूं वर्णवु, माहे दीसे नहीं कांई सार। धूल कपर जिम लीपणों, जाता न लागे वार ॥१०४
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श्रावकाचार-संग्रह
पंच मिथ्यात्व सदा सहि, भावरूपें बहु होइ । ते हुण्डावसर्पिणी मांहे, द्रव्य रूपइ लिंग जोइ ॥ १०५ षट्दर्शन छन्नु पाखण्ड, जैनाभास वली पंच । संशय विभ्रम उपजावीनें, मूढ़ करें परपंच ॥१०६ शुद्ध दर्शन श्री जिनतणों, द्रव्य भावें अनादि । अवर डम्भक दीसे घणां, ते सघला उपाधि ॥१०७ जिन शासन थी बाहिरा भिन्न भिन्न दीसे जेह ।
पंचम काले पाखण्ड घणां, मिथ्या जाणो सहुं तेह ॥ १०८ मिथ्यात्व समो शत्रु नहीं, नारक गति दातार ।
अनन्तकाल दुखदायक, भमे भवोदधि मंझार ॥१०९
मिथ्याती संगथी भलो, वाघ सिंघ विसवास । जल अग्नि भृगुपात भलो, मिथ्यातें दुखरास ॥११०
मिथ्यात्व समो कोइ पाप नहीं, भारे वज्रसमान । आगे हुउ होसे नहीं, लोकमांहे नहिं वर्तमान ॥ १११ इम जाणि निश्चै करी, जो जिन तत्त्व विचार ।
जीव-हित होइ ते आचरो, घणु स्युं कहुं बार-बार ॥११२
ढाल मालंतडानी
सम्यक्त्व मेद हवे कहु ए, सुणे सुन्दरे, संक्षेपे विचार । मालंतडारे संक्षेपे सविचार | गुरु उपदेशे पामीउ ए, सुणे सुन्दरे, श्रावक धूरि अधिकार । मा० ॥ १ मूल भेद एक ककयो ए, सुणे सुन्दरे, अथवा द्विविध जाण । मा
त्रिहु भेदे जे निरमलो ए, सुणे सुन्दरे, इम कही जिन वाण | मा० ॥२ समकित विना ए आतमा ए, सुणे सुन्दरे, लक्ष चौरासी जोनि माँहि । मा० द्रव्य क्षेत्र काल भाव ए, सुणे सुन्दरे, पंचविध दुखते चाहि । मा० ॥ ३ आसन्न भव्य पंचेन्द्री पणु ं ए, सुणे सुन्दरे, गर्भ संज्ञी जेह । मा० चतुर्गतिक पर्यायनो ए, सुणे सुन्दरें, कठिण कर्म तणी छेह | मा० ॥४ पंच सामग्री दुर्लभ ए, सुणे सुन्दरे, भव-सायर जे नाव | मा० अनन्त भव दुख छेदक ए, सुणे सुन्दरे, भेदक कर्म कुग्राव । मा० ॥ ५ क्षय उपशम पहिली लब्धि ए, सुणे सुन्दरे, मन विशुद्धि बीजी होय । मा० देशन, प्रायोग्यता लब्धि ए, सुणे सुन्दरे, करण लब्धि पंचम जोय । मा० ॥६ च्यारि बधि सह जीव लहि ए, सुणे सुन्दरे, करण लब्धि भव्य जाणि । मा० अधः करण अपूरव करण ए, सुण सुन्दरे, अनिवृत्ति करण मनि आणि । मा० ॥७ काल लब्धि आवा जब ए, सुणे सुन्दरें, तब ते करे त्रण करण । मा० समकित रत्न सुधू ग्रहि ए, सुणे सुन्दरे, संसार मांहि जे सरण । मा० ॥८ तत्त्वतणी रुचि जब करिए, सुणे सुन्दरे, तब ते लहे समकित । मा० तत्त्व-भेद वे कहुए, सुणे सुन्दरे, जिण होइ निज-पर-हित | मा० ॥९ जीव अजीव आस्रव बंध ए, सुणे सुन्दरे, सँवर निर्जरा मोक्ष । मा० चेतन अचेतन भेद ए, सुणे सुन्दरे, सप्त तत्त्व कहि दक्ष | मा० ॥१० पुण्य पाप दुहु मलीए, सुणे सुन्दरे, नव ए पदारथ जाण । मा० द्रव्य उत्पत्ति व्ययात्मक ए, सुणे सुदरे, द्रव्य गुण पर्याय बखाण । मा० ॥ ११
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पदम-कृत श्रावकाचार जीव तत्त्व हवे सणो ए, सुणे सुन्दरे, चेतना लक्षण जीव । मा. जीव्यो जीवसे जोवसी ए, सुणे सुन्दरे, सदाकाल ते शिव । मा० ॥१२ सुख सत्ता चैतन्य ए, सुणे सुन्दरे, निश्चयरूपं प्राण चार मा. आउ इन्द्री बल उस्वास सुणे सुन्दरे, ए प्राण विवहार । मा० ॥१३ संसारी मुक्त भेद विन्यू ए. सुणे सुन्दरे, मुक्त ए कर्म-रहित । मा० संसारी जीव बहु विध ए, सुणे सुन्दरे, कर्म आठ सहित । मा० ॥१४ संसारी तणा वे भेद ए, सुणे सुन्दरे, थावर तरस बखाणि । मा० थावर नाम उदयहूं वसिए, सुणे सुन्दरे, पण एकेन्द्री जाणि । मा० ॥१५ त्रस नाम कर्म उदय ए. सुणे सुन्दरे, वे इन्द्री ते इन्द्री चौइन्द्री जात । मा० नामकर्म विपाक ए, सुणे सुन्दरे, असंज्ञी संज्ञी पंचेन्द्री विख्यात । मा० ॥१६ पर्याप्त अपर्याप्त प्रकार ए, सुणे सुन्दरे, भेद जाणों सात-सात । मा० चौद समास जीवतणा ए, सणे सुन्दरे, कर्म करे भाँति भाँत । मा० ॥१७ गुण पाय सहित द्रव्य ए, सुणे सुन्दरे, गुण सुख दर्शन ज्ञान । मा० चहुँ गति काय पर्याय ए, सुणे सुन्दरे, कर्म तणो संतान । मा० ॥१८ कनक द्रव्य सदा सोही ए, सुणे सुन्दरे, पीत वरण सत गुण । मा० हेम परोर्या मुद्रिकादिक ए, सुणे सुन्दरे, तेम जीव द्रव्य निपुण । मा० ॥१९ द्रव्य रूपे सदा सास्वतो ए, सुणे सुन्दरे, पर्यायरूपे अनित्य । मा० पूर्व पर्याय विणसी सही ए, सुणे सुन्दरे, नूतन तणी उत्पत्ति । मा० ॥२० गति चार, इन्द्री पाँच ए, सुणे सुन्दरे, छ काय, पन्नर योग । मा० वेद त्रण पंचवीस कषाय ए, सुणे सुन्दरे, अष्टं ज्ञान जीव भोग। मा० ॥२१ संयम सात, दर्शन चार ए, सुणे सुन्दरे, षट्लेश्या भव्य अभव्य । मा० वे संज्ञी असंज्ञी ए, सुणे सुन्दरे, आहारक अनाहारक दिव्य । मा० ॥२२ चोदे गुणस्थाने जीव जोइ ए, सुणे सुन्दरे, अट्टाणु जीव समास । मा० पर्याप्ति छ, प्राण दस, संज्ञा चार ए, सुणि सुन्दरे, उपयोगते द्वादश । मा० ॥२३ ध्यान सोल, प्रत्यय सत्तावन ए, सुणे सुन्दरे, चौरासी लक्ष जीव जाति । मा० एक सौ साढी नवाणु लाख ए, सुणे सुन्दरे, कुलकोडि जीव विख्यात । मा० ॥२४ चौवीस स्थाने जीव लखो ए, सुणे सुन्दरे, जो इए ते तत्त्व विचार । मा० जीवतत्त्व संक्षपे कह्यो ए, सणे सुन्दरे, आगम जाणों विस्तार । मा० ॥२५ अजीव तत्त्व भेद पंच ए, सुणे सुन्दरे, धर्म अधर्म आकाश । मा० काल ए पुद्गल जांणीइ ए, सुणे सुन्दरे, द्रव्य गुण पर्याय वास । मा० ॥२६ अमूरत धरम गमन गुण ए, सुणे सुन्दरे, असंख्य प्रदेश पर्याय । मा० पुद्गल जीव ने लोक मांहे ए, सुणे सुन्दरे, मच्छ ने जिम जल सहाय । मा० ॥२७ ठहरतां पुद्गल जीव ने ए, सुणे सुन्दरे, सहाय अमूर्त अधर्म । मा० असंख्य प्रदेश लोक मात्र ए, सुणे सुन्दरे पंथी ने जिम छाया धर्म। मा० ॥२८ द्रव्य सहुँ जिहाँ अवकाश गुण ए, सुणे सुन्दरे, तेतहुँ लोकाकाश । मा० तेथी अवर अलोक नभ ए, सुणे सुन्दर, अनन्त प्रदेश प्रकाश । मा० ॥२९
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श्रावकाचार-संग्रह काल प्रदेश एक ए. सुणे सुन्दरे, नव-जीर्ण-कारी गुण । मा० जुजुआ अणुत्तर रासि जिम ए. सुणे सुन्दरे, रहि लोक माँहि निपुण । मा० ॥३० पुद्गल भेद छ हुइ ए, सुणे सुन्दरे, मूर्त रूपी गुणवंत । मा० स्परस, रस गंध वर्ण वीस ए, सुणे सुन्दरे, संख असंख अनंत । मा० ॥३१ सूक्ष्म सूक्ष्म परमाणु ए, सुणे सुन्दरे, पुद्गल तणां पर जाय । मा० 'स्कन्ध देश प्रदेश अणु ए, सुणे सुन्दरे, लोक मांहे अवि जाय । मा० ॥३२ आस्रव तत्त्व हवे सांभलो, सुणे सुन्दरे, भावि द्रव्य ते होइ । मा० मन परमाणे भावास्रव ए, सुणे सुन्दरे, कर्म अणु द्रव्ये जोई। मा० ॥३३ मूल आस्रव पंच भेद ए, सुणे सुन्दरे मिथ्यात अविरत कषाय । मा० योग प्रसाद भेदे कही ए, सुणे सुन्दरे, अबर अनेक ते थाय । मा० ॥३४ मिथ्यात पंच पेहले कह्यो ए, सुणे सुन्दरे, अविरत तणां वार भेद । मा० पंच इन्द्री मन मोकला ए, सुणे सुन्दरे, छ काय जीव कर छेद । मा० ॥३५ अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान ए, सुणे सुन्दरे, संज्वलन कसाय असार । मा० क्रोध मान माया लोभ ए, सणे सुन्दरे, चौकड़ी मेद च्यार च्यार । मा० ॥३६ हास रति अरति सोक ए, सुणे सुन्दरे, भय जुगुप्सा स्त्री वेद । मा० पुरुष नपुंसक नो कषाय नव ए, सुणे सुन्दरे, कषाय ते पंचवीस भेद । मा० ॥३७ सत्य असत्य उभय अनुभय ए, सुणे सुन्दरे, मन वचन च्यार च्यार। औदारिक औदारिकमिश्र काय ए, सुणे सुन्दरे, आहारकमिश्र ते आहार । मा० ॥३८ वैक्रियिककाय वैक्रियिकमिश्र ए, सुणे सुन्दरे, कार्मण कर्म तणो भोग । मा० आठ सात भेदे करी ए, सुणे सुन्दरे, इणि पूरे पन्नर योग । मा० ॥३९ विकथा कथा च्यार भेद ए, सुणे सुन्दरे, पंच इन्द्री निद्रा स्नेह । मा० पन्नर प्रमाद इणि परि ए, सुणे सुन्दरे, आस्रव तणां कारण एह । मा० ॥४० बहुत्तरि आस्रवई इमउं लखो ए, सुणे सुन्दरे, अवर जाणो असंख्यात । मा० घड नाले जिम नीर आव ए, सुणे सुन्दरे, तिम आवे कर्म संघात । मा० ।।४१ कर्मास्रव ए आत्मा ए, सुणे सुन्दरे, चहूंगति भ्रमें अपार । मा० नानाविध कष्ट ते सहे ए, सुणे सुन्दरे, भव-सागर मझार । मा० ॥४२ बन्ध तत्त्व चतुर्विध ए, सुणे सुन्दरे, प्रकृति स्थिति अनुभाग । मा० प्रदेश भेद कर्मबन्ध ए, सुणे सुन्दरे, जेहवो होइ रोस राग। मा० ॥४३ मूल प्रकृति अष्टविध ए, सुणे सुन्दरे, उत्तर एक सौ अड़ताल । मा० अवर असंख्य लोकमात्र ए, सुणे सुन्दरे, प्रकृति बन्ध विशाल । मा० ॥४४ ज्ञानावरणी पंचविध ए, सुणे सुन्दरे, दरसणावरणी नव होय । मा० द्विविध वेदनी मोहनो अट्ठावीस ए, सुणे सुन्दरे, आयुकर्म चतुर्विध जोय । मा० ॥४५ नामकर्म वाणुं भेद ए, सुणे सुन्दरे, गोत्र तणा भेद दोय । मा० अन्तरायकर्म पंचविध ए, सुणे सुन्दरे, एक सौ अड़तालीस इम होय । मा० ॥४६
१. यहां सूक्ष्म सूक्ष्म-स्थूल आदिका वर्णन छूट गया है।
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पदम-कत प्रावकाचार आवरण विधन वेदनी स्थिति ए, सुणे सुन्दरे, सागर कोडाकोडि तेत्रीस । मा० सत्तरि मोहनी वीस नाम गोत्र ए, सुणे सुन्दरे, आयु सागर तेत्रीस ॥४७ अनुभाग उदयरसरूप ए, सुन्दरे, सुख देई प्रकृति प्रशस्त । मा० गुड खांड साकर अमृत समए, सुणे सुन्दरे, फल सुख देई समस्त । मा० ॥४८ अप्रशस्त विपाक वसि ए, सुणे सुन्दरे, जीव लहे असुक्ख । मा० नींव कांजीर, विष हालाहल ए, सुणे सुन्दरे, अशुभकर्मे बहुदुक्ख । मा० ॥४९ असंखप्रदेशी आतमा ए. सणे सन्दरे प्रदेश प्रति कर्म अनन्त । मा परस्पर मिलि रहिए, सुणे सुन्दरे, प्रदेशबन्ध दुरन्त । मा० ॥५० बँधनें बन्ध्यो जिम चोर ए. सूर्ण सुन्दरे, परवसि पामे कष्ट । मा० तिम ए जीव कर्मबन्धी ए, सुणे सुन्दरे, दुःख देखे निकृष्ट । मा० ॥५१ प्रकृति प्रदेश बन्ध विधि ए, सुणे सुन्दरे, योग विशेषी होय । मा० स्थिति अनुभाग कषाय बसें ए, सुणे सुन्दरे, इण परिबन्धनुं जोय । मा० ॥५२ कर्मास्रव जे रुधिइ ए, सुणे सुन्दरे, ते संवर बखाणि । मा० घडनाला जिम रुंधीइ ए, सुणे सुन्दरे, आवे नहीं नव पाणि । मा० ॥५३ नाव छिद्र जिम रुंधीइ ए, सुणे सुन्दरे, आवे न नीर लगार । मा० मण वय काया तिम रुंधीइ ए, सुणे सुन्दरे, न वि होइ कर्म पसार । मा० ॥५४ सूको तुंबू जिम जल तिरे ए, सुणे सुन्दरे, ज्यों नहीं गर्वनो भार । मा० तिम कर्मसहु सोखीइ ए, सुणे सुन्दरे, जीव तिरे संसार । मा० ॥५५ सविपाक अविपाक निर्जरा ए, सुणे सुन्दरे, सहजि सविपाक जोइ । मा० संसारी सहुं प्राणी ते ए, सुणे सुन्दरे, कर्म जाइ बली होइ । मा० ॥५६ यती व्रती ध्यान बली ए, सुणे सुन्दरे, जे करे कर्मनी हाणि । मा० तीव्र तप जे कर्म गलिए, सुणे सुन्दरे, ते अविपाक मन आणि । मा० ॥५७ जिम जिम जीव कर्म निर्जरि ए, सुणे सुन्दरे, तिम तिम ऊर्ध्व स्वभाव । मा० भार विना जिम नीरमाहे ए, सुणे सुन्दरे, ऊंची दीसे नाव । मा० ॥५८ कर्मरुधि संवर हुई ए, सुणे सुन्दरे, कर्मक्षये निर्जरा जोय । मा० संवर निर्जरा मोक्ष हेत ए, सुणे सुन्दरे, काललब्धि भव्ये होय । मा० ॥५९ सर्व कर्मक्षय जे हेतु ए, सुणे सुन्दरे, परिणाम भावे मोक्ष । मा० जीवथी पृथक् कर्म जे कीजिए, सुणे सुन्दरे, ते द्रव्ये सिद्धि सोक्ख । मा० ॥६० शुक्लध्यान अब ध्यायता ए, सुणे सुन्दरे, जे होइ कर्मविनाश । मा० केवलज्ञान तब ऊपजे ए, सुणे सुन्दरे, लोकालोक प्रकाश । मा० ॥६१ अंगघात सह परिहरी ए, सुणे सुन्दरे, जे पामे शाश्वत ठांम | मा० क्षायिक पंच परम भाव ए, सुणे सुन्दरे, ते मोक्ष कहीए उद्दाम । मा० ॥६२ इन्द्र आदि जे भोगवे ए, सुणे सुन्दरे, हुव होइ छे हसे जेह । मा० तेहना सुक्ख थी अनन्तगुणुं ए, सुणे सुन्दरे, एकसमय लहे ते सिद्धगेह । मा०॥६३ तत्त्व सात इमउ लखो ए, सुणे सुन्दरे, निज द्रव्य गुण पर जाय । मा० जिन वाणीमें जिम कह्यो ए, सुणे सुन्दरे, ते तिम निश्चल ध्याय । मा०॥६४
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१४
श्रावकाचार-संग्रह पुण्य पदारथ किम कहुँ ए, सुणे सुन्दरे, समकित ज्ञान व्रत सार । मा० दान पूजा तप जप कीजिए ए, सुणे सुन्दरे, श्रावक जतिय आचार । मा० ॥६५ सम दम यम नियम पालिए ए, सुणे सुन्दरे, मन वच काया निरुद्ध । मा० पापाचार सब संवरीए ए, सुणे सन्दरे, कीजे क्रिया विशुद्ध । मा० ॥६६ सदाचार पुण्य ऊपजे ए, सुणे सुन्दरे, सुख लहे पुण्य पसाय । मा० सुर नर खग फणपतितणा ए, सुणे सुन्दरे, मनवांछित फल थाय । मा०॥६७ पाप पदारथ हवे कहुं ए, सुणे सुन्दरे, पंच पातक राग रोष । मा० शल्य गारव त्रण दंड.ए, सुणे सुन्दरे, संज्ञा विसनथो दोष । मा० ॥६८ पंच मिथ्यात अविरति वार ए, सुणे सुन्दरे, विकथा कषाय पंचवीस । मा० पन्नर प्रमाद योग कुक्रिया ए, सुणे सुन्दरे, सेवि विषय अठावीस । मा० ॥६९ पाप विपाके प्राणी या ए, सुणे सुन्दरे, परवसि पामे दुक्ख । मा० नरक पशू कुनर तणा ए. सुणे सुन्दरे, बहुविध देइ असुक्ख । मा० ॥७० पुण्य पाप इमउ लखी ए, सुणे सुन्दरे, सप्त तत्त्व सहित । मा० नव पदारथ इणि परि ए, सुणे सुन्दरे, जाणे होइ जीव-हित । मा० ॥७१ षद्रव्य पंचास्तिकाया ए, सुणे सुन्दरे, पदारथ नव परकार । मा० संक्षेपे बखाणिया ए, सुणे सुन्दरे, आगम जाणो सार । मा०॥७२ तत्व पदारथ द्रव्य तणी ए, सुन्दरे, श्रद्धाइ होइ समकित्त । मा० जे जे जिनवर जेम कह्मो ए, सुणे सुन्दरे, ते तिम आणे चित्त । मा० ॥७३ श्रद्धा रुचि प्रतीति सुंए, सुणे सुन्दरे, निश्चय भावें भेद चार । मा० सत्यतणे तत्त्व निश्चय ए, सुणे सुन्दरे, श्रद्धा रुचि भवतार । मा० ॥७४ श्रद्धा समकित जाणीइ ए, सुणे सुन्दरे, श्रद्धा थी शुभ ज्ञान । मा० श्रद्धा थी शुभ चारित्र ए, सुणे सुन्दरे, श्रद्धा सर्व प्रधान । मा० ॥७५ श्रद्धाइ पुण्य, पुण्य पूजा तणू ए, सुणे सुन्दरे, श्रद्धाइ पुण्यदान । मा० तप जप संजम श्रद्धा पणे ए, सुणे सुन्दरे, श्रद्धा गुण-निधान । मा०॥७६ तत्व श्रद्धा शुभ भावना ए, सुणे सुन्दरे, श्रद्धा भावे निज ध्यान । मा० श्रद्धा कर्म-क्षय-कारण ए, सुणे सुन्दरे, इम कहे जिन भान । मा०॥७७ श्रद्धा विना समकित नहीं ए, सुणे सुन्दरे, श्रद्धा विना नहिं तप दान । मा० केवल काय कष्टकारी ए, सुणे सुन्दरे, होय नहिं मोक्ष निदान । मा० ॥७८ इम जाणी हृदै आपणो ए. सुणे सुन्दरे, श्रद्धा करो जिन तत्त्व । मा० संशय विमोह विभ्रम टालीयए, सुणे सुन्दरे, निःशल्य भावि भवितत्त्व । मा० ॥७९ जिण-जिणे तत्त्व सरदह्यां ए, सुणे सुन्दरे, तिण तेणें लयां बहु सोक्ख । मा० सुर नर वर पदवी लही ए, सुणे सुन्दरे, अनुक्रमें पाम्यां मोक्ख । मा० ॥८० तत्त्व अर्थ शुभ सद्दहणा ए, सुणे सुन्दरे, सम्यक्दर्शन एह । मा० संक्षेपे एक भेद कह्यो ए, सुणे सुन्दरे, अवर बे कहु तेह । मा० ॥८१ निसर्ग पहेलो भेद ए, सुणे सुन्दरे, दूजो अधिगम जोय । मा० सहजि भवि रुचि उपजिए, सुणे सुन्दरे, उपदेश विना ते होय । मा० ॥८२
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पदम-कृत श्रावकाचार
कर्मतणें उपराम होइए, सुणे सुन्दरे, अथवा क्षय उपशम । मा० कर्मक्षय की उपजे ए, सुणे सुन्दरे, निसर्ग दृष्टि उत्तम । मा० | १८३ गुरु उपदेशें पामीय ए, सुणे सुन्दरे, करतां तत्त्व अभ्यास । भणतां सुणतां अधिगम ए, सुणे सुन्दरे, उपजे चित्त उलास | मा० ॥८४ जिन प्रतिमा प्रासाद देखीय ए, सुणे सुन्दरे, पेखी महिमा सासन्न । मा० पूजा प्रतिष्ठा जात्रा आदि ए, सुणे सुन्दरे, ऋद्धि वृद्धि यति जन्न । मा० ॥८५ देवा अतिशय देखि करी ए, सुण सुदन्रे, तीव्र तप दान ज्ञान । मा० तत्त्व जाणी अधिगम होइ ए, सुणे सुन्दरे, करतां गुण-आख्यान । मा० ॥८६ श्रद्धा समकित सेवी ए, सुणे सुन्दरे, निसर्ग दृष्टि अधिगम | मा० निर्मल मूल गुण कारण ए, सुणे सुन्दरे, शुद्ध भावे ते उत्तम | मा० ॥८७
वस्तु छन्द
शुद्ध भाव करो, शुद्धभाव करो, भविजण इणि परे । श्रावक जती धर्मकारण, तारण संसार सागर निर्भर । स्वर्ग मोक्ष फल दायक, नायक समकित सार मनोहर ॥
अनुदिन जे जन अनुसरे, घरे जे समकित रत्न । जिन सेवक पदमो कहे, तेह तणों करो जत्न ॥१
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अथ भास जसोधरनी
भाव घरी भव्य सांभलो ए, सुभ समकितभेद । उपशम वेदक क्षायिक, जेम कह्यो जिनदेव ॥२ समकित रत्न गुणघातक, प्रकृति जाणों सात । मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्व प्रभृति, दर्शनमोहतणी ख्यात ।। ३ अनादि काल अनन्तानुबन्धी, क्रोध मान माया लोभ । शिला अस्थि वंश तणो मूल, लाख रंग सम लोभ ॥ ४ मिथ्यात्व उदयें मिथ्यात्व हुइ, पाले नहीं जिनधर्म । मिथ्यात देव गुरु शास्त्र तणी, सेवा नीच कर्म ॥५
मिश्र प्रकृति त विपाके, मिश्र होइ परिणाम । देव अदेव गुरु कुगुरु, सारिखा परिणाम ॥६ देवता लक्षण सुणो, देव जाणों अरिहन्त । इन्द्रादिक पूजा करे, कर्म अरि करे अन्त ॥७ चोत्रीस अतिशय निर्मला, अष्ट प्रतिहार्यवन्त । अनन्तचतुष्टय ऊजला, छियालीस गुणसन्त ॥८ समोसरण लक्ष्मी भली, सेवा करे शत इन्द्र । धर्मापदेश देइ सदा, इह वा ध्याओ जिनेन्द्र ॥९ देवदूषण थी वेगला, सुणो दोष अठार । क्षुधा तृषा नहीं जेहं नइ, नहीं भय रोग लगार ||१० राग मोह चिन्ता नहि, जरा मृत्यु नहीं जन्म । खेद स्वेद मद रति नहीं, नहीं निद्रा रोगकर्म ॥११ विस्मय विखवाद जेहने नहीं, एह दोष अठार । अवर अवगुण पण कोय नहीं, ते देव भवतार ॥१२ एह वा जिनदेव सेवी ए, पूजीए जिनचरण । मुक्तिनारीवर निर्मला, भव-तारण तरण ॥१३ गुरुआ गुरु सेवो गुणवन्त, गुरु जाणो निर्ग्रन्थ । धर्मोपदेश दीये ऊजलो, देखाडे मोक्ष पन्थ ||१४ अभ्यन्तर बाह्यतणा नहीं, परिग्रह चौबीस । नग्न मुद्रा धरे निरमली, दिगम्बर जति ईश ||१५ चारु चारित्र धरे तेरस भेद, अट्ठावीस मूलगुण । दशलक्षणधर्म-धारक, तप बारस निपुण ॥१६ सम दम सूधो आचरइ, जीती इन्द्री मदमार । क्रोध मान माया लोभ नहीं, नहीं राग द्वेष विकार ॥ १७ भव-सागर जे तरे तारे, जेम अच्छिद्रनाव । सेवो गुरु गुण उत्तम, हृदय आणी शुभ भाव ||१८
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श्रावकाचार-संग्रह
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सत्य शास्त्र ते जाणी ए, जेह मां होइ दयाधर्मं । सत्य अचौर्यशील गुण, जिहां सदा शौचकर्म ॥१९ चार अनुयोग जहां निरूपिया, प्रथमानुयोग पवित्र । त्रेसठशलाका नरतणां, वास कीधा चरित्र ॥ २० त्रैलोक्यतणुं जिहां वर्णन, ते करणानुयोग । श्रावक यतिव्रत्त व्याख्यान, जाणो ते चरणानुयोग ||२१ षद्रव्य पंचास्तिकाय, तत्त्व अर्थ प्रकार द्रव्यानुयोग ते निर्मलो, श्री जिनवाणी उद्धार ॥२२ देवगुरु शास्त्र नव भेद, जोइडं सत्य सुजाण । पूर्वापहि जे विरुद्ध नहीं, तेहहिं शास्त्र प्रमाण ||२३ कुदेवतणुं लक्षण सुणुं, दीसे देह सिणगार । वस्त्र नारी करी लंकर्या, हाथे छे हथियार ॥२४ गदा शंख धरि चक्रपाणि हाथे छँ जपमाल । गरुडगामी मोर पोछ भार, भामा भोगवै विशाल ॥ २५ एक मूर्तिदीसे लजामणी, लिंग जोणी मझार । पुरुष नारी साथै सदा करे वृषभ विहार ॥ २६ भस्म अंगि कपाल हस्ति, कंठे छं रुंडमाल । करि त्रिशूल भुजंग कंठि, जटा नग्न विकराल ॥२७ भवर देव तणी विकृत, दीसे वदन ते चार । राग-रंग रमे सदा, हंस यान संचार ॥२८ तिलोत्तमा रागि रल्यु, दण्ड कमण्डलु पात्र । कोपीन जज्ञोपवीत कंठि, अक्षसूत्री कुमात्र ॥ २९ धड़ लेई एक नर तणो, थापी शिर एक हस्ति । तेल सिन्दूर रचना रची, एहवी कहे देवमूति ॥३० पदे पसू चापी रहे, करे क्रूर हथियार । रुधिर मांस बलराती सदा, आगल पशु सिधार ॥३१ जक्ष- जक्षी नाग-नागिणी, गुरु गोत्रज नाम । जलमी वराही इआदें करी, देवी भीषण भाम ||३२ धात पाषाण माटी काष्ट, देव-देवी तणां मंच । मूढ जीव तणां रजक, माने मिथ्याती संच ॥३३ ए आदे देव देवी तणी, दीसे बहुमूर्त्ति। जिन प्रतिमा यो बाहिरी, ते सहु मिथ्या विकृत्ति ॥ ३४ कुगुरु चिह्न हवे सांभलो, पंच पातक-सक्त । हिंसा असत्य चोरी आचरे, मैथुन अंग जे रक्त ॥३५ मठ मन्दिर वनवासी आ, रामा रागे ते राता । कृषण करे पशु-पालक, राग रोस मद माता ||३६ विणज वीवाहे वैद ज्योतिषी, विद्या मन्त्र कुतंत्र । कामण मोहण वसिकरण पाखंड करे कुजंत्र ||३७ चर्मरोम ओढ़े घणा, वनवण कुलकारी । पंचविध वस्त्र आदरे, नग्न कोपीन एक धारी ॥३८ विप्र संन्यासी कापडी, योगी दरवेश. दोहिल्या । बौद्ध सांख्य कुतापसी, बहुभिक्षुक बोल्या ॥ ३९ गोपिच्छक धवल अम्बरी, द्रावड़ आपली संग । पिच्छविहीना दुर्मती, जैनभाषा प्रसंग ॥४० जिनशासन जे बाहिरा जिनमार्ग विखण्ड । ते कुगुरु मिथ्यातीया, कुवेष लिंग सहित ॥४१ कुत्सित शास्त्र हवे सांभलो, जेमां कुत्सित आचार । धर्मकाज हिंसा करे, जज्ञ जीव सन्धार ॥४२ असत्य चोरी अब्रह्मचर्य, निशि भोजन पाणी । कन्दमूल मधुभक्षण, स्नान नीर अछाणी ||४३ श्राद्ध संवच्छरीने तर्पण, जागर मण्डल प्रश्न । पितरपिंड उतारणां अम्बर देवी कुकृष्ण ॥४४ वड पीपल शमड़ीवृक्ष काग सूकर स्थान । बापी सरोवर नदी अ कूप, पूज्य माने अज्ञान ॥४५ रवि अ शनिश्चर संक्रम, ग्रहण आदित चन्द्र । एकादशी आमास आदि, ओछी स्थापना क्षुद्र ॥४६ देवने तो दूषण दीये, परनारी अपवाद । स्वामी लीला एहवी करें, एह इन्द्री उनमाद ॥ ४७ शीलवन्ती सती कहुं, बली पंच भरतार । अष्टादश पुराणमाहे, स्थापे असत्य अपार ॥४८ एक सौ असी क्रिया भेद, चौरासी अक्रियावाद । अज्ञानी सड़सठे भेद, बत्तीस विनयविवाद ॥४९
से त्रेसठ एणि परे, कुवाद कुस्थान कुमन्त । संशय विमोह कारणें, ते कुशास्त्र असत्य ॥५० जे जिम जेणें किया थापर ते विपरीत । कुबुद्धि बले धूर्त कल्पित, दीखे अबली कुरीत ॥५१ जे जिनवाणी वेगला, थाप्या बहु विभचार ।
• विरुद्ध वचनें रचना रची, किम कह्यो जाय विस्तार ॥५२
सत्यदेव कुदेव तत्त्व, गुरु कुगुरुते सरिखा । शास्त्र कुशास्त्र सम लेखवे, न जाणे ते परिक्षा ॥५३
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पदम-कृत श्रावकाचार गोलख सम ते लेखवे, चिन्तामणि-सम काच । गो-महिषी अर्क थोहर, दुग्ध सम एक वाच ॥५४ अमृत हलाहल विष समा, उद्योतनि अन्धकार । धर्म अधर्म सम लेखवे, भूला जीव गवार ॥५५ मिश्रप्रकृति तणे उदये, न वि जाणे जिय भेद। शुभ अशुभ न वि उ लेखे, घणुं स्यू कीजे निखेद ॥५६ सम्यक्त्व प्रकृति हवे सांभलो, माने देव अरिहन्त। निर्ग्रन्थ गुरु सेवा करिये, धर्म दशलक्षणवंत ॥५७ देव शास्त्र गुरु उ लखे, करे जिनधर्म विचार । तत्त्व पदारथ सरदहे, लहे समकित सार ।!५८ सत्य देवसं प्रीति करे, नाहीं मनमें भ्रान्ति । देव गुरु ये मुझतणा, मुझ विघन करे शान्ति ॥५९ आदि देव अतिशयवन्त, परतो मुझ पूरे । शान्तिनाथ शान्तिकरण, दुःक्रम संकट चूरे ॥६०
समकित विना स्युं धर्म स्युं, भ्रान्ति आणे ते बाल।
जिनशासन बोड़े नहीं, भमे जिम घंटा लाल ॥६१ क्रोध मान माया लोभने, कठिण कसाय जे चार । अनादिकाल अनन्तानुबन्धी, दुःख देई अपार ॥६२
मिथ्यात मिश्र समकितनाम, प्रकृति टालो ए सात । उदय होय जब तेह तणो, तब समकित करे घात ॥६३ ये सातों जब उपशमें, तब होय उपशम भाव ।
स्वस्ति परिणामें जीवनें, शुद्ध सहज परिणाम ॥६४ कचोली कदम नीर सहित, कसमल दीसे तेम । कतकफल माहे तबै, स्वच्छ थाइ जल जेम ॥६५ सर्व घातिस्फर्धकतj, होइ उपशम ज्यारे । समता भाव सात पणे, लाभे दर्शन त्यारे ॥६६ सप्तमध्य छ उपशमें, उदय समकित एक । वेदक रुचि तब ऊपजे, लहे धर्म विवक ॥६७ नदी अ वहे जिम नीरपूर, समल ते जल माहे । समकित पाके वेदक, भ्रान्ति जिन धरम चाहे ॥६८
वेदकतणी उत्कृष्ट स्थिति, जाणो छासठि समुद्र । निश्चल पणे जो रहे सदा, सौख्य आपे जिनधर्म ॥६९ सर्वघाती तणों क्षय होय, प्रकृति टले जब सात । क्षायिक समकित तब ऊपजे, नीपजे गुण वात ॥७० आकाश जिम अभ्र विना, निर्मल दीसे तेज भान । प्रकृति क्षय क्षायिक रुचि, होय गुण-निधान ॥७१ क्षायिकतणी स्थिति उत्तम, जाणों सागर तेतीस ।
अष्ट वरस हीण वे पूर्व कोडि, अधिक भणे जगदीश ।।७२ चौथा गुणस्थान आदे करी, इग्यारमा पर्यन्त । उपशम सम्यग्दर्शन, प्राणी चढे उपशान्त ॥७३
अविरत आदि अप्रमत्त लगें, स्वामी वेदकवन्त । चौथा आदि चौदमा लगे, क्षायिकदृष्टि जयवन्त ॥७४ सम्यग्दृष्टी भवी अण, नरक गति न वि जाये।
शर्करा प्रभृति आदि छ लगें, नारकी न विथा ये ॥७५ भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी, देव देवी ते मांहि । कल्पदेवी अवर स्त्रीवेद, षंढवेद न वि वाहि ॥७६ दुर्योनि न वि उपजिए. हीन दीन दारिद्री। खंज पंग कुब्ज वामणा, न वि थाये विकलेन्द्री ॥७७
पृथ्वी अप तेज वाय तरु, बेइन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री। निगोद म्लेच्छ कुभोगभूमि, पसु असंज्ञी पंचेन्द्री ॥७८
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श्रावकाचार संग्रह
वार मिथ्या उपपाद माहि, तिहां जन्म न पावे ।
सम्यग्दृष्टि प्राणी आ, अल्प योनि न वि जावे ॥७९ बहिरा वारा बोबडा, बहु अन्ध विकराल । कोढी काला कुत्सित, न वि होइ मृत्यु अकाल ॥८० एह आदे जे कष्टकारी, तिहां नहीं अवतार । सम्यदृष्टी, न वि लहे दुःख संसार ।।८१
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दोहा सम्यदृष्टी आतमा, उत्तम स्वर्ग अवतार । इन्द्र अहमिन्द्र ऊपजे, महधिक देव मंझार ॥१ कामधेनु चिन्तामणी, कल्पवृक्ष निधान । देवीस्युं क्रीडा करे, भूधर चैत्य उद्यान ।।२ उत्तम नर मांहे ऊपजे, भोगभूमि भागवंत । दशविध कल्पतरुतणा सुख लहे महंत ॥३ कर्मभूमि कुल महधिक, उपजे राज अधिराज । मंडलीक महामंडलीक, कान्ह कशव बलराज ॥४ चक्रवत्ति षखंडतणी, तीर्थंकर पदसार । सुर नर सहु सेवा करे, आपे मोक्ष दुबार ॥५ सम्यग्दृष्टी सजनतणों, महिमा कह्यो किम जाइ । सुर नर वर सुख भोगवी, अनुक्रमे सिद्ध थाइ ॥६ इम जाणी निश्चय करी, सेवो समकित रत्न । जनमि जनमि सुखदायक, सदा करो तस जत्न ॥७
अथ भास अविकानी सम्यग्दृष्टी जेह जीव, तेह लक्षण हवे सांभलो ए। निःशंकित आदे अष्ट अंग संवेग गुण ऊजलो ए॥१ उपजे पंचवीस दोष, समकित ना जत्न करो ए।।
तेहतणां सुणो हवे भेद, सम्यग्दृष्टि मल परिहरि ए॥२ मढ त्रय मद अष्ट, छ अनायतन दुद्धर ए। संका आदि दोष, पंचवीस मल निरभर ए॥३ देवमढ, शास्त्रमूढ लोकमूढ त्रण भेद ए। न लहे देवस्वरूप, मूर्खपणु' तेहने मन मनि ए॥४ देव एक अरिहंत, तेह विना दूजा नहि ए । अवर करे जो सेव, देवमूढ मल ते सही ए॥
अवध सणी जे शास्त्र, हित अहित ते नवि लहे ए। तत्त्व अतत्त्व गुण दोष, विचार भेद ते नवि कहि ए॥६ मारह संगीत कोकशास्त्र, मिथ्यापंथ जो रोपीया ए।
ज्योतिष वेद कुवाद कुगुरुमुखे निरूपिआ ए ॥७ लोकमढ लोकीक, कुतीर्थ जात्राए जे गमिए । गंगा जमुना पुष्कर सागर-संगम जे भमिए ।।८ शीत उष्ण पडवेय, भेरव बीज गुरु त्रीजए । रक्ष संयोग पांचमि, शील सातमि आठमि दोजए ।।९
तुलीतु नवमी अहव दशमी, एक द्वादसी अमावास ए। अ आदि कुतिथि दिन्न, बहु मूढ लोक ते भास ए ॥१० उत्तरायण होली शिवराति, नव हस्तो नवरात्र कही ए। गणागुरिणी गोत्राड, साचो रवि सोमवार कही ए ॥११ जाग जागरण चन्द्रायण, गुंजन आदि त रोटला ए। ग्रहण सती संक्रान्ति, कुदान पाप पोटला ए ॥१२ पंच ते कुमती भाव, छन्नु पाखण्ड जे कह्या ए।
ते जाणो लोकोक मूढ, जिनशासन बाह्य रह्यां ए ॥१३ अशुभ जे आचार, मिथ्यात्व पूजा पाय ए। जें जिनवाणी थी भिन्न, ते सहु मिथ्या पाप ए ॥१४
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पदम-कृत श्रावकाचार
एणी परे त्रण मढ, विवेक गुणें करि व्यजो ए। प्रौढ होय समकित्त, हितकारो सदा भजो ए ॥१५ हवे सुणों अष्ट मद, मत्सर माने पाप उपजे ए । अहितकारी अति कष्ट, राग रोष ते नीपजे ए ॥१६ जाति मद कुल मद, लक्ष्मी ज्ञान रूप मद ए । तप बल विज्ञान मद, आठ मद पाप प्रमाद ए ॥१७
जाति तणों एह मद, पक्ष मोटो मुझ माय तणो ए।
मोटो कोधो तेणे काज तुनुस्तुंलिकसुं घणु ए॥१८ लक्ष चौरासी जीव, अनेक वार जीव ग्रही ए। जाति तणो संक्रम, परंपराते कुण लहे ए ॥१९ कुल तणो करे गर्व उत्तम काज वृद्धे कर्यु ए। वंश मोटे मुज तात, एम कही मद अनुसरे ए ॥२०
एक सौ साढ़े नवाणुं, लक्ष कोडि ते कुल कहीया ए । वली-वली ऊपजे जीव, तात संक्रम ते कुण लहि ए॥२१ लक्ष्मी तणो किसी गर्व, अल्परिद्धि रामी करी ए। छिण आवे छिण जाय, वक्ष छाया छिण जिम फिरे ए॥२२ अल्प भणी श्रुतज्ञान, मत्सर करे मूढमती ए।
ज्ञान लही केवल बोध, तो अज्ञानी कहे जती ए॥२३ पामी शरीर सरूप, देखी मद करे तेह तणो ए। जिन चक्री काम देव, ते आगले किसूं घणूं ए॥२४ पामी अंग सबल. कहे शक्ति मझ ने घणी ए, आगे हआ कोटी भद्र, ते सम बड़ कांइ भणं ए॥२५ अल्प करी उपवास, कठिण तप घणो कीयो ए। एक बेच्यारे षट् मास, ते आगल कांइ भणु ए २६ चित्र-मंडण लेख कर्म, सोखी मद स्युं तणुं ए। एक एक थी अधिक विज्ञान, तुं रीझे किसु घणुं ए॥२७
इणि परे आठे मद, जुजुआ जोउं जुगति करी ए।
समकित ने दीये दोष, मद छांडो मार्दव धरी ए ॥२८ जे-जे कृत्रिम वस्तु, कर्म संजोगे जे मिली ए। छिण-छिण विणसे तेह, सू मद कीजे जू तेटलू ॥२९
कर्मतणे वशि जीव, ऊँच नीच गोत्र ग्रही ए। हीन अधिक बुद्धि कुबुद्धि, शुभ अशुभ कर्म लहि ए ॥३० कुदेव कुगुरु तणां भक्त, कुलिंगी भक्त तेह तणा ए। कूशास्त्र कुशास्त्र तणा भक्त, अनायतन षट भेद भण्या ए॥३१ दूषण-सहित कुदेव, परिग्रह-सहित कुलिंगि कहीया ए।
कुत्सित आचार कुशास्त्र, पूजा भक्ति दूषण ग्रह्या ए॥३२ अष्ट शंकादिक दोष, भेद कहँ हवे तेह तणा ए। दोष टाले होइ गुणा, अष्ट भेद अंग सुण्या ए॥३३
जल-बिन्दु जीव असंख, निगोद देही अनंत रासी ए।
सूक्ष्म कह्या तत्त्व भेद, शंका दोष संशय भास ए ॥३४ दान पूजा तप ध्यान, अध्ययन धर्म करी ए । निंदा न करी वांछे भोग, आकांक्षा दूषण धरी ए॥३५
जती व्रती गुणवन्त, जल्ल-मल्ल अंग रोग देखी ए। सूग करे जे मूढ, विचिकित्सा दोष पेखीये ए॥३६ देव-अदेव गुरु-कुगुरु, तत्त्व अतत्त्व जे न वि लहि ए।
धर्म-अधर्म अविचार, मूढ दोष इणि परि वहि ए ॥३७ सागारी अणगार, चारित्र आचरण वसि ए। मलिण देखि त्रस व्रत, अन आछादन देइ दोष ए॥३८
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श्रावकाचार-संग्रह उपासक यतिनाथ, कर्म वसि व्रतथी चल्यो ए। स हि न निज राखे धर्म अस्थिति करण मल ठवि ए ॥३९ यती व्रती साधर्मी, वात्सल्ल भक्ति ते न वि करे ए। न वि करे प्रीति उपगार, अवात्सल्ल दूषण वरि ए॥४० जिन प्रासादमा प्रतिमा, प्रतिष्ठा अतिशय लोपीय ए। शासन महिमा करे हानि, अप्रभावना दोष रोपी ए ॥४१ ए इणी परे आठे दोष, मल उ लखी जो परिहरि ए। तो होय उत्तम अंग, निःशंकादि अष्ट गुण धरि ए॥४२ अंग-विहूणो दर्शन, निज काज असमर्थ कही ए। अक्षर-हीन जिम मंत्र, विष वेदना टाले नहीं ए॥४३ राज-अंगे जिस भूप, सबल पणे वैरी ने जीति ए। तिम अंग-संगे सबल, दर्शन कुकर्म क्षेपीइ ए ॥४४ जिम तिम करी भव्य जत्न, दोष पंचवीस दूरे करो ए। अंग गुण अष्ट समृद्ध, निर्मल समकित अनुसरो ए ॥४५ शंकाकारी सात भय, दुखदाई शल्य अणि ए। कपट माया मिथ्यात, निदान शल्य त्यजी जन ए॥४६ एह लोक भय परलोक, अत्राण अगुप्ति कही ए।
आकस्मिक भय रोग, मरण.भय सातमो सही ए॥४७ संवेग निर्वेद निन्दा, गर्हा, उपशम भक्ति ए । वात्सल्य अनुकम्पा, अष्ट गुणे रुचि उत्पत्ति ए ॥४८ धर्म अधर्म तणा फल, प्रीति रुचि संवेग गुण ए। संसार-भोग एह अंग, वैराग्य निर्वेद पुण ए ॥४९
प्रमाद पणे करी काज, निन्दा करे ते आपणी ए।
देव गुरु शास्त्र भक्ति करि, उच्छाह भावना जोड़ी ए ॥५० साधर्मी वाच्छल्ल, स्नेह धरे गो-वच्छ परि ए । दया करे परिणाम, अष्ट गुणें दृष्टि वरी ए ॥५१
अष्ट अंग संवेग, सम्यग्दृष्टी जीव लक्षण ए। समकित तणां एह मूल, जिम तिम करो एह रक्षण ए ॥५२ समकित सर्व प्रधान, जिम तारा मांहें चन्द्रमा ए। पसुअ माहे जिम सिंघ, देव माहे जिम इन्द्र तो ए ॥५३ तरु माहे जिम कल्प वृक्ष, रत्न माहे जिम चिन्तामणी ए। रस माहे जिम अमृत, धर्म माहे समकित रल ए ॥५४
वस्तु छन्द धरो दर्शन घरो दर्शन, मवि जिन भावे करी। मद शंका दोष वेगलो, मूढ अनायतननि जु कसमला, अष्ट अंगे करी दृढ पणे, संवेग गुणें करी ऊजला । अनुदिन जि जन अनुसरे, अंगे धरि अति उल्हास, जिन सेवक पदमो कहे, ते लहे अविचल वास ॥५५
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पदम-कृत श्रीवकाचार
जय डाल सहीनी
निःशंकित पहिलो निर्मलो, नि:कांक्षित दूजो भलो । निर्विचिकित्सा तीजो ऊजलो, सही ए ॥१ अमूढ अंग चौथो कही, उपगूहन पंचमो लही । संस्थितिकरण अंग छट्टो सही ए ॥२ वात्सल्य अंग सातमो, प्रभावना अंग आठमो । आठ अंगे दर्शन अति बली ए. सही ए ॥३ निःशंकित गुण किणि पाल्यो, जिनशासन तें अजु आल्युं । अंजना चोर कथा हवे सांभलो ए, सही. ए ॥४
भरत क्षेत्र एह जाणीए, मगध देश मण आणी ए । राजगृही नयरी वखाणिइ ए सही ए ॥५ जिनदत्त श्रेष्ठी नाम, साधे ते धर्मं अर्थ काम। दान पूजा तप जप ते गुण ग्राम ए, सही ए ॥ ६ चतुर्दशी पोसह कही, समसान रह्यो काउसग्ग धरी । घर सावद्ययोग सब परिहरी ए, सही ए ॥७ आकाश देव युग आवीया, अमितप्रभ पहिलो भावीया । विद्युत्प्रभ दूजो सोहावी उ ए, सही ए ॥८ प्रथम सुर सम्यग्दृष्टी, दूजो मिथ्यादृष्टि । दोय मित्र पहिला नरभब तथा ए, सही ए ॥ ९ विचार करी ते मांहो माहे, घर्मंतणो परीक्षा चाही । यमदग्नि पासे आवीया ए, सही ए ॥१०
चिडो चिडी रूप लीयो, तापस कान्ह मालो कीयो । चिडी मूकी निज काज चिडो चालीयो एं, सही ए ॥११ चिडी कहे कही कहीये आवसो, न वि आवो तो सम करो । आवृं नहीं तो कुतापस पापे लीजिए, सही ए ॥१२ तदि तापस मन कोपियो, कुच मालो करि लोपियो । तब पंखी उड़ि आकाशे गया ए, सही ए ॥१३
क्षमा भ्रष्ट तापस देखी, कुमत धर्म तेणे उ वेखी । चालो मित्र गुरु जोउं तुम तणां ए, सही ए ॥१४
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देवे दीठो जिनदत्त श्रेष्ठी, ध्यावे निज मन परमेष्ठी । निःकम्प मेरु जिम, ऊभो रह्यो ए, सही ए ॥१५ जैन देव ते इम कहे; सद्-गुरु वाणो तत्त जोकं । जिन शासन श्रावक परीक्षा करो ए, सही ए ॥१६ दुद्धर उपसर्ग ते करे, देव माया विकृति धरे । बहुविधि विक्रिया भय देखविए, सही ए ॥१७ च्यार पहर कीयो उपसर्ग, निश्चल जाणो कायोत्सर्ग । परिषह सहतां प्रभात हुआ ए, सही ए ॥१८ तब देव मन रीझियो, जिनशासन धर्मे भीजीयो । प्रगट थई श्रेष्ठी पाये नमें ए, सही ए ॥१९
अमितप्रभ कहु कहु अहो, आकाशगामिनी ल्यो तम्हो । विद्या बले अढ़ाई द्वीप जिन भेंटीए, सही ए ॥२०
विधि - सहित विद्या दीधी, वस्त्र आभरण देई भक्ति कीधी । साधर्मी परशंसी ते सुर गया ए, सही ए ॥२१ श्रेष्ठी निज घर आवीयो, विद्या लाभ हर्ष पामीयो । पूजा लेइ मेरु जिन जात्रा गयो ए, सही ए ॥२२ एक दिन श्रेष्ठी जात्रा जाई, सोमदत्त सेवक मन ध्याई । विद्या मांगे श्रेष्ठी पासे रूबडी ए, सही ए ॥ २३ हुआ बुझी में तम साथे, पूजा द्रव्य घरी निज हाथे । तुम प्रसादे स्वामी जात्रा करूँ ए, सही ए ॥ २४
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२२
श्रावकाचार संग्रह
तब श्रेष्ठी कृपावंत, विद्या उपदेश देइ संत । एक मना सांभल तूं सोमदत्त ए, सही ए ॥ २५ कृष्ण चतुर्दशी रात्रें, वे उपवास करी पवित्र । गात्र स्मसान वडतरु पूर्व शाखि ए. सही ए ।। २६ दर्भ तणो शीको रूबड़ो अठोत्तर सौसर जोडु । भूतली ऊर्ध्व मुखि खड़ग तीक्ष्ण ए, सही ए ॥ २७ शी वैसी निर्भयपणे, अपराजित मंत्र गुणी । एकेकी सर छेदे शीकातणी ए, सही ए ॥ २८ जब मंत्र पूरण थाय, तब आकाश विद्या आय | मनवांछित कारज करे घणुं ए, सही ए ॥ २९ श्रेष्ठि उपदेश सांभली, सोमदत्त पूगीडली । बिद्या साधन ते लागो बुध बली ए, सही ए, ॥३० मंत्र जपि एक सर कापी, खड़ग देखी मन भय व्यापी । संशय हवो तब श्रेष्ठि ने ए, सही ए ॥ ३१
शस्त्र ऊपर जो होसे पात, तो निश्चय होइ धात | इम जाणी ते चढ़े ऊतरे वली वली ए. सही ए ॥ ३२ अंजन चोर तिण अवसरे, आव्यो अंजनसुंदरि घरे । सन्मुख न वि दीठी ते कामिनी ए, सही ए ॥ ३३ चोर पूछे किम द्यामणी, गणिका कहे सुणों धणी । राणी तणों हार द्यो तम्हो आणी ए, सही ए ॥३४
राजा ते प्रजापाल, तस राणी कनकमाल । ते हार विना किसू जीविए ए, सही ए ॥ ३५
अंजन चाल्यो अंजन बले, हार हरयो ते छोर बले । अदृश्य रूप ते लेइ नीसर्यो ए सही ए ॥३६ हार तेजे उद्योतकीयो, कोटवाल वेगें लीयो । हार मूकी अंजन नीसरी गयो ए, सही ए ॥ ३७ सोमदत्त कन्हें आवीयो प्रौढ, किस आक्षेप करै छे मूढ । श्रेष्ठी सम्बन्ध तेणें सहुँ कह्यो ए, सही ए ॥ ३८
अलग रहे ए हवुं कही, शीके वेसी ते सर ग्रही । एकवार ते सघली शर छेदी ए, सही ए ॥ ३९ श्रेष्ठी वयण करी प्रमाण, जब आवे भूपति मूं जाणि । तब आकाश देवें झेलीयो ए, सही ए ॥४० निःशंक अंग प्रगट कर्यो, विमान वेसंता संचर्यो । जिहां श्रेष्णी छे तिहां जात्रा गयो ए, सही ए ॥ ४१
अकृत्रिम जिन भेटीया, पाप संकट वे छुटीया । चारण मुनि गंधा श्रेष्ठी पासे ए, सही ए ॥४२ तब श्रेष्ठी अचंभीयो, अंजन देखी मन क्षोभीयो । चोर सम्बन्ध कही थोभीयो ए, सही ए ॥४३ मुनिवर दीयो उपदेश, धर्मं लीडं ते यति ईश । सीस नामी अंजन एम वीनवी ए, सही ए ॥४४ स्वामी तम्हो कृपा करो, भवसायरतें उतारो। संजम देओ मुझ देव दुर्लभ ए, सही ए ॥४५ अल्प आयु ते जाणीउ, आसन्नभव्य मन आणीउ । श्रेष्ठे अंजन गुण बखाणीयो ए, सही ए ॥४६ दीक्षा दीधी मुनिवर तणी, सह गुरु प्रशंसा करे घणी । तप जप संजम अंजन करी ए, सही ए ॥४७ ध्यान बले कर्म निर्जरी, केवल ज्ञान प्रगट करी ।
कैलाशगिरि आवी मुकति श्री वरी ए, सही ए ॥ ४८
धन्य धन्य मुनि अंजन, सिद्ध हवो करम भंजन । सुरे आवी निर्वाण पूजा करी ए, सही ए ॥ ४९
दोहा
निःशंकित अंग ऊजलो, पाल्यो अंजन चोर । श्रेष्ठी वयण निश्चय करी, परिहरि संशय घोर ॥१ निश्चय विणा दर्शण नहीं, निश्चय विणा कोई नही सिद्धि । निश्चय विणा शिव सुख नहीं, निश्चय विणा नहि बुद्धि ऋद्धि ॥२
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पदम-कृत श्रावकाचार
सात विसन ते सेवतो, करतो पाप अनन्त । कर्महणी मुकते गयो, अंजन समकितवन्त ॥३ इम जाणी निश्चय करी, जिनवर-वचन प्रमाण । सुरनर सुख ते अनुसरी, अनुक्रमे लहे निर्वाण ॥४
भास वोनतीनी उपराजी जिनधर्म, भोग वांछा नवी कीजिइ ए। संतोष धरी निजमंत्र, निःकांक्षित गुण लीजिइ ए॥१ कुणे पाल्यो एह अंग, जिनशासन माहे ऊजलो ए।
अनन्तमती सती नाम, तेह वृत्तान्त हवे सांभलो ए॥२ अंगदेश मझार, चंपा नयरी छै भली ए। श्रीवर्द्धन तस राय, लक्ष्मी मती राणी निर्मली ए॥३ प्रियदत्त श्रेष्ठी नाम, अंगवती नारी धणी ए। धर्म अर्थ साधि काम, देवागम गुरु भक्ति घणी ए ॥४
तस विहु कूखे जाणि, अनन्तमती पुत्री रूवड़ी ए। रूप सौभागनि खाणि, कनकतणी जे सीपड़ी ए॥५ एक वार वनहँ मझार, धर्मकीति गुरु आवीया ए। वन्दन चाल्यो श्रेष्ठि, निज परिवार सुहावीयो ए॥६ वन्दे सद्गुरु श्रेष्ठी, धर्मकथा रस सांभली ए। नन्दीश्वर दिन अष्ट, शोलवत लीधो वली ए।७ अवसर तेणें श्रेष्ठी, निज पुत्री प्रति भासीउ ए। बेटो लेउ तमें शील, विनोद व्रत अपादीयो ए ॥८ वंदी सद्-गुरु पाय, ते सहु आव्या निज मन्दिरे। यौवन पामी अनुक्रमें, सयल लक्षण देखी सुदरी ए॥९ विवाह तणी सुणि बात, तात प्रतें बेटी कहे ए।
तम्हो देवास्युं अम्हे व्रत, शीलवंती वर किम गुही ए॥१० वाप बोल्यो सुण बेटी, विनोद व्रत देवारीयो ए । अष्ट दिन पर्यन्त, इम कही लेवारीयो ए॥११
बलतु कहे ते पुत्री, धर्मकाज किस्युं हांसु ए। मुझ नियम सीमा न कीध, वली वली कहु किसुंए ॥१२ तब भाष्यो थयो साह, निश्चल मन बेटी तणुं ए।
अविचारी करे जे काज, पश्चात्ताप होइ घणुं ए॥१३ । पापी करावे पाप, धर्मी ने धर्मरुचि ए । हासे लेवा सुं नेम, पुण्यतणो हवे संचय ए॥१४ धन्य वन्य पुत्री मन्न, तात कहे रहो घरे ए। सखी सजन सहित, दान पूजा तप करे ए ॥१५
एक वार वनहिं मझार, चैत्रमासे क्रीडा करै ए। हर हिंडोले हीलंत, निज सखी स्युं परिवरी ए॥१६ तिण समय ते जाण, विजया दक्षिण श्रेणी ए। किन्नर नगर को ईस, कुंडल मंडित विद्या धणी ए॥१७ सुकेशी तस नार, विमान वेसी बिन्हे चालिया ए। शोभा जोइ भूपीठ, कन्या देखी मन हालिया ए १८ काम जाग्यो मन माहे, ए कन्या विण जीव, किस्युं ए। पाछो आव्यो मूको घर नारि, कन्या पासे बाव्यो धसी ए॥१९
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श्रावकाचार-संग्रह
कन्या हरी चाल्यो खग, जिम नागिण गरुड ग्रहिए । मनोरथ करे ते मूढ, कठिण कष्ट कन्या लहिए ॥ २०
सुकेशी तत्काल, कंतकेडे वेग वली ए। नारी नहीं अ विश्वास, आवती दीठी ते कसमली ए ॥ २१ नारी तणों देखी कोप, ते कन्या खगें तजी ए ।
प्राण लघवी प्रभाव, सन्नि सन्नि ते वन भजी ए ॥ २२
२४
रुदन करे अपार, एकली घोर अटवी मांहि ए। दुःख देखे ते बाल, क्रूर वनचर भय बहू ए ॥ २३ तब आव्यो एक भील, कन्या लेइ निज घर गयो ए । देखी बालारूप, मोह-मयण विह्वल थयो ए ॥ २४ भील कहे धणु नार, यौवन इन्द्रीफल भोगवो ए । हूँ भीम पल्लीनाथ, मुझ साथ सुख अनुभवो ए ॥ २५
कन्या मन अविचल, भीम भाषा भेदे नहीं ए । उपसर्ग करे ते दुष्ट, राति मरम वयण कही ए ॥ २६ सती अशील प्रभाव, वनदेवी आवी उचरि ए ।
मेरे पापी भील मूढ, सती अ संग तु किम करी ए ॥ २७
हवे हुँ टालुं तुझ राजि, काज सहित प्राण हरूं ए । बाला दूरे करी ए ॥२८
तब हुआ भील भयभीत, ते पुष्प नामें सार्थवाह, ते कन्या आपी तस ए देखी रूप विशाल, साह हवो काम वशी ए ॥ २९ कन्या नें देखाडे लोभ, भार्या थाऊं मुझ घर तणीं ए । तूं मुझ तात समान, वलती कन्या इस भणी ए ॥ ३० अविचल जाण्यो तस मन्न, साह अजोध्या नयरी गयो ए । कामसेना वेश्या गेह, कन्या आपी निश्चल थयो ए । ३१ वेश्या कहे सुणो बाल, यौवन भोग सुख अनुसरो ए । न वि भीजे तस मन्न, निश्चल जिम मेरु सिरो ए ॥ ३२ नगरस्वामी सिन्धराय, कन्या आपी वेश्या कहे ए । एतुम्ह होसे पटदेवि, स्त्री लोमे भूप ग्रही ए ॥ ३३ रात्रि समये ते भूप, कामचेष्टा करे धणी ए । आ ले वस्त्र आभरण, देवी थाउ मुझ पटतणी ए ॥ ३४ माने नहि तस बोल, क्रोधे भूप उपसर्ग करी ए । सती अ गणे नवकार, परमेष्ठी पद मनि घरी ए ॥ ३५ सती अ पुण्य प्रभाव, नगर देवी सहाय कीयो ए । यष्टि मुष्टि देई प्रहार, राजा खेद- खिन्न कीयो ए ॥ ३६ देवी कहे भूप मूढ, अन्याय कर्मका मांडीयो ए । हवे हरूं तुम राज्य -काज सहित प्राण खंडुं ए ॥ ३७ तब थयो भूप भयभीत, कन्या घर थी मोकली ए । देवी स्युं करी क्षमितव्य, निज स्थानें गई एकली ए ॥ ३८ धन्य धन्य शील- प्रभाव, धन्य धन्य मन कन्या तणो ए । आसन कम्प्या देव देवी साहाय करयो घणु ए ॥ ३९
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पदम-कृत श्रावकाचार अनन्तमती तिणि वार, कर्मतणा फल चिन्तवी ए।
तब आर्यिका आवी एक, पद्मश्री नामें स्तवी ए ॥४० बाला देखी गुणवन्त, आर्या पूछे मीठी भाष ए। सकल कह्मो सम्बन्ध, साधर्मी जाणि विश्वास कीयो ए॥४१ आर्यिका लेई ते वाल, तेठी बावी श्री जिन-गेह ए। साहाय करे साधर्मी, सांचो सन्त गुण सस्नेह ए ॥४२ साधर्मी घरे आहार, तप जप संजम आचरि ए। विज्ञान विजन पाक, ते कन्या चतुराई करे ए॥४३ बम्या अन्न समान, भोग-वांछा न वि करे ए। सन्तोष धरि निज मन्न, आर्यिका पासे ते रहे ए ॥४४ तिण समये प्रियदत्त, पुत्री-वियोगे विह्वल थयो ए।
दुःख विसामा काज, तीर्थजात्रा अजोध्या गयो ए॥४५ ते अ नगर मझार, जिनदत्त सालो वसे ए। साह आव्यो तेह गेह, सजन-सन्मान दे तस ए॥४६ पुत्रीविरह-सम्बन्ध, परस्परि ते जाणियो ए। बात करे सुख-दुःख, कर्म-विपाक बखाणियो ए ॥४७
प्रभात समय श्रेष्ठि, स्नान घौत वस्त्र पहिरिए । अष्टप्रकारी लेई पूज, जिनमन्दिरने संचरिए ए ॥४८ पूजे जिनवर-पाय, सद्गुरु स्वामी वंदिया ए। सांभली श्री जिनवाणि, धर्मध्याने आनंदिया ए॥४९ जिनदत्त केरी नारि, कन्या तेठी प्रीते जड़ी ए। अंगण पूराव्यु चौक, रसोई सन्धावी रूबड़ी ए ॥५० साधरमी करी काज, कन्या निज स्थानक गई ए।
तब आव्यो प्रियदत्त, जोई मंडण सन्मुख थई ए॥५१ स्वस्तिक कीघो जेण, तेतेडो चौसाल कए । विस्मय पाम्यो साह, तब अ बीते बालक ए ॥५२ जब दीठी ते बाल, साह नेत्र नीर बहे ए। हा हा तू मुझ धीह, मुझ विण तुं किहां रही ए ॥५३
बाप बेटी तिण वार, कंठ लागी रुदन करी ए।
. सजन सह परिवार, प्रतिबोध वाणी उचरी ए॥५४ अहो अहो कर्म-विपाक, पापकर्मे घियोग होइ ए । शुभकर्मे संजोग, जन पंडित सदा कहि ए ॥५५ पिता आगल ते पुत्री-हरण बात सवल कही ए। पछे जीम्या सज्जन, कन्या सुख तें रहो ए ॥५६ तात कहे सुणो धीय, हवे बावो आपणे घर ए। वलतुं कहे ते बाल, घर सुख पूरे मुझ ए ॥५७
दीक्षा देवारो अम्ह तात, जो वांछो हित मुझ ए। तात प्रशंसि धन्य मन्न, धन्य धन्य शील तुझ तणो ए॥५८ क्षमी क्षमावी सजन, पदमसिरि बालिका पासे ए।
धरियो संजमभार, अनन्तमती ध्यान धरे ए ॥५९ समकित फले तेह, ज्ञान अभ्यास सदा करि ए। तीव्र करे बहु तप, जप ध्यान धर्म धरी ए॥६०
जब जाण्यो क्षीण आय, समभावे संन्यास लीयो ए। छेदि नारीनो लिंग, समाधिमरण तेणे कीयो ए॥६१
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श्रावकाचार-संग्रह सहस्रार बारमें स्वर्ग, महधिक देव ऊपजो ए।
सहज वस्त्र आभरण वैक्रियिक देह ते नीपज्यो ए ॥६२ कल्पवृक्ष विमान, देवी स्यु क्रीडा करि ए ।जिनकेवली पूजे पाय, धर्मरुचि सदा धरि ए ॥६३
दोहा विनोद शील नियम ग्रही, अनन्तमती सती नार ।
स्वगतणा सुख अनुभवी, ते तरसी संसार ॥६४ निःकांक्षित अंग ऊजलो, पाले जे नरनार । स्वर्ग मोक्षसुख ते लहे, अन्त तिरे संसार ॥६५
सती-शिरोमणि सीता कही, द्रौपदो चन्दनबाल।
निःकांक्षित गुण आदरी, पाम्पा सुख गुण माल ॥६६ इम जाणिय दृढ़ मन करी, समकित पाले सार । जिनसेवक पदमो कहे, ते पामे भवपार ।।६७
अथ तृतीय अंग लिख्यते । ढाल भद्रबाहुनी निर्विचिकित्सा पालो अंग, रोग देखी श्रावक यति संध, सूग साधमी परिहरी ए ॥१ निर्विचिकित्सा धर्यो केणे अंग, तेह तणों हवे कह प्रसंग, भूप उद्दायण कथा सुणो ए॥२ भरतक्षेत्र माहे कच्छ देश, रौरवनयर तणों नरेश, उद्दायण भूप तणों ए॥३ । प्रभावती नग्में तस राणी, पूजे श्रीजिन सद्गुरु वाणी, दान पूजा जप तप करी ए ॥४ एक बार सौधर्म स्वर्गनाथ, सभा पूरी बैठो देबसाथ, धर्मतणां गुण वर्णवे ए ।।५. निविचिकित्सा समकित अंग, उद्दायण पाले अभंग, रंग सदा जिनधर्म तणुं ए॥६ इन्द्र प्रशंसा सुणी तब देव, विस्मय पाम्यो वासव देव, परीक्षा जोवाने चालीओ ए ॥७ वृद्ध मुनिवर तणुं रूप लीधो, गलित कोढ़ व्रण अंगते कोधो, देह दुर्गन्ध माखी भमे ए ॥८ थर-थर कांपे मुनिवर-देह, मध्याह्न समय आव्यो राय-गेह, तिष्ठ तिष्ठ करी पड़िगाहिआ ए ॥९ आसन देय पखाले पाय विधि-सद्रित आहार देई राय. प्रभावती भक्ति करैए ॥१० तब मुनि वम्यो आहार, राय-अंग ऊपर अपार, दुर्गन्ध अंग व्यापीयो ए ॥११। हा हा भूप कहे मुनिवृद्ध, अजाणपणे अन्न दीवो विरुद्ध, भूप निन्दा करे आपणो ए ॥१२ वली मुनि वमे बीजी वार, प्रभावती छांटी सविचार, अवर जन सहु दूरे गया ए ।।१३ सूग नवि आणी राजा राणी, निर्मल प्रासुक लेय पाणी, मुनि अंग पखालियो ए ॥१४ तब देवें प्रगट रूप लीयो, राय-राणी स्तवन बहु कीयो, धन्य धन्य इन्द्रे प्रशंसिया ए ॥१५ देवे वस्त्र आभूषण आपो, समकित महिमा महीथल थापी, गुण स्तवी सुर घर गयो ए ।।१६ भूप राणी सुखें करे राज्य, सारै प्रजा तणूं वहु काज, न्याय विधि राज भोगवे ए ॥१७ धरम काज करता दिन जाय. निमित देखी वैराग्य मन ध्याय. निज पत्र राज थापियो ए ॥१८ श्री वर्धमान जिनेश्वर पासें. दीक्षा लेइ ते शास्त्र अभ्यासे, ध्यान अध्ययन तप आचरि ए ॥१९ शुक्लध्याने घाती कर्मचूरी, केवलज्ञान ते वांछित पूरी, धर्म उपदेश देइ निर्मलो ए ॥२० अंग अघाती कर्म क्षय कियो, साम्राज्य सिद्ध पद लियो, उद्दायण मुनि मुकतें गयो ए॥२१ प्रभावती राणो तिणी वार, वैराग लोधो संयम भार, तप जप सूचो आचरि ए ॥२२ निर्मल समकित पाले चंग, तब बलें टाले स्त्री लिंग, मरण समाधि साधीयो ए ॥२३ ब्रह्म स्वर्गे ते उपज्यो देव, महर्धिक वैक्रियिक नीपज्यो, वस्त्राभरण ते लंकर्यो ए॥२४ उद्दायण भूप पाम्या मोक्ष, प्रभावती राणी देव सौख्य, निर्विचिकित्सा अंग करी ए ॥२५
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पदम-मतभावकाचार
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मुनिवर हुवा श्रीनन्दषेण, निविचिकित्सा अंग पाल्यो तेण, दशमें स्वर्गे ते देव हुबो ए॥२६ पछी हुओ वसुदेव सुजाण, तेह कथा हरिवंशे जाण. अवर जोर्वे अंग पालियो ए ॥२७
चोयो बमूढ बंग प्राप्यते एह रहीयो इहां वृत्तान्त, अमूढ अंग कहुँ हवे सन्त, रेवती राणी कथा सुणो ए॥२८ देव आगम गुरु परीक्षा कीजे, सगुण निर्गुण भेद लहीजे, मूर्खपणुं दूरे तजो ए ॥२९ विजया एह दक्षिण श्रेणी. मेघकूट नयर तणों धणी, चन्द्रप्रभ खेचरपती ए॥३० राजरिद्धि सुख भोगवे राय, अढ़ाई द्वीप माहे जात्रा जाय, पूजे जिन केवली पद ए ॥३१ जात्रा करतो आव्यो दक्षिण देश मथुरा एह, शशिनामें सूरी भेटीमा ए ॥३२ धर्मसुणी उपज्यो नैराग, संगतणुं करि परित्याग, चन्द्रशेखर राज थापियो ए ॥३३ जात्रा काजे विद्या एक राखी, क्षुल्लक दीक्षा लीधी गुरु साखी, तप जप संजम आचरे ए॥३४ ब्रह्म कहे सुणों, गुरु तम्हो, उत्तर मथुरा जाई अम्हो, कहोनों कांई कहो छो किसुं ए॥३५ गुरु कहे सुणो वच्छ विचक्षण, सुव्रत मुनि छै शुभ लक्षण, मुझ वन्दना कहियो तस ए॥३६ मथुरातणों स्वामो छै वरुण, तस राणी रेवती शुभ चरण, धर्म वद्धि कहियो तस ए॥३७ ब्रह्म पूछी सद् गुरु त्रण वार, अवर कांई भविक है गुणधार, आज्ञा लेइ ब्रह्म संचों ॥३८ तब मन चिते ब्रह्मचारि, भव्यसेन भणे अंग इग्यारि, तेहर्ने काइ को नहीं ए ॥३९ विस्मय पाम्यो ते मन माहे, तेह तणी हवे परीक्षा चाहे, कवण कारण छै तेह तणुं ए॥४. उत्तरमथुरा वनहिं मझार, सुव्रत मुनि वंद्या भवतार, निज गुरु तणी वंदना कहीइ ए ॥४१ ब्रह्मनें धर्मवृद्धि तेणें दीधी, गुप्त गुरु प्रतिवंदना कीधी, सामाचारी जती तणी ए॥४२ क्षुल्लक तणों वात्सल्य बहु कोयो, विनय सहित सन्मान ते दीयो, माहो माहे क्षेम प्रश्न करी ए ॥४३ भव्यसेन गुनिवर छे जिहां, ब्रह्मचारि आव्यो वली तिहां, नमोस्तु करी ऊभो रह्यो ए॥४४ . वलती धर्मवृद्धि न वि दीधी, साधर्मी भणि भक्ति न वि कोधी, मिथ्या अहंकारे संचर्यो ए ॥४५ विद्या गर्व-भूधर ते चढ़ी उ, अभ्यन्सर अज्ञाने जडीउ, नडीयो मोह कमें घणुए ॥४६ ते मुनि उपज्यो मिथ्या मान, न वि जाणे ते भेदने ज्ञान, ज्ञान विना शुभ गुण नही ए॥४७ प्रभात समय मल-मोचन जाय, विनय सहित ब्रह्म साथें, थाय, जलकुंडी निजकर ग्रही ए॥४८ चन्द्रप्रभ विद्याप्रभाये. एकेन्द्री अंकुर सहावे, हरित कायमय पंथ कियो ए ४९ भव्यसेन अंकुरा वाहे, एकेन्द्री का आगम माहे, मन चिंतवि पण रुचि नहीं ए ॥५० ते अंकुरा ऊपर मुनि चाले, यत्न विना ब्रह्म दुख साले, पाप प्रमादे कपजे ए ॥५१ ब्रह्मचारी प्रपंच जब कीयो, कुण्डी जल सोसी तब लियो, दीनूं कमंडलु गैतो करी ए॥५२ व्यांमि जई कुडो मुनि जोई. जल विना शौच किम होई, मन मूकी पछे बोलीयो ए ॥५३ ब्रह्मचारी कहे भव्यसेन, मृतिका शौच करो तमे तेह, सर दाखी अलगो रह्यो ए ॥५४ सरोवर जाई तेणें लीधो, कृपाभाव मुनि नवि कीघो, विचार थकी ते वेगलो ए ५५ सुध बोध कुज्ञान ते थाइ, सूर्य तेज चूक नवि पाइ, तिम मिथ्या ते जीव दूसियो ॥५६ शुद्ध स्वाद सहजे जिम दूध, कटुकतुबी थाइ असुद्ध, मिथ्या अज्ञान ते वासीयो ए॥५७. अभव्यसेन नामें तस दीयो, लोक मांहे प्रगट गण कीयो, ब्रह्मचारी निजस्थानक गयो ए॥५८ एक दिन पुर पूरव पगार, ब्रह्मा रूप कीया मुख चार कमलासन कंठे सूत्र धर ए॥५९ कोपीन करि कमंडल पात्र, ब्रह्म वेद भणे बहु छात्र, गात्ररूप लोक-रंजक ए॥६०
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श्रावकाचार-संग्रह राजा आदि पुरलोक, आव्या, अभव्यसेन आदें मुनि भाव्यां, ब्रह्मा देखी मन रीझिया ए॥६१ रेवती राणी आगल ते कहीयो, ब्रह्मा प्रत्यक्ष पिते रहीयो, प्रेरी घणुं पण गई नहीं ए ॥६२ दूजे दिन पोलितें दक्षिण, महेशरूप कोयो रे विलक्षण, बैल बैठो गौरी साथे ए॥६३ वरुण आदि आव्या पुरि-जन्न, चले नहीं रेवती मन्न, महेश देखी लोक मोहिया ए॥६४ तीजे दिन पुर पश्चिम द्वार, बिष्णु-गोपी सोलसह कुमार, गदा शंख-चक्र धरी ए ॥६५ विष्णु वन्दन बहु लोक ते जाइ, विस्मय पामी आव्यो ते राइ, कृष्ण मायाए लोक रंजीया ए॥६६ मूढलोक अचम्भो ते पाम्यां, घरे रही ते रेवती रामा, भामें पड़ा भोला लोक ए ॥६७ दिन चौथे उत्तर दिस जाण, समोसरण जिन करे बखाण, बार सभा पुरे दोसए ॥६८ लोक सहित भूपे जई वंद्या, अभव्यसेन मुनि आनंद्या, जिन देखी लोक चमकीया ए ॥६९ रेवती रानी चिन्ते तिण वार, जिन चौबीस गया मोक्ष दुवार, ब्रह्मारूप ते को छै नहीं ए ॥७० होइ गया ते रुद्र इग्यार, नव केशव ते गति अनुसार, जिन आगम माहे सांभल्यो ए ॥७१ विद्याधर अथवा कोइ देव, कपट मायाए करावे सेव, देव दानव वैक्रिय करी ए ॥७२ चन्द्रप्रभ माया सहु छांडो, वृद्ध ब्रह्म तणुं रूप मांडी, कांपि काया रोग घणो ए ॥७३ मध्याह्न समय तस आंगण आवी, भूमि पडयो ते मूर्छा आवी, देखी रेवती हाहाकार करे ॥७४ शीतल जल घाली सीस नवाय, सावधानी करी ब्रह्म काय, प्रासुक आहार तेणें दीयो ए ॥७५ आहार लेय वमे ब्रह्मचार, रेवती सुश्रूषा करे तिणी वार, अंग पखालि निशंकपणे ए ॥७६ तब तुल्लक प्रगटरूप लीयो, रेवती गुण प्रशंसा कीयो, धन धन तुभ अमूढगुण एं ॥७७ निज गुरुनी ते धरमवृद्धि दीधी, तुझ नामें मे जात्रा कीधी, गुण स्तवी ब्रह्मचार गयो ए ॥७८ धन धन राणी अंग अमूढ, धन धन महिमा जस प्रौढ; अमूढव्रतें मन चल्यो नहीं ए ॥७९ वरुणराय तस रेवती राणी, जिन पूजे सुणे सद्-गुरुवाणी, राज रिद्धि सुख अनुभवी ए ॥८० बरुणराय पाम्यो वैराग्य, दीक्षा लोधी करी संग त्याग, वसुकीति राजा थापीयो ए ॥८१ रेवती राणी तप जप संजम सुद्धो पाले, मरण समाधि आप संभाले, माहेन्द्र स्वर्गे ते देव हुओ ए॥८२ रेवती राणी संजम तप बलीउ, सम दम, तप बहु तेणे कीयो राग रोष मद परिहरो ए ॥८३ समकित बलें टाले स्त्रीलिंग, ब्रह्म स्वर्गे हुओ देव उत्तुग, महर्धिक संपदा लंकर्यो ए ॥८४ मेरे नंदीश्वर जात्रा जाय, जिनकेवली सदा पूजे पाय, धरम ध्याने सुखे रहे ए ॥८५
अमूढ अंग धरो, अमूढ अंग धरो भवियण इणि पर देव तत्त्व गुरु परखीय मूर्ख पणूं तजि अति निर्भर,
रेवती स्त्रीलिंग छेदीने, पंचमे स्वर्ग हुओ देव मनोहर। अवर जीव बहु आदरो अमूढ़ अंग गुण धार, जिन-सेवक पदमो कहे ले पामे भव पार ॥८६
उपगृहन अंग । ढाल हेलिनी उपगृहन पालो अंग, दोष अछादुव्रती तणुं हेलि। कर्म-उदय होय दोष, न कोजे तेह घणुं हेलि ॥१
ढाकी पर अवगुण गुण वालो, पर उजला हेलि। कुणे पाल्यो एह अंग, तेह कथा हवे संभलो हेलि॥२
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पदम-कृत श्रावकाचार
सोरठ देश मझार, पाटलीपुर नयर धणी हेलि।
जसोधर तस राय, सुषमा राणी तेह वणी हेलि ॥३ तस बहु कूखे पुत्र, सुवीर नामें उपज्यो हेलि । कर्म तणे प्रभाव सप्त विसम ते नीपज्यो हेलि ॥४
उत्तम कुल तस जात, मात तात तस रूवडा हेलि। कहिने न दीजे दोष, पाप कर्मे जीव बहु नडा हेलि ॥५ विसन वाहायो रे कुमार, राजरिद्धि मूको नीसर्यों हेलि। सुवीर हुओ ते चोर अवर चोरें बह परिवयों हेलि ॥६ गौडदेश इह जाण, ताम्रलिप्त नयरी धणी हेलि । जिनेन्द्रभक्त नामे श्रेष्ठि, देव शास्त्र गुरु भक्ति घणी हेलि ॥७ सात क्षेत्र वेवे वित्त, जिन-भवन जिन-विम्ब तणां हेलि। चतुविधि संधनें दान, ज्ञान विस्तारे जिन भण्यां हेलि ॥८ जिन गेह सातमी भूमि, प्रासाद कोयो श्री जिन तणो हेलि । श्री पार्श्व जिन प्रतिमा सुण्यो जस ते धणो हेलि ॥९ प्रतिमा ऊपर त्रण छत्र, दंड वैडूर्य रत्न धर्यो हेलि। अमोलिक मणि तेजवन्त, संत सदा रक्षा करे हेलि ॥१० तेह ज रत्न प्रभाव, पर देशे जस विस्तर्यो हेलि। सांचो जे गुणवन्त, संत महिमा ले प्रसरे हेलि ॥११ सुवीर सुणी ते बात, निज साथी प्रति कहे ते हेलि। जेह ल्यावे ए रत्न, रत्न सहित जस विस्तरे हेलि ॥१२ सूर्पक कहे चोर, रत्न आए॒ इन्द्र सिर तणुं हेलि । एह मणि कुण बात, क्षात बोलुं छै किसु घणुं हेलि ॥१३ आदेश लेय ते चोर, गूढ ब्रह्म नेष कीयो हेलि। कोपीन घरी ऊ खंड वस्त्र, जल पात्र निजकर लीयो हेलि ॥१४ तप करे बहु कष्ट, क्षीण अंग कीयो घणुं हेलि। सम दम बहु धरि नेम, जस विस्तार्यों तेणे बापणों हेलि ॥१५ देश नयर द्रोण ग्राम, विहार करतो ते आवीयो हेलि। ताम्रलिप्त पुर पास, गुण श्रेष्ठि भावीयो हेलि ॥१६ महिमा करो तस प्रौढ़, साह निज घर आणीयो हेलि। जिहां छै जिन रत्न बिम्ब, जात्रा करी गुण बखाणीयो हेलि ॥१७ रत्न देखी ते अमोल, ब्रह्म संतोष ते पामीयो हेलि। जिन सोनी देखे हेम, हृदय हरखे तेम पामीयो हेलि ॥१८ धूरत जीव बहु चिह्न, डंभपणो कोई न वि लहे हेलि। गुणी जाणे गुणवंत, साधर्मी भक्ति श्रेष्ठी वहे हेलि ।।१९ स्वामी रहो मुझ गेह, यत्न करो प्रतिमा तणं हेलि। बाल इच्छा विण ब्रह्म, कूड करे छल जोइ घj हेलि ॥२.
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श्रावकाचार-संग्रह
एक दिवस ते घोष्ठि, व्यापार काजि ते संचर्यो हेलि। निज वनि कीयो प्रस्थान, सेवक जिन बहु परिवर्यो हेलि ॥२१ व्यापार तणे ते काज, घरि जन सहु व्यग्र देखीयो हेलि । मध्य रात्रं ब्रह्मचार, रत्न हरण समय पेखीयो हेलि ॥२२ अमोलिक लेई रत्न, सन्नि-सन्नि ब्रह्म चालीयो हेलि। तेज देखि कोट वाल चोर जाणी ते झालीयो हेलि ॥२३ नोसरीन सक्यो ते दुष्ट श्रष्ठ पासे ते आवीयो हेलि। रक्ष-रक्ष तूं नाथ, हाथ जोड़ी शरण भावीयो हेलि ॥२४ तव बोल्या ते साह, कोटवाल तम्हें सांभलो हेलि। तम्हें कोउं अपराध, साधु संताप्यो अह्म तणो हेलि ॥२५ हुं जाऊं छु व्यापार, सार रत्न अण्याव्यो अझो हेलि। मुझ तणुं सद्गुरु कांई, संताप्यो घणो तम्हें हेलि ॥र६ कोटवाल कहे सुणो देव, अम्हें तो गुरु जाण्यों नहीं हेलि । क्षमा करो अम्ह साथ, इम कही ते गयो सही हेलि ॥२७ निज रत्न लेइ साह, ब्रह्म एकान्त तिणे तेडीयो हेलि।
कवण करम तें जोडीयों रे-रे पापी दष्ट. हेलि॥२८ तं अज्ञानी दुष्ट कपट करी मुझ बंचीयो हेलि । ब्रह्मचारी लेय रूप, पाप करम तें संचीयो हेलि ॥२९
पामी जिन सासन्न, दुर्जन ने माया करे हेलि । ते बाहि पर आप, पाप भारें भव किम तरे होल ॥३० निर्धान्त कीयो ते चौरि, जिन शासन थी निकालियो हेलि । बाहा माछादी दोष, उपगृहन अंग साह पालियो हेलि ॥३१ जिनेन्द्र भक्त शुभ साह, उच्छाह जिन शासन करी हेलि। ते पाभ्यो शुभ स्थान. उपगहन अंग धर्यों हेलि ॥३२ इम जाणि भव्य जीव, दोष म बोलो पर तणों हेलि। ढाकी पर-अवगुण, गुण ग्रहो ते पर गुण धणों हेलि ॥३३
अथ स्थितिकरण अंग एक कथा रही इह, अवर वृत्तान्त हवे कहुँ हेलि। संस्थितिकरण जे अंग, श्री जिनशासनमें कह्यो हेलि ॥३४ सागरी अणगारी, धर्मथकी चलतो देखी हेलि । जिम किम रहे निज ठाम, स्थितिकरण ते गुण देखी हेलि ॥३५ मगध देश मझार, राजग्रही नयरी भलो हेलि । श्रेणिकनामें भूपाल, चेलणा राणी महासती हेलि ॥३६ धर्म अर्थ वली काम, त्रण पदारथ साधक हेलि । पाले समकित सार, जिन शासन आराधक हेलि ॥३७ तस बिहु जायो पुत्र, वारिषेण नामें रूअडु हेलि। रूप कला गणवन्त, संत सदाचार ने भलो हेलि ॥३८
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पदम-कृत श्रावकाचार
चौदसि करी उपवास, पोसह लेई ते वन गयो हेलि। रहियो कायोत्सर्ग धर्म ध्याने निश्चल मन रह्यो हेलि #३९ तिण समय एक साह, वसन्त क्रीडा करवा आवीयो हेलि.। श्रीकीर्ति तस नारि, तेह कंठे हार सोहावीयो हेलि ॥४० मगधसुन्दरि वेश्या हार, ते देखी मन क्षोभीयो हेलि। घर आवी ते नारि, विधू तस्कर ते लोभीयो हेलि ॥४१ मुझ तणों जोउ कंत, तो हार आणीनें मुझ देओ हेलि। सर्वकला ते निपुण, हार लेवा ते नीकल्यो हेलि ॥४२ .. परपंच करी यो हार, नयर मांहे लेई नीसर्यो हेलि । तब दीठो कोटवाल, हार तेज ते विमार्यो हेलि ॥४३ तब नावो ते चोर, तलरक्षक केडे गयो हेलि। जिहा छै श्री वारिषेण, हार मकी तिहां अदृश्य थयो हेलि ॥४४ कोटवाल तिणिवार, पद-आगलि हार देखीयो हेलि। विस्मय पाम्या धणुं तेत, वारिषेण कुमर पेखीयो हेलि ॥४५ राय-आगल कही बात, वारिषेण तुम्ह नन्दन हेलि। राते हरी लयो हार, कायोत्सर्गे रहिउ जइ वन हेलि ॥४६ तब कोप्यो भूपाल, विचार न कीयो दुर्मति हेलि । कुमार-भारिवा काज, मातंग मोकल्या भूपति हेलि ।।४७ ते आव्या कुमरनें पास, खडग घात कंठे भेदीयो हेलि । कुमर-पुण्य-प्रभाव, पुष्पमाल खडग कीयो हेलि ॥४८ तब हूओ जय जयकार, सुर-असुर पुष्पवृष्टि करे हेलि। बाजे दुंदुभि-नाद, साधु तणी महिमा हुई हेलि ॥४९ सांचो पुण्य प्रभाव, समुद्र ते गोष्पद थाइ हेलि । अग्नि जल, विष अमृत, शत्रु मित्र सम थाइ हेलि ॥५० राजा सुणी तब बात, परिवार-सहित ते आवीयो हेलि। प्रशंसा करे घणं भूप, धन धन्य तुम्ह गुण भावीयो हेलि ॥४१ धन्य धन्य तुझ मन्न, पुण्य प्रभाव देवे कीयो हेलि । विरासी ओ हैं अ मढ, विचार विना मि दंड दीयो हेलि ॥५२ जे जे मूढा जीव, काज विमासी करे नहीं हेलि। अर्थ हानि पश्चात्ताप, अपजस ते पामे बहु हेलि ॥५३ राय दीयो अभयदान, तब ते चोर प्रकट थयो हेलि। स्वामी हर्यो ए में हार, इहां मूकी हुं अदृश्य थयो हेलि ॥५४ तब ते हूओ परभात, भूप कहे कुमर सुणो हेलि। हवे आवो निज गेह, राज-सुख भोगवो घणों हेलि ॥५५ तब बोल्यो ते कुमार, राज सुख मुझ छे घणुं हेलि। अहार लेऊं कर पात्र, दीक्षा-सहित में नियम हेलि ॥५६
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श्रावकाचार-संग्रह
सहज क्षमावी स्वजन्न, सुरदेव गुरु वंदिया हेलि । छांडी परिग्रह भार, संजम लेइ आनंदिया हेलि ॥५७ वारिषेण हुआ मुनीश, तप जप करे ते ऊजलो हेलि । ध्यान अध्ययन अभ्यास, ग्रास प्रासुक ले निर्मलो हेलि ॥५८ पलासकूट एंह ग्राम, श्रेणिक मंत्री अग्निमित्र हेलिः । तेह पुत्र पुष्पडाल, सोमिल्ला नारी तणों पती हेलि ॥५९ वारिषेण एक बार, आव्यो पुष्पडाल घरे हेलि । प्रासु दीयो तेणें आहार, सोल गुण प्रकट करि हेलि ॥६० मुनि वोलावा ते जाय, बालमित्र मुनिवर केडे हेलि । जल-कुण्डी लेइ हाथ, नगर बाहर चाले जिम हेलि ॥६१ सरोवर देखाडे मित्र, आगे क्रीडा करता इहां हेलि । वली देखाडे अंब वृक्ष, सुख रमता आपणें इहां हेलि ॥६२ पाछो बलवा काज, भपड्यो मनोरथ करे हेलि । पुष्पडाल ते विप्र, सोमिल्ला नारी सूं स्नेह घरे हेलि ॥६३ मुनि चाले समभाव, न वि तेडि न वि रहो करे हेलि । आव्या निज गुरु पासि, नमोस्तु करी आगल रहे हेलि ॥६४ परसंस्थो ते पुष्पडाल, बाल मित्र गुण स्नेह घरे हेलि । दीक्षा देवारी गुरुपासि, उल्हास विना लाजि करी हेलि ॥६५ लाज काजि भय भाव धरे, धर्म काज कीजे सदा हेलि । पुष्पडाल तिणि वार, भार संजम लीयो हेलि ॥६६ तप जप करे मुनीश, ध्यान ज्ञान अभ्यास करे हेलि । द्रव्य दीक्षा पाले चंग, अन्तरंग सोमिल्ला साथे घरे हेलि ॥६७ बार वरस पूरा होइ, वारिषेण गुरु वीनव्या हेलि । सद्गुरु आज्ञा दीघ, तीर्थं जात्रा करते परठव्या हेलि ॥६८ वारिषेण पुष्पडाल, दोय मुनि विहार कर्म करे हेलि । आव्या समवसरण श्रीवीर, वंद्या भाव धरी हेलि ॥६९ धन धन्य तुम जिन स्वामी, काम बालापणें ते जीतियो हेलि । टाली करम सबल, केवल ज्ञार्ने गुण देखीयो हेलि ॥७० स्तवी बंदी वर्धमान, पुण्य उपार्जी वारिषेण हेलि ॥ बैठा मुनिवर कोष्ठ, धरम सुणें तत्क्षण हेलि ॥७१ इन्द्र- पूजित पद-पद्म, गन्धर्व देव स्तवे घणुं हेलि । गीत नृत्य वाजित्र, सराग शब्द मुनि सुष्यां हेलि ॥७२ तब चिते पुष्पडाल, बाला - विरह दुःख उपनों हेलि । त्यजबा संजम भार, विकार मुनि मनि नीपनों हेलि ॥७३ विचक्षण वारिषेण, निज मित्र मन जाणीयो हेलि । ल्याव्यो नयर मझार, चेलणा राणी घरि आणीयो हेलि ॥७४
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पदम-कृत श्रावकाचार
आवता देखी मुनि अकाल, चतुर चेलणा परीक्षा करे हेलि। वीतराग सराग, आसनं, मुनि ने धर्या हेलि ॥७५ वैरागें आसन मनि बैठा, चलणा आयी नमोस्त करे हेलि। गुरु देइ धर्म वृद्धि, वारिषेण बली उच्चरे हेलि ॥७६ चेलणा सुणों मुझ बात, अन्तःपुर बाणों मुझ तणों हेलि । धरीय सयल सिणगार, नारि बत्रीसे रूप घणों हेलि ।।७७ आवी ते सहु बाल, प्रणाम करी आगलि रही हेलि । देखाडी पुष्पडाल, विशाल वाणी गुरु कहे हेलि ॥७८ मित्र सुणो मुझ बात, युवराज तम्हें भोगवो हेलि। सहित सकल परिवार, सार सौख्य तमें जोगवो हेलि ॥७९ तब लाज्यो पुष्पडाल, एह वी रिद्धि गुरु परिहरी हेलि । अपछर-सरिखी एह वी नारि, सोय संपदा न वि अनुसरी हेलि ॥८० अल्प रिद्धि मुझ होइ, एक नारी नेत्रकाणी हेलि । तेह साथे हूँ धरू मोह, धिग ते रागी प्राणीयो हेलि ॥८१ हूँ अज्ञानी मूढ, प्रौढ़ बाला स्नेह जडो ले हेलि । दुःख देखे अपार, झूरि-भूरि घणूं रडोले हेलि ॥८२ तब ते कहे पुष्पडाल, तू धन धन्य गुरु निर्मलो हेलि। बार वरस में कीयो कष्ट, शल्य-सहित तप कसमलूं हेलि ॥८३ तब गुरु कहे सुणो वच्छ, दुःख जणित-मोह भजू हेलि। करम तणें विपाक, भाव विषम जीव ऊपजे हेलि ॥८४ जिन आगम अनुसार, प्रायश्चित्त गुरु आपीयो हेलि। विनय भक्ति-सहित व्रत शुद्धि मन थापीयो हेलि ।।८५ आवी बनहिं मझार, तप जप करे ते निर्मलो हेलि । संस्थितिकरण अंगसार, वारिषेण कीउ उज्जलो हेलि ॥८६
दोहा पुष्पडाल व्रत थापिओ, वारिषेण मुनिराय : धर्म-स्थितिकरण तेणें को धन्य दे गुणराय ॥१ नागश्री नारी निर्मली, प्रति बोधी निज कंत । व्रत स्थितिकरण तिणे कीयो, पाल्यो धर्म महंत ॥२ तेह कथा तुमें जाणज्यो, जंबु कुमार चरित्र । भवदेव भावदेव तणी, विस्तार-सहित पवित्र ॥३
धर्म स्थितिकरण जेणें कियों, साहाय करी गुण धार । सुर नर सुख ते भोगवे, ते पाम्या भव-पार ॥४
अथ वात्सल्य अंग । अथ ढाल वाच्छल्ल अंग हवे कहीइ, साधर्मी तणों विनय वहीइ, लहीइ शासन धर्म ॥१ जती व्रती साधर्मी जेह, तेह साथे धरो शुभ स्नेह, जिम प्रीति गोवच्छ तेह ॥२ साधर्मी तूं म करो रोस, कहीनें न वि दीजे दोस, संतोष धरो सहुं साथे ॥३ वाच्छल्ल अंग केणि पाल्यो जिनशासन माहे आल्यो, विष्णु वृत्तान्त सांभल्यो॥४
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श्रावकाचार-संग्रह भरत क्षेत्र मझार अवन्ती देश, उज्जेणी पुरी श्री ब्रह्म नरेश, श्रीमती रानी तणु ईशा ॥५ बलि वृहस्पति नाम प्रधान, प्रल्हाद, नमुचि अभिधान, ए चार मंत्री राजान ॥६ राजा छै जिनधर्मी सार, मिथ्यादृष्टि मंत्री गभार, सर्प व्याघ्र वदन जिम फार ॥७ नगर तणां उद्यान मंझार, आव्या अकम्पन गुणधार, सात से मुनि परिवार ॥८ सहि गुरु कहे ते ज्ञान भण्डार, संघाष्टक सहुं सुणो भवतार, मौनि रहिज्यो इणि वार ॥९ कवण साथे बोलो जे सार, तो होसे सही संघार, गुरु आज्ञा मुनि धार ॥१० गुरु-आज्ञा माने नहीं जेइ, कुत्सित शिष्य जाणों तमें तेह, जनक पीड़ा कुमित्र ॥११ नयर जन गुरु वंदन जाइ, देखी पूछे मंत्री राइ, कवण काजे पुर जन्न ॥१२ वलतुं बोले मंत्री ते वाणि, स्वामीने गुरु आव्या जाणि, निग्रन्थ गुरु गुण खानि ॥१३ तब राजाने आपनों भाब, गरु वंदं भव-सायर नाव, सजन सहित भप चाल्यो ।।१४ केता रहीया ऊभा लेइ ध्यान, केता बैठा मन शभ स्थान, निश्चल मेरु-समान ॥१५ गुरु देखी हरष्यो भूपाल, प्रत्येक प्रत्येक वंद्या गुणमाल, सीस न कहो तिणि वार ॥१६ वंदी स्तवी जाइ तिणी वार, तब ते मंत्री करे अहंकार, जाणे मुनि नहि कांई विचार ॥१७ आवतो साम्हों दीठो मुनि ऐक, मंत्री न जाणे कांइ विवेक, उदर पूरी आव्यो विशेष ॥१८ तब मुनि बोल्यो स्याद्वाद, वाद करोओ तास्यों वाद, मंत्री पाम्या विषवाद ॥१९ मुनि आवी गुरु बंद्या जैवन्त, वाद तणु कहियो वृत्तान्त, रुडु न कीयो वच्छसंभ ॥२० जइ रहो तमें वादने ठाम, तो टले उपसर्ग उद्दाम, सयल मुनि गुणग्राम ॥२१ श्रुतसागर तब पाछो जाय, वाद स्थाने रही निश्चल थाय, मेरु समी निज काय ॥२२ तब आव्या रात्रे परधान, मिथ्यादृष्टि ते अज्ञान, मूढ धरे बहु मान ॥२३ कभो रहियो ते मुनिवर देखी, क्रोध धरे ते अवरउ वेषी, तीखी खडग तणी धार ॥२४ मुनि मारेवा मंत्री चार, खडग घात दीया एकी वार, मुनि कंठे दुःखकार ॥२५ मुनिवर स्वामी पुण्य-प्रभावे, आसन कंपे पुर देव ते आवे, सार्यां काज गुण भावे ॥२६ ऊर्ध्व हस्त खडग मंत्री म्या, प्रभात समय देखी लोक अचंम्या, दुर्वचने मंत्रो क्षोभ्या ।।२७ समंध सुणि आव्यो सिहां राय, मंत्री देखि कोप तसथाम, प्रणमी रया मुनि पाय ॥२८ भप कहे मंत्री तमों इष्ट, कांइ अपराध कीयो कनिष्ट; हवे करू निज राज भ्रष्ट ।।२९ देव खमी मुकाव्या मंत्री, अधम विप्र मारे किम क्षत्रो, शत्रु पणे कृपा ऊपजी ॥३० सांचा नर जे होइ साध, ते क्षमें पर-तणु अपराध, केहने करे नहीं बाध ॥२१ अग्नि दहन्ते अगर हरिचन्दन, सुगन्धवास करे मन नन्दन, तिम सज्जन सहतो वेदन ॥३२ अ विधि पुरी बैठा गुणधार, सुर नर वंदि करे जयकार, धर्म वृद्धि कही भवतार ॥३३ भूपे मंत्री दंड बहु दीयो, निभ्रंछन विडंबन कीयो, देश छेह करी धन लियो ॥३४ तुरत पाप लागो परधान, राजभ्रष्ट थया अपमान, पाम्या दुःख निधान ॥३५ मुनिवर स्वामी क्षमा भंडार, परीषह जीती सोहता संघ मझार, घर गया जन परिवार ॥३६ कुरुजांगल नामे शुभ देश, हस्तिनगर महापद्म नरेश, लक्ष्मीमतो नारी जीवेश ॥३७ पुत्र दोय हुअ पद्म बिष्णु नाम, रूप कला यौवन गुणग्राम, अनुभवे सुख उद्दाम ॥३८ महापद्म पाम्यो वैराग, पद्म राज थापी कर्यो संग त्याग, सांचो संत शिव राग ॥३९ वन जाय वंद्या श्रुत मुनिसागर, दीक्षा लीधी महिमा आगर, सहित विष्णु कुमार ॥४०
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पदम-कृत श्रावकाचार गजपुर आव्या ते अपराधी, मंत्री पदम सेवा आराधी, परधान पदवी तिणे साधी ॥४१ पद्म भूप सभा एक बार, झांख्यु देखो पूछे मंत्री चार, कवण चिंता मन अपार ॥४२ भप कहे सुणो परधान, चिता कारण दु ख निदान, वैरी धरे एक मान ॥४३ कुम्भ नयर सिंहरथ भूपाल, गढ़ तणुबल पामी विकराल, मानें नहीं आज्ञा विशाल ॥४४ आदेश लेय चाल्या परधान,हय गय रथ पायक संधान, परपंचे गया अरि स्थान ॥४५ बुद्धि बलें वैरी जीति आब्या, सिंहरथ आणि आण मनाव्या, पद्म मनें मंत्री भाव्या ॥४६ पद्म भूप कहे हवे हूं तुष्ट, मंत्रो मांगो मन अभीष्ट, बलि कहे वलतु विशिष्ट ॥४७ स्वामी वर भंडार ते थापो, ज्यांरे मांगू त्यारे मुझ आपो, इम कही बोल जस व्यापो ॥४८ हस्तिनागनयर तणा तेणे वन्न, संघ सु आव्या सूरि अकंपन्न, जाणि क्षोम्यो मंत्री मन्न ॥४९ मुझ तणा छ रिपुनी एह, मान भंग अम्ह कीधो जेह, हवे दुःख देन बहु तेह ॥५० वर मांग्यो आवि भूप पासे, सात दिन रहो नारी वासे, राज देय सारो मुझ काजे ॥५१ पद्म आप्यो वरदान, राज करे ते बलि परधान, राणीवासे रहे राजान ॥५२ बलि मंत्री उपज्यो कोप, मुनि तणों हवे करुं हु लोप, ऊपर कीयो मंडप रोप ॥५३ मुनि पाषल कीधी बहवाडि, चरम रोम घाल्या घणा हाड, कलेवर कोधी तस आड ॥५४ मुनि मारिवा तणो ते काज, नरमेध मार्यो तिणे राज, वैरीतणों करे काज ॥५५ अग्नि धूम आकाशें व्याप्यो, यती वर निश्चल काउसग्ग थाप्यो, जिन ध्यान मन व्याप्यो ॥५६ अनशन लीधी दोइ प्रकार, जो जीवसुं तो लेसु आहार, न हि तो प्राण परिहार ॥५७ तिणि अवसरें मथुरा नयर, सागरचन्द्र छे ते मुनिवर, तिहां आव्या वसति दुआर ॥५८ कंपतो देखी श्रवण नक्षत्रे, निमित्त जोइ ते अवधि नेत्रे, खेद करे मध्य रात्रे ॥५९ तब पूछे ते ब्रह्म पुष्पदंत, खेद किस्युं करो भगवन्त, गुरु कहे सुणो वच्छ तुरन्त ॥६० हस्तिनाग नयर उद्यान, सात से मुनिवर छ गुणभान, उपसर्ग करे बलि परधान ॥६१ कवण परें उपसर्ग ति जाय, ते स्वामी मुझ करो उपाय, विद्याबल मुझ थाय ॥६२ गुरु कहे गिरि धरणीभूषण, तिहां मुनि रह्यो विष्णु महन्त, विक्रिया रिद्धि शुभ लक्षण ॥६३ तब वेगे चाल्यो ब्रह्मचार, वन जाय वंद्या विष्णुकुमार, भेद कह्यो मुनि संघार ॥६४ उत्पन्नी न जाणे वैक्रिय रिद्धी विष्णु मुनि परीक्षा तस कीधी, कर पूरी हुए मन शुद्धी ॥६४ राज प्रतें चाल्यो विष्णु कुमार, रात समय आव्या घर द्वार पर्दो कीधो नमस्कार ॥६६ विष्णु कहे पद्म तूं परम, कांइ अपराध माड्यो नीच करम, न जाणों स्वामी हु मर्म ॥६७ पद्म भूप कहे सूनो मझ वाणी, वरदान आप्यो में अजाणी. हवे कसं करूं तुम वाणी ॥६८ तब विष्णु विप्रवेष लीयो, वैक्रिय वामन रूप ते कीयो, आवी आसीस बलिने दीयो ॥६९ बलि राज बोलै तस वाच, जे मांगो ते आपुद्विज राज, मन वांछित करो सांच ॥७० वामन कहे सुणो भूप तुम्हो, त्रण कदम भूमि मांगू अम्हो, अवर न जांचूं अम्हो ॥७१ अवर हंसि बोल्यो तिन वार, एहवो स्युं जांच्यो वृममध गमार मांगो अर्थ भंडार ॥७२ उदक-सहित वाणी कहि थापी, त्रण कदम भूमि तस आपी, सर्वसाखे परतापी ॥७३ वामन वैक्रिय देह तस कोधो, एक चरण मेरु मस्तके दीधो, मानुषोत्तर दूजे पाय लीधो ॥७४ श्रीजो पद ऊंचो करि उद्यम, तोली रहियो ते मांगे ठाम, बलि पूठी दीयो ताम ॥७५ तब बलि खेद खिन्न बहु कीयो, स्वजन सहित मुनि शरण ते लीयो, तब अभयदान सहुं दीयो ॥७६
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श्रावकाचार-संग्रह सकल मुनि टाल्यो उपसर्ग, जय जयकार करे सुरवर्ग, गर्भ वा अण उतारे अर्घ ७७ प्रगट थया मनि विष्णुकुमार, क्षमी क्षवामो सहु परिवार, कीयो वात्सल्य गुणधार ॥७८ सात सौ मुनिवर कीधो रक्षण, जाय गुरु वंद्या देय प्रदक्षिण, प्रायश्चित्त लीयो व्रत ततक्षण ॥७९
. दोहा वात्सल्य अंग ते पालीयो, विष्णु कुमार भवतार। ध्यान धरी कर्म निर्जरी, पहुँचा मोक्ष दुआर ॥१ वज्रकरण भूप तणों वाच्छल्ल कीयो श्रीराम । कुल देश भूषण तणों, टाल्यो उपसर्ग उछाम ।।२
जलतां मुनिवर राखीया, कन्या सहित वनहिं मझार ।
सृधि जातां सीता तणी, वाच्छल्ल हनुमंत कुमार ॥३ तेह कथा तुम्हें जाणज्यो, पदम-चरित्र मझार । अवर जीय बहु आदर्यो, ते किम कहियो जाय ॥४
साधर्मी श्रावक मुनि तणों, वाच्छल्ल करे जब जेह ।
सुर नर सुख ते भोगवी, पामे शिव-सुख तेह ।।५।। जती व्रती गुणि जीवसू, रोष धरें जे मूढ । मत्सर पणे माने नहीं, ते दुख देखे प्रौढ ॥६ इम जाणिय भवियण सदा, वात्सल्य करो गुणधार । जिन सेवक पदमो कहे, ते पामे भवपार ॥७
आठमों प्रभावना अंग। ढाल हिंडोलानी प्रभावना अंग कीजिए, जिन शासन प्रभाव। प्रासाद प्रतिमा प्रति प्रतिष्ठा करी, हिंडोल डारे. ज्ञान, दान तप भाव ॥१ प्रभावना अंग केणे कीयो. कथा कहें अब तेह। वज्रकुमार मुनि तणी, हिंडोलडा रे, प्रसिद्ध कीधो गुण जेह ॥२ हस्तिनाग नयर भलो, बलिनामें भूपाल। गरुड पुरोहित छै तेह तणों, हिंडोलड़ा रे, सोमदत्त पुत्र विशाल ॥३ वाद शास्त्र ते बहु पठ्यो, चाल्यो द्विज सोमदत्त। अहिछत्र नयर ते आवीयो. हिंडोलडा रेसभति मित्र विद्यामत्त ॥४ परहणावार मामें कीयो, सोमदत्त कहे सूणो बात । दुर्मुख भूप मुझ मेलवो, हिंडोलडा रे, जिम पामू बहु ख्यात ।।५ विद्यामदे ते मातुल, माने नहीं तस वाणि, उपाय रची भृप भेटीयो हिंडोलडा रे, आपणपे बुद्धि जाणि ॥६ वाद करी ते बुद्धिबले, राजसभा मझार । संस्कृत वचन ते उच्चरी, हिंडोलड़ा रे, अवर मनाव्या द्विज हार ॥७ विद्वान सोमदत्त जाणीइ, राय थाप्यो परधान। सांचे ज्ञान गुण अति बले, हिंडोलडां रे, विप्र पाम्यों बहुमान ।।८ सोमदत्त तिणें मातुले, सुभति तिणी वार । जज्ञदत्ता कन्या रुआडी, हिंडोलडा रे, परिणावी तिणि सार ॥९ सोमदत्त ते सुखे रहे, नारी उपनो ते गर्भ। डोहलो हुओ आम्रफल तणो, हिंडोलड़ा रे, बरषा काले ते दुर्लभ ॥१० आम्रफल जोवा चालीयो, सोमदत्त वनहं मझार। सफल आंबो एक देखीओ, हिंडोलडा रे, विस्मय पाम्यो अपार ॥११
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पदम-कृत श्रावकाचार
आम्रतरु तले रहिया, सुमित्र सूरी योगवन्त ।
ऋद्धि प्रभाव तरु फल्यो, हिडोलडा रे, निज मन वांछे द्विज सन्त ॥ १२ आम्रफल लेइ मोकल्या, सेवक साथै निजगेह |
आ आस्वादी ते कामिनी, हिंडोलडा रे, संतोष पामी तब देह ॥१३
सोमदत्त वैराग हुआ, अथिर जाण्यो संसार !
संग छांडी गुरु वीनवी, हिडोलड़ा रे, लीघू ते संयम भार ॥१४
ध्यान अध्ययन तप आचरे, धर्मो आतापनयोग |
नाभिगिरि मस्तक रूमडो, हिडोलडा रे, कायोत्सर्ग लीयो ध्यान भोग ॥१५
जज्ञदत्ताइ पुत्र जाइनुं संबंध कीउ गुरु भ्रांत ।
आदी मुनिपद ऊपरें, हिंडोलडा रे, बाल मूकी कहे बात ॥१६
ए पुत्र कंत तुम्ह तणुं, माहरे नथी कांइ काज ।
रोस धरी धरि ते गई, हिंडोलडा रे, नारी निर्गुण नहीं लाज ॥१७
तिणें समय रूपाचली अमरावती पुरी ईश ।
दिवाकर देव पुरन्दर, हिंडोलडा रे, सहोदर घर विद्वेष ॥ १८
पुरन्दरा विद्याबले, जुद्ध कीये ज्येष्ठ भ्राति साथ ।
नयर मूकी नीसरी गयो, हिंडोलडा रे, दिवाकर दिवाखग नाथ ॥१९
यात्रा करतो आवीयो, मुनि भेंटया सोमदत्त,
बालक देखि अचंभियो, हिंडोलडा रे, वज्र कुमार नाम दीयो सत्य ॥ २० विद्याधर इम वोलीयो, निजनारी सुं सार ।
ए बालक, तुम्हें लेयो, हिंडोलडा रे, रूप कला गुणधार ।। २१ कनक नयर ते आवीयो, विमल वाहन करे राज ।
ते सालो ते खगतणों, हिंडोलडा रे, सुखे रहि करे राज ॥२२ अनुक्रमें पुत्र मोटो थयो, विद्या साधी तिण वार ।
रूप कला यौवन भरे, हिंडोलडा रे, सोहें ते वज्रकुमार ॥२३ गरुड वेग विद्याधर, गर्गावती तस नार ।
बस तणी कूंखे उपनी, हिंडोलडा रे, पवन वेग कुमार ॥ ३४ ह्रीमन्त भूधर, मस्तके, विद्या साधी ते बाल ।
प्रज्ञप्ती नामें भली, हिंडोलड़ा रे, मंत्र जपे सकुमाल ॥२५ बदरी कंटक वाइ पयुं, कन्या नयन मंझार ।
चित्त चले नेत्र गले, हिंडोलड़ा रे, पांवे नहीं नमोकार ॥२६
रमतो कुमार ते आवीयो, ते कन्या तिणि पास ।
विज्ञानी शल्य जाणीउ, हिंडोलडा रे, कंटक दीयो निकास ॥२७
कन्या ध्यान जब लागीयो, विद्या हुई तस सिद्ध ।
कन्या कहे कुमार धन्य, हिंडोलड़ा रे, तुम्ह पसाय विद्या रिद्ध ॥२८ कन्या कहे अवर वरूं नहीं, तुं मुझ हुने भरतार |
भाव जाणी महोच्छव करी, हिंडोलड़ा रे, कन्या वरी वज्रकुमार ॥२९
३७
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श्रावकाचार-संग्रह विद्या बले ते चालीयो, जुद्ध करवा तिणि काज। काको जीति राज लीयो, हिंडोलड़ा रे, तात थापु निज राज ॥३० राय राणी सुं रंगे रहे, बहु अर सहुँ परिवार । जया राणी इच्छा करे, हिंडोलड़ा रे, देखी ते वज्रकुमार ॥३१ ए छतां मुझ पुत्रनें, राज तणुनहीं भार। इम जाणिय रोषज धरे, हिंडोलड़ा रे, धिग् धिग् लोभ असार ।।३२ कवण पुत्र ए जन्मीयो, कहि ने करे संताप । कुमर सुणी विस्मय हुओ, हिंडोलड़ा रे, पूछयो ते निज बाप ॥३३ तात मुझ सांची कहो, कहि तणों पुत्र संत । नहिं तो हुँ जीमूं नहीं, हिंडोलड़ा रे, तातें कहो रे वृत्तान्त ।।३४ सयल संबंध सांभली, चाल्यो वज्रकुमार। निज तात गुरु वंदिवा, हिंडोलड़ा रे, साथे खग-परिवार ॥३५ मथुरा नगरी आवीया, क्षत्रिय गुफा मझार । सोमदत्त गुरु वंदीया, हिंडोलड़ा रे, बैठा तिहां वज्रकुमार ॥३६ धर्म कथा रस सांमली, पूछ्यो निज वृत्तान्त । सकल सम्बन्ध ते गुरु कयो, हिंडोलड़ा रे, जनम आदि पर्यन्त ॥३७ सह गुरु कहे वच्छ तमें लेउ ते संयम-भार । गुरु वचनें संग छांडियो, हिंडोलड़ा रे, दीक्षा लीधी वज्रकुमार ॥३८ अवर सजन बहु घरि गया, मुनि करे शास्त्र-अभ्यास । सम दमे संजम आचरे. हिंडोलड़ा रे, तप जप करे गुरु पास ॥३९ मथुरा नयरी तणों धणी, पूत गन्ध भूप नाम । अचिणा (उर्मिला) राणी तस तणी, हिंडोलड़ा रे, दान पूजा गुण ग्राम ॥४० सागर दत्त श्रेष्ठी वसे, समुद्र दत्ता नारी नाम । दरिद्रा नामें पुत्री हवी, हिंडोलड़ा रे, दारिद्र दुख तणो ठाम ॥४१ पुत्री जब उरे अपनी, मरण पाम्यो तप बाप । धनसूकुटुम्ब क्षय गयो, हिंडोलड़ा रे, धिग धिग कर्म कुपाप ॥४२ दुःख देखीतें वृद्धि थई, कुत्सितई लेवे आहार । क्षुधा पीड़ी पर धरि भमे, हिंडोलड़ा रे, दीन दारिद्र कुमारि ॥४३ दोय मुनीश्वर संचर्या, लघु मुनि कहे तिणी वार । ए वर की कष्टे जीवे, हिंडोलड़ा रे, धिग धिग पाप अपार ॥४४ ज्येष्ठ मनि तब बोलियो, वच्छ सुणों मुझ बात। पट्टराणी होसे भूपतणी, हिंडोलड़ा रे, पामिसे ए बहु ख्यात ॥४५ भिक्षा काजे वन्नक भमें धर्मश्री तस नाम । मुनि-वयण निश्चय करी, हिंडोलडा रे, ते लेइ गयो निज ठाम ॥४६ अन्न पान मिष्ट देई, पुष्टि पमाडी ते बाल। वस्त्र आभूषण आपीया, हिंडोलड़ा रे, यौवन थई गुणमाल ।।४७
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पदम-कृत श्रावकाचार हरषि हिंडोले हिचली, वसन्त क्रीडा चैत्र मास । प्रतिगन्ध भूपें दीठी, हिडोलड़ा रे, उपनो राग-भिलाष me भूपे मंत्री मोकल्यो, कन्या जांची निजकाज। बुद्ध कहे भूपति सुणो, हिंडोलड़ा रे, जो धर्म लेय बुद्धराज ॥४९ तो कन्या तुम्हनें देऊं, न हीं तो करो संतोष । मूढ भूपे बोल मानीयो, हिंडोलड़ा रे, अर्थी न देखे दोष ॥५० चिन्तामणि तिणे परिहरी, राय लीयो तब कांच। सत्य धर्म जिन-भाषित, हिंडोलड़ा रे, किंहा मन बौद्ध असांच ॥५१ महोच्छव करि कन्या वरी, राय गयो निज घरि सार । पट्टराणी पद थापियो, हिंडोलड़ा रे, आपी स्त्री-सिणगार ॥५२ अचिला राणी भूप तणी, सदा करे जिन धर्म । नन्दीश्वर अष्ट दिन, हिंडोलड़ा रे, रथ जात्रा करे परम ॥५३ आषाढ़ कार्तिक फागुण, वरस व्रते त्रण वार । रथ ऊपर जिन बिम्ब धरि, हिंडोलड़ा रे, महोच्छच करे गुणधार ॥५४ अचिला तणों रथ देखी ने, बुद्धि राणी करे कोप। प्रथम रथ चाले मुझ तणों, हिंडोलड़ा रे, देव छै सारी बुद्धदेव ।।५५ अचिला कहे पहिलो मुझ तणुं, जो चाले रथ सार । तब ते करूं हुं पारणों, हिंडोलड़ा रे, नहीं तो नियम-आहार ॥५६ क्षत्रिय गुफा जाइ वंदिया, मुनिवर श्री सोमदत्त । अनशन मांगे निर्मलो, हिंडोलड़ा रे, मुनि पूछ्यो सयल वृत्तान्त ॥५७ तिणि अवसरि गुरु वन्दिवा, याव्या दिवाकर देव।। वजकुमार भणे, खग सुणो, हिंडोलड़ा रे, अचिला सहाय करो देव ।।५८ तब खेचर विद्याबलें, बुद्धि-रथ कीयो ध्वंस।। मिथ्याती मान चूरीयो, हिंडोलड़ा रे, तिमिर उगे जिम हंस ॥५९ रथ चाल्यो अचिला तणों, तब हुओं जय जयकार। जिन बिम्ब रथ आगे हुओ, हिंडोलड़ा रे, गीत बाजे अपार ॥६. जिन शासन प्रभावना, अचिला जस विस्तार । राय राणी ते जैन हुआ, हिंडोलड़ा रे जिन धर्म करे भवतार ॥६१ प्रत्यक्ष महिमा देखी ने, लोक करे जिन धर्म। . मिथ्यात-विष सहु परिहरी, हिंडोलड़ा रे, निश्चय आणी मत परम ॥६२ वजकुमार ते इणी परे, कीयो प्रभावना अंग। सहाय कीयो अचिला तणों, हिंडोलड़ा रे दिवाकर देव प्रसंग ॥६३ निज शक्ति प्रगट करी, शासन करे जे उद्धार । सुर नर वर पदवी लही, हिंडोलड़ा रे, ते पामें भव-पार ॥६४ जिणे किणे उपाय करी, शासन करी प्रभाव! समकित अंग सुद्धों धर्यो, हिंडोलड़ा रे, ते होई भवोदकि-पार ॥६५
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पावकाचार-संग्रह शासन दोष जे कचरे, जिन-महिमा करे लोप । ते मूढ मिथ्यात्वीया, हिंडोलड़ा रे, भव-भव लहे कष्ट कूप ॥६६ जिणे जिणे जीवे कीयो, माहातम जिन शासन । संसार-दुःख दूरे करी, ते पाम्या मोक्ष भविजन हिंडोलड़ा रे ॥६७
वस्तु छन्द प्रभावना अंग, प्रभावना अंग घारो भवियण अनुदिन । वज्रकुमार मुनिश्वर कीयो, शासन विलास तणों मनोहर । सुर नर सुख ते भोग वें अनुक्रमें पामें शिव निर्भर ।। आठों अंग करि अति बलो, पालें जे समकित सार । जिन-सेवक पदमो कहे, धन धान्य ते अवतार ॥६८
__-अथ ढाल नरेसुआनी समकित गुण इम वर्णवीए, नरेसुआ, प्रतिमा सुणों हवे भेद। दर्शन नामें निर्मली ए, नरेसुआ, जिम होय कर्म-तणों छेद ॥१ सात विसन दूरे टाली ए, नरेसुआ, पालीये अष्ट मूल गुण । श्रावक सर्वक्रिया माहीए, नरेसुआ, दर्शन धारो निपुण ॥२ द्यूत मांस सुरा पान ए, नरेसुआ, वेश्या संग आखेट । चोरी पर नारी सेवा ए, नरेसुआ, सप्त विसन पाप मूल ॥३ जूआ खेलें योगी थया ए, नरेसुआ, पांडव हुआ राज्य-म्रष्ट । द्यूत व्यसन दुख देइ एं, नरेसुआ, प्रथम नरकनें कष्ट ॥४ मांस-लोलुयी पाप करे ए, नरेसुआ, जीव तणां संधार । वक राजा ए बापडो ए, नरेसुआ, दुर्गति सहे दुख भार ॥५ मद्यपान मति विहवल ए, नरेसुआ, न वि जाणे हेया हेय । नयर सुं यादव क्षय गयो ए, नरेसुआ, मित पामी मद्य एह ॥६ वेश्या संगे पाप उपजे ए, नरेसुआ, अर्थ-हानि, जाय लाज। चारुदत्त चंचल पणे ए, नरेसुआ, हार्यो निजघर-काज ॥७ आहेंडे आरम्भ घणो ए, नरेसुआ, पशु अतणों विणास । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ए. नरेसुआ, सातमी नरक-निवास ।।८ चोरी व्यसन पातक घणा ए, नरेसुआ, विह लहे पर बंध। शिवभूति तापस आदि ए, नरेसुआ, पाम्यों दुःख तणो कंध ॥९ परनारी दूरे तजो ए, नरेसुआ, तेहथी होइ महापाप । रावण धवल शोष्ठि ए, नरेसुआ, सही ते नरक-संताप ॥१० धूत व्यसन पहिलो नरक ए, नरेसुआ, मांस बोजो श्वभ्र जाण। मद्यपान तोजी नरक ए, नरेसुआ, वेश्या-सेवे चौथी जाण ॥११ आहेडे पांचमी नरक ए, नरेसुआ, चोरी कीधे छट्ठी जाय । पर नारीइ सातमी नरक ए, नरेसुआ, पंचविध दुःखते थाय ॥१२
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पदम-कृतश्रावकाचार
सप्त व्यसन-सम सात नरक ए, नरेसुबा, न वि जाणे हेयाहेय। जुजूआ सेवे जेह एके विसनें करी नरेसुबा, दुख देखे बहु तेह ॥१३ एक व्यसनिजो नरक हुए नरेसुबा, सातें से जे सात। तेहना दुःखनों पार नहीं ए. नरेसुआ, किम कही जाय ते बात ।।१४ उत्तम वंशे जे उपजी ए, नरेसुआ, व्यसन सेने जे मूढ । लाधू चिन्तामणि जे त्यजी ए, मरेसुबा, नीच गति पामें ते प्रौढ़ ॥१५ इम जाणिय विजन तुम्हो ए, नरेसुआ, जो सुख वांछो देह । तो बिसन सहु परिहरो ए, नरेसुआ, घण सू कहिए वलि तेह ॥१६ अष्टमूल गुण हवे सुणो ए, नरेसुआ, मद्य, मांस मधु त्याग। ऊंबर बड़ कठुबरी ए, नरेसुआ, पीपल पीपरी कुराग ॥१७ मद्य माहे जीव बहु मरें ए, नरेसुबा, मद्य पीधे नहीं सान । दुःख दुर्गति होइ ए, नरेसुआ, पापी मद्य कुपान ॥१८ एक बिन्दु मद्य तणा ए, नरेसुआ, थाह जो जीव विस्तार । त्रैलोक्य मांहि मावे नहीं ए, नरेसुआ, किम कह्यो जाइ पाप विस्तार ॥१९ अथाणा संधाणा त्यजो ए, नरेसुआ, अनन्त जीव रस काय । कुली निगोद बहु ऊपजे ए, नरेसुथा, शास्त्र कही, ते किम खाय ॥२० दिन विहुं पूठे दही छांछ ए, नरेसुबा, वासी न स्वाद-रहित । आछण फूली वस्तु त्यजो ए, नरेसुआ, मद्य-नेम-सहित ॥२१ मांस-भक्षण दूरे त्यजो ए, नरेसुबा, मांस मरे बहु जीव । जिह्वा लंपट पापी मा ए, नरेसुबा, अधोगति पाडे ते रीय ॥२२ चर्मेघाल्या घत तेल ए. नरेसआ. जल हींग सरस वस्त। सरसव शुल्वां धान त्यजो ए, नरेसुबा, दोषते मांस समस्त ॥२३ चर्म-जोगे जल रस थकी ए, नरेसुआ, उपजें जीबते सूक्ष्म । सूर्यकान्त चन्द्रकान्त मणि ए, नरेसुआ, अग्नि जल झरे तेम ॥२४ चर्म पात्रे जल त्यजो ए, नरेसुबा, शौच कर्म नहिं योग्य । तो स्नान तिणे किम कीजिए, नरेसुआ, किम पीजे जल अभोग्य ॥२५ जीव इंड थी उपनो ए, नरेसुबा, म्लेच्छ ते चर्वित जाण । मधु भक्षे सूग ऊपजे ए. नरेसुआ, नीपजे बहु जीव हाणि ॥२६ सात गाम वाले जेतलु ए, नरेसुबा, तेतलं पाप होइ ताम।। मधु बिन्दु एक भक्षण करे, नरेसुआ, लोक-प्रसिद्ध एक भाष ॥२७ शरीर धाय व्रण आदि ए, नरेसुबा, नेत्र करण अयोग्य । औषध काजे मधु त्यजो ए, नरेसुआ, कीजे नहीं ते प्रयोग ॥२८ पत्र पुष्प शाका त्यजो ए, नरेसुआ, विहु घडी पूढे नवनीत । काचु दूध नीर त्यजो ए, नरेसुआ, भागी नेम-सहित ॥२९ काचा गोरस-मिश्रित ए, नरेसुआ, त्यजो ते द्विदल अन्न। वरसाले अन्न ढल्यां ना ए. नरेसुबा त्यजो ते जिन मांसी मन्न ॥३१
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श्रावकाचार-संग्रह श्रावक व्रत तरुतणां ए, नरेसुआ, पीठ बंध गुणमूल । यत्न करो घणुं ते तणों ए, नरेसुआ, दृढपणे अनुकूल ॥३१ सप्त व्यसनं जे परिहरे ए, नरेसुआ, धरे जे मूलगुण अष्ट । प्रथम प्रतिमा ते सहित ए, नरेसुआ, दर्शन नामी अभीष्ट ॥३२ जल गालण भेद सुनो ए, नरेसुआ, हृदय थई सावधान । जे जाण्या विण जीवने ए, नरेसुआ, हए ते बह परिज्यान ||३३ गाढो नूतन चीरज ए, नरेसुआ, दीर्घ अंगुल छत्तीस । दुगुणो चीर ते कीजिए ए, नरेसुआ, विस्तारे चौवीस ॥३४ विहु-विहु घड़ी इ जल गालिए, नरेसुआ, दिन पर ते विहु-वार । कोमल परिणाम कीजिए ए, नरेसुआ, जीव जल गुणधार ॥३५ जल-बिन्दु एक मांहि ए, नरेसुआ, असंख्यात जीव होय । भमर जेम बड़ो जो थाइ ए, नरेसुआ, त्रैलोक्य न वि माइ सोय ॥३६ अणगल नीर किम पीजिइ ए, नरेसुआ, जीव तणों होइ भक्ष । त्रस भक्ष जो कीजिए, नरेसुआ, तो किम मूल गुण दक्ष ॥३७ काचो नीर न पीजिइ ए, नरेसुआ, पाणी गल्यो तत काल । पवित्र भाजने ते घालिइ ए, नरेसुआ, मांहे न रहे पंक-सेवाल ॥३८ बेहडा कसेलो कुछठ ए, नरेसुआ चूर्ण करी पवित्र । अधिको ऊनो न वि मूकिइ ए, नरेसुआ, निरति करीइ विचित्र ॥३९ वर्ण रुडो जब देखिइ ए, नरेसुआ, तब ग्राहीये ते नीर । प्रासुक जल जले करो ए, नरेसुआ, प्रमाद छांडी सरीर ।।४० गल्या जल प्रासुक पछे ए, नरेसुआ, प्रासुक पहर ते दोय । अतिउष्णं आठ पहर लगे ए, नरेसुआ, पच्छे अ सम्मूच्छिम होय ।।४१ अनगल स्नान न कीजिइ ए, नरेसुआ, न वि धोइ ए ते वस्त्र ! साबु जो जल माहे पडे ए, नरेसुआ जलचर ने शस्त्र ॥४२ इम जाणि जल-जत्न करो ए, नरेसुआ, जीव-जत्ने दया होय । जिहाँ दा तिहाँ धर्मज ए, नरेसुआ, धर्म निहाँ सुख जोय ॥४३ धर्मे सुर नर वर पद ए, नरेसुआ, धर्मे मनवांछित सुक्ख । ऋद्धि वृद्धि बुद्धि घणी ए, नरेसुआ, धर्मे अनुक्रमे मोक्ष ॥४४ पाणी प्रमादे गाले नहीं ए, नरेसुआ, जत्न न करे जे सार । ते पापी अज्ञानि जीव ए, नरेसुआ, भमें ते भवहिं मझार ॥४५ पाप फलें नरक पशगति ए. नरेसआ. नर नारी निरधार। हीन दीन दलिद्री देखिए, नरेसुआ, पापे पर-वश गवार ॥४६ बहिरा बाडा बोबडा ए, नरेसुआ, खंज पग मुका जेह । अधम विष वियोगीआ ए, नरेसुआ पाप तणां फल एह ॥४७ इम जाणी सावधान हो ए, नरेसुआ जो सुख वांछो देह । तो जल जल सदा करो ए, नरेसुआ, धणुं सुं कहिए तेह् ॥४८
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पक्षम-कृत श्रावकाचार रात्रि भोजन दूर करो ए, नरेसुमा, भेद सुणो हवे तेह । सूर्य उग्यां घड़ी विहुँ पुठे ए, नरेसुआ, भोजनकाल छै तेह ।।४९ दिवस दोय घड़ी जब होय ए, नरेसुआ, ति वार पहिलो आहार । सूर्य किरण मंद दीसइ ए, नरेसुआ, निशा समो तिणि वार ॥५० संध्या समै जे भोजन ए, नरेसुआ, प्रगट न दीसे भान । निशि-आहार ते जाणीइ ए, नरेसुआ, दिवस तणे अवसान ॥५१ अंधारे अगासडे ए, नरेसुआ, जिहां नहिं गोचर दृष्टि । असन तिहां न वि कीजिइ ए, नरेसुआ जिहां दीसे नहीं स्पष्ट ॥५२ प्रमादी जे लोभीया ए, नरेसुबा, ते वाहें निज अक्ष । जिह्वा लम्पट वा पडा ए, नरेसुआ, रयणी देखे प्रतक्ष ॥५३ बुवडत बिम्ब उ तावला ए, नरेसुआ, पशु परि करे आहार । भोजन करे ते वाउला ए, नरेसुआ, रुले घणु संसार ॥५४ डंस कीट पतंगीआ ए, नरेसुआ, बह जीव पड़े सूक्ष्म । . अन्न रस तक्र मांही ए, नरेसुआ, त्रस जीव दीसे केम ॥५५ रात्रं भोजन जो कीजीइ ए, नरेसुआ, तो ते जीव हुइ भक्ष । मांस-आहार सम ते सही ए, नरेसुआ, दूषण दीसे समक्ष ॥५६ मढ जे रात्र जीमिइ ए, नरेसुआ. तेन सरूप राक्षस जेय । जाति-अन्ध सम ते कहीइ ए, नरेसुआ, न वि जाणे हेयाहेय ।।५७ तम्बूल सुं जल मूकोने ए, नरेसुआ, जो अणसण आथमें सूर । भोग्य अशन फल जो लीइ ए, नरेसुआ, तो दर्शन तेहनें दूर ।।५८ रात्रि तणा रांध्या जीमिइ ए, नरेसुआ, ते कहिए मूढ गंवार । स्थूल सूक्ष्म बहु जीव मरे ए, ते नहीं मूल गुण धार ॥५९ निशा-आहार पापकारी ए, नरेसुआ, नरकगत्ति-अवतार । पल्योपम सागर तणां ए, नरेसुआ, दुःख सहे पंच प्रकार ॥६० क्रूर पशूगति ऊपजे ए, नरेसुआ, सर्प वीछी व्याघ्र व्याल । मांजार कूकर सूकर ए, नरेसुआ, काक पंखी विकराल ॥६१ पापी नीच नरकगति लहे ए, नरेसुआ, हीन दीन दालिद्र । अल्प आयु काय रोगीया ए, नरेसुथा, विकल वियोगी क्षुद्र ॥६२ ए आदे सुर नर तणा ए, नरेसुआ, जे जे दीसे नर बहु दुक्ख । निशा-आहार तणा फल ए, नरेसुआ, कहिंय न पावे सुक्ख ॥६३ इम जाणी जे परिहरे ए, नरेसुआ, रयणी तणों आहार । मनवांछित सुखते लहें ए, नरेसुआ, पुण्य फलें गुणधार ॥६४ सुख संयोग सौभागिया ए, नरेसुआ, बुद्धि ऋद्धि सन्तान। सुर नर वर पदवी लही ए, नरेसुआ, अनुक्रमे मोक्ष निदान ॥६५ चित्रकूट नयर भलो ए, नरेसुआ, जागरी नामें चंडाल। निशा भोजननि फल एं, नरेसुआ, विस्मय पामी विशाल ॥६६
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काचार-संग्रह
सागर श्रेष्ठी कुल उपनी ए, नरेसुआ, पुत्री नामे श्री नाम |
रूप कला लावण्य घणु ए, नरेसुआ, यौवन देखो गुण ग्राम ||६७ श्रीधर श्रेष्ठी ते वरी ए, नरेसुआ, सुख पामी संसार ।
तप कर स्त्रीलिंग छेदीयो ए, नरेसुआ, स्वर्गे लीयो अवतार ॥६८
दोहा
निश्चल नियम जे आचरें, निशा आहार - परित्याग । संसार सुख ते अनुभवि, पामें शिवपुर भाग ॥१ सूर्य साखे भोजन करो, दिन प्रति एक वे पार । अरता-फिरता खाइए नहीं, उत्तम नहीं आचार ॥२ समकित - सहित सदा धरो, उत्तम मूलगुण अष्ट । विसन भय शल्य गारव त्यजी, दर्शनप्रतिमा अभोष्ट ||३ दर्शनप्रतिमा इणि परे, वर्णवी गुण बहुधार । व्रतप्रतिमां बीजी सुणो, संक्षेप कहुं सुविचार ||४
अथ ढाल गुणराजनी
सांभलो ए व्रत शुभ वार, पंच अणु व्रत पालीए, गुणव्रत त्रण प्रकार । चार शिक्षा व्रत संग्भलो ए, सांभलो एन्त शुभ वार ॥१ अहिंसा ए पहिलो अणुव्रत, सत्य व्रत बीजो सही ए । अचौर्यं ब्रह्मचर्य, संग-संख्या पांचमो कही ए ॥ २ थावर ए पंच प्रकार यत्न सहित विराधक ए ।
गृहस्थ ए श्रावक सार, अणु व्रत आराधक ए ॥ ३ सघात ए बहु घात जेह प्रमाद विषय सहु परिहरो ए । बेन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री जीव, पंचेन्द्री रक्षा करो ए ॥४ कृमिकीट ए अलसी ए जुल, संख सीपी नां बेइन्द्री ए । कड़ी कुन्थु ए जुआ की देह, माकण आदि ईन्द्री ए ॥५ देश मशक ए माखी पतंग भमर आदि चौइन्द्री ए । नरक पशु ए माणस देव पंच इन्द्री ए त्रस जीव ए ॥६ इणि परे ए उ लखी त्रस, मन वच काय रक्षा करो ए । कृत कारित ए अनि अनुमोद, नव भेदे यत्न धरो ए ॥७ खंडण ए पीसणी चुल्लि, जलकुम्भी प्रमार्जणी ए । गृही कर्म ए पंच ए सूना, छहुं इ द्रव्य उपार्जनी ए ॥८ पीसण ए करीय पवित्र, सुल्या अन्न सोधन करो ए । जन सहित ए कीजे चूर्ण, वासी जंत्र न फेरीइ ए ॥९ जोइ पुजीइ ए कजिए जन्न, उखले खण्डण कीजिइ ए । सुल्या डुल्या ए हुए जे अन्न, तस घाय नवि दीजिए ||१० saण छांणा जेह जीव सोधि तावड़े धरीइ ए । जीव-जयणा ए कीजे, पाक संधुक्षण जतनें करीइ ए ॥११ व्यापार ए कीजे तेह, जेह थी हिंसा न उपजे ए । rat ए सत्य - साहित, विन्हे आरंभ न नोपजे ए ॥१२
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पदेम-कृत श्रीवकाचरं
आरंभ थी ए उपजे पाप, वंचन द्रोह छद्म घणु ए ।
असत्य ए हुइ अन्याय, व्यापार त्यजो ते द्रव्य तणो ए ॥१३ कंटोल ए धातुड़ी पान, साबु मैण महुडा गली ए । विष लोह कु काष्ट ढोर अस्थि चरम वली ए ॥१४ मद्यमांस ए मधु कुचीड़, माखण न वि तवावीइ ए । कण सलए कवण व्यापार, घाणी न वि कराविइ ए ।।१५ वापी कूप ए द्रह तडाग, खाई न वि खणावीह ए । कपावीइ ए नहि वन काष्ट, अंगष्टिनीमा न चडवाइ ए ॥ १६ एह आदि दुर्व्यापार, पाप आरंभ उपजे बहू ए ।
लाभ न दीसै ए मूल विनास, ते वाणिज्य त्यजो सहु ए ॥१७ उपजि ए कष्टे द्रव्य, व्यापार करे ते अति बलो ए ।
कुटुम्ब ए लेवते भोग, नरके जाद्र तू एकलो ए ॥१८ इम जाणीय दुर्व्यापार, पापारंभ ते परिहरो ए । हितमित ए न्याय सम्बन्ध, जोग्य वाणिज्य ते अनुसरो ए ।।१९
खंडण पीसण चुल्ली, जल स्थान ऊपर कहीइ ए. 1
देरासर ए समन ऊपर, चन्द्रोपक बांधो सहीइ ए || २०
षट् कर्म ए जन सहित, सदा कीजे त्रस-रक्षण ए । जो कीजे ए जीव बहु जत्न, ते अहिंसा व्रत- रक्षण ए ॥२१ चालीइ ए जन-सहिंत, जीव जत्न करि वेसीइ ए । सोइए ए जन सहित, जीभ जत्न करि भासीइ ए ॥ २२ जीव जत्न ए करे आरम्भ, अल्प पाप हुए तस ए । कोमल ए कीजे परिणाम, परिणामें पुण्य जस ए ॥ २३ इम जाणिय ए आसन्न भव्य, सर्वदा जीव जत्न करो ए । जीव जत्ने ए उपजे पुण्य, पुण्य फल स्वर्गे संचरे ए ॥२४ आपीए ए भार सोवर्ण मेरू सहित वसुन्धरा ए । जीव एक ए दीजिइ दान, ते सम नहीं कोई गुणधणी ए ॥ २५ वल्लभ ए एणि संसार, जीवितव्य विना अवर नहीं ए । ते भणी ए जीव दया दान, जिम किम दीजे सही ए ॥ २६ आपण ने ए जो जीववु इष्ट, सो परनें जीववुं वल्लभ ए । तो किम ए लीजे पर प्राण, जीव जत्न करो दुर्लभ ए ॥ २७ दया विण ए नहीं जिन पूज, पात्र दान नहीं दया विन ए । तप जप ए ध्यान अध्ययन, दया विण नहीं कोई गुण ए ॥ २८ देव मांहि ए जिम जिनदेव, ज्ञान मांहे केवल ज्ञान ए । रत्न मांहि ए जिम चिन्तारत्न, तिम दान मांहे जीव दया ए ॥२९ जीव दया ए हे बहु आयु, काय निरोग रूप घणुं ए । पामीइ ए सुख संजोग, भोग वांछित निज भलपणुं ए ॥ ३०
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श्रावकाचार-संग्रह सुर नर ए वर पद होइ, ऋद्धि वृद्धि बुद्धि धणी ए। जेह जेह ए उपजे सुख, ते सह फल दया पणे ए॥३१ तिल सम ए कन्दमूल मांहे, जीव अनन्त निगोद भर्या ए। सूक्षम ए गोचर नहिं दृष्टि, केवलज्ञान श्री जिन कह्या ए॥३२ - तिल सम ए कंदमूल भक्ष तो ते जोव अनन्त मरे ए। अल्प सुख ए जिह्वा लोल, बहु जीव ते घात करे ए ॥३३ नरक पश ए गति अवतार, हिंसा ए पामे ते बापडाए। क्षुधा तृषा ए सहेय सन्ताप, जन्मि जन्मि दुःखे जड्या ए ॥३४ हीन दीन ए नर दारिद्र दखी अदोर्भागी दोहिलाए। रोग सोग ए कष्ट वियोग, अल्प आयु ते पामीया ए॥३५ नर नारी ए हइ निरधार, बन्ध्या नारी ते सही ए। एह आदि ए हु बहु कष्ट, ते फल पाप हिंसा सही ए ॥३६ इम जाणिय कीजे दया जीव, जिहां दया तिहां धर्म जए। जिहां धर्म ए तिहां होइ सुक्ख, सुक्ख तिहां शिव पद फल ए ॥३७ नर नारी ए पशु बालक, कर्ण नासा न वि वीधि ए। न वि छेदी ए तस तणा अंग, छेद नाम न छेधिमे ए॥३८ भार बहु ए जे नर ढोर, मानथीं अधिक न रोपीइ ए। बापडा ए पर-वश तेह, भार-मान न वि लोपइ ए ॥३९ मानुष ए पशु ए हवाल, अन्न पान न वि रुधीइ ए। निज पर ए पीड़ा होइ, ते विती प्रात मन सोधीइ ए ॥४० इण परि ए पंच अतीचार, जीव दया व्रत तणां ए। जल करोए टालो निर्दोष, प्रमाद विषय ते जो घणां ए ॥४१ अतीचार ए रहित धरे व्रत, सोल में स्वर्गे ते उपजे ए। उत्तम ए नर पद होइ, अनुक्रमें शिव मुख संपजे ए॥४२ प्रथम ए अणु व्रत एह, जत्न करी पालो सदा ए। मातंग यमपाल नाम, तेह कथा हवे सांभलो ए॥४३ सौरम्य ए देश मझार, पोदनपुर नयर धणी ए। महाबल ए नामें भूपाल, तस पुत्र बलि दुर्मती ए ॥४४ नन्दीश्वर ए अष्ट दिवस, भूपें अमार आण दीधी ए। जे कोई ए करसे जीव वध, ते मोकलुं जम सन्निधी ए ॥४५ राजपुत्र ए बलिकुमार, भक्ष करे मांस तणो ए। बन जाइ ए तेणें मूढ, गूढपणे मीढयो हणो ए॥४६ बलि जाणे ए न वि देखे कोई, जिह्वा लम्पट मांस ग्रह्यो ए। तिण समि ए चम्पा वृक्ष, ऊपर माली दप्पि रहो ए ॥४७ सन्ध्या समय ए आव्यो नहीं मेष, राय कहे कुण कारण ए। पूछियो ए निज कोटवाल, मीढो जुओ के तस मारण ए ॥४८
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पदम-कृत श्रावकाचार नहीं तो ए देऊ तुम्हें दंड, मुझ आज्ञा भांजी किणि ए। गुप्तचर तल रक्षक ए मुकीया चार, रातें घर जइ सुर्णे ए॥४९ तिण समें ए माली निज गेह. अति अंधारे आवोयो ए। नारी ऊ ए पूछे निजकंत, असुरो तु का भावीयो ए ॥५० मालीय ए कहे सुण बात, राजपुत्र मोढो हण्यो ए। तिण समें ए रह्यो हुँ झंप, मुझने भय घणों उपनो ए॥५१ एहवं ए सुणी संबंध, चर आयी भूपने को ए। प्रभात ए पूंछयो माली तेह, निर्भयपणे ते सहु लह्यो ए॥५२ तब भूपर्ने ए उपनों कोप, लोप कीयो आज्ञा तणो ए। तल रक्षक ए मलावो वार, दुष्ट खंड करो घणों ए ॥५३ मातंग ए यमपाल नाम आव्या तल वर तस घरे ए। आवता ए देखी तेह, प्रच्छन्न रह्यो तिणी समे ए ॥५४ तल रक्षक ए पूछी तस नारि. किहाँ गयो मातंग आज ए। नारी कहे ए सुणों कोटवाल, घर नहीं, गयो निज काज ए॥५५ तल रक्षक ए कहें तिणी वार, भाग्य नहीं मातंग तणो ए। राज पुत्र ए मारी ने आज, वस्त्र आभूषण द्रव्य घणो ए ॥५६ तब नारी ए उपनो लोभ, हस्त संज्ञा ते देखाडीयो ए। घर तणे ए सुणे रह्यो तेह. तब बलें तेणे काढीयो ए॥५७ मातंग ए कहे सुणो बात, घात जीव छे मुझ तिम ए। चौदस ए दिन व्रत आज, कीजे कृपा कहो इम ए ॥५८ तल रक्षक ए पाम्यां कोप, हठ करी ते डोगया ए। राय आगल ए कही तस वात, घात नहीं विस्मय भया ए॥५९ मातंग ए कहे सुणो नाथ, हाथ जोड़ी ऊभो रहो ए। स्वामी मुझ ए वीनती अवधार, सार नियम कथा लही ए ॥६० एक दिन ए मुझ डसीयो सर्प, मूर्छा आयी धरणी पडयो ए। मूकीयो ए हु लेइ समसान, सज्जन मिली घणु रुले ए॥६१ मुनिवर ए ऋद्धि गुणवंत, शरीर-स्पर्श-पवन बले ए। निर्विष ए हुई मुझ देह, चेतना आयी मूर्छा वली ए ॥६२ सावधान ए हुओ तिणि वार, मुनिवर बोल्या कृपावंत ए। वधतणो ए मुझ दीयो नेम, चौदस एक दिन गुण संत ए॥६३ ते नियम ए पालुं भवतार, सार जीव हण वातणो ए। गुरु साक्षी ए लीयो जे व्रत, हित जीव सदा घणु ए ॥१४ प्राण त्याजे ए नवि छोडु नेम, प्राणी जन्म-जन्म घणुं ए। दुर्लभ ए जीव दया धर्म, समकारी भूपें सुण्या ए॥६५ तब कोपे ए कहते भूप, तूं चंडाल अधम सही ए। निर्मल ए श्री जिन धर्म, नेम तुझ योग्य नहीं ए॥६६
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श्रावकाचार-संग्रह भूपति ए दीयो आदेश, नंदन मातंग मारवा ए। क्रोघे ए नहीं शुद्धि बुद्धि, गुण दोष विचारवाए ॥६७ सेवक ए मिल्या बहु दुष्ट, यष्टि मुष्टि प्रहार करे ए। बांधीयो ए वलि मातंग, मारण लेइ ते संचरयां ए॥६८ विडंषन ए वा देई बहु दुष सिसुमार द्रह नाखीउ ए। राजपुत्र ए हिंसा पाप दुर्गति दुख ते दाखीया ए॥६९ मातंग ए नेम प्रभाव जल देव आसन कंपीया ए। जल उपरे ए कमल आसन, तिहां मातंग आरोपिया ए॥७० नीपनों ए जय जयकार, गीत नृत्य बाचित्र घणां ए। सुर नर ए करे पुष्प वृष्टि, प्रातिहार्य भूते सुण्यां ए॥७१ निगर्व ए थयो तब राइ, अन्याय कीयो में मूढपणो ए। आपीयो ए मातंग पास, क्षमितव्य करे वली-वली घणो ए ॥७२ सुर नर ए देय सनमान, वस्त्र आभूषण आपीया ए। मातंग ए आण्यों निज गेह, महोत्सव करि जस थापीया ए ॥७३ धन धन्य ए नेम प्रणाम, सुधन धन्य जस धणों ए॥ जाव जीव ए पालियो नियम निश्चल मन करी आपणों ए॥७४ इहि लोक ए पामीउ सुख, मरण समाधि साधीयो ए। मातंग ए पाम्यो देव लोक, महधिक पद आराधीयो ए ॥७५ जुमओ जुमओ ए पुण्य प्रभाव, किहां मातंग नीच जाति ए। उपनों ए ते देवलोक, ऋद्धि वृद्धि गुण ख्यातिय ए ७६ उत्तम ए नरपति वंश, बलि कुमार हिंसा करी ए। पांमीयो ए अपजसं दुक्ख, पापे नीच गति अणुसरी ए ॥७७ इमि जाणि ए धर्म उत्तम, उत्तम बन्दो सुरोझीये ए। धर्म हाणि ए जाइ नीच गति गुणीब गुणीनें बुझीये ए ।।७८ धनश्री ए जार कुं नारि, जार लक्षीते पापिणी ए। मारीयो ए गुणपाल पुत्र, अपकीत्ति पांमी आपणी ए ॥७९ भूपति ए दीयो बहु दंड, खर-आरोहण बिडंबण ए। धनश्री ए जीव-हिंसा पाप, दुर्गति पांमी खंडण ए ॥८०
बोहा
जीव दया व्रत निर्मलो मातंग नाम जमपाल । स्वर्ग तणो सुख पांमीयो, धन धन्य दया गुण माल ॥१ जीव-हिंसा करि पापिणी, धनश्री नामि कुमार । दुख दुरगति ते सही, धिग हिंसा असार ॥२ हिंसा समु कोइ पाप नहीं, हूवो होसे वर्तमान । दया समो कोइ धर्म नहीं, एहवो कह्यो जिन भान ॥३ इम जाणीय निश्चल करी, दया पालो गुणधार । सुर नर सुख ने भोगवे, पांमे मोक्ष भवतार ॥४
-
डाल अहिंसा अणुव्रत वर्णव्यो ए, हवे अ कहुँ सत्य व्रत्त तो। बीजो अणुव्रत निर्मलो ए, थूलपणे जीव हित तो ॥१
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पदम-कृत श्रावकाचार
झूठा वचन न बोलिये ए, कडुआ कठिण कठोर तो । कूट कपट कड़क सत्य जो ए, मरम मोसा घनघोर तो ॥२ अलिय वयण नवि बोलीये ए. छल छद्म वंचन द्रोह तो । परपंच पर वंचन ए, संच न पाप संदोह तो ॥३ असत्य वाणी तमें परिहरो ए, कूडी साख कुबोल तो । निन्दा अपजस विस्तरे ए, ते टालो निटोल तो ॥४ पर पीड़ाकारी वचन, पर-पैशुन्य अपवाद तो । जिणें बोले अधर्म होइए, तेऊ तजो विसंवाद तो ॥५ जो बोले आप पीडिये, ते किम पर सोहाय तो । निर्लज्जपणें न वि बोलीए, जिणें उपजे पर दाह तो ॥६ तीव्र कोपकारी त्यजुं ए, मान मायाने लोभ तो । राग द्वेष मद उपजे ए, जिणे होई पर क्षोभ तो ॥७ जिण बोले हिंसा होय ए, उपजे असत्य अपवाद तो । मरम बोलवाड़ी त्यजो ए, सूल समी जे भास तो ॥८ जिणें सांचे दुख उपजे ए, वघ बन्ध हुई परछेद तो । विष था विष समी तज्यो ए. वेदनाकारी न खेद तो ॥९ अविचायुं न वि बोलीए ए, न वि दीजे केइतें आल तो । आ रौद्र दु ध्यान करी ए, केहतें 'न दीजे गाल तो ॥१० आपण झूठ न बोलीये ए, बोलावी जे नहीं कोई तो । अनृत न वि अनुमोदीये ए, मन वच कायाइ जोइ तो ॥११ सत्य वचन सदा बोलीये ए, हित मित कारी मिष्ट तो । जेणें बोले जस होइ ए, आपण पर होइ इष्ट तो ॥१२ असत्य बोले पाप उपजे ए, पापें सहि ते संताप तो । नरक पशू गति ते लहिए, रहे दुखें अति व्याप तो ॥१३ सत्य बोले पुण्य उपजे ए, पुष्ये होइ बहु सुक्ख तो । सुर नर वर पद पायीइ ए, कहीये न वि देखे दुक्ख तो ॥१४ इम जाणी सत्य बोलीइ ए, टालीए पंच अतिचार तो । स्थूल सुव्रत तेह तणा ए, हवे सुणो तेह प्रकार तो ॥१५ मिथ्या उपदेश न वि दीजीइ ए, एकान्त होइ जे बात तो । ते तो न वि प्रकाशीये ए, न वि कीजे तेह बात तो ॥१६ कूट लेख न वि कीजिये ए, तेणें होइ विश्वास घात तो । थापण मोसो हरीइ नहीं ए, न्यासापहार ते जाति तो ॥१७ साकार मंत्र तुम त्यजो ए, न वि कीजे मरम प्रकाश तो । पर ईर्ष्या न वि कीजीइ ए, ईर्ष्या पाप-निवास तो ॥१८ इणि परि पंच भेद घरो ए, छोड़ो दोष अतिचार तो । निर्मल सत्य व्रत पालीड ए. जिम तरीए संसार तो ॥१९
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श्रावकाचार-संग्रह सत्य व्रत किणे पालीयो ए, कहुँ अ तेइ व्रतान्त तो। धनदेव श्रेष्ठि तणो ए, कथा सुणों तुम्हें सन्त तो ॥२० जम्बूद्वीप सुहावणों ए, मेरु तणी पूर्व विदेह तो। पुष्कलावती क्षेत्र नाम तो ए, पुंडरीकिणी पुरी एह तो ।।२१ धन देव श्रेष्ठी वसे ए, अल्प ऋद्धि तणो नाथ तो। जिनदेव दूजो श्रेष्ठि ए, बहुधन जन बहु साथ तो ।।२२ एक दिवस ते जिनदेव ए, करवा चाल्यो व्यापार तो । धन देव साथे लीयो ए, संच कीयो तिणे वार तो ॥२३ वणिज-वित्त जे बाध तो ए, तेह माँहें भाग आधो आध तो। माहो माँहे ते संच कीयो ए, साखि न कीयो कोई साध तो ॥२४ ए हवु कहो ते संचर्या ए, परदेसें पुण्य पसाइ तो। द्रव्य घणों उपराजीयो ए, जिनदेव मन लोभ थाइ तो ॥२५ कुशल क्षेम पुरी आवीया ए, धनदेव मांगे निज भाग तो। जिनदेव आपे नहीं ए, लोभ करे द्रव्य राग तो ॥२६ जिनदेव आपे झूठो बोलीयो ए, अल्प देइ तस वित्त तो। सत्यवादी धनदेवनों ए, भाग मांगे निज हित्त तो ॥२७ मांहो मांहे झगड़ो करे ए, बुझे नहीं निज बृद्धि तो। प्रजा लोके प्रीच्छयां नहीं ए, पछे गया राज-सान्निध्य तो ॥२८ अग्निदेव तिहाँ कीयो ए, सुध पाम्यो धनदेव तो। सत्यपणे साहस बल ए, जय पाम्यो ते सेवि तो ॥२९ सत्यपणे अग्नि जल थाइ ए, सती सर्प पुष्प माल तो। सत्ये सुर नर पूजा करे ए, सत्ये जय बाल गोवाल तो ॥३० जिनदेव अशुद्ध होवो ए, राजसत्ता मझार तो। झूठू बोले ते बापड़ा ए, सह मिली कियो धिक्कार तो ॥३१ तस भूपें न्याय विधि ए, वित्त अल्पावु, तरु सर्वतो । वस्त्र आभूषण पूजिया ए, लेइ आव्यो घर द्रव्य तो ॥३२ धनदेव जय पामीयो ए, सत्य बोली इह लोक तो। जस महिमा गुण विस्तर्यो ए, सुख पाम्यों परलोक तो ॥३३ जिनदेव झूठु बोलीयो ए, द्रव्य लीयो सहु तेह तो। अने वली अपजस पामीयो ए, पार्नु परभवं कष्ट तो ।।३४ पर्वत झूठी साख भरी ए, वसु नाम मूढ़ राइतो। निंदा अपजस पामीयो ए, सातमें नरकें जाय तो ॥३५ सत्यघोष विप्रतणी ए, पर्वत वसु भूपाल तो। तेह कथा तम्हें जाण ज्यो ए, महापुराण विशाल तो ॥३६ झूठू बोले जे जीवडा ए, भंड कहें तस लोक तो। ख्याति पूजा जाई तस ए, परभवे दुःख सहे तेह तो ॥३७
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पदम-कृत श्रावकाचार इम जाणी सत्य सदा ए, जे बोले सुख खाणि तो। सुर नर वर पद भोगवे ए, अनुक्रमें पामें निर्वाण तो ॥३८ अचौर्य व्रत हवे सांभलो ए, तीजो अणुव्रत नाम तो। स्थूल पणे ते वर्णवु ए, स्तेय विरति गुण ग्राम तो ॥३९ अण आप्पो जे पर तणु ए, चेतन-अचेतन द्रव्य तो। आपण पै जे लीजीइए, ते चोरी पाप सर्व तो ॥०४ पर द्रव्य जो चोरीइ ए, तो होइ विश्वास-घात तो। विश्वासघाते हिंसा होइ ए, हिंसाथी पापवन्त होइ तो॥४१ आपणपे न वि चोरिये ए. चोरी दौजे न वि अन्य तो। परलेता द्रव्य देखीये ए, न वि कीजे अनुमित्त तो ॥४२ वाटे पड़ियो पर द्रव्य ए, थापण वीसरे चित्त तो। ते किम्हें न वि राखीये ए. मन वचन काया करी चित्त तो ॥४३ पड़ी देखी वस्तु बहु मूल्य ए, उलंघे न हि,जेह तो। तो सहँ समक्ष लेई मूको ए, पूज्य काज जिन गेह तो ।।७४ चोरी करे पातक बहु ए, कूट कपट दुख खाणि तो। । निन्दा अपजस विस्तरे ए, निजधर्म गुण होइ हाणि तो ॥४५ वध बंधन छेदन करे ए. राजा देइ बहु दंड तो। खर-आरोहण विडंबण ए, दुख देखाडे प्रचंड तो॥४६ चोरी आणे पर वस्तु तो ए, जो दीजे लेइ मोल तो। माहो माँहे मर्म कही ए, भय देखाडे अतोल तो ॥४७ जो राजा लीधो जाणे ए, तो हरे मूल सहित तो। यष्टि मुष्टि प्रहार करी ए, कष्ट पमाडे अहित तो ॥४८ जीवितव्यथी वालो घणु ए, धन जाता मूकी प्राण तो। तो ते धन किम लीजिये ए, हिंसाकारी ते जाण तो ॥४९ त्रण आदें रत्न लगे ए, सधणी होइ जे वस्तु तो। अण पूछे जो लीजिये ए, ते चोरी समातुल्य तो ॥५० जे करता इम जाणीइ ए, पर देखे रखे कोइ तो। तेह काज नवि कीजिये ए, कारण विना व्रत जाइ तो ॥५१ धन चोरे तुं एक लो ए, धन कुटुम्ब सहु खाइ तो।। वध बंधन सहे तुं अकेलो ए, एकलो नरकें जाइ तो ॥५२ विष भखवा सारुं सही ए, विष हरे एक भव-प्राण तो। चोरी पाप दुख-दोहिल ए, जनमि जनमि दुख खाणि तो ॥५३ इम जाणिय चोरी त्यजों ए, न्यायविधि करो व्यापार तो। हित मित्त सुख कारीया ए, संतोष धरो मन सार तो ॥५४ जे हवं कर्म उदय आपणु ए, ते हवं फल देई सोय तो। लाभ-अलाभे समप्रीति ए, नवि कीजे राग द्वष तो ॥५५
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भारकाचार-संग्रह चोरी उपदेश न दीजिये ए, लीजे नहीं चोरी आणी वस्तु तो। राजनीति न विलोपी ए, रोपीये प्रगट प्रशस्त तो ॥५६ तुला मान निरतां राख तो, अधिक ओछो न वि कीजीइए तो । सखर निखर वस्तु ममेल तो, घाट वस्तु न वि दीजिए तो ॥५७ इणि परे पंचे भेद लीउ ए, अतीचार दोष टाल तो। थूल पणे त्रोजो अणुव्रत ए, मन वचन कायाइ संभाल तो ।।५८
दोहा
अचौर्य अणुव्रत आचरी, पंच रहित अतिचार । सुर नरवर पूजा लही, श्री वारिषेण कुमार ॥१ .
श्रेणिक भूपति-नन्दन, चेलणा उरि अवतार। स्तेय विरती व्रत फल लही, वारिषेण पाम्यो भवपार ॥२ तेह कथा में पहिली कही, स्थितिकरण अंग मझार । ते सम्बन्ध तिहाँ जाणजो, संक्षेपै कहियो सार ॥३ जिण-जणे चोरी आदरी, इहि लोक देखी दुक्ख । पर भवि ते दुरगति गया, कही न वि पायी सुक्ख ।।४ इम जाणिय चोरी परिहरि, धरइ जे अचौर्य भवतार । जिन सेवक पदमो कहे, ते पांमे भवपार ॥५
भास वैरागी अचौर्यव्रत इम वर्णवी हो, हवे सुणो शीलव्रत । चौथो अणुव्रत उजलो हो, थूल पणे जीव-सहित, हो जीवड़ा ॥१ ब्रह्मचर्य दृढ़ पालो, पर-नारी संगति टालो हो, जीवड़ा। अग्नि साखे जे नारी वरी हो, तेह सुं कीजे संयोग।। काम-रोग शान्ति हेतु हो, सन्तान-काजे सेवा भोग, हो जीवड़ा ॥२ स्वदार-सन्तोष कीजिये हो, निवृत कीजे परदार ।। एह वं अणुव्रत गृहमेधी हो, थूल ब्रह्मचर्य धार, हो जीवड़ा ॥३ पर-नारी सह परिहरो हो, वृद्ध यौवन रूप बाल । मात बहिन पुत्री समी हो, लेखवो ते सकोमाल, हो जीवड़ा ॥४ नारी परायी दूरि तजो हो, घृणि भजो तेह संग ।। काम क्रीड़ा न वि कीजिए हो, दोजे नही दृष्टि रंग, हो जीवड़ा ॥५ हास्य बहु आले तजो हो, मूकीए नहीं निजलाज । मरम वयण न वि बोलिए हो, मयण चेष्टा तणी काज, रे जीवड़ा ॥६ बात गोष्ठी संगति तजो हो, झुणि चिनुत सराग । रूप निरीक्षण नारी तणों हो, घृणुं म चिंतो सोभाग, रे जीवड़ा ॥७ पर नारी सांपणि-समी हो, राग विष विकराल । दृष्टि विषसम दूर धरी हो, साधी बाल गोपाल, हो जीवड़ा ॥८
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पदम-कृत श्रावकाचार पुरुष मन नवनीत समो हो, पर-रामा अग्नि कुज्वाल। राग तापि तल तले हो, नर पतंग बाले बाल, हो जीवड़ा ॥९ दूर रहि नारी देखीइ हो, पुरुष मन विनाश । जिम कणक काकडि गंध हो, वेगे थाइ ते निराश, हो जीवा ॥१० हाव भाव विभ्रम करी हो, पुरुष तणों मन पाडि । कपट माया मेंणों देइ हो, भोला नर रमाड, हो जीवड़ा ॥११ पर-नारी संगे पाप होइ हो, झटके लोक दे आल । निन्दा अपजस विस्तरे हो, भूप दंडे ततकाल, हो जीवड़ा ॥१२ मन वचन कायाई करी हो, पर नारी संग टाल । कृत कारित अनुमोदना हो, नव भेदे शील पाल, हो जीवड़ा ।।१३ वेश्या संग तम्हो परिहरो हो, जेह वु उच्छिष्ट अन्न । रजक शिला-समी सही हो, चरबी ऊच नीच जन, हो जोवड़ा ॥१४ मांस-भक्षण करे पापिणी हो, करे ते मद्य कुपान । ते वेश्या किम सेवीइ हो, सेवे लम्पट ते खान, हो जीवड़ा ॥१५ धनवंत नर ने आदरे हो निद्रव्य करे परिहार । द्रव्य काजि ते स्नेह धरे हो, भोला भूला गंवार, हो जीवड़ा ॥१६ जेणे नर वेश्या आदरी हो, ते थया लाज-भ्रष्ट । धन यौवन ने गुण तजी हो पाम्या नरक निकृष्ट, हो जीवड़ा ॥१७ इम जाणी रामा पर तजो हो, छोड़ो वेश्या तणुं संग। सधणी निधणी नारी तजो हो, पालो शील अभंग, हो जीवड़ा ॥१८ ब्रह्मचर्य व्रत तणां हो, छोड़ो पंच व्यतिपात ।। तेह भेद हवे सांभलो हो, जेह थी पाप-संघात, हो जीवड़ा ॥१९ पर विवाह पहिलो भेद हो, इत्वरीया-गमन दूजो होइ । पर गृहीत अनगृहीत हो, त्रीजो भेद ते जो दूरे, हो जीवड़ा ॥२० अनंग क्रीडा भेद चौथो हो, अभिनिवेश तीव्र काम। इणे दोषे पाप उपजे हो, पंच अतो चार एह नाम, हो जीवड़ा ॥२१ पर विवाह न वि कीजीये हो, कीधे न होइ जस पुन्न । इत्वरिका दासी जे नारी हो, न कीजे तेह गेह गम्य, हो जीवड़ा ॥२२ परगृहीत अनगृहीत नारी, तस घर गमन त्यजानि । योनि विना अवर अंगे हो, अंग क्रीडा न वि कीजे, हो जीवदा ॥२३ तीव्र काम जेणे उपजे हो, नीपजे उद्रेक राग। तेह वस्तु न वि सेविये हो, दोष करो परित्याग, हो जीवड़ ॥२४॥ इणि परे पंच भेद हो, छोड़ो ब्रत अतिचार । स्थूल अणुव्रत पालिये हो, नव ब्रह्मचर्य गुणधार, हो जीवड़ा ॥२५ निर्मल ब्रह्मचर्य जे धरे हो, दृढ मने भवतार । ते धन्य ते पुण्यवन्त हो, तेह गुणनों नहीं पार, हो जीवड़ा.॥२६.
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दम
श्रावकाचार संग्रह
शीले अग्नि ते जल थाइ हो, शीले सर्प पुष्पमाल ।
शीले केशरी मृग थाइ हो, शीले व्याघ्र सियाल, हो जीवड़ा ॥ २७ शीले विष अमृत होइ हो, समुद्र गोष्पद थाय ।
शीले वन भवन होइ हो, महिमा कह्यो किम जाय, रे जीवड़ा ||२८ शीले शत्रु सहु मित्र थाइ हो, शीले संकट विनाश ।
शीले सुर नर पूजा करे हो, शोले अतिचल वास, रे जीवड़ा ||२९ इम जाणी शील सदा पालीइ हो, टालो दोष तुरन्त ।
शील व्रत किणें पालीयो हो, तेह कहुँ वृत्तान्त, हो जीवड़ा ॥ ३० आरजखण्ड एह रूअड़ो हो, लाड विषय विशाल ।
भृगुकच्छ नयर भलो हो, राजा सिंहां वसुपाल, हो जीवड़ा ॥ ३१ जिनदत्त श्रेष्ठी तिहां वसे हो, जिनदत्ता स्त्री भरतार |
तस तणी कूखें उपनी हो, पुत्री नीली नाम धार, हो जीवड़ा ||३२ रूप यौवन ते संचरी हो, जिनधर्म करे भवतार ।
निज सहेली पर वरी हो जिन गेह गई एक वार, हो जीवड़ा ||३३ अष्ट भेदे जिन पूजिया हो, जल आदि फल-पर्यन्त ।
जाप जपी स्तवन भणो हो, कायोत्सर्ग लेइ रही सन्त, हो जीवड़ा ||३३
अवर श्रेष्ठि तिहां वसे हो, समुद्रदत्त तस नाम ।
सागरदत्ता नारी ते भणी हो, पुत्र सागरदत्त अभिराम हो जीड़ा ॥ ३५ रूप यौवन ते मंडीयो हो, क्रीड़ा करे अ कुमार ।
तें कन्या तेणें दीठी हो, लावण्य गुणह भंडार, हो जीवड़ा ॥ ३६
स्वर्ग तणी ए अपछरा हो, अथवा नाग कुमारी ।
चन्द्रणी ए रोहिणी ए रोहिणी हो, अथवा खेचर ते नारी, हो जीवड़ा ||३७ कन्या रूपें नर मोहीयो हो, आव्यो ते निज गेह ।
प्रियदत्त मित्रनें कहे हो, मन तणी बात सहुँ तेह, हो जीवड़ा ॥ ३८ निज तातें ते साम्भल्यो हो, साहू बोले तिणी वार ।
वच्छ, आपण बौद्धधर्मी हो, ते जैन गुणधार, हो जीवड़ा ॥३९ आपणनें ते लेखवे हो, मातंग लोक समान ।
तो कन्या तुझ किम दीये हो, ते श्रावक गुणमान, हो जीवड्रा ॥४० कपटपणें ते श्रावक थयो हो, पूजे जिन गुरु पाय ।
शास्त्र सुणें व्रत आचरे हो, कूट जाण्यो किम जाय, हो जीवड़ा ॥४१ कन्या मांगु तिणें कीयो हो, सावरमी थइ ते माह ।
निष्कपटी जिनदत्त श्रेष्ठी हो, जैन जाणि कीयो उच्छाह, हो जीवड्रा ॥४२ ते कन्या तेह ने दीधी हो, परण्यों सागरदत्त ।
बहु अर निज धरि आदोआ हो, सांचो धर्म फल सत्त्य, हो जीवड़ा ॥४३ मुक्यों तेणें धर्म जिन तणों हो, वली थयो बौद्ध भक्त । नारी निज मन चिन्तवे हो, दैवे कीधो अयुक्त, हो जीवड़ा ॥४४
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पदम-कृत श्रावकाचार
जिनदत्त श्रेष्ठी इ सांभल्यो हो, कन्या धूती गयो धूर्त । प्रपंच रचि विवाही गयो हो, कपट पणे बौद्ध वृत्त, हो जीवड़ा ।।४५ हा, कन्या रत्न मुझ तणु हो, लेइ गयो बौद्ध भाग । जानें समुद्र माहे पडयो हो, अथवा कप अथाग, हो जीवड़ा ॥४६ कन्या रत्न मुझ तणों हो, दैवे उदा लीने लीध । मिथ्याती घरि काइ पडयो हो मोटो पातक कीध, हो जीवड़ा ॥४७ जैन विना निज पुत्री ने हो, मिथ्याती में जे देय। ते अज्ञानी महापापी आ हो, बहु जन्म दुख ते लोय, हो जीवड़ा ॥४८ कूप माहे घाले वावारु हो, अथवा दीने वारु विष ।। एक भव ते दुक्ख दीये हो, मिथ्याती बहु भव दुःख, रे जीवड़ा ॥४९ मिथ्याती में जो दीजिइ हो, तो करे मिथ्यात बुद्धि । जिनधर्मी ने जो दीजिइ हो, तो होइ धर्म सन्तान शुद्धि, हो जीवड़ा ॥५० जो जैन ने परिहरि हो, द्रव्य तणों करि लोभ । मिथ्यादृष्टि में जो देइए हो, तो होय निजधर्म क्षोभ, हो जीवड़ा ॥५१ इम जाणी जत्न करी हो, कन्या रत्न मनाख । साधर्मी दानज दीजिये हो, अथवा दीक्षा कार्ज संख, हो जीवड़ा ||५२ सुसरो केहो बहु धर्म करो, हो, बौद्ध तणी करो सेव । ज्ञानवंत गुरु अम्ह तणा हो, परतक्ष जाणे सहु हेव, हो जीवड़ा ॥५३ भोजन काजे नोंतरा हो, आव्या बौद्ध ततकाल । एकेकी पगखरी तणों हो, कीधो व्यंजन रसाल, हो जीवड़ा ॥५४ जीम करी ते संचर्या हो, एकेकी खुरीउ न वि देख । पूछ कहो किहां पगखी हो, अरूं परू इम जोइ रे, हो जीवड़ा ॥५५ नीली कहे तम्हें ज्ञानें जोउ हो, निज उदर छै मझार । अन्न वमी तिणें जोइयो हो, देख्या खंड तिणी वार, हो जीवड़ा ॥५६ तब लाज्या ते बापड़ा हो, बौद्ध गया निज मट्ठ । बौद्ध मान भंग जाणीने हो, सजन करे तस हट्ठ, रे जीवड़ा ॥५७ जुदी उ रीते मूकिया हो, रहे ते स्त्री भरतार । निश्चल मन नीली तणुं हो, धर्म न मूके सार, हो जीवड़ा ॥५८ कंत पिता मणी सहोदरी हो, रोसे दीओ तस आल । नीली ए पर नर सेवियो हो, जाणे उवी विषझाल, हो जीवड़ा ॥५९ हलुले हलुओ दोष विस्तरे हो, नीली तणो लोक मांहि । नीली निज कानें सांभल्यो हो, कर्म-तणां फल चाहि, हो जीवड़ा ॥६० जिन-आगल कायोत्सर्ग धरी हो, द्विविध लीयो संन्यास । यो दोष टले तो पारणुं हो, नहीं तो प्राण-विनास, रे जीवड़ा ॥६१ पुर देवी आसन कंपीयो, सती य शील प्रभाव। अवधिज्ञाने जाणीने हो, नीली पासे देवी आव, रे जीवड़ा ॥६२
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प्राक्काचार-संबह सेनें प्राण तम्हो तजो हो, सती सुणों मुझ बात । नयर प्रतोली हुं जड़ हो, आलउ-तारु प्रभात, रे जीवड़ा ॥६३ राजा प्रधान श्रेष्टीने हो, सरखं सुपन देखाडि। सतो तणे वाम पाथ हो, नयर-पोल उघाड़, रे जीवड़ा ॥६४ एहवं कहि मन थिर करी हो, देवी गई निज ठाम। तिणी रात्रं स्वप्न देख्यु हो, देवाणी पोल उदास, रे जीवड़ा ॥६५ नयर क्षोभ ते सांभलो हो, रुंधो पुरी-पोल चार। राजा आदि सहुं आवोया हो, रात्रे स्वपन संभार, रे जीवड़ा ॥६६ नयर नारी सह तेडीआ हो, देवाड्यो वाम पाय। प्रतोली न वि उघडी हो. लाजी ते पाछी जाय, रे जीवडा ॥६७ पछे सती नीली आणी हो, देवाडयो डांवो कदम।। चारी पोल तब उघड़ी हो, लोक तणो गयो भरम, रे जीवड़ा ॥६८ जय जयकार तब नीपनों हो, देव करे पुष्प वृष्टि ।। सयल सती माहें शिरोमणि हो, नीली सती उत्कृष्ट, रे जीवड़ा ॥६९ वस्त्र-आभूषण भूप दीया हो, पुहती कीधी निज गेह । गीत नृत्य महोच्छव करे हो, कलंक ठल्यो सहु तेह, रे जीवड़ा ॥७० इहि लोके सुर पूजा लही हो, परलोके पायी पद देव । शील व्रत फल्या सती हो, नीली जस गुण हेव, रे जीवड़ा ॥७१ सती सीता शील बल हो, अग्निकुंड जल पूर । सूरजें पण पूजा कही हो, सोलमें स्वर्ग हुओ सुर, रे जीवड़ा ॥७२ द्रौपदी चन्दन बाला आदि हो, शीलतणा फल जोइ । इहि लोके जस गुण पायीने हो, परलोके देव पद होइ, रे जीवड़ा ॥७३ सुदर्शन श्रेष्ठी भलो हो, तेहनों गुण प्रसिद्ध । सुर नर पूजा पायीने हो, शील फल हुवो सिद्ध, रे जीवड़ा ॥७४ जयकुमार सेनापति हो, शील प्रशंसा इन्द्र कीध । देव आदी परीक्षा करी हो, जस कीत्ति जय लोध, रे जीवड़ा ॥७५ सकेत श्रेष्ठी आदें करी हो, जिणे जिणें शील पाल। सुर पूजा महिमा लही हो, संसार तणा दुःख टाल, रे जीवड़ा ॥७६ तेह कथा तमें जाण ज्यो हो, जिन शासन मझार । शील महिमा किम वर्णहो, किम कह्यो जाइ पार, रे जीवड़ा ॥७७ शील जिणें न वि पालीयो हो, तेह तणीं कहं बात । जमदंडी माता शिवा हो, भूपे कियो तस घात, रे जीवडा ॥७८ दुःख देखि दुर्गति गयो हो, जमदंडी कोटवाल । लंपटपणे माता सेवी हो, पाम्यो बहु कष्ट जाल, रे जीवड़ा ।।७९ रावण तिहुं खंडे राजीया हो, सीता तणे अभिलाष । निन्दा अपजस पायीयो हो, पाम्यो नरक निवास, रे जीवड़ा ॥८०
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पदम-कृत श्रावकाचार
धवलश्रेष्ठी दुरमती हो, मदन मंजूषा करी आस । धन जस भ्रष्ट थयो हो, सहे दुर्गति-वास, रे जीवड़ा ॥८१ अमता महादेवी नामें हो. कब्ज लंपट कनार । छट्टो नरक भूमि उपनी हो, जसोधर कंत मार, रे जीवड़ा ।।८२ ए आदें बहु नर नारी हो, जेणे शील न रक्ष । तेह दुःख सुवर्णवु हो, संसार दुःख तणा दोष, रे जीवड़ा ॥८३
वस्तु छन्द शील पालो शील पालो, भविजन भविजन भावे करी । शील चिन्तामणि कामधेनु, शील कल्प वृक्ष अमूल्य ।
मनोहर सूर नर वर पद देई नें, अनुक्रम आपे मोक्ष निरभर ॥ जे नर नारी शील पालसी, टाले सर्व अतीचार | जिन सेवक पदमो कहे, धन धन्य ते अवतार ||८४
__अथ पंचम अणुवत वर्णन । ढाल विणजारानी चौथो कह्यो शीलवत, पांचमो व्रत हवे सांभलो, विणजारा रे। परिग्रह संज्ञानाम, थूल अणुव्रत ऊजलो, विणजारा रे ॥१ श्रेत्र वास्तु धन धान्य, द्विपद वली चतुष्पद, विणजारा रे । आसन शयन कुप्य भांड, आदि पद दश भेद, विणजारा रे।।२ क्षेत्र करो मर्याद, हल भूमि संख्या लीजिये, विणजारा रे । हाट घर तणा वास, कोटि-कोटि संख्या कीजिये, विणजारा रे ॥३ धन सौवर्ण रत्न रूप्य, अर्थ मर्यादा कीजिये, विणजारा रे । गोधूम चणका शालि, कोग कोदव आदें संक्षेपिये, विणजारा रे ॥४ दासी दास कर्मकारि, चौपद महिषी गोकुल, विणजारा रे। शकट सिंहासन रथ, जान जंपान चकडोल, विणजारा रे ॥५ टोल खाट पट पाटि, वस्त्र आभूषण नारीना, विणजारा रे । धातुतणा भाजन, क्रयाणा वस्तु-रक्षण, विणजारा रे ॥६ क्षेत्र आदि दस विध परिग्रह तणी संख्या करो, विणजारा रे । छांडि ममता मोह, निज मनें संतोष धरो, विणजारा रे ॥७ छोड़ो बहु आरंभ, आरंभथो हिंसा घणी, विणजारा रे । हिंसा तृष्णाकारी पाप, तृष्णा पाप दुख खाणी, विणजारा रे ।।८ परिग्रह पाप नुं मूल शूल-समो साले सदा, विणजारा रे । जिम जिम मिले बधन, तिम तिम लोभ बाघे तदा, विणजारा रे ॥९ लोभ ए दावानल धन, ईंधन अधिको बले सही, विणजारा रे । तृष्णा तेल संचित अधिक पणे घणु तल फले, विणजारा रे ॥१० लोभे करे सह क्षोभ, लोभके हर्ने माने नहीं, विणजारा रे । लोभे बह अवगुण, लोमे दुःख सदा सहे, विणजारा रे ॥११ संतोष पाणी पूर, लोभ अनल ते उछले, विणजारा रे । तृष्णा तजो पाप बीज, मन सुघेते योग वो, विणजारा रे ॥१२
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श्रावकाचार-संग्रह
धन काजे सहे कष्ट, वन सागर दे समें फिरे, विणजारा रे । वरषा शीत उष्ण काल, वात शीतलु अणुसरे, विणजारा रे ॥१३ धन काजे करे सेव, घोटक आगल संचरे, विणजारा रे। मस्तक धरे बहुभार, धन काजे कष्ट घणुं करे, विणजारा रे ॥१४ कष्टे मिले जो धन, तो दुर्जन राजा हरे, विणजारा रे। जल अग्नि धन विघ्न, गोत्री धन इच्छा करे, विणजारा रे ॥१५ धन उपजतां होय कष्ट, जो आव्यो तो कष्टे रहे, विणजारा रे । कष्टं आवे कष्ट देयं जाय, धिग धिग रा धन कष्ट वहे, विणजारा रे ॥१६ मोटा करे मनोरथ, पुण्य विना ते किम फले, विणजारा रे। उदय होय जो पुण्य, तेह सहिजे सह मिले, विणजारा रे ॥१७ इम जाणी करो पुण्य, पुण्य नियम थी ऊपजे, विणजारा रे । नियम करो संग सीम, सीमे संतोष ऊपजे, विणजारा रे ॥१८ नियम विना नहीं पुण्य, पुण्य विना सुक्ख नहीं, विणजारा रे । नियम विना मन प्रसार, मन प्रसरे, पाप उपजे, विणजारा रे ॥१९ मन तृष्णा महापाप, सालसिक्थ ए माछलो, विणजारा रे । मन तृष्णा करि तेह, नरकें गयो ते कसमलो, विणजारा रे ॥२० करो मन गज संवर, मन गज गाढ़ो बंधीए, विणजारा रे । परिग्रह-संख्या ते सीम, नियम-अंकुश ते साधी ए, विणजारा रे ॥२१ मन मोकले महादुक्ख, छिन एके त्रिभुवन फिरे, विणजारा रे । पवन थी मन चंचल, सबलि सघले ते संवरे, विणजारा रे ॥२२ परिग्रह तणा मनोरथ, मन प्रसर पाप कारण, विणजारा रे । अणमिलतां चिते जेह, तेह कीजे निवारण, विणजारा रे ॥२३ जिम किम रहे निज ठाम, त्याम पणे मल संवरो, विणजारा रे । बुद्धि बले धरि संतोष, रोष राग ते परिहरो, विणजाग रे ॥२४ नियम बिना नर-नारि, असंज्ञी पशुसम जाणिये, विणजरा रे। तेह भणी संग सोम, यथाशक्ति तिम आणिये, विणजारा रे ॥२५ परिग्रह संख्य अणुव्रत, थूल पणे पंचमुकही, विणजारा रे। छोड़ो पंच व्यतीपात, तेह भेद सुणो सही, विणजारा रे ॥२६ अतिवाहन पहिलो नाम, अतिसंग्रह अतिविस्मय, विणजारा रे । अति लोभ चोथो भेद, अति भारारोपण पंचम, विणजाग रे ॥२७ अतिवाहन ते जोइ, बैल आदि पशु खेडे घj, विणजारा रे । नियम उलंघी जेम यदि, अतिवाहन दूषण तेह तणु, विणजारा रे ॥२८ संग्रहे धान अत्यन्त, कुहि कोट पहे धणुं, विणजारा रे । बेंचे नहीं अति लाभ, लोमे करी करे घj, विणजारा रे ॥ २९ लेय बेंचे क्रयाj, वस्तु सार मूल्य देई, विणजारा रे। पळे करे विसंवाद. तृष्णा पणे विस्मय लेई, विणजारा रे ॥३०
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पदम-कृत श्रावकाचार
विणजी वस्तु अत्यन्त लाभ लेय विक्रीय करी, विणजारा रे । पछे करे मन क्षोभ, बहुमूल्य ममता घरे, विणजारा रे ॥३१ सखर बेईल महिष, जीव जंता भार वहे, विणजारा रे । मान अधिक छाले भार, अतिभारा रोप दोष लहे, विणजारा रे ॥३२ इणि परि पंचे अतिचार, पंचम व्रत, दोष तजो, विणजारा रे । परिग्रह संख्या अणुव्रत, थूण पणें निर्मल भजो, विणजारा रे ॥३३ जिम जिम कीजे संवर, तिम तिम सन्तोष ऊपजे, विणजारा रे । सन्तोषे होय पुष्य, पुण्यें धन सुख सम्पजे, विणजारा रे ॥३४ संग-संख्या शुभ नियम, पंचम अणुव्रत किणें पाल्यो, विणजारा रे । हवे कहुं ते सम्बन्ध, ,जेणें व्रत अजुआ लीयो, विणजारा रे ॥३५ कुरुजांगल इह देश, हस्तिनागनयर भलों, विणजारा रे । सोमप्रभ तसराय, कुरुवंशी भूप गुण-निलो, विणजारा रे ॥३६॥ तस पुत्र जमनामा, सुलोचना नारो तेह तणी, विणजारा रे । भरततणों सेनापती, महिमा जसकीति घणी, विणजारा रे ॥३७ वन्दे सह गुरु पाय, एक पत्नी व्रत लियां, विणजारा रे । सुलोचना एक नारि, अवर नारी-नियम कियो, विणजारा रे ॥३८ एक दिन जयकुमार, ऊपर ली भूमि बैठो रूही, विणजारा रे । पासे सुलोचना नारि, पूरब भवकथा कहीं, विणजारा रे ॥३९ हिरण्यवर्मा भूपाल, प्रभावती नारी वणी, विणजारा रे । जातिस्मरण - प्रभाव, पहिला भव सम्बन्ध सुणी, विणजारा रे ॥४० तब आवी विद्याचंग, आकाशगामिनी आदे करी, विणजारा रे । साधी थी जे पेहले भव, पुण्य प्रभावें ते वरी, विणजारा रे ॥४१ विमान रचि विशाल, विद्याधर जात्रा गयो, विणजारा रे । साथै सुलोचना नारि, जयकुमार सन्तोष भयो, विणजारा रे ॥४२ मेरु आदि करी जात्र, केलाश पर्वत आवीयो, विणजारा रे । चौबीस जिन हिम गेह, भरत भूपें जे भावीया, विणजारा रे ॥४३ पूजी वन्दि जिन पाय, राय-राणी गिरिर्नशर गया, विणजारा रे । वन क्रीड़ा करे सार, जुजुआ दोई जब ते थया, विणजारा रे ॥४४ तिणसमय सौधर्मनाथ, साथ सभा माहे इम कहे, विणजारा रे । पुण्यवन्त जयकुमार, एक पत्नी नाम वहे, विणजारा रे ॥४५ तब रविप्रभ एक देव, परीक्षा करवाते संचय, विणजारा रे ।
नारी शुभरूप, तिहु विल्यासती परिवर्यो, विणजारा रे ॥४६ जिहां छे जयकुमार, तिहां आगल आवी ऊभी रही, विणजारा रे । हाव भाव विलास, हास्य करी विनती कही, विणजारा रे ॥४७ मी विद्याधर ईश, तरु नारी हुं रूवड़ी, विणजारा रे ॥४८ निज कंत इच्छा भाव, ते तजी हुं इहा आवी, विणजारा रे ।
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श्रावकाचार-संग्रह
तुझ ऊपर धर्यों मोह, मुझ वांछा पूरो हवे, विणजाग रे ॥४० जब सुणो जय बात, पात वज्र जाणे हुओ. विणजागरे । जय कहे सुणों तम्हें बात, भाव कांड कोजे जुठो. विजारा रे ॥५० तुर्ने कहीइ परनार, सुलोचना विण नियम मुज्झ. विगजारा रे। सहोदरा होइ परनार, खप नहीं माह रे तज्ज्ञ. विगजाग रे ॥५१ इम कही धरियो मौन, कायोत्सर्ग लेइ ध्यान रह्यो विशजागरे । निश्चल जैसो मेरु. धीर वीर गम्भीर कह्यो, विणजाग ॥ तब नारी तिणी वार. दुर्धर, उपसर्ग करे, विणजाग रे ! देखाडे बहु शृङ्गार. रागचेष्टा विकार बरे. विणजाग रे ॥५३ निष्कम्प जाणिय मन्न, तब देव ते प्रगट थयो. विणजारा रे । धन्य धन्य जयकुमार. सुधन्य-वन्य शील भयो. विणजाग रे ॥५४ इन्द्र प्रशंसा तव कीध. सत्य सहाय तृझ निर्मलो. विणजागरे। आयी वस्त्र-आभरण, सुर पूजी गयो ऊजलो. विणजारा रे ॥५ जय पामी जयकुमार, निज नागे मुघर आवायो. विणजागरे । भोगवी राज भंडार. सार वैराग ते भावीयो. विजाग रे ॥५६ भव भोग क्षग-भंग, रंग जिम मेघ बीजली. विणजाग रे ! अथिर आयु जिम वायु, काय योवन जल अंजली. विण जागरे । राजा थापी निजपुत्र. समासरण आदि जिन दिया. विणजारा रे । छोड़ा परिग्रह भार सजम धरि आनंदिया. विणजाग रे ॥ ८ ध्यान अध्ययन अभ्याम. तप वल कम निर्जरी. विणजागरे । पामी केवलज्ञान. जय मुनि मुक्तं गयावी. विणजाग ।। जुओ जुमओ नियम प्रभाव, एक पत्नी व्रत पालियां. विणजारा रे! जय पामो सुर पुज्य, संसार दु.ख वलो टालिया. विणजाग रे ।।६० इणि परे करी मंग सीम. पंचम अणुव्रत जे धरे. विणजाग रे। पामी सोलमें स्वर्ग, अनुक्रमें शिवते अनुसरे विणजाग रे ||६|| पाले नहीं जे व्रत्त. परिग्रह-ममता में करें. विजाग । नियम विना होइ पाप. पापें दुर्गति सचरे, विणजाग ६२ लब्धदत्त इक श्रेष्ठ, परिग्रह ममता करी घणो, विणजाग रे। संचिय कूर्च नवनोत, अग्नि जल्यो ते तृष्णा धणो. विणजाग रे ॥६३ पांम्यो बहु दृान, मरण पामी दुर्गति गयो, विणजाग रे । ममता पाप विपाक, सदा सहु दुखी भयो, विणजारा रे ॥६४
दोहा मुभूमि चक्रवर्ती आठमो. बहु आरंभ पसाय । लोभ तृष्णाफल लपट. मातवें नरके जाय ।। नव नारायण नारद, चक्री प्रति वासुदेव । बह आरंभ पाप आचरो. नरके पान्या दुख हेव॥ जे जे नरकें जीव उपनां. उपजे हैं वर्तमान । वलो उपजमे जे नाग्को. ते पापारंभ निदान । इम जाणी मन दृढ़ करी, छांडो आरभ पाप । मंतोषे मन संवर्ग, जिम टले. भव-मताप ॥८
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पदम-कृत श्रावकाचार
ढाल चौपाइनो पंच अणुव्रत इणि परें कही, त्रण गुणवत हवे मुणो सहा । अणुव्रतने वधारे जेह, ए त्रण ही सार्थक गुण तेह ॥? दिग्-संख्या पहलो गुणवत, बीजो देश व्रत गुण सत्य । योजो अनर्थ दंड परिहार. एत्रणे व्रत करिये मार ॥२ पूरव दक्षिण उत्तर दिसा, अग्नि नंऋत्य वाय ईशान। इन जुत अधो ऊवं दस मेद, एह दिस-संख्या करो तेह ॥३ नदी सागर पर्वत वन जाणि. देश नयर संख्या मनि आणि । गांव योजन तणी करो मर्याद, दिग्-संख्या व्रत गुण अनादि ॥४ भूमि-सीमा कोजे जेतलो. उलंघे नहीं किमे तेतलो। सीमा अभ्यन्तर अणुव्रत होइ, सोमा बाह्य ते महाव्रत जोइ ।।५ थावर त्रस जीव रक्षा कोध. अभय दान सदा तस दोध । दिग-संख्या होइ व्रत गण, महाव्रत पुण्य आये निपुण ॥६ यत्न करि घरो गणव्रत सदा. किणे विसारो निजवन कदा। व्रत तणां छोड़ो अतिचार. हवे कहूँ ते पंच प्रकार ||७ अघो ऊर्ध्व अतिक्रम दोय. तिरछ गमन त्रीजो ते जोय। क्षेत्र-अवधि-लंघन चौथो होय. स्मृति अन्तर पंचम ते सोय ।।८ गिरि-शिखर आकाशे जे चढे ऊवं गमन अतिक्रम जड़े। भू-गर्भ वापा कप गर्तखाणि. अधो गमन अतिक्रम ते जाणि ९ नगर-गमन उलघन जेह, तिरछ अतिक्रम दूषण तह । क्षेत्र-अवधि-लोप न वली करे. सोमस्मति अन्तर ध्यान धरे ॥१० इम जाणोने थई मावधान, व्रततणां छोड़ो दोष वितान । निर्मल गणव्रत सदा वर्ग. निजशक्ति दिग-मच्या करो ॥११ देशविरत हवे तम्हें मुणो. दिग-संख्या माहे ते भणों। निजनयर प्रतोलो भणी. मच्या कोजे सोमा भणी ॥१२ प्रभात समय निरन्तर नणी, सोमा कोजे गांव योजन तणा। ग्राम सेरी पाटिक हाट गेह. अनुदिन संख्या कोजे तेह ॥१३ देश गुणव्रत इाण परिवरो, निजशक्ति संख्या अनुसरो। तहतणा छोड़ा अतिचार, हवे कहु ते पंच प्रकार ॥१४ आनयन नाम पहलो अतिचार, पर-प्रेषण बीजो प्रकार । वीजो शब्द, रूप चौथो होय. पुद्गल क्षेप पंचम ते जोय ॥१५ रहते निज सीमा मझार, पर पाहि वस्तु अणावे मार। उपदेश देय करावे काज, पर-प्रेषण ते दोष-समाज ॥१६ आपण सीमा-माहे रहो, काज करावे शब्दें कही। रूप देखाड़ी पर आपणों, सेवक पेंरी कीजे घणो ॥१७
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भावकाचार-संग्रह काज वश पुद्गल-क्षेप करी. प्रेरे परने संज्ञा घरी। इणि परे अतिचार पंच, दोष टालि करो पुण्य संच ॥१८ देश अणुव्रत इणि परें धरो नियम-संख्या अणुव्रत सरे । थाबर जीव त्रस-रक्षा काजि, जल-सहित पालो भव्य राजि ॥१९ त्रीजो गुणवत अनर्थ दड, मन वच काया त्यजो प्रचंड । अर्थ विनाजे कीजे काज, ते अनर्थ पाप जानो समाज ॥२० अनर्थदंड तम्हो दूर करो, पंचविवि सदा परिहारो। तेह तणा सुणो हवे मेद, वृथा पाप कोजे नहिं खेद ॥२१ पाप उपदेशो पेहलो नाम, हिंसा उपदेश दुजो उद्दाम । त्रीजो अपध्यान चौथो दुःश्रुति हाय, प्रमादचर्या पंचम ते जोय ॥२२ पापोपदेश न वि दीजिए, हिंसा झूठ चोरी नवि कीजिए। मेंथुन सेवा परिग्रह मोह, क्रोध मान माया मद लोए ॥२६ भूमि-खनन वृथा राधन नीर, अग्नि-जालण निक्षेप समीर। तरु-छेदन भेदन त्रसजीव, खंडण पीसण पातक अतीव ॥२४ धर्म-विघ्न विहवा आदेश, वापी वेहला सरकप निवेश। धर्म विना जेणे उपजे पाप. तेह उपदेश छोड़ो संताप ॥२५ हिंसातणा उपकरण जे बहु. खड़ग आदि आयुध जे सह । कोस कुदाला रिका दात्र. फरसी सांखल बंधन कुं गात्र ॥२६ अग्नि ऊखल मूसल कुजंत्र. क्षेत्र सारण वन वाडी तंत्र । मंजारि कुर्कट श्वान सिचांण, ते नवि पालो हिंसक अज्ञान ॥२७ दुर व्यापार तजो अपध्यान, पापकारी बहु कुवस्तु संधान । कन्दमूल मधु माखण व्यापार, जिणे उपजे सावध अपार ॥२८ हिंसा मषा चोरी संभोग, रतिचिंतन टालो संयोग । इष्ट अनिष्ट पीडा निदान, आर्त पाप तजो अपध्यान ॥२९ भरत पिंगल संगीत कुनाद, कोकशास्त्र करे उन्माद । दुःश्रुति अष्टादश पुराण, कलकारी परमत कुराण ॥३० कामण मोहण वशि कारी जंत्र, स्तम्भ डम्भ चमत्कारी मंत्र । राज आदि विकथा पंच वीस, करतां सुणतां होइ पाप-उपदेश ॥३१ प्रमाद पणे ते नवि चालीइ, फोके पाप पिंड नवि घालीइ । आलस कीघे सावध उपजे. यत्न विना पुण्य किम नीपजे ॥३२ इम जाणिय छोड़ो परमाद, राग द्वेष तजो विसवाद । अनर्थ दंड तणा अतिचार, पंच भेद करो परिहार ॥३३ कन्दर्प पहेलो व्यतिपात, बोजो कुकर्म त्रीजो मौखर्य बात। असमीक्ष्याधिकरण चौथो होय, भोगोपभोगानथं पंचम जोय ॥३४ काम चेष्टाकारी बहुराग, बीभत्स वचन बोले अभाग। कुत्सित बोले बहुभंड, गालि दुर्वाक्य बोले व्रत खंड ॥३५
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पदम-कृत श्रावकाचार
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मौखर्य पणे जल्पन बह करे. काज विना वचन ज उच्चरे । हित-अनहित अविचारी कहे. असमोक्ष्याधिकरण ते वहे ॥३६ भोग-उपभोगकारी जे वस्त. अर्थ विना चिते समस्त । ये पंच टालो अतिचार. बीजो व्रत पालो गुणधार ॥३७
वस्तु छन्द त्रिण गुणव्रत त्रिण गुणव्रत धरो भवियण भावे करी। पंच अणुव्रत गुणदायक. सार्थक नाम जेह तणां निर्भर ।
थावर त्रस रक्षा कारण वारण संसार-दुःख दुर्धर ।। जे भवियण जले करी पाले गणव्रत सार । सुर नर सुख ते भोगवी. ते पामें भवपार ॥३८
ढाल रासनी गुणव्रत इम में वर्ण्यव्यो ए, हवे कह शिक्षाव्रत चार तो। शिक्षा जीव हित कारण ए, वारण संख्या संसार तो ॥१ भोग्य वस्तु गिक्षा पहिलो ए, उपभोग्य दूजो होय तो। अतिथि मंविभाग श्रीजो व्रत ए. अंत मलेखणा चौथो जोय तो॥२ भोग्य वस्तु ते जाणिये ए, जे होइ भोग्य एक वार तो। पुनरपि काज आवे नहीं ए, अनुभव होइ निःसार तो ॥३ चन्दन कुंकुम केशर ए, पुष्प फल रस-पान तो। असन खादिम स्वादु वस्तु ए, लेय पेय पकवान तो ॥४ भोग्य वस्तु ते परिहरो ए, सावद्यकारी अहित तो। कन्दमूल अथाणा आदि ए, अनन्तकाय परित्याग तो ॥५ पत्र पुष्प शाक त्यजो ए, नवनीत दुध नहि लाग तो। दोह्यां पछी काचा दूधमां ए, बेहु घड़ी केडे जाणि तो ॥६ सम्मळुन असंख्य होइ ए, इम कहे जिनवाणि तो। पशु दोहि द्ध गालिये ए, उष्ण करो ततकाल तो ॥७ जल करी ते आखरो ए, आलस छांडी तम्हो बाल तो। . पीलु प्रपोटा जांबु बोर ए, बेल सेलर जाति तो॥८ मीठा कडुवा तुंबडा ए, पिंडोला कुसुमां भांड तो। किरकाली गलकल काफल ए, छिदल काचां दही छांछ तो॥९ निज कंठ श्वास योगिये ए, उपजे त्रसजीव राशि तो। देश विरुद्धांरी गणां ए, अवर विरुद्ध कवली जेह तो ॥१० शास्त्र विरुद्धो जे होइ ए, भक्ष तजो बहूँ तेह तो। .... .... .. .... .... .." ॥११ ए द अयोग्य जे जाणिये ए, जीव असंख्य, अनन्त काय तो। लव सुख, दुःख मेरु मम ए, भविजन ते किम खाय तो ॥१२ इम जाणि भोग्य वस्तु ए, कीजे तस मर्याद तो। त्रस थावर-रक्षा हेतु ए, होय नहीं हरष विषाद तो ॥१३
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श्रावकाचार-संग्रह
प्रथम ते शिक्षाव्रत तणा ए, छोड़ो पंच अतिचार तो । पंच इन्द्री भोग संख्या ए, उलंघन करो परिहार तो ॥१४ बीजो शिक्षाव्रत सुणी ए उपभोग वस्तु जेह तो । वली वली जे अनुभवीये ए, उपभोग्य वस्तु जाणो तेह तो ॥१५ निज नारी आदें करी ए, वस्त्र आभूषण माल तो ।
कनक रजत माणिक मोती ए, हीरा छीक परवाल तो ॥१६ देश नयर घर हाट ए, द्विपद चतुष्पद आदि तो । चेतन अचेतन जे वस्तु ए तस कीजे मर्याद तो ॥१७ हस्ती तुरंग पालकी रथ ए, भाजन वस्तु वाहन्न तो । गीत नृत्य वाजित्र आदि ए, गमन शयन आसन्न तो ॥ १८ तिथि नामे अन्न फल रस ए, नित प्रति कीजे नेम तो । निजशक्ति मास वरस ए. जावजीव अथवा सीम तो ।।१९
म विना एक घड़ी ए, वृथा गयो तेनों काल तो । इम जाणि सावधान थई ए, कीजे व्रत संभाल तो ॥२० म विना नर जाणवु ए, कृत्रिम मनुष्य आकार तो । अथवा असंज्ञी पशु- समो ए, जाणें नहीं विचार तो ॥२१ नेम - सहित एक दिन ए, जीवितव्य तस प्रमाण तो । व्रत विना वरस कोटी ए, वृथा जीवितव्य जाण तो ॥२२
इम जाणि नियम धरो ए, नियमें उपजे पुण्य तो । पुण्ये ऋद्धि वृद्धि संपजे ए ऋद्धिपणें सुख धन्य तो ॥२३ मूढ मन चितवी ए, वांछा करे बहुभोग ए तो । उपभोग चिते घणां ए पुण्य विण नहीं संजोग तो ॥२४ उपभोग संख्या करो ए, संख्याथी होय संतोष तो । संतोषे सुख उपजिये ए. नवि होइ राग कुरोष तो ॥२५ उपभोग व्रततणां ए. जोड़ो पंच व्यतिपात तो । व्यतीपातें पाप उपजे ए, पापें होवे व्रतघात तो ॥ २६ अनुप्रेक्षा पहिलो दोष ए, अनुस्मृति दूजो होय तो । अति लौल्य तृष्णा चौथो ए, अनुभव पंचम जाय तो ॥२७ निरन्तर भांग सेवीइए. ते अनुप्रेक्षा नाम तो । भोग-सीम संभारे नहीं ए, ते अनुस्मरणदोष भान तो ॥ २८ लंपट पणें भोग सेविये ए, अति रागे तुल्य होइ तो । भविष्यत भोगवांछा करिए, अतितृष्णा ते जोइ तो ॥ २९ अतृप्तिपणें भोग सेवी ए. अनुभव करे असंतोष तो । पंच इन्द्री उपभोग्य सीम ए, उलंघन पंच दोष तो ||३० उपभोग्य व्रततणा ए, टालो पंच अतिचार तो । सावधान पणें सदा धरो ए, निर्मल शिक्षाव्रत सार तो ॥ ३१
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पदम कृत श्रावकाचार
व्रत पाले पुष्य उपजे ए, जस महिमा गुण होइ तो ।
सुर नर वर सुख पामीइ ए, अनुक्रमें शिव सुख जोइ तो ।। ३२ तीजो शिक्षाव्रत तणो ए, नाम अतिथि संविभाग तो । आहार औषध अभय ज्ञान ए, दीजे चतुविध त्याग तो ||३३ तिथि वार पर्व मांही ए, निमित्त उच्छव नहि राग तो । काय स्थिति काजें अन्न लीये ए, ते अतिथि पात्र करूँ भाग तो ॥३४ आमंत्रण निमित्त करो ए, आहार काजे आवे जेह तो । अतिथि पात्र ते हुइ नहीं ए, अभ्यागत जाणों सहु तेह तो ॥ ३५ त्रिधा पात्रे भेद सुणो ए, विधि जणांवली भेद तो । दान तणां भेद कहूं ए, जिम को जिनदेव तो ॥३६ उत्कृष्ट मध्यम जधन्य पात्र ए, मुनिवर पात्र उत्कृष्ट तो । अट्ठावीस मूल गुण धारी ए, रत्नत्रय विशिष्ट तो ॥३७ परिषह सहें तिहँ कालतणा ए, धर्मदश लक्षण सहित तो । सहस्त्र अष्टादश शीलधर ए, परिग्रह चौवीस रहित तो ॥३८ उत्तम अष्ट ध्यान धरी ए, तप द्वादश गुणवंत तो । सोल भावना भावक ए, तेर क्रियाव्रत संत तो ॥ ३९ तप जप संजम आचरे ए, निज-पर करितु उपकार तो । ख्याति पूजा वांछे नहीं ए, भवोदधि तरंग तार तो ॥४० रागद्वेष सर्व विगलाए, तृण-रत्न समभाग तो । ऊँच-नीच समगेह ए, श्रीमन्त समधन त्याग तो ॥४१ ममता मोह थी विगला ए, गुण चौरासी लक्ष तो । ध्यान अध्ययन सदा करिए, उत्तम पात्र मुनि दक्ष तो ॥४२ जती थये जे धन ग्रहे ए, द्रव्य आपे दातार तो । जतीव्रत भंग पापी ए. ते जाइ नरक अवतार तो ॥४३ तंत्र मंत्र तंत्र करे ए, कामण मोहण वशीकार तो । ज्योतिष वैद्यक कुविद्या करे ए, तेहने पाप अपार तो ॥४४ श्रावक मध्यम पात्र कह्या ए, जे घरे प्रतिमा इग्यार तो । समकित अणुव्रत घरे ए, ब्रह्मचर्यं गुणधार तो ॥ २५ व्रत विना दर्शन धरे ए, भक्ति करे जिन देव तो । तत्त्व श्रद्धा धर्म रुचि ए, जघन्य जाणो संक्षेप तो ॥४६ सप्त गुण दातारतणा ए, श्रद्धा शक्ति अलुब्ध तो । भक्ति ज्ञान दया क्षमा ए, गृहमधी गुण शुद्ध तो ॥४७ श्रद्धापर्णे दान - रुचि करे ए, शक्ति प्रगट करे निज तो । दान भेद वांछे नहीं ए. अलुब्ध पुण्य गुण बीज तो ॥४८ पात्र विनया भक्ति करे ए, विवेक सहित विज्ञान तो । जीव जत्नें दया करो, कोपे क्षमा निधान तो ॥४९
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श्रावकाचार-संग्रह
स्नान करी धौत वस्त्र पेहरी ए, पूजि जिन भवतार तो। मध्याह्न समये द्वारावलोकन ए, गणिये नव नमोकार तो ॥५. पुण्य प्रेयों पात्र आवीयो ए, सावधान थई मनि धीर तो। तिष्ठ तिष्ठ करो पडिगाहिये ए, प्रासुक देखाडी नीर तो॥५१ गुरु उच्चासन दीजिए ए, चरण कोजे प्रक्षाल तो। गुरु-पद-पूजन कीजिए ए. प्रणाम कीजे गुणमाल तो ॥५२ मन वचन काया शुद्ध कीजिए ए, पवित्र देहु आहार तो। दोष त्रांणुथी वेगलो ए, एषणा शुद्धि थी वेगला तो ॥५३ सप्त गुण दातार तणां ए, नव ए पुण्य प्रकार तो। सोल गुण प्रगट करो ए, दान वेला सविचार तो ॥५४ तुष्टि पुष्टि तप-वृद्धिकरी ए. न्याये उपायु जे धन्न तो। निज कुटुम्ब काजे नीपनु ए, ते सदा द्यो शुभ अन्न तो ॥५५ आहारदान इम दीजिए ए, विवेक लेइ ते पात्र तो। ममता मोह थी वेगलो ए, स्थित कीजे निज गात्र तो ॥५६ आहार थी औषध जाणिए ए, जेह थी समें क्षुधारोग तो। रोग शमें कृपा नीपने ए, नीपने ज्ञान नियोग तो ॥५७ इम जाणि आहार दीजिए ए, छांडी कृपण-कुमाय तो। जस महिमा पूजा करी ए, भव-सागर जे नाव तो ॥५८ उत्तम औषध दान दीजिए ए, पात्रतणा टालो रोग तो। जिणे किणे उपाय करि ए, शरीर कीजे सुख भोग तो ॥५९ निरोगपणे दृढ़ अंगि ए, धरे ते संजम-भार तो। ध्यान अध्ययन तप आचार ए, दुःकर्म-क्षयकार तो ॥६० च्यार नियोग चतुरपणे ए, विस्तारो जिन सूत्र तो। .... ...... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ॥६१ लिखो लिखावों भक्ति करी ए, जिनवाणी अनुसार तो। शास्त्रदान सदा दीजिइ ए, निज-पर करे उपकार तो ॥६२ वेहरी मठ करावीइ ए, शून्य घरगुफा स्थान तो। संजमो सहाय कारण ए, दीजे वसतिका दान तो ॥६३ अभयदान शुभ दीजिइ ए, थावर साजीव जेह तो। मन वचन काया करीइ ए, रक्षा कीजे सह तेइ तो ॥६४ दीन दरिद्री दोहिला ए, अशरण कायर जे वृद्ध तो। जिनें दीयें दया उपजे ए, कोजे ते कृपा समृद्ध तो ॥६५ अभयदान अभ्यन्तर ए, उत्तम दान ए चार तो। जिहां दया तिहाँ दान महं ए, दया सर्व सुधीर तो॥६६ केवल दर्शन ज्ञान सुख ए, केवल वीर्य वितान तो। जिहाँ आतमा तिहाँ गुण ए, तिम अभय माहें सब हो दान तो ॥६७
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पदम-कृत श्रावकाचार
दया बिना तप जप नहीं ए, दया विण नहीं घर्म ध्यान तो । दया विण शम संजम नहीं ए, दया सर्व प्रधान तो ॥ ६८ इम जाणिय दया दीजिए ए, कीजे पर उपकार तो ।
गुण सगला दयादान ए, घणुं सुं कहीए वारो-वार तो ६९ सयल भूघर माँहि मेरु ए, देव माँहे जिन देव तो । रत्न माँहि चिन्तामणी ए, तिम दान माँही दया एव तो ॥७० पात्र आहार दान फल ए भोग भूमितणा सुक्ख तो । सुर नर वर पदवी लही ए, अनुक्रमे धर्मं मोक्ष तो ॥७१ योग्य औषध दानफल ए, निरोग होइ शरीर तो । कान्ति कला लावण्य गुण ए, सबल सरूपी धीर तो ॥७२ ज्ञानदान तणों फल ए, मति श्रुत अवधि बोध तो ।
मनः पर्यय केवल गुण ए, कोविद कला कवि सुद्धि हो ॥७३ गढ़ गोपुर धवल गृह ए, त्रि-सप्त खणा आवास तो । देव विमान असुर रोह ए, मठ दानें पुण्य राशि तो ॥७४ कोड़ि पूरव पल्यतणा ए, सागर जे वर आयु तो । उत्तम काय सबल पणुं ए, लहे ते दया पसाय तो ॥७५ गृहां धरमइ दानन बड़ी ए, व्रत सुधे न वि होइ तो । निज शक्ते प्रगट करिए, दान देयो सहु कोइ तो ॥७६ दानें लक्ष्मी संपजे ए, दानें जस गुण होइ तो । ख्याति पूजा महिमा घणु ं ए, दान तोले नहीं कोई तो ॥७७ इहि लोके जस विस्तरे ए, पंचाश्चर्य करे देव तो । दातृ-पात्र विधि लहो ए, परलोक शिव संक्षेप तो ॥७८ दान गृहां बन संपजे ए, जेह वो पंक्षी माल तो । आठ पोहर पावकरी ए, दुर्गति लहे ते बाल तो ॥७९ दान पुण्ये लक्ष्मी वघे ए, निष्कासित कूप नीर तो । दुष्टाती वाघे जिम ए, तिम दाने धन धीर तो ॥८० व्यसन चोर हरे नहीं ए, दाने खुटे नहि धन्न तो । जिम सर उगन मूकीड ए, नीर रहे अखूट तो॥८१ घने सहु संकट टले ए, विष भी अमृत सम थाइ तो । शत्रु मित्र समो थई ए, दाने राज्य पसाइ तो ॥८२ अल्प धन हू पात्र -दानें ए, पुण्य पामें विस्तार तो । अल्प वड़ बीज जिम ए, तरु पामें बहु विस्तार तो ॥८३ सम्यग्दृष्टी पात्र दान ए, सुर नर पायी सौख्य तो । चक्रवर्ती तीर्थंकर पद ए, पामें अविचल मोक्ष तो ॥८४ दान पात्र दान विधि ए, इण कही संक्षेप तो । अवर कुपात्र मेद कहुँ ए, जिम जाणों गुण हेव तो ॥८५
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श्रावकाचार-संग्रह पात्र-कुपात्र भेद विहु ए, कुपात्र कहुं हवे चिह्न तो। समकित विना जे व्रत धरे ए, क्रिया पाले चल मन्न तो ॥८६ यतीश्वरा वक वेष लेई ए, परीषह सहे त्रण काल तो। तीव्र तप संतपि घणो ए, कष्ट करे विशाल तो ॥८७ तप व्रत-सहित मुनि ए, पोषे जे मिथ्यात्व तो। अथवा श्रावक मिथ्यात्व-पोषि ए, ते कुपात्र साक्षात तो ॥८८ दृष्टि व्रत जैन गण नहीं ए, आरंभ करे षटकर्म तो। मिथ्यात्वी मूढमती ए, संग-सहित गहाश्रम तो।।८९ देव-गुरु साधर्मी तणी ए, निन्दा करे गुण हीन तो। जिनशासन थी वेगला ए, ते अपात्र कहीए दीन तो॥९० कुपात्र-दान-तणे फले ए, कुभोगभूभि कुनर जन्म तो। छन्नु अन्तर द्वीप माहे ए, अल्प पामी कुशर्म तो ॥९१ म्लेच्छ राजा नीच नर ए, जे पामें बहु ऋद्धि तो। हस्ती घोड़ा बैल महिषी ए, ते कुपात्र पुन विधि तो ॥९२ अपात्र दान निष्फल गमी ए, जिम ऊसर भूमि बीज तो। पाथर-नाव-सम सही ए, ते बोले पर निज तो ॥९३ अपात्र दान दीघा वि ण ए. डु डु नाख्युं कूप मध्य तो। अनेक जन्म दुःख देई ए, पापाचारि ते बुद्धि तो ।।९४ पात्र-कुपात्र सम लेखवि ए, ते भोला अजाण तो।
अमृत विष, रत्न काच ए, तुम्ब नाव पाषाण तो ॥९५ एक कूप नर सिंचीए ए, सेल डीली बध तुर तो । धतूरे-विष ऊपजे ए, सेलरो मधुर तो ॥९६
स्वाति नक्षत्र मेह वरसि ए, मोती पड़े सीप विशाल तो। ते जल सर्प मुखें पड़े ए, विष थाइ हलाहल तो ॥९७ त्रिधा सत्पात्र दान ए, त्रिधा होइ भोगभुमि तो।। दशधा कल्प तरु सुख ए, देव शिव अनुक्रमें तो ॥९८ दान लही क्रिया जेहदी करे ए, दाता लहे तेहमा भाग तो। कुंलबी जिम करषण करे ए, राजा ले जिम भाग तो ॥९९ सत्पात्र क्रिया शुभ करे ए, अपात्र कुत्सित आचार तो। दान बलें जेहवं कर्म करे ए, तेहq उ फल दातार तो ॥१०० गौ हेम गज वाजि तिल ए, मही दासी नारी गेह तो। रथ आदें कुदान कहां ए, ए दश भेदे पाप-हेत तो ॥१०१ क्रोध मान माया लोभ.ए, राग-द्वेष मदकार तो। पापारम्भकारी कह्यां ए, दुःख सहे दातार तो ॥१०२ मूढ साला मिथ्यामती ए, थाप्यां दश कुदान तो। मेघ रथ भूपें दोधा ए, वार्या सुमति प्रधान तो ॥१०२
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पैदम-कृत श्रावकाचार
मेघरथ मढ़साला पण ए, सातमी नरके ते जाय तो। कुदान-पाप तणे फल ए, अवर नारकी इम थाय तो ॥१०४ इम जाणि विवेक धरी ए, परिहरु कुदान कुपात्र तो। जैन पात्र सहु पोषीए ए, सफल कीजे निज गात्र तो ॥१०५ पात्र-कुपात्र इमउं लखी ए, पात्र-दान धर्म बुद्धि तो। अवर कुपात्र-अपात्र कह्यां ए, दान दोजे दया शुद्धि तो ॥१०६ लक्ष्मी तणा फल लीजिए ए, पुण्य सांचो दातार तो। सप्त क्षेत्रे वित्त वावरो ए, जिनशासन मझार तो ॥१०७ जिन प्रासाद करावीइ ए, जीर्ण तणो उद्धार तो। जिनवर बिम्ब भरावीइ ए, जिनपुस्तक विस्तार तो ॥१०८ प्रासाद प्रतिमा जंत्र आदि ए, कोजे प्रतिष्ठा चंग तो। अष्टविध जिन पूजोइ ए, कीजे महोत्सव चंग तो ॥१०९ जिन गेह-बिम्ब ज्यां लगि नांदीइए, पूजा करे भविजन्न तो। धर्मे उपराजी बहु परि ए, त्यां लगे दाता लहे पुण्य तो ॥११० यव-सम प्रतिमा जिन-सम ए, बिम्ब-दल प्रासाद तो। तेहनां पुण्य नो पार नहीं ए, भव्य मन करे आह लाद तो ॥१११ जेह घर जिन बिम्ब नहीं ए, त्रिधा पात्र नहीं दान तो। जिहां साधरमी आदर नहीं ए, ते घर जाणों समसान तो ॥११२ मुनीश्वर आर्या कहीइ ए, श्रावक-श्राविका संध चार तो। भक्ति विनय घणों कीजीइ ए, कीजे पर उपकार तो ॥११३ संघ मिलि संघपति थइ ए, सिद्धक्षेत्र कीजे जात्र तो। साधर्मी वात्सल्य कीजीइ ए, सफल कोजे धन गात्र तो ॥११४ ए आदि बहु परि ए, कीजे पुण्य आचार तो। त्रीजा शिक्षाबत तणी ए, दोष कहुँ पंच प्रकार तो॥११५ सचित्त-
निक्षेप पेहली दोष ए, सचित्त पद्म पत्र आदि तो। ते उपर ववि आहार करे ए, ते तमें त्यजो अतिचार तो॥११६ आदर विना आहार दीइ ए, अथवा ये उपदेश तो। व्यापार काजे वेगो जाइए, ते त्रीजो दान दोष तो ॥११७ दान देतो मत्सर करे ए, धरे ते लक्ष्मी-अहंकार तो। दान काल उलंघन करे ए, प्रमादपणे तिणि वार तो॥११८ ये पंच दूषण त्यजी ए, सदा देओ शुभ दान तो। अतिथि संविभाग व्रत धरो ए, हृदय थई सावधान तो॥११९ चौथो शिक्षाव्रत सुणों ए, अन्त संलेखण नाम तो। शरीर-संलेखण कोजीइ ए. क्षीण कषाय परिणाम तो॥१२० क्रोध मान माया लोभ ए, क्षीण कीजे रोष कुराग तो। पंच इन्द्री प्रसार मन ए, कोजे मद परित्याग तो ॥१२१
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श्रावकाचार-संग्रह
अभ्यन्तर ज्ञान बल ए, कीजे दूर कषाय तो। बाह्य वैराग्य तप बले ए, क्षीण कीजे इन्द्री काय तो ॥१२२ जिम जिम काया कस कीजिये ए, तिम तिम इन्द्री मद जाइ तो। रागद्वेष उपशम हवे ए, दुर्धर मन वश थाइ तो ॥१२३ मन गज गाढ़ो बांधीइ ए, अंकुश देई निज ज्ञान तो। सुमति सांकल सांकलो ए, वैराग्य स्तम्भ समान तो ॥१२४ अंग इन्द्री कषाय कृषि ए, लीजे शुभ संन्यास तो । चतुर्विध आहार त्यजी ए, कीजे ध्यान अभ्यास तो ॥१२५ दर्शन ज्ञान चारित्र तप ए, आराधना आराधो चार तो। मरण समाधि साधीइ ए, अंत संलेखणा भव-तार तो ॥१२६ पंच विधि अतिचार होइ ए, जीवित मरण संशय होय तो। मित्र प्रीति सुख-अनुबन्ध ए, निदान पंचम दोष होइ तो ॥१२७ दीर्घ जीवे वांछा करि ए, कष्ट देखी वांछे मरण तो। मित्र घणु अनुराग धरे ए, मुख वांछा अनुसरण तो ॥१२८ दान पूजा तप जप करि ए, बांचे निदान कुकर्म तो। रागें अथवा द्वेष भावे ए, चिते निज मन मर्म तो ॥१२९ इणि परे पंच दूषण त्यजी ए, साध संलेखणा सार जो। सुर नर वर सुख भोगवी ए, पामीड भवोदधि-पार तो ॥१३०
वस्तु छन्द व्रतहं पालो व्रतहं पालो भविजन जिन भावे करी । पंचव्रत अणव्रत निर्मला, त्रिणि गुणवतचार शिक्षाक्त उज्ज्वल ।
गुण शिक्षा सम शील कहि, स्वर्ग षोडश दायक निर्मल ॥ अणु गुण शिक्षा एणी परे धरे जे एह व्रत वार । जिन-सेवक पदमो कहे, ते तरसे संसार ।
___ ढाल सहेलडीनी दान तणा फल वर्णवं रे, किणे दीयो दान आहार ।
तेह कथा तम्हें सांभलो रे. श्रीषेण तणी भवतार ।। साहेलडी, दीजे दान सुपात्र, सफल कीजे निजगात्र साहेलडी. दीजे दान सुपात्र ॥१
आर्य खंड इह जाणीए रे, मलय देश मझार। रत्न संचय नयर भलो रे. श्रीषेण भूप गुण धार, साहेलडी० २ तस दोय राणी रूपडी रे, संधन दिता पहिली नाम । अनिन्दता दूजी निर्मली रे, रूपकला गुण दाम. साहेलडी० ॥३ वे बेहु कूखें पुत्र अवतर्या रे, इन्द्र नामें पेहिली होय । उपेन्द्र बीजो ऊजलो रे, चरम शरीरी ते दीय, साहेलडी० ॥४ सातकी विप्र तिहां वसेरे, जंबुनामें तस नार। तेह कूखें पुत्री उपनी रे, सत्यभामा कुमारि, साहेलडी० ॥५
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पदम-कृत श्रावकाचार
एह कथा इहां रही रे. अवर मुणो एक बात। पाडलीपुर नगर वसे रे रुद्र भट्ट विप्र जाति. माहेलडी० ॥६तस चेटी भणों नन्दनु रे. कपिल नामे ते जाण विप्र पासे शिष्य बह भणे रे; वेद ने शास्त्र पुराण. साहेलडो० ॥७ कांन झटे तिणे साखिया रे, भणे ते बहु कुशास्त्र ।। निज बुद्धि बले आचार्या रे. कपिल थयो कुछात्र, माहेलडी० ॥८ शास्त्र भण्यों ते सांभली रे मद्रभट पाम्यों कोप । निज नयरें थी निकासियो रे, शुद्र माटे कोयो लोप. माहेलडी० ॥९ कपिल तिहां थी संचयों रे, लीयो विप्र आकार । कंठे जनोई उत्तरासण रे. वीर थयो तिणि वार, माहेलडी० ॥१० सन्नि सन्नि ते आवीयो रे. मातको विप्रतणे गेह विद्वांस ते जाणीयो रे. सत्यभामा दोषी तेह. साहेलडी० ॥११ कपिल मुखें तिहां रहे रे, सत्यभामा एक बार । रतिवन्ती हुई कामिनो रे. लिंग स्वभाव एहवो नार. साहेलडो० ॥१२ तब कपिल मढ़मती रे, चेष्टा करे तस काम । नीच जाति जाणि वरजिया रे, चिन्ते ते सत्यभाम. साहेलडी० ॥१२ पुष्पवन्ती नारी तणों रे, सुणों ने दोष विचार । चिह दिन विन जे भोगवी रे. ते नर नीच गंवार, साहेलडो० ॥१४ पेहिले दिन चंडाली समी रे. दूजे दिन रजको ममान । अस्पृश्य शूद्र तोजे दिने रे, दिन दिन करे ते स्नान. साहेलडी० ॥१५ उपवास बने करि निर्मला रे, अथवा एकान्तर जाणि । रस तजी भोजन करे रे, ई मांति श्री जिनवाणि. साहेलड़ी॥१६ चौबीस पहर दूरे रहे रे, घर-व्यापार ने जोग। एकान्त रहे ते एकली रे, कवण काजे नहीं भोग्य. साहेलड़ी० ॥१७ देव शास्त्र गुरु वेगली रे. चाहे नहीं धरमी मुख । माहो मांहे स्परसे नहीं रे, आप निन्दा लिंग दुःख, साहेलड़ी• ॥१८ रतिवन्ती नारी तणी रे. मांने नहीं जे बहु छोनि । तेह प्राणी पाप-फल भोगवे रे, पामे दुःख दुर्गति जोनि. साहेलड़ी ॥१९ परतक्ष दोष ते सांभलो रे, बडी पापड़ी विनाश। रंग-भंग ते नीपजे रे, सरस वस्तु निरास, साहेलड़ी० ॥२० नेत्र रोगी अन्ध थाइ रे, मरण पामे घायवन्त। एह आदें दूषण धणां रे, लोक-प्रसिद्ध, नहीं अन्त, साहेलड़ी ॥२१ इम जाणी दूरे परिहरो रे, पुष्पवन्ती नारी संग। घणु घणु सुं वर्णवु रे, लाज तणों प्रसंग, साहेलड़ी० ॥२२ सत्यभामा मन चिन्तवे रे, कर्मे कीधो अयुक्त । द्विज वंश मुझ निर्मलो रे, नीच वर मुझ भक्त, साहेलड़ी० ॥२३
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श्रावकाचार-संग्रह
एक दिन ते रुद्रभट्ट रे, चाल्यो तीर्थं सु जात्र ।
रत्न संचय पुर आवीयो रे, कपिल मिल्यो कुछात्र, साहेलड़ी० ॥२४ कपिल निज घरि आणीयो रे, लोक मांहे कहे मुझ तात ।
भक्ति विनय भोजन दियो रे, कुशल तणी पूछी बात, साहेलड़ी० ॥२५ सत्यभामा प्रच्छन्नपणें रे, सौवर्ण आपी पूछे जाति ।
कन्त तणी ते निर्मली रे, सत्यपणें कहो बात, साहेलड़ीं ० ॥२६
रुद्रभट्ट कहे बघु सुणो रे, मुझ दासी तणों पुत्र ।
शूद्र जाति भणी परिहर्यो रे, भण्यो ते वेद बहु सूत्र, साहेलड़ी० ॥२७ तब भामा भय उपनों रे, मुझ शील होसे भंग ।
संघनन्दिता राणी तणें रे, शरणि गई मन रंग, साहेलड़ी ० ॥२८ नाम प्रशंसा पासें राखी रे, साधर्मी दीयो सनमान ।
धरमी वाछल्य करे नहीं रे. ते पापी अज्ञान, साहेलड़ी० ॥ २९ श्रीषेण भूप 'घरे आवीया रे. चारण-युगल गुणधार ।
विधि - सहित आहार दीया रे, निरन्तराय हुओ आहार, साहेलडी० ॥३०
श्रीषेण भूपें दान दियो रे, निज नारी सार्थे दोय ।
सत्यभामा भावें भावना रे. भावनाए पुण्य होय, साहेलड़ी ० ॥३१ काल मरण पामीयो रे, श्रीषेण भूपते जाणि ।
उत्कृष्ट भोगभूमि अवतर्यो रे, दर्शावध भोग सुख वाणि, साहेलड़ी० ॥३२ भूपतणी दोय कामिनी रे, सत्यमामा सहित ।
दान तुण्यें तिहां उपनी रे, भोगभूमि निज हित, साहेलड़ी० ॥३३
पात्र दानें फल श्रीषेण रे, भोगभूमि पाम्यो सुख ।
दश विध कल्पतरु तणां रे, आंखें मेष नहीं दुक्ख, साहेलड़ी• ॥ ३४
त्रण गाउ नु देह उंची रे. त्रण पल्य तस आय ।
मरण पामी ते आवीया रे, स्वर्गे देवते थाय, साहेलड़ी ० ||३५ सुर नर सुख ते भोगवी रे, श्रीषेण भूपतिणी वार ।
पात्र दान फल निर्मली रे, लेइ जन्म ते बार, साहेलड़ी० ॥३६ सोलमो जिन ते उपमो रे, शान्तिनाथ जस नाम । चक्रवत्ति जे पांचमो रे, बारमों देव ते काम, साहेलड़ी० ॥३७ पंच कल्याणक भोगवी रे, गुण छेतालीस धार •
कर्म हणी केवल लही रे, पोहचा मोक्ष दुआर, साहेलड़ी• ॥३८ वज्रजंघ दान फले रे, पांमो भोग भूमि सुक्ख ।
अनुक्रमें आदि जिन हुआ रे, कर्म हणी पाम्यां मोक्ष, साहेलडी० ॥३९ श्रीमती राणी दान दीयो रे, अनुक्रमें श्रेयान्स भूप ।
आदि जिन दीयो पारणं रे, व्यापो जस गुण रूप साहेलड़ी ० ॥४० एह आदें बहु भवि जन्न रे, पात्रने देई दान |
सुर नर सुख ते पामीआ रे, किम कह्यो जाइ ते पार, साहेलड़ी• ॥४१
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पदम-कृत श्रावकाचार
पात्र आहार पुण्य वर्णवी रे, अवर सुणो वृत्तान्त । औषध दान कथा कह रे, वृषभसेना तणी संत, साहेलड़ो० ॥४२ आर्य खंड मांहे जाणीइ रे, जनपद देश विशाल । काबेरी नयरी भली रे, उग्रसेन भूपाल. साहेलड़ी० ॥४३ धनपति श्रेष्ठि तिहाँ वसे रे, धनश्री तेह तणी नारि । तस तणी कुखें उपनी रे. वृषमसेना कुमारि, साहेलड़ी० ॥४४ रूपवती धाय तेह तणी रे, स्नान अंजन करे भक्ति । पय पान देई पोषे घणु रे, अन्न पाणी करे युक्ति, साहेलड़ी० ॥४५ वृषभसेना स्नान-पाणी रे, रह्यो ते गरत मझार। रोगी कृकर आवायो रे, लोटयो ते तिणी वार, साहेलड़ी० ॥४६ श्वान नीगेग थयो देखोने रे, विस्मय पांमी धाय तेह । निज मातानेत्र रोगी रे, वरस वार पीड़ा जेह. साहेलड़ी० ॥४७ परीक्षा काजे नीर सिंचीयो रे, नेत्र हुआ ते निरोग । घाय-महिमा जस व्यापीयो रे, कन्यां तणे संयोग, साहेलड़ी० ॥४८ उग्रसेन नामें भूप तीरे, तस मंत्री पिंगल नाम । मेघ पिंगल भणीमो कल्पो रे, ते वैरी विषमें ठांमि. साहेलड़ी० ॥४९ दलबल बहते परवयों रे, वेगे चाल्यो परधान । वेरी तणे देस आवीयो रे, साथे लेई बहु संधान, साहेलड़ी० ॥५० विष-मिश्र जल वावस्करे. ज्वर उपनों मंत्री देह । वेगे वली पाछी आवीयो रे. नीरोग हुओ नर-देह, साहेलड़ी० ॥५१ उग्रसेन तव कोपीयो रे, चाल्यो ते वैरी पासि । तिणे जले ज्वर उपनों रे. पाठो आव्यो हुई निराशि, साहेलड़ी० ॥५२ वृषभसेना-कन्या तणों रे, जल जाचे वा काज। दूत प्रेषी अणावीयो रे, निरोग हो तब गज, साहेलड़ी० ॥५३ धनपति श्रेष्ठ ते डावीयो रे. आव्यो ते सभा मझार । कन्या देउ मुझ निर्मली रे, भप कहे तिणी वार, साहेलडी० ॥५४ श्रेष्ठी कहे भूप सांभलो रे, जिन पूजो अष्ट प्रकार । पंजर थी पक्षी मको रे, बंदी छोड़ो करो राग, साहेलड़ी० ॥५५ जिम जिम श्रेष्ठी इजे कहो रे, ते तिम कीधू भूपाल । वृषभसेना कन्या वरी रे, महोच्छव करी गुणमाल, साहेलड़ी० ॥५६ विवाह समय बंदी मुक्या रे, एक न मुक्यो पृथ्वीचन्द्र । वाणारसी नयरी धणी रे, पाय पाके आव्यो तन्द्र, साहेलड़ी० ॥५७ तस राणी नारायणदत्ता रे, मंत्री सुं कीयो विचार । वषभसेना तिणें नामें रे, माड्यो तिणे सत्तकार साहेलडी० ५८ मत्तका भोजन करो रे, लोक आवे बिह जाणि । वृषभसना जस बोले रें, निज कांते सुणी वाणि, साहेलडी० ॥५९
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श्रावकाचार-संग्रह
राणी धावे द्विज पूछोया रे, सत्तकारह तजेह । वाणारसी नयरी पती रे पृथ्वी चन्द्र-बंदि-गेह. साहेलड़ी० ॥६० वषभसेना वेगे करी रे, मूकाव्यो तव भूप। पृथ्वीचन्द्र विनय वहे रे, पट्ट लिखी त्रण रूप, साहेलडी० ॥६१ राणी तणे पाय नमे रे, आपणपै भूप जेह चित्र रूप देखी रीझियों रे, उग्रसेन भूप तेह. साहेलड़ी ॥६२ पृथ्वीचन्द्र संतोषीयों रे. उग्रसेन दीयो आदेश । मेघपिंगल वैरी जीपी रे, निजपुरि जाइ नरेश, माहेलडी० ॥६३ मेपिंगले भूप सांभल्यो रे, मुझ भरत्री पृथ्वी चन्द्र । वेगे आवी भूप भेदीयो रे, महत पांभ्यो नरेन्द्र . साहेलड़ी० ॥६४ हेम रत्न मोती आदे रे, गज वाजी मूकी भेट मेघपिंगल विनय करी रे, उग्रसेन मान्यो श्रेष्टि, साहेलड़ो० ॥६५ जूझ विना आवी मिल्यो रे, हरष्यो उग्रसेन राय । मेघपिंगल सेवक जाणो रे, भूपति कीयो पसाय, साहेलड़ी० ॥६६ बहुमूल्य भेंट जे आवी रे, रत्न कंबल निज दोय । निज निज नामें अंकीयो रे, जुजूआ आपे ते साय, साहेलड़ी० ॥६७ वृषभसेना एक आवोयो रे, मेघपिंगल एक दीध । पलटाणों ते काज वसे रे, तो देवे विपरीत कीध, साहेलड़ी० ॥६८ कर्म उदय पाप वशे रे वस्तु थापे विपरीत । वृषभसेना पूर्व पापे रे, हित हुओ ते अहित, साहेलड़ी ॥६९ मेघपिंगल कंबल ओढी रे, सभा आव्यो एक बार । निज नारी नाम ते देखी उ रे, कोप्यो ते भूप गवार, साहेलड़ी० ॥७० रक्त मुख भूप देखीने रे, मेघपिंगल बुद्धिवंत । काज मिसे नासी गयो रे. उग्रसेन हुओ असंत. साहेलडो० ७१ वृषभसेना सुं कोपियो रे, जाण्यों शील-हीण नारि । निज भृत्य आदेश दीयो रे, नाख्यो स्त्री समुद्र मझारि. साहेलड़ी० ॥७२ शोलवंती ते कामिनी रे, निश्चल कीधो निज मन्न । कलंक टले तो पार| रे, नहीं तो नियम भोजन्न, साहेलड़ी० ॥७३ समुद्र मांहे ते क्षेपवी रे, सती शील गुण माल । जलदेव आसन कंपियो रे, आवी ते ततकाल, साहेलड़ी० ॥७४ कमल सिंहासन तिहां कीयो रे, सती विचारी गुणवंत । गीत नृत्य वाजित्र करी रे, प्रातिहार्य होइ संत, साहेलडो० ॥७५ धन-धन्य शील सती तणु रे, आसन कंप्या देव । सती-महिमा भूपे सांभली रे, उग्रसेन आव्यो णिक्षेव, साहेलड़ी० ॥७६ क्षमा करावी विनय करी रे, बेसारो पाव लखी मांहि । मंम्रम करी आवी जिसे रे, तब सती मुनि वाहि, साहेलड़ो० ॥७७
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पदम-कृत श्रावकाचार
गणवर गुरु ते दंदिया रे, पूछ पूर्वभव वृत्तान्त । केवलो मुखते पामीयो रे पाप कलंक दूरन्त, साहेलड़ी० ॥७९ अवधि ज्ञान गरु निर्मला रे बोल्या ते भवतार । एकमना सती सांभले रे, पेहलो भव विचार. मालेहड़ी० ॥८० इणि नगरी द्विज तणी रे, पुत्रीनु नागश्री नाम । जिन चैत्यालय सदा करी रे, प्रभार्जन सुभाम. साहेलडो० ॥८१ सन्ध्या-समय एक आवियो रे, मुनिदत्त नामें जतीराय । गढ पासे गरता माहे रे, रह्यो निश्चल करी काय, साहेलड़ी० ॥८२ रात्रि तणों योग लेइ रह्यो रे, रह्यां धरी निज ध्यान । प्रभात समय आवी नागश्रा रे, बोलें ते अज्ञान, साहेलड़ो० ॥८३ सैन्य सहित भूप आवस रे. इहां थी जाउ मुनि आज । अलीक बोले मद भंभली रे. इक्ष किरे निःकाज, साहेलडी०॥८४ इम कही मही पूजावी रे, एक बुछंकरो कतवार । मुनि ऊपर में नाखीयो रे आछाद्या मुनि भवतार, साहेलडो० ॥८५ निन्दा करे मनिवर तणी रे जोडे ते पाप अपार । रोष करे ते पापिणी रे. करम करे असार, माहेलड़ो० ॥८६ क्रीडा काजें भूप आवीयो रे, देखो शासन स्वास । तब कतवार दूरे कियो रे, दोठा मुनि गुण रासि, साहेलड़ी० ॥८७ मुनि प्रशंसा भूप करे रे. स्वामी ते क्षमा भंडार । मुनि-अंग पीडा उपनी रे. पाम्यो योग तिणि वार, साहेलड़ी० ८८ तब लाजी ते कामिनी रे, करे औषध जोग्य काज । भक्ति सुश्रूषा करे घणी रे, निरोगा कोया मुनिराज, साहेलड़ी० ॥८९ योग्य औषध दान दोयो रे, कीयो जती वैयावृत्य । पुण्य घणुं पोते करयो रे सर्व औषधि ऋद्धि हेत, साहेलड़ी० ॥९० निन्दा गर्दा घणी करी रे, मरण पामी ते नारि । निन्दा दोषे तु उपनी रे, वृषभ सेना कुंवारि. साहेलड़ी० ॥९१ कन्या स्नान पवित्र जले रे. सर्व रोग विनाश । महिमा ख्याति जस पामीयो रे, राजा देई सुखवास, साहेलडी० ॥९२ मुनि वैयावृत्त्य तणे फले रे, योग्य औषधि दीयो दान । तिणि गुणें तुझ उपनो रे, औषधि ऋद्धि निधान. साहेलड़ी॥९३ निन्दा करी मुनि टाकीया रे, नाखी ते कतवार । तिणे पापे तुझ आवोयो रे, कलंक दुःख दातार, साहेलड़ी० ॥९४ देव शास्त्र गुरु धर्म तणो रे. निन्दा करे जे मूढ । तेहमा पाप तणों पार नहीं रे, जनमि जनमि दुःख सहे मूढ़, साहेलड़ी० ॥९५ इम जाणी तम्हो केह तणी रे, निन्दा करे जे मूढ़।। ते भक्ति विनय करो पर तणी रे, नहीं तो मध्यस्थ होय, साहेलड़ी० ॥९६
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७६
धावकाचार-संग्रह
वषभ सेना निज भव सुणी रे, उपज्यों मन वैराग । स्वजन सहं खिमावीयो रे, छोड्यो मोह घर-राग, साहेलड़ी० ॥९७ आर्यिका थयो ते निर्मली रे, करे ते जप तप ध्यान । मरण समाघे साधोयो रे, स्वर्ग हुओ गीर्वाण, साहेलड़ी० ॥९८
दोहा आहार दान पुण्य वर्णव्यो, श्रीषेण पाम्यो सौख्य । शान्तिनाथ श्रीजिन हुआ, पाम्या अविचल मोक्ष ॥१ नागश्री नारी निर्मली. दीयो योग्य औषध दान ।
वृषभसेना कन्या ऊपजी, औषध रिद्धि निधान ॥२ जस महिमा गुण पामीने, सुख भोगवी संसार । जप तप संजम आचरी, पहुंची स्वर्ग-दुआर ॥३ इम जाणो तम्हो भविजनों, पात्रे देउ औषध दान । निरोग पणुं पामीइ, पामीइ अविचल थान ॥४ दातार ऋद्धि सफल कही, जे दें दान सुपात्र । चन्द्रकान्त मणि चन्द्रयोगे, अवर पाथर आदि ॥५ सुंब थकी कूकर भलो, जे बहु मिलि खाइ ग्रास । सुंब सानि उडी ऋद्धि, महि मुकी जाइ निरास ।।६ कृपण धन मूकी मरे, साथ लेई दातार । दाता ते कृपण सही, मूके नहीं निज सार ॥७
___ अथ ढाल जसोधरनी औषध दान कथा वर्णवी, हवे कह कथा सार । ज्ञान दान तणी निर्मला, कुंडेश तणी गुणधार ॥१ भरतक्षेत्र एह जाणीए, आर्य खंड विशाल । कूर्म नामें ग्राम इक कही, वसे गोविन्द गोपाल ॥२ एक वार वन मांहे गयो, चारे बहु गोधन्न । तरु तणां कोटर मांहे, लाधा पुस्तक मन्य ॥३ ते पुस्तक तिणे लेई दीयो, पद्मनन्दी मुनीश । पुस्तक वांची निर्मलो, दीयो धर्मोपदेश ॥४ भट्टारक आदेश हु मिली लीयो पुस्तक दान । संध सहु समक्ष पणे, पूजे श्रुत शुभ ज्ञान ।।५ पुस्तक पूजी विनय धरी, थाप्यो कोटर मांहि । वली वली पूजे ते गोविन्द, पुस्तक गुण चाहि ॥६ काल क्रमें मरण पामीउ, करी दोष निदान । तिण नगरें वसे ग्राम कूट, तस हुओ ते सन्तान ॥७ कुंडेश नाम ते पुत्र तणुं मोटो थयो ते कुमार । पद्मनन्दी मुनि देखीया, वन गयो एक वार ॥८
जाति स्मरण ज्ञान ऊपज्यो, जाण्यो पूर्व भव विचार ।
पद्मनन्दी गरु भेटीया, पहिला जन्म-संस्कार ॥९ तब कुंडेश तणे मनें उपज्यों वैराग । संयम लीयो निर्मलो करी संग परित्याग ॥१० जप तप संजम आचरे, करे ते आतम काज । मरण समाधि साधीयो, पाम्यो ते देवराज्य : ११ गोविन्द पहिले भव दीयो, दोयो पुस्तक दान । तेह फल तस ऊपनों, जाति स्मरण सुज्ञान ॥१२
__इणि परि जे भावजन देइ. दीये पुस्तक दान ।
लिखि लिखायी, उपदेश देइ, ते लहे केवल ज्ञान ।।१३ ज्ञान दान कथा कही ए, अवर कहूँ सुविचार । वसतिका दान कथा सुणों. संक्षेपै सावधान ॥१४ मालव देश माहे वसे, घट नामें सुग्राम । देविल नामें कुंभकार, नावी धमिल नाम ॥१५ मित्राचार हुओ विहु, कीयो मनसुं विचार । मठ एक कारावीयो, पंथो जन साधार ॥१६ एक दिन तेणें देवलि, आव्या मुनि भवतार । ता मठमांहि ते राखीया, साहाय्य करे तिणि वार ॥१७
_ पछे धमिल नावी तिणे, आण्यो संन्यासी एक दुष्ट । विह मिलि झगड़ो करी, नोकाल्या मुनि ज्येष्ठ ।।१८
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पदम-कृत श्रावकाचार
मुनि कोटर मांहे जाय रह्या स्वामी क्षमा भंडार । वात गीत उष्ण तणां सहे परीषह भार ॥१९ पछे ते देवलि जाणीयो, कोयो पश्चात्ताप । माहो मांहे जुद्ध करो, पाम्या अति दुख पाप ॥ २० आर्त्त ध्यानें मरी ते हुआ व्याघ्र नें भय कृष्ट । कुम्भकार मरी वापड़, हुब सूकर अशुष्ट ॥२१ गुफा द्वारे रहे सुअर, मुनि रहें गुफा मझार ।
समाप्ति पेहलुं नाम दूजो त्रिगुप्ति में गुण धार ॥२२ मुनिवर जब देखीया, भणतां सुणी जिनवाणि । तब सुकर मन ऊपज्यो. जातिस्मरण गुण जाण ॥२३
धर्मोपदेश ते सांभली. सुअर हुआ धर्मवंत । निज शक्ति व्रत ग्रही, हूओ ते अति संत ॥२४ मनुष्य गंधे व्याघ्र आवीयो. साहामो सूकर थाय । परस्परे जुद्ध कीयो, वेगे मरण ते पाय ॥ २५ व्याघ्र मरण ते पामीयो, पाम्यो नरक अवतार। छेदन भेदन मार-मार, सहे दुःख पंच प्रकार ||२६ कुम्भकार ते सुअर, देई वसतिका दान महर्द्धिक देवपद पामीयो. कल्पवृक्ष विमान ॥२७ इम जाणी जति सहाय कीजे, देय मठ शुभ स्थान ।
सुर नर वर गेह पामीइ, लहिये अविचल थान ॥ २८
संक्षेप में वर्णवी, दान तणी कथा चार । जिन पूजा कथा सांभल्यो. भेद तणी भवतार ॥२९ जम्बूद्वीप पर लिया मणों. भरत क्षेत्र विशाल । आर्य खण्ड मांहे मगध देश राजगृह गुण माल ||३० श्रेणिक राजा राज करे. चेलना तस राणी | सभा पुरी बैठो भूपती, आव्यो माली एक बार ॥ ३१
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अकाल पुष्प फल भेट लेई. विनय वहे वह वनपाल । विपुलाचल जिन समोसर्या श्री वीर सकोमाल ॥ ३२
तब राजा आणंदीयो वीर वंदण जाय । समोसरणमां जिन पूजो, श्री वंद्या जिन पाय ॥३३ पूजि स्तवी जिन पय नमी, गौतम गुरु वंद्या । नर सभा बैठो भूपती, धर्मवृद्धि आनंद्या ||३४ देव असुरो ए आवीयो. सुर गयो मंडूक चिह्न । देव देखी आचंभियो भूप पूछे तव जिन्न ||३५ गौतम गणधर (पुछियो) मुणों श्रेणिक राज । देव मोडो जे आवीयो, कारण कहो तस आज ||३६ राजगृह पुर तुझ तणें, वसे श्रेष्ठी नागदत्त । भवदत्ता राणी तेहतणी, बहु ऋद्धिमो भासति ॥ ३७ मूढमती साह भद्रक, वापी करावी निज वन्न । पद्म आच्छादी जल भरी, वि द्रव्यो बहु धन्न ||३८ आर्त्तध्यानें श्रेष्ठी मरी, तिर्यञ्च गति ऊपन्नों । वापी मांहि मेंढक हुओ, जातिस्मरण ते सम्पन्नो ॥ ३९ भवदत्ता पाणी भरे तिणि वापी तस नार । तल पिडे डकरिवाले चड़े, नाखे नीर मझार ॥४० भवदत्ताइ गुरु पूछिया, मुनि अवधि ज्ञानवन्त । कहो स्वामी कृपा करी, मंडूक तणों वृत्तान्त ॥४१ सुवृत्त गुरु कहे सांभलो, तम्ह तणों जे कन्त । आर्तध्यान थी अवतर्यो, मंडूक भागदन्त ॥४२ जातिस्मरण ज्ञानें करी, तुझ ऊपर घरे स्नेह । तेह भणी खोले चढ़े, पेहली स्त्री मोही तेह ||४३ तब नारी वापी आवीया, लीयो मेंढक जाणी । घरि आणी कूडी ढव्यो, भरियो निर्मल पाणी ॥४४ तिणें समै वीर समोसर्या चालो वन्दण राय । भवदत्ता ते संचरी, तब भेक मन ध्याय ॥४५ कमल-पत्र मुखें धरी, हलुऐ हलुए हरि जाय । पुर द्वारें जब आवीयो, तब चांप्यो गज पाय ॥४६ मरण पामी भावें चड़ गे, जिनपूजा परिणाम । सौधर्म स्वर्ग तें अवतर्यो, देव महद्धिक ठाम ॥४७ वैक्रियिक देव ते नीपनों, अन्तर्मुहूर्त्त मझार । अवधि ज्ञानें ते जाणीयो, पूरब भव संसार ॥४८ विमान वैसी सुर आवीयो. पुजवा श्री जिनदेव । गौतम कहे सुणों श्रेणिक, उपनों ए सुर हेब ॥४९ देव आवी जिनपूज- स्तवी, भावें करीय प्रणाम । पुण्य वणों पोते करी, बैठो सुर-सभा ठाम ॥५०
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७८
श्रावकाचार-संग्रह तब श्रेणिक आनन्दीयो. उपज्यो पूजा बहु भाव । धन्य धन्य पूजा तिण तणी, भव-सायर बे नाव ५१ जिन-चरणे पद्य तणी, पूजा अष्ट प्रकार | जल आदे फल पर्यन्त, अर्घदान अवतार ॥५२ इम जाणिय जिन पूजो स्तवो, जाप देउ नवकार । उपराज्यो पुण्य बहु भव्य, सफल करो अवतार ।५३ सुर नर वर सुख भोगवी, पूज्य वर स्थान । मन वांछित सुख अनुभवो, अनुक्रमें केवलज्ञान ॥५४
जिनपूजा करो जिनपूजा करो, भविजन भावे करी। जिनपूजा कल्पतरु समी, चिन्तामणि कामधेनु पूजा निर्भर ।
मन वांछित फलदाय इन्द्र जिनेन्द्र पद देई जे मनोहर ॥ अनुदिन जे जिनपूजसे, निर्मल करि परिणाम । जिनसेवक पदमो कहे, ते लहे अविचल ठाम ॥५५
ढाल मालंतहानो व्रत द्वादश इम वर्णव्या ए. सुण सुन्दरे, प्रतिमा सुणो हवे भेद । मालंतडा० . मन वचन कायाइ पालीये, ए, सुण सुन्दरे, व्रत प्रतिमा कर्म छेद, मालंतडा० ॥१ सामायिक प्रतिमा त्रीजी ए, सुण सुन्दरे, संक्षेपे कहुं सविचार । मालंतडा. सामायिक समता पणुए, सुण सुन्दरे, राग-द्वेष परिहार, मालंतडा० ॥२ नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र ए, सुण सुन्दरे काल मेद शुभ भाव । मालंतडा. षट् मेद सामायिक ए, सुण सुन्दरे भवसागर जे नाव, मालतडा० ॥३ शुभ अशुभ नाम जे भणी ए, सुण सुन्दरे, राग द्वेष करो वश्य । मालंतडा. नाम सामायिक लीजिए, सुण सुन्दरे. सम परिणाम समस्त, मालंतडा० ॥४ स्थापना सामायिक साधिए, सुण सुन्दरे, सुख दुःखकारी जे द्रव्य । मालंतडा. ते ऊपर समता भावन ए. सुण सुन्दरे, स्थापना सामायिक दिव्य, मालंतहा०॥५ जिनप्रासाद शून्य मठ ए, सुण सुन्दरे, गुफा भूधर उद्यान । मालंतडा. बाल पशू स्त्रो वेगला ए, सुण सुन्दरे, निरंजन क्षेत्र स्थान, मालंतडा० ॥६ पूर्व मध्य अपराहण ए, सुण सुन्दरे, दो दो घड़ी त्रिण काल । मालतडा. वरषा शीत उष्ण हो ए, सुण सुन्दरे, समय सामायिक विशाल, मालंतहा०॥७ राग द्वेष सहु परिहरी ए, सुण सुन्दरे, शत्रु मित्र समभाव । मालंतडा. निर्मल मन निज कीजिए ए, सुण सुन्दरे, ते सामायिक सुभाव, मालंतडा० ॥८ प्रतिलेखी पृथिवी पीठ ए, सुण सुन्दरे, दृढ़ घरी पदमासन्न । मालंतडा. अथवा काउसग्ग ऊभा रही ए, सुण सुन्दरे, थोर करी निज मन्न, मालंतहार पूरब उत्तर दिशा रही ए, सुण सुन्दरे, अथवा प्रतिमा सन्मुख । मालंतडा. हस्त पाद मुख नेत्र-नी ए, सुण सुन्दरे, संज्ञा तजो पर दुःख, मालंतडा० ॥१. सर्व प्राणी समता पणुए, सुण सुन्दरे, भावना धरो य संयम । मालंतडा. आर्त रौद्र ध्यान तजो ए, सुण सुन्दरे, करो सामायिक उत्तम, मालंतडा० ॥११ बात ध्यान भेद चार ये, सुण सुन्दरे, इष्ट विरह अनिष्ट संयोग । मालंतडा. बीजो पोडा चिंतन ए, सुण सुन्दरे, चौथो निदान करें भोग, मालंतडा० ॥१२
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पदम-कृत श्रावकाचार
इष्ट वियोगे दुःख नहीं ए. मुण सुन्दरे, अनिष्ट संयोगे नहीं रोष । मालतडा. रोग पीडा चितन त्यजो ए, सुण सुन्दरे. निदान त्यजो धगे संतोष, मालतडा० ॥१३ आत ध्याने पाप उपजे ए, सुण सुन्दरे. पापें पशगति होय । मालंतडा० इम जाणिय आत्ति परिहरो ए, सुण सुन्दरे, धरो सामायिक सोय, मालंतडा० ॥१४ गैद्र ध्यान चार सुणो ए, सुण मुन्दरे, हिंसा मृषा स्तेय आनन्द । मालतडा० । विषय संरक्षणा आनन्द ए, सुण सन्दरे, रौद्र ध्याने पाप वृन्द, मालंतडा० ॥१५ जीव हिंसा झूठे वचन त्यजो ए, मग सुन्दरे, चोरिये नहीं पर धन्न । मालंतडा. विषय भोग भावे त्यजो ए, सुण सुन्दरे, भजो सामायिक भविजन्न मालतडा० ॥१६ रौद्र ध्याने तीव्र पाप ए. मण सुन्दरे. पापें नारक दुःख होय । मालंतडा० कर परिणाम टालीइ ए, मुण मुन्दरें. पालोये ममभाव सोय, मालंतडा० ॥१७ दुर्ध्यान दूरे करा ए, मुण सुन्दरे, चागे धगे वर्म ध्यान । मालतडा० आज्ञा उपाय विपाक विचय ए, सण मन्दरे, चौथो त्रिलोक संस्थान, मालतडा० ॥१८ आज्ञा मानो श्री जिन तणो ए, सुण सुन्दरे, चतुः कर्म-विनाश उपाय । मालंतडा० कर्म-विपाक फल चितवो ए, सुण सुन्दरे. लोक-संस्थान ते ध्याय, मालंतडा० ॥१९ वर्मध्याने पुण्य उपजे ए, सुण सुन्दरे, पुण्ये नर-सुर-सौख्य । मालंतडा. शुक्ल ध्यान धरो भावना ए, सुण सुन्दरे, भावनाए होइ मोक्ष, मालंतडा० ॥२० त्रिविध वैराग्य ते चिन्तवो ए सुण सुन्दरे, भवते भोग शरीर । मालंतडा० अनुप्रेक्षा वार चिन्तन ए, सुण सुन्दरे निश्चल करि मन धीर, मालंतडा० ॥२१ कुड्मल कर-युग कीजीड ए, सुण सुन्दरे, नासा अनि निज दृष्टि। हीन दीर्घ स्वर नहीं ए, सुण सुन्दरे, छ राग भास नहीं धिष्ट, मालंतडा० ॥२२ निज करणे सुणीड जिह ए, सुण सुन्दरे, तिम भणो सामायिक सूत्र । मालंडा. वचनें अक्षर उच्चरो ए, सुण सुन्दरे, निज मनि अर्थ पवित्र, मालंतडा० ॥२३ भणतां पाठ जो आवे नहीं ए. मुण सुन्दरे, तो पंच गुरु नमस्कार । मालंतडा० पंच शत ध्याओ जपो ए, सुण सुन्दरे सामायिक पुण्य साधार, मालंतडा० ॥२४ मन वचन काया पवित्र करी ए, सुण सुन्दरे, पहरी निमल एक चीर । मालंतडा. ईर्यापथ-शोधन करी ए, सुण सुन्दरे, कायोत्सर्ग धरि एक धीर, मालंतडा० ॥२५ ॐ नमः सिद्धेभ्यः इम कही ए, सुण सुन्दरे, भणीए सामायिक शास्त्र । मालंतडा. नव वन्दन देव करो ए, सुण सुन्दरे. तेह भेद सुणो छात्र, मालंतडा० ॥२६ पंच परमेष्ठी जिन गेह ए, सुण सुन्दरे, जिनप्रतिमा जिनधर्म । जिन-चयण ए नय देव ए, सुण सुन्दरे, वंदना करो अनुकर्म, मालंतडा० ॥२७ चैत्य भक्ति पंच गुरु भक्ति ए, सुण सुन्दरे शान्तिभक्ति जिनसार । मालंतडा. त्रण भक्ति दंडक तणो ए, सुण सुन्दरे, विधि कहूँ सुणो सजन्न, मालंतडा० ॥२८ चैत्य भक्ति आदि पंचांग प्रणाम ए, सुण सुन्दरे, त्रण आवर्त शिर नुति । मालंतडा. एक दंडक मध्य कायोत्सर्ग आदि ए, सुण सुन्दरे, त्रण आवर्त शिर नति एक, माल०॥२९ कायोत्सर्गे नवकार नव ए, सुण सुन्दरे ए, नवकार-प्रति त्रणे उच्छ्वास । मालतडा. सत्तावीस शुभ दीजीइ ए, सुण सुन्दरे, होन अधिक न वि श्वास, मालंतडा० ॥३०
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श्रावकाचार-संग्रह
कायोत्सर्ग अन्ते आवर्त त्रण ए, सुण सुन्दरे, एक शिर नमस्कार । मालंतडा. दंडक अन्ते पंचांग प्रणाम ए, सुण सुन्दरे, त्रण आवर्त शिर नति सार, मालतडा० ॥३१ एणी परे दंडक प्रति ए, सुण सुन्दरे, दोइ पंचांग नमस्कार । मालंतडा. वार आवर्त चार शिर नमी ए, सुण सुन्दरे, एक कायोत्सर्ग धार. मालंतडा० ॥३२ पछे चैत्य भक्ति भणों ए, सुण सुन्दरे, वली पंच गुरु तणी भक्ति । मालंतडा. शान्ति भक्ति शुभ भणों ए, सुण सुन्दरे, करी सामायिक सदा युक्ति, मालंतडा०॥ त्रण काल सदा कीजीइ ए, सुण सुन्दरे, पूर्व मध्य अपराहण । मालतडा० चार घड़ी माहें सही ए. सुण सुन्दरे. रखेउ लंघे तमें मान. मालतडा० ॥३४ मागारी सामायिकवन्त ए. सुण सुन्दरे. सर्व सावद्य-रहित । मालंतडा० वस्त्रे वेढ्यो जेहबु मुनिवरु ए, सुण सुन्दरे. तेर चारित्र सहित. मालंतडा० ॥३५ सागारी सामायिक बली ए. सुण सुन्दरे. सोल स्वर्ग-पर्यन्त । मालंतडा० । सुर नर वर सख भोगवो ए. सुण सुन्दरे, अनुक्रमें होइ मुक्तिकन्त. मालंतडा० ॥३६ जिनमुद्रा तप श्रुतवन्त ए. सुण सुन्दरे. मदा सामायिक धरे जेह । मालंतडा० नव वेयक लगों ऊपजे. सुण सुन्दरे अभव्य प्राणी वली तेह. मालतडा० ॥३७ आसन्न भव्य जिनमुद्रा धरी ए, सुण सुन्दरे. लेइ सामायिक सार । मालंतडा. दुर्द्धर कर्म सह निर्जरी ए. सुण सुन्दरे, होइ मुक्ति भक्तार. मालंतडा० ॥३८ सामायिक महिमा घणी ए, सुण सुन्दरे, क्रूर जीव वश थाइ । मालंतडा० व्याघ्र सिंह सर्प आदि ए. सुण सुन्दरे, विषम विष तस जाइ. मालंतडा० ॥३९ सुर नर महु सेवा करी ए. सुण सुन्दरे, शत्रु सबै मित्र होइ । मालंतडा० मन वांछित फल पामाइ ए. सण सन्दरें. सामायिक प्रभाव जोइ, मालंतडा० ॥४० इमि जाणि सदा कीजिइ ए, सुण सुन्दरे. सामायिक गुणवार । निज गति प्रगट करि ए. सुण सुन्दरे. घणु सुं कहिये बारम्बार. मालतडा० ॥४१ प्रमादपणे जे करे नहीं ए. सुण सुन्दरे. तृष्णा करि व्यापार । मालंतडा० अष्ट पहर पाप करि ए. मुण सुन्दरे. भमे ते बहु संसार. मालंतडा० ॥४२ विपयारम्भ जे जीवडा ए. सुण सुन्दरे. गमें वृथा बहु काल । मालंतडा०
हा हा करता होंडे सदा ए. मुण मुन्दरे. धर्म थी भला ते वाल. मालंतडा० ॥४३ धर्म-सामग्री दोहिली ए. सुण सुन्दरे, जिम चिन्तामणि ग्न्न । मालंतडा विषय प्रमा का गमा ए, मुण मुन्दरे करो सामायिक यन्न, मालंनडा०॥४४ काल कला घड़ी मुहर्त लगे ए. सुण सुन्दरे, निज शक्ति अनुसार । मालंतडा. धर्म ध्यान दिन जे गमिए. मृण सुन्दरे. ते सार्थक अवतार मालंतडा० ॥४५ मामायिक विण नर जाण वा ए, सुण मुन्दरे, गेह ग्थ्यावेल समान । मालतडा. जाव जीव ते भार वही ए, सुण मुन्दरे, पामे नरक अवतार, मालंतडा० ॥४६ सामायिक पाठ आवे नहीं ए, सुण सुन्दरे तो सदा गिणों नमोकार । मालंतडा. पंच परमेष्ठो पद निर्मला ए, सुण सुन्दरे चौदह पूर्व माहे मार, मालंतडा० ॥४७ वाल नवे सूत सुतता ए, सुण सुन्दरे, मंत्र जपो नमोकार । मालंतडा. सर्व मंत्र तणों नायक ए. मुण सुन्दरे, भवोदधिताग्ण हार, मालतडा० ॥४८
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पदम-कृत श्रावकाचार
विकट संकट वैरी टले ए, सुण सुन्दरे, विषम विघ्न विनाश, मालंतडा. नमोकार महिमापणे ए, सुण सुन्दरे, दुख दारिद्र मिटे अरु त्रास, मालंतडा० ॥४९ डाकिमणी शाकिणी भुत प्रेत ए, सुण सुन्दरे, खवीस झोटिंग वेताल, मालंतडा. क्रूर ग्रह राक्षस टले ए, सुण सुन्दरे, वाघिन सिंह फणिटाल, मालंतडा०॥५. विषम विष अमृत हुइ ए, सुण सुन्दरे, दुर्द्धर अग्नि जल थाइ, मालंतडा० नमोकार प्रभाव धणुं ए, सुण सुन्दरे, जोभे कह्यो किम जाइ, मालंतडा० ॥५१ वाघ वानर श्यान चोर ए, सुण सुन्दरे, मरता लहे नमोकार, मालंतडा. देवतणां पद पामियां ए, सुण सुन्दरे, अनुक्रमें मोक्ष दुआर, मालंतडा० ॥५२ जापतणी विधि सांभलो ए, सुण सुन्दरे, अक्षसूत्र लेइ पवित्र, मालंतडा. मन वच काया निश्चल करी ए, सुण सुन्दरे, मंत्र नमोकार विचित्र, मालंतडा० ॥५३ मोक्ष हेतु अंगुष्ठ जपि ए, सुण सुन्दरे, तर्जनी अंगुली धर्म-काज, मालंतडा. मध्य अंगुली शान्ति हेतु ए, सुण सुन्दरे, अनामिका अर्थ-समाज, मालंतडा० ॥५४ कनिष्टका सर्व कार्य सिद्ध ए, सुण सुन्दरे, लक्षणस्युं जपो मंत्र, मालंतडा. मंत्र प्रसादें पामीइ ए, सुण सुन्दरे, दुर्धर जे परतंत्र, मालंतडा० ॥५५ अंगुली अग्र जे जप्यो ए, सुण सुन्दरे, जे जप्यो लंधी मेर, मालंतडा. ते सहु निःफल जाणवो ए, सुण सुन्दरे, उपजे पुण्य नहीं भूर, मालतडा० ॥५६ इम जाणि जत्न करो ए, सुण सुन्दरे, मंत्र जपो थई सावधान, मालंतडा. पुण्य घणो वली उपजे ए, सुण सुन्दरे, नासे विघ्न वितान, मालंतडा० ॥५७ सामायिक स्तव वंदन प्रतिक्रम ए, सुण सुन्दरे, कायोत्सर्ग प्रत्याख्यान, मालंतडा. अखंड पणे सदा कीजिये ए, सुण सुन्दरे, आवश्यक अभिधान, मालंतडा० ॥५८ समता सामायिक जाणीये ए, सुण सुन्दरे, जिन चोवीस स्तवन, मालंतडा. एक तणा जिण गुण ए, सुण सुन्दरे, ते वदन पावन्न, मालंतडा ५९ . दोषतणुं बालोचन ए, सुण सुन्दरे, ते कहीइ प्रतिक्रम, मालंतडा० । निन्दा गर्दा निज कीजिये ए, सुण सुन्दरे, टालिये पाप कुकर्म, मालंतडा० ॥६० निजशक्ति कायोत्सर्ग धरो ए, सुण सुन्दरे, ऊभा अथवा पद्मासन्न, मालंतडा. वस्त्र परित्याग जे कीजिए, सुण सुन्दरे, ते प्रत्याल्यान यति जन्न, मालंतहा० ॥६१ षट् आवश्यक नित पालीइ ए, सुण सुन्दरे, टालीये सकल प्रमाद, मालंतडा. पंच इन्द्री मन वश करी ए, सुण सुन्दरे, हारी हरष विषाद, मालंतडा० ॥६२ दंत विना हस्ती जिम ए, सुण सुन्दरे, दंष्ट्रथा विना जिम सिंघ, मालंतडा. आवश्यक विना जति तिम ए, सुण सुन्दरे, नवि सोहे वृत्त प्रसंग, मालतहा० ॥६३ सामायिकतणां दोष त्यजो ए, सुण सुन्दरे, त्यजीये पंच अतिचार, मालंतडा. मनवचकाया दुःप्रणिधान ए, सुण सुन्दरे, अनादर स्मृति अंतर आधार, मालंतडा० ॥६४ सामायिकपाठवचनें भणों ए. सण सन्दरे, संकल्प विकल्प सन्तान, मालंतडा. आर्त रौद्र जे चिन्तन ए, सुण सुन्दरे, ते मनि दुःप्रणिधान, मालंतडा० ॥६५ सुन विना पाठ भणि ए, सुण सुन्दरे, मुखे करे हुंकार, मालंतडा. पूर्वाक्य बोले वली ए, सुण सुन्दरे, वे वचन अतिचार, मालंतडा. ॥६६
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श्रावकाचार-संग्रह
निजकाय चंचल करिए, सुण सुन्दरे, चलण हस्त संचार, मालंतडा० मुखे नेत्र संज्ञा करिए, सुण सुन्दरे, ते अंग दूषणकार, मालंतडा० ||६७ प्रमादपणे पाठ जे भणें ए, सुण सुन्दरे, अनादर दूषण तेह, मालंतडा० स्मृति तणों अन्तर करि ए, सुण सुन्दरे, संभारे पाठ नहीं जेह, मालंतडा० ॥ ६८ इणि परे पंच विधि ए, सुण सुन्दरे, त्यजो सामायिक अतीचार, मालंतडा० मन बचन काया एकरी ए, सुण सुन्दरे, धरो समता भवतार, मालंतडा० ॥६९ सामायिक सूत्रण ए, सुण सुन्दरे, सुणो दोष बत्रीस नाम, मालंतडा० संक्षेपे कहूं जुजुआए, सुण सुन्दरे, जे कह्या जिन स्वामि, मालंतडा० ||७० मालंतडा० अनादर स्तब्ध प्रविष्ट ए, सुण सुन्दरे, प्रतिपीडित दोलायित नाम, अंकुश कच्छपरिंगित ए, सुण सुन्दरे, मच्छ उद्वतं दोष भाम, मालंतडा० ॥७१ मनोदुष्ट वेदिकावंध ए, सुण सुन्दरे, भय दोष विभक्ति ऋद्धि होइ, मालंतडा ० गाव स्तनित प्रत्यनीक ए, सुण सुन्दरे, प्रदुष्ट तजिस दोष जोइ, मालंतडा० ॥७२ शब्द हेलित त्रैवलित ए, सुण सुन्दरे, संकुचित दृष्ट अदृष्ट, मालंतडा० संघ कर मोचन आलब्ध ए, सुण सुन्दरे, अनालब्ध दोषते दुष्ट, मालंतडा० ॥ ७३ हीन उत्तर चूलिका नाम ए, सुण सुन्दरे, मूक दर्दुर दोष जाणि, मालं तडा ० चुल्ललित चरम नाम ए, सुण सुन्दरे, दोष बत्रीस पाप खाणि, मालंतडा० ॥७४ कृतकर्मज आलस करे ए, सुण सुन्दरे, अनादर नाम दोष, मालंतडा ० विद्या अहंकार जे करे ए, सुण सुन्दरे, स्तव्ध आकारि ते सेस, मालंतडा० ॥७५ पंच परमेष्ठी पासें,भणी ए, सुण सुन्दरे, ते कहिये दोष प्रविष्ट, मालंतडा० । निज हस्ते जानु सुग धरी ए, सुण सुन्दरे, ते पर पीडित निकृष्ट, मालंतडा० ॥७६ निज तनु मन चंचल करि ए, सुण सुन्दरे, दोष दोलायित तेह, मालंतडा० । निज निलाडे अंगुष्ठ धरी ए, सुण सुन्दरे, वंदनांकुश दोष एह, मालंतडा० ॥७७ कटि चंचल कच्छप नीयरे चंचल ए, सुण सुन्दरे, मच्छ उद्वर्तित ते भाम, मालंतडा । मालंतडा ॥७८
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सूरी आदि संक्लेश पन ए, सुण सुन्दरे, ते दुष्ट मन दोष, माल डा. कर युग्ये जानु बिहि जोड़ी ए, सुण सुन्दरे, वेदिका नाम ते दोष, मालंतडा० ॥ ७९ भय पामी मरण तणों. ए, सुण सुन्दरे, ते सामायिक भय होइ, मालंडता • गुरु त भय जे भणि ए, सुण सुन्दरे े विभक्ति दोष नुं जोइ, मालंतडा० ॥८० पूजा वांछे जे संघतणी ए, सुण सुन्दरे, गौरघ पणें ऋद्धि दोष, मालं तडा • माहात्म्य प्रकाशे जे आप तणों ए, सुण सुन्दरे, भणें गारव ते शोष, मालंतडा० ॥ ८१ थी प्रच्छन्न पर्णे भणें ए, सुण सुन्दरे, ते चोरी दोष वखाणि, मालंतडा०
ने
गुरु
देव शास्त्र थी परान्मुख भणें ए, सुण सुन्दरे, ते प्रत्यनीक दोष जाणि, मालंत डा० ॥८२ पर साधें द्वेष क्लेश करी ए, सुण सुन्दरे, वंदना ते दोष प्रदुष्ट, मालंतडा० परने भय करतो जे भणी ए, सुण सुन्दरे, तर्जित दोष निकृष्ट, मालंतडा० ॥८३ मौन विना पाठ जे भणि ए, सुण सुन्दरे, ते कहिये वचन दूषण, मालंतडा० आचार्य आदें पराभव करि ए, सुण सुन्दरे, ते हेलित दोष लक्षण, मालंतडा० ॥८४
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पदम-कृत श्रावकाचार त्रिवली भंग अंग जे करि ए, सुण सुन्दरे, भाले रेख त्रिवली तेह, मालंतडा. हस्ते स्पर्श संकोचे अंग ए, सुण सुन्दरे, वंदना दोष संकुचित, मालंतडा० ॥८५ संघ सह देखी भणि ए, सुण सुन्दरे, बाह्य पणे दोष दृष्ट, मालंतडा० . सहि गुरु थो उलवी भणे ए, सुण सुन्दरे, पृष्ठतो वंदना अदृष्ट, मालंतडा० ॥८६ संघ रंजि भक्ति वांछिए, सुण सुन्दरे, संघकर मोचन तेह, मालंतडा. पर थी द्रव्य णामी भणे ए, सुण सुन्दरे, आलब्ध नामें दोष एह, मालंतडा० ॥८७ लोभे द्रव्य वांछे पर तणो ए, सुण सुन्दरे, ते अनालब्ध दोष नाम, मालंतडा. अर्थ व्यंजन काल होण भणे ए, सुण सुन्दरे, ते हीन दोष उद्दाम, मालंतडा० ॥८८ घुघुर नादें मोटे शब्द भणे ए, सुण सुन्दरे, दर्दुर दोष ते होइ, मालंतडा. पंचम रागें पर क्षोभ करे ए, सुण सुन्दरे, धूललित दोष इम जोइ, मालंतडा० ॥८९ इणि परें वत्रीस दोष ए, सुण सुन्दरे, संक्षेपें कह्यो विचार, मालंतडा० विस्तार आगमें जाण जो ए, सुण सुन्दरे, हूँ नर अल्पमति घार, मालं तडा० ॥९. दोष वत्रीस दूरे करी ए, सुण सुन्दरे, परिहरि सयल अतिचार, मालंतडा. मन वच काया दृढ करी ए, सुण सुन्दरे, धरिये सामायिक सार, मालतडा० ॥९१ सदोष वन्दना जु कीजिये ए. सुण सुन्दरे, तो नो होइ पुण्य लगार, मालंतडा० केवल काय कष्टकारी ए, सुण सुन्दरे, श्रम तणो लाहे भार, मालंतडा० ॥९२ इम जाणि दोष परिहरी ए, सुण सुन्दरे, धरों समता भवतार, मालंतडा० अखंड आवश्यक पालिये ए, सुण सुन्दरे, टालिये दुःख संसार, मालंतडा०॥९३ कायोत्सर्गे वंदना जे करे ए, सुण सुन्दरे, तेहनां दोष बत्रीस, मालंतडा. जे जिन आगम जाणज्यो ए, सुण सुन्दरे, घोटक आदें निर्देश, मालंतडा० ॥९४ चहुं अंगुल तणें अंतरे ए, सुण सुन्दरे, भू पीठ धरी दोय पाय, मालंतडा. जानु लगें लंब हस्त ए, सुण सुन्दरे, निश्चल करी निज काय, मालतडा० ॥९५ विहु पासें पूठि मस्तकि ए, सुण सुन्दरे, अडकीये किसे नहीं आणि, मालंतडा० स्वनेत्र संज्ञा किसी ए, सुण सुन्दरे, मौन धरी निज वाणि, मालंतडा० ॥९६ इणि परे पाठ जे भणी ए, सुण सुन्दरे, लेइ कायोत्सर्ग गुणधार, मालंतडा. इम दोष कोइ नहीं होइ ए, सुण सुन्दरे, जो रहे शास्त्र अनुसार, मालंतडा० ॥९७ सदा सामायिक कीजिये ए, सुण सुन्दरे, निज शक्ति लेइ कायोत्सर्ग, मालंतडा. सुर नर वर सुख भोगवीइ ए, सुण सुन्दरे, इणि परे होइ अपवर्ग, मालंतडा० ॥९८ जिम जिम समता कोजीइ ए, सुण सुन्दरे, तिम तिम दुःकर्म हाणि, मालंतडा० पुण्य घj वली पजे ए, सुण सुन्दरे, पुण्ये स्वर्ग सुख खाणि, मालंतडा० ॥९९ यती अथवा गृहस्थ पणे ए, सुण सुन्दरे, समता परि घड़ी दोय, मालंतडा. मनवांछित सुख ते लहे ए, सुण सुन्दरे, समता तोले नहीं कोय, मालतडा० ॥१००
वस्तु छन्द धरो सामायिक, धरो सामायिक भविजन भावे करी । मन वचन काया दृढ़ पणे, करे सामायिक सार निर्मल, इन्द्र नरेन्द्र पद पायिनें, अनुक्रमें सुख देइ ते अविचल ।
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श्रावकाचार-संग्रह अनुदिन जे जन पालसे, व्रत सामायिक सार, जिन सेवक पक्षमो कहे, ते जासे भव-पार ॥१०१ .
अथ ढाल सहेलीनी कही सामायिकसार, भेद त्रीजी प्रतिमा तणों, साहेलड़ी० कहूँ प्रोषध उपवास. प्रतिमा चतुर्थी सुणों, साहेलड़ी० ॥१ मास एक मझार, चार उपवास कीजिए, साहेलड़ी० आठम चौदस पर्व, पोसासहित सदा लोजिए, साहेलड़ी० ॥२ सातमि तेरसें जाणि, अष्टविध जिन पूजा करी, साहेलड़ी० पूजे जिनवर पाय, सुर पद पूजा अनुसरी, साहेलड़ी ॥३ त्रिविध मिले जो पात्र, प्रासुक आहार तस दीजिए, साहेलड़ी० सफल करी निज गात्र, अतिथि संविभाग भाव कीजिए, साहेलड़ी० ॥४ निज स्वजन-सहित आपण पें, एक स्थान करीइए, साहेलड़ी. तुष्टि तप एक भक्त, नीर-सहित नित पालीइए, साहेलड़ी ॥५ असन पान खादि स्वादि, चतुर्विध आहार करो, साहेलड़ी० पछे करी मुखि-शुद्धि, बुद्धि निज आहार संचरी, साहेलड़ी ॥६ पछे जई जिनगेह, पाय पवित्र करी, साहेलड़ी. सोधी ईर्यापन्थ, निसही निसही अणि उच्चरी, साहेलड़ी ॥७ देइ प्रदक्षिणा त्रण, जिन पूजि स्तवन भणी, साहेलड़ो० करी साष्टांग प्रणाम, नीसरवां कही आवसही त्रणी, साहेलड़ी० ॥८ पूजी सहि गुरु वाणि, पंचांग प्रणाम विनय करी, साहेलड़ी० गुरु उपदेशे उपवास, विधि सहित पोसह धरी, साहेलड़ी० ॥९ रही निरन्तर स्थान, जिन प्रासाद शून्य गेह, साहेलड़ी० गिरि-गुफा उद्यान, समसान भूमि रही तेह, साहेलड़ी ॥१० छांडी घर व्यापार. आरम्भ षट्कर्म परिहरी, साहेलड़ी० त्रण दिन ब्रह्मचर्य, धरे वस्त्र एक ऊजलो, साहेलड़ी० ॥११ वाली दृढ़ पद्मासन्न, अथवा कायोत्सर्ग धरी, साहेलड़ी० कीजे शुभ धर्मध्यान, आतरौद्र दूरें करी, साहेलड़ी० ॥१२ क्रोध मान माया लोभ, राग द्वेष मद वेगलो, साहेलड़ी० त्रण दिन ब्रह्मचर्य, धरे वस्त्र एक ऊजलो, साहेलड़ी० ॥१३ भणिये जिनवर-वाणि, विनय व्याख्यान करो, साहेलड़ी० छोड़ी विकथावाद, धर्म चर्चा ते अनुसरो, साहेलड़ी० ॥१४ कीजे दोय प्रतिक्रमण, कीजे सामायिक त्रण काल, साहेलड़ी० लीजे स्वाध्याय चार योग भक्ति वे गुणमाल, साहेलड़ी० ॥१५ यतितणों आचार, पोसह तणे दिन पालिये, साहेलड़ी० जेहवो मुनिवर धीर, वीर विद्याग्रह सम्भालिये, साहेलड़ी० ॥१६ पंच परमेष्ठी गुण, षद्रव्य पंचास्तिकाय, साहेलड़ी० सप्त तत्त्व अष्टकर्म, नवपदार्थ विधि न्याय, साहेलड़ी० ॥१७
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पदम-कृत श्रीवकाचार
दशलक्षण जिनधर्म-चैत्य एकादश अंग, साहेलड़ी० अनुप्रेक्षा वार सुतप, तेर क्रिया व्रत रंग, साहेलड़ी० ॥१८ .. चितो चोद गुणस्थान, प्रमाद पनर प्रजालिये, साहेलड़ी० भावना भावो शुभ सोल, सत्तर संजम पालिये, साहेलड़ी० ॥१९ प्रमाद साढ़ा सात्रीस, लक्ष चौरासी मुनिगुण, साहेलड़ी० चरचा कीजे माहो मांहि, समता भावे मतिनिपुण, साहेलड़ी० ॥२० अष्टमी तणों उपवास, अष्टकर्म तणुं हारक, साहेलड़ी० आपे सिद्धगुण अष्ट, अष्टमी भूमि सुखकारक, साहेलड़ी० ॥२१ चतुर्दशी उपवाम, केवलज्ञान प्रकाशक, साहेलड़ो० चोदमु देइ गुणस्थान, चतुर्गतिना दुखनाशक, साहेलड़ी० ॥२२ आठमि चौदसि उपवास, नीर विना सदा जे करें, साहेलड़ी० ते पुण्य होइ अपार, पाप दुष्कर्म निर्जरें, साहेलड़ी० ॥२३ उष्ण लेइ जो नीर, तो आठमो भाग जाइ, साहेलड़ी० कसाल्यां द्रव्य जल मिश्रा, तो उपवास हीण थाइ, साहेलड़ी० ॥२४ आठम चौदस उपवास, अखंड पणे जे आचरें, साहेलड़ी० सदा पोसा सहित, सदा पंच इन्द्रो मन वसि करें, साहेलड़ी० ॥२५ सावद्य-सहित उपवास, लीपणों जिम धूल ऊपर, साहेलड़ी. अथवा जिम गजस्नान, नाखे धूलि सूढ भर, साहेलड़ी० ॥२६ सावद्य-रहित उपवास, पुण्यकारी कर्म-निर्जरे, साहेलड़ी. सहित सावध उपवास, कष्टकारी कर्म अनुसरे, साहेलड़ी० ॥२७ निःपातन कुदाल, जालकर्म तरु मूल खणे, साहेलड़ी. सो तप वज्र समान, कठिण कर्म पर्वत हणे, साहेलड़ी० ॥२८ सोल प्रहर नु मान, उत्तम पोसह जिण भण्यो, साहेलड़ी. धारणां दिन मध्यान, पारणे मध्यान लगे सुणो, साहेलड़ी० ॥२९ धारणे पारणें एक बार, भोजन पानी साथे सही, साहेलड़ी. वार पहर ते मध्य, एक दिन वे रात्रि कही, साहेलड़ी० ॥३० दिन एक रात्रि एक, जघन्य पोसो ते कहो, साहेलड़ी० पोसो नियम सहित, निजशक्ति मन आणीये, साहेलड़ी० ॥३१ पारणे कीजे जिनपूज, पात्रदान वली दीजिये, साहेलड़ी० निज साधर्मी जिन साथ, भोजन सूवाच्छल्य कीजिये, साहेलड़ी० ॥३२ निज पर्व उपवास, मूलवत जे आचरे, साहेलड़ी. जीवितव्य तेह प्रमाण, अखंड नियम जे अनुसरे, साहेलड़ी० ॥३३ इम जाणिय तम्हो भव्य, मूलव्रत सदा धरो, साहेलड़ी. निज शक्ति अनुसार, उत्तर तप बहु करो, साहेलड़ी० ॥३४ तप ए निर्मल नीर, पाप-कर्दम-प्रक्षालक, साहेलड़ी. तप अग्नि जीव सुवर्ण, कर्म-कलंक प्रजासक, साहेलड़ी० ॥३५
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श्रावकाचार-संग्रह
आठमि चौदसि जाण, जे मूढा मैथुन करे, साहेलड़ी • ते नर पशु समान, पाप-फल नरकें अवतरें, साहेलड़ी ० ॥३६ आठमि चोदसि तिथि पर्व, निर्मल शील जे ध्याय, साहेलड़ी • ते उत्तम गुणवंत, पुण्य फलें स्वर्गे जाय, साहेलड़ी ० ||३७ पोसा तर्फे दिन भव्य, शरीर - सिणगार न कीजिये, साहेलड़ी • स्नान विलेपन आभरण, सुगंध पुष्प न वि लीजिये, साहेलड़ी० ॥३८ उत्तम प्रतिमावंत, पोसह घरो नियम- सहित, साहेलड़ी ०
उत्तम मध्यम अंतर नहीं ए, अवर विधें जलध रहित, साहेलड़ी० ॥३९ शक्ति होय जेहनें हीन, ते करें कांजी रूक्ष आहार, साहेलड़ी ० एक स्थान एक भक्त, जघन्य व्रत विधि धार, साहेलड़ी ० ॥४० करें नहीं जे उपवास, पंच इन्द्री अंग जे पोसें, साहेलड़ी ०
ते लंपट करे पाप, भव-भव दुख ते सहें, साहेलड़ी० ॥ ४१ परवश पड़ियो जीव, लंघन कष्ट करे घणुं, साहेलड़ी • स्वाधीन पणें धर्मकाज, करे नहीं ते मूढ़ पणुं, साहेलड़ी० ॥४२ प्रगट करि निज शक्ति, तप व्रत शुभ आचरो, साहेलड़ो • तप चिन्तामणि कल्पवृक्ष, सौख्य जिम मोक्ष वरो, साहेलड़ी० ||४३ निर्दोष कीजे तप, पंच अतीचार तजो, साहेलड़ी •
पोसह तणां अतिपात, पंच पाप मन तजो, साहेलड़ी• ॥४४
जो या विणजे द्रव्य, झणी ववो भूमि ऊपर, साहेलड़ी ० नव लीजे उपकर्ण, विवण पूंजी जोइ, साहेलड़ी० ॥४५ संथारा कीजे यत्न, आदर करो आवश्यक तणो, साहेलड़ी ० मन वच करि सावधान, व्रत संभारो आपणों, साहेलड़ी० ॥ ४६ इणि परे दोष रहित, पोसा तणी विधि पालीइए, साहेलड़ी • चौथी प्रतिमा उत्तुंग, मन वचन कायाइ संभालीए, साहेलड़ी० ॥४७ संक्षेपे कह्यो विचार, पोसह तणो मैं ऊजलो, साहेलड़ी० पोसह तणें फल भव्य, सोलमें स्वर्गे जाइ निर्मलो, साहेलडी० ॥४८ इन्द्र नरेन्द्र पद होइ, मन वांछित सुख पामोये, साहेलड़ी० लहे चक्री जिन पद, अनुक्रमें मोक्ष पामीये, साहेलड़ी० ॥ ४९ सचित्त वस्तुनो त्याग, पंचम प्रतिमा सांभलो, साहेलड़ी० संक्षेपें कहुँ सार, कृपा कीजे भेद ऊजलो, साहेलड़ी ॥५० हरित कंद फल फूल, पत्र प्रवाल त्वक् सचित्त, साहेलड़ी० अप्रासुक जल धान, तेह तणी कीजें निवृत्त, साहेलड़ी ० ॥५१ आर्द्रक आदें कंद, आम्र केल आदि फल, साहेलड़ी ० नागवल्ली आदि पत्र, अप्रासुक जल शीतल, साहेलड़ी० ॥५२ तरुतणी नीली छाल, नीलमा आदि जे कुसुम, साहेलड़ी० गोधूम चणका ज्वार, बिरहाली आदि बीज उत्तम, साहेलड़ी० ||५३
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पदम-कृत श्रावकाचार
जे जे सचित्त वस्तु, ते ते भक्षण न वि कीजिये, साहेलड़ी. अप्रासुक मिश्र प्रासुक, द्रव्य सचित्त सहु तजीजिये, साहेलड़ी० ॥५४ सूकू पाकू अग्नि, तस कसाल्या द्रव्य माहे भले, साहेलड़ी. अथवा कीजे चूर्ण, पूर्ण प्रासुकं जन्त्र-दले, साहेलड़ी० ॥५५ शद्ध प्रासक जे द्रव्य, स्परस रस गंध वरण, साहेलडी. जेह मार्ने निज मन्न, ते प्रासुक वस्तु जोग्य करण, साहेलड़ी० ॥५६ पथिवी अप तेज वाय. असंख्य जीव न वि बंधीये, साहेलड़ी. वनस्पति अनंतकाय, तेह जीव न विराधीये, साहेलड़ी० ॥५७ जो मिले प्रासुक द्रव्य, तो आपणे न विराधोये, साहेलड़ी. कोमल करि परिणाम, जीव दया धर्म राखीये, साहेलड़ी० ॥५८ मन वच कायाइ जाणि, पंचम प्रतिमा पालिये, साहेलड़ी. जीव दया तेणें काज, जीव हिंसा हुँ टालिये, सालेहड़ी० ॥५९ दिवा मैथुन त्याग, रात्रे आहार चार त्यजो, साहेलड़ी० छट्ठी प्रतिमा नेम, रात्रि भुक्ति विरति भजो, साहेलड़ी० ॥६० अशन पान खादि स्वादिम, अन्न आदि अशन कही, साहेलड़ी. जल आदि रस पान, दुग्ध घृत तेल सही, साहेलड़ी० ॥६१ खाजा मोदक पकवान, फल आदि खादु वस्त, साहेलड़ी. लवंग एलाची तंलोल, स्वादकारी द्रव्य प्रशस्त, साहेलड़ी० ॥६२ ए चतुर्विध आहार, रात्रि समय न वि खाइए, साहेलड़ी. थल सूक्ष्म जीव घात, अन्धकार न वि देखीए, साहेलड़ी० ॥६३. दिवस उदय सूर्यमान, घड़ी य दोय चार होइ जब, सालेहड़ी. तब कीजे स भोजन्न, आहार चार भोकल्या तब, सालेहड़ी० ॥६४ मास एक पर्यन्त, निशा आहार जे नियम करे, सालेहड़ी० लहे पुण्य विशाल, उपवास पन्नर फल लहे, सालेहड़ी० ॥६५ उपवासें होइ कष्ट, निशा आहारें सो हिल्यो त्यजो, सालेहड़ी इम जाणी भव्य लोक, उपवास पुण्य ते तेतलो, सालेहड़ी० ॥६६ मन वच काया ठाम, परिणामें पुण्य ऊपजे, सालेहड़ी. निशाहार चार त्याग, सुख सन्तोष संपजे, सालेहड़ी० ॥६७ जाव जीव धरे जे नेम, रजनी चहुं आहार तणो, सालेहड़ी. ते फल बहु उपवास, काल गमे ऊर्ध आपणो, सालेहड़ी० ॥६८ निशाहार-नियमवन्त, जस पुण्य महिमा घणों, सालंहड़ी. ऋद्धि वृद्धि लहे सौभाग्य, सुख पामे देव पदतणों, सालेहड़ी ॥६९ दिवा करे जे मैथुन, ते नर पशु समान, सालेहड़ी० दिन अयोग्य यह कर्म, सूर्य साखें कीजे किम, सालेहड़ी० ॥७० दिवा ब्रह्मचर्यवन्त, ते नर देव समो कहीइ, सालेहड़ी. दिवा कीजे धर्मकाज, लाज काज कीजे नहीं, सालेहड़ी• ॥७१
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श्रावकाचार-संग्रह
इम जाणी भविजन्न, दिवस मैथुन ते परिहरो, सालेहड़ी. रातें आहार-परित्याग, छट्ठी प्रतिमा अनुसरो, सालेहड़ी० ॥७२
दोहा दिवा ब्रह्मवत जे धरे ते नर देव समान । अयोग्य काज किम कीजिए, दिवस खास वदिमान ॥१ लाजे कापड पेहरीए, लाजे दीजे दान । लाजे काज सहू सरे, लाज करो गुणधार ॥२ मन वच कायाइ वश करी, दिने शील पालो सार। रात्रं आहार जे परिहरें, धन धन ते अवतार ॥३ लंपट जे नर कामिनी, अयोग्य करे जे काज । निन्दा अपजस ते लहें, सहे ते दुक्ख समाज ॥४ इम जाणी संतोष धरि, म करो कर्म अयोग्य । शुभ सदाचार संचरो, करो मन मन संतोष ॥५ दर्शन आदि छै स्थान, अनुदिन पाले जे सार । जघन्य श्रावकते जाणिये, धरे जे शुभ आचार ॥६
अबढाल बंबिकानी प्रतिमा छै विशाल, संक्षेपें भेद में भण्! ए । हवे कह शील भेद, प्रतिमा सातमी ते तणुं ए॥१ सर्व नारी परिहार, देव मनुष्य पशु तणी ए। अचेतन जे नार, चार भेद सेवो झणी ए॥२ मन वयण निज अंग, कृत कारित अनुमोदना ए। नव भेदे त्यजो संग, नारी नरकते नोदना ए॥३ दृढ़ घरो ब्रह्मचर्य, निज पर स्त्री दूरें त्यजो ए। व्रत सहु माहें ब्रह्मचर्य, शीलरत्न सदा भजो ए॥४
स्त्री कथा स्त्री गोष्ठ, स्त्री-संगति दूरे करो ए।
स्त्री तणी सेवा निकृष्ट, स्त्री-संगति तम्हों परिहरो ए॥५ वृद्ध यौवन स्त्री बाल, माता बहिन पुत्री सम ए। चिंतवो ते सकोमाल, मन मर्कट गुण दमीइ ए ॥६ सणो नारी निक्षेद, स्थूल दोष ते सांभलो ए । जिम उपजे निर्वेद, सहज भाव ते कसमलु ए ॥७ मर्खपणों बहु होइ, माया मिथ्यात जु बोलीइ ए। सहज अशुचि तजोइ, पाप-साहस घणुं वली ए॥
सहजें निर्दय परिणाम, लोभ तृष्णा करे घणी ए।। कलंक तणुं ते ठाम, रामा रंग करो घरो धणी ए॥९ कचपे चुं आवास, मुख अस्थि चरम पंचरो ए। दुर्गन्ध श्लेष्म कुसास, काम आस्वादे कूकरो ए॥१० स्तन ए मांस को पिंड, रस रुधिर पश्रु पर वहे ए।
उदर वृष्टि घडे प्रचंड, कामी काक रागि रहे ए॥११ कामिनी कलत्र कुस्थान, मूत्र रक्त सदा ए। नरक कुविलन समान, कामी कीट सेवा करे ए ॥१२
बाह्य देखि चाक चुंब, जिम पतंग दीवे पडे ए। मरे सेवे रागी सुंव, मदन विरी जीविनें नडे ए ।।१३ अभ्यन्तर भाग अंग, रोग वसे बाहिर जो थाइ ए। तो उपजे बहु सुंग, काग माखी भक्षी जाइ ए ॥१४ एह वो अंग अपवित्र, रोगी नर रचें सदा ए।
सप्त धातु भरयो विचित्र, डाहो नहीं सेवे सदा ए ॥१५ पुरुष-अंग संयोग, जीव अलब्ध बहु मरें ए। योनि स्थान-उत्पन्न, लिंग संघट्टि हिंसा घणी ए ॥१६
स्त्रीसेवंता एक वार, नव लक्ष जीव मरि ए। जिम तिल मरी वंसनाल, तातो जिम दंड संचरि ए॥१७
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पदम-कृत श्रावकाचार
CP
मैथुन करे जे मूढ, दिन प्रति बहुवार ए। ते पामें पाव प्रौढ, सहे ते बहु दुःख भार ए॥१८. काम-अनल महादाह, स्त्री सेवे घणुं बले ए। तेले जिम थाइ उछाह, संतोष नीर वेगे टले ए॥१९ इम जाणि भव्य जीव, काम सेवा दूरें त्यजो ए। मनें धरो संतोष, दिव्य ब्रह्मवत सदा भजो ए॥२० दृष्टि विष नागिनि जिम्म, देखी वेगे मानव मरे ए। देखी रागें नारि तिम्म, दूर थकी नर मन हरे ए ॥२१ नर तणों दृढ ब्रह्म व्रत, नारी संगे वेग जाइए। अग्निताप-संयुक्त, पारो जिम दहं दिस थाइ ए ॥२२ जिन भवनें एक वार, जिनदत्त श्रेष्ठि गयो ए। देखो नारी चित्राकार, दृढ़ मन पण विह्वल थयो ए ॥२३ संच्यो संठे कालकूट, विष वेदना करे नहीं ए। तिणें नारी जब दृष्ट, भ्रष्ट व्रत थयो सही ए ॥२४ सांपणि समी विकराल, स्परशी दुख देइ घणुए। राग मूकी विष झाल, शील जीवी हरे नर तणुए ।२५ वाघ सिंघ तणे वासि, सर्प समीप वसो रूरू ए। पापिणी नारी ताणें वास, साधु रहियों सदा दूरू ए ॥२६ तालगें नर मोटो होइ जालगें नारी थी वेगलो ए।। जद नारी नेडो सोइ, तष हीणों नार कसमलो ए॥२७ जिम मांगे रंक अन्न, दीन पणे याचना करे ए। कामें व्याप्यो जब मन्न, तब नारी शील धनं हरे ए॥२८ सर्वथा नारी करो त्याग, रागदृष्टि दूरे करो ए। जिणें न होइ तुम सो भाग, वैरागभावे परि हरो ए ॥२९ नारी अंग सिणगार, रूप-निरीक्षण नवि कीजिए ए। देखि स्त्रीरूप अंगार, पुरुष पतंग प्राणी त्यजो ए॥३० स्त्री आभरण झंकार, रागकारी शब्द त्यजो ए। मदन पामे विकार, महुअर नार्दै सांप सज ए॥३१ स्त्री-संयोगे हुइ राग, वीर्यहानि मल विस्तरि ए। पाप तणों होइ भाग, पापें किम शिव संचरि ए ॥३२ स्त्री साथे हास्य विनोद, कौतुक क्रीडा जे करे ए। पामें मदन प्रमोद, भांड वचन वली उचरे ए॥३३ स्पयें छोड़ो नारी अंग, नयणे रूप न देखीइ ए। करणें त्यजो शब्द संग रंग मन नवि पेखीइ ए ॥३४ जिम तिम करीय उपाय, नारी थकी दूरे रहो ए। मन वच करी वश काम, शील व्रत निर्मल लहो ए॥३५
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श्रावकाचार-संग्रह
नारी तणां कटाक्ष-वाणे जे नवि मेदिया ए। ते सुभट माहें दक्ष, जिणे शील न छेदिया ए ॥३६ नारी तणा अंगोपांग, तीक्ष्ण बाण जे नवि हण्यां ए। ते सुमट माहें उत्तुंग, ते धन्य पुण्यवंत भण्यां ए ॥३७ दूरि गज वाघ सिंघ, निज हस्तें नर वश करे ए। ते हवा भूपति बलवंत, विरला जे शील नवि हरे ए ॥३८ दुर्धर काम कहे वाय, पायो त्रैलोक्य माहे फिरे ए। इन्द्र फणीन्द्र नरराय, कामें सह विह्वल कोया ए॥३९ सबल शूर जे धीर, काम शत्रु जेणें जीतिया ए। ते नर गुण गंभीर, नारी रूपें नहीं छीपिया ए॥४० सुख शय्यासन चीर, ताम्बूल पुष्प माला गंध ए। दांतुन स्नान शरीर, सरार्गे शीलदोष बंधे ए॥४१ निज अंग मंजण जेह, बहु राग जेणें ऊपजे ए। चंदण धूपावास देह, सबल काम जेणें संपजे ए॥४२ एह आदे जे जे वस्तु, तीव्र काम कारी कही ए। ते द्रव्य छोड़ो समस्त, शील यत्न करो सही ए॥४३ कूबड़ी काली कुरूप, नेत्र नासिकाथी वेगली ए। बीभत्स दीसे बहुरूपं, हस्त पाद छिन्न दूबली ए॥४४ एहवी देखि कुनारि, स्त्री रागे मूढ नयर नडयो ए। पापी मदन विकार, कामी नर तिहां पडयो ए ४५ करे मास उपवास, पारणे केवल लेई नीर ए। पामी नारी तणों पास, ततक्षण पड़े ते धीर ए ४६ मणंता जे अंग इग्यार, ध्यानी मुनि वैरागिया ए। सहि नारी संग असार, शील वेगें तिणे त्यागिया ए ॥४७ हुआ रुद्र जे इग्यार, माता-पिता वली तेह तजा ए। थया भ्रष्ट चारित्र भार, विषम संग लहीं आपका ए॥४८ एह आर्दै नर नार, काम रोगे जे घणुं रुल्या ए। जिन आगम मझार, ते तम्हो सहु सांभल्या ए ४९ शील तणे प्रभाव, सुर तणां आसन कंपिया ए। इन्द्र आदि देवराय, शील धारौ गुण जंपिया ए ॥५० क्रूर वाघ थाइ छाग, सिंघ थाइ भृग समो ए। पुष्पमाल थाइ नाग, दुर्धर गज भृगाल समो ए॥५१ अग्नि फीटी जल होइ, विषम विष अमृत थाइ ए। शत्रु सहु होइ मित्र, समुद्र ते गोष्पद थाइ ए ॥५२ कामधेनु कल्प वृक्ष, शील चिन्ता मणि सम कही ए। मन वांछित ते लहें सौख्य, शील मोले अवर को नहीं ए ॥५३
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पदम-कृत श्रावकाचार
शील महिमा जस गुण, एक जीमे किम वर्णव्युए। देइ सोलमो स्वर्ग, अनुक्रमे ते सिद्ध थाइ ए॥५४ मन वच काया आणी ठामि, दृढ़, ब्रह्मचर्य पालीइ ए। प्रतिमा सातमी ते नाम, पंच अतीचार टालीइ ए ॥५५ नारी अंग निरीक्षण, नारी कथा न वि कीजिए। पूर्व मुक्त अनुस्मरण, कामकारी रस न लीजिइ ए ॥५६ निज सरीर सिणगार, शील तणां त्यजो दूषण ए। अठार सहस्र प्रकार, पालो शील गुण भूषण ए ॥५७ प्रतिमा आठमी कहँ भेद, एक मना मित्र सांभलो ए। सर्व आरंभ निक्षेद, आरति निवृत्ति नाम निर्मलो ए॥५८ पृथ्वी अप तेज वाय, चार थावर सत्त्व कही ए। सर्व वनस्पति काय, भूत सत्ता जीव सही ए॥५९ बे इन्द्री ते इन्द्री चौ इन्द्री, विकलत्रय प्राणि एह ए। असंज्ञी संज्ञी पंचेन्द्री जीव, जाति संज्ञा तेह ए॥६० सत्त्व भूत प्राणी जीव, थावर त्रस काय देखोइ ए। मन वच काय अतिचार, यत्न सहित दया पेखिये ए॥६१ छांडि आरंभ षट्कर्म, झूठ चोरी मैथुन त्यजो ए। परिग्रह थी होइ कर्म, बहु तृष्णा पाप वृक्ष ए ॥६२ छोड़ो दुर्व्यापार, हिंसा काज पाप कारी ए। क्रोध मान कपट असार, लोभं इन्द्री क्षोभ धारी ए॥६३ कुविणज थी रुडु विष, एक भव दुःख ते देइ ए। पाप देइ बहु दुःख, अनेक जन्म कष्ट वेइ ए ॥६४ कुव्यापारे धन्न उपाय, पाप फल एक लो लहि ए। धन स्वजन सहु खाय, नरक कष्ट एक लो सहि ए ॥६५ तो किम कीजे ते पाप, दुर्व्यापार दूरे करी ए। उगारीइ निज आप, के किहने न वि उधरो ए ॥६६ जिम जिम छोडि पापारंभ, तिम तिम दुष्कर्म निर्झरि ए। आलिंगन देइ देव रंभ, मुक्ति नारी वेगे वरि ए॥६७ से ने खणों पृथिवी काय, नीर अग्नि न विराधिये ए॥ से में धालो बहु वाय, तरु त्रस जीव न विराधिये ए॥६८ वापी कप तडाग नदी वेहला न खणाविये ए। धर हाट आरंभ त्याग, गढ़ गोपुर न चिणाविये ए॥६९ पर विवाह उपदेश, विषय आरंभ न कराविये ए। पंच पातक गणि वेश, मन इन्द्री निवारिये ए॥७० आरंभ थी जीव हिंस, हिंसा थी पाप विस्तरे ए। पापे दुर्गति वास, विविध दुःख जीव अनुसरे ए॥७१
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श्रावकाचार-संग्रह
इम जाणिय भव्य जीव, सर्व आरंभ दूरे करो ए । संतोष घरी मन दिव्य प्रतिमा आठमी अनुसरो ए ॥७२
नवमी कहुँ प्रतिमा, परिग्रह संख्या कीजिये ए । जिम उपजे बहु पुण्य. संतोषे लीजिये ए ॥७३ संग संख्या दशविध, तेह भेद पेहलां कह्या ए ।
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मर्याद प्रसिद्ध, थूल पणें तम्हो सर दहो ए ॥ ७४ वली वली सुं कहुँ मित्र, सर्वथा परिग्रह परिहरो ए । निज मन करिय पवित्र, सन्तोष सुख सदा धरो ए ॥७५ जिम जिम छांडे संग, तिम तिमवाप ते निस्तरे ए । देव- रंभा घरे रंग, मुक्ति नारी वेगे वरि ए ॥७६ मन वयण निज अंग, कृत कारित अनुमोदना ए । नव भेदे छांडो संग, नवमी चैत्य गुण नोदन ए ॥७७
दोहा
परिग्रह सब जे परिहरो, सन्तोष धरि निज मन्न । मन वच काया वश करो, जिम होइ निमल पुण्य ॥ १ दर्शन चैत्य आदें करी, जे पालें नव शुभ स्थान ।
मध्यम श्रावक ते जाणिये, सदाचारी गुण निधान ॥ २
इणि परे नव प्रतिमा धरे, संवरि दुर्व्यापार | सोलमें स्वर्गे ते ऊपजें, सौख्य तणों आधार ॥३ अनुदिन जे जन पालसी, मध्य भेद श्रावकाचार । जिनसेवक पदजो कहे, ते तिरसी संसार ॥४
ढाल गुणराजनी
नवमीए प्रतिमा भेद, वेदपणें इम उच्चरी ए ।
अनुमणां ए निवृत्त नाम, ठाम दशमी चैत्य वरी ए ॥१ घर हाट ए दुर्व्यापार, हिंसा पाप दूर करो ए । गृहस्थ ए षट् कर्मधार, ते अनुमोदना परिहरो ए ॥ २ निज पर ए सजन परिवार; विवाह काज न कीजिइ ए । जेह थी ए पाप व्यापार, अणु मन चित्त न दीजिइ ए ॥ ३ अनुमोदना थी उपजे पाप, पापें दुःख घणु होड़ ए । शीयाल सावज ए मोन संताप, कष्ट सहे नरक तर्णों ए ॥४ सोंपिये ए घर तणों भार, निज सहोदरे अथवा पुत्र ए । आपण थइए निश्चिन्त, भालवण देई घर सूत्र ए ॥ ५ जोग्य जाणि ए निज पुत्र जेह, ते घर भार ज परिहरि ए । मूढ जीव ए मोहे तेह, पापें अधोगति अवतरे ए ॥ ६ बहुभार ए जिम डूबे नाव, सर्व वस्तु विनाशक ए । तिम जीव ए पाप प्रभाव, संसार-सागर वासक ए ॥७ इम जाणि ए छोड़ो घर भार, निज पुत्र पद आपीइ ए । दूमेह ए करे परिहार, वैराग्यें मन व्यापोइ ए ॥८
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पदम -कृत श्रावकाचार
रही ए श्री जिनगेह, गुरु सेवा सदा कीजिये ए ।
निज पुत्र ए बन्धव गेह, प्रासुक आहार ते लीजिये ए ॥९ सरस विरस ए मिले जो आहार, हरष विषाद ते परिहरो ए । छांडिये ए ममता असार, अनुमोदना रखे करो ए ॥ १० इष्ट अनिष्ट ए मिष्ट कडुबु ं अन्न, राग द्वेष न वि आणीये ए । शुद्ध वस्तु ए ल्यो मानि मित्र, शुभ-अशुभ न वखाणीये ए ॥११ निज मनिए धारिय सन्तोष, आहार लेइ•मुख शुद्धि करो ए । उदर ए पूरी निर्दोष, जिल्ह्वा स्वाद ते परिहरो ए ॥१२ मस्तक ए रोम शिखा मात्र, शिर विटणी अल्प धरो ए । पे हरि ए उज्ज्वल वस्त्र अंग आच्छादो वस्त्रें करी ए ॥१३
रहिये ए श्री जिनगेह, अंग पाय पवित्र करी ए । बंदि ए देव गुरु तेह, भक्ति वात्सल्य विनय घरी ए ॥१४ भणिये ए श्री जिनवाणि, कान सहित ते सांभली ए ।
for धर्म सुध्यान, मान मोह थी वेग लो ए ॥१५ ए इणि परि ए गमा निज काल साधर्मी सुं चरचा करो ए । गुणवन्त ए गुण विशाल, निज मुखे ते उच्चरो ए ॥१६ दान पूजा ए तप गुणधार, पुण्य काज सदा कीजिये ए । पालिये ए शुभ आचार, धर्म अनुमोदना कीजिये ए ॥१७ जिणि जिणि ए उपजे पाप, ते ते काज न कीजिये ए ।
मूकीये ए ममता ताप, पाप अनुमति न दीजिये ए ॥१८ चिन्तवीये ए मनहब्भार, घर मोह पास थही ए । छोड़िये ए जिम बेडी ए चोर गमार, चिन्ते पास किम मोडिये ए ॥१९
करीये आवश्ये ए काल सुलब्ध, जिनदीक्षा कहीये लोजिसी ए ।
साधु के ए भिक्षा शुद्धि, कही ए पर घर कीजिसे ए ॥२० इणि परि ए दशमी चैत्य, संक्षेपे में वर्णवी ए ।
इग्यारसी ए चेत्य सुणो मित्र तेह मेद हवे कहूं ए ॥२१ बंदीइ ए देव गुरु पाय, सजन सहु खमावीइ ए । निर्मल ए वैराग्य ध्याय, मैत्री भाव घरे बहु ए ॥२२ भव अंग ए भोग वैराग, निज मनमें चिन्तन करो ए ।
दशविध ए करि संग त्याग, लीजे संजम क्षुल्लक तनों ए ॥ २३ इग्यारसी ए प्रतिमा स्थान, प्रथम भेद ते सांभलो ए ।
कोपीन ए तणों परिधान, अखण्ड वस्त्र एक निर्मलो ए ॥ २४ निज शिर ए तणां जे रोम, कतर वा मुंडण करे ए । अथवा ए लोंच उत्तम, वैराग्य दया हेतु धरे ए ॥ २५ अल्प वित्त ए राखे जात्र, निन्दा शोक न उपजे ए । निर्भय ए होइ निज गात्र, शील सन्तोष ते उपजे ए ॥२६
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श्रावकाचार-संग्रह
शौच तणों ए राखे पात्र, काष्ठ नालीयर लोह तणों ए । परिग्रह ए पुस्तक मात्र, ज्ञान अभ्यास कीजे घणो एं ॥ २७ पर दीघू ए कोपीन वस्त्र, अखंड अंग तिणें आचरि ए । प्रतिलेखणि ए लेई पवित्र, कोमल भाव हिये धरी ए ॥ २८ चौद घडी ए चड़यां पछी दीस पात्र पखाली करंधरी ए । कीजिये ए नगर प्रवेश, भिक्षा काजे ते संचरे ए ॥२९ सोधतो ए ईर्यापन्थ, चार हस्त निरीक्षण करे ए । जेहवो ए चाले निर्ग्रन्थ, सन्नि सेरीए नीसरे ए ॥ ३०
कहि साथ ए करे नहीं बात, वाटें ऊभो रहे नहीं ए । बोले नहीं ए निज पर क्षात, कपट माया ते नवि कहीइ ए ॥ ३१ धनवंत ए देखी धनक्षीण, ऊंचा घर देखी करी ए ।
लोह हेम ए देखी रत्न, त्रण समता भावे करो ए ॥ ३२ श्रावक तणां ए देखी घर हार प्रथम घरे जड़ रहीये ए । भए अंगण द्वार, नमोकार नव गणों ए ॥३३ दातार ए देखे जब, प्रासुक जल जो लेइ करे ए । कर्मवशे ए नवि देखे जेम, तब तु अवर घर जइ ए ॥ ३४ उदर ए पूरण काज, पांच सात घरे फिरी ए ।
न वि कीजिए मान कुलाज, प्रासुक आहार ते लीजिये ए ॥ ३५ एक बे ए वासी अन्न, रात्रितणुं राध्युं परिहरो ए ।
स्वाद हीन ए माने नहीं मन्न, सदोष अन्न ते जाणिये ए ॥ ३६
तजिये ए सबल आहार, रागद्वेष जेणें होइ ए ।
पामे ए मदन विकार, विरुद्ध वस्तु व्रत खोइ ए ||३७
श्रावक ए. रही एक स्थान, हस्त पाप पखालिये ए । लीजिये ए. प्रासु नीर, ध्यान निज नियम संभालिये ए ॥ ३८ ये तब भोजन, ममता स्वाद ते परिहरो ए । कीजिये ए एक आसन्न, पछे मुख शोधन करो ए ॥३९ पालिये ए सप्त मौन धीर, तेह नाम हवे सांभलो ए । छोड़िये ए संज्ञा शरीर, हुंकारादिक वेगलो ए ॥ ४० भोजन ए वमन स्नान, मैथुन मल-मोचन तथा ए । पूजतां ए श्रीजिन भान, सामायिक मौन यथा ए ॥४१ मौनव्रते ए हुए बहुपुण्य, ज्ञान तणो विनय होइ ए । अज्ञानें- ए होइ अंदीन, मान लाज ते गुण लही ए ॥ ४२ जे मूढ ए पाले नहीं मौन, ज्ञानावरणी कर्म वांघिए । मूक होइ गुण शून्य, दुख दुर्गति ते साधि ए ॥ ४३ अन्तराय ए पालिये सात, रुधिर चर्म अस्थि देखिये ए । जीवतों ए देखी घात, वस्तु नियम भंग पेखिये ए ॥४४
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पदम-कृत श्रावकाचार
मास तणों ए देखी दर्शन, मद्य गन्ध दूरे त्यजो ए। सूकातणों ए लहो स्पर्शन, आवतो देखी आहार त्यजो ए.||५ वहती ए रुधिरनी धार, चार अंगुल अंतर कही ए। तजिये ए तब आहार, अवर वीभत्स देखी सही ए॥४६ मांजार ए गंडक जाण, हिंसक पशु जीव-धात ए। सांमली ए वयण चंडाल, पुष्पवती नार-दर्शन ए ४७ एह आदि ए जे देश रुढ, शास्त्र दूषण ते टालिये ए। मानें नहीं जे मन प्रौढ़, तेह अन्तराय पालिये ए ४८ निरदोष ए आहार लेइ तेह, पात्र पखालि यत्नकरी ए। आवीये ए की जिनगेह, देव गुरु विनय धरी ए ॥४९ आवीये ए सह गुरु पास, आहार-आलोचन कीजिये ए। धरीये ए अंग उल्लास, अशन प्रत्याख्यान लीजिये ए॥५० रुचि नहीं ए जो विधि एह, तो गुरु गोहन विधि करो ए। गुरु साथे ए श्रावक गेह-प्रासुक आहार ते अनुसरो ए ५१ इणि परि ए पेहलो भेद, अंते उद्दिष्ट पालीइए। सावद्य ए कीजे निरवद्य, मन वच काया संभालीइ ए ॥५२ उत्तम ए बोजो प्रकार, तेह भेद हवे सुणो ए। भामरि ए लेई आहार, उदंड पणे गुण घणो ए॥५३ परिग्रह ए कोपीन मात्र, कोमल पीछी करधरि ए। भोजन ए करे करपात्र, एक वार ते पर धरि ए ॥५४ बेत्रण ए गये निज, मास, निज मस्तकें लोच करे ए। वैराग्य ए ज्ञान अभ्यास, निजवीर्ष प्रगट धरे ए ॥५५ संथारो ए भूमि पवित्र, अथवा पाटि पाषाण तणी ए। वैरागी ए विविध विचित्र. दया क्षमा काजे भणी ए॥५६ कोमल ए तुलिका गादि, सुख सेज्या सुर नर परिहरो ए। इन्द्री ए करे उन्माद, तजो मदन विकार कारी ए॥५७ अखंड ए आवश्यक धार, अनूप्रेक्षा चिन्तन करोए। धर्मध्यान ए कीजे भवतार, आर्त रौद्र ने परिहरो ए॥५८ मन वच काया जाणि, कृत कारित अनुमोदन ए। उद्दिष्ट ए आहार दोष खाणि, नव मेदे ते तमें त्यजो ए॥५९ छ काय ए जीव संधार, उद्दिष्ट पणे हिंसा उपजे ए। तो किम ए ते लीजे आहार, बहु पाप जेणे संपजे ए॥६० षट् मास ए करें उपवास, जो उद्दिष्ट आहार लीजिये ए। तो तेह ए तप विनास, वृथा श्रम गुण दीइ ए॥६१ आषा कर्मी ए लेइ आहार, तो जति ते होइ नहीं ए। केवल ए वेष आधार, भोजन का ते सही ए॥६२
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श्रावकाचार-संग्रह
उद्दिष्ट ए अभक्ष ज जाणि, जिह्वा स्वादे जे ग्रही ए। तेह थी ए डसुं विष, एक भव दुख ज लहे ए ॥६३ उद्दिष्ट थी ए बहुविध पाप, वहु जन्म ते दुख दीये ए। पशु गति ए पामें संताप, कष्ट बहु पर तें लहे ए ॥६४ आधा कमि ए लेइ जे आहार, ते मूढा आप वंचिये ए। परनी ए वाए गमार, पाप तणों भार संचिये ए॥६५ जप तप ए करे जे ध्यान, सम दम संयम आचरे ए। ते सहु ए थाइ अज्ञान, जो उद्दिष्ट अनुसरे ए ॥६६ उद्दिष्ट ए अनासमो पाप, हुओ, हुइ छ, होसे नहीं ए। ते यती ए सहेय संताप, व्रत भंग दूषण लहे ए॥६७ जे मूढ ए जिह्वा स्वाद, आधा करमी आहार लीये ए। ते प्राणी ए विषय प्रमाद, निज व्रत ने अंजलि दीइ ए॥६८ जिणें आहार ए जाइ चारित्र, निन्दा अपजस बहु विस्तरे ए। ते अन्न ए छांडो मित्र, भव दुख किम निस्तरो ए॥६९ गृही तणुं ए लेइ आहार, चार विकथा जे करे ए। भोजन ए राजा चोर, नार, फोके पाप पिंड भरे ए ॥७० छोड़िये ए सह परमाद, पंच इन्द्री मन संवरी ए। तजिये ए हरष विषाद, समता भाव सदा धरो ए ॥७१ भणिये ए निर्मल ज्ञान, जप तप संजम आचरिये ए। कीजिये ए धर्म सु ध्यान, आर्त रौद्र सहु परिहरो ए ॥७२ अहो रात्रि ए गमीये काल, धर्म ध्यान सदा रहीये ए। आवश्यक ए विशाल, निज निज काले ते ग्रहीये ए॥७३ कीजिये ए त्रण प्रतिक्रम, रात्र गोचरि दिवस तणों ए। त्रिकाल ए सामायिक परम योगभक्ति बे हि भणो ए ७४ लीजिये ए स्वाध्याय चार, स्तवन वन्दना सदा करो ए। उत्तम ए कायोत्सर्ग धार, निज शक्ति ते अनुसरो ए॥७५ अनुप्रेक्षा ए चिन्तविये बार, भावना सोल भावो भली ए। दश लक्षण ए धर्म विचार, अट्ठावीस गुण वली ए ॥७६ संथारो ए चार हस्त मात्र, जोइ पूजी जत्न करी ए। उपनो ए जे खेद गात्र, ते उपशान्ति निद्रा धरो ए ॥७७ मध्य रात्रि ए समये तुं जाण, एक मुहूर्त निद्रा कही ए। बहु निद्रा ए करता हाणि, सावधान थई गुण ग्रही ए ॥७८ काल तणी ए कला निज एक, धर्म विना फोकट गमो ए। इम जाणी ए धरिय विवेक, धरम ध्यान सदा रमो ए ।।७९ दुर्लभ ए मानुष जन्म, श्रावकाचार अति दुर्लभ ए। जु लाधो ए तो साधो परम, निःप्रमाद करो सुलभ ए ॥८०
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पदम-कृत श्रावकाचार
उत्तम ए पालो आचार, दिन पर ति वृद्ध व्रत ए । धरिये ए प्रतिमा इग्यार, उत्कृष्ट श्रावक होइ संत ए॥८१
दोहा इग्यार प्रतिमा इम कही, संक्षेपें सविचार । विस्तार आगम जाण जो, जिनशासन अनुसार ॥१ पाक्षिक नैष्ठिक साधक, श्रावक त्रिहु भेद होय । जैन पक्ष सदा धरे, ते पाक्षिक नामें जोय ॥२ श्रावक आचार जे रहे, ते नैष्ठिक गुण नाम । आत्म काज साधे सदा, ते साधक गुण ग्राम ॥३ षट् प्रतिमा जे सदा धरें, जघन्य धावक ते जोय । मध्यम पणे प्रतिमा नव, उत्तम एकादश होय ॥४
निज शक्ति को प्रकट करि, प्रतिमा पाले इग्यार।
सोलमां स्वर्ग लगें सुख लहि, प, पामें मोक्ष दुआर ॥५ सफल जन्म छ तेहना, सफल जीवी जाणों तेह । जिनसेवक पदमो कहे, श्रावक आचार पालें जेह॥६
अथ ढाल रसना देवीनी प्रतिमा कही इग्यार तो, तप बारह हवे सुणो ए। बाह्य तप षट् भेद तो, अभ्यन्तर षट् भेद भण्यां ए॥१ अणसण पेहलो नाम तो, अवमोदर्य बीजो कह्यो ए। व्रत परिसंख्या त्रीजो तो, चौथो रसत्याग सही ए॥२ पंचम विविक्त सिज्यासन्न तो, छट्ठी काया तणों क्लेश ए। जुजुआ कहुं तरु भेद तो, जिय गुरु उपदेशे सुण्यां ए॥३ अणसण विधि तप नाम तो, तिथि नक्षत्र वारि ए। उपवास कीजे तेह तो, जिन शासन अनुसारि ए॥४ नन्दीश्वर दिन अष्ट तो, आषाढ कातको मास ए। फाल्गुण विधि सहित तो, कीजिए पाप-नाश ए ॥५ पंचमी श्वेत कृष्ण तो, रोहिणी नक्षत्र माल ए। पार्श्वनाथ रविवार तो, आठम चौदस सदा करो ए॥६ श्रावण सातमी मुक्ति तो, मुकुट जिन आगलि धरी ए। श्वेत दशमी कुंभ नाम तो, पूजा जिन आगल करी ए ७ श्रावण मास कृष्ण पक्ष तो, प्रतिपद दिन आदि ए।. सोल कारण उपवास तो, एकान्तर कीजे सदा ए॥८ मेघमाला श्रुत स्कन्ध तो, व्रत श्री जिन मुख ए। दीप धूप फल जे द्रव्य तो, मास लगें कीजे दक्ष ए॥९ चन्दन षष्ठी लब्धि विधि तो, त्रैलोक्य त्रोज कही ए। आकाश पंचमी सातमी निर्दोष तो, सुगंधे दशमी सही ए ॥१० सरस्वती दिन इग्यार तो, पुष्पांजलि दिन पंच ए।
दश लक्षणी दिव्य धर्म तो, कोजे विधि पुण्य संच ए॥११ श्रावण द्वादशी व्रत तो, अनन्त चौदस चंग ए। रत्नत्रय पवित्र तो, सदा कीजे मन रंग ए॥१२
मुक्तावली इन्द्र विधान तो, कनकावली रत्नावली ए। पल्य विधान पुण्यवन्त तो, कीजे एक द्विकावली ए ॥१३
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धावकाचार-संग्रह
त्रेपन क्रिया उपवास तो, जिन गुण संपत्ति घरो ए । कल्याणक अष्ट कर्म चूर तो, दुःख हर सुख संपत्ति ए ॥१४ नन्दीश्वर लक्षण पंक्ति तो, मेरु विमान पंक्ति ए । त्रैलोक्य सार मृजु मध्य तो, सिंह निःक्रीडित मुक्त ए ॥१५ एह आदे बहु तप तो, श्री जिनशासन माहि ए शक्ति प्रगट करी निज तो, तप कीजे कर्म दाह ए ॥१६ एकेके तप प्रभाब तो कर्म अनन्त हणि ए ।
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समकित बलें भव्य जीव तो, हुआ मुक्ति नारी धणी ए ॥ १७ अणसण कही उपवास तो, एक दोय श्रण आदि ए । अष्ट पक्ष दिन मास तो, कीजे निज शक्ति सारू ए ॥१८ बत्रीस कवल तणो आहार तो, कवल सहस्र तन्दुल तणो ए। अमोद बीजे तप तो, एक आदें एक जे कणों ए ॥१९ व्रत परिसंख्या तप तो, पुर घर सेरी भणी ए ।
मन चिन्त्या वस्तु संख्य तो, कीजे ते दिन प्रति भणी ए ॥ २० षट रस तणों परित्याग तो, दिन प्रति एक को त्यजो ए । वैराग्य सन्तोष काज तो, रस त्याग सदा भजो ए ॥ २१ जुजुआ सेज्यासन्न तो जीव तणी बाधा टालो ए । एकाकी करो नित्य ध्यान तो तप विविक्त पालो सदा ए ॥ २२
परीषह सहो त्रण काल तो, वर्षा शीत उष्ण तणा ए । सुभट पणें थई धीर तो, काय क्लेश तप घणा ए ॥ २३ इणि परे बाह्य छ तप तो, कीजे मन इन्द्री दंड ए । इच्छा निरोधनी तप तो, ममतानें मोह खंड ए ॥ २४ अभ्यन्तर तणा तप तो, षट भेदे ते सांभलो ए । मन परिणामें होय तो, शुद्ध भावे ते तप भलो ए ।। २५ प्रायश्चित्त तप पेहलो नाम तो, विनय तप बीजो कही ए । वैयावृत्त श्रीजो होइ तो, चौथो ते स्वाध्याय लही ए ॥ २६ पंचमो कायोत्सर्ग तो, छट्ठउ धर्म ध्यान तणों ए । अभ्यन्तर भावे एह तो, तप करम हणें घणां ए ॥२७ पालतां संजम भार तो, पाप करम वसि ए । उपजे दूषण व्रत तो प्रायश्चित्त लीजे तस ए ॥ २८ जे देव गुरु सानिध्यतो, दोस आलोचन करि ए । प्रायश्चित्त लीजे व्रत योग तो, निज निन्दा गर्हा घरि ए ।। २९ आलोचन प्रतिक्रम तो, ते दोय विवेक पणु ए । व्युत्सर्गं तप छेद तो, परिहार उपस्थापना घणु ए ॥३० नव भेदे प्रायश्चित्त तो, लीजे निज मन शुद्ध सुं ए । निर्मल पणें व्रत होय तो, इम कहे गुरु बुद्धि तो ए ॥ ३१
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पदम -कृत श्रविकाचार
विनय चहुविध भेद तो, रत्नत्रय तप तणों ए । उपचार विनय तेह तो, ते तप गुणवन्त भण्यु ए ॥ ३२ निःशंक आदि अष्ट गुण ए. ए दर्शन गुण कजलो ए । व्यंजन अर्थ समग्र तो, ज्ञान अष्ट गुण निलो ए ॥ ३३ दर्शन ज्ञान चारित्र तो ते विनय तप धणों ए । उपचार विनय बिहु भेद तो, प्रत्यक्ष परोक्ष सुणों ए ॥ ३४
व्रत समिति गुप्ति तो, तेर भेदे चारित्र ए । द्वादश भेदें तप तो, ए उपचार पवित्र ए ॥३५ प्रत्यक्ष गुरुतणी भक्ति तो, मन वच कायाइ कीजिये ए । प्रशस्त विनय मन तीज तो, दुर्ध्यान दूरे त्यजिये ए ॥ ३६ हित मित मीठो बोल भास तो, कठिण करकस टालिये ए । दुर्वाक्य दूरें छोड़ तो, वचन विनय ते पालिये ए ॥ ३७ गुरु देखि कीजे अभ्युत्थान तो, प्रणाम करि अंजलि ए । आसन उपकरण दान तो, सह गुरु वली वीचल ए ॥ ३८ एह आदें विनय कीजे तो, मन वच काया पणे ए । गुरु आज्ञा वहे जेह तो परोक्ष विनय ते भणी ए ॥ ३९ विनय की बहु पुण्य तो, जस गुण अति विस्तरे ए ।
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वैयावृत्त्य दश भेद तो, आचार्य उपाध्याय तपस्त्रि ए । शैक्ष्य ग्लाण गण कुल तो, संघ साधु मनोज्ञ पद दश ए ॥४१ मनवचकायाइ भक्ति तो, कीजे श्रावक यति तणो ए । आहार औषध देइ दान तो, सुश्रूषा कीजे घणी ए ॥४२ जिम किम जाइ जती रोग तो, साम्हों उपाय करो घणों ए । साधु समाधि तो, सदा वैयावृत्त घरो ए ॥४३ वैयावृत्त्य फल नन्दिषेण तो, इन्द्री बहुगुण ठव्यो ए । दशमें जई देवलोक तो, पछें ते वसुदेव हुंवो ए ॥४४ द्वारावतीइ श्री कृष्ण तो मुनिनें औषध करीइ ए । मतिवर टाल्यो रोग तो, तीर्थंकर पुण्य वरीइ ए ॥ ४५ इम जाणि भव्य जीव तो, वैयावृत्त्य जे करी ए । भोगवी सुरनर सुक्ख तो, शिवपुरी ते संचरी ए ॥४६ स्वाध्याय पंच भेद तो, वाचना पृच्छना आम्नाय ए । अनुप्रेक्षा धर्म उपदेश तो, सदा ते कीजे स्वाध्याय ए ॥ ४७ पुस्तक वांचो पूछो अर्थं तो, आम्नाय अनुक्रमें भणो ए । अर्थ चिंतन अनुप्रेक्ष तो, उपदेश धर्मं जिनतणो ए ॥४८ इणि परिकीजे स्वाध्याय तो, इन्द्री मन वच संवरो ए । अध्ययन परम तप तो, सदा ज्ञान अभ्यास करो ए ॥ ४९ घरो बहुमेदें कायोत्सर्ग तो, कभाने आसन रही ए । मूकी ममता संग मोह सो, व्युत्सगं ति एते कही ए ॥ ५०
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श्रावकाचार-संग्रह
•स्यजी दुर्ष्यान आत्तं रौद्र तो, चहु भेदे आसंध्यान ए । इष्ट अनिष्ट विरह संयोग तो, पीडा चिन्ता निदान ए ॥५१ निज नारी पुत्र मित्र तो, सुखकारी वस्तु इष्ट ए । वियोग थाइ ज्यारे तेह तो, परिणाम होइ क्लिष्ट ए ॥५२ दुष्ट नारी दुष्ट पुत्र तो, दुर्जन दुखकारी ए । अनिष्ट संजोगें जीव तो, होए बहुकष्ट धारी ए ॥५३ वेदनी उदय असाता तो, बहुरोग तें उपजे ए । पीडा चिता टालो तेह तो, संवेगें सुख संपजे ए ॥ ५४ दान पूजा जप तप तो, ध्यान अध्ययन आचरि ए । निदान वांछे दुर्भोग तो, रागनें द्वेषें करी ए ॥ ५५ ए हवो त्यजो आर्त्तध्यान तो, पशुगतिनें दुख देखि ए । भूख तरस सहे बहुभार तो मार ताड़ कष्ट सहे ए ॥ ५६
चहुमेदें रुद्रध्यान तो, हिंसा मृषा स्तेयानन्द ए । विषयसंरक्षणानन्द तो, उपजे पाप वृन्द ए ॥५७
जीव-हिस हिंसानन्द तो, झूठूं वचन मृषानन्द ए ।
पर - द्रव्य-चोरी स्तेयानन्द तो, इन्द्री भोग विषयानन्द ए ॥५८ क्रूर मन भावे बहु पाप तो, रौद्रध्यानें नरक मांहे ए । छेदन भेदन मार मार तो, बहुविध दुःख सहे ए ॥ ५९ इम जाणि तजो आर्त रौद्रतो, आज्ञा उपाय विचय ए । विपाक विचय त्रीजो ध्यान तो, चौथो संस्थान विचय ए ॥६० निज गुरु मानों आंण तो, उपाय कर्मनाश तणो ए । कर्म उदय फल विपाक तो, त्रैलोक्य संस्थान भणो ए ॥ ६१
उत्तम चार धर्मध्यान तो, पदस्थ पिंडस्थ कह्यो ए । रूपस्थ रूप-अतीत तो, मन विकल्प ब्रह्मो ए ॥ ६२
जे जिनवयन विशाल तो, आगम पुराण घणां ए ।
चितो पद अक्षर मंत्र तो तेह परस्थ ध्यान भण्यां ए ॥ ६३ पार्थिवी आग्नेयी मारुती तो, वारुणी तत्त्व रूपवती ए । पंच धारणा पिंडस्य सो, ध्यान ध्यावो जिनपती ए ॥६४ पंच परमेष्ठी रूप तो, अरिहन्त सिद्ध सूरी तणों ए । उपाध्याय साधु सुगुण तो, रूपस्थ रूप आपणो ए ॥ ६५ विकल्प संकल्प रहित तो, रूप कहि तणुं नहीं ए । केवल ज्योति स्वरूप तो, रूपातीत ध्यावो सही ए ॥६६ चहुँ भेदे शुक्लध्यान तो, पृथक्त्व वितर्क विचार ए । एकत्व वितर्क विचार तो, सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति सार ए ॥६७ व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम तो, शुक्लध्यान सदा ध्याइ ए । ज्ञान वैराग्ये होइ तो, शुभ भावना भावजो ए ॥ ६८ ध्यानतणों प्रकार तो, इहाँ संक्षेपें आप्यो ए । ध्यानामृतरास मशार तो, बिस्तारें तिहां जाण जो ए ॥६९
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पदम-त श्रावकाचार बाह्य अभ्यन्तर तप तो, द्वादश मेद कमाए। संक्षेपे कह्यो सविचारतो, विस्तार आगमें लही ए॥७० तप ते बहुम प्रभाव तो, महिझा जस घणों ए। पंच इन्द्री चंचल मन तो, वशकारी तप सुणों ए ॥७१ तप फले बहु रिद्धि तो, सिद्ध होइ मन तणी ए। सप्त भेदे महाऋद्धि तो, लब्धि उपजे घणी ए॥७२ बुद्धि नाम तप रिद्धि तो, विक्रिय ओषध ऋद्धि ए। बल लब्धि रस रिद्धितो, अक्षीण मानस ऋद्धि ए॥७३ एह आदें अड़तालीस रिद्धि तो, पंच मेद शुभ ज्ञान ए। कान्ति कला कोवाद तों, होइ गुण निधान ए ॥७४ इम जाणि भव्यजीव तो, तप सदा आचरो ए। कठिण हणी कुकर्म तो, मुक्तिनारी वेगे वेरो ए ॥७५ तप तीव्र अग्निवाले तो, जीव हेम निर्मल थाइ ए।
ध्यान रसायण दोधतो, कर्म दूरे जाइ ए॥७६ रागद्वेष कीजे दूर तो, हृदय धरि समभाव ए। ते तप साफल्य होड तो, भव-सागर नाव ए॥७७
रागद्वषे करी जे तप-तो, ते कष्टकारी काय ए। रेणु-पीलन, जल-मन्थ तो, जिम श्रम निष्फल थाय ए ॥७८ तप चिन्तामणि कामधेनु तो, तप ते कल्पवृक्ष सम ए। सुरनर वर सुख होइ तो, अनुक्रमे लहे मोक्ष ए॥७९
दोहा जिन गेहमां कीजें नहीं, विकथा विनोद विलास । खेल सिंहाणय मलमूत्र आदि व्यापार व्यसन उपहास ॥१ काम क्रीड़ा कोप कलि, त्यजो चतुर्विध आहार । अवर आसादना सहु तजो, जिन प्रासाद मझार ।।२ रीति करी न वि भेटीइ देव, जिनवाणी गुरु धर्म । विवेक गुण हृदय धरि, विवेकें होइ पुण्य परम ॥३ दिनकर उदये अस्त हते, दिवस घड़ी छो विशाल । धर्मव्रत काजि ग्रही, अवर नहीं हीन काल ॥४ तिथि पूरी जा लगि मिले, ता न वि कीजे काल । होन घड़ी छो मांहि कीजे नहीं, इम कहे श्रीजिनभान ॥५ देव शास्त्र गुरु पूजा तणों, जे जन खाइ निर्माल्य । वंश छेद रोग पामी ने, नरके दुःख सहे बाल ॥६ निर्माल्य खाइ जे जीव घj तेहथी रुडु विष भक्ष्य ।
एक भवे विष दुख देसे, निर्माल्य बहु भव दुःख ७ भेदशान भवि मन धरी, सदा धरो याचार । जिन सेवक पदमो कहे, सफल करो संसार १८
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श्रावकाचार-संग्रह
ढाल नरेसुआनी
तप द्वादश इम वर्णवीए, नरेसुआ, हवे कहूँ त्रिरत्न । दर्शन ज्ञान चारित्र मय ए, नरेसुआ. सदा कीजे तस यत्न ॥ १ त्रिहु भेदे ते सांभलो ए, नरेसुआ, विधान भेद विवहार । निश्चय रत्नत्रय निर्मलो ए, नरेसुआ, ते उतारे भवपार ॥२ भाद्रव माघ चैत्र मास ए, नरेसुआ, श्वेत द्वादशो यस दीस। देव पूजो जात्रा दान देई ए, नरेसुआ, प्रासुक शुद्ध लीजे अन्न ||३ एक भक्त धारण करी ए, नरेसुआ, लीजे त्रण उपवास । गुरु साक्षे पोसा सहित ए, नरेसुआ, कीजो जागरण उल्हास ॥४ दर्शन ज्ञान चारित्रतणा ए, नरेसुआ, हेम आदि त्रण जंत्र । विधि अनुक्रमें मंडाविए, नरेसुआ, लिखी ते निज निज मन्त ॥५ निःशंक आदि अष्ट अंग ए नरेसुआ, संवेग गुण पवित्र । अष्ट मन्त्र तिहां लिखीइ ए, नरेसुआ, पूजो दर्शन जन्त्र ॥६ व्यंजनोजित आदि अष्ट गुण ए, नरेसुआ, पूजो निर्मल ज्ञान । तेर भेदे चारित्र गुण ए, नरेसुआ, पूजो यन्त्र अभिधान ॥७ देव आगम गुरु पूजी ने ए, नरेसुआ, स्नपन करी वर जंत्र । विधि सहित विवेक पणें ए, नरेसुआ, अष्ट द्रव्य पवित्र ॥८ जल गंध अक्षत पुष्प वर ए, नरेसुआ, दीप धूप फल सार ।
अ उतारी जाप स्तवन भणी ए, नरेसुआ, जयमाल भक्ति नमस्कार ॥९ तेरसि चोदसि पूनम दिन ए, नरेसुआ, दिन प्रति त्रण काल । बहु भव्य जन सुं परिवर्या ए, नरेसुआ, जंत्र पूजो गुण माल ॥ १० प्रभाते दर्शन पूजा करो ए, नरेसुआ, मध्याह्न समय पूजो ज्ञान । अपराह्न वेला चारित्र पूजो ए, नरेसुआ, कीजे वाजित्र नृत्य गान ॥ ११ त्रण दिन इम पूजीइ ए, नरेसुआ, सुणो, कथा जिनवाणि । पारणें स्नपन पूजा करी ए, नरेसुआ, खमावी देव गुरु जाणि ॥ १२ साधर्मी साथे जिन घर आवी ए, नरेसुआ, पात्र दीजे शुभ दान । पछें पारणं कीजिए, नरेसुआ, रत्नत्रय कीजे विधान ||१३ त्रणवार इस कीजिए, नरेसुआ, वरस त्रण पर्यन्त ।
अथवा निज शक्ति करो ए, नरेसुआ, सदा पाक्षिक जन सन्त ॥ १४ नैष्ठिक श्रावक तम्हों सुणो ए, नरेसुआ, भावना भावो व्यवहार । नत्र तणी निर्मली ए, नरेसुआ, भावना पुण्य भवतार ।।१५ वैश्रमण भूपें कीयो ए, नरेसुआ, रत्नत्रय विधान । श्रीजे भवे तीर्थंकर हुओ ए, नरेसुआ, मल्लिनाथ जिन भान ॥ १६ निःशंकित निःकंक्षित अंग ए, नरेसुआ, निर्विचिकित्सा अमूढ़ । पगूहन स्थिति करण ए, नरेसुआ, वात्सल्य प्रभावना प्रौढ़ ॥१७
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पदम-कृत श्रावकाचार निःशंक आदें अष्ट अंग ए, नरेसुआ, संवेग आदे आठ गुण । उपशम वेदक क्षायिक ए, नरेसुआ, दर्शन पालो निपुण ॥१८ कुज्ञान त्रण दूरे करी ए, नरेसुआ, पालो पंच शुभ ज्ञान । मतिश्रुत अवधि मनः पर्यय ए, नरेसुआ, केवल बोध निधान ॥१९ वण सै छत्रीस भेद ए नरेसुआ, मतिज्ञान तणां होय ।। पंचवीस भेदे श्रुत ज्ञान ए नरेसुआ, षटविध अवधि जोय ।।२० ऋजु विपुल मति नाम ए, नरेसुआ, मनपर्यय भेद दोय । केवल ज्ञान एक निर्मलो ए, नरेसुआ, ज्ञान तो ले नहीं कोय ।।२१ पंच महाव्रत समिति पंच ए, नरेसुआ, तीन गुपति पवित्र । यतीवर ते सदा धरे ए, नरेसुआ, तेरे भेदे चारित्र ॥२२ सर्वथा जीव दया पालो ए, नरेसुआ, सर्वदा सत्य विशाल । सर्वदा अचौर्य व्रत भलो ए, नरेसुआ, ब्रह्मचर्य गुणमाल ॥२३ . आकिंचन निःस्पृहपणे ए, नरेसुआ, पंच महाव्रत जेह । ईर्या भाषा एषणा समिति ए, नरेसुआ, आदान निक्षेप प्रतिष्ठापन तेह ॥२४ ईर्या समिति जुगमात्र जोइ ए, नरेसुआ, भापा समिति बोले सत्य । . दोष त्राणु थी बेगला ए, नरेसुआ, एषणा समिति जीव हित ।।२५ आदान निक्षेपण यत्ने करो ए, नरेसुआ, लेओ मूको यत्ने वस्तु । जीव जोइ मल नीत चव्यो ए, नरेसुआ, प्रतिष्ठापना ते प्रशस्त ॥२५ मन वचन काया तणी ए, नरेसुआ, परिहरो दुर्व्यापार । त्रण गुप्ति सदा र्धार ए, नरेसुआ, चारित्र तेर प्रकार ॥२७ दर्शन जान चारित्र रत्न ए, नरेसुआ, पालो मुनि व्यवहार । भक्ति सुश्रूषा तेहनो करो ए, नरेसुआ, भावना भावे ब्रह्मचार ॥२८ निज योग्य जे दर्शन ए, नरेसुआ, आपण जोग्य जे ज्ञान । जेह निज योग्य होवे व्रत ए, नरेसुआ, जत्न करो सदा तेह ॥२९ शुद्ध बुद्धमय निर्मलो ए, नरेसुआ, आत्म रुचि दर्शन। आपें आप सदा धरो रुचि ए, नरेसुआ, ते निश्चय दृष्टि गुण ॥३० निर्विकल्प निज वेदन ए, नरेसुआ, निश्चय ज्ञान गुण होय । आपे आप वेदे सदा ए, नरेसुआ, अवर न वेदे कोय ॥३१ सर्व परिग्रह थी वेगलो ए, नरेसुआ, उज्ज्वल सहज स्वरूप । आपें आप स्थिति जे करि ए, नरेसुआ, ते निश्चय चारित्र रूप ॥३२ निश्चय रत्नत्रय कारण ए, नरेसुआ, पेहलो को विवहार। विवहार विना निश्चय नहीं ए, नरेसुआ, व्यवहार निश्चय साधार ॥३३ निश्चय रत्नत्रय होह ए, नरेसुआ, जो होइ समता भाव। तेह भणी समता धरो ए, नरेसुआ, भव-सागर जे नाव ॥३४ राग द्वेष सहु परिहरि ए, नरेसुआ, शत्रु-मित्र सम जोय । हेम लोह त्रण रत्न ए, नरेसुबा, सुख-दुख सम जोय ॥३५
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थावकाचार-संग्रह
क्रोध मान माया लोभ ए, नरेसुआ, छोड़ो कषाय ते चार । कषाय त्यजे नहीं जा लगे ए, नरेसुआ, त्या नहीं समता भाव ॥३६ क्रोध मान माया टालीये ए, नरेसुआ, आपण परने करे रोष । गुण तो अंश न उपजे ए, नरेसुआ, अवगण उपजे लाख ।।३७ माने निधाने ए दुःख तो ए, नरेसुआ, मान लोपे जोव सांन । माने केह ने माने नहीं ए, नरेसुआ, जिम मतवालो अज्ञान ।।३८ माया पिशाची परिहरो ए, नरेसुआ, माया ते दुःख दातार । कपटें कूडे घणुं नड्या ए, नरेसुआ, रड्या तें भव मझार ॥३९ लोभ क्षोभ करे धर्म तणुं ए, नरेसुआ, लोभी नहीं किहीं सुक्ख । गुण दोष जाणे नहीं ए, नरेसुआ, लोभी देखे सदा दुक्ख ॥४. कोपे द्वीपायन दुर्गति गयो ए, नरेसुआ, वशिष्ट सुनि तप भ्रष्ट । मधुपिंगल देव दुर्गति गयो ए, नरेसुआ, बाहु दंडक देश नष्ट ॥४१ मानें रावण दुर्गति गयो ए, नरेसुआ, केशव कौरव पीर । माया करि मरीचि मुओ ए, नरेसुआ, दुर्गति पाम्यो, दुःख भीर ।।४२ लो) लुब्भदत्त मुओ ए, नरेसुआ, कूप माहे मधु बिन्दु काज । नवनीते श्मश्रु वली मूओ ए, नरेसुआ, लोभ करी बहु राज ॥४३ एकेक कषाय वशि बापड़ा ए, नरेसुआ, भमे ते बहु संसार । चार कषाए जे करे ए, नरेसुआ, तेहना दुःख नो नहीं पार ॥४४ राग राक्षस रल्यां घणुं ए, नरेसुआ, गल्यां ते रागी बहु जीव । हित अहित क लखे नहीं ए, नरेसुआ, भव-दुख सहे अतीव ॥४५ देष धूतार धृते घणूं ए, नरेसुआ, जीव ने ये बहु दुक्ख । चहुँ गति मांहे प्राणिआ ए, नरेसुआ, द्वेष नहीं किहां सुक्ख ।।४६ राग द्वेष अग्नि बले ए, नरेसुआ, देह पोला काष्ठ मझार । समता जल विण जीव कीट ए, नरेसुआ, कष्ट महे ते गमार ॥४७ इम जाणी राग द्वष त्यजो ए, नरेसुआ, भजो समता परिणाम । क्रूर भाव सहु परिहरी ए, नरेसुआ, प्रशस्त करो मन ठाम ॥४८ समता भाव कोजे सदा ए, नरेसआ, भावना भावो वली चार । मैत्री प्रमोद करुणापणां ए, नरेसुआ, मध्यस्थ भाव भवतार ।।४९ सर्व प्राणी मैत्री भाव ए, नरेसुआ, प्रमोद करो गुणवन्त । क्लिष्ट जीव कृपापणुं ए, नरेसुआ, विपरीत देखि मध्यस्थ सन्त ॥५० सम परिणामनि कारण ए, नरेसुआ, चितो त्रिविध वैराग । संसार भोग शरीर संपन ए, नरेसुआ, मोक्ष तणुं जसुं माग ।।५१ संसार सागर दुःखें भर्यो ए, नरेसुआ, दुःख ते पंच प्रकार । द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव ए, नरेसुआ, परावर्त अनन्ती वार ॥५२ भोग रोग सम जाणिये ए, नरेसुआ, जिम चंचल सन्ध्या-राग । लव-सम सुख देय करी ए, नरेसुआ, दुख देइ मेरु-सम भाग ।।५३
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पदम-कृत श्रावकाचार
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शुक्र शोणित थी उपज्यो ए, नरेसुआ, सात धातु मय देह । सर्व अशुचिनों पोटलुए. नरेसुआ, डाहो किम करेय सनेह ।।५४ चपल मन गज बांधवा ए, नरेसुआ, वैराग स्तम्भ समान । सुमति संकल स्युं सांकल्यो ए, नरेसुआ, अंकुश देय भेदज्ञान ॥५५ पंचइन्द्री विषय संवरो ए, नरेसुआ, स्पर्शन रसननि घ्राण । चक्षु करण इन्द्री तणा ए, नरेसुआ, विषय रसनां विष-समान ॥५६ शरीर-विषय गज बांधिया ए, नरेसुआ, जिह्वा-रसें मच्छ एह । कमल स्कन्धे भ्रमर मुआ ए, नरेसुआ, वर्ण पतंगज देह ।।५७ कर्ण-विषय मृग बांधियो ए, नरेसुआ, एक एक सेवे इन्द्रो जीव । पंच इन्द्री-भोग जे सेवसे ए, नरेसुआ, ते सहसी दुःख अनन्त ॥५८ पंच इन्द्री मन तणा ए, नरेसुआ, विषय छोड़ो अट्ठावीस । सन्तोष धरि समता भावे ए, नरेसुआ, परिहरि राग ने द्वेष ॥५९ जिम जिम मन भ्रान्ति समि ए, नरेसुआ, तिम तिम उपशम भाव । शुद्ध परिणामें ऊपजे ए, नरेसुआ, नीपजे सहज स्वभाव ॥६० सम परिणामें तप जप ए, नरेसुआ, समता भावें शुभ ज्ञान । सुमति संजम सिद्ध करे ए, नरेसुआ, समता सर्व प्रधान ॥ ६१ साधक श्रावक साधे सही ए, नरेसुआ, अन्त संलेखण जेह । वृद्ध पणे संन्यास ग्रहो ए, नरेसुआ, क्षीण इन्द्री आयु देह ॥६२ उपसर्ग दुर्भिक्ष आवो पड़े ए, नरेसुआ, अति रोग जु असाध्य । व्रत-भंग हो तो जाणीने ए, नरेसुआ, अनशन विधि तब साध ॥६३ सर्व प्राणी क्षमा करी.ए, नरेसुआ, आवी गुरु सान्निध्य । दोष आलोचि बालक परि ए, नरेसुआ, निःशल्य थई निज बुद्धि ॥६४ हलु हलु आहार हीनुं करो ए, नरेसुआ, निजशक्ति अनुसार । आहार त्यजी पय वस्तु भजो ए, नरेसुआ, दुग्ध घोल तक्र सार ॥६५ क्रमि क्रमि तक छोड़ीये ए, नरेसुआ, केवल पछे लीजे नीर । पळे नर समता मूकोये ए, नरेसुआ, सुभट थई मन धीर ॥६६ प्रासुक भूमि शिला पर ए, नरेसुआ, कीजे संथारो सार। कठिण कोमल समता भावि ए, नरेसुआ, कीजे नहीं खेद विकार ।।६७ वरषा शीत उष्णतणा ए, नरेसुआ, सहो परीषह भार । क्षुधा तृषा भय रोग नहीं, नरेसुआ, रहे गुफा गढ़मझार ॥६८ चार आराधना आराधिए ए, नरेसुआ, दर्शन ज्ञान चारित्र । व्यवहार निश्चय भेद ज ए, नरेसुआ, तप तपो ते पवित्र ॥६९ मरण-समय मुनि होइ ए, नरेसुआ, भावलिंगी अवतार । त्रिधा त्रिविध वैराग्य चित ए, नरेसुआ, अनुप्रेक्षा चितो बार ॥७० शरीर नहीं जो आपणो ए, नरेसुआ, तो आपणों किम होय । अति शुद्ध चिद्रूपक चितवो ए, नरेसुआ जासें भव-छेद होय ।।७१
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श्रावकाचार-संग्रह
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जिनवाणी निज मुखे भणो ए, नरेसुआ, करे धर्मध्यान अभ्यास । नमोकार मंत्र जपि ए नरेसुआ, क्ष ते पापनी रासि ॥७२ संन्यास तणां जे साधक ए, नरेसुआ, धर्म सखाई रहे पास । सावधान होइ सुभट पणों ए, नरेसुआ, करे ते ध्यान उल्हास ॥७३ निज मुखें जाप जपि ए, नरेसुआ, जाप तणो नहीं शक्ति । अन्तर जल्प तब चितवी ए, नरेसुआ, परमेष्ठो गुण-भक्ति ॥७४ शुद्ध बुद्ध हुं चिद्रूप ए, नरेसुआ, कर्म-कलंक रहित।। सिद्ध सरीखो निज मन हवि ए. नरेसुआ, आपें आप गुण-सहित ।।७५ धर्म ध्याननें निज मन जड़ो ए, नरेसुआ, धर्म सखाई जेह । जिन वाणी भणतां सुणी ए, नरेसुआ, नवकार मंत्र वली तेह ॥७६ जिम जिम धर्मध्यान करे ए, नरेसुआ, तिम तिम होइ पाप-हाणि । क्रूर कर्म सह निर्जरी ए, नरेसुआ, उपराजी पुण्य गुण-खाणि ॥७७ मरण समाधि साधीउ ए, नरेसुआ, परिहरि निज देश प्राण । संन्यास तणे फल ऊपजे ए, नरेसुआ, सोलमें स्वर्गे गीर्वाण ॥७८ इन्द्र अथवा महधिक देव ए, नरेसुआ, संपुट सेज्या मझार । अन्तमुहुर्त मांहे सही ए, नरेसुआ, नव यौवन अवतार ॥७९ सलावकसो बेठो थई ए, नरेसुआ, देखे ते स्वर्ण विमान। विस्मय पामी जब चितवे ए, नरेसुआ, तब आवे अवधि सुज्ञान ॥८० पेहला भव वृत्तान्त सही ए, नरेसुआ, जाणे सयल विचार । धर्म फले इहाँ उपनो ए, नरेसुबा, धन धन श्रावक धर्म सार ।।८१ देव मन्त्री आवे वीनवे ए, नरेसुआ, स्वर्ग विमान ते एह । देव देवी सहु तम तणो ए, नरेसुआ, पुण्य फले बहु तेह ।।८२ सहज वस्त्र आभरणे लंकर्यो ए, नरेसुआ, निर्मल वैक्रिय देह । सात धातुथी वेगलो ए, नरेसुआ, आँख मेष दुख नहीं तेह ।।८३ निज परिवार सुं लंकों ए, नरेसुआ, जाइ श्री जिनगेह । वापि अकृत्रिम स्नान करी ए, नरेसुआ,धीतवस्त्र पहरी देह ॥८४ अष्ट प्रकारी पूजा लेइ ए, नरेसुआ, पूजे श्री जिनदेव। गीत नृत्य वाजित्र करी ए, नरेसुआ, विविध भक्ति स्तव सेव ॥८५ पुण्य घणो पोते करी ए, नरेसुआ, आवी ते निज ठामि। धर्म तणा फल भोगवी ए, नरेसुआ, थाइ ते सयल ऋद्धि स्वामि ॥८६
दोहा चरमांगी जे मुनि होय, उत्कृष्ट फल संन्यास । कर्म हणी केवल लही, पामे अविचल वास ।।१ चरमांग विण जे गृही लहे, संलेखण फल तेह । ग्रेर्वयक नव पंचोत्तर, अहमिन्द्र पद लहे तेह ॥२ उत्तम साधक श्रावक, पाले संन्यास विधि जेह । सोलमा स्वर्ग लगें ते जाइ, पामें इन्द्र पद तेह ॥३
उत्कृष्ट पणे त्रण भव ग्रही, जघन्य पणे भव सात । सुर नर वर पदवी लही, मन वांछित सुख व्रात ॥४
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पदम-कृत धावकाचार
उत्तम नर पदवी लहि, ग्रही जिन दीक्षा सार । ध्यान बलें कर्म निर्जरी, पामे मोक्ष दुआर ॥५ अष्ट कर्म यो वेगला, अष्ट गुण अनन्त । ज्ञानाकार ते निर्मला, मुक्ति वधूवर कन्त ॥ ६
इन्द्र आदे जे भोगिया, हुब हुई छे छसे जेह तेह | सो सुख थी अनन्तगुण, एक समय लहे, सिद्ध तेह ॥७ बन्धन बन्ध्यो चोर जिम, बन्ध गये जिम सौख्य । कर्म-बन्ध गये तिम, सौख्य लहे सिद्ध मोक्ष ॥८ श्रावकाचार - महिमा घणी, जस गुण कह्यो किम जाय । जिन सेवक पदमो कहे. मन वांछित सुख दाय ॥९
इति श्री पदम विरचित श्रावकाचार- रासः सम्पूर्णः ।
ग्रन्थकार-प्रशस्तिः । अथ ढाल अानन्दानी
त्रेपन क्रिया इम वर्णवी, आनन्दा, संक्षेपे सविचार तो । विस्तारे आगम जाण जो आनन्दा, जिनशासन अतिसार तो ॥१ चार ज्ञान सम रिद्धी घणी आनन्दा, गौतम गुण विशाल तो । श्रेणिक भूप जे पूछियो आनन्दा. ते कह्यो गुण पाल तो ॥२ गौतम स्वामी जे अंग को आनन्दा, सातमो उपासकाचार तो । प्रमाण पद मेदें करी आनन्दा, तेह तणों नहीं पार तो ॥३ ते अनुक्रमे सुधर्म सूरी आनन्दा, केवली जम्बूकुमार तो ।
पछें पंच श्रुतकेवली हुआ आनन्दा, वली अंग पूरब दशधार तो ॥४ काल दोषें पूर्व हीन थया, आनन्दा, हीन थया अंग इग्यार तो । अंग पूरव अंश रहिया, आनन्दा, मुनिवर तर्फे आधार तो ॥५ ते अनुक्रमे परम्परा आनन्दा, श्रीजिन तणो उपदेश तो । शास्त्रतणी रचना रची, आनन्दा, सह गुरु कियो निवेश तो ॥६ श्रीमूल संघ सरस्वती गच्छ, आनन्दा, बलात्कार गण विशाल तो । कुन्दकुन्दाचार्य हुआ, आनन्दा, अनुक्रमें गुरु गुणमाल तो ॥७ श्रोजिनसेन गुणभद्र सूरी आनन्दा, अकलंक अमृतचन्द्र तो। ज्ञानी घ्यानी दिगम्बर जती आनन्दा, परम्परा सूरी प्रभाचन्द्र तो ॥८ श्रीपद्यनन्दी पटि हुआ आनन्दा, सकलकीत्ति भवतार तो । भुवनकीति तपमूर्ति, आनन्दा, ज्ञानभूषण गुण धार तो ॥९ श्रीविजय कीति पाटे उपनां, आनन्दा, भट्टारक श्रोशुभचन्द्र तो । भव्य कुमुदचन्द्र जसु हुआ आनन्दा, कुवादीगज मृगेन्द्र तो ॥१० तस चरण कमल नमी आनन्दा, प्रणमी निज गुरु पाय तो । जस पसाइ मति निर्मली आनन्दा, धर्म कवित बुद्धि थाय तो ॥११॥ आम्नाय गुरु श्रीशुभचन्द्र, आनन्दा, आगम गुरु विनयचन्द्र तो । अध्यात्म गुरु कर्मश्रीब्रह्म, बानन्दा, शिक्षा गुरु हीर ब्रह्मेन्द्र तो ॥१२
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श्रावकाचार-संग्रह
अवर शास्त्र कवित्त गुरु, आनन्दा, ब्रह्मचारि श्रोजिनदास तो। .... .. ... ... .... .... ॥१३ जेणें धर्म उपदेश दियो आनन्दा, शास्त्र भणों बली जेह तो। कोमल अल्पमति छै जेहनी आनन्दा, ते भणों रास भास एह तो ॥१४ ते सहु गुरु हवा मुझ तणा, आनन्दा, कर जोड़ो करूंअ प्रणाम तो। गुरु गुण न विलोपिये आनन्दा, लोपे गुरु लोपी पापी नाम तो॥१५ मुझ हृदय कमल मांहे आनन्दा, गुरु भानु वाणी किरण तो। मोह तिमिर दूरे हरे आनन्दा, ते गुरु तारण तरण तो ॥१६ समन्तभद्र सूरी कृत आनन्दा, वसुनन्दी श्रावकाचार तो। आशाधर पंडितकृत आनन्दा, सकल कीत्ति कृत सार तो॥१७ ते काव्य गाथा श्लोकरूप आनन्दा, कवि न रचना जाणी तेह तो। ते शास्त्रमें सांभल्या आनन्दा, सहगुरु उपदेशे एह तो ॥१८ मे रचना जाणी बहु आनन्दा, उपनों मन उल्हास तो। ते शास्त्र अनुक्रमें कियो आनन्दा, रासरूप देखी भार तो ॥१९ ते ग्रन्थ माहे जे कह्यो आनन्दा, ते को रास मझार तो। ओ कठिण ऊ कोमल आनन्दा, अवर अन्तर नहीं सार तो ॥२० बहु बुद्धी ते बहु पढ़ें, आनन्दा, शास्त्र मांहें विस्तार तो। ते संक्षेपे ए वर्णव्यु आनन्दा, रासरू सारोद्धार तो ॥२१ बहु बुद्धि होइ जेहनी आनन्दा, शास्त्र भणों बली तेह तो। कोमल अल्पमति छ जेहनी, आनन्दा ते भणे रास भास एह तो ॥२२ श्रावकाचार समुद्र तणो, आनन्दा, गुणरत्न नहीं पार तो। ते भेद जाइ का किम आनन्दा,हुँ अल्पमति श्रुतसार तो ॥२३ पूरब सूरी जे नर कह्यां, आनन्दा, ते किम लाभे पारतो। संक्षेपेंमें वर्णव्यो आनन्दा, श्रावक तणो आचार तो ॥२४ देव गुरुमें वंदिया आनन्दा, तेह थी उपनों पुण्य तो। पुण्य पसाइमें भेद रच्यो आनन्दा, वेपन क्रिया तणों धन्य तो ॥२५ बुद्धिवंत कवि जे हुआ, आनन्दा, तेणें कियो बहुअ प्रकाश तो। गुरु बाटें मुझ जाइती आनन्दा, उपजे नहीं आलस तो ॥२६ गुरु भाषे बाटें जाता आनन्दा, उपजे नहीं क्लेश तो। जिम बिधे हीरा मोती आनन्दा, सहजें सूत्र प्रवेश तो ॥२७ जिणी बाटे गजा संचरे आनन्दा, तिहां मगति नहीं दुःख तो। गगनें जिहां गरुड गमें, आनन्दा, तिहां हंसने होइ सुख तो ॥२८ वन माहे बहु जीव रहे, आनन्दा, आनन्दा, सबल सिंघ होइ तो। तिहां हरणां हरषी रहो आनन्दा, प्रगट शक्ति करी जोइ तो ॥२९ विन्ध्यावन माहें गज रहे आनन्दा, दीर्घ पणें करे नाद तो। देडक निजशक्ति करी, आनन्दा, किम न करे बहु साद तो ॥३०
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पदम-कृत श्रीवकाचार
जिन शासन मांहे तिम आनन्दा, बहु भेदें कवि होइ तो। हीन अधिक बुद्धि पणे आनन्दा, बुद्धि कर्म सारुं जोइ तो॥३१ रास भास एह सांभलो, आनन्दा, मुझ स्यूं म करस्यो रोष तो। जांण होइ ते गुण ग्रह ज्यों आनन्दा, अजांण सहे बहु दोष तो॥३२ सज्जन गुणं सदा ग्रहे आनन्दा, जिम नीर थी क्षीर हँस तो। दुर्जन पर-दूषण लाए, आनन्दा, जलों रक्त देइ दस तो ॥३३ श्रावकाचार सागर तणुं आनन्दा, बहु भेदें विस्तार तो। बलहीन हस्ते बिहु, आनन्दा, किम करी उतरें पार तो ॥३४ शारदा माय मुझ निर्मली आनन्दा, ज्ञान धन दातार तो। तुझ पसाये में वर्णव्यू आनन्दा, रूअडो श्रावकाचार तो॥३५ पद अक्षर अर्थ बहु, आनन्दा, शब्द गुण चूको छंद तो। प्रमाद पणे जे बोलियो आनन्दा, हूँ मानवी मतिमन्द तो ॥३६ होन अधिक जे में कर्यु आनन्दा, जिन आगम विरोध तो। ते मुझ खमियो शारदा, आनन्दा, हूँ तुझ बोलु मन्द बुद्धि तो ॥३७ विद्वान्स होइ तो सोधज्यो आनन्दा, मुझ तूं करी कृपा भाव तो। जिम हेम अग्नि सोधिये आनन्दा, उपनों जे शुभ ग्राम तो ॥३८ पंडित जे सोधे नहीं आनन्दा, मन धरि जे अहंकार तो। ते वृथा तस जाण तो, आनन्दा, जस बाजे वंस निसार तो॥३५ सरोवरे जिम कमल ऊँगे, आनन्दा, सुगन्ध विस्तारे पवन्न तो। तिम कविसु कवित्त रच्यो आनन्दा, विस्तार पमाडे सज्जन्न तो॥४० मूल नदी थोड़ी जिम, आनन्दा, वाधे सागर लगें जाण तो। सज्जन मेह गुण नीर, आनन्दा, जिन शासन प्रमाण तो ॥४१ सज्जन विना ना पुस सदा, आनन्दा, उत्तम श्रावकाचार तो। ज्यां लगे चन्द्र सूर्य तारा, आनन्दा, त्यां लगें शासन उद्धार तों॥४२ कोमल पणे सहँ प्रीछवा आनन्दा, निज पर तणों उपकार तो। केवल धर्म वृद्धि कीजे आनन्दा, रच्यो में श्रावकाचार तो ॥४३ श्रावकाचार ते रत्नदीप आनन्दा, पन क्रिया चिन्तारत्न तो। सुगुण रत्न मूल्य नहीं, आनन्दा, दया करो तस जत्न तो ॥४४ एक चिन्तामणि जे लहे, आनन्दा, जाव जीव सुख होय तो। एका क्रिया गुण जो पाले, आनन्दा, तो स्वर्ग सुख लहे तेह तो ।।४५ इम जाणी भव्य सदा पालें आनन्दा, सर्व क्रिया रत्न जेह तो। सोलमां स्वर्ग लगे सुख लहे, आनन्दा, पक्षे मोक्षश्री वरे तेह तो ॥४६ जेणे पाल्यो, पाले छ, पालसे आनन्दा, निश्चल श्रावक धर्म तो। मन वच काया दृढ़ करी आनन्दा, ते पामें शिव शर्म तो ॥४७ नर नारी भावे करी, आनन्दा, इणि परे पाले आचार तो। दुष्कर्म सहु हरे करो आनन्दा, ते तरसी संसार तो ।।४८
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श्रावकाचार-संबह वाग्वर देश सुहामणों, बानन्दा, सापुर नयर मझार तो। हाट हारे मन्दिर साली, आनन्दा, प्रजा वसे वर्ण चार तोर
श्री बादिनाथे तीर्थ तणों यानन्दा, सोहे जिन प्रासाद तो। शिखर मंडप कलश दीपे बानन्दा, दंड ध्वजा लहिके चंग तो ५० मुनिवर बार्यिका रहे यानन्दा, श्रावक श्राविका गुणधार तो। दान पूजा जप तप करे बानन्दा, नन्दी संघ विचार तो ॥५१ हरषवत हुँबड़ न्याती, बानन्दा, निज वंश सरोज हंस तो। खदिर गोत्रीत गुण निलो यानन्दा, विरीत कुल अवतंस तो ५२ आगम अध्यात्मवेदी, आनन्दा, शास्त्रवेदी बहु शुद्ध तो। निज शक्तें स व्रतधारी, बानन्दा, ते थया रास प्रशस्त तो ॥५३ जेहनी शक्ति बेहवी होइ, आनन्दा, कवित्त करे तेहवा तेह तो। सुगमपणे में रास कोयो, बानन्दा, श्रावक धर्म तपो एह तो ॥५४ निज-पर-हित उपकार हित, आनन्दा, कोयो शासन प्रभाव तो। जान उपयोग विस्तारियो मानन्दा, कृपा बुद्धि स्वभाव तो ॥५५ पर उपकार जे नहि करें, बानन्दा, वृथा जीव्यो नर सोइ तो। बजाकण्ठे पयोधर, आनन्दा, क्षीर नीर नवि होइ तो ॥५६ इम जाणी पर हित कीजिए यानन्दा, निब शक्ति अनुसार तो। छती शक्ति हित जे करे नहीं आनन्दा, ते नर कहिये गमार तो ॥५७ छब्बीस भेद भासे भष्यों यानन्दा, श्लोक शत सत्तावीस तो। पंचास बधिक सही बानन्दा, ग्रन्य संख्या अशेष तो ।।५८ लिखो लिखावो भावे करी आनन्दा, श्रावकाचार शुभ रास तो। जिनवाणी विस्तारिये आनन्दा, उपजे पुण्य प्रकाश तो ॥५९ संवत संख्या जिनभाव"ना, आनन्दा, संवच्छर संख्या प्रमाद" तो । (१६१५) मास माहु सोहामणो आनन्दा, भाइ वा सुत मर्याद तो॥६० तिथि संख्या चारित्र मेदे, आनन्दा, रस संख्या शुभवार तो। शुभ नक्षत्र शुभयोगे, आनन्दा, कोयो में श्रावकाचार तो ॥६१ यापणे पर हितकारी, आनन्दा, गुणकारी गुणवंत तो। बा रास कियो में संत बानन्दा, हित मित सुगम पणे तो ॥६२ निर्गुण नर थी वृक्ष भला आनन्दा, जे करे पर उपकार तो। यापणें गरमी दाहिये आनन्दा, छाँह देय फलसार तो॥६३ पुरुष चिन्तामणि कामचेनु, आनन्दा, कल्प तरु मेघ घार तो। गुरु आसे हे जे गुण करे, आनन्दा, निज पर करे उपकार तो ।।६४ गुण केडे सहु गुण करे, बानन्दा, एहवो लोक विवहार तो। अवगुण केडे गुण करे, आनन्दा, एते उत्तम आचार तो ॥६५ निज शक्ति उद्यम करी, आनन्दा, पालो शुभ बाचार तो। बेतलु पले, तेतलु सही, बानन्दा, नहीं तो श्रद्धा भवतार तो ॥६६
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पदम-कृत श्रावकाचार
१११
जे समकित पाले सदा, आनन्दा, शक्ति नहीं तो करो भाव तो। श्रद्धा भावें पुण्य उपजे, आनन्दा, श्रद्धा भवोदधि नाव तो ॥६७
दोहा
अष्टमल गुण जल गालण, निश भोजन परिहार । बार व्रत चेत्य एकादश, तप द्वादश दान चारण दर्शन ज्ञान चारित्र गुण, शुभ समता परिणाम | पन क्रिया मन निर्मली, पालो ते अभिराम ॥२ श्रावकाचार जे आदरे, हृदय थई सावधान । इन्द्र महधिक पद लही, अष्टऋद्धि त्रण ज्ञान ||३ उत्तम नर पदवी लही, राजाधिराज महाराज । मंडलीक महामंडलीक, काम केशव बलराज ॥४ चक्रवत्ति षटखंड धणी, तीर्थंकर पद सार । पंच कल्याण नायक, भोगवी सुख संसार ॥५ दीक्षा लेय तप आचरी, करी कर्म विनाश । केवलज्ञान प्रकट करी पामे ते अविचल वास ॥६
वस्तु छन्द श्रावकाचार तणों श्रावकाचार तणों, में रास कियो मे इणि परें। भविजन मन रंजन, भंजन कर्म कठोर निर्भर । पंच परमेष्ठी मन धरी, सुमरी शारदा गुरु निर्ग्रन्थ मनोहर । अनुदिन जे धर्म पालसी, टाली सर्व अतिचार । जिन सेवक पदमो कहे, ते पामसे भाव पार ॥१
इति श्रावकाचार रास सम्पूर्णम् । ग्रन्थान २७५० श्लोक संख्या । संवत्सर १८५३ कार्तिक सुदि ९ दीतवार भीलोड़ा चैत्यालयस्थाने श्री चन्द्रप्रभ पार्श्वनाथ प्रसादात् । श्रीरस्तु ।
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श्री किशन सिंह कृत क्रियाकोष
मंगलाचरण
दोहा
समवशरण लक्षमी सहित, वर्धमान जिनराय । नमो विबुध वन्दित चरण, भविजन को सुखदाय ॥ १ जाके ज्ञान प्रकाश में, लोक अनन्त समाव । जिम समुद्र ढिग गाय खुर, यथा नीर दरसाब ॥ २ वृषभनाथ जिन आदि दे, पारसलों तेईस । मन, वच, काया, भाव धर, बन्दो कर घर सीस ॥ ३ नमो सकल परमातमा, रहित अठारा दोष, छियालीस गुण आदि दे, हैं अनन्त गुण कोष ॥४ वसु गुण समकित आदि जुत, प्रणमों सिद्ध महन्त । काल अनंतानंत तिथि, लोक शिखर निवसंत ॥५ आचारज, उवझाय, गुरु, साधु त्रिविध निग्रंथ । भवि बनवासी जननिको, दरसावें शिवपन्थ ||६ जिनवाणी दिव्यध्वनि खिरी, द्वादशांग मय सोय । ता सरस्वतिकों नमतहूँ, मन, वच, क्रम जिन सोय ॥७ देव, गुरु, श्रुत कों नमूं त्रेपन किरया सार । श्रावक की बरणन करू, संक्षेपहि निरधार ॥८
चौपाई
जम्बूद्वीप द्वीपसर जान, मेरु सुदरशन मध्य बखान ।
ताको दक्षिण दिस शुभ लसे, भरतक्षेत्र अति सु बसही बसे ||९ तामैं मगध देश परधान, नगर मटंब द्रोणपुर थान ।
वन उपवन जुत शोभा लहै, ताको वरणन कवि को कहै ||१० राजगृही नगरी अति बनी, इन्द्रपुरी मानों दिव तनी । जिनवर भवन शोभ अति लहै, तस उपमा बरणन को कहै ।। ११ श्रावक उत्सव सहित अनेक जिन पूजें अति धर सुविवेक । मन्दिर पंति शोभै भली, गीतादिक पूरवें मन रली ॥१२ धरमी जनतामें बहु बसें, दान चार दे चितक लसें । चहूँ फेर तासके कोट, गोपुर जुत अति बनो निघोट ॥१३ बाड़ी बाग विराजें हरे, सघन दाख दाम्युं द्रम फुरे । और विविध के पादप जिते, फल फुल्लित दीसत है तिते ||१४ तिह नगरी को भूप महन्त, श्रेणिक नाम महागुणवन्त । क्षायिक समकित धारी सोय, तासम भूप अवर नहि कोय ।। १५ मण्डलीक भूपति सिरदार, बहुत तासु सेवें दरबार । परजा पालन को अति दक्ष, नोतवान धरमी परतक्ष ||१६ तास चलना है पटनार, रूपवन्त रम्भा उनहार । समकित दृष्टि सुअत गुणवती, पतिवरती सीता सम सती ॥१७
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११३
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष देव, शास्त्र, गुरुभक्ति धरेय, वसुविध नित सो पूज करेय । विधिसों देय सुपात्रे दान, जिम चहुँ विध भाषो भगवान ॥१८ तीन दीन जन करुणा करी, पोखै नित प्रति ता सुन्दरी। भूपति चित मनुहारी सोय, तासम त्रिया अवर नहिं कोय ॥१९ दम्पति सुख नानाविध जिते, पुण्य उदै भोगत हैं तिते । जिम सुरपति इन्द्रानी जान, तिम श्रेणिक चेलना बखान ।।२० महामंडलेश्वर को राज, आसन चामर छतर समानु । भूप चिह्न धरि सभा जु राय, बैठो अब सुनिये जो धाय ॥२१
ढाल चाल एक दिवस मध्य बन मांहीं, भ्रमतो बनपालक आंही। निज सम्बन्धी पर जाय, जिय बैर विरुद्ध जु थाय ॥२२ ते एक क्षेत्र के मांहीं, ढिगे बैठे केलि कराहीं। घोटक महिष इक जागा, बैठे धरि चित्त अनुरागा ॥२३ मूषा को हरष बिलावे, हिय में गहि प्रीत खिलावै।। अहि नकुल दुई इकठा ही, मैत्रीपन अधिक करांहीं ॥२४ इत्यादिक जीव अनेरा, निज वैर छोडि है मेरा। बैठे लखि के बनपाला, अचरज चिन्ता धरि हाला ॥२५ मन मांहि विचारै एमे, एह अशुभ कीधो खेमे । इम चिन्तत भ्रमण करांहीं, बनपालक बन के मांही ॥२६ विपुलाचल गिरि के ऊपर, धरणेश सुरेश मही पर। बहुविध जुतदेव अपारा, जय जय वच करत उचारा ॥२७ दसहूँ दिश पूरित धाई, अपने चित अति हरषाई । अन्तिम तीर्थकर एवा, श्री वर्द्धमान जिनदेवा ।।२८ समवादि शरण लखि हरषित, धारो विचार इम चिन्तित । इह परस्परे नु चिरकाला, परजाय वैर दरहाला ।।२९ सब मिल बैठे इकठाना, देखे में ऐ अभिरामा। इस महापुरुष को जानी, माहातम मन में आनी ॥३०
सर्वया इकतीसा मृगी सुत बुद्धिते खिलावै सिंह बाल कों, बघेरा कों सुपुत्र गाय सुत जान परसे। हंस सूनक बिलाव हित धारकै खिलाव, मोरनी सरप परसत मन हरषै ॥ इन सब जन्तुन को जन्मजात वैर सदा, भए मद गलित उखारो दोष जरसै। सम भाव रूप भए कलुष प्रशमि गए, क्षीण मोह बर्धमान स्वामी सभा दरसे ।।३१
दोहा जय जय रव को कान सुन, बनपालक तत्काल । षट्तुि के फल फूल ले, कर धर भेट रसाल ॥३२ चल्यो नृपति दरबार कों, मन में घरत उछाव । जा पहुंचे तिसही धरा, जहँ बैठो नरराव ॥३३ सिंहासन नग जड़ित पर, तिष्ठे श्री भूपाल । महामंडलेश्वर करहि, फलदीने बनपाल ॥३४
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श्रावकाचार-संग्रह
चौपाई वनपति भाषे सुनिहो देव, तुम शुभ पुन्य उदयते एव । विषुलाचल पर सनमति जान, समोशरन आयो भगवान ॥३५ ऐसें सुन आसनतें राय, उठ तिहि दिशि सनमुख सो जाय । सात पेंड़ अष्टांग नवाय, नमस्कार कोनो हरषाय ॥६ परम प्रीति पूर्वक मन आन, जिन आगम को उत्सव ठान । भूषन वसन भूप तिहिं जिते, वनपालक को दोने तिते ॥३७ ह खुशाल वनपालक जबे, मनमांही इम चिन्तवे तबै । इतने सों कर रीते जान, कबहुं न मिलिवे सांची मान ॥३८ देवथान बरु राज दुवार, विद्या गुरु निजमित्र विचार। निमित वैद्य ज्योतिषी जान, फल दीये फल प्रापति मान ।।३९ बानन्द मेरि नगर में थाय, सुन पुरवासी जन हरषाय।। नगर लोक परिजन जन सबै, नृप श्रेणिक ले चाल्यो तबे ॥४० विपुलाचल ऊपर शुभ ध्यान, समोशरण तिष्ठे भगवान । पहुंचो भूपति हरष लहाय, जिनपद नमि थुति करहि बिनाय ॥४१ नयन जुगुल मुझ सफल त्रु थयो, चरण कमल तुम देखत भयो । भो तिहुं लोक तिलक मम आन, प्रतिभास्यो ऐसो महाराज ॥४२ इह संसार जलधि यों जान, आय रह्यो इक चुलुक प्रमान । जे जे स्वामी त्रिभुवननाथ, कृपा करो मोहि जान अनाथ ॥४३ में अनादि भटको संसार, भ्रमते कबहुं न पायो पार । चहुँ गति मांहि लहे दुख जिते, ज्ञान मांहि दरशत हैं तिते ॥४ तातें चरण बाइयो सेव, मुझ दुख दूर करो जगदेव । जै जै रहित अठारा दोष, जै जै भविजन दायक मोष ।।४५ जे जे छियालीस गुणपूर, जे मिथ्यातम नासक सूर। जे जे केवल ज्ञान प्रकाश, लोकालोक करन प्रतिभास ॥४६ जै भविकुमुद विकासन चंद, जै जै सेवितमुनिवर वृंद । जे जे निराबाध भगवान, भगतिवंत दायक शिवथान 11४७ जे जे निराभरण जगदीश, जे जे वंदित त्रिभुवन ईश । ज्ञानगम्य गुण लियो अपार, जै जै रलत्रय भंडार ।।४८ जे जे सुखसमुद्र गंभीर, करम शत्रु नाशन वर वीर । आजहि सीस सफल मो भयो, जब जिन तुम चरणनकों नयो I४९ नेत्र युगल आनंदे जब, पादकमल तुम देखे तबै । श्रवण सफल भये सुन धुनी, रसना सफल अबे थुति भनी ॥५० ध्यान धरत हिरदे धन भयो, करयुग सफल पूजते थयो। कर पयान तुमलों आइयो, पदयुग सफलपनो पाइयो ॥५१
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष उत्तम बार आज जानियो, वासर धन्य इहै मानियो । जनम धन्य अबही मो भयो, पाप कलंक सबे भीग गयो ॥५२ भो करुणाकर जिनवर देव, भव भव में पाऊँ तुम सेव । जब लों शिव पाऊँ जगनाथ, तब लों पकरो मेरे हाथ ॥५३ इत्यादिक थुति विविध प्रकार, गद्य पद्य सत सहस अपार । मुनि गौतम गणधर नमि पाय, अवर सकल मुनिकों सिर नाय ॥५४ जिके अजिका सभा मझार, श्रावक जनहि जु बुद्धि विचार । यथा योग्य सबको नृप कही, मुनि नर-कोठे बैठो सही ॥५५ जाके देव भगति उत्कृष्ट, तासों ताके गुरु को इष्ट । जिन भाषी वाणी सरधान, महा विवेकी अति परधान ॥५६ तास महातम को अधिकार, अरु ताके गुण को निरधार । वरणन को कवि समरथ नाहि, बुध जन जानहु निज चितमांहि ॥५७ ता पीछे अवसर को पाय, गौतम प्रति नृप प्रश्न कराय। देश व्रती श्रावक की जान, त्रेपन क्रिया कहहुँ बखान ॥५८
दोहा होनहार तीर्थेश सुन, इम भाषै भगवंत । त्रेपन किरया तुझ प्रतें, कहूं विशेष विरतंत ।।५९
इह त्रेपन किरया थकी, सुरग मुक्ति सुख थाय । भविजन मन वच काय शुध, पात्रहुं चित हरषाय ॥६०
श्रेपन क्रिया नाम । उक्तं च गाथागुण वय तव सम पडिमा दानं जलगालणं च अणत्थमियं । दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया ॥
सवैया इकतीसा मूल गुण आठ अणुव्रत पंच परकार, शिक्षाक्त चार तीन गुण व्रत जानिए। तप विधि बारह और एक सम्यग्भाव ग्यारा प्रतिमा विशेष चार भेद दान मानिए । एक जल गालण अणथमिय एक विधि, दृग ज्ञान चरण त्रिभेद मन आनिए। सफल क्रिया को जोर त्रेपन जिनेश कहे, अव याको कथन प्रत्येकतें बखानिए ॥६२
बाट मूल गुण । चौपाई इस वेपन किरया में जान, प्रथम मूल गुण आठ बखान । पीपर, बर, ऊंबर फल तीन, पाकर फल रु कटुंबर हीन ॥६३ मद्य मांस मधु तीन मकार, इन आठों को कर परिहार | अतीचार जुत तज अणचार, आठ मूल गुण धारी सार ॥६४ अस अनेक उपजें इन मांहि, जिन भाष्यो कछु संशय नांहि । अरु जे हैं बाईस अभक्ष, इनको दोष लगे परतक्ष ॥६५
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श्रावकाचार-संग्रह अथ बाईस अभक्ष दोष वर्णन । चौपाई बोरा नाम गडालख जान, अनछाना जलको बंधान । घोर वरा को बिदल कहंत, खातां पंचेंद्री उपजंत ॥६६ निशि भोजन खाये जो रात, अरु वासी भखिए परभात । बहु बोजा जामें कण घणा. कहिए प्रगट बिजारा तणा ॥६७ जिहिं फल बीजनके घर नाहि. सो फल बहु बीजो कहबाहि । बेंगण महापाप को मूर, जे खावें ते पापी क्रूर ॥६८ संधाणे की विधि सुन एह, जिम जिनमारग भाषी जेह । राई लूण आदि बहु दर्व, फल फूलादिक में धर सर्व ॥६९ नांखे तेल माहि जै सही, नाम अथाणी तासौं कही। तामें उपजे जीव अपार, जिह्वा लंपट खाय गंवार ||७० पाप धर्म नहिं जाने भेद, ता वसि नरक लहै बहु खेद । नींबू लूण मांहि साधिये, वाड़िरा बड़ी अरु राधिए ।।७१ लण बाछि जल में फलमार, कैराबिक जो खाय संवार । उपजे जीव तासमें घणे, कवि तस पाप कहां लो भणे ॥७२ मरजादा बीते पकवान, सो लखि संधाणे मतिमान । त्याग करत नहिं ढील करैह, मन वच क्रम जिन वचहि फलेह ।।७३ जो मरजादा की विधि धार, भाष्यो जिन आगम अनुसार । जिह में जल सरदी नहि रहै, तिस मरजादा लखि भवि इहै ।।७४ सीतकाल मांहे दिन तीस, पन्द्रह ग्रीषम विस्वावीस ।
वरषारितु भाषे दिन सात, यों सुनियो जिनवाणी भ्रात ॥७५ उक्तं च गाथा हीमंते तोस दिणा, गिम्हे पणरस दिणाणि पक्कवणं ।
वासासु य सत्त दिणा, इय भणियं सूय जंगेहिं ॥७६ चौपाई-तल्यी तेल घृत में पकवान, मीठे मिलियो खै जो घांन ।
अथवा अन्नतणो ही होय, जल सरदी तामै कछु जोय ।।७७ आठ पहर मरज्याद बखान, पाठे संधाणा सम जान । भुजिया बड़ा कचौरी पुवा, मालपुवा घृततल जु हुवा ॥७८ जुमक बड़ी लूचई जान, सीरो लापसी पुरी बखान । कोए पीछे सांझलो खाहि, रात बस तिन राखे नाहिं ।।७९ इनमें उपजै जीव अनेक, तिनही तजो सुधार विवेक । तरकारी पाटो खीचड़ी, इन मरजाद सुसोला घड़ी ८० रोटी प्रात थकीलों सांज, खइये भवि मरजादा मांज । पीठे सीला वासी दोष, तजो भव्य जे शुभ वृष पोष ।।८१
छन्द चाल केते नर ऐसे भा, हम नहीं अथाणो चार्षे । कैरी नीबू के मांही, नानाविध वस्तु मिलाहीं ॥८२
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
सरसों को तेल मंगावें, सब लेकर अर्गानि चढ़ावें । ल्योंजी तस नाम कहाई, जोभ्या लंपट अधिकाई ॥८३ ताको निरदूषण भाषे, निरबुद्धी बहु दिन राखे । ताके अघको नहीं पारा, सुनिये कछु इक निरधारा ॥८४ सब बिधि छोड़ी नहीं जाही, खइये तत्काल कराही । अथवा सबेर लों मांजे, भखिये चहुं पहर हि मांजे ॥८५ पाछे अथाणा के दोषा, जानो त्रस जीवनि कोषा । अथाणा को जो त्यागी, याकों छोडे बड़भागी ॥८६
दोहा
किसनसिंह विनती करे, सुनो महा मति मान । याहि तजै सुख परम लहि, भुंजे दुख परधान ॥८७
चौपाई
पंच उदंबर को फल त्याग, करइ पुरुष सोई बड़भाग ।
अरु अजाण फल दोष अपार, मांस दोष खाये अधिकार ॥८८ कन्दमूल में जीव अनन्त, ईखू अग्रभाग लखि संत । माटा माहि असंखित जीव, भविजन तनिए ताहि सदीव ॥८९ मुहरो आफू आदिक और खाए प्राण तजे तिहि ठौर ।
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जहि आहार कर जो मर जाय, सोऊ विष दूषण को थाय ॥ ९० आमिष महापाप को मूर, जीव घात तें उपजो क्रूर ।
मन वच काय तजै इह सदा, सुर शिव सुख पाबे जिन बदा ||९१ मधुमाखी उच्छिष्ट अपार, जीव अनन्त तास निरधार । ताको खावै धीवर भील, सोई हीन नर पाप कुशील ॥९१ संत पुरुष नहि भेट वाहि, एक कणातें धरम नसाहिं ।
यो दोष महा अधिकार, ताहि भखे नहि भवि सुखकार ॥९३ मदिरा पान किए बेहाल, मात भगनि तियसम तिहिकाल | मादिक वस्तु भांगि दे आदि, खात जमारो ताको वादि ॥२४ फल अतितुच्ल दन्त तलि देय, ताको दूषण अधिक कहेय । पालो राति जमावे कोय, अरु ताको खाबे बुधि खोय ॥९५ तामें पड़ें अधिक स जीव, भवजन छाड़ो ताहि सदीव । केला आंब पालमे देह, नींबू आदिक फल गनि लेह ॥९६ जाके खाये दोष अपार, बुध जन तर्जे न लावें बार । ए बावीस अभक्ष जिनदेव, भाषै सो भविजन सुनि येव ॥९७ इनहि त्याग कर मन वच काय, ज्यों सुर शिवसुख निचे थाय । फूलो धान अवर सब फूल, त्रस जीवन कों जानों मूल ॥९८ शाक पत्र सब निद्य बखान, कुंथादिक करि भरिया जान । मांस त्यजन व्रत राखो चहें, तो इन सबको कबहुं न गहें ॥९९
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श्रावकाचार-संग्रह
बेदल वर्णन भोजन विदल तणीं विधि सुनो, जिनवर भाषो निहचै मुनो। दोय प्रकार विदल की रीति, सो भविजन आनो प्रीति ॥१०० प्रथम आ धान तणी विधि एह, श्रावक होय तजै धरनेह । सुनहु आ काष्ट तणी विधि जान, मूंग मटर अरहर अरु धान ॥१ मोठ मसूर उड़द अरु चणा, चौला कुलथ आदि गिन घणा। इतने नाज तणी है दाल, उपजै बेलि थकोसा नाल ॥२ खरबूजा काकड़ी तोरई, टीडसी पेठो पलवल लई । सेम करेला खीरा तणा, बीजा विधि फल कीजे घणा ॥३ तिनको दालथकी मिलवाय, दही, छाछि सो विदल कहाय । मुखमे देत लाला मिलि जाय, उतरत गलै पंचेन्द्री थाय ॥४ नाज वेलि तो ऊपजै जोय, सो आ काष्ट गनियो भवि लोय । छाछ तणो फल बीजह जान, तिनको दाल होय सो मान ॥५ छाछ दही मिल विदल हवन्त, यों निहचै भाष्यो भगवन्त । चारोली पिसता बादाम, बोल्यो बीज सांगरी नाम ॥६ इत्यादिक तरु फल के माहिं, बीज दुफारा मीजी थाहि । छाछ दही सो मेलि रु खाय, विदल दोष तामें उपजाय ॥७ गलै उतरता मिलि है लाल, पंचेन्द्री उपजै ततकाल । ऐसो दोष जान भविजीव, तजिए भोजन विदल सदीब ।।८ सांगर पिठोर तोरई तणा, मूरख करै राइता घणा । तिहका अघ को पार न कोय, जो खाहै सो पापी होय ॥९ तजिहे विदल दोय परकार, सो निहचे श्रावक निरधार। ककड़ी पेठो अरु खेलरा, इनको छाछ दही मैं धरा ॥१० राई लण मेंल जिहि माहि, करे रायता मूरख खाहि । राई लूण परै निरधार, उपजै जीव सिताब अपार ॥११ राई लूण मिलो जो द्रव्य, ताहि सरवथा तजिहै भव्य । कपड़े बांध दही को धरै, मीठो मेल शिखरणी करै ।।१२ खारिख दाख घोल दधिमाहिं, मीठो भेल रायता खाहिं। मीठो जब दधिमांहि मिलाहि, अन्तर्मुहूर्तमें त्रस उपजाहि ॥१३ यामें मीठा जुत जो दही, अन्तर मुहूर्त माहे सही।
खावे भविजन को हित दाय, पीछे सम्मूर्छन उपजाय ॥१४ उक्तं च गाथा-इक्खुदहीसंजुत्तं, भवंति सम्मुच्छिमा जीवा।।
अन्तोमुहूत्त मज्झे, तम्हा भणंति जिणणाहा ॥१५ बोहा-कांजी कर जे खात हैं, जिह्वा लंपट मूढ़ । पाप भेद जाने नहीं, रहित विवेक अगूढ ॥१६ अब ताको विधि कहत हौं, सुणी जिनागम जेह। ताहि सुणत भविजन तजो, मनका सकल संदेह ॥१७
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किचनसिंह-कृत क्रियाकोष चौपाई-तातो जल अरु छाछ मिलाय, तामें सौंले लूण उराय ।
भुजिया बड़ा नाख तिहि माहि, खावै बुद्धिहीन सो ताहि ॥१८ प्रथम छाछ कांजी के जाहि, तातो जल तामाहि पराय । अवर नाज को कारन याय, उपजै जीव न पार लहाय ॥१९ याको मरयादा अतिहीण, तातें तुरत तजो परवीण । ठंडी छाछ तास में जाण, तातें विदलहं दोष बखाण ॥२० प्रथम ही छाछ उष्ण अति करै, अरु वैसे ही जल कर धरै। जब दोऊ अति सीतल थाय, तब दुहुंअन को देय मिलाय ॥२१ अगिन चढ़ाय गरम फिरि करे, जब वह सीतलता को घरे।
भुजियादिक तामें दे डार, तसु सर्यादा को इम पार ॥२२ उक्तं च गाया-चउएइंदी विणिछह-अठ्ठह तिणिणि भणंति दह। चौरिंदी जीवहा बार बारह पंच भणंति ॥२३
छन्द चाल की ढाल जब चार महूरत माही, एकेंद्री जीव उपजाहीं। बारा घटिका अब जाये, वे इन्द्री तामें थाये ॥२४
बीते तब ही दुय जामा, तब होवे ते इन्द्री धामा। दुय अर्धपहर गति जानी, उपजे चउ इन्द्री प्राणी ॥२५ मिया दश दोय मुहरत, पंचेन्द्री जिय करि पूरत । है है नहिं संसै आणी, यां भाषे जिनवर वाणी ।।२६ बुध जन ऐंसो लखि दोषा, जिय तत्क्षण अघ को कोषा। कोई ऐसे कहिवे चाही, खाये विन जन्म गवाही ॥२७ मर्याद न संधि हैं मूला, तजिये व्रत अनुकूला।
खाय को पाप अपारा, छोड़ो शुभ गति है सारा ।।२८ सवैया- मूढ सुहै कुंजिय, भेद गहे मनि खेद धरो विकलाई।
खात सवाद लहै अहलाद महा उनमाद रु लंपट ताई। पातक जार महा दुख घोर सहै लखि ऐसिय भव्य तजाई जे मतिवन्त विवेकी सन्त महा गुणवन्त जिनन्द दुहाई ॥२९
इति कांजी निषेध वर्णनम् ॥
अथ गौरस मर्यादा कवन अब गोरस विधि सुन एवा, भाषो श्री जिनवर देवा।
दोहत महिषी जब गाये, तबते मर्याद गहाये ॥३० इक अन्तर महरत ताई, जीव न तामें उपजाई। राखे जाको जो खीरा, वैसे ही जीव गहीरा ॥३१
उपजे सम्मूर्छन जासे, कर जतन दया धर तासे । दोहे पीछे ततकाला, धर अगनि उपरि ततकाला ।।३२
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१२.
श्रावकाचार-संग्रह फिर तामें जावण दीजे, तब तै बसू पहर गणीजे । जब लों दधि खायो सारा, पीछे तजिये निरधारा ॥३३ दधिको धरिकै जे मथाणी, मथि है जो वणिता खाणी । मथितें ही जल जामाही, डारै फिरि ताहि मथाही ॥३४ वह तक पहर चहुंताई, खाने को जोग कहाई। मथिय पी जल नाखे, बहु बार लगे तिहि राखे ॥३५ बिन छाणों जल जिम जाणों, तैसी ही ताहि बखाणों। तातें जे करुणाधारी, खावें दधि तक्र विचारी ॥३६ मरयादा उलंघ जु खाहीं, मदिरा दूषण शक नाहीं। निज उदर-भरण को जेहा, बेचै दधि तक्र जु तेहा ॥३७ वै पाप महा उपजाही, या मैं संशय कुछ नाहीं। तिनको जु तक्र दधि लेई, खावें मतिमंद धरेई ॥३८ अर करहिं रसोई जातें, भाजन मध्यम है तातें। मरयादाहीण जो खावे, दूषण को पार न लावे ॥३९ इह दही तक्र विधि सारी, सुनिये जो भवि व्रत धारी। किरया अरु जो व्रत राखे, दधि तक न पर को चाखे ॥४० अब जावण की विधि सारी, सुनिये भवि चित्त अबधारी। जब दूध दुहाय घर लावे, तब ही तिहि अगनि चढ़ावे ॥४१ अबटाये उतार जु लीजे, रुपया तब गरम करीजे।
डारे पयमांहे जेहा, जमिहें दधि नहिं सन्देहा ॥४२ बांधे कपड़ा के मांहीं, जब नीरन बुन्द रहाहीं । तिहको दे बड़ी सुकाई, राखे सो जतन कराई ॥४३
जल मांहीं घोल सो लीजे, पयमांहे जांवण दीजे।। मरयादा भाषी जेहा, इह जावण मुं लखि लेहा ॥४४
इति गौरस मर्यादा सम्पूर्णम् ।
बच चर्माधि वस्तु दोष-वर्णनम् दोहा-चरम मध्य की वस्तु को, खात दोष जो होय ।
ताको संक्षेपहि कथन, कहुँ सुनो भविलोय ।।४५ चौपाई-मूये पशु को चरम जु होय, भोटै नर चंडाल जु कोय ।
ता चंडालहि परसत जबे, छोति गिने सगरे नर तबै ॥४६ घर आये जल स्नान करेय, एती संख्या चितहिं धरेय । पशू खाल के कूपा मांहि, घिरत तेल भंडसाल करांहि ॥४७ अथवा सिर पर धर कर ल्याय, बेचै सो बाजारहिं जाय । ताहि खरीद लेय घर माहि, खावे सबै शंकु कछु नाहिं ।।४८
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
तामें उपजें जीव अपार, जिनवाणी भाष्यो निरधार । जैसें पशू चाम के मांहि, घृत जल तेल डार हैं तांहि ॥४९ ताही कुल के जीव उपजन्त, संख्यातीत कहें भगवन्त । ऐसो दोष जाणिके संत, चरम वस्तु तुम तजहु तुरन्त ॥५० कोई मिथ्याती कहै एम, जिय उतपत्ती भाषो केम । जीव तेल घृत में कहुँ नांहि, चरम घरें कर उपजें कांहि ॥५१ ताके समझावण को कथा, कही जिनेश्वर भाषं यथा । दे दृष्टान्त सुदृढ़ता धरी, मिथ्यादृष्टी संशय हरी ॥५२ घृत जल तेल जोगतें जोव, चरम वस्तु में धरत अतीव । उपजै जैसें जाको चाम, सो दृष्टान्त कहूँ अभिराम ॥५३ सूरज सन्मुख दरपण घरे, रूई ताके आगे करै ।
रवि दरपण को तेज मिलाय, अर्गानि उपजे रूई बलि जाय ॥५४ नहीं अर्गानि इकली रूमांहि, दरपन मध्य कहुँ है नांहि । दुनि की संयोग मिलाय, उपजे अर्गानि न संशै थाय ॥ ५५ तेई चाम के वासन मांहि, घृत जल तेल घरें सक नांहि । उपजें जीव मिलें दुहुँ थकी, इह कथनी जिनमारग बकी ॥५६ ऐसे लख के भील चमार, धीबर रैगर आदि चंडार । तिनके घर के भाजन तणो, भोजन भखे दोष तिम तणो ॥ ५७ तेसो चरम वस्तु में दोष, दुरगति दायक दुख को कोष । चरम वस्तु भक्षण करि जेह, मांस भखी सादृश है तेह ॥५८ तुरत पशू मूए की चाम, करिके तास भाथडी ताम | भरे हींग तामें मिल जाय, खातो मांस दोष अधिकाय ॥५९ जाके मांस त्याग व्रत होय, हींग भव्य नहि खावें कोय । हींग परै जहि भाजन मांहि, सो चमार बासण सम जाहि ॥ ६० सवैया चामड़े के मध्य वस्तु ताको जो आहार होय, अति ही अशुद्ध ताहि मिथ्यादृष्टी खाय है । दातार के दीए बिन जिन इच्छा होय एसो, असन लहाय नाम जती को कहाय है ॥ तिन बहिरात मांसो कहा कहे और सुनो, वणियो सो भोजन क्रियातें होण थाय है । हरित अनेक जुत मारग धरमवन्त, शुद्धता कहाय भखें धरें या गहाय है ॥६१
बोहा
जीत भोजन के विषे, मूवो जनाबर देख । तजै नहीं बह असन को, पुरजन दुष्ट विशेष ॥ ६२. ए चाख्यों इक से कहे, यामें फेर न सार । अति लम्पट जिह्वा तणो, लोलुप चित्त अपार ॥६३ चौपाई - हटवा तणो चून अरु दाल, व्रतधर इनको खावो टाल ।
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बींधो अन्न पीस दल ताहि, दया रहित बेचत हैं जाहि ॥ ६४ जीव कलेवर थानक सोय, चलतेहु तामाहे होय । परम विवेकी हैं जो मही, मांस दोष लख त्यागे सही ॥६५
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श्रावकाचार-संग्रह नीच लोक घर को घृत दुग्ध, तजहु विवेक जांणि अशुद्ध । सांढि दूध दोहत तें लेय, तातो होय तहां सो देय ॥६६ निन्द्य वस्तु उपमा इसी, कहिये मांस बरावर जिसी । आमिषकी उपमा इह वीर, जैसी सांढि तणी है खीर ॥६७ याते सांढि दूध को तजो, मांस तजन व्रत निहचे भजो। संख तणो चूनो गौमूत्र, महानिन्द भाषो जिन सूत्र ॥६८ कालिगडा घिया तोरई, कद्दू वीलरु जामानिई।। इत्यादिक फलकाय अनन्त, तिनको तजिये तुरत महन्त ॥६९ फलोय कवांरि कली कचनार, फूल सुहजणा आदि अपार । महानिन्द जीवनि का धाम, तजिये तुरत विवेकीराम ॥७०
बोहा त्रपन किरिया के विर्ष, प्रथम मूलगुण आठ । तिन वर्णन संक्षेपते, कह्यो पूर्व ही पाठ ॥७१ जिनवानी जैसी कही, कथा संस्कृत तेह । भाषा तिह अनुसारते, बन्ध चोपाई एह ॥७२ पंच उचम्बर फल त्यजन, मकारादि पुनि तीन । महादोषकर जानके, तुरत तजहु परवीन ॥७३
सर्वया पीपर और बड़फल उंबर कटुम्बरह पाक परिपांच उदुंबर फल जानिये, मद्य मांस मधु तीन मकरादि अतिहीन सुनहु परवीन सबै आठए बखानिये। इनही के दोष जेते तामें पाप दोष तेते लहें न सन्तोष तेते नर खात मानिये, इनिके तजे जो मन वच क्रम भव्य जीव आठ मूलगुण के सधैया मन आनिये ॥७४
चौपाई जा घरमांहि रसोई दोय, तहाँ तानिये चन्दवो लोय । अबर परहिंडा ऊपर जान, उंखल चाकी है जिहि थान ॥७५ फटकै नाज रु वीणे जहाँ, चून छानिबो थानक तहाँ । जिस जागह जीमन नित होय, सयन करण जागा अवलोय ॥७६ सामायिक कीजे जिहि धीर, ए नव थानक लख वर बीर । ऊपर वसन जहां ताणिये, श्रावक चलण तहां जाणिये ॥७७ चाकी ऊखल के परिणाम, ढकणा कीजे परम सुजान । श्वान बिलाई चाटै नाय, कीज जतन इसी विधि भाय ॥७८ खोट लिये मूसलतें नाज, धोय इकान्त धरो बिन काज । छाज चालणा चालणी तीन, चामतणा तजिये परवीण ||७९ चरम वस्तु को त्यागी होय, इनको कबहुँ न भेटे सोय । दिन में कूटे पीसे नाज, सो खाना किरिया सिरताज ।।८० नाज नजर ते सोध्यो परै, तातें करुणा अति विस्तरै । निसिकों जो पीसै अरु दले, जातें करुणा कबहुं न पले ॥८१
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष चाकी गाले चून रहाय, चींटी अधिक लगै तसु आय । निसिको पोस्यो नजर न परै, ताके दोष केम कचरै ॥८२ नाजमाहिं ऊपरि तें कोय, प्राणी आय रहे जो होय । सोई नजर न आवे जीव, यातें दूषण लगै अतीव ॥८३ एते निशि पीसण के दोष, जान लेह भवि अध के कोष । ताके निशि पीस्यो नहि भलो, त्यागो ते किरिया जुत चलो।।८४ चूनतणी मरयादा कहूं, जिनमारग में जैसे लहूं। शीतकाल दिन सात बखान, पांच दिवस ग्रीषम ऋतु जान ॥८५ बरसाकाल माहि तिन तीन, ए मरयादा गही प्रवीन । इन उपरान्त जानिये इसो, दोष चलितरस भाष्यो तिसो ॥८६ निसिको नाज भेय जो खाय, अंकूरा तिन में निकसाय । जोव निगोद तणों भण्डार, कन्दमूल सब दोष अपार ॥८७ ताते जिते विवेकी जीव, दोष जाणके तजहु सदीव । श्रावक की है घर जो त्रिया, किरियामाहिं निपुण तसु हिया ॥८८ इंधन सोध रसोई माहिं, लावे तासों असन कराहि । तातें पुण्य लहै उत्कृष्ट, भव भव में सुख सहै गरिष्ट ॥८९
. चौपाई कोई मान बड़ाई काजै, अरु जिह्वा लोलुपता साजे । खांड तणी चासणी कराय, दाख छुहारा माहिं डराय ॥९० नाना भांति अवर भी जान, करइ मुरब्बा नाम बखान । कैरो अगनि ऊपरि चढ़वाय, खाण्ड पातमाहे नखवाय ॥९१ कहै नाम तसु कैरी पाक; करवावै तस अशुभ विपाक । . तिनकी. मरजादा वसु जाम, ब्रत धरकै पीछे नहिं काम ॥९२ जेती ऊष्ण नीरको वार, तेती इन संख्या निरधार। . रहित विवेक मूढ़ता जान, राखे घर में बहु दिन आन ॥९३ मास दुमास छमास न ठीक, वरस अधिक दिन लो तहकीक । काहू में तो पेस करेय, मांगै तिनको मांगा देय ॥९४ जातें लखै बड़ाई आप, तिस समान कछु अवर न पाप। मदिरा दोष लगै सक नाहि, ताते भवि तजिये हित जाहि ॥९५ जो मन में खाने को चाव, खावे जीमत वार कराब । अथवा कीए पाछे ताम, लैनो जोग आठहो जाम ॥९६ साठोंका रसको अवटाहि, राखे नरम चासणी ताहि । घागर मटकी भरके राख, ताको बहुदिन पीछे चाख ॥९७ ताहूँ में मदिरा को दोष, महानन्त जीवनिको कोष। अधिको कहा करो आलाप, अहो रात्रि खोये बहुपाप ॥९८
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श्रावकाचार-संग्रह
याको षटरस नाम जु कहें, पुन्यवान कबहु न गहें। मन वच तन इनको जो तजे, मदिरा त्याग वरत सो भजे ॥९९
बोहा जे विशुद्ध मदिरा त्यजन, पालै वरत महन्त । मरजादा ऊपर गये, तुरत त्यागिये सन्त ॥२००
चौपाई होत रसोई थानक जहाँ, खिचड़ी रोटी भोजन तहाँ। चावल और विविध परकार, निपजै श्रावक के घर सार ॥१ जीमण थानक जो परमाण, तहाँ जीमिये परम सुजाण । रांधण के भाजन हैं जेह, चौका बाहिर काढ़ि न तेह ।।२ जो काढे तो माहि न लेह, किरियावन्त सो नाहि सनेह । असन रसोई बाहिर जाय, सो बटबोयी नाम कहाय ॥३ अन्य जाति जो भोटै कोय, जिय भोजन को जीमे सोय । शुद्रनि मेले जीमे जिसो, दोष बखान्यो है वह तिसो ॥४ अन्य जातिके भेले कोई, असन करै निरबुद्धि होई । यातें दूषण लगैं अपार, जिमि परजूठि भखै मतिछार ॥५ निजसुत पिता व म्राता जान, सांचो मित्रादिक जो मान । भेले तितकै जीमण जदा, किरियामती वरणो नहि कदा॥६ तो पर जात तणी कहा बात, क्रिया काण्ड ग्रन्थनि विख्यात । भाजन निज जीमन को जेह, माग्यो परको कबहूँ न देह ।।७ अरु परको वासण में आप, जीमेते अति बाढ़े पाप । ग्रामान्तर जो गमन कराय, वसिहै ग्राम सरायां जाय ॥८ मांगे वासन खावे वाहि, जो सीवो घरहूँ को आहि । खाये दोष लगै अधिकार, मांस बराबर फेर न सार ॥९ गूजर मीणा जाट अहीर, भील, चमार तुरक बहु कीर । इत्यादिक जे हीण कहात, तिन बासन में भोजन खात ॥१० ताके घर को बासण होय, ताते तजो विवेकी लोय । श्रावक कुल अति लह्यो गरिष्ठ, क्रिया बिना जो जानहु भ्रष्ट ॥११ जे बुध क्रिया विष परवीन, अन्य तणो वासण गहि होण । तामें भोजन कबहु न करै, अधिको कष्ट आय जो परै ॥१२ जैन धरम जाके नहिं होय, अन्यमती कहिये नर सोय । निपज्यो असन तास घरमाहि, जीमण योग वसाणो नाहि ॥१३ अरु तिनके घरह को कीयो, खानो जिनमत में वरजीयो । पाणी छाणि न जाणे सोय, सोधण नाज विवेक न होय ॥१४ ईधण देख न वालो जिके, दया रहित नर जाणों तिके । जीव दया षटमत में सार, दया बिना करणो सब छार ॥१५
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किशनसिंहकत क्रियाकोष याते जे करुणा प्रतिपाल, असन आन घरि कर तजि चाल । निजव्रत रक्षक है नर जेह, यों जिनवर भाष्यो सन्देह ॥१६
छन्द चाल जे आठ मूल गुण पालै, इतने दोषनि को टाले । दीजे जिम मन्दिर नींव, गहिरी चौढ़ी अति सींव ॥१७ तापर जो काम चढ़ावै, बहु दिन लों डिगणे न पावै। तिम श्रावक व्रत ग्रह केरी, इनि बिनि ही नीच अनेरी ॥१८ दरशन जुत ए पलि आवै, व्रत मन्दिर अडिग रहावे । याते जे भविजन प्राणी, निहचे एह मन में आणी ॥१९ प्रतिमा ग्यारा जो भेद, आगे कहि हों तजि खेद ॥२०
अरिहल छन्द किसनसिंह यह अरज करे भविजन सुनो, पालो वसु गुण मूल निजातम को गुणों। दरशन जुत व्रत त्रिविध शुद्ध मनलाई हो, सुरग सम्पदा भुजि मोक्ष सुख पाय हो ॥२१
अथ रजस्वला स्त्री की क्रिया लिख्यते
चौपाई
अवर कथन इक कहनो जोग, सो सुन लीज्यो जे भविलोग। अबै क्रिया प्रगटी बहु हीण, यातें भाषू लखहु प्रवीन ।।२२ ग्रंथ त्रिवर्णाचार जु माहि, वरणन कीयो है अधिकाहि । मतलब सो तामें इक जान, मैं संक्षेप कहूँ सुखदान ॥२३ रितुवंती वनिता जब थाय, चलण महा विपरीत चलाय । प्रथम दिवस ते ही ग्रह काम, देय बुहारी सिगरे धाम ॥२४ अवर हाथ मांही ले छाज, फटके सोधै वोणे नाज। बालक कपडा पहिरा होय, बाहि खिलावै सगरे लोय ॥२५ आपस में तिय हूजे सबै, न करे शंका भीटत जब । मांजै सब हँडवाई सही, जीमण की थाली हू गही ॥२६ जिह थाली में सिगरे खांहि, ताही में वा असन कराहि । जल पोवे को कलस्यो एक, सब ही पीबै रहित विवेक ॥२७ क्रिया कोष ग्रन्थन में कही, रितुबंती जो भाजन लही। ग्रह चंडार तणा को जिसो, वोहू भाजन जाणो तिसो॥२८ और कहा कहिए अधिकाय, वह वासण माहे जो खाय । ताके दोष तणो नहिं पार, क्रिया हीण बहु जाणि निवार ॥२९ निसिर्को पति सोवत है जहां, वाहू सयन करत है तहां । दुहु आपस में परसत वेह, यामें मति जाणो संदेह ॥३० कोळ विकल महा कुमतिया, दुय तीजे दिन सेवै तिया। महापाप उपजावै जोर, यासम अवर न क्रिया अघोर ॥३१
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श्रावकाचार-संग्रह
महाग्लानि उपजे तिहि वार, चमारणि ते अधिकार | जाको फल वे तुरत लहाय, जी कहुं उस दिन गरभ रहाय ॥३२ भाग्य हीण सुत बेटी होय, पर तिय नर सेवे बुधि खोय । क्रोधित है कह अति बच ठीक, जद्वा तद्वा कहै अलीक ॥३३ रितुवंती तिय किरिया जिसी, भाषो भपि सुणि करिए तिसी। वनिता धर्म होत जब बाल, सकल काम तजिके तत्काल ॥३४ ठाम एकांत बैठि है, जाय, भूमि तृणा संथारो कराय। निसि दिन तिह पर थिरता धरै, निद्रा आये सयन जु करै ॥३५ इह विधि निवसे वासर तीन, तब लों एती क्रिया प्रवीन । प्रथम ही असन गरिष्ठ न करै, पातल अथवा कर में धरै ॥३६ माटी बासण जल का साज, फिरि वे हैं आवें नहि काज । इह भोजन जल पीवन रीति, अवर क्रिया सुनिये घर प्रीति ॥३७
छंदचाल
दिन में नहिं सयन कराही, हासि न कोतूहल थाहीं । तनि तेल फुलेल न लाबें, काजल नयना न अंजावे ॥३८ नख को नहीं दूर करावे, गीतादिक कबहु न गाबे ॥ तिलक न वे रोली केशर, कर पय नख दे न महावर ॥३९ एक दिवस तीन ली भोग, रितुवंती न करीवो जोग। पुरुषनि कों नजर न धारे, निज पतिहं को न निहारे ॥४० वनिता है धरम जु निसिकों, दिन गिण लीजे नहिं तिसकों। सूरज नजरों जो आवे, वह दिन गिणती में लावे ॥४१ दूजे दिन स्थान कराही, धोबी कपड़ा ले जाही। संकोच थको नखवाई, औरन की नजर न आई ॥४२ तीजे दिन जलसें न्हावे, तनु वसन ऊजले लावे ।। चउथे दिन स्नान करती, मन में आनंद धरती ॥४३ तन बसन ऊजले, धारे, प्रथमहि पति नयन निहारे । निसि धरै गरभ जो बाम, पति सूरन सो अभिराम ||४४ निपजाब उत्तम बालक, बड़भाग जनहिं प्रतिपालक । तातें इह निह जानी, चौथे दिन स्नान जु ठानी ।।४५ पतिवरत त्रिया जो पारे, निज पति को नयन निहारे । नर अवर नजर जो आवे, तस सूरत सम सुत धावे ॥४६ शीलहि कलंक को लावे, अपजस लग पटह बजावे । यातें सुभ बनिता में हैं, किरिया जुत चाले ते हैं ।।४७ निजपति बिन अवर न देखे, सास ने नाहिं मुख पेखे। ताके घर माही जाणो, लछमी को बाल बखाणो ॥४८
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष अति सुजस होय जगमाहीं, तासम वनिता कहें नाहीं। इह कथन लखो बुध ठीका, भाषों नहिं कछू अलीका ॥४९
दोहा
क्षत्री ब्राह्मण वैश्य की, क्रिया विशेष वखान । ग्रन्थ त्रिवर्णाचार में, देख लेहु मति मान ॥५०
इति रजस्वला स्त्री क्रिया वर्णनम् ।
अथ द्वादश व्रत कथन लिख्यते
दोहा
कियो मूल गुण आठ को, वर्णन बुधि अनुसार ।
अब द्वादश व्रत को कथन, सुनहु भविक ब्रतधार ॥५१ बारा व्रत मांहीं प्रथम, पांच अणुव्रत सार । तीन गुणव्रत चार पुनि, शिक्षाव्रत सुखकार ॥५२
छन्द चाल। इह ब्रत पाले फल ताको, भाषो प्रत्येक सुजाको। जे अव्रत दोष अपारा कहि हो तिन को निरधारा ॥५३ समकित जुत व्रत फल दाई, तिहकी उपमा न कराई। बिनु दरशन जे व्रत धारी, तुष खंडन सम फलकारी ॥५४
. डिल्ल जो नर व्रत को धरै सहित समकित सही, सुर नर और फणिंद्र संपदा को लही। केवल विभव प्रकाश समवशृत लहि सदा, सिद्ध-वधू कुचकुंभ पाय क्रीडत सदा ।।५५
बोहा
भाग्य हीन ज्यों चहत गुण, धन धान्यादिक नाहिं। भीत मूर्ति नित ही दुखी, वरत-रहित नर थांहि ॥५६
गीता छन्व जो शुद्ध समकित धार अति ही नरभव सुखकर कौन है। संसार में जे सार सारहि भोग सो मुनि व्रत गहें ॥ सो मुक्ति वनिता के पयोधर हार सम जे रति करे। तह जनम मरण न लहै कबही सुख अनंता अनुसरें ॥५७
__ दोहा कुबुद्धि भव संसार में, भ्रमत चतुर गति थान । जिन आगम तत्त्वार्थ को, विकल होय सरधान ।।५८
अथ अहिंसा अणुव्रत लिख्यते । चौपाई त्रस की घात कबहुँ नहिं जाण, जो कदाचि छूटै निज प्राण । थावर दोष लगै तिह थकी, प्रथम अणुव्रत जिनवर बकी ॥५९
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श्रावकाचार-संग्रह थावर हिंसा इतनी तजे, अस के घात दोष को भजे । सो धरमी सो परम सुजान, जीवदया पालक प्रतिजान ॥६०
छन्द नाराच करोति जीव की दया नरोत्तमो मही सही, सुबैर वर्ग वर्जितो निरामयो तनु लही । तिलोक हर्म्य मध्यरत्न दीप सो बखानिए, बरै विमोक्ष लक्षमी प्रसिद्ध शिव को जानिए ॥६१
बोहा
खाद्य अखाद्य न भेद कछु, हिंसा करत न ढील । महा पाप की मूल नर, ज्यों चंडाल अरु भील ॥६२
अडिल्ल छन्द जीवबध कर पाप उपार्जित पाक तें, घोर भवोदधि मांहि परै निज आपते । नरक तणा दुख सबै बहुत विचितें सहे, फिर-फिर दुर्गति माहि सदा फिरते रहै ॥६३
दोहा करुणा अरु हिंसा तणो, प्रगट कह्यो फल भेद । वह उपजावे सुख महा, अदया ते 8 खेद ॥६४ ऐसे लखि भविजन सदा, धरो दया चित राग । सुपने हूँ अदया करत, भाव तजहु बड़भाग ॥६५
सवैया पूरव ही मुनिराय दया पालो षट्काय महा सुखदाय शिव थानज लहायो है, प्रतिमा धरैया के उपसमकादि केतेहूँ करुणा सहाय जाय देवलोक पायो है । अजहूँ जीवनि की रक्षा के करैया भवि सुर शिव लहै जिनराज यों बतायो है, या तें हिंसा टार क्रिया पार चित्त धार जिन आगम प्रमाण कृष्णसिंह ऐसे गायो है ॥६६
___ अथ हिंसा अतिचार । चाल छन्द बाधे नर पशुयन केई, रज्जू बंधन दृढ़ देई ।। लकुटादिक तें अति मारे, पाहन मूठी अधिकारे । नासा करणादिक छेदै, परवेदन को नहिं वेदे । पशुवन को भाड़ो करिहै, इसनो हम बोझ जो धरिहै ॥६७ पीछे लादे बहु भार, जाके अघ को नहिं पार । खर बैल ऊंट अरु गाड़ो, मरयाद जितो करि भाड़ो ॥६८ हासिल को भय कर जानी, बोझि भरन अधिक धरानी। घोटक रथ है असवारे, चालै निस सांज सवारे ॥६९ तसु भूख त्रिषा नहिं छूजे, ताको पर दुख नहिं सूजे । काहू नर के सिर दाम, जाकों रोकै निजधाम ||७० तिहि खान पान नहिं देई, क्रोधादिक अधिक करेई । ए अतीचार भनि पांच, अदया को कारण सांच ॥७१ करुणा व्रत पालक जेह, टालें मन में धर नेह । बिन अतिचार फल सारा, सुखदायक हो अधिकारा ।।७२ वे धन्य पुरुष जगमाहीं, ते करुणा भाव धराहीं । करुणा सब विधि सुखदायक, पदवी पावै सुरनायक ||७३
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
१२९ अथवा चक्री धरणेश, देव नपहं हो श्रेणिक बेश । इन पदवी कर कहा बड़ाई, संसार तणा सुखदाई ॥७४ यातें तीर्थंकर होई, संदेह न आणों कोई। तातें सुनिये भवि जीव, करुणा चित धार सदीव ॥७५
अथ सत्य अणुवत कथन । चौपाई झूठ थूल वच ना मुख कहै, संकट पड़े मौन कों गहै। त्यागें असत्य सर्वथा नहीं, यातें लघु खिर है मुखि कहीं ॥७६ जीवदया पलिहै नहिं तदा, झूठ बचन बोले है जदा। वह असत्य सांच ही जांण, जहाँ जीव के बचि हैं प्राण ॥७७
छन्द नाराय। सदीव सत्य भावते अलंध्यते न तास को, पएवि वाच-सिद्धि चार नाद होय जासको। समृद्धि रिद्धि वृद्धि तीन लोक की लहै इकों, त्रिया जु मोक्ष गेह मांहि तिष्ठ है सुजायकों ॥७८
दोहा वचन न जाको ठीक कछु, अति लवार मति क्रूर । तातें फल अति कटुक सुन, महापाप को भूर ॥७९
अडिल्ल छन्द नष्ट जीभ बच परतें निंदित मानिए, गर्दभ ऊँट बिलाव काक सुर जानिए। जड़ विवेक ते रहित मूकता को धरें. झूठ वचन ते मनुज इते दुख अनुसरै ॥८०
दोहा
सांच झूठ फल है जिसो, तिसो कह्यो भगवान । सत्य कहो झूठहि तजो, इहै सीख मन आन ॥८१
अथ सत्य वचन अतीचार । छन्द चाल नित झुठ वचन बहु भाषे, अवरनि उपदेश जु आपै । परगुप्त बात जो थाही, ताकों ते प्रगट कराहीं ॥८२ पत्री झूठी नित मांडे, केलवणीं हिय नहीं छांड़े । लेखी पुनि मांडै झूठी, खतहू लिख है जु अपूठी ॥८३ तासों कर्म जु रूठो, अघ अधिक महा करि तूठो। को धरि हैं धरो कड़ि आई, जासों जो मुकरि सुजाई ।।८४ साक्षी दस पांच बुलावे, बस झूठो करि ठहरावै । इस पाप तणो नहि पारा, कहिए कहुंलो निरधारा ॥८५ दुहुँ पुरुष जुदे बतलावै, तिन मिलती हिए अणावै । दुहं सुख आकार लखाई, परसों सो प्रगट कराई ॥८६ दूखै उनके परिणाम, अघ-दायक है इक काम । लख अतिचार दुई तीन. व्रत सत्य तणा परवीन ॥८७
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श्रावकाचार संग्रह
इनकों त्यागे जे जीव, शुभ गति है अतीव । ए अतिचार पण भाखे, व्रत सत्य जमे जिन आखे ॥८८ शिवभूति भयो द्विज एक, पापी घर मन अविवेक । नग पांच सेठ सुत धरिके, पाछे सों गयो मुकर के ॥८९ सत्य घोष प्रगट तसुं नाम, नृपतिय झूठा लखि ताम । जुआ रमि करे चतुराई, तसु तिय तें रत्न मंगाई ॥९० तिह सेठ परीक्षा कारी, जिह लिये निज नग टारी । द्विज मरिकै पन्नग थायो, तत्क्षण असत्य फल पायो ॥ ९१
अवत्त त्याग अणुव्रत कथन | चौपाई
धरो परायो अरु वीसरो, लेखा मैं भोलो जो करो । मही परो नहि है सोय, जो अदत्त त्यागी नर होय ॥९२ चोरी प्रगट अदत्ता सर्व, अणुव्रत धारी तजि है भव्य । लगै व्यापारादिक में दोष, एक देश पलि है शुभ कोष ॥९३
छन्द नाराच
तजेहि द्रव्यपारको सुसंनिधि निरंतरं, भवन्ति भूमि-नाथ भोगभूमि पाय हैं परं । लहेवि सर्व बोध सिद्ध कांतया सुनैन को, अतीव मूर्ति तासकी सहाय चैन देन को ॥९४
बोहा जाकी कीरति जगत में फैले अति विस्तार ।
उज्ज्वल शशि किरणां जिसी, जो अदत्त व्रतधार ॥९५
सदा हरें पर द्रव्य को, महापाप मति जोर ।
पड्यो रह्यो भोले धर्यो, गहै सुनिचे चोर ॥९६
उडिल्ल छन्द
सदा दरिद्री शोक रोग भयजुत रहै, पापं मूर्ति अति क्षुधा त्रिषा वेदन सहै । पुत्र कलत्र रु मित्र नहीं कोउ जा सके, चोरी अर्जित पाप उदै भो तासके ॥९७
दोहा त्यजन अदत्त सुवरत को, अरु चोरी फल ताहि । सुनवि गहौ व्रत को सुधी, चोरी भाव लजाहि ॥ ९८
अवसादान का अतोचार वर्णन । छन्द चाल
चोरी करने की बात, सिखवावं औरनि घात । जावो परधन के काज, लावो इस बुधि बलि साज ॥९९ कोऊ चोरी कर ल्यावे, बहु मोली वस्तु दिखावं । ताको तुच्छ मोल जु देई, बहु धन की वस्तु सु लेई ||१००
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
१३१ कपड़ो मीठो अरुधान, लावे बेचें ले आन । तिनको हासिल नहिं देई, नप आज्ञा एम हनेई ॥१
जो कहं नरपति सुन पावै, तिहि बांध बेग मंगवावे।
घर लूट लेई सब ताको, फल इह आज्ञा हणिबाको ॥२ गज हाथ पंसेरी बाट, जाणो इह मान निराट । चौपाई पाई देवाणी, सोई माणी परमाणी ॥३
इनको लखिये उन मान, तुलिहै मपि है बहु वान ।
ओछो दे अधिको लेई, अपनो शुभ ताको देई ॥४ उपजावै बहुते पाप, दुरगति में लहै संताप । केसर कस्तूरी कपूर, नानाविधि अवर जकूर ॥५
घृत हींग लूण बहुंगाज, तंदुल गुड़ खांड समाज ।
इन मांहों भेल कराही, हियरे अति लोभ धराहीं ॥६ कपड़ो बहु मोलो लावै, कोऊ कहे आण गहावै । ताके बदले धरि वैसो, अगिला रंग होवे जेसो ॥७
व्रत दान अदत्ता कीजै, पण अतिचार ए लीजे। तातें सुनिये भवि प्राणी, दुरगति दुखदायक जाणी ।।८ तजिए इनको अब वेग, भवि जीवनि को इह नेग। त्यागे सुघरे इहलोक, परभव सुख पावै थोक ॥९
अथ ब्रह्मचर्य अणुवत कथन । चौपाई नारि पराई को सर्वथा, त्याग करै मन वच क्रम यथा। निज बयतें लघु देखे ताहि, पुत्री सम सो गिनिए जाहि ॥१० आप बराबर जोबन धरै, निज भगिनी सम लख परिहरे । आप थकी वय अधिकी होय, ताहि मात सम जाण हि जोय ॥११ इम परतिय को गनिहे भव्य, सो सुख सुर-नर के लहि सर्व । निज बनिता माहिं संतोष, करिये इस विध सुणि शुभ कोष ॥१२ आप व्रती तियको व्रत जब, दोऊ दिन सील गहे बध तबे। आठे चौदस परवी पांच, शील व्रत पाले मन साँच ॥१३ भादों मास अठाई पर्व, महा पूज्य दिन लखिये सर्व । ब्रह्मचर्य पाले इन माहि, सुर सुख लहियत संशय नाहिं ।।१४
अथ शीलको नव वाड़ि प्रारम्भः । चौपाई पुनि व्रत घर इतनी विधि धरे, ताहि शीलवत त्रिविध सु परे । जेहि वनिता को जूथ महन्त, तहां वास नहिं करिये संत ॥१५ रुचि धर प्रेम न निरखे त्रिया, ताको सफल जनम अरु जिया। पड़दा के अन्दर तिय ताहि, मधुर वचन भाषे नहिं जाहि ॥१६ पूरब भोग केलि की जीत, तिनहिं न याद करे शुभ मीत । लेइ नहीं हार गरिष्ठ, तुरत शील को करे जु भ्रष्ट ॥१७ कर शुचितन शृंगार बनाय, किये शीलको दोष लगाय। जिह पलंग में सोवै नार, सो सेज्या तज बुध व्रतधार ॥१८ मनमथ कथा होय जिहि थान, तहं क्षण रहै नहीं मतिमान । निज मुखते कबहूँ नहिं कहै, ब्रह्मचर्य व्रत को जो गहै ॥१९
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श्रावकाचार-संग्रह उदर भरो भोजन नहिं करे, ताते इन्द्री बहु बल धरे। ए नव वाडि पालिये जबै, शील शुद्ध व्रत पलिहै तबै ।।२०
इति नववाडि संपूर्णम्
शील चरित्र कथन । सर्वया ब्राह्मी सुन्दरनि आदि देके सोला सती भई शोल परभाव लिंगछेद सातेई भई । तिन मांहें केऊ नृप सोई शिवध्यान लह्यो केळ मोक्ष जैहैं भूप होय तहाँ ते चई ।। अनन्तमती तुकारीने आदि कैती कहूँ महा कष्ट पाय शील दिठता मई ठई । शीलते अनन्त सुख लहै कछु संशय नाहि भंग भ्रमैं नरक महा पई ॥२१
दोहा सेठ सुदर्शन आदि दे, शीलतणे परभाव । लहै अनन्ते मोक्ष सुख, कहांलों करो बढ़ाव ।।२२
नाराच छन्द सुनो वि सन्त ब्रह्मचर्य पाल बाँधका इसौ. अतीव रूपवान धाय काम को जिसौ । मनोज्ञ खोजता लहाय पुत्र पौत्र सोभितो, अनेक भषणादि द्रव्य और में नहीं इतो ॥२३ गहै वि दीक्षया लहै विज्ञान को प्रकार हो. अनन्त सुख बोध दर्शनादि बीर्य भासही। सुमोक्ष सिद्ध थाय काल बीच है अपार सो, सुसिद्ध खोजता मुखावलोक ने नगारसो ।।२४
दोहा लंपट विषयी पुरुषके, निजपर ठीक न होय । दुरगति दुख फल सो लहै, भ्रमिहै भव दधि सोय ॥२५
अडिल्ल छन्द है कुरूप दुर्गन्ध निदि निरधन महा, वेद नपुंसक दुर्ग व्याधि कुटहि गहा । अङ्ग विकल अति होय ग्रथिल जिमि भासही, परतिय संग-विपाक लही है इम सही ।।२६
दोहा व्रत परवनिता त्यजनको, कथन कह्यो सुखकार । अरु लम्पट विषयी तणो, भाष्यो सहु निरधार ।।२७ शील थकी सुर नर बिमल, सुख लहि शिवपुर जाहि । दुरगति दुख भव-भ्रमणकों, विषयी लम्पट पाहि । ।।२८
अथ ब्रह्मचर्य अणुवत अतीचार । छन्द चाल परकी जो करै सगाई, बतलावे जोग मिलाई । अरु व्याह उपाय बतावै, निज व्रतको दोष लगावै ।।२९ विभिचारिणी जैहैं नारी, परिगृहीत नाम उचारी। जिनको वेश्यादिक कहिये, तिन को संगम नहीं गहिये ॥३० हास्यादि कौतूहल कीजै, शीले तब मलिन करीज । अपरिगृहीत सुनि नाम, पति परणी है जो बाम ॥३१ तसु महा कुशीला जाणी, जसु संगति करै जु प्राणी । हास्यादिक वचन सुभाखै, सो शील मलिन अति राखे ॥३२
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
१३३ जे लम्पट विषयी क्रूर, ते पावै भव दुख पूर । अतीचार तीसरो एह, सुनिये अब चौथो जेह ॥३३
क्रीड़ा अनंग विधि पह, हस्त सुपरसत तिय देह । विकल्प मन में ही आने, परतक्ष ते शीलहि भाने ॥३४ इह अतीचार चौथो ही, बुध करै न कबहू यों ही। पंचम भनिये अतीचार, सुपने में मदन विकार ||३५ उपजे निय भवन काम, विकलपता अति दुख धाम । औषध के पाक बनावे, वह विध रस धातु मिलावै ॥३६ अति विकल हाय निज तियको, सेव हरपावे जियको। वध जन इह रीति न जोग, पण अतीचार इस भोग ॥३७
दोहा इनहीं टाल व्रत गीलको, पालो मन वच काय । इह भवतै मुर पद लहै, फिरि नृप ह शिव जाय ।।३८
अथ परिग्रह प्रमाण अणुव्रत कथन । चौपाई क्षेत्र वास्तु आदिक दस जाण, परिग्रह तणों करै परिमाण । इनको दोष लगावे नहीं, वह देश व्रत पंचम कही ॥३९
छन्द नाराच करोति मूढ़नां प्रमाण कर्ण सेवनां विष, त्रिलोक वेदज्ञान पाय श्री जिनेश यौं अपै । भवन्ति सौख्य सागरो अनन्त गक्ति कौं गहै, त्रिलोक वल्लभो सदा भवन्तरे सिवं तहे ॥४०
दोहा मन विकल्प सरै अधिक. विभव परिग्रह माहि । लहै नहीं अघके उदै, फल नरकादि लहाहि ॥४१
अडिल्ल जन्म जरा पुनि मरण सदा दुखकौं सहै, बहु दूषणको थान रोग अतिही लहै । भ्रमै जगतके माहि कुगति दुखमें परै, विषयनि मूर्छा मांहि न संवर जे करै ।।४२
. दोहा व्रत परिग्रह प्रमाण नर, कीये लहै फल सार । मनु मुकलावै ठीक तजि, दुख भुगतै नहिं पार ॥४३ याते व्रत धरि भव्य जे, मन विकल्प विस्तार । ताहि तजै सुख भोगवे, यामें फेर न सार ॥४४ जे सन्तोष न आदरै, ते भव भ्रमं सदीव । दुख-कर याकों जानिक, त्यागै उत्तम जीव ।।४५ दोष लगै या समझ कै, अतीचार पणि जाणि । तिनको वरणन भेद कछु, आगै कहों बखाणि ||४६
अथ परिग्रह प्रमाणका अतीचार वर्णन । चौपाई क्षेत्र कहावे धरती मांहि, हल खंडन की जो विधि आहि । वास्तु कहावे रहवातणा, मन्दिर हाट नोहोरा तणा ०४७ हिरण्य रूपाको परमाण, करै जितो राखै बुधिमाण । सुवरण सोनो ही जाणिये, ताकी मरज्यादा ठाणिये ॥४८ धन महिषी घोटक अरु गाय, हस्ती बैल ऊँट न थाय । इत्यादिक चौपद जे सही, तिन सिगरे की संख्या कही ।।४९
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श्रावकाचार-संग्रह सालि मूग गोधूम अर चिणा, नाज विविध के जे है घणा। इन सबकी मरज्यादा गहो, बहुत जतन ते राखै सही ।।५० खरच जितो घर मांहीं होय, तितनो जान खरीदे सोय । विणज निमित्त जैतो परमाण, जीव पड़ें नहीं वैसे जाण ॥५१ बह उपाय करिकै राखि है, ऐसे जिनवाणी भाषि है। बरस एकमें बीके नहीं, दूनो बरस आइ है सही ॥५२ मरयादा माफिक थी जितो, अधिक लेय नहिं राखै तितो। दुपद परिग्रहमें एक है, बनिता दासी दासह लहै ॥५३ कुप्य परिग्रहमें ये जाण, चावा चन्दन अतर बखाण । रेसम सूत ऊनका जिता, कपड़ा होय कहा है तिता ।।५४ तिनहूँ की मरज्यादा गहै, यों नायक श्री जिनवर कहै । रुपया भूषण रतन भंडार, बहरि सोनइया अरु दीनार ॥५५ इनकी मरयादा करि लेहु, हंडबाई वासण पुनि एहु। बहु विधि तणा किराणा भणी, अवर खांड गुड़ मिश्री तणी ॥५६ मरयादा ले सो निरवहै, भंग कीये दूषण को लहै । मन बच काया पाले जेह, भव भव सुख पावे नर तेह ॥५७
सर्वया ३१ वरत करैया ग्यारा प्रतिमा धरया जे जे दोष के टरैया मनमाहीं ऐसे आनिके, जैसो है जिह थान जोग तैसो भोग उपभोग चरम तिजोग मांहि कह्यो है बखानिके। आदरेति तोही बाकी सहै छांडितेह ग्रंथसंख्या व्रत एह श्रावक को जानिके, तद्भव सुरथाय राज ऋद्धि को लहाय पार्व शिवथान दुषदानि भव भानिकै ॥५८
मरहटा छन्द जो परिग्रह राखै दोष न भाखै चित अभिलाष हीन, विकल्प मुकुलावे विषय बढ़ावे आठ न पावै तीन । बहु पाप उपावै जो मन भावे आवै बात कहीन, मूर्छा को धारी हीणाचारी नरक लहै सुख छीन ॥५९
छन्दभुजंगप्रयात कह्यो मूर्च्छना दोष भारी अवपारी, लहै श्वभ्र संसै न जाने लगा। तजे सर्वथा मोक्ष सौख्यं लहंती, यह जान भव्या न याको गहन्ती ॥६०
इति परिग्रह परिमाण पंचम अणुवत सम्पूर्ण ।
अथ प्रथम दिग्गुणव्रत कथन लिख्यते। चौपाई चार दिशा विदिशा पुनि चार, ऊर्ध्व अधो दुहुँ मिलि दस धार । दिग व्रत पालन नर परवीन, मरयादा लंधै न कदी न ॥६१ जिते कोसलों फिरियो चहै, दिसा बिदिसा की संख्या गहै। अधिक लोभ को कारिज वणे, व्रत घर मरयादा नहि हणे ॥६२
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष जिम मरयादा की आखदी, तह लों जाय काम वसि पड़ी। घरि बैठा निति धारै ठीक, पाले कबहुं न चले अलीक ॥६३
दिगव्रत को पाले थकी, उपजे पुण्य अपार । सुरगादिक फल भोगवै, यामें फेर न सार ॥६४ मरयादा लीये बिना, फल उत्कृष्ट न होय । हमें पले नहिं इम कहै, बहै विकल मति जोय ॥६५
___ अब दिखत के अतिचार पांच लिख्यते । छन्द चाल मन्दिर निज पर की आड़, चड़ियो पुनि कोई पहाड़। करध संख्या सो कहिये, टाले ते दोषहि महिये ॥६५ तहखाना कूप रु वाय, गिरि गुफा माहिं जो जाय । इह अधो भूमि मरयाद, टालै दूषण परमाद ॥६६ दिसि विदिसि सोह जे लोनी, तिरछो चलवै मति दीनि । सो तिरयग गमन कहाई, अतोचार तृतीय इह थाई ॥६७ निज खेत भूमि जो थाय, सीमातें अधिक बधाय । सो खेत बृद्धि तुम जाणो, चौथो अतोचार बखाणों ॥६८ जिह वस्तु तणो परमाण, प्रथम ही कीयो जो जाण । तिहिको वोसरि सो जाई, विस्मृति जु अतीचार कहाई ॥६९
इति दिग्गुणव्रत सम्पूर्ण ।
अथ देशव्रत लिख्यते । चौपाई दिशि विदिशा के जे जे देश, जिह पुरलौं जो करिय प्रवेश । हरे नहीं मरयादा कोई, तिनको पलं देशवत सोई ।।७० मन सैन्य वारण के हेत, मन वच कर मरयादा लेत। आप जहां दिसि कबहु न जाय, तहातणो बड़ती नहीं खाय ॥७१
दोहा सो लहिये बिन बरत को, नेम न मूल कहाय । यातें गहिये आखड़ी, ज्यों फल विस्तर थाय ॥७२
अथ देशवत अतीचार पांच लिख्यते । छन्दचाल कीयो जे देश प्रमाण, तिह पार थकी साँस जाण । कोई नहीं वस्तु मंगावै, कबहूँ न लोभ बढ़ाने ॥७३ जहलों मरयादा ठानी, भांजे नहीं उत्तम प्राणी। भांजे मरयादा जास, अतीचार कहाने तास |७४ मरयादा वारै कोई, नरकों न बुलाने जोई। अरु आप नहीं बतलावै, बतलाए दोष लगाने ।।७५ निजरूपहि सों हँसिवाई, काहू जो देइ दिखाई। इह अतीचार चोथो ही, जिनदेव बखानो यों ही ॥७६
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श्रावकाचार-संग्रह
मरयाद जिकी जिहिं धारी, तिह वारे करतें डारी । कंकरी कपड़ों कछु और, पाहण लकड़ी तिहिं ठौर ॥७७ इत्यादिक वस्तु बहु नाम, बरनन कहाँ लों ताम । ऐसी मति समझो कोई, देसांतर ठोक दुहोई ॥७८ चैत्यालय वा घर मांहीं, अथवा देसांतर तांही। धरिहै जिम जो मरयाद, पालै तिम तजि परमाद ॥७९ इह देश वरत तुम जाणो, दूजो गुणवत परमाणो । अब अनरथ दंडज तीजो, बहु विधि तसु कथन सुणीजो ।।८०
इति दुतीय गुणवत।
अथ अनर्थ दंड तृतीय गुणव्रत कथन । चौपाई अनरथ दंड पंच परकार, प्रथम पाप-उपदेश असार । हिंसादान दूसरी जाण, तीजो खोटो पाप बखाण ॥८१ तुरिय कुशास्त्र कहै मन लाय, पंचम प्रमाद चर्या थाय । निज घर कारज विनु ते और, तिनके पाप तणी जे ठौर ।।८२ पसू विणज करवावै जाय, अरु तिह बीच दलाली खाय । हिंसा को आरंभ जु होय, ताको उपदेसै जु कोय ॥८३ मीठो लूण तेल घृत नाज, मादिक वस्तु मोम विनु काज । धोलि धाहम्या हरडे लाख, आलक{भा को अभिलाख ||८४ नील हींग आफू मोहरो, भांग तमाखू सावण खरो। तिल दाणासिण लोह असार, इन उपदेश देहि अविचार ।।८५ कूवा तलाब हवेली वाय, बाड़ी बाग कराय उपाय । कपड़ा वेगि धवावेहु मीत, निज ग्रह कारज राखहु चीत ।।८६ परधन हरण वणी जे बात, सिखवावै बहुतेरी घात । इतने पाप तणे उपदेश, कीये होय दुरगति परवेश ।।८७ चाकी ऊखल मूसल जिते, कुसी कुदाल फाहुडी तिते । तवो कड़ाही अरु दातलो, ए मांगा देवो नहीं भलो ॥८८ धनुष कृपाण तीर तरवार, जम घर छुरी कुहाड्या टार। सिल लोढो दांतण धोवणो, बाण जेवड़ा वेडी गणो ॥८९ रथ गाड़ी बाहण अधिकार, अगनि ऊपलादिक निरधार । इत्यादिक कारण जे पाप, मांगें दिये बढ़े संताप ।।९० याते व्रत धारी जे जीव, मांग्या कबहु न देय सदीव । द्वेष भाव करि वैर लखाय, वध बँधण मारण चित थाय ॥९१ परतिय देखि रूप अधिकार, ऐसो चितवन अति दुखकार । खोटे शास्त्र बखाणे जदा, सुणत दोष रागी 8 तदा ॥९२
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष हिंसा अरु आरंभ बढाय, मिथ्याभाव उपरि चित थाय । जामें एते कहै बखाण, सो कुशास्त्र अघकारण जाण ||९३ विनही कारण गमन कराय, जल-क्रीड़ा औरनि ले जाय । वाले अगनि काम बिनु सोय, छेदै तरु अति उद्धत होय ॥९४ मेला देखण चलिये यार, असवारी यह खड़ी तयार। गोठि करै निज खरचै दाम, ए सव जाणि पाप के काम ।।९५ बहजन तणो मन लावै भलो, होला डेंहगी खावे चलो। सिरा बाजरा अर जुवारि, फलही भाजी सबनि पचारि ॥९६ चले सीधी लैजे हैं खेत, वस्त खबावन को मन हेत। अनरथ दंड न जाणे भेद, पाप उपाय लहै बहु खेद ॥९७ सुबो कबूतर मना जाण, तूती बुलबुल अघ की खाण । पंखियां और जनावर पालि, राखे बन्दि पीजरे घालि ।।९८ इनि पाले को पाप महंत, अनरथ दंड जाणिये संत। कूकर बांदर हिरण बिलाव, मोंढादिक रखिये घरि चाव ॥९९ पालि खिलावे हरखि धरेय, अनरथ दंड पाप फल खेय । मन हुलसे चित्राम कराय, त्रस जीवन सूरत मंडवाय ॥१०० हस्ती घोटक मोंडुक मोर, हिरण चौपद पंखो और । कपड़ा लकड़ी माटी तणा, पाखाणादिक करिहै घणा ॥१ जीव मिठाई करि आकार, करै विविध केहीण गवार । तिणिकों मोल लेई जण घणा, वाँटै घर घर में लाहणा ॥२ इह प्रमाद चर्या विधि कही, अनरथ दंड पाप की मही। जो न लगावै इनको दोष, सो धरमी अघ करिहै सोष ॥३
बोहा जो इस व्रत को पालि है, मन बच काय सुजाण । सो निहचे सुर पद लहै, यामें फेर न जाण ॥४ बिनु कारज ही सबनि को, दोष लगावै कोय । जाके अघ के कथन को, कवि समरथ नहिं होय ॥५ अघतें नरकादिक लहै, इह जानो तहकीक । अतीचार या वरत को, सुनों पाँच यह ठीक ।।६
छन्द चाल । अथ अतीचार अनरथ दंड का लिख्यते अती हास कोतूहल कार, मन माहीं सोच विचार । इह अतीचार एक जानी, जिन आगम को बखानी ।।७ क्रीड़ा उपजावन काम, बहु कला करै दुख धाम । नृत्यादिक देखण चाव, वादीगर लखि येह दाव ।।८ मुखते बहु गाली देई, बच ज्यों त्यों ही भाखेई । इह अतीचार भणि तीजो, बुधि त्यागह ढील न कीजो ॥९ मनमें चितै को काम, इतनो करस्यो अभिराम । तातें अधिको जु कराई, दूषण इह चौथो थाई ॥१०
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बावकाचार-संग्रह
जेती सामग्री भोग, अथवा उपभोग नियोग । पर वरजो मोल यहाँ ही, निज अधिको मोल चढ़ाहीं ॥११ लोलुपता अति ही ठान, हठ करिस्यों अपनो आने । इह पंचम दोष सुठीक, यामें कछु नाहिं अलीक ॥१२ भणिया ए पण अतीचार, बुधजन मन धरि सुविचार । निति ही इनको जो टालै, मन वच क्रम व्रत सो पाले ॥१३ इह कथन सबै ही भाख्यो जिन वाणी माफिक आख्यो। जो परम विवेकी जीव, इनको करि जतन सदीव ॥१४ जे अनरथ दण्ड लगावे, ते अघकों पार न पावै । अघ महा जगतको दाई, भव भांवर अन्त न थाई॥१५ बच भाषे लागो पाप, ऐसे हु न करेहु अलाप । मन बच तन व्रत जे पाले, ते सुरगादिक सुख भालै ॥१६ अनुक्रमि शिवथानक पावै, कबहूँ नहिं भवमें आवै । सुख सिद्ध तणा जु अनन्त, भुगतै जो परम महन्त ॥१७
दोहा गुणव्रत लखि इह तीसरो, अनरथ दण्ड सुजाणि । कथन कह्यो संक्षेपः, किशनसिंह मनि आणि ॥१८
इति गुणव्रत कथन सम्पूर्ण। अथ प्रथम सामायिक शिक्षावत लिख्यते । चौपाई सब जीवनिमें समता भाव, संयममें शुभ भावन चाव । आरति रुद्र ध्यान विहूँ त्याग, सामायिक व्रत जुत अनुराग ॥१९ प्राणी सकल थकी मुझ क्षांति, वेऊ क्षम मुझ परि करि मांति । मेरो बैर नहीं उन परी,वै मझ तें कुछ दोष न करी ॥२० इत्यादिक बच करि वि उचार, जो नर सामायिकको धार । परजिकासन गाढो तथा, शक्ति प्रमाण थापि है यथा ॥२१ पूर्वाह्निक मध्याह्निक चाल, अपराह्निक ए तीनों काल । मरयादा जेती उच्चरै, तेती वार पाठ सो करै ।।२२ दुहुँ आसनके दोषज जिते, सामायक जुत तजि है तिते । जो विशेष सुणि बाको चाव, ग्रन्थ श्रावकाचार लखाव ॥२३ हूँ एकाकी अवर न कोई, जुद्ध बुद्ध अविचल मय जोय । करमातें वेढयो न उ जाणि, मैं न्यारो तिहुँकाल वषाणि ॥२४ इस संसारै मुझको नाहि, मैं न किसीको इह जगमाहि । बन्ध्यो अनादि करमते सही, निहवै बन्धन मेरे नहीं ॥२५ राग दोष करि मेलो जदा, तिन दुहुइनतें मिलन न कदा। देह वसे तो रहत सरीर, चेतन शक्ति सदा मुझ तीर ॥२६
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किशनसिंह -कृत क्रियाकोष चिता आठौं मद आरम्भ, चितवन मदन कषाय रु दंभ । इनिकौं जिस विरियां परिहार, कर यों सुबुध सामायिक धार ॥२७ सीत वसन वरषा पुनि वात, दंसादिक उपजत उतपात । जिनवर वचन विर्षे अतिधीर, सहिहै जिके महा बरबीर ॥२८ पूर्वाचार्यनि के अनुसार, जैसु विचक्षन करई विचार । तीन महरत दो इक जाण, उत्तम मध्यम जघन्य बखाण ॥२९ जैसी शक्ति होय जिहिं पास, करिए वैभव-भ्रमण विनास । भव्य जीव इहि विधि जे करै, तिनकी महिमा कविको करै ॥३०
दोहा इह व्रतपाले जे सुनर, मन वच क्रम धरि ठीक । सुरनर के सुख भुजकर, शिव पाने तहतोक ॥३१ जे कुमती जिन नाम को, लैन करै परमाद । सो दुरगति जैहै सही, लहि है दुख विषवाद ॥३२
अथ सामायिक के अतोचार लिख्यते । छंद चाल मन वचन क्रम के ए जोग, परमादी होय प्रयोग।
परिणाम दुष्टता भारी, राखे नहीं ठोक लगारी ॥३३ ।। सामायिक पाठ करत, बतलावं परसौं मंत । बोले फुनि बारंवार, जानों य दूजो अतीचार ॥३४
सामायिक करत अनादर, मनमैं न उच्छाह धरै पर । विनु लगन भावहू पोट, किनि सिर पर दीजिय मोट ॥३५ आसण को करै चलाचल, तनकुं जु हलावै पल पल । फैरे मुख चहुं दिसि भारी, तिजहु अतीचार बिचारी ॥३६ सामायिक पाठ करंतों, चितमाहें एम धरतो। में इह पाठ पटयो अक नाही, पुनि-पुनि छण बीसरि जांही ॥३७ ए अतीचार पण भाखे, जिन बाणी में जिम आखे । जे भवि सामायिक धारी, प्रथम ही है दोष निवारी ॥३८ तिहुं काल करे सामयिक, सब जीवनि को सुखदायक । सामायिक करता प्रानी, उपचार मुनी-सम जानी ॥३९ सामायिक दृगजुत करि है, उत्कृष्ट देव पद धरि है । अनुक्रम पावै निरवाण, यामें कछु फेर न जाण ॥४० मुनि द्रव्यलिंग को धारी, सामायिक बल अनुसारी। कहां लो करिये जु बड़ाई, नवग्रीवां लग सो जाई ॥४१ यातें भविजन तिहं काल. धरिये सामायिक चाल। जात फल पाबे मोटो, जसि जाय करम अति खोटो ॥४२
अथ द्वितीय शिक्षाबत प्रोषधोपवास लिख्यते । चौपाई सामायिक व्रत को बखानि, अब प्रोषध व्रत की सुनि बानि । एक मास में परब जु चार, दुइ आठे दुइ चौदस धार ॥४३ इन में प्रोषध विधि विस्तरे, ते वसु कर्म निर्जरा करें। वे जिनधर्म विर्षे अतिलीन, वे श्रावक याचार प्रवीन ॥४
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श्रावकाचार-संग्रह अब प्रोषध की विधि सुनि लेह, भाष्यो जिन आगम में जेह । सातें तेरस के दिन जानि, जिनश्रुत गुरु पूजा को ठानि ॥४५ पूजा विधि करि श्रावक सोई, भोजन वेला मुनि अवलोई । जिन मन्दिर ते तब निज गेह, एक ठाम अण पानी लेह ॥४६ मध्याह्नक समये को धार, करे प्रतिज्ञा सुविधि विचार । षोडस पहर लेह मरयाद, चौबिहार छोड़ मरयाद ॥४७ खादि स्वाद लेह अरु पेह, अतीचार ते सबहि तजेय । टटुपट्टी धोवति विधिवत लेह, और वस्त्र तन सों तज देह ।।४८ स्नानादि भूषण परिहरै, अंजन तिलक व्रती नहिं करै ।। जिन मंदिर उपवन बन ठाहि, अथवा भूमि मसानहि जाहि ।।४९ षोड़स जाम ध्यान जो धरै, धरम कथाजुत तह अनुसरै। पंच पाप मन वच क्रम तजै, श्री जिन आज्ञा हिरदे भजे ॥५० धरम-कथा गुरु मुखतें सुनै, आप कहै निज आतम मुनै । निद्रा अल्प पाछिली रात, ह्व नौमी पून्यौ परभात ॥५१ मरयादा पूर्वक गुणधार, जिनमन्दिर आवं निज द्वार । द्वारापेषण परि चित धार, खड़ो रहै निज घरके बार ॥५२ पात्रदान दे अति हरषाई, एकामुक्त कर सुखदाई। पारणदिन पिछली छै-जाम, च्यारु अहार तजे अभिराम ॥५३ इह उत्कृष्ट कह्यो उपवास, करे कर्मगण को अतिनाश । सुर-सुख लहि अनुक्रम शिव लहै, सत्यवाइक इह जिनवर कहै ।।५४ कहूँ मध्यम उपवास विचार, षट्कर्मोपदेश अनुसार । प्रथम दिवस एकान्त करेय, घरी दोय दिनतें जल लेय ॥५५ जिनमन्दिर अथवा निज गेह, पोषह द्वादश पहर धरेय । धर्मध्यान में बारा जाम, गमि है घर के तजि सब काम ॥५६ जाविधि दिवस धारण जानि, सोही दिन पारणे बखान । तीन दिवस लों पालै शील, सो सुर के सुख पावे लील ॥५७ जघन्य वास भवि विधि सों करो, प्रथम दिवस इह संख्या धरौ । पछिली दिवस घडी दो रहै. ता पीछे पाणी नहिं गहै ॥५८ निशि को शील ब्रत पालिये, प्रात समय पोषो ही धारिये। आठ पहर ताकी मरयाद, धरम ध्यान जुत तजि परमाद ॥५९ दिवस पारणे निशि जल तजै, वासर तीन शील व्रत भजे ।। प्रोषध तो उत्कृष्टहि जानि, मध्यम जधन उपवास बखानि ॥६० त्रिविधि वासकों जो निरवहै, सो प्राणी सुर के सुख लहै । अब याको जो है अतीचार, कहूँ जिनागम जे निरधार ॥६१
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किशनसिंह- कृत क्रियाकोष अथ प्रोषधोपवास अतीचार । छन्द चाल
पोसो धरिहै जिहि भूपरि, देखे नहि ताहि नजर भरि । इह अतीचार इक जानी, दूजे को सुनो बखानी ॥ ६२ जेती पोषह की ठाम, प्रतिलेखे नांहि ताम । दूषण लागे है जाको, मुनि अतिचारती जाको ॥६३ पोषी धरणे की बार, मोचै न मल-मूत्र विकार । मरजादा बिन सौं डारे, संथारो जो विसतारै ॥ ६४
बैठ उठे तजि ठामे, तीजे दूषण को पायें। पोसो धरता मन माहीं, उच्छवको धारें नाहीं ॥६५
बिनु आदरही सो ठानें, मरज्यादा मन में आने । चौथो इह है अतीचार, अब पंचम सुनि निरधार ॥६६ पढि है जो पाठ प्रमाण, ठीक न ताको कछु जाण । इह पाठ पढ्यो इक नाहीं, अब पढ़िहो एम कहा हीं ॥६७ ए अतीचार भणि पंच, भाषै जिन आगम मंच | पोसो जो भविजन धरिहै, इनको टालों सो करिहै ॥ ६८ फल लहै यथारथ सोई, यामें कछु फेर न जोई । प्रोषध व्रत की यह लीक, माफिक जिन आगम ठीक ॥६९ अरु सकलकीर्ति कृत सार, ग्रन्थहु श्रावक आचार । तामाहै भाष्यो ऐसे, सुनिये ज्ञाता विधि जैसे ॥७० उपवास दिवस तजि वीर, छान्यो सचित्त जो नीर । लेते दूषण बहु थाई, उपवास वृथा सो जाई ॥ ७१ पीवे सो प्रासु करिके, दुतियों जु द्रव्य मधि धरिकै । वेहू विरथा उपवास, लेनो नहि भविजन तास ॥७२ अरु सकति हीन जो थाई, जलते तन हू थिरताई । तो अधिक उसन इम वीर, बिन हु कम किये जो नीर ॥७३ अन्नादिक भाजन केरो, दूषण नहि लागे अनेरो ।
ऐसो आवे जे पाणी, ताकी विधि एम बखाणी ॥७४ उपबास आठमों बाँटो, वहि है इम जाणि निराटी । इनमें आछी विधि जाणी, करिये सो भविजन प्राणी ॥७५ संशय मन इहे न कीजे, प्रोषध में कबहुँ न लीजे । पोषह बिन जो उपवासे, तामें ऐसी विधि भासे ॥७६ उत्तम फलको जे चाहे, ते इह विधि नेम निबाहै । उपवास दिवस में नीर, संकट में तजि बीर ॥७७ अब सुनहु कथन इक नीको, अति सुख करि व्रत घरि जीको । एकान्त दिवस की सांझ, धरिहु तिय दरब जल भांझ ॥७८ प्रासु करि पीवे नीर, तामै, अति दोष गहीर । एकास जब सु कराहि, जल असन लेई एक ठांहि ॥७९
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श्रावकाचार-संग्रह जिन बागम की इह रीत, उपरान्त चलण विपरीत । जल लेन साक्ष ठहरायो, सबही मनि यों ही भायो ।।८० तो दूजो दरब मिलाई, लैनो नहिं योग्य कहांही। ताको दूषण इह जानो, भोजन दूजा जिम छानौ ।।८१ भोजन जिहि बिरियां कीजे, पानी तब उसन धरीजे। वे प्रासुक पानी लीजै, नहीं शक्ति जानि तजि दीजै ।।८२ कुमति ढुंढयादिक पापी, जिन मत ते उलटी थापी । हांडी को धोवण लेई, चावल धोवै जल लेई ॥८३ तिनको प्रासुक जल भाखै, ले जाय सांझ को राखे। एक तो जल काची जानी, अन्नादिक मिलि तसु आनी ॥८४ तामें घटिका दोय मांही, प्राणी निगोदिया थाही।
ताके अघको नहिं पार, मिथ्यामत भाव विकार ॥८५ उक्तंचगाया-अन्न जलं किंचि ठिई, पच्चक्खाणं न भुंजए भिक्खू । घड़ी दोय अंतरीया, णिगोइया हुँति बहु जीवा ।।८६
दोहा जो पोसह विधि आदरे, ते सुख पावै धीर । प्रमाद सेवे ते मुगध, किम लहिहै भवतीर ॥८७
इति प्रोषधोपवास त्रिविष वा सामान्य वर्णन सम्पूर्ण ॥
अथ तृतीय भोगोपभोग शिक्षाव्रत कथन लिख्यते ।
चौपाई
व्रत भोगोपभोग जे धरै, दोय प्रकार आखड़ी करै। जिम मरयाद मरण परयन्त, नियम सकति माफिक धरि सन्त ॥८८ अन्न पान आदिक तंबोल, अंजन तिलक कुंकुमा रोल। अतर अरगका तेल फुलेल, ते सह वस्तु भोग के खेल ||८९ एक बार हो आवे काम, बहुरि न दीसै ताको नाम । ते सब भोग वस्तु जानिये, ग्रन्थ कथन लखि इम मानिये ॥९० वस्त्र सकल पहिरन के जिते, निज घरमैं आभूषण तिते । रथ वाहन डोली सुख पाल, वृषभकुंभ हय गय सुविसाल ॥९१ वनिता अरु सेज्या को साज, भाजन आदिक वस्तु समाज । बार बार उपभोगवि जेह, सो उपभोग नहीं संदेह ॥९२ तिन दोन्यू में शकति प्रमाण, जम वा नियम करै जो जान । जनम पर्यन्त त्याग यम जानि, वरस मास पखि नियम बखानि ॥९३ दिन की पांच घड़ी मरयाद, करै सदैव तजे परमाद ।। किये प्रमाण महाफल सार, बिन संख्या फल नहीं लगार ॥९४
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
दोहा सुनहु भोग उपभोग के, अतीचार प्रणतेह । इनहिं टालि व्रत पालि है, वरती श्रावक जेह ॥९५
छन्द चाल मीले जु सचित जो आंही, भोगनि की वस्तु जु मांही। उपभोग वसन भूषण में, कमलादि गहें दूषण में ॥९६ एह अतीचार भणि एक, दूजो सुनि धरि सुविवेक । भोजन पातरि परि आवे, अरु सचित थकी ढकि ल्यावै ॥९७ अथवा वस्त्रादिक जांनी, धरि ढकि अर आणे प्राणी। वह दूजो दोष गणीजै, तीजो अब भवि सुणि लीजै ॥९८ जे सचित अचित बहु वस्त, भेलें मिलि जाल समस्त । जाको लेकै भोगीजै, इह अतीचार गणि लीजै ॥९९ मरयाद भोग उपभोग, कीनो जो वस्तु नियोग। तिहते जो लेय सिवाय, चौथो यह दूषण थाय ॥१०० कछु कोरो कछुयक सीजै, अथवा आस्या गह लीजै। लघु भख लेई अधिकाई, अति दुषकारी असन पचाई ॥१०१ दुहु पक्व अहार सु जानी, पंचम अतोचार बखानी। भोगोपभोग व्रत पारी, टाली इनकौं हितधारी ॥१०२
दोहा कथन भोग उपभोग को, कीयो यथावत सार । आगें अतिथि विभाग को, सुनियो भवि निरधार ॥१
इति भोगोपभोग शिक्षव्रत।
अथ चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग कथन । चौपाई प्रथम आहार दान जानिये, दुतीय दान औषध मानिये। तीजो शास्त्र दान हैं सही, अभय दान फुनि चौथो कही ॥२ लहै अहार थकी बहु भोग, औषध तें तनु होय निरोग। अभय थकी निरभय पद पाय, शास्त्र दान तें ज्ञानी थाय ॥३ अब पातर को सुनहु विचार, जैसो जिन आगम विस्तार । पात्र कुपात्र अपात्र हु जाण, दीजै जिम तिम करहु बखाण ॥ पात्र प्रकार तीन जानिए, उत्तम मध्यम जघन्य मानिये । मुनिवर श्रावक दरशन धार, कहै सुपात्र तीन विधि सार ॥५ तीन तीन तिहुँ भेद प्रमान, सुनहु विवेकी तास बखान । उत्तम में उत्तम तीर्थेश, उत्तम में मध्यम है गणेश ॥६
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श्रावकाचार-संग्रह
मुनि सामान्य अवर हैं जिते, उत्तम मध्यम जघन्य है तिते। मध्यम पात्र तीन परकार, तिह मांहे उत्तम मुनि सार ॥७ छुल्लक अहिलक दुहु ब्रह्मचार, अरु दसमी प्रतिमा व्रतधार । मध्यम मांहि उत्तम जानि, मध्यम मांहि मध्यम कहूँ बखानि ।।८ सात आठ नव प्रतिमाधार, मध्यम में मध्यम पातर सार। पहिली से षष्ठी पर्यन्त, मध्यम में पात्र जघन्य भणि सन्त ॥९ दरसनधारी जघन्य मझार, उत्तम क्षायिक समकित धार । क्षयोपशमी मध्यम गनि लेहु, जघन्य उपशमी जानौ एह ॥१०
दोहा उत्तम पात्र सु तीन विधि, तिनहीं भेद नव जान । पुनि कुपात्र तिहुँ भेद को, वरणन कहों बखान ।।११
छन्द चाल गुन मूल अठाइस धार, चारित तेरह प्ररकार । मुनिवर पद को प्रतिपाल, तप करे कठिन दरहाल ॥१२ समकित शिव बीज न जाको, मिथ्यात उदै है ताको। ऐसो कुपात्र त्रिक माही, उत्कृष्ट कुपात्र कहाहीं ॥१३ व्रत धर श्रावक है जेह, मध्यम कुपात्र भनि तेह । गुरु देव शास्त्र मनि आने, आपापर कबहुं न जाने ॥१४ बाहिज कहै मेरे ठाक, अन्तर गति सदा अलीक । ते जघन्य कुपात्र सु जानों, सरधानी मन में आनो ॥१५
दोहा कह्यो कुपात्र विशेष इह, जिन वायक परमान । अब अपात्र के भेद तिहुं, सो सुनि लेहु सुजान ॥१६
छन्द चाल अन्तर समकित नहिं जाके, बाहिर मुनि क्रिया नहिं ताके । विपरीत रूप नहिं धारी, जिह्वादिक लंपट भारी ॥१७ उतकृष्ट अपात्र के लच्छन, परखै अति परम विचच्छन । ऐसे ही मध्यम जानो, समकित बिनु व्रत मनि आनो ॥१८ तनु स्वेत बसन के धारी, मानै हम हैं ब्रह्मचारी। दुजो अपात्र लखि योही, सुनि जघन्य अपातर जों ही ॥१९ गृहपति सम वसन धराहीं, मिथ्या मारग चलवाहीं। नर नारिन कों निज पाय, पाड़े अति नवन कराय ॥२० वचन आप चिरंजी भाख, मन में निज गुरु पद राखै। मिथ्यात महाघट व्यापी, ए जघन्य अपात्र जे पापी ॥२१
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष बाहिज अभ्यन्तर खोटे, नित पाप उपाव मोटे। श्रुत देव विनय नहिं जाने, नव रसयुत ग्रन्थ बखाने ॥२२ रुलि है भवसागर माही, यामें कछु सशय नाहीं। इनके बन्दक के जीव, दुरगति मंहि भ्रमहिं सदीव ॥२३
___ दोहा
पात्र कुपात्र अपात्र के, भेद भने सब पाँच । तिनको साखा पंच दस, विहन कहे सब सांच ॥२४ अव इनको आहार जू. श्रावक जिहि विधि देय । सो वर्णन संक्षेप तें, भवि चित धरि सुनि लेय ॥२५ दोष छियालिस टालिके, श्रावक के घर माहिं। वरती जनि पै जो असन, सुखकारी सक नाहिं ।।२६
छन्द चाल दिनपति की घटिका सात, चढ़िया श्रावक हरषात ।
द्वाराप्रेक्षण की वार, फासू जल निज कर धार ॥२७ मुनिवर आयो पड़िगाहै, अति भक्तिवन्त उरमाहै । दातार तने गुण सात, ता माहे हैं विख्यात ॥२८
पुनि नवधा भक्ति करेई, अति पुण्य महा संचेई । निज जनम सफल करि जानै, बहुविधि मुनि स्तुति वखाने ।।२९ मुनिबर वन गमन कराई, पीछे अति ही सुखदायी । भोजन शाला में जाई, जीमें श्रावक सुचि पाई ॥३० जो द्वारापेक्षण माहीं, मुनिवर नहिं जोग मिलाई । तो निज अलाभ करि जाने, चिन्ता मन में अति आने ॥३१ हिय में ऐसी ठहराय, हम अशुभ उदै अधिकाय । करिहै श्रावक उपवास, अथवा रसत्याग प्रकास ॥३२
. सोरठा। दान थकी फल होय, जो उत्कृष्ट सुपात्र को । सो सुनियो भवि लोय, अति सुखकारी है सदा ॥३३
सवैया। तोर्थङ्कर देवन को प्रथम आहार देय, वह दानपति तद्भव मोक्ष जाय है, पीछे दान देनहार दृग को धरया सार, श्रावक सुव्रतधार ऐसो नर थाय है ।। जो पै मोक्ष जाय तो तोमनै न कहाय, पहुं निश्चय हूँ नाहिं देव लोक को सिधाय है । पाय के अनेक रिद्धि नर सुर को, समृद्ध निकट सुभव्य निर्वाण पद पाय है ।।३४ उत्कृष्ट पात्रनिमें उत्कृष्ट तीर्थङ्कर, तिनि दान को तो फल प्रथम बखानियो। अब उत्कृष्ट त्रिकमाहिं रहै मध्य पुनि, जयनि मुनोस दानफल ऐसो जानियो । दानी हगवतधारी तिनही असन दिये, कलप वसे या सुर है है सही मानियों। अवर विशेष कछु कहनो जरूर इह, तेऊ सुनो भव्य सुखदाई मनि आनियो ॥३५ प्रथम मिथ्यात भावमध्य बन्ध मानव के, परयो पीछे दृगपाय व्रत धारी लयो है। पुनि मुनिराजनिको त्रिविधि सुविधिजत, दोष अन्तराय टालि असन सुदीयो है ।। ताहि बंध सेती उत्कृष्ट भोग भूमि जाय, जुगल्या मनुज थाय पुण्य उदै कीयो है। तहां आयु पूरी कर देवपद पाय अहो, मुनिन को दान देति ताको धनि जोयो है ॥३६
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श्रावकाचार-संग्रह
सुख उत्कृष्ट भोग भूमि के कछुक ओजों, कहूँ तीन पल्ल तहाँ आयु परमानिये । कोमल सरल चित्त पाइये कलप निति, दस परकार नानाविधि भोग विधि दानिये ॥ जुगल जनम थाय, मातापिता खिर जाय, छींक औ जमाही पाय ऐसी विधि मानिये। निज अंगूठा को सुधारस पान करि, दिन इकीस मांझ तनु पूरनता ठानिये ।।३७
दोहा तीन दिवस बीते पेछ, लघु बदरी परिमाण । लेय अहार सुखी महा, अरु निहार नहिं जाण ॥३७ उत्तम पात्र आहार को, दाता फल अति सार । पावै अचरज कछु नहीं, अब सुनियो निरधार ॥३८ कृत कारित अनुमोदन, तीनहुं सम सुखदैन । कही भली ताकी कथा, कहों यथा जिन बैन ॥३९
छप्पय छन्द बज्रजंघ श्रीमती सर्प, सरवर के ऊपरि । चारण जुगल सुमुनिहि, भक्त जुत दियो असनि परि, तहाँ सिंह अरु शूर, नकुल बानर चहुँ जीवहि । करि अनुमोदन बंध लियो, सुख युगल अतीवहि ।।
सुरहोई भुगति नर सुर सुखहं पत्र वृषभ तीर्थेश के। हुई धरि उग्र तप को भए सिवतिय पति नब वेस के ॥४० वज्रजंघ नृप आप अवर, श्रीमती त्रिया भनि, भोग भूमि ह्र जुगल, भुगति सुर सुखहि विविध नी । पुनि दिववासी देव नरपति, रिधि भुगति सुखदायक, दशमै भव नृप जीव तीर्थकर वृषभ सुखदायक ॥ श्रीमतीय जीव श्रेयांसहु, ऋषभनाथ को दान दिय । दुह पात्र दान पतित पवि मल करि, होय सिद्ध सुख अमित लिय ॥४१
दोहा कृत कारित अनुमोदि की, कही सुनी हित धारि।
अति विशेष इच्छा सुनन, महापुराण मझारि ॥४२ इहाँ प्रसन कोळ करै, मिथ्या दृष्टी लोय । वाहिज श्रावक पद क्रिया, कही यथावत होय ॥४३
भाव लिंग मुनि तास घरि, जुगत आहारक नाहि ।
सो मुझकू समझाय कहु, जिम संशय मिटि जाहि ॥४४ अथवा श्रावक दृग सहित, किरिया पात्रे सार । द्रव्य लिंग मुनिराज कों, देय के नहीं आहार ॥४५
छन्द चाल ताके मेटन सन्देह, अब सुनिये कथन सु एह । जैसे सुनियो जिन बानी, तैसे मैं कह बखानी ॥४६
श्रावक की किरिया सार, मिथ्यात न छाडी लार। चरिया दिरियां मुनि राई, आई जो लेइ घटाई ॥४७ मुनि ज्ञानवान जो थोय, निरदोष आहार गहोय । द्रव्य श्रावक को जानि, ताको नहिं दूषन मानि ।।४८ मुनि असन नियम नहिं एह, हग व्रत धारिहि के लेह । किरिया सुध जाकौं होई, तहाँ लेई आहार संक खोई ॥४९ दरसन जुत श्रावक होई, द्रव्य मुनि आवै कोई। जाने बिनु देय अहार, ताों नहीं दोष लगार ॥५०
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोप श्रावक जाने जो तेह, मिथ्यादृष्टी मुनि एह । जाकों मूल न पडिगाहो, समकित गुण तामै नाहीं ॥५१ निज दरशन को भवि प्राणी, दूषण न लगावै जाणी। जिनके नित इह व्यापार, चालै निज बुद्धि विचार ॥५२ कोक बूझे फिर ऐसें, बिनु ज्ञान सरावग कैसें । मुनि केम परोक्षा जानी, यम हिरदै यान समानी ॥५३
तर सुनि अब अति ठीक. यामै कछु नांहि अलीक । प्रथमहि श्रावक गुण पालै, पातर लखि ले ततकालै ॥५४ अथवा ज्ञानी मुनि पास, सुनि है तिनको परकास । श्रावक श्रावक निज मांही, लखि पात्र कुपात्र बताहीं ॥५५
छप्पय अणागार उत्कृष्ट पात्र की जो विधि सारी । कही यथारथ ताहि धार चित्त में अति प्यारी ।। सुन भवि अवघारि करहु अनुमोदन जाको । निश्चय तसु श्रद्धान किये सुरपद है ताको ।
अब मध्य जघन्य दुहु पात्र को, कहो दान अरु फल यथा । जिन आगम मध्य कह्यो, तिसो सुनो भवि इह कथा ॥५६
. चौपाई मध्यम पात्र सरावग जान, व्योरो पूरव कह्यो बखान । इनमें भेद कहे हैं तीन, उत्तम मध्यम जघन्य प्रवीन ॥५७ श्रावक मध्यम पात्र मझार, भेद एकादश सुनहु बिचार । जाहि यथा विधि जोग अहार, त्यों श्रावक देहें सुखकार ॥५८ इनको दान तणो फल जान, मध्यम भोग भूमि सुख खान । जनमत मात पिता मरि जाँय, जुगल्या छींक जंभाही पाय ॥५९ तनु निज अमृत अंगुठा थकी, तीस पाँच दिन पूरण वकी। उचित कोस दु दुदिन जाय, करै आहार निहार न थाय ॥६० कल्पवृक्ष दशविधि के जास, नाना विधि दे भोग विलास । दुयपल आयु भुंजि सुर होय, मध्य पात्र फल जानो लोय ॥६१ अरु इह कथन महा सुख कार, ग्यारा प्रतिमा में निरधार । आगे कहिये प्रथम सुजान, पुनरुक्त को दोष बखान ॥६२
दोहा मध्य पात्र आहार फल, कह्यो यथावत् सार । अब जघन्य की पात्र विधि सुनहु दान फल कार ।।६३ क्षायिक क्षय-उपशम तृतिय, उपशम तीन प्रकार । इनही गृही आहार दे, यथा योग्य सुखकार ॥६४
चौपाई जघन्य पात्र के दाता जान, जघन्य युगलिया होत प्रमाण । छींक जंभाई ते पितु माय, मरे आप पूरण तनु पाय ॥६५
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श्रावकाचार-संग्रह
दिन गुण चासे कोस प्रमाण, आयु पल्य इक भुगते जाण। एक दिवस बीतें आहार, लेई बहेड़ा सम न निहार ॥६६ कल्पवृक्ष दश विधि सुखकार, नाना विधि दे भोग अपार । पूरण आयु करिवि सुर थाय, नाना सुख भुगतें अधिकाय ॥६७
दोहा जघन्य सुपात्र आहार फल, कह्यो जेम जिन वानि । अब कुपात्र आहार फल, सुन लो भवि निज कान ॥६८
चौपाई द्रव्य मुनि श्रावक हू एह, विनु समकित किरिया हूँ तजेह । बाहर समकित कीसी रोत, दरशन बिनु सरधा विपरीत ॥६९ इन तीनहुं कुपात्र को दान, देहि तास फल सुनहु सुजान । जाय कुभोग भूमि के माहि, उपजै मनुष्य हीन अधिकाहिं ॥७० अवर सकल मानव की देह, मुख तिरयंच समान है जेह । हाथी घोड़ा, बैल वराह, कपि गर्दभ कूकर मृग आह ७१ लंब करण अरु इक टंगीया, उपज युगल बराबर भिया । एक पल्य आयुर्बल पूर, माटी मीठा तृण अंकूर ।।७२ तिनहि खाहि निज उदर भरेय, अहै नगन ही मन्दिर केह । मरि विन्तर भावन जोतिसी, हो भुगतै सुख सुरावधि जिसी ॥७३
दोहा अब अपात्र के दान ते, जैसो फल लहवाय । तैसो कछु वरनन करूं, सुनहु चतुर मन लाय ॥७४ जो अपात्र को चिह्न हैं, पूरब कह्यो बनाय । दोष लगै पुनरुक्त को, याते अब न कहाय ॥७५
सोरठा जो अपात्र को दान, मूढ़ भक्ति कर देय हैं । सो अतीव अघ थान, भव भ्रमि हैं संसार में ॥७६
छन्द चाल जैसे ऊखर में नाज, बाहै विन उपज न काज। मिहनत सव जावै यों ही, कण नाज न उपजै क्योंही ॥७७ तिम भूमि अपातर खोटी, पावे विपदादिक मोटी। दूरगति दुख कारण जाणी, तिन दान न कबहं ठानी।।७८ धेनु ने तृण चरवावै, तामें तो दूधहि पादै। अति मिष्ठ पुष्ठ कर भारी, बहुते जिय को सुखकारी ॥७९ तिम पात्रहि दान जो दीजे, ताको फल मोटो लीजे । सुरगति में संशय नाहीं, अनुक्रम शिवथान तहांहीं ॥८० सरपहिं जो दूध पियादे, तापे तो विष को खावै। सो हरे प्राण तत्काल, परगट जानो इह चाल ॥८१
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
जिम दान अपात्रह देई, वह भवते नरक लहेहि । फिरि भव में पंच प्रकार, प्रावर्त्तन करे अपार ॥८२ लखि एक जाति गुण न्यारे, तांबो दुय भांति करारे । इकतो गोलो बनवाने, दूजे पातर घडवावे ॥ ८३ गोलो डाले जल मांही, ततकाल रसातल जाही । पातर जलतर है पारे, औरन को पार उतारे ॥८४ तिम भोजन तो इकसाहीं, निपजं गृहस्थ घर माहीं । दीजे अपात्र को जेह, ताते नरकादि पडेह ॥८५ वह उत्तम पात्रह दीजे, सरघा रुचि भक्ति करीजे । इह भवते दिववासी अनुक्रम तें शिवगति पासी ॥८६ इक वाय नीर चलवाई, नोंम रु सांठा सिचवाई | सोनींम कटुकता थाई, सांठा रस मधुर गहाई ॥८७ तिम दान अपात्र जो केरो, दुखदाई नरक वसेरो । भोजन उत्तम पातरको, दीपक सुर शिवगति घर को ॥८८ इह पात्र अपात्राहि दान. भाष्यो दुहवन को मान । सुखदायक ताहि गहीजे, बुध जन अब ढील न कीजे ॥८९ दुख दायक जाण अपार, तत खिण तजिये निरधार । फल पात्र अपात्तर ठीक, इनमें कछु नाहि अलीक || १० जो धन घर में बहु तेरो, खरचन को मन है तेरो । तो अंघ कूप के मांही, नाखे नहि दोष लहाहीं ॥९१ दीयो अपात्र को सोई, भव भव दुखदायक होई । सरपह पकड़े नर कोई, कांटे ताको अहि बोई ॥९२ इक बार तजे वहि प्राण, वाको दुख फेर न जाण । अरु भक्ति अपातर केरी, तातें फिर है भव फेरी ॥९३ यातें अहि गहिवो नीको, खोटे गुरुतें दुख जीको ।
तार्ते खोटे परहरिये, नित सुगुरु भक्ति उर धरिये ॥९४ अडिल्ल छन्द
जो पात्तर के तांई दान दे मानते, अरु अपात्र को कबहुं न दे निज जानते ।
पात्र दान फल सुरग क्रमाहि शिवपद लहै, भोजन दिये अपात्र नरक दुख अति सहै ॥९५ दया जान मन आन दुखित जन देखिके, रोग ग्रसित तन जानि सकति न विशेषके । मन में करुणा भाव विशेष अनाइकै, यथा योग जिह चाहे सुदेह बनाके ॥९६
फल वर्णन | चौपाई
है सम्पदा भूपति तणी । नाना भोग कहां लों भणी ।
उत्तम जाति लहे कुल सार, इह फल पातर दान अहार ||९७
अति नीरोग होय तन जास, हरे और को व्याधि प्रकास । अति सरूपता औषव जान, दियो पात्रको तस फल जान ॥ ९८
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श्रावकाचार-संग्रह
दीरघ आयु लहै सो सदा, जगत मान तिहकी शुभ मदा। सुर नर सुख की कितियक बात, अभय थकी तद्भव शिव पात ॥९९ शास्त्रदान देवातें सही, भवि अनक्रमते केवल लही । समवशरण विभवो अविकार, पावै तीर्थकर पद सार ।।६०० दया दान ते कीरति लहे, सगरे भले भले यों कहैं। निज भाबां माफिक गति थाय, दान दियो अहलो नहिं जाय ॥१
दोहा पात्र कुपात्र अपात्र को, पूरो भयो विशेष । अबै अन्य मत दान दस, कहो कथन अवशेष ॥२
सवैया गळ हेम गज गेह वाजि भूमि तिल जेह, क्रिया दासी रथ इह दस दान थाय है। इनको कथन करै याहि सठ जानि लेह, दान को दिवाय नरकादिक लहाय है। हिंसादिक कारण अनेक पापरूप जाणि, अवर लिवैया दुरगति को सिधाय है। अति ही कलंक निंद्यधाम पुण्य को न लेस, मतिमान लेन देन दुह को तजाय है ॥३
दोहा दसौं दान अनमति तणा, जैनी जन जो देह । अघ हिंसादि बढ़ायकै, कुगति तणा फल लेह ॥४
इति चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग कथन सम्पूर्ण । ___ अथ आहार दान के दोष का ब्योरा । छन्द चाल निपज्यो गृहमध्य आहार, तिह लेय सचित परिहार । अथवा सचित मिल जाई, इह अतीचार कहवाई ॥५ प्राशुक धरियो जो दर्व, ढांके सचित्तसों सर्व । दूजो गनिये अतीचार, याह कू बुधजन टार ॥६ आपण नहिं देय अहार, औरन को कहै एम विचार । ये हैं आहार दो भाई, तोजो दूषण इह थाई ॥७ मुनिको कोई देई आहार, चित में ईर्षा इह धार । हम ऊपर है क्यों देई, चौथो इह दोष गनेई ।।८ द्वारापेषण के काल, गृह काज करत तहां हालै। लंघि गए गेह में आवे, पंचम अतीचार कहावे ॥९
दोहा इह अतिथि-संविभाग के, अतीचार भनि पांच । इनहि टाल भविजन सदा, जिनवच भाषे सांच ॥१० व्रत द्वादश पूरण भये, पांच अणुव्रत सार । तीन गुणव्रत सार पुनि, शिक्षाबत निराधार ॥११
जैसी मति अवकाश मुझ, कियो ग्रन्थ अनुसार। किसनसिंह कहि अब सुनो कथन विधि परकार ।।१२
इति अतिथि संविभाग सम्पूर्ण ।
अथ सतरा नेमोंका ब्योरा । बोहा जे श्रावक आचार जुत, नित प्रतिपालै नेम । मरयादा दस सात तसु, मन वच क्रम धर प्रेम ॥१३
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किशनसिंह- कृत क्रियाकोष
श्लोक
भोजने से पाने कुंकुमादि विलेपने, पुष्पताम्बूलगीतेषु नृत्यादी ब्रह्मचर्यके ॥१४ स्नानभूषणवस्त्रादी वाहने शयनासने, सचित्तवस्तुसंख्यादौ प्रमाणं भज प्रत्यहम् ॥ १५ चौपाई भोजन की मरयादा गहै, राखे जेती बारहि लहै ।
पर के घर को जीमण जोई, प्रात समय में राख्यो होई ॥। १६ अन्न अवर मीठादिक वस्तु भोजन माहे जान समस्त । असन चबीनी अर पकवान, गिनती माफिक खाय सुजान ॥ १७ षट्स में जो राखे तजे, तिहि अनुसार सुनिति प्रति सजै । पानी सर वत दूध रु मही, दरब जिते पीने के सही ||१८ तामधि बुध राखे जे दर्व, ता बिनु सकल त्यागिये भव्य । चोवा चन्दन कुंकुम तेल, मुख धोबो रु अरगजा मेल ॥१९ 'औषध आदि लेप है जेह, संख्या राख भोगिए तेह | 'गंध संघिये तेह, जाप समें जे राखे जेह ||२०
'पुष्प
कर मुकती जो फल हेतनी, सचित्त मध्य तेऊ राखनी ।
सचित्त मांहि राखी नहिं जाय, जिह दिन मूल न करहिं गहाय ॥२१ पान सुपारी डोडा गही, लौंगादिक मुख सोध जु कही । दाल चीनी जावंत्री जान, जाती फल तंबोल बखान ॥ २२ पान आदि सचित्त जु थाय, सचित्त मांहिं राखे तो खाय ।
चित्त माहि राखत बीसरे, तो वह दिन खानी नहि परै ॥२३ गीत नाद कोतूहल जहां, जैवो राख्यौ जैहै तहां ।
मरयादा न उलंघे कदा, जो उपसर्ग आय ह्व' जदा ॥२४
एक भेद यामे है और आप आपनी बैठे ठोर ।
गावत गीत तिया नीकलों, सुनकर हरष्यो चित्त धर रली ॥२५ तामें दोष लगे अधिकाय, मध्यस्थ भाव रहे तिहि ठाय ।
पातर नृत्य अखारे मांहि, नटवा नट जिहि नृत्य कराहि ॥ २६ वादीगर विद्या जे वीर, मुकति राखे जावे धीर । परवनिता को तो परिहार, निज नियमे जिम कर निरधार ॥ २७ पाँचो परबी में तो सोह, अवर दिवस जैसी चित गोह । तजै सरवथा तो परहरे, राखे अंगीकार सु करै ॥२८ सेवत विषय जीव की घात, उपजे पाप महा उतपात । जिह जागे राखे मरयाद, सो निर वाहै तजि परमाद ॥२९ स्नान करण राख तो करै, सोह थकी कबहूँ नहि टरे । आभूषण पहिरे है जिते, घर में और धरे हौं तिते ॥३० पहरन की इच्छा जो होई, सो पहरे सिवाय नहि कोई । भूषण अन्य तने की रीत, राखै मांग पहर कर प्रीति ॥ ३१
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श्रावकाचार-संग्रह कपडे अगले पहरे होई, वे ही मुखते राखे सोई। अथवा नये ऊजरे होई, राखे सो पहरे मन दोई ॥३२ सुसुरादिक मित्रन के दिये, नृप आदिक जे वकसीस किये। मुकते राखे हे सो गहै, निज मरयादा को निर वहै ॥३३ पहरण पांवतणी पाहणो, तेलमस्तुनि माहे गणी ।. नई पुराणो निज परतणी, राखै सो पहरै इम भणी ॥३४ इत्यादिक वाहन जे होई, जो असवारी मुकती जोई। काम परै चढ़ि है तिह परी, और न काम नेम जो धरी ॥३५ सोवे को पलंग जो जान, सोड तुलाई तकियो मान । जेतो सयन करन को साज, व्रत धर संख्या धर सिरताज ।।३६ खाट पराई इक दुय चार, काम पड़े बैठे सुविचार । विनु राखे बैठे सो मही, यह जिन आगम सांची कही ॥३७ गादी गाऊ तकियो जाण, चौको चौकी माटी आण । सिंहासन आदिक हैं जिते, आसन माहिं कहाबें तिते ।।३८ गिलम दुलीचा सतरंजणी, जाजम सादो रुई तणी। इनहि आदि विछोणा होय, आसन में गिन लीजे सोय ॥३९ निज घर के अघवारे ठाम, मुकते राखे जे जे घाम । तिनपर बैठे बाकी त्याग, जाको व्रत ऊपर अनुराग ॥४० सचित्त वस्तु की संख्या जान, धान बोज फल फूल बखान । पाणी पात्र आदि लख जेह, मिरच सोपारी डोंढा एह ॥४१ सारे फल सगरे हैं जिते, सचित्त माहिं भाखे हैं तिते । मरजादा मुकती जे मांहि, बाको सबको भेंटै नाहिं ॥४२ संख्या वस्तु तणी जे धरे, सकल दरब को गिणती करै। खिचड़ी लाडू खाठो खीर, औषध रस चूरण गिन धीर ॥४३ बहुत दरब मिल जो निपजेह, गिणती माहि एक गणि लेह । राखे दरब जिते उनमान, सांझ लग गिणि ले बुधिमान ।।४४ सांझ कर सामायिक जबै, सतरह नेम संभारै तबै । अतीचार लागै जो कोय, शक्ति प्रमाण दंड ले सोय ।।४५ बहुरि आखड़ी जे निशि जोग, धार निवाह करै भबि लोग। इह विधि नित्य नियम मरयाद, पालै धरि भवि चित्त अहलाद ॥४६ महा पुण्यको कारण सही, इह भवते शुभ सुरगति लही । अनुक्रम तें ह है निरवाण, बुध जन-मन संशय नहिं आण ॥४७
दोहा नित्य नेम सत्रह तणो, कथन कियो सुखदाय । अन्तराय श्राबक तणा, अब भवि सुनि मन लाय ॥४८
इति सत्रह नेम सम्पूर्ण ।
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१५३
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
अथ सात अन्तरायका कथन । चौपाई जिनमत अन्तराय जे सात, श्रावकका भाषा विख्यात । रुधिर देखिको नाम सुनेइ, तब बुध जन आहार तजेइ ॥४९ मांस नजर देख सुन नाम, भोजन तजे विवेकी राम । नैनन देखे आलो चर्म, असन तजे उपजै बहु धर्म ॥५० हाड राध अरु मूवो जीव, नजर निहार श्रवण सुन लीव । ततक्षिण अन्न छांडि सो देइ, अन्तराय पालक जन जेइ ॥५१
दोहा
सोह करे जिह वस्तुकों, प्रथहि सों फिर कोई । सो ले थाली में धरे, अन्तराय जो होय ॥५२ श्लोक एकमें सात ए. कह्यो सवनको भेव । तिह सिवाय भासे अवर, सो व्योरो सुनि लेव ।।५३
चंडालादिक नर जिते, हीन करम करम करतार । तिनहि लखित वचनहि सुनत, अन्तराय निरधार ।।५४ मल देखत पुनि नाम सुनि, असन तुरत तजि देह । सो व्रतधारी श्रावक सही, अन्य दुष्टता गेह ॥५५ जिन प्रतिमा अरु गुरुनकों, कष्ट उपद्रव थाय । सुनि श्रावक जन असन तज, उपवासादि कराय ॥५६ पुस्तकादि जल अगनिको, उपसर्ग हवो जान । भोजन तज पुनि करयि भवि, उपवासादि वखान ।।५७ नित प्रति श्रावक कों कहै, अन्तराय तहकीक । पालें वे शुभ गति लहैं, यह जिन मारग ठीक ।।५८
इति अन्तराय समाप्त ।
अथ सात प्रकार मौन । दोहा मौंन जिनागम में कहो, सात प्रकार बखान । तिनको वरनन भविक जन, सुन मन वच क्रम ठान ॥५९
चौपाई प्रथम मौन जल स्नान करन्त, दूजी पूजा श्री अरहन्त । भोजन करता वोले नहीं, चौथी सतवन पढ़ते कहीं ॥६० सेवत काम मौन को गहै, यही वचन जिन आगम कहें। मल मूत्रहि क्षेपं जिहि वार, ए लखि सात मौन निरधार ।।३१
बरिल्ल छन्द द्वादशांग मय अंक सकल जानो सदा, असन स्थान मल मूत्र अवर तिय संग सदा । वरण उचार करण न भाष्यो जैन में, यातें गहियै मोंन सप्त विरियां समैं ॥६२
चौपाई . मौन वरतक धारक जीव, चेष्टा इतनी न करि सदीव । ... भौह चढ़ाइ नेत्र टिमकारि, करे जु सेन्या काम विचारि ॥६३ २०
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श्रावकाचार-संग्रह सीस हिलाय करे हुंकार, खांसे खखारे अधिकार । कर अंगुलते सैन बताय, अथवा अंकोंमें लिखवाय ॥६४ इतनी किरिया करि है सोय, मौन वरतु तसु मेलो होय । अर जो सैन समस्या करी, मतलब सम जेनहिं तिहिं धरी ॥६५ मन मैं अकुलाय रहै क्रोध, क्रोध थकी नासै शुभ वोध । यातें जे भवि जन मतिमान, मौन धरो आगम परवान ।।६६ अरु तिह समय करै सुभाव, ताते कहै पुण्य बढ़ाव । पुण्य थकी लहि है सुरथान, यामैं कछु संसै नहीं आन ॥६७
अन्तराय सम्पूर्ण।
अथ संन्यास मरण की विधि । सवैया दृगधारी श्रावक व्रत पालै पीछे ही, संन्यास सहित अन्तकाल तजे निज प्राण ही। संन्यास प्रकार दोइ ए कहै कषाय नाम, दुतिय आहार त्याग प्रगट बखान ही ॥ आराधना च्यारि, भावै दरसन प्रथम दूजी, ज्ञान तीजी चरण विशेष तप जान ही। जैसी विधि कषाय संन्यासको विचार जैसे, कहूँ भव्य सुनि मनमांहिं ठीक आनही ॥६८
दोहा
सकल स्वजन पर जननितें, मन वच काय विशुद्ध । शल्य त्यागि किय है क्षमा, करि परिणाम विशुद्ध ॥६९ अति नजीक निज मरन लखि, अनुक्रम तजिय अहार ।
पाछे अनसन लेय के, नियम असन बहुकार ॥७० चार आराधन को तब, आराधे भवि सार । दर्शन ज्ञान चारित्र पुनि, तप द्वादश विधि सार ॥७१
देव शास्त्र गुरु ठोकता, तत्त्वारथ सरधान । निकादि गुण जो सहित, लखि दर्शन मति मान ॥७२
सवैया । ३१ धरम में संका नांहि निसंकित नाम ताहि वांछा” रहित निकांक्षित गुण जानिये । ग्लान त्याग निरविचिकित्स देव गुरु श्रुत मूढता तजै यासौं अमोढ्यवान मानिये ॥ परदोष ढांक उपगृहन धरैया सोई म्रष्टको स्थापै स्थिति करण बखानिये । मुनि गृही धर्म को जु कष्ट टारै वात्सल्य है मारग प्रभावना प्रभावत प्रमानिये ॥७३
संन्यास भरण संपूर्ण ।
अथ अष्ट प्रकार ज्ञान को आराधना । दोहा आठ प्रकार सुज्ञान को, आराधे मति मान । तस बरणन संक्षेपते, कहै ग्रन्थ परमान ॥७४ प्रगट वरण ण लघ दीर्घ जत.रि विशद उपचार। पाठ करे सिद्धान्त को. व्यंजन जित सार ॥७५ आगम अरथ सुजाणि कैं, सुद्ध उचार करेहि । अरथ समस्त संदेह विनु, जो सिद्धान्त पढ़ेहि ॥७६ अर्थ समग्र सुनाम तसु, जानि लेहु निरधार । शब्दार्थोभय पूरण को, आगे सुनहु विचार ॥७७ ।। व्याकरणादि अरथकों, लखिबि नाम अभिधान । अंग पूर्व श्रुत सकल को, करे पाठ जे जान ॥७८
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
१५५ पूर्वाह्निक मध्याह्न पुनि, अपराह्निक तिहुं काल ।
बिनु आगम पढ़िये नहीं, कालाध्ययन विसाल ||७९ सरस गरिष्ठ अहार को, तज करि आगम पाठ । गुण उपथान समृद्ध इह, महा पुण्य को पाठ ॥८०
प्रथम पूज्य श्रुत भक्ति युत, पढ़ि है आगम सार ।
सुखकर जानो नाम तसु, प्रगट विनय आचार ॥८१ गुरु पाठक श्रुत भक्ति युत, पठत बिना संदेह । गुर्वोद्यत पह्नव प्रगट सत्यनाम सुसंदेह ।।८२
पूजा आसन मान बहु, चित धरि भक्ति प्रसिद्ध । श्रुत अभ्यास सुकीजिये, सो बहु मान समृद्ध ।।८३
इति अष्ट प्रकार ज्ञान को आराधन संपूर्ण । अथ पंच महाव्रत तीन गुप्त पाँच सुमिति ये तेरह विध चारित्र का वर्णन | अडिल्ल वरत अहिंसा अनुत अचौर्यं तीसरो, ब्रह्मचर्य व्रत पंचम आकिंचन खरी।
वच तन तिहं गुपति पंच समिति जुसहो, ए साधन आराधन तेरा विधि कही।।८४ अनसन आमोदर्य वस्त संख्या गनी. रम परित्यागी रं विविक्त शय्यासन भनी। काय क्लेश मिलि छह तर बाहिज के भये, षट् प्रकार अभ्यन्तर आगम वरणये ॥८५ प्रायश्चित्त अरु विनय वैयावृत जानिये, स्वाध्याय रु व्युत्सर्ग ध्यान परमाणिये। मिलि बाहिज अभ्यन्तर बारा विधि लिखी, तप आराधन एह जिनागम में अखी ॥८६
दोहा दरसन ज्ञान चारित्र तप, आराधन व्यवहार । अंति समय भावे व्रतो, सुर-सुख शिव-दातार ।।८७ इति तप १२ चारित्र १३ संपूर्ण ॥ व्यवहार आराधना संपूर्ण ॥
निश्चय आराधना लिख्यते । दोहा अब निश्चय आराधना, वरणौ चार प्रकार । आराधक शिव पद लहै, यामें फेर न सार ॥८८
__ सर्वया ॥ ३१ आतम के ज्ञान करि अष्ट महागुण धर, दरशन ज्ञान सुख बोरज अनन्त है। निश्चय नयेन आठ करमनि सो विमुक्त ऐसो आत्मा को जानि कहिये महंत है। ताहि सुधी चेन उपरि श्रद्धा रुचि परतीत चित अचल करत जे वे सन्त हैं। निश्चय आराधना कही है दरशन याहि भावै अन्त ममय मुकेवल लहंत है ।।८९ निज भेद ज्ञान कारि शुद्धातम तत्त्वनिकों चेतन अचेतन स्वकीय परमाणी है। सप्त तत्त्व नव पदारथ षट् द्रव्य पंचासति काय उत्तर प्रकृति मूल जानी है। इनको विचार बारबार चित अवधार ज्ञानवान मुध चेतना को उरि आनि है। संन्यास समये अन्तकाल-ऐसे भाई ऐतो निश्चय आरावना सुबोध यों बखान है ॥२० पुनः प्रथमहि अठाईस मूलगुण धार पंच प्रकार निरग्रन्थ गुण हिय धारिये । सताईस पंच इन्द्रिन के विषयोंको त्याग बाहिज अभ्यन्तर परिग्रहको टारिये ॥ संकल्प विकल्प मनते सकल तजि आत्मीक ध्यानते शुद्धात्मा यों धारिये। पर करमादि सेती जुदो यासो कर्म जुदो निश्चय चारित्र यों आराधना विचारिये ९१
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श्रावकाचार-संबह
अडिल्ल जो कोळ नर मन में इच्छा धरतु है, फिरि परिणाम संकोच निरोघहि करतु है। सो बाराधन निश्चय नय परमानिये, तप इच्छादि निरोध यही मन बानियो ॥९२
बोहा निश्चय चहुं याराधना, ग्रन्थ प्रमाण बखान । किसनसिंह धरि, सूधी, सो शिव लहें निदान ।।९३
ए चहुं विधि याराधना, घरै कौन प्रस्ताव । सो भविजन सुन लीजिए, मन वच बुध करि भाव ॥९४
अहिल्ल छन्द जो कोळ उपसर्ग मरण सम आया है, के दुरभिक्ष पड़े कछु कारण पाय हैं। बरा अधिक बल बर-बर सक्ति न सहै तबै, के तनु रोष अपार मृत्यु सम दुख जब ॥९५ इतने जोग मिलाय उपाय न कछु वहै, मरण निकट निज जानि विचार मन तहै। ध्याय आराधन धर्म निमित तिनकों तजे, सो नर परम सुजान स्वर्ग शिव सुख भजे ॥९६
बाराधना के अतीचार । छंद चाल संलेषण की जो बारे, जीवन को आसा धारे। लोगनि के मुख अधिकाई, निज महिमा लखि हरषाई ॥९७ निजकों लाख दुख अर लोक, करिहै न प्रतिष्ठा थोक । महिमा कछु सुनय न कांनि, मरसी जब ही मन आनि ॥९८ मित्रनि सों करि अति नेह, पुरव क्रीडा की जेह । करि यादि मित्र जुत राग, अतिचार तृतीय मुलागं ॥९९ भुगत्या सुख इह भवमाही, निज मन ही याद कगही। चौथो अतीचार सुजानी, पंचम मुनिये भवि प्रानी ।।७०० संलेषण धारि जान, मन में इम करिय निदान । हूं इंद्र तणो पद पाऊँ, मस्तक किनहीं न नवाऊँ ॥१ चक्रवर्ती संपदा जेती, त्रिय सुत जुत झें मुझ तेतो। ऐसो जो करिय निदान, तप मुरतरु देहों दान ।।२ संलेषण पण अतिचार, भाष्या इनको निरधार । ए टालि मंलेषण कीजै, ताको फल सुर शिव लोजं ॥३
सर्वया। ३१ बनसन तप नाम उपवास काजं जाको बामोदर्य तप लघु भोजन लहीजिए। वस्तु परिसंख्या जे ते द्रव्यान की संख्या कोजे ग्स पारत्याग तेरस छांडि दीजिए। विविक्त शय्यासन ब्रत वारि भवि मुनि काय क्लेश उग्रनप मन को गहीजिए। एई षट्तप कहे बाहिज के बागम में सुर शिव सुख दाई भवि वेग कीजिए ।४। प्रायश्चित्त वहै दोष गुरु परवमाय तब विनय तप गुण वृद्धि को जावनो कोजिए। वैयावृत्त तप गुण चारी वय्यावृत्त कोज स्वाध्याय जिनागम त्रिकाल में पढ़ात्रिये ।
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'१५७
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष व्युत्सर्ग खडा होय ध्यान धरिवे को नाम ध्यान निब बातमीक गुण निरखोजिये। वाहिल अभ्यन्तर के तप भेद जानि पालि अनुक्रमनि यात गुणथानक चढ़ीजिये ॥५
दोहा द्वादश तप वरनन कियो, जिनवर भाष्यो जेम । कछु विशेष सम भावको, कहूं यथा मति तेम ॥६
इति द्वादश तपः ।
अथ सम भाव कथन । सवैया अनंतानबंधी क्रोध पाषाण की रेखा सम, मान थंभ पाहन समान दुख दाय है। बंस विडावत माया, लोभ-लाख रंग जांनि, इनके उदंते जीव नरक लहाय है। जब लग अनंतानुबंधी चौकड़ीकों घरै जनम पर्यंत जाको संग न तवाय है। याके जोर सेती जीव दर्शन सुधताको लहै नांही ऐसें जिनराज जी बताय है ।।७ क्रोध जो अप्रत्याख्यान हल रेखावत जानि मान स्थिथंभ मानि दुष्टता गहाय है, माया बजा शृंग जानि लोभ है मजीठ रंग इनके उदत जीव तिरयंच थाय है। जव ही अप्रत्याख्यान चौकड़ी को उद होय जाकै एक बरस लों थिरता रहाय है, तो लो याको वल जोलों श्रावक के व्रतनिकों घर सके नांहि जिनराज जी बताय है ।।८ प्रत्याख्यान क्रोध धूलि रेखा परमान कहो, मान काठ थंभ माया गोमूत्र समान हैं, लोभ कसुम्भको रंग ए ई चार यो प्रत्याख्यान, इनके उदैते पावं मनुज पद थान है। प्रत्याख्यान कपाय प्रगट उद होत संदै च्यारि मास परजंत रहै जानो बान है, याही को विपाक सो न सकति प्रकट होत मुनि राज ब्रत धरि सके न प्रमान है ॥९ संज्वलन क्रोध बल रेखावत कहो जिन, मान बेतलता किसी नवनि प्रधान है, माया है चमर जैसी लोभ हरदी को रंग इनके उदते पावै सुरग विमान है।
चौथोह कषाय चौकरी को उदै पाय ताके च्यार पक्ष ताऊ बाके प्रबल महान हैं, यथास्यात चारित्र कों वरि सकै नाहि मुनि तीर्थकर गोत्रहू जो बांधे यो बखान है॥१.
चौपाई सोलह कषाय चोकरी च्यार, नो कषाय नव नाम विचार । हासि बरति रति सोक बखान, भय जुगुप्सा ए षट् बान ॥११ वनिता पुरुष नपुंसक वेद, ए नव मिले पचीस जू मेद। इनको उपसम करिहै जबे, समकित हियै सुभ किरिया तबै ॥१२
इति समभाव संपूर्ण।
अथ एकादश प्रतिमा वर्णन लिख्यते । चौपाई अब एकादश प्रतिमा सार, जुदो जुदो तिनको निरधार। सो भाष्यो आगम परवान, सुनि चित पारो मरम सुजान ॥१३
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१५८
श्रावकाचार-संग्रह
दर्शन व्रत सामयिक कही, पोसह सचित्त त्याग विध गही। रयनि-असन त्यागी ब्रह्मचार, अष्टम आरंभ को परिहार ।।१४ नवमी परिग्रह को परिमान, दशमी आद्य उपदेश न दान । एकादशमी दोय परकार, क्षुल्लक दुतिय ऐलक व्रत धार ॥१५ श्रेणिक पूछे गौतम तणी, दरसन प्रतिमा की विधि भणी। गौतम भाष्यो श्रेणिक भूप, दरशन प्रतिमा आदि सरूप ॥१६ एकादश की जो विध सार, जुदी जुदी कहिहों निरधार ।। याहै सुनि करि धरि है जोय, श्रावक व्रत धारी है सोय ॥१७ प्रथमहि दरशन प्रतिमा सुनो, त्गों निज आतम सहजै मुनो। दरशन मोक्ष बीज है सही, इह विधि जिन आगम में कही ॥१८ दरशन सहित मूल गुण धरे, सात विसन मन वचन परिहरे। दरशन प्रतिमा को सुविचार, कछु इक कहीं सुनो सुखकार ॥१९ देव न मान बिनु अरहन्त, दस विधि धर्म दयाजुत सन्त । तपधर मानै गुरु निर्ग्रन्थ, प्रथम सुद्ध यह दरशन पंथ ॥२० संवेगादिक गुण जुत सोय, ताकी महिमा कहि है कोय । धरम धरम के फल को लखै, सो संवेग जिनागम अखै ॥२१ जो वैराग भाव निरवेद, गरहा निन्दा के दुइ भेद । निज चित निंदै निंदा सोय, गरहा गुरुठिग जा आलोय ॥२२ उपसम जे समता परिणाम, भक्ति पंच गुरु करिए नाम । धरम रु धरमी सो अतिनेह, सो वाछल्ल महा गुण गेह ॥२३ अनुकंपा नित ही चित रहे, ए वसु गुण जो समकित गहै । दरशन दोष लगै पणवीस, सुनिये जो कहिया गणईश ।।२४ तीन मूढ़ता मद वसु जान, अर अनायतन षट्विधि ठान । आठ दोष शंकादिक कही, दोष इते तजि दरशन गही ॥२५ भो श्रेणिक सुन इस संसार, जीव अनंत अनंती बार । सीस मुडाय कुतप बहु कीयो, केस लोंच अरु मुनि पद लीयो ॥२६ कोये अनन्तकाल बहु खेद, आतम तत्त्व न जानेउ भेद । जब लो दरशन प्रतिमा तणी, प्रापति भई न जिनवर भणी ॥२७ तातै फिरियो चतुर्गति मांहिं, पुनि भवदधि भ्रमिहै सक नाहिं। प्रावर्तन कीये बहु बार, फिर करिहै जिसके नहिं पार ॥२८ आठ मूल गुण प्रथम ही सार, वरनन कीयो विविध प्रकार । तातें कथन कियो अब नाहि, कहै दोष पुनरुक्त लगाहिं ।।२९ कुविसन सात कह्यों विस्तार, जूआ मांस भखिवो अविचार । सुरापान चोरी आखेट, अरु वेश्या सों करियों भेंट ॥३० इनमें मगन होइ करि पाप, फल भुगते लहि अति सन्ताप । तिनके नाम सुनो मतिमान, कहिहों यथा ग्रन्थ परिमाण ॥३१
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष पाण्डु-पुत्र जे खेले जुबा, पांचों राज्य-भ्रष्ट ते हुआ। बारह वरष फिरे वनमाहिं, असन-वसन दुख भुगते ताहिं ॥३२ मांस-लुब्ध राजा बक भयो, राजभ्रष्ट है नरकहिं गयो । तहाँ लहे दुख पंच प्रकार, कवि ते न कहि सके विसतार ॥३३ प्रगट दोष मदिरा ते जान, नाश भयो यदुवंश बखान । तपधर अरु हरि-बलि नीकले, बाकी अर्गान द्वारिका जले ॥३४ वेश्या लगन केरि हित लाय, चारुदत्त श्रेष्ठी अधिकायकोड़ि बत्तीस खोई दीनार, द्रव्य-हीन दुख सहै अपार ॥३५ षट्षंडी सुभूमि मतिहीन, विसन अहेडा में अतिलीन । पाप उपाय नरक सो गयो, दुख नानाविधि सहतो भयो ॥३६ पर-वनिता की चोरी करी, रावण मति हरि निज मति हरी। राम रु हरि सों करि संग्राम, मरि करि लहों नरक दुख धाम ||३७ पर-युवती को दोष महन्त, द्रुपदसुता सों हास्य करंत । कीचक फल पायो तत्काल, रावणनेहु गनिये इह चाल ॥३८ आठ मूल गुण पालै तेह, विसन सात को त्यागी जेह । अरु सम्यक्त जु दृढ़ता धरै, पहिली प्रतिमा तासों परै ॥३९
दोहा
प्रथम प्रतिज्ञा इह कही, श्रावक के मुख जान । अब दूजी प्रतिमा कथन, कछु इक कहों बखानि ॥४०
__ छंद चाल तह पाँच अणुव्रत जानो, गुणव्रत पुनि तीन बखानो। शिक्षाव्रत मिलि के च्यारी, दूजी प्रतिमा को धारी ॥४१ बारा व्रत बरनन आगे, कोनो चित धरि अनुरागे । पनरुक्त दोष तें जानी. दजा नहिं कथन कथानी॥४२ तीजी प्रतिमा सामायिक, भविजन को सर शिवदायक। आगे बारा व्रत माहीं, बरनन कीनो सक नाहीं ॥४३ चौथी प्रतिमा तिहि जानो, प्रोषध तसु नाम बखानो। बरनन सुनिवे को चाव, द्वादश ब्रत मधि दरसाव ॥४४ पंचम प्रतिमा वड़भाग, सुनि सचित करो परित्याग ।
काचो जल कोरो नाज, फल हरित सकल नहीं काज ॥४५ सब पत्र शाक तरु पान, नागर बेलि अघ थान । सह कंद मूल हैं जेते, सूके फल सारे तेते ॥४६
अरु बीज जानिये सारे, माटी अरु लूण विचारे। करि त्याग सचित व्रत धारी. पंचम प्रतिमा तिहिं पारी ॥४७ . दिन चढ़े घड़ी दोय सार, पछिलो दिन बाकी धार । इतने मधि भोजन करिहै, छट्ठी प्रतिमा सो धरि है ॥४८
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श्रावकाचार-संग्रह
मरयादा धरवि आहार, चारों को करि परिहार । तियको सेवे दिन नाहीं, छट्ठी प्रतिमा सो धरांही ॥४९ प्रतिमा छह तो जो जीव, समकित जुत धरै सदीव । तिह श्रावक जघन्य सुजाणि, भाषै इम जिनवर वाणि ॥५० श्रेणिक नृप प्रसन कराही, श्री गौतम गणधर पाहीं । ब्रह्मचर्य नाम प्रतिमा की, कहिये प्रभु कथन सु ताको ॥५१ सुनिये अब श्रेणिक भूप, सप्तम प्रतिमा को सरूप । मन वच क्रम धारि त्रिशुद्ध, नव विधि जो शील विशुद्ध ॥५२ निज पर बनिता सब जानी, आजनम पर्यन्त तजानी । अब नव विधि शील सुनीजे नित ही तसु हृदय गणीजे ।।५३ मानवणी सुर-तिय जाणी, तिरयंचणी त्रितय बखाणी । ये तीनों चेतन वाम. मन वच क्रम तजि दख धाम ॥५४ पाषाण काठ चित्राम, तजिये मन वच परिणाम । नव विधि ब्रह्मचर्य धरीजे, सप्तम प्रतिमा आचरीजे ॥५५ निज घर आरम्भ तजेई, परकों उपदेश न देई । भोजन निज पर घर माहीं, उपदेश्यो कबहु न खाहीं ॥५६ व्यापार सकल तजि देई, सो स्वर्गादिक सुख लेई । प्रतिमा इह अष्टम नाम, आरम्भ-त्याग अभिराम ॥५७ नवमी प्रतिमा सुनि जान, नाम जु परिगह परिमान । निज तनपै वसन धराही, पठने को पुस्तक ठाहीं ॥५८ इन बिन सब परिग्रह त्याग, मध्यम श्रावक बड़ भाग । दिव लांतब अर कापिष्ठ, तह लों सुख लहै गरिष्ठ ॥५९ प्रतिमा अनुमति तस नाम, दशमी दायक सुख धाम । उपदेश न निज घरि परि-गेह, ले जाय असन को जेह ॥६० तिनके सो भोजन लेह, उपदेश्यो कबहु न खं है। निज जन अरु परजन सारे, उपदेश न पाप उचारे ॥६१ जाको परिग्रह मुनि लेई, पीछी कमंडल सु धरेई । कोपीन कणगती जाके, छह हाथ वसन पुनि ताके ॥६२ एती परिगह मरजाद, गहि है न अवर परमाद । एकादश प्रतिमा धारै, भाखै जिन दुय परकारै ॥६३ प्रथमहि क्षुल्लक ब्रह्मचार, उत्कृष्ट ऐलक निरधार । क्षुल्लक संख्या परमाण, कपडो षट हाथ सुजाण ॥६४ इकपटो न सीयो जाके, कोपीन कणगती ताकै । कोमल पीछी कर धारे, प्रति लेखि रु भूमि निहारै ॥६५ शौचादि निमित्त के कार्ज, कमंडल ताके ढिग बाजे। आहार निमित्त तसु जानी, मुकते घर पंच बखानी ॥६६
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किशनसिंह-कत क्रियाकोष उत्कृष्ट ऐलक बत धारी, जिनकी विधि भाष्यो सारी। मठ मंडप बन के माहीं, निश दिन थिरता ठहराहीं ॥६७ कोपीन कणगती जाके, पीछे कमंडल है ताके। परिगह एतो ही राखै, इम कथन जिनागम भाखे ॥६८ भोजन सो करिय उदंड, घर पंच तणी थिती मंड । चित धरम ध्यान में राखै, आतम चितवन रस चाखे ॥६९ सुनिये श्रेणिक भूपाल, दर्शन प्रतिमान विसाल। तिह बिनु दस प्रतिमा जानी, निरफल भाषी जिन वाणी ॥७० वासन की बोलि करीजे, उपग उपरीज धरीजे । नीचे हुई जर जर वासन, ऊपर ले भाजन की आसन ७१ सब फूट जाय छिन माहीं, समरथ बिनु कवन रखाहीं। प्रथमहिं दर्शन दिढ़ कोजे, पीछे व्रत और धरी जे ॥७२ एकादश प्रतिमा सारी, ताकी गति सुन सुखकारी। जावे षोड़शमें स्वर्ग, भव दुइ तिहुँ लहि अपवर्ग ॥७३ दशमो प्रतिमा को धारी, क्षुल्लक अरु ऐलक विचार । उत्कृष्ट सरावक एह, भाषे जिनमारग तेह ।।७४
दोहा प्रतिमा ग्यारा को कथन, जिन आगम परमाण । परि पूरण कोनों सबै, किसन सिंघ हित जाण ॥७५
इति प्रतिमा ग्यारा को कथन ।
अब दानादिकार । दोहा आहार औषध अभय पुनि, शास्त्रदान ये चार । श्रावक जन नित दीजिये, पात्र-कुपात्र विचार ॥७६ आगें अतिथि विभाग में, वरनन कीनों सार । इहाँ विशेष कीनों नहीं, दूषण लगै दुवार ।।७७ जो इच्छा चित सुननिकी, पूरब को वृत्तन्त । देखि लेहि अनुराग धरि, तातें मन हरषन्त ॥७८
अथ जल-पालन-कथन । दोहा अब जल-गालण विधि प्रगट, कही जिनागम जेम ।
भाषों भविजन सांभलो, धारो चित धरि पेम ॥७९ दोय घड़ी के आंतरै, जो जल पीवै छान । परम विवेकी जुत दया, उत्तम श्रावक जान ॥८०
छन्द चाल नौतन वस्तर के मांही, छानो जल जतन कराही । गालन जल जिहिं वारे, इक बूंद मही नहिं डार ।।८१ कोहू मतिहीन पुराने, वस्तर माहीं जल
छानें। अर बूंद भूमि पर नाखें, उपजे अघ जिनवर भाखें ॥८२
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श्रावकाचार-सग्रह
तिन मांही जीव अपार, मरि हैं संसै नहिं धार । जाके करुणा न विचार, श्रावक नहिं जानि गंवार ।।८३ धीवर सम गिनिये ताहि, जल को न जतन जिहि पाहि । द्वय द्वय घटिका में नीर, छाणे मतिवंत गहीर ।।८४ अथवा प्रासुक जल करि के, राखं भाजन में धरि के। गृह-काज रसोई माहै, प्रासुक जल ही वरता है ।।८५ अनछाण्यो वरते नीर, ताको सुनि पाप गहीर । इक वरषि लगे जो पाप, धीवर कहि है सो आप ॥८६ अरु भील महा अविवेक, दौं अगनि देय दस एक । दोवनि को अघ इक वार, कीये है जो विस्तार ॥८७ अनछाण्यो वरते पानी, इस सम जो पाप बखानी। ऐसो डर धरि मन धीर, विनु गालें वरते न नीर ।।८८
उक्तंचसंवत्सरेण मेकत्वं चैवर्तकस्य हिंसकः । एकादश दवादाहे अपूत-जल संग्रही ।।८९ लतास्यतन्तुगलिते ये विन्दौ सन्ति जन्तवः । सूक्ष्मा भ्रमरमानापि, नैव मान्ति त्रिविष्टपे ॥९०
अडिल्ल मकड़ी का मुख थकी तंत निकसै जिसौ, तिहि समान जलबिन्दु तणौ सुनि एक सौ। तामें जीव असंख उडै ह भ्रमर ही, जम्बूद्वीप न मांय, जिनेश्वर इम कही ॥९१
तथा चोक्तम् षट्त्रिंशदङ्गलं वस्त्रं चतुर्विंशतिविस्तृतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् ।।९२ तस्मिन्मध्यस्थिताञ्जीवान् जलमध्ये तु स्थाप्यते । एवं कृत्वा पिबेत्तोयं, स याति परमां गतिम् ॥१३
अडिल्ल वस्तर अंगुल छत्तीस सुलीजिये, चौड़ाई चौईस प्रमाण गहीजिये । गुढ़ी विना अतिगाढ़ौ दोबड़ कीजिये । इसे नातणे छांणि सदा जल पीजिये ।।९४ तामें हैं जे जीव जतनि करिकै सही, छांणा जलतें अधर नीर में खेपही। करुणा धरि चित नीर एम पीवे जिके, सुर पद संशय नाहिं, लहे शिवगति तिके ॥९५
चौपाई
ऐसी विधि जल छाण्या तणी, मरयादा घटिका दुइ भणी । प्रासुक कियो पहर दुय जाणि, अधिक उसण वसु जाम वखाणि ॥९६ मिरच इलायची लौंग कपूर, दरब कषाय कसे लौ चूर । इन तें प्रासुक जल कर वाय, ताको भाजन जुदो रहाय ॥९७ इतनी प्रासुक कीजे नीत, जाम दोय मध्य होइ व्यतीत । मरयादा ऊपर जो रहाय, तामें सम्मूर्छन उपजाय ॥९८
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
ire वे फिरि छान्यो नहि परे, वांके जीव कहां लों धरे ।
प्रासुक जलके भाजन मांहिं, जो कहुं नीर अगालित आहि ॥९९ ताके जीव मरे सब सही, उनको पाप कोई न इच्छही । तातें बहुत जतन मन आनि, प्रासुक करि वरती सुख दानि ॥८००
छाप्यो जल घटिका द्वय मांहि, सम्मूर्च्छन उपजै सक नाहि । आज उसन की विधि सबठौर, व्यापि रहो अति अधकी दौर ॥१ व्यालू निमित असन करि घरे, ता पीछे खीरा ठवरे । तिनमें जल तातो करवाय, निसि सवार लो सो निरवाहि ॥२ मरयादा माफिक नहिं सोय, ताकों वरतो मति भवि लोय । कीजे उसन इसी विधि नीर, जो जिन-आज्ञा-पालन वीर ||३ भात बोरिये जिह जल मांहि, वैसो जल जो उसन कराहि । आठ पहर मरयादा तास, सम्मूच्छंन पीछे ह्रूं जास li४ जो श्रावक व्रत को प्रतिपाल, तिहको निसि जलकी इह चाल । छायो प्रासुक तातो नीर, म·यादा में वरतो नोर ॥५
छन्द चाल
वीछे कपड़े जो नीर, छानें श्रावक नहीं कीर ।
मरयाद जिती कपड़ा की, तासों विधि जल छणवाकी ॥ ६ यातें सुनिये भवि प्राणी, जलकी विधि मनमें, आनी । बहु घरि विवेक जल गालै, मन वच तन करुणा पाले ॥७ पंचनिमें सो अति लाजे, बर जिन-आज्ञा सो त्याजै । सो पाप उपावे भारी, जाणो तसु हीणाचारी ॥८ यातें ल्यो वसन सुफेद, छानो जल किरिया वेद । औरनि उपदेश जु दीजे, बिनु छाणे कबहुँ नहि पीजे ॥९ श्रावक - वनिता घर मांही, किरिया जुत सदा रहाहीं । वह जतन थकी जल छाने, ताको जस सकल बखाने || १० लघु त्रिया प्रमाद प्रवीन, जलकी किरियामें हीन । ताप न छणावे पानी, वनिता सों जाण्यों स्थानी ॥११ तजि आलस अरु परमाद, गाले जल घरि महलाद । औरनिसों न हि बतरावे, जल-कण नहि पड़िवा पाव ॥१२ जल बूंद जु तनुमें परि है, अपनी निन्दा बहु करि है। दंड सकत- परमाण, पाले हिरदे जिन-आण ॥१३
दोहा जिह निवाण को नीर भरि घरमें आवे ताहि । छानि जिवाणी मेजियो, वाहि निवाणजि मांहि ॥१४
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श्रावकाचार-संग्रह
इह जल-छालण विधि कहीं, जिन-आगम-अनुसार । कहि हों कथा अणथमी, सुनियो भवि चितवार ॥१५
इति जल-गालण-विधि।
अब बनवमी-कथन । बोहा घड़ी दोय जब दिन चढ़े, पछिलो घटिका दोय । इतने मध्य भोजन करे, निश्चय श्रावक सोय ॥१६
सोरठा
सुनिये श्रेणिक भूप, निशि-भोजन त्यागी पुरुष । सुर-सुख भुगति अनूप, अनुक्रमि शिव पार्व सही ॥१७ दिवस अस्त जब होय, ता पीछे भोजन करै । वे नर ऐसे होंय, कहूँ सुनों श्रेणिक नृपति ॥१८
नाराच छन्द उलूक काक औ विलाव, गृद्ध पक्षि जानिये, वधेरु डोडु सर्प सर सांवरौ बखानिये, हवंति गोहरो अतीव पाप रूप थाइये, निशी आहार दोष ते कुजोनिकों लहाइये ।।१९
दोहा निशि वासरको भेद बिन, खात नृपति नहिं होय । सींग पूंछते रहित ही, पश जानिये सोय ॥२०
दिन तजि निशि भोजन कर, महापापि मति मूढ । बहु मोल्यो माणिक तजे, काच गहे धरि रूढ ॥२१
छन्द चाल । निशि माहें असन कराही, सो इतने दोष लहाही ! भोजनमें कीड़ी खाय, तसु बुद्धि-नाश हो जाय ।।२२ जं उदर-मांहि जो जाय, सिंह रोग जलोदर थाय । माखी भोजनमें खैहै, तलछिण सो वमन करै है ॥२३ मकड़ो आवे भोजनमें, तो कुष्ट रोग है तन में। .. कंटक रु काठ को खंड, फंसि है सो गले प्रचण्ड ॥२४ तसु कंठ विथा विसतारे, है है नहिं ढील लगारे। भोजनमें खेहें बाल, सुर-भंग होय ततकाल ॥२५ अरु अशन करत निशि मांही, वज्जादिकमें उपजाहीं। इनि आदि अशन निशि दोष, सबही हों हैं अघकोष ॥२६
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
सोरठा निशि भोजनमें जीव, अति विरूप मूरति सही। तिनमें विकल अतीव, अलप आयु अर रोग-युत ॥२७
दोहा भाग्य-हीन आदर-रहित, नीच-कुलहिं उपजाहि। दुख अनेक लहे हैं सही, जो निशि भोजन खांहि ॥२८
चाल छन्द एक हस्तिनागपुर ठांम, तस जसोभद्र नृप नाम । रानी जसभद्रा जानों, श्रेष्ठो श्रीचन्द बखानों ॥२९ तिय लिखमी मति तसु एह. नृप-प्रोहित नाम सुनेह । द्विज रुद्रदत्त तसु तीया, रुद्रदत्ता नाम जु दीया ॥३० हरदत्त पुत्र द्विज नाम, तिन चरित सुनो दुख-धाम । बीतो भादोंको मास, आसोज प्रथम तिथि जास ॥३१ निज पितृ-श्राद्ध दिन पाय, द्विज पुरका सकल बुलाय । बाह्मण जीमणकों आये, बहु अशन थकी जुअ थाये ॥३२ द्विज पिता नृपतिके तांई, पोषै वहु विनो धराई । पोछे नृप-मन्दिर आयो, राजा वहु काम करायो ॥३३ तसु राज-काजके मांही, भोजन की सुधि न रहांही। बहु क्षुधा थकी दुख पायो, निशि अर्ध गयां धरि आयो ॥३४ निशि पहर गई जब एक, तसु वनिता धरि अविवेक । रोटी जीमन कूँ कीनी, वेंगण करणे मन दीनी ॥३५ हांडी चूल्हें जु चढ़ाई, पाड़ोसी हींगको जाई। इतने में हांडी मांही, मोंढक पड़ियो उछलाहीं ॥३६ तिम वेंगणा छौं के आय, मीढक मूवो दुख पाय । तब हांडी लई उतारी, रोटी ढकणो परि धारी ॥३७ कीड़ी रोटीमें आई, घृत सनमधिते अधिकाई । निशि बीत गई दो जाम, जीमण बैठो द्विज ताम ॥३८
वोहा निशि अँधियारी दीप बिनु, पीड़ित भूख अपार | जो निशि भोजी पुरुष हैं, तिनके नहीं विचार ॥३९ रोटी मुखमें देत ही, चींटी लगी अनेक । विप्र होंठ चटको लियो, बड़ो दोष अविवेक ।।४० बैंगण को लखि मीढको, विस्मय आण्यो जोर । तातें अघ उपज्यो अधिक, महा मिथ्यात अघोर ॥४१
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श्रावकाचार-संग्रह
अडिल्ल
कालान्तर तजि प्राण भयो घूघू जबे, तहाँ मरण लहि सोई नरक गयो तबै । पंच प्रकार अपार लहै दुख ते सही, निकलि काक मर जाय ठई दुख की गही ॥४२ तिह वायस चउपद अनेक जु सताइया, विष्टादिक जे जीव चित्त ते पाइया । प्रचुर आयुतें पाप उपाय मूवो जदा, नरकि जाय बहु आयु समुद भुगतं तदा ॥४३ तिहर्ते निकसि बिलाव भयो पापी घनौ, मूसा मींढक आदि भखै कहलों गनौ । नरक जाय दुख भुंजि ग्रद्ध पक्षी भयो, प्राणी भखे अनेक नरक फिर सो गयौ ॥४४ निकसि नरकतें पाप उदै संवर भयो, तिहं भखो जोव अपार नरक पंचम गयो । निकलि सूर है जीव भखे तिनकों गिनं, अघ उपाय मरि नरक जाय सहि दुख धने ॥४५ अजगर लहि परजाय मनुष तिरयग ग्रसे, नरक जाय दुख लहे कहे वाणी इसे । निकलि वघेरो थाय जीव बहु खाइया, पाप उपाय लहाय नरक दुख पाइया ॥ ४६ गोधा तिरयग जमति निकसि तहते भयो, बहुत जंतुकों भखि नरक पुनि सो गयो । मच्छ तणो परजाय लई दुख की मही, लघु मच्छादिक खाय उपाये अघ सही ॥४७ सो पापी मरि नरक गयो अतिघोर में, स्वासति निमिष न लहै कहूं निशि भोर में । तहं भुगते दुख जीव याद जो आवही, निशि न नींद दिन नीर अशन नहि भावहीं ॥४८
चौपाई
૬૬
निशि- भोजन- लंपट द्विज भयो, महापाप को भाजन थयो ।
दस भव तिरयग गति दुख लह्यो, तिम दस भव दुख नरक निसर्यो ॥४९
नरक थकी नींकलिकेँ सोई, देस नाम करहाट सुजोई।
कौसल्या नगरो नरपाल, है संग्रामसूर गुणमाल ॥५० तसु पटतिया वल्लभा नाम, राजा-सेठ श्रीधर है ताम । श्रीदत्ता भार्यां तिह तणी, राजपुरोहित लोमस भणी ॥५१ प्रोहित वनिता लाभा नाम, महोदत्त सुत उपज्यो ताम | सात विसन लंपट अधिकानी, रुद्रदत्त द्विज कोवर मानी ॥ ५२ महीदत्त कुविसनतें जास, पिता लक्ष्मी सब कियो विनास । जूवा वेश्या रमि अधिकाय, राजदंड दे निरधन थाय ॥५३ घर में इतो रह्यो नहि कोय, भोजन मिलिये हूं नहिं जोय । तब द्विज काढ़ि दियो घर थकी, गयो सोपि मामा घर तकी ॥५४ मात आदर नहि दियो, बहु अपमान तास को कियो । भाग्य होन नर जहँ, जहं जाय, तह-सहं मान हीनता थाय ॥५५ सर्वया
जा नस्के सिर टाट सदा रवि-ताय थकी दुख जोरी लहै है, पादप चील तणी तकि छांइ गये सिर चीलकी चोट सहे है। ता फलतें तसु फाटि है सीस वेदनि पाप उदे जु गहे है, भाग्य विना नर जाय जहाँ, तहं आपद थानक भरिही रहे है ॥५६
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
मातुल तास महीदत्त सीस नवाय दियो अब हो। पूरव पाप किये में कोन सुभाषिये नाथ वहै सब ही ॥५७
दोहा कौन पापते दुख लह्यो, सो कहिये मुनि नाह । सुख पाऊं कैसे अब, उहै बतावो राह ।।५८
सवैया तेईसा सो मनिराज कह्यो भो वत्स सुपूर बे पाप कहां तज याही, प्रोहित नाम यो रुद्रदत्त महीपति के हथनापुर माहीं। सो निशि-भोजन लंपट जोर विपीलक कीट भखै अधिकाहीं, सो जन रात-समय इक मींढक बैंगण साथ दियो मुख माहीं ।।५९
अडिल्ल तास पाप के उदय मरिवि घूघू भयो, नरक जाय पुनि काग होय नरकहिं गयो।
द्वै विलाप लहि नरक जाय संवर भयो, नरक जाय कै ग्रद्धपक्षि नरकहिं लह्यो ।।६० निकलि सूकरो होय नरक पद पाइयो, है अजगर लहि नरक वषेरो थाइयो। श्वभ्र जाय फिर गोधा तिरयग गति पाई, नरक जाय हो मच्छ नरक पृथिवी लई ॥६१ नरक महोतें निकल महीदत्त थाइयो, उल्कादि दस तिरयग भव दुख पाइयो । नरक वार दस जाय महा दुख तें सह्यो, निसि भोजन के भई श्वभ्र दुख अति लह्यो ॥६२
दोहा
महीदत्त फिर पूछवे, निसि भोजनतें देव । नाभवमें दुख किम लहे. सो कहिये मुझ भेव ॥६३ मुनि भाषै द्विज-पुत्र सुण, निसि में भोजन खात । जीव उदरि जैहै तब, बहुविधि है उत्पात ।।६४
सवैया इकतीसा माखीतें वमन होय, चींटी बुद्धि नाश करे, जूकातें जलोदर होय, कोड़ी लूत करि है, काठ फांस कंटकतें गलमेव धावै विथा, बाल सुर-भंग करै कंठ हीन परि है। म्रमरीतें सूना होय, कसारीतें कम्पवाय, विन्तर अनेक भांति छल उर धरि हैं, इन आदिक कथन कहाँ लौं कीजे वत्स, सुन नरक तियं च थाम कहे जो ऊपर हैं ॥६५
दोहा जो कदाचि मर मनुष . विकल अंग बिनु रूप। अलप आयु दुभंग अकुल, विविध रोग दुख कूप ॥६६ इत्यादिक निशि-अशन तें, लहि है दोष अपार । सुनवि महोदत्त मुनि प्रतें, कहै देहु व्रत सार ॥६७ मुनि भार्षे मिथ्यात्व तजि, भजि सम्यक्त्व रसाल । पूरव श्रावक व्रत कहे, द्वादश धरि गुणमाल ॥६८ दर्शन व्रत विधि भाषिये, करुणा करि मुनिराज । मुझ अनन्त भव-उदधितें, तारणहार जहाज ॥६९
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श्रावकाचार-संग्रह
सोरठा दोष पच्चीस न जास, संवेगादिक गुण- हित । सप्त तत्व अभ्यास, कहै मुनीश्वर विप्र सुन ॥७०
रोहा
इस दरशन सरधान करि, निश्चै अर, व्यवहार । पूरब कथन विशेषतें, कह्यो ग्रन्थ अनुसार ॥७१
सात व्यसन निशि-अशन तजि, पालो वसु गुण मूल । चरम वस्तु जल विनु छण्यो, त्यागे व्रत अनुकूल ॥७२
चौपाई
इत्यादिक मुनि-वचन सुनेइ, उपदेश्यो व्रत विधिवत लेइ । हरषित आयो निजधर मांहि, तासु क्रिया लखि सब विसमांहि ।।७३ अहो सात 'वसनी इह जोर, अरु मिथ्याती महा अघोर ।। ताको चलन देखिये इसो, श्रोजिन आगम भाष्यो तिसो ॥७४ मात-पिता तसु नेह करेइ, भूपति ताको आदर देइ । नगरमांहि मानें सब लोग, विविध तणे बहु भुंजै भोग ।।७५ पुण्य थकी सब ही सुख लहै, पाप उदै नाना दुख सहै। ऐसो जान पुण्य भवि करो, अघतें डरपि सबै परिहरो॥७६ महीदत्त बहुधन पाइयो, ततछिन पुण्य उदै आइयो । पूजा करे जपे अरहंत, मुनि श्रावक को दान करंत ॥७७ जिनमन्दिर जिनबिम्ब कराय, करी प्रतिष्ठा पुण्य उपाय । सिद्ध क्षेत्र वंदे बहु भाय, जिन आगम सिद्धान्त लिखाय ॥७८ आप पढ़ औरनिकों देय, सप्त क्षेत्र धन खरच करेय। निशि-दिन चाले व्रत अनुसार, पुण्य उपायो अनि सुखकार ॥७९ कितेक काल गया इह भांति, अन्त समय धारी उपशांति । दरशन ज्ञान चरण तप चार, आराधन मनमांहि विचार ||८० भाई निश्चै अरु व्यवहार, धारि संन्यांस अन्तको वार । शुभ भावनितें छाड़े प्रान, पायो षोड़श स्वर्ग विमान ॥८१ सिद्धि आठ अणिमादिक लही, आयु वीस द्वय सागर भई । पांचों इन्द्री के सुख जिते, उदै प्रमाण भोगिये तिते ॥८२ समकित धरम ध्यान जुत होय, पूरण आयु करइ सुर लोय । देश अवन्ती मालव जाण. उज्जैनी नगरी सुवखाण ॥८३ पथ्वी तल तस राज करेड. प्रेमकारिणी तिय गण गेह । समकित दृष्टी दंपति सही, जिन-आज्ञा हिरदै तिन गही ।।८४ स्वर्ग सोलमें ते सुर चयो, प्रेमकारिणी के सुत भयो। नाम सुधारस ताको दियो, मात-पिता अति आनन्द कियो ॥८५ दियो दान जाचक जन जितो, माप कथन होय नहिं तितो। विधिसों पूजे जिनवर देव, श्रुत-गुरु वंदन करि बहु सेव ।।८६
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किशनसिंह-सात क्रियाकोष अधिक महोत्सव कीनो सार, सो श्रावक को माचार। वस्त्रादिक आमरण अपार, सब परिजन संतोषे सार ॥८७ अनुक्रम बरस सातकों भयो, पंडित पास पठन कों दयो। शास्त्र कलामें भयो प्रवीन, श्रावक व्रत जुत समकित लीन ॥८८ जोवनवंत भयो सुकुमार, व्याहन कीनो धरम विचार । एक दिवस वन क्रीड़ा गयो, बड़ तरु बिजरीतें क्षय भयो ॥८९ देख कुमर उपजो वेराग, अनुप्रंक्षा भाई बड़ भाग। चन्द्रकीति मुनि के ढिग जाय, दीक्षा लीनी तब सुखदाय ॥९० बाहिर आभ्यन्तर चौबीस, तजे ग्रन्थ मुनि नाये सीस। पंच महावत गुपति जु तीन, पंच समिति धारी परवीन ॥९१ इम तेरा विध चारित सजे, निश्चय रत्नत्रय सु भजे । सुकल ध्यान-बल मोह विनास, केवल ज्ञान ऊपज्यो तास ॥९२ भवि उपदेशे बहुविधि जहां, आयु करम पूरण भयो तहां । शेष अघातिय को करि नास, पायो मोक्षपुरी सुख वास ॥९३
सवैया
मोह कर्म नास भये प्रसमत्त गुण थये, ज्ञानावर्ण नास भये ज्ञान गुण लयो है, दसण आवरण नास भयो दंसण, सु अन्तराय नासतें अनन्तवीर्य थयो है। नाम कर्म नास भये प्रगटयो सुहुमत्त गुण, आयु नास भये अवगाहण जु पायो है, गोत्रकर्म नास किये भयो है अगुरुलघु, वेदनीके नासें अव्याबाघ परिणयो है ॥९४
दोहा
विवहारे वसु गुण कहे, निश्चै सुगुण अनन्त । काल अनन्तानन्त तिते, निवसें सिद्ध महन्त ॥९५
चौपाई इह विधि भवि दर्शन जुत सार, पाले श्रावक व्रत-आचार । अर मुनिवरके व्रत जो धरै, सुर नर सुख लहि शिव-तिय वरै ॥९६ निशि-भोजनतें जे दुख लये, अरु त्यागे सुख ते अनुभये । तिनके फलको वरनन भरी, कथा अणथमी पूरण करी ॥९७
दिवस उदय द्वय घड़ी चढ़त पीठे ते लेकर, अस्त होत द्वय घड़ी रहे पिछलौ एते पर। भोजन जे भवि कर तर्जे निशि चार अहार ही, खादिम स्वादिम लेप पान मन वच कर वारही ॥ सो निशि भोजन तजन वरत नित प्रति जो जिनराज बखानियो। इह विधि नित प्रति चित्त धरि श्रावक मन जिहिं मानियो ॥९८ चित्रकूत्र गिरि निकट ग्राम मातंग वसे तहें, नाम जागरी जान कुरंग चंडार तिया तहै ।
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१७०
श्रावकाचार-संग्रह
तिहि निसि भोजन तजन वरत सेठणि पै लियो,
मन वच क्रम व्रत पालि मरण शुभ भावनि कियो ॥
वह सेठ तिया उरि ऊपनि सुता नागश्रिय जानिये ।
जिन कथित धर्म विधि जुत गहिवि सुंरग तणा सुख तिन लिये ॥९९ तिरयग एक सियाल सुणिचि मुनि-कथित धरम पर, रख निसि भोजन तजन वरत दियो लखि भविवर । त्रिविध शुद्ध व्रत पालि सेठ सुत है प्रीतिकर, विविध भोग भोगए नृपति-पुत्री परणवि वर ॥ मुनिराज पास दीक्षा लई, उग्र घोर तप ध्यान सजि । वसु कर्म क्षेपि पहुंचे मुकति, सुख अनन्त लहि जगत महि ॥१०० याही व्रतको घारि पूर्व ही बहुत पुरुष तिय, तद्-भव सुर पद है त्रिविध पालिउ हरषित हिय । अनुक्रम मोक्षहि गये धरिसु दीक्षा जिनि धारी, सुख अनन्त नहि पार, सिद्ध पदके जे धारी ॥ नर-नारी अजहुं व्रत पालि हैं मन वच काय त्रिशुद्धि कर । हि धर्म देवगतिका अधिक, क्रम तें पहुँचें मुकति वर ॥१ इति अणथमी कथन ।
अथ दर्शन-ज्ञान-चारित्र-कथन
बोहा
त्रेपन किरिया के विर्षे, दरसण ज्ञान प्रमाण ।
अवर त्रितय चारित तणों, कछु इक कहों बखाण ॥२
निज आतम अवलोकिये, इह दर्शन परधान । तस गुण जाणपणों विविध, वहै ज्ञान परवान ॥३ तामें थिरता रूप रहे सु चारित होय । रत्नत्रय निश्चय यहै, मुकति - बीज है सोय ॥४
अब विवहार बखाणिये, सप्त तत्त्व परधान । निःशंकादिक आठ गुण, जुत दर्शन सुख- दान ||५ ज्ञान अष्ट विध भाषियो, व्यंजन ऊजिति आदि ।
जिन आगम को पाठ बहु, करै त्रिविध अहलादि ॥६
पंच महाव्रत गुप्ति त्रय, समिति पंच मिलि सोय । विध तेरा चारित्र है, जाणों भविजन लोय ॥७ इनको वर्णन पूर्व ही, निश्चय अरु व्यवहार । मति प्रमाण संक्षेपते, कियो ग्रन्थ अनुसार ॥८
चौपाई
त्रेपन किरिया की विधि सार, पालो भवि मन वच तन धार । सो सुर-नर-सुख लहि शिव लहै, इम गणधार गौतम जी कहै ॥९
इति त्रेपन क्रिया-कथन सम्पूर्ण ।
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किशन सिंह-कृत क्रियाकोष
अथ और वस्तु है तिनकी उत्पत्ति वगैरे कथन । अथ गोंद को उत्पत्ति
बोहा
गूद हलद अरु आँवला, निपजन विधि जे थाहि । क्रियावान पुरुषनि प्रतें, कहूँ सकल समझाहि ॥ १०
चौपाई
गू ंद खैरकॅ लागो होय, भील उतार लेतु हैं सोय । अरु अंगुली लार लगाय, इह विधि गूंद उतारत जाय ॥११ कड़ी माछर आहि अतीव, लागा रहे गूंद के जीव ।
to विवेकहीन अति दुष्ट, करुणा-रहित उतारें भ्रष्ट ॥१२ दूना में धरते सो जाय, जीव कलेवर तामें आय ।
इह विधि जाण लेहु जन दक्ष, नर-नारी सब खात प्रतक्ष ॥१३ भील जूठ यह जाणों सही, क्रियावान नर खावे नहीं । जो है सो क्रिया नसाय, अवर वरतकों दोष लगाय ॥१४
अथ अफीम की उत्पत्ति
अरु उतपत्ति अफीम जु तणी, जूठी दोष गूं दहि जिम भणी । इह अफीम में दोष अपार, खाये प्राण तजै निरधार ॥१५ अथ हल्दी की उत्पत्ति
हलद भील निज भाजन - मांहि, अपने जलतें ते औंटाहि । ता पीछें सो दें सुखाय, हलद बिके ते सब ही खाय ॥ १६ कन्दमूलतें उपज्यो सोय, भाजन भील नीरमें जोय । यामें है इतनी लखि दोष, धरम भ्रष्ट शुभ क्रिया न पोष ॥ १७ आंवला को उत्पत्ति
वरडि मांझ आँवला अपार, हीण क्रिया तामें अधिकार । हरयो आँबला भील लहाय, अपने भाजन मांहि डराय ॥१८ निज पाणीमें ले लौटाय, जमीं मांहि फिर डारें जाय । पहरि पाहनी तिन पर फिरें, फूटत तिन गुठरी नीसरें ॥ १९ अरु भीलन के बालक ताम, तिनकी गुठली बीनत जाय । लूण साथि ले खाते जाहिं, झूठ होत तामें सक नांहि ॥२० जल भाजनको दोष लहन्त, पाटा पाहनी से खूदन्त । ऐसी उत्पत्ति बुध जन जान, धर्म फले सोई मन आन ॥२१ अथ पान को उत्पत्ति
काथ खात हैं पार्नाह मांहि, तिसके दोष कहे ना जाँहि । प्रथम पान साधारण जान, राखै मास वरसलों आन ॥२२
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श्रावकाचार-सग्रह
सरद रहै तिनमें अति सदा, अस उपजै जिनवर यों वदा। हिन्दु तुरक तंबोली जान, नीर निरन्तर जिन छिटकान ॥२३ जल भाजन अशुद्ध अति जान, सारा नर मूतें तिह थान । पूँगी लौंग गरु गिरी बिदाम, डोड़ादिक पुनि लावै ताम ॥२४ चूनौं क्वाथ इत्यादि मिलाहिं, सबै मसालो पाननि माहि । धरकै बीड़ा बाँधै सोय, सब जन खात खुशी मन होय ॥२५ धरम पाप नहिं भेद लहन्त, ते ऐसे बीड़ा जुग हन्त ।। अरु उत्पत्ति क्वाथ की सुनों, अघ-दायक अति है तिम गुणों ॥२६
क्वाथ (कथा) की उत्पत्ति बिन्ध्याचल तह भील रहन्त, खैर रूख की छाल गहन्त ।
औंटावें निज पानो डार, अरुण होय तब लेय उतार ॥२७ तामें चून जु मंडवा तणों, तन्दुल ज्वार सिंघाड़ा तणों। नाख खैर जल-मांही जोय, रांध रावड़ी गाढी सोय ॥२८ ताहि सुखावें कुंडा मांहिं, उत्पति क्वाथ कहि सके नाहिं । कहूँ कहा लौं बारंवार, होय पाप लख करि निरधार ॥२९ सुख-दायक सिख गहिये नीर, दुखद पापकी छांडयो धोर । छांडें मन वच सुख सो लहै, बिनु छांडें दुर्गति को गहै ॥३० तातें सब वरणन इह कियो, सुनहु भविक जन दे निज हियो । जिह्वा-लंपटता दुखकार, संवरते सुरपद है सार ॥३१
दोहा
व्रत धारी जे पुरुष हैं, अवर क्रिया-धर जेह । तजहु वस्तु जो हीण है, त्यों सुख लहो अछेह ॥३२ अथ वरनोडी खोचला कूरेडी फली हरी वर्णन
चौपाई क्रियावान श्रावक है जेह, वस्तु इती नहिं खैहैं तेह । रांधै चून वाजरा तणों, और ज्वारि चावलकों भणों ॥३३ वरनोडी रु खीचला करै, कूरेडी फूलै हरि धरै ।। भाटै शुद्र सुखावें खाट, सीला वट वायौं सुनि राट ॥३४ इह विधि वस्तु नीपजै सोई, ताहि तजो व्रत धरि अब लोई । अरु ले जाइ रसोई मांहिं, सेक तलें क्रिया तस जांहिं ॥३५ ___अथ भड़भूज्यां के चबणों सिकावें ताका कथन भड़भूज्यो सेंकै जो धान, तास क्रिया सुनिये मतिमान । रांधा चांवल देय सुखाय, तस चिवड़ा मुरमुरा बनाय ।।३६
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष गेहूँ बाजरा की घूघरी, रांध मुरमुरा सेकें धरी। मका जवार उकालैं जाण, फूला कर बेंचें मन आण ॥३७ कर भूगड़ा सैकै चणा, मूग मोंठ चौलालिक घणा। इत्यादिक नाजहिं सिकवाय, बिकै चबैणो सब जन खाय ॥३८ शूद्र तुरक भुंज्या न्हालि, तिनके भाजन में जल घालि । करै चबैणा ताजा जानि, सबै खाय मन भ्रान्ति न आनि ॥३९ जो मन होय चबणो परै, तो खइये इतनी विधि करै। निज धरतें लीजे जल नाज, विनहिं सिकावे व्रत धरि साज ॥४० पीतल लोह चालणी मांहि, छांनि लेय बालू कड़वाहि । इह किरिया नीकी लखि रोति खाहु चबैणो मन धर प्रीति ॥४१
अथ चौला की फली, कैर करेली सांगली आदि को कथन चौल हरो चौंला की फली, आवै गांव गांव तें चली। तिनको शूद्र सिजाय सुखाय, बैंचें सो सगरे जन खाय ॥४२ जल-भाजन शूद्रन को दोष, वासी वटवोयो अघ कोष । बह दिन राखें जिम उपजाय, तिनहिं विवेकी कबहूँ न खाय ।।४३ कर करेली अरु सांगरी, शद्र उकालैं ते निज घरी । पड़ें कुंथवा वरषा काल, यह खैवो मति-हीनी चाल ॥४४ अंवहलि कैरी की जो करै, जतन थकी राखै निज धरै। जल बरसै अरु नाहीं मेह, तब लों जोग खायबो तेह ॥ ४५ वरषा काल मांहि निरधार, उपजै लट कुंथवा अपार । इन परि चौमासो जब जात, ताहि विवेकी कबहुं न खात ॥४६ नई तिली तिल नीपजै जबै, फागुण लो खाइये सबै। सो मरजाद तेल परमाण, होली पीछे तजहु सुजान ।।४७ होली पछिलौ है जो तेल, तिनमें जीव-कलेवर-मेल। यातें होली पहिलो गही, ले राखें श्रावक घर मही ॥४८ सो वरते कातिक लों तेल, तिन भवि सुनके लखिवो मेल । चरमतणी जो दै ताखड़ी, बुधजन घर राखै नहिं घड़ी ॥४९ तामें तोलै चून रु नाज, चरम वस्तु है दोष समाज । कागद काठ वांस अर घात, राखै किरियावन्त विख्यात ॥५० सिंघाड़ा अति कोमल आंहि, होली गये जीव उपजांहि । ताकी होय मिठाई जिती, खैवो जोग न भाखी तिती ॥५१ केळ करिवि घूघरी खाय, केउक सीरो पुड़ी बनाय । होली पहिली तो सब भली. खैवो जोग कही मनरली ॥५२ पी, उपजै जीव अपार, क्रिया दया पालक नर सार । तब इनकों तो भीटै नांहि, कहीं धर्म साधै तिन खांहि ॥५३
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श्रावकाचार-संग्रह दूध गिदौड़ी के गूजरी, दोहै पीछे जाय बहु धरी । निज वासण में घर ले जाहि, करै गिदौड़ी मावो ताहि ॥५४ दोष अधिक काचा पयतणों, ताको कथन कहांलों भणों। अविवेकी समझै नहिं ताहि, समझाये हम तिन ही आहि ॥५५ इतनी तो निजस्यां लखि लेहु, मावो करतां पयमें तेहु । पड़े जीव उसमें लघु जाय, अरु फिर रात तणीका बात ॥५६ ताहू में पुनि वरषा काल, पड़े जीव तिहि निसि दर हाल । माछर डांस पतंगा आदि, मावो इसो खात शुभवादि ॥५७ सदा पाप-दायक है सही, पाप-थकी दुरगति-दुख लही। लंपट भख छुट नहिं जदा, निसिको कियो न खइये कदा ॥५८ जो खैवो विनु रह्यो न जाय, तो पय जतन थकी घर ल्याय । मरयादा बीते नहिं जास, क्रिया-सहित मावो करि तास ॥५९ जिह्वा-लंपटता वशि थाय, तो ऐसी विधि करि के खाय । कोऊ छलप करैगो एम, उपदेश्यो आरंभ बहु केम ॥६० वामें काचा पयको दोष, अरु त्रस जीव-कलेवर-कोष । यातें जतन थकी जो करै, जतन साधि भाष्यों है सिरै ॥६१ जतन थकी किरिया हूँ पलै, जतन थकी अदया हूँ घटै। जतन थकी सधि है विधि धर्म, जतन मुख्य लखि श्रावक-कर्म ॥६२
शोष के घृत की मर्यादा
दोहा मरयादा सब शोध की, कहीं मूल गुण-मांहि । निहिं व्रत में भोजन करै, धिरत शोध को खाहि ॥६३
छन्द चाल घर में तो निपर्ज नाही, विकलपता लखि मोल गहाहीं। तिह शोध बखाण कूर, शुभ क्रिया न तिनकें मूर ॥६४ वास्या लघु ग्रामावास, जल आदि क्रिया नहिं तास । तिनके घर को जो धीव, धर भाजन मलिन अतीव ॥६५ ले आवै शहर मझार, बैंचेउ लोभ विचार । ड्योढ़ा दुगुणा ले दाम, लखि लाभ खुशी ह ताम ॥६६ तौलत परिहै तह माखी, करते काढे दे नाखी। जीवत मूई अहि जान, तिहि जतन न कबहूं ठाने ॥६७ परगांव तणी इह रीति, सुन शहर तणी विपरीति । बेचे दधि छाछ विनाणी, तिनके घरको घृत आणी ॥६८ खावत हैं जे मति-हीण, तसु सकल क्रिया व्रत क्षीण । निसि सो तिय दूध मंगावे, तुरतहिं नहिं अगनि चढ़ावै ।।६९
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष इह तें अघ उपजै भारी, पुनि तिह महि घृत बहु डारी। दे जामण दही जमावै, दधि मथि के घीव कढ़ावै ॥७० लूणी बहु बेला राखै, उपजौ अघ वाणी भाखै । बेचे ले बहुत पईसा, पुनि पाप जिही नहिं दीसा ॥७१ जो धिरत शोध को माँनें, व्रत में जो खैवो ठाने । दूषण ऐसो लखि ताम, जैसो घृत धरिये चाम ॥७२ सुनिये अब अघकर बात, जानत जन सकल विख्यात । निरमाय लखे है माली, भो जग सुनि लेहु विचारी ॥७३ तिन पास मंगावे घीव, अरु शोध गिनै जे जीव । तिनकी छुई जो वस्त, दोषीक गिणों जु समस्त ॥७४ आचार कहो शुभ भाय, तिनकों जो वस्तु मिटाय । आचरिये कबहूँ नाहीं, जिनवर भाष्यो श्रुत माहीं ॥७५ लघु ग्राम कोस दस वास, निज समधी तहां निवास । किंकर भेजे तापाई, व्रत जोग धिरत मंगवाई ॥७६ जाता आता बहु जीव, विनसैं मारगमें अतीव । त्रस घात मंगावत होई, सो शोध कहो किम जोई ।।७७ कोई प्रश्न करै इह जागें, श्रावक होते जे आगें । घृत खाते अक कछु नांहीं, हम मन इह शंका आंही ।।७८ ताके समझावन लायक, भाई अति ही सुखदायक । श्रावक जु हुते व्रत धारी, तिन घृत विधि सुनि यह सारी ॥७९
चौपाई जाके घर महिषी या गाय, पके ठाम तिन ही बंधवाय । सरद रहै न हि ठाम मझार, बालू रेत तहां दे डार ।।८० किंकर एक रहे तिन परै, सो तिन की इम रक्षा करै। देय बुहारी सांझ-सबार, उपजे नहीं जीव तिन ठार ॥८१ दोय-तीन दिन बीतें जबै, प्रासुक जलहिं न्हवावे तबै । परनाली राखै तिह ठाहिं, वहे मूत्र तिनके ढिंग नाहि ।।८२ वासन धर राखै तिहि तले, तामें परै मूत्र जा टले ।। सूके ठाम नाखि है जाय, जहाँ सरद कबहूँ न रहाय ।।८३ गोबर तिनको ह नित सोय, आप गेह थापै नहि कोय । औरनिको मांग्यो न हिं देय, त्रस सिताव तामें उपजेय ।।८४ बालू रेत नाखी जा मांहि, करड़ो करि सो देय सुखांहि । चरवे को रोन' न खिदाय, जल पीवे निवाण नहिं जाय ।।८५
१. बरण्य जंगल
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पावकाचार-संग्रह घरि बांधे राखे तिन सही, हरयो पास तिन नीरे नहीं। सूको पास करव खाखलो, पालो इत्यादिक जो भलो ॥८६ ले राखै इतनों घर मांहि, दोष-रहित नहिं जिय उपजांहिं । नीरे झाड़ि उपरि जो वीर, अरु विधि तें जो छांण्यो नीर ॥८७ पीवे वासन धातु-मझार, सरद न राखै माजे मार । इंधन कुंडि बाल तो जाय, रांधि कांकडा खली जु मिलाय ॥८८ खीर चरमूं विरिया जेह, देव खवाय जतन तें तेह। स्याले तापर जूठ डराय, जतन करै जिम जीव न थाय ॥८९
छन्द चाल जब महिषी गाय दुहावै, जल तें कर थनहिं धुवावै । कपड़ो चरई-मुख राखै, दोहत पय तापर नाखै ॥९० ततकाल सु अनि चढ़ावै, लकड़ी वालिर औंटावै । सखरी जामण जहं होई, तह दधि करै नहिं सोई ॥९१ पय करणे की जो ठाम, सीलो करि है पय ताम । भाजन जु भरत का मांही, जामन दे वेग जमाहीं ॥९२ जामण की जु विधि सारी, भाखी गुण-मूल मझारी । वैसे ही जामण दीजै, वहै टालिन और गहीजे ॥९३ इह प्रात तणी विधि जाणूं, अब सांझ तणी सु बखाने । सब किरिया जानों वाही, इह विधि सुध दही जमाही ।।९४ जांवणीय वरणे की जागें, तह हाथ न सखरो लागे । सो भी विधि कहहँ बखाणी, सुणिज्यो सब भविजन प्राणी ॥९५ खिड़की इक जुदी रहाही, तिह धारि किवाड़ जड़ाही।
प्रात जबे दधि आनी, मथि है सो मेलि मथानी ॥९६ सो सगली किरिया भाखी, गोरस-विधि आगे आखी। लूण्यो निकले ततकाल, औटावै सो दरहाल ॥९७ वासण में छानि धराही, हे खरच जितौ ढकवाहीं। कहां वरत, कहां सुद्ध भाय, घृत गृही सोधि को खाय ॥९८ ऐसो घृत लौवे वालो, अन्तराय सुनीति प्रतिपालो । यह कथन कियो सब सांच, यामें न अलीकी बाँच ॥९९ ऐसी विधि निपजें नाहीं, गांवन तें हूँ न मंगाही। माखन लूणी वह राई, घृत खाय सु देय दताई ॥१००० विधि वाही जेम सुल्यावै, किरिया जुत ताहिं जमावै । दधि छांछ धिरत पय लूनी, विधि कही करिय न वि ऊनी ॥१ निज घर जो घृत निपजाहीं, व्रत धरि श्रावक सो खाहीं । कर छुबै न माली व्यास, हिंसा त्रस है नहिं तास ॥२
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष प्राणी न परे जिह मांहीं, सो तो घृत सोधि कहाहीं। घृत सो निज घर निपजइये, घृत धरि सो व्रतमें पइये ॥३ निज घर घृत विधि न मिलाही, व्रत धरि तब लूखी खाहीं। अरु धिरत सोधिको खाव, व्रतमें बह हरी मंगावै ॥४ इह सोधि न कहिये भाई, जामें करुणा न पलाही। करुणा-जुत कारज नीको, सुखदाई भवि सब ही को॥५
दोहा घिरत सोधिका की सुविधि, कही यथारथ सार। अच्छी जाणि गहीजिये, बुरी तजहु निरधार ॥६
चौपाई अब कछु क्रिया-हीन अति जोर, प्रगट्यो महा मिथ्यात अघोर। श्रावक सों कबहूँ नहिं करें, आनमती हरषित विस्तरें ॥७ जैनधर्म कुल-केरे जीव, करे क्रिया जो हीण सदोव । तिन के संचय अघ की जान, कहै तासकी चाल बखाण ॥८ तिहको तजे विवेकी जीव, करवे तें भव भ्रमें अतीव । अब सुनियो बुधिवंत विचार, क्रिया हीन वरणन विस्तार ॥९
इति सोधिका घृत-मर्यादा कथन सम्पूर्ण ।
अथ मियामत कथन । दोहा मिथ्यामति विपरीत अति, ढूढ़ा प्रकटा जेम । तिनि वरन संक्षेपते, कहों सुनी हो नेम ।।१०
चौपाई स्वामी भद्रबाहु मुनिराय, पंचम श्रुतकेवलि सुखदाय । मुनिवर अवर सहस चौबीस, चउ प्रकार संघ है गणईश ॥११ उज्जयनी में जिनदत सार, ताके भद्रबाहु मुनि तार । चारिया कौं पहुंचे तहं गणी, झूलत बालक बच इम भणी ॥१२ गच्छ गच्छ विधि नहीं आहार, वारे वरष लगै निरधार । अंतराय मुनिवर मनि आन, पहुंचे संघ जहां वन थान ।।१३ स्वामी निमित लख्यी ततकाल, पड़िहै बारा वरष दुकाल । मुनिवर-धर्म सधै नबि सही, अब इहां रहनो जुगती नहीं ।१४ कितेक मुनि दक्षिण को गये, कितेक उज्जैनी थिर रहे। तहाँ काल पड़ियो अति घोर, मुनिवर क्रिया-भ्रष्ट ह्र जोर ।।१५ मत श्वेतांबर थापियो जान, गही रीत उलटी जिन वान। तिनको गच्छ बध्यो अधिकार, हुंडाकार दोष निरधार ॥१६ तिन अति हीण चलन जो गह्यो, चरित जु भद्रबाहु में कह्यो। ता पीछे पनरासे साल. कितेक वरष गए इह चाल ॥१५
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श्रावकाचार-संग्रह
लंकामत प्रगटयो अति घोर, पाप रूप जाको नहिं ओर । तिन तें ढूंढ़ा मत थाप्यो, काल दोष गाढ़ो ह वाढयो ॥१८
छन्द बाल पापी नहिं प्रतिमा माने, ताकी अति निन्दा ठाने । जिनगेह करन की बात, तिनको नहिं मूल सुहात ॥११ जात्रा करवो न बखाने, पूजा करिवो अवगाने । जिन-बिम्ब प्रतिष्ठा भारी, करिवो नहिं कहे जगारी ॥२० जिन भाष्यो तिम अनुसारी, रचिया मुनि ग्रन्थ विचारी। तिनकों निंदै अधिकाई, गौतम बच ए न कहाई ॥२१ ऐसे निरबुद्धी भाषे, कलपित झूठे श्रुत आषे । सबको विपरीत गहावे, निज षोटे मारग लावे ॥२२ जिय उत्पत्ति मेद न जाने, समकितहू को न पिछाने । गुरु देव शास्त्र नहिं ठीक, किरिया अति चले अलीक ॥२३ निजको माने नहिं गुणथान, छट्रो मुनि पद सरधान ।। जामें मुनि गुण नहिं एक, मिथ्या निज मति की टेक ॥२४ मुनि नगन रूप को धारै, चारित तेरह विधि पारे । षटकाय दयावत राखे, नित वचन सत्य जुत भाखै ॥२५ आदान अदत्तहि टारे, सीलांग भेद विधि पारे। त्यागे परिग्रह चौवीस, गोपें तिहुँ गुपति मुनीस ॥२६ ईर्यापथ सोधत चाले, हित मित भाषाहि संभाले। श्रावक धरि असन जु होई, विधि जोग जेम निपजोई ॥२७ भोजन के दोष छियाली, निपजावे श्रावक ठाली। चरिया को मुनिवर आही, श्रावक तिन ले पडिगाही ॥२८ मुनि अंतराय चालीस, ऊपर छह ठालीज तीस । पावे तो लेहि अहार, इम एषणा समिति विचार ॥२९ आदान निक्षेपण धारे, पंचम समिति बिध पारे। इम चारित तेरह भाषे, जैसे जिन-वानी आषे ॥३० गुण मूल अट्ठाइस धारी, उत्तर गुण लख असि चारी। गिरि शिखर कंदरा थान, निरजन धरिय सुध्यान ॥३१ ग्रीषम गिरि सिर रवि-ताप, सिलाक परि ठाढ़े आप । वरषा रितु तरु-तल ठाढ़े, उपसर्ग सहे अति गाड़े ॥३२ हिम नदी तलाब नजीक, मनि सहहि परीषह ठोक । निज बातम सों लव लागी, पर वस्तु सकल परित्यागी ॥३३ पूजक निंदक सम जाके, तण कनक समान जु ताके। इत्यादिक मुनि गुणधार, कहतें लहिये नहिं पार ॥३४
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष इनतें उलटी जे रोत, धार दढ़िया विपरीत । आहार जु सीलो बासी, रोटी राबड़ी सगरासी ॥३५
कांजी दुय तिय दिन केरी, बहु त्रस जोवनि की बैरी।
तरकारी हरित अनेक, ले पापी धरि अविवेक ॥३६ आदो कंदो अर सूरण, मूला त्रस थावर पूरण । ए लेय अहार मझारी, बहु केम दया बिन पारो ॥३७ आथाणो त्रस जिसधाम, फासू गिनि लेहे ताम । फुनि काचो दूध महाई, बहु बार लगे रखवाई ॥३८
दुय घडो गए तिह माहीं, पंचेंद्री जिय उपजाहीं।
महिषी मौतणो जु खीर, तैसे ह जीव गहीर ॥३९ इह भेद मूढ नहिं जानें, अघ-वाल अघ न बखानें । पंचेंद्री तामें थाई, सुलों फांसु गणवाई ॥४०
जिय अन्नतणी दुय दाल, दधि छांछि मांहि दे डाल । सो भोजन बिदल कहांही, खाये ते पाप बढ़ाही ॥४१ अन्न दाल छाछि दधि जेह, मुख-लाल मिले तब तेह। उतरता गला मंझारी, पंचेन्द्री जिय निरधारी ॥४२ उपजे तामाहे जानो, मन में संशय नहिं आनो। सो खैहै ढूंढ्यो पापी, करुणा तिन निश्चै कांपी ॥४३ कब खादि अखादि विचारी, उंठ्या समझे न गवारी।
अघ उपजे वस्तु जु माहीं, भाष्यो सुनि लेहु तहांहीं ॥४४ ऐसो पापी मुख देखे, ह पाप महा सुविशेखै । ऐसे कर अघ आचार, तिन माने मूढ़ गवार !!४५
धोवण चावल हांडी को, तिन ले गिन फासू नीको। सीले जल अन्न मिलाई, तामें बहु जीव उपजाई ॥४६ रवि उदय होत तिह बार, घरि घरि भटकै निरधार । जल ल्यावे फासू भाखे, तिह सांझ लगे धरि राखे ॥४७ उपजे ता माहे जीव, घटिका दुइ मांहि अतीव । सो बरते पीवे पानी, करुणा न तहां ठहरानी ॥४८ घृत जल धरि तेल सुचाम, सो बहु जीवन को धाम।
तिनते निपज्यो जु अहार, सो मांस-दोष निरधार ॥४९ ऐसो दोष न मन आने, तिनको हो नरक पयाने। ढूंढा अधकेरी मूरत, इन माने पापी धूरत ॥५० झूठी को सांच बखाने, उपदेश सु झूठो ठाणे । झूठो मारग जु गहावे, सो झूठ दोष को पावै ॥५१
शीलांग हजार अठारा, लागै तिन दोष अपारा । परिग्रह को ठीक न कोई, कपड़ा पात्रादिक होई ॥५२ ऐसो धरि भेष जु होन, माने तिन मूरख दीन । ग्यारा प्रतिमा प्रतिपालक, कोपीन कमण्डल धारक ॥५३ कोमल पीछे है जाके, श्रावक व्रत गिनिये ताके। परिग्रह तिल तुस सम होई, मुनिराज धरै जो कोई॥५४ वह जाय निगोद मझारी, जिन वाणी एक उचारी। सो कपड़ा की कहां रीत, चौथो पात्र विपरीत ॥५५
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१८.
श्रावकाचार-संग्रह
ए भ्रमें जगत के माहीं, दुख को नहिं अन्त गहाहीं। तिन कहे महाव्रत धारी, ते पापी हीणाचारी ॥५६ इन माने ते संसार, भ्रमिहै न लहै कहं पार।। मन वच तन गुपति न गोपै, पापी मुनि धरमहि लोपै ।।५७ पिरथी जिम प्रान लहाहीं, चाले तिम भागे जाहीं। ईर्या समिति जु किम पाली, प्राणी हिंसा किम टाली ॥५८ हित मित वच कबहूँ न भाखै, जिन मत में उलटी आखै । सम जिन भाषा न पले है, अदया कबहूँ न टले है ।।५९ किम एषण समिति सधै है, जिनके इम पाप बंधैं है । जो दोष रहित आहार, नवि जाने वसु विध सार ॥६० मुनि अन्तराय जे होई, तिन नाम न समझे कोई। कुल ऊँच नीच नहिं जाणे, शूद्रन के असन जु आणें ॥६१ तंबोली जाट कलाल, गूजर अहीर वनपाल । खतरी रजपूत रु नाई, परजापति असन गहाई ॥६२ तेली दरजी अर खाती, छिपादिक जाति बहु भांती । मदिरा हू को जो पीवे, आमिष हु भखे सदीब ॥६३ भोजन मित भाजन केरो, ल्यावें अतिदोष घनेरो। तिन भींटो भोजन खैहै, ते मांस दोष को पैहै ।।६४ तो भोजन की कहं बात, जाने सब जगत विख्यात । जिहं भाजन अशन कराही, आमिष तिह मांझ धाराहीं ॥६५ जिन मारग एम कहाहीं, बासन जिह मांस धराहीं। सो शुद्ध न ह चिरकाल, गहिहैं सो भील चंडाल ॥६६ तिनके घर को जु आहार, पापी ल्यावे अविचार । अरु मुनिवर नाम घरावें, सो घोर पाप उपजावे ॥६७ ते नरक निगोद मझारी, भ्रमिहै संसार अपारी। अपने श्रावक तिन भनि है, कुल ऊंच नीच नवि गिनिहै ॥६८ तिनको कुछ एक आचार, कहिए विपरीत विचार । निजको माने गुणथान, पंचम श्रावक परधान ॥६९
बोहा
खत्री, ब्राह्मण, वैश्य, फुनि, अवर, पौण बहतीस । धरम गहै ढूंढा निको, अरु तिन नावे सीस ॥६० ढंढा तिन श्रावक गिने, आप साधु पद मान । छहों काय रक्षा सवनि, उपदेशे इह बान ॥७१ दुहुने दया छह काय की पलै नहीं तहकीक । जीव धान फासू गिर्ने, वस्तु गहै तहकीक ।।७२ कथन कियो ऊपर सबै, लखहु बिबेकी ताहि । दुहुन चलन हूँ एक से, इहि मारग नहि आहि ।।७३ शुद्र करम करता जिके, निज-निज कुल अनुसार । पेट-भरन उद्यम सफल, करै दया किम धार॥७४
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किशनसिंह कृत क्रियाकोष
चौपाई गूजर, जाट, अहीर, किसान, खैती सोंचे निर निरवान । हलबाहै त्रस को है घात, कहुं वह श्रावक पद किम पात ॥७५ पवे अहाव प्रजापति गेह, अगनि निरंतर बालत तेह । होत घात सब जीवनि तनी, तिनकों कैसे श्रावक भनी ॥७६ अवर हीन कुल है अवतार, ढंढ्या मत चाले निरधार । मदिरा पीवे आमिष भखे, धरम पलति तिनके किम अखे ॥७७ विण्या बिन बीधो जो नाज, घृत गुल लूण तेल बहु साज । होय घात त्रस जीव अपारं, तिनकों श्रावक कहै गवार ॥७८ हीन करम करि पेट जु भरे, तिनपे कहुं करुणा किम परे । जैसी जात हीन निज तणी, मानें आप साध पद भणी ॥७९ तैसे ही श्रावक तिन तणे, कुकरम पाप उपावे घणे । ऐसे मत को सांचो गिणे, ते पापी इम आगम भणे ॥८०
दोहा
सांचे झूठे मत तणी, करिवि परीक्षा सार। सांचो लखि हिरदय धरो, झूटो दीजे टार ॥८१
अथ श्री प्रतिमा जी की महिमा वर्णन
दोहा श्री जिनवर प्रतिमा तणी, महिमा जो अतिसार । सुन्यो जिनागम में कथन, मति वरण्यो निरधार ।।८२
चौपाई मिथ्यादृष्टी एक हजार, तिनकी जो महिमा निरधार । एक मिथ्याती जैनाभास, सबही सरभर करे न तास ।।८३ जैनाभास सहस इक जोई, तिन सबही की प्रभुता होई। सम्यक दृष्टी एक प्रमाण, तिसहि बराबर ते नहिं जान ।।८४ सम्यग्दृष्टी गिनहु हजार, एक अणु-व्रत धारो सार । महिमा गिनहु बराबर सही, इह जिन मारग मांहे कही ॥८५ देशवती इक सहस सुजान, मुनि प्रमत्त गुणथान प्रमाण । एक बराबर महिमा धार, आगे सुनहु कथन विस्तार ॥८६ मुनि प्रमत्तधर एक हजार, तिनको जो प्रभुत्व विस्तार । इक सामान केवली सही, होय बराबर संशय नहीं ।।८७ ह्व सामान्य केवली तेह, महिमा एक सहस्र की जेह । समवसरन धारी जिन देव, तीर्थंकर इकसम गिणि एव ।।८८ परतखि समवसरण जुत होय, तीर्थकर पद धारी सोय । एक हजार प्रमाण बखान, एक प्रतिमा समानता ठान ।।८९
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श्रावकाचार-संग्रह
कोई प्रश्न करे इह जाण, तीर्थंकर इक सहस प्रमाण । प्रतिमा एक बराबर कही, इह महिरहै छहरत नहीं ॥९० ताके समझावन को बैन, कहिये है अति हो सुखदैन । त्यों प्रतिमा पूजन सरधान, अति गाढ़ी राखो प्रतिमान ॥ ९१
छन्द चाल
जिन समवसरण जुत राजे, मूरत उत्कृष्ट सुछाजै । निरखत उपजै वंराग, ह्वे शान्त चित्त अनुराग ॥९२ परतक्ष तिष्ट भगवान, समवादि सरन-जुत थान । पेखत हुलास बढ़ावं, भविजन हिरदय न समावै ॥९३ तिनकी वाणी सुनि जीव, तरिहै भव उदधि अतीव । जिनवर जब मोक्ष लहाई, तब जिन प्रतिमा ठहराई ॥९४
निरखत प्रतिमा को ध्यान, बुधजन हिय उपजै ज्ञान । तिनकों निमित्त भविजीव, जग में लहिहै जु सदीव ॥९५ प्रतिमा आकृति लखि धीर, उपजे वैराग गहीर । मन वीतरागता आनं, तप व्रत संयम को ठानें ॥९६ दरसन प्रतिमा निरधार, भविजन को नित उपगार । जिन मारम धरम बढ़ावे, महिमा नहि पार न पावे ॥ ९७ जे प्रतिमा दरशन करिहै, पूरव संचित अब हरिहै । कहिये का अधिक बखान, दायक भविजन सिरथान ॥ ९८ ऐसी प्रतिमा जुत होई, भविजन निश् चित सोई । मन वच क्रम धरिहै ध्यान, ज्यों ह्वं सव विधि कल्यान ॥ ९९ को पूछे फिर येह, कहु साखि ग्रन्थ को जेह ।
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तिनको उत्तर ये जानी, सुनियो तुम कहूँ बखानी ॥ ११०० साधर्मीद्विज सुखधाम, सहदेव नाम अभिराम ।
पूरब दिशि सेती आयो, सो सांगानेर कहायो ॥ १ पढ़ियो जो ग्रन्थ अनेक जिन मत धरे चतुर विवेक । गाथाबंध सततरि हजार, महाघवल ग्रन्थ अतिसार (२ तिहको टीका मुखदाई, लख साढ़ा तीन कहाई । ते श्लोक संस्कृत सारै, तिन कंठ भलीविधि धारे ॥ ३ तिह कथन कियो सव पाहों, महाधवल थकी मुकहांहीं । ताकी लखि बा परतीत, पूछो जिनमत बहुरीत ॥४ जिनी सांकरी विधि सेती, आगम प्रमाण कहि तेती । जैनी पंडित जु बखानी, परतखि ए भवि प्रानी ॥५ प्रतिमा दरसन सम लोक-मधि अवर न दूजो थोक । प्रतिमा पूजा जे कारक, ते होइ करम ते फारक ॥६
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१८.
किशनसिंह-कृत कियाकोष प्रतिमा की निन्दा करिहै. ते नरक निगोदे परि है। प्रावर्तन पंच प्रकार, पूरण करिहै नहिं पार ॥७ श्रावक मत जैन दिगम्बर, कुलधर्म कहो जिम जिनवर । मन वच क्रम ताहि गहै है, सुर अनुक्रम शिव पैहै ।।८ पूजा जिन प्रतिमा कोजे, पात्रनि चहुँ दान जु दीजै । तप शोल भाव-जुत पारे, अरु कुगुरु कुदेवहिं टारै ॥९ बिनु जैन अवर मतवारे, वातुल सम गनिए सारे । गहलो नर जिस तिम भाखै, कुमती जिम झूठी आखै ॥१० श्रावक कुल जिहि अवतार, जिन धर्महि तजहि गंवार । ढूंढया मतको जौलैहैं, ते नरक निगोद परे हैं ॥११ सांचो झूठो न पिछाणे, अविवेक हिये में आणे ! प्रतिमा-निंदक जे जीव, तिनको उपदेश गहीव ॥१२ ताके पोते संसार, बाकी कुछ वार न पार । चहुं गति दुख विविध भरन्तो, रुलिहै बहु जोनि धरन्तो ॥१३ यातें जे भविजन धीर, ढूढामत पाप गहीर । छांडो लखि अति दुखदाई, निहचै जिनराज दुहाई ॥१४ जिनमत हिरदय अवधारो, जप तप संयम व्रत पारो। तातें सुख लही अपार, थामें कछु फेर न सार ॥१५ इति श्री प्रतिमाजी की वर्णन तथा ढंढ्या को मत निषेधन संपूर्ण ।
चौपाई
अब कछु क्रिया-हीन अति जोर, प्रगटयो महा मिथ्यात अघोर । श्रावक लां कबहूँ नहिं करै, आन मती हरषित विस्तरै ॥१६ जैन धरम प्रतिपालक जीव, कर क्रिया जे हीन सदीव । तिनके सम्बोधन को जान, कहौं क्रियातें हीन बखान ॥१७ तिनको तजै विवेकी जीव, कर तन भव भ्रमै अतीव । अब सुनियो बुधिवन्त विचार, क्रियाहीन वरणन विस्तार ॥१८
__ अथ मिथ्यामत निषेध । चौपाई भादव गए लगै आसोज, पडिवा दिवसतणी सुनि मौज । लड़की बहुमिलि गोबर आनि, सांझी मांडे अति हित ठानि ॥१९ पहर आठ लौं राखै जाहि, फिर दूजे दिन मांडै ताहि । मांडै दिन नव नव रीति, तेरसका दिन लो धरि प्रीति ॥२० चौदस अमावस दस दिन जाहिं, सांझी बड़ी जु नाम धराहिं। मिले पांच दस प्रौढ़ा नारी, मांडै ताहि विचारि विचारी ॥२१ हाथ पांव मुख करि आकार, गोवर का गहना तनवार । उपर चिरमी जल पोस लगाय, कोड़ी फूल लगावै जाय ॥२२
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१८४
बावकाचार-संग्रह इम विपरीत करै अधिकाय, तास पापको कहें बनाय। खोड्यो बांभण सांझी लेन, आयो भावै बनिता बैन ।।२३ राति जगाव गावै गीत, ऐसी महा रचे विपरीत । करि गुलधाणी दे लाहणा, आवै सो राखै पर तणा ॥२४ सुदि पड़िवा कों ताहि उतारि, नदी ताल माहे दे डारि । ऐसी प्रभुता देखौ जास, देव मान पूजत है तास ॥२५ अरु सांझी किसकी है धिया, को षोड्यो द्विज कुण को तिया। गोबर की मांडै किम तिया, वरसा वरसी कहुं समषिया ॥२६ परगट लखि निज रां इह रोति, मांने ताहि धरै बहु प्रीति । पापी भेद लहे तसु नाहि, गोवर सरद रहै जा मांहि ॥२७ घटिका दोय बीत है जबै, तामें त्रस उपजत हैं तबै । तिनके पाप तणों नहिं पार, भव भव में दुख को दातार ॥२८ महा मिथ्यात तणो जे गेह, नरक तणो दायक है जेह । छेदन भेदन तापन जहाँ, ताडन सूलारोहण तहां ॥२९ दुख भुगते तहं पंच प्रकार, इस मिथ्यात थकी निरधार । जिन मत के धारी हैं जेह, सो मेरी विनती सुनि एह ॥३० नहीं मांडि मत पूजि लगार, इह संसार बढ़ावन हार । . आन मती पूजन मन लाय, तिनसौं कछु कहनो न बसाय ॥३१
सोरठा
दिन पनरे के मांहि, मरण दिवस पित-मात को। श्रावक जे हरषांहि, ते जिन मारगर्ते विमुख ॥३२
छंद चाल पित मात तृपति के हेत, भोजन बहुजन कों देत । कैसे तृपति आँ, तेह जिन आगम भाष्यो एह ।।३३
मुए हुए वरष घनेरे, सुख दुख भुगतै भव केरे। तहां ते वहुरि केम वह आवै, जिन मत में इह न समावै ॥३४ सुत असन करै पितु देखे, तृपति न कै परतछ पेखे । तो आन जनम कहा बात, जानो ए भाव मिथ्यात ॥३५ दूय कोस थको निज बाग, सींचे चित धरि अनुराग । रूख न बढ़वारी पावै, परभव किम तृपति लहावै ॥३६ तार्ते जिनमत में सार, ऐसो कह्यो न आचार ।
इह घोर मिथ्यात सुजाणी, तजिए भवि उत्तम प्राणी ॥३७ माठे आसोज उजारी, अरु पूजे चेत दिहारी । करि के घूघरी कसार, बांट तसु घर घर बार ॥३८ गुड घिरत सुपारी रोक, नालेर धरै दे ढोक । निज बहिन भुवा कौं देहै, धरि लोभ हिए वे लेहै ॥३९ लेने देने को पाप, मिथ्यात बढे सन्ताप । तातें जैनी है जेह, पूजो न चढ़यो कछु लेह ॥४०
सतियन की राति जगाव, पित्रनहूँ को जु मनावे । बीजासण सोकि आराधे, जागरण करै हित साधे ॥४१
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किशनसिंह-कत कियाकोष संजोड़ा अवर कंवारा. गोरणीय जिमावं सारा । तिनके करि तिलक लिलाट, पायनिदे ढोक निराट ॥४२ पैसादिक तिनकों देई, वे हरषि हरषि चित लेई। इह किरिया अति विपरीति, छांडो बुध जांणि अनीति ॥४३
| জড়িত। बीजासण को कर बिझालरो डरि धरे, सो किउ घडत घडाल पातरी हिय परे । मूढ मान तिन पूजे घर लछमी जबे, उदै असाता भये वेचि खाहे तबै ॥४४
दोहा सकलाई तिन में इसी, अविवेकीन लखांहि । मुरभख में बहु मानता, उर बख सो बिक जांहि ॥४५ खेत पालकी थापना, एम बनावे कूर । जिसा तिसा पाषाण परि, डारे तेल सिंदूर ॥४६
छन्द चाल
बैशाख में घर के बारे, पूजे दे जात विचारे। तेल वटरुवां कला तेल, ऐसे पूजा विधि मेल ॥४७ दस बीस त्रिया धरि प्रीति, गावें जु गीत विपरीति । सेवें तिह मानें हेव, सो जान मिथ्याती एव ॥४८ बहुते खेडा पुर गाम, इकसे न कही तसु नाम । तातें सकलाई माने, सुखदाता एम बखाने ।।४९ दीया सुत जो उपजांही, सुत बिन तिय कोंनि रहांही। इह झूठ थापणो जांणी, तजिये भवि उत्तम प्राणी ॥५० पाहण लघु धरें इक ठाहीं, पथवारी नाम कहांही। तिनको पूजत धरि नेह, कबहु न सुखदाता तेह ॥५१ मिथ्यात तणो अधिकार, नरकादिक दुख दातार । जिन-भाषित परचित दीज, खोटी लखि तुरत तजीजे ॥५२ आसोज है आठे स्वेत, घोटक पूजे धरि हेत । जिन राज एम बखानी, तिरयंच है पूजे प्रानी ॥५३ सो पाप अधिक उपजावे, कहते कछु और न आवे । तातें जैनी जो होय, पसु पूजि न नरभव खोय ॥५४ दुसरा हाकादिन माहीं, लाडू पीहर ले जाहीं। इह रीति तजो भवि जीव, जिन-वच धरि हृदय सदीव ॥५५ जिन चैत्यन वन के माहीं, पून्यो दिन सरद कराहीं। आगम में कहुँ न बखानी, विपरीत तजो तिह जानी ॥५६ मंगल तेरसि दिन न्हावे, वसतर तन उजले ल्यावै। आवे जब दिवस दिवाली, दीवा भरे तेल हवाली ॥५५
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२६
श्रावकाचार
निज मन्दिर ऊपर परि है, अति ही शोभा सो करि है। तिन में बहु बस को घात, अघ घोर महा उतपात ॥५८ दीवा थाली में धरिके, मिल है तसु घर घर फिर के। तिन में कछु नाहिं बड़ाई, प्राणी मरिहें अधिकाई ॥५९ पापी कछु मेद न जानें, मन में उच्छव अति टार्ने । सो पापी महा दुख पावे, भव भामरि अन्त न आवे ॥६. भरि तेल काकडा वाले, बालक हीडहि कर वाले। घर-घर लीये सो डोले, बालक हीडहि बच बोले ॥६१ वो देय पईसा रोक, ढिंग करे एकसा थोक। मरयाद भटे ता माहीं, ताकी तो कहा चलाहीं ॥६२ बह हीडमाहिं त्रस जीव, जलि हैं नहिं संख्या कीव । इह पाप न मन में आवे, सुत लखि दम्पति सुख पावे ॥६३ ते पापी जानो जोर, पडिहै जो नरक अघोर। भविजन जो निज हितदाई, किरिया इह हीण तजाई ॥६४ काती सुदि एक जानी, गोधन को गोबर आनी । सांथ्यो निज बार करावे, गोर्धन तसु नाम धरावे ॥६५ जब सांझ बैल घर आवे, पूजै तिन अति हरषावे । सांथ्यो निज पाय खुदावे, मिथ्यात महा उपजावे ॥६६ इन हीन क्रिया को धारी, जैहै सो नरक मंझारी। पकवान दिवाली केरो; करिहे धरि हरष घनेरो॥६७ दुय चार पुत्र जे थाई, तिनको दे जुदी बनाई। हांडीय भरे पकवान, पितु मात हरष चित आन ॥६८ पुत्रन सिर तिलक करावें, तिनपै तो हाट पुजानें । सिर नाय तब दे धोक, किरिया इह अघ की कोक ॥६९ व्यापारी बहीं बणावें, पूठा चमड़ा का ल्यावै। तिनको पूजत है जेह, लखि लोभ नहीं तसु एह ॥७० तिथि चौथि महाबदि मानी, व्रत पाप उदय को ठानी। दिन में नहिं लेय अहार, निशि शशि ऊगे तिहि बार ॥७१ ले मेवो दूध मिठाई, देखों विपरीत बढ़ाई। जे चौथ मास सुदि होई, करिहै जे विवेकहिं खोई. ॥७२ इम पाप थकी अधिकाई, दुरगति में बहु भटकाई । पंदरह तिथि में इह जानो, तसु कहि संकट की रानो ॥७३ पद देव मान करि पूजे, सो अति मूरखता हूज । जैनी जन को नहिं काम, मिथ्यात महा दुख धाम ।।७४
वे, तब दान देय हरषागे। तिल पाणी मांहि भराई, द्विज जनकों देय लुटाई ॥७५
संकरांति
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
मूला का पिंड मँगावे, ब्राह्मण के घरहि खिनावे । खीचड़ी बाँट हरसाव, गिन है हम पुन्य बढ़ावे ॥७६ जहँ सथावर ह्वै नाश, तह किम ह्वै शुभ परकाश । अति घोर महा मिथ्यात, जैनी न करे ए बात ॥७७ फागुण वदि चौदस दिन को, बारह मासुन में है तिनको । शिवरात तनो उपवास, कीए मिथ्या परकास ||७८ होलो जाले जिहि बारे, पूजे सब भाग निवारे । जाको देखन नहि जइये, कर जाप मौन ले रहिये ॥७९ पीछे बहुछार उड़ावे, जल तें खेले मन भावे । छाया अणछाया की नहीं ठीक, लंपट न गिने तहकोक ||८० करि चरम पोटली डोल, राखै मन करत किलोल । यदवा तदवा मुख भाखे, लघु वृद्ध न शंका राखे ॥८१ जल ना आपस मांही, नर तिय नहीं लाज गहांही । न्हावण के दिन सब न्हावे, कपड़ा उजरे तन भावे ॥८२ सबंधी गेह जुहार, करिहै फिरिहे हित धार । विपरीत लवण लखि एह, तामैं कछु नहिं संदेह ॥ ८३ मिथ्यात तणी परि पाटी, क्रिया लागे जिन वाटी । सो भव-भव की दुखदाई, मानो जिनराज दुहाई ॥८४
दोहा
चैत्र - सित आठे दिवस, जाय सीतला थान । गीत विविध बादित्र जुत, पूजे मूढ अयान ॥८५ भाष्यो रोग मसूरिया, जिन श्रुत वैद्यक माँहि । करनि कांकरा एकठा, धरी थापना आहि ॥८६ सोरठा लखो बड़ाई एह, वाहन गदहो तासको । लहै हीन पद जेह, जो लघु नर हि चढ़ाइये ॥ ८७
दोहा बालक याही रोग ते, मरै आव जिह छीन । की दीघ आयु है, सो सारे नकि सीन ॥८८ सोरठा
प्रगट भई कलिकाल, इह मिथ्यात कि थापना । जे जैनी सुविशाल, याहि न माँने सर्वथा ॥८९ मेले जे नर जहि, नहीं गीत सुनिके खुसी । टका गांठि का खांहि, पाप उपावे अधिक वे ||९०
गीताछन्द जे चैत वदि पड़वा थकी गण-गोरि की पूजा सजे । परभाति लड़की होय भेली गीत गावे मन रुचे ॥
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श्रावकाचार मालीतणी-बाड़ी पहूंचरु फूल दो बहलें करी। हरषाय मन उछाह करती आसह ते निज धरी ।।९१ पूजे तहाँ तिह दिवस सो ले फूल दोय चढ़ाय के। पाछे बनावे हेत धरि गण-गोरि गोरि अणायके । ईश्वर महेसुर करे मूरति आँखि कोंडी की करे। देखो बड़ाई नजर इमहो चित्र की थापना धरे ।।९२
नाराच छन्द वणाय तीज कों गुणो चढ़ाई पूजि के सही। बड़ी तियारु कन्यकाइ कंत बत्त को गही ॥ करें मिठान्न भोजना अनेक हर्ष मानि है। सुहाग भाव वर्त्त नाम जोषिता बखानि है ॥९३
गीता छन्द गणगोरि की पूजा किए जो, आयु, पति की विस्तरै । तो लखहु परतछि आयु छोटी प्राय मानव क्यों मरै ।। कन्या कुँवारीपणा ही ते तास पूजा आ चहैं। बारह वरष की होय विधवा क्यों न तसुकी रक्षा करै ।।९४ साहिब तणी जा करै, सेवा दिवसि निशि मन लायकै । धिक्कार तसु साहब पणो, कछु दिना सेब कराय कै।। दायक सुहागनि विरद को गहि, सकति तसु अति हीनता। सेवा करती बाल विधवा होय लहि पद-हीनता ॥९५
तोटक छन्द सिगरी नर नारि इहै दर से, धरि मूरखता फिरि के पर से । कछु सिद्ध लहं नहिं तास थकी, तिहत तजिए तनु पूजन की ।।९६
गीता छन्द भूषन वसन पहिराय, बहुविधि अधिक तिय मिलिक गही। ले जाइ पुर से निकसि बाहर पहुंचि है जल तोर ही ।। गावे विनोद अनेक विनरी नीर में तसु डारही । अति हरष धरती हरष करती आय गेह सिधारही ॥९७
बोहा इह प्रभुता सहु देखि के, गौरी ईश महेश । वाजल में खेयतें, डर न कियो लव-लेश ॥९८ रहत सकत तिह देखिये, करिविथापना मूढ़ । महा मिथ्याती जान तिन, धारे दोष अगूढ ॥९९
सोरठा इत पूजे फल येह, कुगति अधिक फल भोगवे । यामें नहिं सन्देह, जैनी को इह योग्य नहिं ॥१२०० दुर्लभ नर भव पाय, जैन धरम आचार जुत । ताको चित बिसराय, पूज करै गण-गौरिको ॥१
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष सो मिथ्यात को मूल, त्रिविधि तजी तिन सुखद लखि । होय धरम अनुकूल, ताते भव-भव सुख लहै ॥२
सर्वया ३१ चांबड़ा बराही खेतपाल दुरगा भवानी पंथवार देव इंट थापना बखानिये । सत्तनामी नाभिंगं ललितदास पंथी आदि नाना परकार भव प्रगट जानिये ॥ झाझाकलवानी डाल भेव दीप वो मुपा की मंत्र ते उतारै भूत डाकिनी प्रमानिये । एतो विपरीत घोर थापना मिथ्यात जोर अहो जैनी इन्हें कष्ट आए हू न मानिये ॥३
सोरठा पीपर तुरसी जान, एकेंद्री परजाय प्रति । इन्हें देव पद ठान, पूजै मिथ्या दृष्टि जे ॥४
सर्वया ख्वाजे मोर साह अजमेर जाकी जाति बोले पुत्र के गले में बांधी घालै चाम पाटकी । मेरे सुत जीवं नाहिं याते तुम पाय अहो सात वर्ष भए नीत पायनते बाटकी। जलालदीय पंच पीर और बड़ी परिरनै जाय करे चूरिमो कुबुद्धि जिनराटकी। फातिहा पढ़वानैं जिंदा दरवेश को जिमा इह कलिकाल रीति मिथ्यात के थाट की ॥५
दोहा तुरक आन के देब को, मानत नाहिं लमार । हिन्दू जैनी मूढमती, सेवै बारम्बार ॥६ या समान मिथ्यात जग, और नहीं है कोय । दुखदायक लखि त्यागिहै, महाविवेकी सोय ।।७
सवैया ३१ भादों बदि नौमी दिन गारिको बनाय घोड़ो तापरि चढ़ावै चहुँ बाण गोगो नाम हो । बावड़ी में मेलि कुम्भकारि तिय कर धर लोभते पुजावत फिर है धाम धाम ही ॥ ताको सुखदाई जानि मूढमती मानि ठानि देत दान पाय नमि सेवे गाम गाम ही । मिथ्यात्व की रीति एह करै निरबुद्धी जेह कुगति लहै है जेह बांका दुख पावही ॥८ भादों बदि बारस दिवस पूजै बछ गाय राति को भिजोवे नाज लाहण के काम ही। निकसैं अंकूरा तिनि मांहिं जे निगोदरासि हरष अधिक बाँ, ठाम ठामही।। जीवनि को नाश होय मानत तिवहार लोय कैसे सुख पावे सोय पशू पूजे नाम ही। महा अविचारी मिथ्याबुद्धीचारी नर नारी ऐसी क्रिया करे श्वभ्र लहे दुख धाम ही॥९
बोहा
हलद माहिं रंग सूत को, गाज लेत है तेह । सुणे कहानी खोलते. रोट करत है तेह ॥१. धोक देय पूजे तिसे, कहि सुखदाई एह । नाम ठाम नहिं देवको, भव भव में दुख देह ॥११
नारी जो गर्भ धरे है, बालक परसूत करे है। जनमें बालक जिहि बार, तसु औतिह लेत उतार ॥१२
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१.९०
श्रावकाचार
केउन के ऐसी रीति, गावै त्रिय मन धर प्रीति । गाडै चित अति हरषाई, ते ओलि हाट ले जाई ॥१३ केऊ रोटी के मांही, गाड़े के देत नखाहीं।। तामाही जीव अपार, गाढ़े सो हीणाचार ॥१४ ते अदया के अधिकारी, पावें दुरगति दुख भारी। जिनके करुना मन माहीं, ताकों दै दूरि नखाहीं ॥१५ दस दिन को हूँ जव बाल, सूरज पूजै तिह काल । लागै तसु दोष मिथ्यात, जिन मारग ए नहीं घात ॥१६ तीन्है जब न्हवण करै है, जलथानिक पूजन जैहै। जल जीवन को भंडार, एकेंद्री त्रस अधिकार ॥१७ जैनी जिनके घर मांही, संकाचित मांहि धराहीं । जलथानक जाय न दूजे, घरमाहिं परहंडी पूजे ॥१८ ताको है दोष महंत, ततक्षिण तजिए गुणवंत । दिन तीस तणो कै बाल, जिन मारग में इह चाल ॥१९ वसु दरब मनोहर लेई, चैत्याले गमन करेई । ते बालक अंक मझारी, तिह साथ चलं बहु नारी ॥२० गावै जिन गुण हरषंती, इय मंदिर जिन दरसंती। भगवंत चरण सिरनाय, पुनि नृत्य रचै बहु भाय ॥२१ बाजित विविधि के बाजे, जामों धन अंबर गाजे । जिन भाव हरखि धरि सेवै, तसु जनम सफलता लेवै ॥२२ श्रुत गुरु पूजै बहु भाई, जिनकी युति मैं मन लाई। भाषै अति उत्तम बैन, सब जन मन को सुख दैन ॥२३
दोहा जिन श्रुत गुरु पूजा पढ़े, आवे अपने गेह । यथा सकति अरथी जनहि, दान हरषतें देय ॥२४ सनमाने परिवार कों, यथायोग्य परवान । जैनी इह विध पुत्र कों, जनम महोछो ठाम ॥२५ आठ वरष लों पुत्र जो, करन पाप विस्तार । तास दोष पितु मातु को, ह है फेर न सार ॥२६ यातें सुनि निज कार मैं, राखै जे मति मान । ताहि पढ़ावै लाभ लखि, है तब विद्यावान ॥२७
अव व्याह करन की बार, किरिया जे कै अविचार । प्रथमहि जब लगन लिखावै, सज्जन दस बोस बुलावै ॥२८ चावल है जिन कर मांहीं, पूजा सब लगन कराहीं । करि तिलक बिदा तिन कीजे, मिथ्यात महा सु गिनीजे ॥२९ मांडे फिरि भीत बिनायक, कहि सिद्ध सकल सुखदायक । नर देह वदन तिरयंच, सो तो सिधि देय न रंच ॥३०
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष तातें जेनी जो होइ, ए जैन विनायक सोई। साजी अवटावे जेह, पापड़ करण को तेह ॥३१ जल तीन चार दिन ताई, राखै नहों संक धराहीं ।
बसु पहर गये तिन माहीं, सनमूर्छन जे उपजाहीं ॥३२ घर घर पहुंचावे, बहुतो सो पाप बढ़ाने । वसुजाम मांहि वह नीर, बरते जे बुद्ध गहीर ॥३३
उपरांति दोष अति होई, मरयाद तजो मति कोई। अरु वड़ी करण के ताई, भिजवाने दालि अथाहीं ॥३४ सो दालि धोय सब नाखे, बहुविरियां लगन न राखे । घटिका दुय मैं उस माहीं, सन्मूर्छन जीव उपजाहीं ॥३५ यातें भविजन मन लावे, तस तुरतहि ताहि सुकावे । धोवण को पानी जेह, नाखे बहु जतन करेय ॥३६ बसु सरद रहै नहीं जाते, बीखरिवानांसे यातें । सांझै जो दालि पिसावै, बासन भरि राति रखावै ॥३७ उपसावे अधिक खटावै, उपजे त्रस वारन पावे। फुनि लूण मसाला डारै, करते मसलें बहुबारे ॥३८ इम जीवनि मास करती, मनमाही हरष धरती । निज परतिय बहुत बुलावे, तिनपै ते बड़ी दिबावे ॥३९ सो पाप अनेक उपावे, कहते कछु ओर न पावै । करणा जाके मनि आवे, सो इह विधि बड़ो निपावे ॥४० उनहे जलवालि भिजोवे, प्रासुक जल तें फिर धोवे । किरिया को दोष न लावे, सों दिन में कलौ करावे ॥४१ ननकाल बड़ी ससु देह, उपजावे पुण्य न छेह । स्याणों जम अवर अयाणो, दुहुं व्याह करे इह जाणो ॥४२ किरिया में भेद अपार, इक सुख दे इक दुखकार । आके करुणा मनमाही, अविवेक न क्रिया कराहीं ॥४३ छाणा की गाडी आने, अविवेक की पूजा ठाने । लकडी को बम बनाव, ताको तिय पूजण आवे ॥४४ गावती गीत धनेरा, जो जो जिह थानक केरा । माटी पूजे करि टीकी, कारण लखि सबही को ॥४५ संकडी राखी दिन ऐ है, तिथंचाकि पूजणो जै हैं। तिसि को डोरे बंधवावै, परियण सज्जन मिलि आवै ॥४६ तह पूज बिनायक करिके, रोली पूजे चित धरिके। अरु बार बार बिनायक, पूजे जानो सुखदायक ॥४७ इन आदि क्रिमा विपरीति, करिहै मूरख धरि प्रीति । मिभ्यात मेव नहिं जाने, अघ को उर मन नहिं आने ।।४८
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बावकाचार
अघ त ह नरक बसेरा, वोर न आवे दुख केरा । यातें सुनि बुध जन एह, मिथ्यात क्रिया तजि देह ॥४९ तातें भव भव सुख पावे, आगम जिन राज बतावै । यातें सुख बांछक जीव, आज्ञा जिन पालि सदीव ।।५० करि है जे क्रिया विवाह, सिव मत माफिक यह राह । मिथ्यात दोष इह जाते, जैनी को वरजी यातें ॥५१ पूरब दिस ज्योतिस जैन, कछुयक उद्योत सुख दैन । रहियो दिन माफिक व्याह, जैनी धरि करे उछाह ।।५२ तामें मिथ्या नहिं दोष, सिवमत विधि हूँ नहीं पोष । जैनी श्रावक जो पंडित, जिनमत आचार जु मंडित ॥५३ ते व्याह करा आई, मन में शंका न धराई। तिन हूँ स्यों आप समाही, सुत बेटी सगपन थाहीं ।।५४ प्रथमहि जो व्याह संचैहै, जिन मंदिर पूज रच है। बाजित्र अनेक बजावें, युवती जन मंगल गावें ॥५५ कन्या वर को ले जाँही, जिन चरणनि नमन कराहीं । जिन पूजि रुआवे गेहै, पीछे विधि एम करे है ॥५६ सज्जन परिवार संतोष, ऊषित भूषित जन पोषे । जिन मत विधि पाठ प्रमाणे, अपराजित मंत्र वषाण ॥५७ वर कन्या दोहुँ कर जोड़, फेर कराय धरी कोड़। समधीजन असन करावे, दुहुँ तरफहि हरष बढ़ावे ॥५८ देवो निज सकति प्रमाण, कन्या वर भूषण दान । इह विधि जे व्याह करांही, मिथ्यात न दोष लगाहीं ॥५९ गुरु देव धरम परतीत, धारो जन की इह रीति । तिनको जस है जगमाहीं, दूषण मिथ्यात तजाहीं ॥६०
दोहा श्रो हणवन्त कुमार की, मूढनि धरि चित प्रीति । गांम गांम की थापना, महाघोर विपरीत ॥६१
चाल छन्द मूरति पाषण घडावे, तसु ऐसे अङ्ग बनावे । मानुष कैसे कर पाय, बन्दर को सो मुख थाय ॥६२ लंबी पूंछ जु अधिकाई, मूरति इस भांति रचाई । कहु इक क्षत्री जु चुणावे, कहुं मछि रचिकै पधरावै ॥६३ कहुँ चौड़े निकटाहि गाम, कहुँ कांकड़ दूरहि धाम । तिनतेल लगावे पूर, चरचे का बीरू सिन्दूर ॥६४।। कहिहै तसुखेड़ा देव, बहु जन सिंह पूजे एव । पापी जन भेद न जाने, जिह आगे अदया ठानें ॥६५
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
चौपाई
जात्री दूर दूर का घणा, आवे पार्यान में तिह तणा । जीव बद्ध करि तास चढ़ाय, निहचेते नरकहि जाय ||६६ कामदेव हणमन्त कुमार, विद्याधर कुल में अवतार । तीर्थंकर बिनु जग नर जिते, तिह-सम रूपवान नहि तिते ||६७ बन्दरवंशी खगपति जान, घुजा मांहिं कपि चिह्न बखान । माता अंजनी जाकी जानी, पवनंजय तसु पिता बखानी ॥ ६८ दादी खगपति नृप प्रहलाद, जैनधर्म घरि चित अहलाद । पाले देव गुरु श्रुत ठीक, महाशीलधारी तहकीक ॥६९ हणुकुमार दीक्षा घरि सार, मोक्ष गये सुख लहै अपार । ताको भाषै कपि को रूप, ते पापी पड़िहें भवकूप ॥७० आनमती सों कछु न बसाय, जैनी जन सों कहुं समझाय । जिनमारग में भाष्यों यथा, तिह अनुसार चलौ सरवथा ॥७१ गंगा नदी महा सिरदार, जाको जल पवित्र अधिकार । जिन पषाल पूजा तिह थाकी, करिये जिन आगम में बकी ॥७२ जैन श्रावक नाम घराय, हाड रु लावे तिह पितु माय । धन्य जनम माने जग आप, गंगा घाले माय रू बाप ॥७३ आनमती परशंसा करे, तिन वच सुनि चित हरषहि धरे । मूढ़ धरम अघ भेद न लहैं, वातुल- सम जिम तिम सरदहै ॥७४ पदमद्रह हिमवन ऊपरी, ताइहतें गंगा नोकरी । विकल स जल में नहीं होय, बहुदिन रहे न उपजे वोय ॥७५ जिस पर जाय तजै ततकाल, और ठाम उपजे दरहाल ।
हाड रुलाए गंगा माहि, कैसे ताकी गति पलटाहि ॥७६ जैनी जन तिन शिक्षा एह, जैन विरुद्ध कीजे है तेह | ते करिये नहीं परम सुजान, तिम उत्तम गति लहै पयाण ॥७७
अथ जनम मरण को क्रिया को कथन
बोहा
मरण समय कीजे क्रिया, आगमते विपरीत । पोषक मिथ्यादृष्टि की, कहूँ सुनहुँ तिन रीत !!७८
चोपाई
पूरी आयु करवि जे मरे, मेल्हि सनहती ए विधि करे । चून पिण्ड का तीन कराय, सो ताके कर पास घराय ॥७९ भ्रात पुत्र पोता की बहू, घरि नालेष्ट धोक दे सहू । पान गुलाल कफन पर घरे, एम क्रिया करि ले नीसरे ॥८१
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२४
श्रावकाचार संग्रह दग्ध क्रिया पाछे परिवार, पानी देय तब तिह बार । दिन तीजो सो तीयो करे, भात सरा इम ताके धरे ॥८१ चाँदी सात तवा परिडारि, चन्दन टिपकी दे नर नारि । पानी दे पत्थर खटकाय, जिन दर्शन करिके घर आय ||८२ सब परिजन जीमत तिहिं बार, वांबां करते गास निकार । सांझ लगै तिहि ढांकरि खाय, गाय बछाक देय खवाय ॥८३ जिह थानक मृवो जन होय, लीपै ठाम करै सुख होय । फेरे ता परि के रडी, ए मिथ्यात क्रिया अति बड़ी ।।८४ ए सब क्रिया जैन मत माँहि, निंद सकल भाषै सक नाहि । अवर क्रिया जे खाटी होय, सकल त्यागिए बुध जन सोय ॥८५ जब जिय निज तजि के परजाय, उपजे दूजी गति मैं जाय। इक दुय तिन समये के मांहि, लेइ आहार तहां सक नाहि ।।८६ गति माफिक पर्यापति धरै, अन्त मुहरत पूरो करै। जिह गति ही में मगन रहाय, पिछलो भव कुण याद कराय ॥८७ पिंड मेल्हि तिहि कारण लोय, धोक दिये जै लै नहीं सोय । पाणी देवे की जो कहै, मूए को कबहुं न पहौंचिहें ॥८८ भात सराई काकै हेत, वह तो आय आहार न लेत । जाकै निमित्त काढ़िये गास, पहुंचै वहै यहै मन आस ।।८९ सो जाणे मूरख की वाणि, मूवो गास लेय नहिं आणि । गउ के रडी गास ही खाहि, अरे मूढ किम पहुँचै ताहि ॥९० मृत्यकभूमि फिरै के रडी, सो मिथ्यात भूल अति बड़ी । उलटी किरिया ते है पाप, जो दुरगति दुख लहै संताप ॥९१ याते जैन धरम प्रति पाल, जे शुभ क्रिया अझूठी चाल । तिनहिं भूलि मति करियो कोय, जो आगम हिरदै दृढ़ होय ।।९२ पूरी आयु करिवि जिय मरै, ता पीछे जेनी इम करे । घड़ी दोय मैं भूमि मसान, ले पहुँचे परिजन सब जान ॥९३ पीछे तास कलेवर माहिं, त्रस अनेक उपजे सक नाहिं । मही जीव बिन लखि जिह थान, सूको प्रासुक ईंधण आन ॥९४ दगध करिवि आवै निज गेह, उसनोदक स्नान करेह । वासर तीन वीति है जबै, कछु इक सोक मिटण को तबै ॥९५ स्नान करिवि आवे जिन-गेह, दर्शन करि निज घर पहुँचेह । निज कुल के मानुष जे थांय, ताके घर ते असन लहाय ॥९६ दिन द्वादश वीते है जबे, जिन मन्दिर इम करिहै तबे। अष्ट द्रव्य तें पूज रचाय, गीत नृत्य वाजित्र बजाय ॥९७ शक्ति जोग उपकरण कराय, चंदोवादिक तासु चढ़ाय । करिवि महोछब इह विधि सार, पात्र दान दे हरष अपार ॥९८
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष परिजन पुरजन न्योति जिमाय, यथाशक्ति इम शोक मिटाय । अरु परिजण सूतक की बात, सूतक विधि में कही विख्यात ॥९९ ता अनुसार करे भवि जीव, हीण क्रिया को तजो सदीव ।। इह विधि जैनी क्रिया करेय, अवर कुक्रिया सबहि तजेय ॥१३००
अथ सूतक-विधि लिख्यते । उक्तं च मूलाचार उपरि भाषा
त्रोदक छन्द
इम सूतक देव जिनिन्द कहै, उतपत्ति विनास वि भेद लहै । जन में दस बासर को गनिए, मरिहै जब बारह को भनिए ॥१ कुल में दिन पंच लगी कहिये, जिन पूजन द्रव्य चढ़े नहि ये । परसूत भई जिह गेह मही, वह गाम भलो दिन तीस नहीं ॥२
चौपाई चेरी महिषी घोड़ी गाय, ए घर में परसूतिज थाय । इनको सूतक इक दिन होय, घर बारे सूतक नहिं कोय ।।३ महिषी क्षीर पक्ष इक गए, गाय दूध दिन दस गत भये । छेली आठ दिवस परमाण, पाछे पय सबको सुध जाण ।।४ जनम तणो सूतक इह होय, मरण तणौ सुनिये अब लोय । दिन बारह इह सूतक ठानि, पीढ़ी तीनि लगै इक जानि ॥५ चौथी साखि दिवस दस आय, पंचम पीढ़ी षट दिन जाय । षष्ठी साखि चार दिन कहे, साख सातमी तिहु दिन रहे ॥६ अष्टम साखि अहो निसि सोग, नवमी जामहि दोय नियोग। दसमी हीन मात्रही जाणि, सूतक गोत्रनि गहे बखाणि ॥७ करि संन्यास मरे जो कोय, अथवा रण में जूझ सोय । देशांतर में छोडै प्रान, वालक तीस दिवस लों जान ।।८ एक दिवस इनको ह सोग, आगे अवर सुनो भवि लोग। पौढ़ो बालक दासी दास, अरु पुत्री सूतक सम भास ॥९ दिवस तीन लों कह्यों बखान, इसकी मरयादा में जान । बनिता गरभ पतन जो होय, जितना मास तणी थिति सोय ॥१० जितने दिन को सूतक सही, पीछे स्नान शुद्धता लही। पति का मोह थकी तिय जरे, अथवा अपघातक जु करे ।।११ अरु निज परि मरि है जो कोय, इन तिनहूँ की हत्या होय । पखवारा सूतक ता तणों, आगे अवर विशेष जो भणों ॥१२ जाके घर के असन रु नीर, खाय न पोवै बुद्ध गहीर । अरु श्री जिन चैत्यालय मही, द्रव्य न चढे रु आवै नहीं ॥१३ बीति जाय जब ही छह मास, जिन पूजा उच्छव परकास । जामैं पंच तासु के गेह, जाति मांहि तब आवै जेह ॥१४
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श्रावकाचार संग्रह मरयादा ऐसी को छांड, और भांति करवा नहिं मांड। मो जिन आगम भाखी रीत, सो करिए नित मन धर प्रीत ॥१५
कुंडलिया सूतक क्षत्री गेह पंच वासर कह्यो, ब्राह्मण गेह मझारि दिवस दस ही लह्यो। अहो रात्रि दस दोय वैश्य घर जाणिये, सब सूद्रनि के सूतक पाप बखानिये ॥१६ ऋतुवंती तिय प्रथम दिवस चंडालणी, ब्रह्मघातिका दिवस दूसरा में भणी । त्रितिय दिवस के यांहि निदिसम रजकणी,
बासर चोथे स्नान क्रियासों सुध भणी ॥१७ जाके घर में नारि अधिक है दुष्टणी, जाकै किरिया हीण सदा पूरब भणी। व्यभिचारणि पर-पुरुष रमण मति है सदा,
ताके घर को सूतक निकर्म नहि कदा ॥१८
सोरठा को कवि कहै बनाय, ताके अवगण को कथन । प्रायश्चित न समाय, जिहि दिन दिन खोटी क्रिया ॥१९
कुंडलिया अरु जाकै घर त्रिया दया व्रत पालनी, सत्य वचन मुख कहै अदत्तहिं टालिनी। ब्रह्मचर्य को धरै सती सब जन कहै, पतिबरता पति भक्ति रूप नित ही रहै ॥२० जिनवर की सो पूज करै नित भाव सों, पात्रनि को दे दान महा उच्छाह सों। सूतक पातक ताके घर नहिं पाइये, प्रायश्चित तिय तिहि को केम बताइये ॥२१
दोहा इह सूतक वरनन कियो, मूलाचार प्रमान । तिह अनुसार जु चालिहै, ता सम और न जान ॥२२
सोरठा भाषा कोनी सार, जो मत संशय ऊपजै । देखो मूलाचार, मन संशयो भाजे सही ॥२३
इति सूतक विधि अथ तमाखू भांग निषेध वर्णनम्
चाल छन्द सुनियै बुध जन कलिकाल, प्रगटी हीणी दोय चाल । इक प्रथम तमाखू जानो, दूजी बिजियाहि बखानो ॥२४ सुनिलेहु तमाख दोष, अदया कारण अघ कोष । निपजन की विधि है जैसें, परगट भाषत हौं तैसें ।।२५
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष तसु हरित तोडि के पान, सांजी जलते छिड़कांन । गदहा को मंत्र जु नांखे, बांधिरु जुडापरि राखे ॥२६ दिन बहुत सरदता जामें, स जीव ऊपजे तामें। तिनकी अदया है भूरि, करुणा परि है नहिं मूरि ॥२७ पिरथी में आगि डराही, तिनिके जिय नास लहाही। धूवां मुखसेती निकसै, तबवाय जीव बहु बिनसे ।।२८ थावर की कौन चलावै, त्रस जीव मरण बहु पावै। दुरगन्ध रहै मुख माहीं, कारे कर है अधिकांहीं ।।२९ उत्तम जन ढिग नहिं आवै, निंदा सब ठाम लहावै । दुरगतिहिं दिखावे बाट, सुरगति को जांणि कपाट ||३० अतिरोग बढावे श्वास, ऐसें नरकी का आस। दोषीक जानि करि तजिए, जिन आज्ञा हिरदय भजिए॥३१ उपवास करै दे दान, किरिया पाले धरि मान। पीवे हैं तमाखू जेह, ताके निरफल दै एह ।।३२ अघ-तरु सिंचन जल-धार, शुभ पादप-हनन कुठार । बहु जनकी झूटि घनेरी, दायक गति नरकहि केरी ॥३३ इह काम न बधजन लायक, ततक्षिण तजिये दुखदायक। के सूंघे केक खेहैं, तेक दूषण को लैहैं ॥३४
दोहा भांग कराँभो खात ही, तुरत होत वै रोस । काम बढ़ावन अघ करन, श्री जिनवर पद सोस ॥३५ अतीचार मदिरा तणों, लागै फेर न सार । जग में अपजस विस्तरे, नरक लहै निरधार ॥३६ लखहु विवेकी दोष इह, तजहु तुरत दुखधाम षट मत में निन्दित महा, हनै अरथ शुभ काम ॥३७
मरहटा छन्द इह जगमाहीं अति विचराही क्रिया मिथ्यात जु केरी। अदया को कारण शुभगति-वारण भव-भटकावन फेरी॥ करिहै अविवेकी है अति टेकी तजिकै नेकी सार । धरि मन चित आनै अघही जाने कौन बखानै पार ॥३८ तामै रमि रहिया ग्रह ग्रह गहिया तिय वच सहिया तेह । मन में उर आने कहैं सु बखानै वचन बखानै जेह ॥ नरपद जिन पायो बृथा गमायो पाप उपायो भूरि । अस मन में रमिहै कुगुरुन नमि है भव-भव भ्रमिहै कूर ॥३९
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श्रावकाचार संग्रह
किरिया लखि ऐसी भाषी तैसी तजिय वैसी वीर। ताते सुख पावे अघ नसि जावे जो मन आवे धीर ।। जिनभाषित कीजै निज रस पीजे कुगति है दीजै नीर । भव भ्रमणहि छांडो सकतिह मांडो उतरौ भवदधि तीर ॥४०
अथ प्रहशांति जोतिष वर्णन लिख्यते
चौपाई
जोतिस चक्रतणी सुनि बात, जम्बूद्वीप माहिं विख्यात । दोय चन्द सूरिज दो कहे, जैनी जिन आगम सरदहे ।।४१ इक रवि भरत उदै जब होय, दूजो ऐरावति में जोय । दुहुनि बिदेह माहिं निसि जाणि, जोतिस चक्र फिरे इहबाणि ॥४२ भरत अरु ऐरावति निसि जब, दुहुन विदेह दुहूं रवि तबै । इक पूरब विदेह रवि जान, अपर विदेह दूसरो मान ।।४३ फिरते रवि शशि को इह भाय, आदि अन्त थिरता नहिं थाय । एक चन्द्रमा को परिवार, आगम भाष्यो पंच प्रकार ॥४४ शशि रवि ग्रह नक्षत्र जाणिये, पंचम सह तारा ठाणिए । तिनकी गिनता इह विधि कही, एक चन्द्रमा इक रवि सही ।।४५ ग्रह अठ्यासी अवर नक्षत्र, भाषै अट्ठाईस विचित्र । छासठ सहसरु नव सय सही, ऊपरि पचहत्तरिकों गही ।।४६
अडिल्ल छन्द पंच अंक इन ऊपर चौदह सुनि हिये, अंक भये उगणीस सकल भेले किये। छासठ सहसरु नव सय पचहत्तर भणे, कोड़ा कोड़ी तारा इतने गण गणे ॥४७
चौपाई एक चन्द्रमा को परिवार, तैसो दूजा को विस्तार । मेरुतणी परदिक्षणा देई, थिरता एक निमिष ना लेई ॥४८ जिन आगममें इह तहकीक, आनमतीकै सो नहि ठीक । जिन मत जोतिष विच्छिति भई, अट्टासी ग्रह भेद न लई ॥४९
दोहा प्रगटयो शिवमत जोर जब, पंडित निजबुधि धार । ग्रन्थ कियो जोतिष तणों, तिम फेल्यो विस्तार ॥५० आदित सोम रु भूमि-सुत, बुध गुरु शुक्र सुजान । राहु केतु शनि ए सकल, नव ग्रह कहे बखान ॥५१ चौथो अष्टम बारहो, अरु घातीक बनाय । साड़े साती शनि कहैं, दान देहु समथाय ॥५२
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
चालछन्द
तंदुल रूपो सित वास, रवि शशि को दान प्रकास । तो कपड़ो गोधूम, तांबो गुलद्यौ सुत भूम ॥५३ बुध केतु दुहुँ इकसेही, मूंगादि कख्यों इत देही । गुरुज वसन द्यौ म अरु दालि वनन करि प्रेम ॥५४ जिम कहे शुक्र को दान, तिमही दे मूढ़ अयान । शनि राहु श्याम भणि लोह, तिल तेल उड़द तद्योह ||५५ हस्ती अरु घोटक श्याम, जुत श्याम विलरथ नाम । इत्यादिक दान बखाने, ग्रह शान्ति निमित मन आने ॥ ५६ नवग्रह सुरपद के धारी, तिनके नहि कवल अहारी । किह काज नाज गुल है, सुर किम हि तृपतिता है ॥५७ हाथी घोड़ा असवारी, तिनि निमित देह उर धारी । वन के विमान अतिसार, सुवरण नग जड़ित अपार ॥५८ भूपरि कछु पाय न चाले, किह कारण दानहि झाले । तातें ए दान अनीति, शिवमत भाषै विपरोति ॥५९ बालक जनमें तिय कोई, मूला असलेखा होई । दिन सात बीस परभाणै, वनिता नहि स्नान जु ठानं ॥६० पति पहिरै वसन मलीन, बालक निज स्वाद नवीन । सिर दाढ़ी केस न ल्यावे, स्नानहुँ करिवो नहि भावै ॥ ६१ दिन है सब जाय वितीत, किरिया बहु रचे अनीति । द्विज को निज गेह बुलावे, वह मूला शांति करावे ॥६२ तरु जाति बीस पर सात, तिनके जु मंगावे पात । इतने ही कूवा जानी, तिनको जु मंगावे पानी || ६३ इतने ही छाहि जु केरा, सो फूस करे तस भेरा । अरु सताईस कर टूक, सीधा इतने ही अचूक ॥६४
दक्षिणा एती जु मंगावे, सामग्री होम अनावे |
करि अगिनि बाल अगियारी, घृत आदिक वस्तु जु सारी ॥ ६५
होमें करि वेद उचारे, इह मूल शांति निरधारे ।
पाछे फिर एम कराई, वह फूस जो देय जलाई ॥६६ बालक पग तेल जु माहीं, परियण को देहि बुलाई । सबहीनें बालक के पाय, कहि ढोल द्योह सिरनाय ॥६७ सब मुख वच एम कहावे, हमते तू बड़ो कहावे । ऐसी विधि शिवमत रीति, जेनी करिहै धरि प्रीति ॥६८ धरम न अर्थं भेद लहाहीं, किम कहिए तिन शठ पाहीं । ते अघ उपजावे भारी, तिनके शुभ नहीं लगारी ॥६९
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३.
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श्रावकाचार संग्रह
गुरुदेव शासतर प्रीति, धरिहै जे मन धरि प्रीति । तें ऐसी क्रिया न मंडे, अघ-कर लखि तुरतहिं छंडे ॥७० सतबीस नक्षत्र जु सारे, बालक कै सकल मझारे । जाके शुभ पूरव सार, सो भुगते विभव अपार ॥७१ जाके अघ है प्राचीन, सोइ यहै दलिद्री हीन । ए दान महादुख दाई, दुरगति केरे अधिकाई ॥७२ . मिथ्यात महा उपजावे, दर्शन सिव-मूल नसावे । निज हित बांछक जे प्रानी, ए खोटे दान बखानी ।।७३ जिनमारग भाष्यो एह, विधि उदै आय फल देह । तेसो भुगते इह जीव, अधिको ओछो न गहीव ॥७४ जाके निश्चय मन माहीं, विकलप कबहूं न कराहीं । मन मांहि विचारै एह, अपनो लहनो विधि लेह ॥७५
बोहा निमित तास चित पूजसी, अधिका जे द्रव्य लाय । कोटि जनम करतो रहो, ज्यों को त्यों ही थाय ॥७६ ग्रह की शांति निमित जो, विकलप छूटे नाहि । भद्रबाहु कत श्लोक में, कहो जेम करवांहि ॥७७
बडिल्ल नमसकार कीरति न जगत गुरु पद लही, सद गुरु मुखत कथन सुण्यो जो होहि सही। लोक सकल सुख निमित कह्यो शुभ वैन कों, नवग्रह शांतिक वर्णन सुनिये चैनकों ॥७८
नाराचछन्द जिनेंद्र देव पासेव खेचरीय लाय है, निमित्त तासु पूजि जैन अष्ट द्रव्य लाय है। सुनीर गंध तंदुलै प्रसून चारु नेवजं, सुदीप घूप औ फलं अनर्घ सिद्धदं भजे ॥७९
सूरज क्रूर जब वाय, पदमप्रभ पूजे पाय । श्री चंद्रप्रभु पूजा तें, सिद्ध दोष न लागै तातें ॥८० जिन वासुपूज्य पद पूजत, भाजे मंगल दुख धूजत । बुध क्रूर पण जब थाय, बसु जिन पूजे मन लाय ॥८१
बरिल्ल विमल बनन्त सुधर्म शान्ति जिन बानिए, कुन्थु अरह नमि बर्धमान मन आनिए। आठ जिनेसुर चरण सेव मन लाय है, बुद्धतणो जो दोष तुरत नसि जाय है ।।८२
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२०१
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष रिषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन वंदिए, सुमति, सुपारस, शीतल मन आनदिए। श्री श्रेयांस जिनंद पाय पूजत सही, विसपति दोष नसाय यही आगम कही ॥८३ सुबुधनाथ पद पूजित शुक्र नसाय है, मुनिसुव्रत कों नमत दोष शनि जाय है। नेमनाथ पद वंदत राहु रहै नहीं, मल्लि रू पारस भजत केतु भजिहै सही ।।८४
जनम लगन के समै कूर ग्रह जो परे, अथवा गोचर मांहि अशुभ जे अनुसरै। तिनि तिनि ग्रह के काजि पूजि जिनकी कही, जाप करे जिन नाम लिए दुष है नहीं ॥८५
नवग्रह सांतिह काज जिनेश्वर सों मणी, घडो होय सिरनाय करै सो थुति घणी । वार एक सो आठ जाप तिनको जपै, ग्रह नक्षत्र की बात कर्म बहुविधि खपे ॥८६ भद्रबाहु इम कही तासु ऊपरि भणी, जो पूरब विद्यानुवाद श्रुति ते मणी। इह नवग्रह शान्ति बखाणो जेन में, करिवि श्लोक अनुसार किसनसिंध पै नमैं ॥८७ आन धरम के माहि उपाय इम कहत हैं, विपरोत बद्धि उपाय न मारग लहत हैं। चंडारनि के दान दियाँ है शुद्धता, कल्प्यो एम विपरोत ठाणि मति मुग्धता ॥८८ चंद दोय दोय रवि दोय जिनागम में कहै, मेरु सुदरसन गिरिद सदा फिर लेत है। शशि विमान तल राहु एक योजन वहै, रवि के नीचें केतु एम भमतो रहें ।।८९ पखि अंधियारे मांहि कला शशि की सही, एक दबावति जाय अमावस लों कही। शुकल पक्ष इक कला उघरती है, पूरणमासी दिन शशि निरमल थाय है ।।९०
नित्यहि ग्रह को मिलन इहां होय न सबै, पूज्यूं विन विपरीति राहु उलटे जावे । देवे शशि जब दान ग्रहण जब ठान ही, जिन मत में सो दान कबहूँ न बखानहीं ॥९१
रवि शशि चारयों तणौ ग्रहण चतुंजानियो, ऐरावत अरु भरत मांहि परमानियो। छठे महीने अंतर पड़े आकाश में, फेरि चाल कू लहै दबावै तास में ॥९२ तिह विमान की छाया अवर न मानिए, जिन मारग के सूत्रनि एक बखानिए। भरत माहिं एक ऐरावत में भी सही, इक ऐरावत माहि भरत तिहुँही लही ।।९३ भरत माहि ऐरावत चहूँ में ना कहीं, ऐरावत हे च्यारि भरत पै ए नहीं। दोय दोय दुहुँ थान होय तो नहिं मनें, इह ग्रहण की रीत अनादि थकी बने ॥९४ .
उक्तं च गाथा त्रैलोक्यसारे नेमिचन्द-सिद्धान्ति-कृते । राहु अरिद्वविमाणं किंचूणा कि पि जोयणं अधोगता। छम्मासे पावन्ते चन्द रवि छादयदि कमेण ॥९५
चालछन्द ससि राहु केतु रवि जाण, आछादह है जु विमान । विपरीत चाल षट् मास, पावत है जब आकास ।।९६ चारथो सुर पद के धार, तिह के कछु नहिं व्यापार । देणो लेहणो को करि है, फिरि है जोजन अंतर है ॥९७ चहूँ को मिलिवो नहीं कबही, निज थानकि साहिब सबही । औरनि की दीयो दान, लहैणी नहीं उतरे आन ॥९८ शशि राहु चाल इक बारी, शशि बढ़े धटै निरधारी। षटमास बिना लहि दावे, रवि को नहि केतु दबावे ।।९९
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श्रावकाचार संग्रह
दोहा एह कथन सुनि भविक जन, करि चित में निरधार। कथित आन मत दान जे, तजहु न लावौ बार ॥१४०० पाप बढ़ावन दुःखकरन, भव भटकावन हार । जास हृदय सत जैन दृढ़, त्यागे जानि असार ॥१
इति नवग्रह शान्ति विधिः। बष निव तन संबंधी किया कथन
चौपाई निज तन संबंधी जे क्रिया, करहु भव्य तामें दे हिया । शयन थकी जब उठिये सवार, प्रथमहि पढ़े मन्त्र नवकार ॥२ प्रासुक जल भाजन कर-मांहि, त्रस-भूषित जो भूमि तजाहि । वृद्धि नीति को जैहै जबै, अवर वसन तन पहरे तवे ॥३ नजरि निहारि निहारि करत, जीव-दया मन मांहि धरंत । होत निहार पर्छ जल लेइ, वामां करते शोच करेइ ।।४ फिरि मांटी वामा कर मांहि, वार तीन ले धोवे ताहि । बर तहतें बावै घर करी, वस्त्रादिक सपरस परिहरी ॥५ कर घोवण कों ईटा खोह,लेह तदा पद मदित सोह । बालू अरु भसमी करि धारि, हाथ धोइ नागरि नर-नारि ॥६ वांवो हाथ फेरि तिहुंबार, धोवै जुदो गारि करि धार । हाथ दाहिणो हूँ तिहुं बार, धोवै जुदो वहै परकार ॥७ माटी ले दुहं हाथ मिलाय, घोवै तीन बार मन लाय । पच्छिम दिशि मुख करिके सोइ, दातुण करिय विवेकी जोइ ।।८ स्नान करन जल थोड़ो नाखि, कीजे इह जिन आगम साखि । करुणा कर मन मांहि विचारि, कारिज करिए करुणा धारि ॥९ प्रथमहि महि देखिए नैन, जहँ त्रस जीव न लहे अचैन । रहै नहीं सरदी बहु बार, स्नान जहां करिहै बुध धार ॥१० पूरब दिसि सन्मुख मुख करे, उजरे वसन उत्तर दिसि धरे। जीमत वार धोवती धार, अवर सकल ही वसन उतारि ॥११ सिर डाढो सब राखै जबै, स्नान करै किरिया जुत तबै । लोकाचार उठे किहि तणे, तबहू स्नान करत ही वर्णे ॥१२ तिय सेवै पीछे इह जाणि, परम विवेकी स्नानहि ठाणि। शयन जुदी सेज्या परि करे, इम निति हो किरिया अनुसरं ॥१३ राति सुपन मैं मदन द्रवाय, धातु विष को कारण पाय । कपड़े दूरि डारि निरधार, जल तं स्नान कर तिहि बार ॥१४
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किशनसिंह- कृत क्रियाकोष
निसि सोवन को सेज्या-थान, पलंग करें दक्षिण सिरहान ।
अरु पश्चिम दिसहू सिर करें, उठत दुहुं दिसि निज रिजु परै ।।१५ पूरव अरु उत्तर दुहुं जाणि, उत्तम उठिए हरषहि ठाणि । इह विधि क्रिया अहो निसि करें, सो किरिया विधि को अनुसरे || १६ इति तन-संबंधी क्रिया ।
अथ जाप्य पूजा की विधि लिख्यते
चौपाई
जाप-करण पूजा की बार, जो भाषी किरिया निरधार । ताको वरणन भवि सुन लेह, श्लोकनि में वरणी है जेह ॥ १७ पूरब दिसि मुख करि बुधिवान, जाप करें मन वच तन जानि । जो पूरब कदाचिरिजाय, उत्तर संमुख करि चितलाय ॥ १८ दक्षिण पश्चिम दुहु दिसि जथा, जाप करन वरजी सरवथा । तीन सास- उसास मझारि, जाप करें नवकार विचारि ॥ १९ प्रथम जाप अक्षर पैंतोस, दूजी सोलह वरण बत्तीस । तृतीय अंक छह अरहंत सिद्ध, असि आ उ सा तुरी परसिद्ध || २० पंच वरण च्यारि अरहंत, षष्ठम दुय जपि सिद्ध महंत ।
वरण एक जोवों ऊंकार, जाप सताईस जपिए सार ॥ २१
कही द्रव्यसंग्रह में एह, सात जाप लखि तजि संदेह । और जाप गुरु-मुख सुनि वाणि, तेऊ जपिए निज हित जानि ||२२ मेरु बिना मणिया सौ आठ, जाप तणा जिन मत इह पाठ । स्फटिक मणि अरु मोती माल, सुवरण रूपो सुरंग प्रवाल ॥ २३ जीवा पोतारे सम जाणि, कमल-गटा अरु सूत बखान । ए नौ भाँति जाप के भेद, भाव-सहित जपि तजि मन खेद || २४
दोहा
दिसि विशेष तिनिको कह्यौ, जिन मंदिर बिनु थान । चैत्यालय में जाप करि, सन्मुख श्री भगवान् ।। २५
चौपाई
पूजा निमित्त स्नान आचरै, सो पूरव दिसि को मुख करे । धौत वस्त्र पहिरै तनि तबै उत्तर दिसि मुख करिहै जबै ॥ २६ उक्तं च श्लोक
स्नानं पूर्वामुखी भूप, प्रतीच्यां दन्त-धावनम् । उदीच्यां श्वेतवस्त्राणि, पूजा पूर्वोत्तरामुखी ॥२७
२०३
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श्रावकाचार संग्रह
चौपाई पूरव उत्तर दिसि सुखकार, पूजक पुरुष करै सुख सार । जिन प्रतिमा पूरव जो होइ, पूजक उत्तर दिसि कों जोइ ।।२८ जो उत्तर प्रतिमा मुख ठाणि, तो पूरव मुख सेवक ठाणि । श्री जिन चैत गेह मै एम, करै भविक पूजा धरि येम ॥२९ निज मंदिर में प्रतिमाधाम, करै तास विधि सुनि अभिराम । घर मांहे पौलि प्रवेश करत, वाम भाग दिसि स्वयं महंत ॥३० मंदिर उपलेखणको मही, ऊँचो हाथ जोड़ कर सही। जिन प्रतिमा पदरावन गेह, परम विचित्र करै धरि नेह ॥३१ प्रतिमा मुख पूरव दिसि करै, अथवा उत्तर दिसि मुख धरै। पूजक तिलक रचै नव जाणि, सो सुनि बुधजन कहूँ बखान ॥३२ सीस सिखादिक करिए एह, दूजो तिलक ललाट करेह । कंठ तीसरो चौथो हिए, कांनि पांचमो ही जानिए ॥३३ छठो भुजा कुखि सातवों, अष्टम हाथि नाभि परि नवों। एह तिलक नव ठामि बनाय, अरु गहनो तरु विविध बनाय ॥३४ मुकुट सीस परि धारै सोय, कंठ जनेउ पहिरै सोय । भुज वाजूहि विराजत कर, कुंडल कानह कंकण धरै ॥३५ कटि-सूत्र रु कटि-मेखल धरै, क्षुद्र घंटिका सबदहि करै। रतन जड़ित सुवरण मय जाणि, दस अंगुलनि मुद्रिका ठाणि ॥३६ पाय साकला धुंघुरु धरै, मधुर शब्द बाजे मन हरै। भूषण भूषित करिवि शरीर, पूजा आरम्भ वर वीर ॥३७
पढड़ी छन्द पूर्वादिक पूजा जो करेइ, वसु दरव मनोहर करि धरेइ । मध्याह्न पूज समए सु एह, मनु हरण कुसुम बहु पेखि देह ।।३८ अपराह्न भविक जन करिह एव, दीपहि चढ़ाय बहु धूप खेव । इहि विधि पूजा करि तीन काल, शुभ कंठ उचारिय जयह माल ॥३९ जिन वाम अंगि धरि धूप दाह, खेवे सुगंध सुभ अगर ताह । अरहंत दक्षिणा दिसि जु एह, अति ही मनोज्ञ दीपक धरेहु ॥४० जप ध्यान धरै अति मन लगाय, जिन दक्षिण दिसि मौन लाइ। प्रतिमा वंदन मन वचन काय, करि दक्षिण भुज दिसि सीस नाय ॥४१ इह भाँति करिय पूजा प्रवीण, उपजै बहु पुन्य रु पाप क्षीण । पूजा माहे नहिं जोगि दर्व, तिनि नाम बखानै सुनहु सर्व ॥४२
द्रुत विलंबित छन्द प्रथम ही पृथ्वी परि जो धर्यो, अरु कदा करतें खिसि के पर्यो । जुगल पायनि लागि गयो जदा, दरवसे जिन-पूजन ना वदा ॥४३
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष करिन ते फिरियो सिर ऊपर, वसन हीण मलोन नहीं धरै। कटि तले परस जय अंग ही, दरवसे जिन पूजन लो गही ॥४ बहु जनां करतें कर संचस्यों, मनज दुष्टनि भीटि कर धर्यो । असन दुखित दर्व सवै तजौ, भगति तं जिन पूज सदा सजो ॥४५
दोहा असन पहरि भोजन करै, सो जिन पूजा मांहि । तनु धारे अघ ऊपजे, यामैं संशय नाहिं ।।४६
कुंडलिया छन्द कबहु संधिही वसन तें, भगति वंत तन होइ। मन वचन तन निहचै इहै, पूजा करै न सोइ । पूजा करै न सोइ, दगध फटियो है जाते । पहरयो अवर नितणौ, कटिहि वंधियो पुनि तातॆ ॥ करी वृद्ध लघु नीति, धारि सेई तिय जबही। करहि नाहि भवि सेव, वसन संधिततै कबही ॥४७
चौपाई जो भविजन जिन पूजा रच, प्रतिमा परसि पखालहिं सर्च । मौन सहित मुख कपडो करै, विनय विवेक हरष चित धरै ॥४८ पूजा की विधि ऊपर कही, करिव पुण्य ऊपजै सही। नर को करवो पूजा जथा, आगम में भाषी सरवथा ॥४९ जिन पूजा वनिता जो करै, सो ऐसी विधि को अनुसरै । प्रतिमा-भीटण नाही जोग, ऐसें कहे सयाणे लोग ॥५० स्नान क्रिया करिके थिर होइ, धौत वसन पहरै तनि सोइ । बिना कंचुकी सो नहिं रहै, पूजा करै जिनागम कहै ॥५१ बड़ी साखि मैना सुन्दरी, कुष्ट व्याधि पति-तनुकी हरी । लै गंधोदक सींची देह, सुवरण वरण भयो गुण-गेह ॥५२ अनंतमती उविल्या जाणि, रेवतीय चेलना बखानि । मदनसुंदरी आदिक घणी, तिन कोनी पूजा जिन-तणी ॥५३ लिंग नपुसक धारी जेह, जिनवर पूजा करिहै तेह। प्रतिमा-परसण को निरधार, अथनि मैं सुणि लेहु विचार ॥५४ नर वनिता रु नपुसक तीन, पूजा-करण कही विधि लोन । अब जिनिकौं पूजा सरवथा, करण जोगि भाषी नहिं जथा ॥५५ औढेरो काणो भणि अंध, फूलोधूधि जाति चखि बंध । प्रतिमा-अवयव सूझे नहीं, जाको पूजा करन न कही ॥५६ नासा कान कटी अंगुरी, हुई अगनि दाझे वांकुरी। षट् अंगुलिया कर अरुपाय, पूजा करणी जोगि न थाय ॥५७
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श्रावकाचार संग्रह
खोडो दुक पायन पांगली, कुबज गूगौ वचन तोतलो । जाके मेद गाठि तनि घणो, ताकौं पूजा करत न वणी ॥५८ काछ दाद पुनि कोड़ी होइ, दाग-सुपेद सरीरहि जोइ । मंडल फोड़ा पाव अदीठ, अर जाकी बाकी है पीठि ॥५९ गोसो वधै आंत नीकलै, ताको पूजा विधि नहिं पलै । होइ भगंदर कानि न सुणे, सून्य पिंड गहलो वच सुणें ॥६० खयनी ऊर्द्धस्वास ढ जास, सरै नासिका श्लेषम तास । महा सुस्त चाल्यौ नहिं जाय, पूजा तिनहि जोग नहिं थाय ॥६१ द्यूत विसन जाके अधिकार, अर आमिष-लंपट चंडार । सुरा-पान तें कबहु न हटै, सो पापी पूजा नहि थटै ॥६२ वेश्या रमहै लगनि लगाय, अवर अहेडा सौ न अधाय । चोरी करै रमै पर-नारि, पूजा जोगि नहीं हिय धारि ॥६३
दोहा
इत्यादिक पापी जिके, तिनको नरक नजीक । वह पूजा कैसे करै, परी कुगति की लीक ॥६४ जो जिन पूजक पुरुष है, ते दुरगति नहिं जाय । तिनकी मूरति सबनि कों, लागै अति सुखदाय ॥६५
चालछन्द जिन पूजा तै कै इंद्र, ताको सेवै सुर वृंद । अरु चक्री पद को पावै, षट खंडहि आणि फिरावै ॥६६ धरणेदर है पद जीको, स्वामी दश भुवनपती को। हरि प्रति हरि पदई थई, जलभद्र मदन मुसकाय ॥६७ पूजा फल को नाहि पार, अनुक्रम हो तीर्थंकर सार । पदवी पावै सिव जाइ, किसनेस नमै सिर नाइ ॥६८
छप्पय छन्द दोष अठारह रहित तीस चउ अतिसय मंडित, प्रातिहार्य यत आठ चतुष्टय च्यारि अखंडित । समवशरण विभवादिरूढ त्रिभुवन पति नायक, भविजन कमल प्रकास करन दिनकर सुखदायक । देवाधिदेव अरहंत मुझ भगति-तणौं भव-भय हरी, जयवंत सदा तिहुँ लोक में सकल संघ मंगल करो ॥६९ अठाईस गुण मूल लाख चौरासी उत्तर धरै, कर तप घोर सुद्ध आतम अनुभो परै। ग्रीषम पावस सीत सहे बाईस परीसहि, भवि भावहि शिवपंथ ज्ञान द्रग चरण गसीरहि ।
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२०७
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष निज तिरहि भविन तारहिं सदा इहै विरद तिन पे खरी, ऐसे मुनीश जयवंत जग सकल संघ मंगल करी ॥७. तीर्थकर मुख थकी दिव्य ध्वनि ते जितवाणी, स्याद्वादमय खिरी सप्त-भंगी सुखदानी। ताको लहि परसाद गए शिवथानक मुनिवर, अज हो याहि सहाय पाप तिरिहै भवि धरि उर। तसु रचिय देव गणधरनि जो द्वादशांग विधि श्रुतधरी, भारती जगत जयवंत निति सकल संघ मंगल करी ॥७१ अथ श्री चैत्यालयजी में ए चौरासी काम कोबे तो बासावना
लागे तिस को कवन प्रत्येक होनेछ
दोहा
श्री जिन श्रुत गुरु कों नमों, त्रिविधि शुद्धता ठानि । चौरासी यासादना, कहूं प्रत्येक बखान ।।७२ श्री जिन चैत्यालय विर्षे, क्रिया हीण है जेह । कीयै पाप अति ऊपजे, ते सुणि भवि जिन देह ७३
चालछन्द मुखत खंखार निकारे, हास्यादि केलि विसतारै । पुनि विविध कला चु बणावे, पाश्यादिक नृत्य करावे ॥७४ अरु कलह करे रिसधारी, खेहै तंबोल सुपारी। जल पीवै कुरला डारे, पंखा तें पवन हिडारै ॥७५ गारी वच हीण उचरिहें, मल मूत्र वावनहि सरिहे। कर पद धोवै अरु न्हावे, सिर डाढी कच उतरावै ॥७६ कर पगके नख ही लिवावे, कारी ते रुधिर कढावै । औषध वणवावै खांही, नांख पसेव उतरांही ॥७७ तनु वण की तुचा उतरावे, कर वमन कफादिक डारे। दांतिण पुनि सिलक करांहीं, हालं दंतन उपराही ।।७८ बांधे चौपद तनधार, पुनि करिहै जहाँ आहार। आंखन के गीडहि डारे, कर पग नख मैलि उतारे | जह कंठ कान सिर जांनी, नासा को मैल डरांनी। जो वस्तु-शरीर की थाय, बाँटे निज थानक जाय ॥८० मित्रादिक समधी कोळ, मिलि जांहि जिनालय दोऊ । ठंडे मिलि भेंटवि देही, पुनि हरष चित्त धरि लेई ॥८१ परधान जु भूपति केरे, वय गुरु धनवान घनेरे। आए उठि करि सन मानी, इह दोष बड़ी इक बानी ॥८२ पुनि ब्याह करन की बात, मिलि के वह बन वठलात । जिन श्रुत गुरु चरन चढावे, ताको भंडार रखावै ॥८३
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३.८
श्रावकाचार संग्रह
निज घर को माल रखीजे, पद परि पद धरि बैठीज। कोऊ भयतें जाय छिपीजै, काहू दुख दूर न करीजै ।।८४
चौपाई कपड़ा धोवै धूपति देई, गहणारा व घडावै लोई। ले असलाख जंभाई छोंक, केस संवारि कर तिन ठीक ।।८५ धोवै दालि वडी दै जहाँ, पापड़ सोंज बणावै तहाँ । मैदा छानन छपर बंधान, करन कढाई तें पकवान ॥८६ राज असन तिय तसकर तणी, चारोंविकथा को भाखणी। करण सीधादिक सीवणो, कर नासिका कौं वीधणो ||८७ पंछी डारि पिंजरो धरै, अगनि जारि तन तापन करै। सुवरण रज तप हर ही जोई, छत्र चमर सिर धारै कोई ॥८८ वंदन आवै कै असवार, पुनि तनको धारै हथियार । तेल अर गजादिक मिलवाय, बैठ करै पसारै पाय ||८९ बांधै पाग पेंच फुनि देई, आवै तुररादिक ढाकेय । जूवा खेलै होड बदेय, निद्रा आवै शयन करेय ॥९० मैथुन करै तथा तिसवात, चालै झोग शरीर खुजात । बात करण व्यापार हि तणी, चौपाई परि बैठ न गिणी ॥९१ पान द्रव्य ले जेहै जोय, जलतै क्रीडा करिहै कोय । सबद जहार परसपर करै, गांड प्रमख खेलि चित धरै ॥९२ जिन मंदिर परवेस जो करै, सवद निसही न वि ऊचरै । पुनि कर जोड़े विनु जो जोय, ए दोन्यौं आसादन थाय ॥९३ ए चौरासी अघ कर क्रिया, करनी उचित नहीं नर त्रिया । जिन मन्दिर श्रुत गुरु लखि जांनि, रहनौ अधिक विनय उर आंनि ॥९४
दोहा किसनसिंघ विनती करे, सुनौ भविक चित आनि । क्रिया हीण जिन-ग्रहि तजो, सजो उचित सुखदान ॥९५
इति पूजा विधि-आसातना वर्णन संपूर्णम् । अथवा त्रेपन क्रिया तथा अवर क्रिया को वर्णन कीयो तिण को मूल कथन ।
दोहा वेपन किरिया की कथा, लिखी संस्कृत जेह।। गौतम-कृत पुस्तक महै, मंडो नाम सुनि एह ।।९६ ता उपरि भाषा रची, विविध छंदमय ठांनि । श्रावक को करनी किरिया, किरिया कही बखान ॥९७ अतीचार द्वादश वरत, लगे तिहि निरधार । सूत्रनिमैतें पाय के, करी भाष विस्तार ।।९८
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२७
किशनसिंह- कृत क्रियाकोष
कछू त्रिवरणाचारतें, जो धरिवे को जोग ।
सुणी ते भाषी तहां, चाहिए तिसो नियोग ॥९९ कछू श्रावकाचार तैं, नियम आदि बहु ठाम । कहीं जेम तस चाहिए, घरी भाष अभिराम ॥१५०० बगत मांहि मिथ्यातकी, भई थापना जोर । क्रिया हीण तामें चलन, दायक नरक अघोर ॥१ ताहि निषेधनको कथन, सुन्यो जिनागम जेह । जिसो बुधि अवकास मुझ, भाषा रची में एह ॥२ मूलाचार थकी लिखी, सूतक विधि विस्तार । श्लोक संस्कृत ऊपरे, भाषा कीनी सार ॥३ विद्यानुवाद पूरब थकी, भद्रबाहु मुनिराय । कथन कियो ग्रहशान्ति को, तिह परिभाष वनाय ॥४ निज तन निति प्रति की क्रिया, अरु पूजा परबंध । श्लोकनि परिभाषा धरी, जहं जैसो सम्बन्ध ॥५
भुजंगप्रयात छन्द
"
कथा में कह्यो पंचेन्द्रो निरोधं कथा में कह्यो पंच पापं विरोधं । कथा में मध्य बाईस भाषे अभक्षं, कथा में कह्यो गोरसं भेद भक्षं । कथा मध्य कांजी निषेधी प्रत्यक्षं, कथा में कह्यो मुरब्बादि लक्षं ॥६ कथा मध्य मूलं गुणं अष्ट भेदं कथा मध्य रत्नत्रयं कर्म खेदं । कथा मध्य शिक्षा व्रतं भेद चारं, कथा मध्य तीन्यो गुणावत्तंधारं ॥ ७ कथा मध्य भाषी प्रतिज्ञा सु ग्यारा, मध्य भाषे तपो भेद वारा । कथा मध्य भाषै बहुदान सारं, कथा मध्य भाषे निशाहार ढारं ॥८ कथा मध्य संलेषणा भेद भाख्यो, कथा मध्य सुद्धं समं भाव आख्यो । कथा मध्य पानी क्रिया को विशेषं, कथा मध्य त्यागी कह्यो राग द्वेषं ॥१९ कथा में कह्यो नेम सत्रा प्रमाणं, कथा में क्रिया जोषिता धर्म जाणं । कथा में कही मौन सप्तं निकायं कथा मध्य भाषे जिके अन्तरायं ॥ १० कथा मध्य भाषी ग्रहा की जु शांति, कथा में कह्यो सूतकं दोइ भांति । कथा मध्य देही क्रिया को प्रमाणं, कथा मध्य पूजा विधानं बखानं ॥११
बोहा
hot काल कारण लही, जगत मांहि अधिकार । प्रगटी क्रिया मिथ्यात की, हीणाचार अपार ॥१२ तिनहि निषेधन को कथन, सुन्यो जिनागम माहि । ता अनुसारि कथा महै, कह्यो जथारथ आहि ॥ १३ अथ मनोक्त व्रत निषेध कथन लिख्यते ।
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२१०
श्रावकाचार संग्रह
बोहा श्री जिन आगम में कहे, वरत एक सौ आठ। श्रावक को करणे सही, इह सब जागा पाठ ॥१४ इनि सिवाय विपरीति अति, चलण थापियो मूढ । सुगम जाणि सो चलि पडयो, सुणहु विशेष अगूढ ॥१५
वनिता लखिकै लघु वेस, तिनिको इम दे उपदेस । दिन में जीमो दुय बार, जल की संख्या नहिं धार ॥१६ एकंत वरत धरि नाम, आगमि न बखांण्यो ताम । खखल्यो एकंत करांही, सिर-खंड सुनाम घरांही ॥१७ तंदुल केसर दधि मांही, करि गोली वरत कहांही। टीको व्रत नाम सुलेई, वनिता सिर टीकी देई ॥१८ अरु तिलक वरत को धारै, बहु तिय सिर तिलक निकारै । करि देइ टको इक रोक, लेहै तिनके अघ कोष ॥१९ कोथलीय व्रत धर नाम, बांट तिन तीसहि ठाम । मधि सोंठ मिरच धरि रोक, प्रभुताह भाषे लोक ॥२० अर व रत खोपरा भाषे, एकन्त तीस अभिलाषे ।।२१ नारेल वरत. को लेह, बाँटै घर घर धरि नेह ।। खीर जु व्रत नाम धरावे, निज घर जो दूध मंगावै ॥२२ चावल ता माही डारी, निपजावे खीर जु नारी। भरि ताहि कचोला माहीं, बाँटै बहु घरि हरषाहीं ॥२३ काचली व्रत तिय धरि है, कांचली दस बीस जु करि है। निज सगपण कीजे नारी, तिनको दे हेत विचारी ॥२४ तिन पहिरे जूं उपजाही, त्रस-घात पाप अधिकाहीं। जिनको व्रत नाम धरावं, सो कैसे शुभ फल पावै ॥२५ व्रत करि घृत नाम बखानो, घृत दे घर घर मन आनो । बांटत माखी तहँ परिहै, उपजाय पाप दुःख भरिहै ॥२६ चूड़ा व्रत नाम धराही, करिके मन में हरषाई । बांटत मन धरि अति राग, इसते मुझ बढ़े सुहाग ॥२७ बिन न्योतो पर घर जाई, निज करते असन गहाई। भोजन कर निज घर आवे, व्रत नाम धिगानो पावै ।।२८ भरि खांड रकेबी तीस, बांटै ते घर दस बीस । व्रत नाम रकेबी तास, करिहै मूरखता जास ।।२९ बनिता चैत्यालय जाही, पाछे विधि एम कराही । धरि अशन थाल इक माहीं, इक जल दुहुँ टाक धराहीं ॥३०
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
२११ तिय चैत्यालय ते बावे, इक थाली आय उठावें। जो बसन उभारे तीय, भोजन करि जल बहु पीय ॥३१ बल थाल उघाड़े आयी, जल पीवे बैठि रहाही। इम बरत करम पति बन्यो, सूत्रनि में नबी बखान्यो ॥३२ इत्यादि कहालों ठीक, बागम ते अधिक अलीक । करिके शुभफल को चाहे, हियरे तिय अधिक उमाहै ॥३३ जो कलपित बरत बु मान, भाषे तेते अघवान। जो सकल वस्तु ले आवै, निज पूजा माहिं चढ़ावै ॥३४ निज सगपन गेह मिलाय, बांट पर घर फिरि आय । भादों के मास बु माहीं, तप करन सकति ह नाहीं ॥३५ इम कहि एकन्त कराही, जिन-उक्त व्रत सो नाही। बांटे जो वस्तु मंगाई, सोई व्रत नाम धराई॥३६ जिनमत व्रत बिनु मरयाद, करिये मन उक्त प्रमाद । जिन सूत्रनि में जैनी है, सुखदायक व्रत आही है ।।३७ जिन आज्ञा को जे गोपे, ते निज कृत सब शुभ लोपे। यातें सुनिये नरनारी, मन में तिस ते अवधारी ।।३८ जिन-भाषित जे व्रत कोजे, उक्त न कबहूं लोजे । बाज्ञा विधिजुत व्रत धार, सुरपद पावे निरधार ॥३९
सवैया ३१॥ वेपन क्रिया ने आदि देके नाना भेद भांति क्रिया को कथन साखि अन्धन की बानिक। अवर मिथ्यात कलिकाल मई थापना बे तिनको निषेध कीयो बागम तें जानिके। व्रत मन उकति सुगम जानि चालि पर कहै नहिं नते जिते दुःख वृथा मानिके। अब नर नारी मन लाय जो वरत धरै यहि समय शील तप व्रत जीय सानिकै ४०
छप्पया बहुविधि क्रिया प्रसंग कही इह कथा मझारी, अब उछाह मन मांहि बानि इह बात विचारी। क्रिया सफल जब होइ वरत विधि यामें बाए, मन्दिर शोभा जेम शिखर पर कलश चढ़ाए। इह जान वास व्रत विधिनि की, सुनी जेम आगम भनी, दरशन विशुद्ध चुत धरह भवि इह विनती किसना-तनी ४१
चाल छन्द समकित जुत व्रत सुखदाई, अनुक्रम ते शिव पहुंचाई। कछु नाम वरत के कहिए, भवि जन जे जे व्रत गहिए ।।४२
अथ अष्टाह्निक व्रत कथन । चौपाई अष्टाह्निक महाव्रत सार, रहै अनादि जाको नहिं पार। जो उत्कृष्ट भए नर तेह, तिन पूरव व्रत कीन्हो एह ।।४३
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२१२
श्रावकाचार संग्रह
व्रत करन की है विधि जिसी, जिन आगम में भाषी तिसी । तीन बार इक बरष मंझार आसाढ़ कातिक फागुण धार ॥४४ जो उत्तक्रिष्ट बरत को करें, आठ-आठ उपवास जु धरै । जो भेद कोमली जॉन, जिन मारग में करो बखान ॥४५ आठ दिन कीजे उपवास, नौमी एक भुक्त परकास । दसमी दिन कांजी करि सार, पाणी भात एक ही बार ॥४६ ग्यारस अल्प असन कीजिए, दुयवट तजि इकवट लीजिए। मुख सोध्यो वारस विधि एह, त्रिविधि पात्रकों भोजन देय ॥४७ अंतराय तिनकों नहि थाय, तो वह व्रत धरि असन लहाय । अंतराय तिनिकों जो परे, तो उस दिन उपवास हि करे ||४८ तेरस दिन आँविल कीजिए, ताकी विधि भवि सुन लीजिए । एक अन्न षटरस बिनु जानि, जल में मूँ कि लेइ इक ठाँनि ॥४९ चउदस चित्त वेलडी थाय, भात नीर जुत मिरच लहाय । पूरणवासी को उपवास, किए होय चिर को अघ नास ॥ ५० इह कोमली की विधि कहीं, जिन आगम में जैसी लही । आदि अंत करिए एकंत, दस दिन धरिये शील महंत ॥५१ जाके जिम चउदस उपवास, चौदस पंदरस वेलो तास । तेरस आंबिल के दिन जेह, रहित विवेक आँवली लेह ॥५२ सदा सरद जाकी नहि जाय, उपजै जीव न संसे थाय । चउदस दिवस बेलडी करे, तादिन इम अनीति विसतरे ॥ ५३ affह खलरा अर काचरी, तथा तोरई निज मतही । तिनमें उपजे जीव अपार, सो व्रत जिन लेवो नहि सार ॥५४
दोहा
कांजी के दिन नीर में, नाखि कसेलो लेह | तंदुल जल विनु अवर कछु, द्रव्य न भाषो जेह ॥५५
चौपाई
विधि जु आठई जान, आठें तें चउदसहि बखान । बारस असन छें तिहुँ बास, इहै भेद लखि पुण्य निवास ॥५६ दशमी तेरस जीमण होइ, बेला तीन करहु भवि लोय । चौथो भेद यहै जानिए, शीलव्रत ताको ठानिये ॥५७ आठ दशमी बारस तीन, प्रोषध धरिये भाव प्रवीन । चउदस पंदरस बेलो करे, पंचम विधि बुधजन उच्चरे ॥५८ आ ग्यारस चौदस जान, तीन दिवस उपवास बखान । अथवा दोय करे नर कोय, एकासन पण छइ दिन जोय ॥५९
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२१३
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष यह व्रत संवर धरि मन लाय, सबरी हरी तजिए दुखदाय । दस दिन शील वरत पालिये, संवरहू इह विधि धारिये ॥६० वसु एकासण, विधि जुत करे, पाँच पाप व्रत धरि परिहरे । धरि आरम्भ तजै अघ-दाय, दिवस आठलों शुभ उपजाय ॥६१ अब मरयादा सुनि भवि जीव, धरि त्रिशुद्धता सों लखि लीव । सत्रह बरष साखि इक जान, करिये बावन साख प्रवान ॥६२ अथवा आठ बरष लों जान, बीस चार तसु साख बखान । पंच वरष करि पंदरा साख, धरि मन बच तन शुभ अभिलाख ॥६३ तीन वरष नो साख प्रमाण, एक वरष तिहुं साख सुजाण । जैसी सकति छइ अवकास, सो विधि आदर करि भवि तास ॥६४ सकति प्रमाण उद्यापन करे, सँवर तै कबहूँ नहिं टरे । मैंना सुन्दरि अरु श्रीपाल, कियो बरत फल लह्यो रसाल ॥६५ कोड़ अठारह रहते जास, सबै गए सुवरण परकास । और जहूँ ते सात से वीर, तिनके निर्मल भए शरीर ॥६६ चक्री भयों नाम हरषेण, व्रत त्रिशुद्ध आराध्यो तेण।। तिन फल पायौ सुख दातार, करम नासि पहुंचे भव-पार ॥६७ अंतराय पारो भवि सार, मौन सहित करिए आहार। ब्रत में हरी जिके नर खाय, संवर तास अकारथ जाय ॥६८ तातें व्रत धारी नर नार, मन वच क्रम हियरे अवधार। विधि माफिकते भविजन करो, सुर नर सुख लहि शिव-तिय बरौ ॥६९ सकल वरष के दिन मैं जान, परब अठाई भूषित मान । खग भूमीस मिले नरेस, तिनकरि पूज जेम चक्रेस ॥७० चक्री की जो सेवा करे, सो मनवांछित सुख अनुसरे । आज्ञा-भंग किए दुख लहै, ऐसे लोक सयाणे कहै ॥७१ तिन जो इम दिन संबर धरे, तास पुण्य बरनन को करे। जो इन दिन में अघ उपजाय, संख्यातीत तास दुख थाय ॥७२
दोहा
इहै अठाही व्रत धरो, प्रगट वखाण्यो मर्म ।
सुरगादिक की बारता, लहै सास्वतो समं ॥७३ अथ सोलह कारण, वश लक्षण, रत्नत्रय व्रत विधि-कथन
चौपाई सोलह कारण विधि सुनि लेह, जिन आगम में भाषी जेह। भादों माघ चैत तिहुँ मास, मध्य करे चित धारि हुलास ।।७४ वास इकंतर विधि जुत धरे, बीच दोय जीमण नहिं करे। सोलह बरस करे भवि लोय, उद्यापन करि छांडे सोय ॥७५
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११४
श्रावकाचार-संग्रह
कति नहीं उद्यापन-तणी, करे दुगुण व्रत श्री जिन भणी । दश लक्षण याही परकार, उत्कृष्टी दश वासहि धार ॥७६ दूजी विधि छह वासह तणी, करे इकन्तर भाष्यो गणी । मरयादा दश वरषहि बान, वरष मद्धि तिहुं बारहि ठान ॥७७ अवर सकल विधि करिहै जिती, संबर माहि जानिये तिती । रत्नत्रय की विधि ए सही, वरषावधि तिहुँ बारह कही ॥७८ भादौं माघ चैत पखि सेत, बारसि करि एकन्त सुहेत । पोसह सकति प्रमाण जु घरे, अति उच्छाहते तेलो करे ॥७९ पडिवा दिन करिहै एकन्त, पंच दिवस घरि सोल महंत । बरस तीन मरयादा गहै, उद्यापन करि पुनि निरबहै ॥८० सकति-हीन जो नर तिय होय, संबर दिवस न छांड़े सोय । बाको फल पायो सो भणौ, नृप वैश्रवण विदेहा तणो ॥८१ मल्लिनाथ तीर्थंकर होय, ताके पद पूजित तिहुँ लोय । बाल ब्रह्मचारी तप कियो, केवल पाय मुकति पद लियो ॥८२ अजहूं जे या व्रत को घरे, दरसन त्रिविधि शुद्धता करे । ताको फल शिव है तहकीक, श्री जिन आगम भाष्यो ठीक ॥८३
बच सम्धि विधान व्रत । चोपाई
भादौं माघ चैत विघ जान, वदि पंदरसि एकन्तहि ठान । पाडवा दोयज तीज प्रवान, थापे तेला करि विधि जान ||८४ सकति प्रमाण जु पोसह घरे, चौथ दिवस एकासण करें । पांची दिवस सोलको पाल, तीन बरस व्रत करहि सम्हाल ॥ ८५ पुत्री तीन कुटुम्बी तणी, जिन व्रत लियो एम मुनि भणी । विधिवत करि उद्यापन कियो, तियपद छेदि देवपद लियो ॥८६ वह द्विज-सुत पंडित नाम, गौतम भर्ग रु भागं रु नाम । महावीर के गणधर भए, तिनके नाम इन्द्र ए दिए ॥८७ इन्द्रभूति गौतम को नाम, अग्निभूत दूजो अभिराम । वायुभूत तीजे को सही, वरत तणो तीनों फल लही ॥८८ इन्द्रभूत तदभव शिव गयो, दुहूं तिहूं उत्तम पद को लयो । याते ते नवि परम सुजान, करो वरत पावो सुखथान ॥८९ दूजी विधि आगम इम कहे, पडिवा तीजह प्रोषध गहे । दोयज दिवस करे एकन्त, इस मरयाद वरष छह सन्त ॥९० परिवा तीज एकान्त करेय, दोयज को उपवास धरेय । मयादा भाषी नव वर्ष, करिये भवि मन में घरि हर्ष ॥९१ पंच दिवस लों पाले शील, सुरगादिक सुख पावे लोल । पुनि उत्तम नर पदवी लहे, दीक्षा घर शिव-तिय-कर है ॥९२
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
अथ अक्षयनिधि व्रत । चोपाई
व्रत अक्षयनिधि को उपवास, श्रावण सुदि दशमी करि-तास । भादों बदि जब दशमी होय, तिनहूँ के प्रोषध अवलोय ॥ ९३ अवर सकल एकंत जु धरें, सो दश वर्षह पूरो करे । उद्यापन करि छाड़ें ताहि, नांतर दुगुणो करिहै जांहि ॥९४ अथ मेघमाला व्रत | चौपाई
बरत मेघमाला तसु नाम, भादव मास करे सुखधाम । प्रोषध परिवा तीन बखान, आठें दुहुँ चौदस दुहुं जान ॥ ९५ सात वास चोईस इकंत, त्रिविधि शील जुत करिए संत । वरष पाँच लों तसु मरयाद, सुर-सुख पावे जुत अहलाद ||९६ || अथ जेष्ठ जिनवर व्रत। चौपाई
वरत जेष्ठ जिनवर भवि लोइ, ज्येष्ठ मास में करिये सोय । किशन पक्ष पड़वा उपवास, एकासण चौदा पुनि तास ॥९७ प्रोषध शुक्ल प्रतिपदा करें, पुनि एकन्त चतुर्दश धरै । ज्येष्ठमास के दिवस जु तीस, तास सहित व्रत करे गरीस ॥९८ बृषभनाथ जिन पूजा रचे, गीत नृत्य वाजित्र सुसबै । अति उछाह धरि हिये मझार, मरयादा लखि कथा विचार ॥ ९९
अथ षट्सीव्रत । अडिल्ल
दूध दही घृत तेल लूण मीठी सही, तजे पाख दोय दोय सकल संख्या कही ।
करे असन इक वार व्रती इम व्रत सजे, पख वारह मरयाद षट्रसी व्रत भजे ॥१६००
अथ पाख्या व्रत
दीत ससि हरी मंगल मीठो हरै, घिरत बुद्ध गुरु दही दूध भृगु परिहरै । तेल तेल सनि इहै. वरत पाण्या गहै, मरयादा जिम नेम धरे जिम निरवहै ॥१
अथ ज्ञानपचीसी उपवास लिख्यते
प्रोषध चौदह चौदस के विधि जुत करे, तैसें ग्यारा ग्यारस के प्रोषध घरे । सब उपवास पचीस शील व्रत जुत धरे, ज्ञान पचीसी व्रत जिनागम इम कहे ॥२
अथ सुखकरण व्रत
एक वास एकंत एक अनुक्रम करें, मास चार पख एक इकन्तर इम घरें ।
देव शास्त्र गुरु पूज सधैं व्रत घरि सदा, नाम तास सुख-करण हरण दुख जिन वदा ||३
अथ समवशरण व्रत । दोहा
श्वेत किशन चौदसि तणी, प्रोषघ बीस रु चार ।
शील-सहित भविजन करें, समोशरण व्रत धार ॥४
२१५
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२१५
थावकापार-संग्रह
बब बाकास पंचमी व्रत । चौपाई भादव सुदि पंचमि उपवास, करे व्रत पंचमि आकाश ।। वरष पंच मरयादा जास, शील सहित प्रोषध परि तास ॥५
वसाय बनमी व्रत श्रावण सुदि दशमी कों सही, अक्षय दशमि व्रत कों जन गही। प्रोषध करे शील जुत सार, तसु मरयाद वरष दश धार ॥६
बबचंदन पष्ठो बत भादव बदि छठि दिन उपवास, चंदन षष्ठी व्रत-धर तास । मन वच काय शील व्रत पाल, तसु परमाण वरष छह धार ॥७
अब निर्दोष सप्तमी व्रत भादों सुदि सातें निर्दोष, वरत करै प्रोषध शुभ कोष । संख्या सात वरष लों जाहि, उद्यापन करि तजिए ताहि ।।८
बब सुगंध दशमो व्रत व्रत सुगन्ध दशमी को जान, भादों सुदि दशमी दिन ठान । प्रोषध करे वरष दश सही, शील सहित मर्यादा गही ।।९ अष्ट द्रव्य सों पूजा करे, धूप विशेष खबे अघ हरे । धीवर-सुता हुंती दुरगंध, ब्रत-फल तस तन भयो सुगन्ध ।।१०
श्रवण द्वादसी व्रत भादों सुदी द्वादशि व्रत नाम, श्रवण द्वादशी जो अभिराम । बारह वरष लगे जो करे, शील सहित प्रोषध अनुसरे ॥११
अथ अनन्त चतुर्दशी व्रत . भादों सुदि चौदस दिन जानि, व्रत अनंत चौदसि को ठानि । तीर्थकर चौदही अनंत, रचे पूज सों जीव महंत ॥१२ प्रोषध करे शील जुत सार, चौदह वरष लगे निरधार । उद्यापन विधि करि वह तजे, सो जन स्वर्ग-तणा सुख भजे ॥१३
बब नवकार पैतिस व्रत । चौपाई अपराजित मंत्र नवकार, अक्षर तसु पैतीस विचार । करि उपवास वरण परमानि, सातें सात करो बुध मानि ॥१४ पुनि चौदा चौदसि गनि सांच, पाँचै तिथि के प्रोषध पांच । नवमी नव करिये भवि संत, सब प्रोषध पैंतीस गणंत ॥१५ पैंतीसी नवकार जु एह, जाप्य मन्त्र नवकार जपेह ।। मन वच तन नर नारी करे, सुर नर सुख लहि शिव तिय बरे ॥१६
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष अथ त्रेपन क्रिया व्रत
त्रेपन किरिया की विधि जिसी, सुणिए बुध भाषी जिन तिसी । आठ मूल गुण तणी, पाँचै पाल अणुव्रत भणी ॥१७ तीन तीन गुणव्रत की धार, शिक्षाव्रत की चौथ जु सार । तप बारह की बारसि जानि, तिसका प्रोषध बारह ठान ॥ १८ सामि भाव की पड़िवा एक, ग्यारसि प्रतिमा की दश एक । चौथ चार चहुं दानहि तणी, पड़िवा एक जल-गालन भणी ॥१९ अथमीय पड़िवा अघ- रोध, तीनहुं तीज चरण हग बोध । ए त्रेपन प्रोषध जे करै, शील-सहित तप को अनुसरें ||२० सो नर तिय सुर-नृप-सुख पाय, अनुक्रमते शिव-थान लहाय । उद्यापन विधि करिए सार, सकति जेम हीननि विस्तार ॥२१
अथ जिनेंद्र गुण संपत्ति व्रत । चालछन्द
जिनगुण संपत्ति व्रत धार, सुनिए तिनकों अवधार । दस अतिसै जिन जनमत ही, लीये उपजे लखि सति ही ॥२२ उपज्यो जब केवल ज्ञान, दस अतिसे प्रगटे जान । इ अतिसय बीस जुकरी, करि बीस दसे सुखवरी ॥२३ देवाकृत अतिसय जांणो, चौदस चौदह तिह ठांणो । वसु प्रातिहार्य जिन देव, बसु आठें करिए एव ॥२४ भावन सोलह कारण की, पड़िमा षोडश करि नीकी । पाँचों कल्याणक जाकी, पाँचों पाँचे करि ताकी ॥२५ प्रोषध ए सठि जाणो, जुत सील भविक जन ठांणो । उत्तम सुर-नर सुख पावै, अनुक्रमते शिव पहुँचावै ॥ २६
अथ पंचमी व्रत | चौपाई
फागुण आसाढ कातिक एह, सित पंचमि तें व्रत को लेह । पैंसठ प्रोषध करिए तास, वरष पाँच पाँच परि मास ॥२७ श्वेत पंचमी को व्रत धार, कमलश्री पायो फल सार । भविसदत्त तब मिलियो आय, तिनहूँ व्रत कीनो मन लाय ॥२८ तास चरित माहे विसतार, बरनन कीयो सब निरधार । अजहुँ नरतिय करिहै सोय, त्रिविध सुधी तैसों फल होय ॥२९
अथ शीलकल्याणक व्रत । दोहा
शील कल्याणक व्रत तणो, भेद सुनो जे संत ! नवच काय त्रिशुद्धि करि, धारौ भवि हरषंत ॥
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२१८
श्रावकाचार संग्रह
चारुछन्द
तिरयंचणि सुर तिय नारि, चौथी विनु चेतन सारि । पंचन्द्रनिते चहुं गुणिए, तिनि संख्या बीसज मुणिये ॥३१ मन वच तन तें ते वीस, गुणते ह्वे तीस रु तीस । कृत कारित अनुमोदन ते, गुणिए पुनि साठहि गनते ॥ ३२ एक सौ असी हुई जोई, प्रोषध करु भवि घरि सोई । इक वरष मांहि निरधार, करिए पूरण सब व्रत सार ||३३ इक दिन उपवास जु कीजे, दूजी दिन असन जु लीजे । तीजे दिन फिर उपवास, इम करहु इकंतर तास ॥३४ एक सो अस्सी एकंत, इतने ही बास करंत । दिन साढ़े तीन से धीर, पालै निति शील गहीर ॥ ३५ इह शील कल्याणक नाम, व्रत है बहुविधि सुख-धाम ।
चक्री काम कुमार, हरि प्रति हरि बल अवतार ||३६ तीर्थंकर पदवी पावे, समकित जुत व्रत जो ध्यावे । ऐसें लखि जं भवि जांण, करिए व्रत शील कल्याण ||३७ अथ शीलव्रत । चालछन्द
अब सुनहु शील व्रत सार, जंसो आगम निरधार । वैशाख सुकल छठि लीजे, प्रोषध उपवास करोजे ॥ ३८ अभिनन्दन जिनवर मोषं, कल्याणक दिन शिव पोषं । शुभ शीलवरत तसु नाम, करि पंच वरष सुखधाम ॥३९ अथ नक्षत्रमाला व्रत । गोताछन्द
अश्विनी नक्षत्र की जु वासर च्यार अधिक पंचास ही, तिहि मध्य एकासन सताईस बीस सात उपवास ही । जुत शील मन वच तन त्रिशुद्धहि कर विवेकी चाव स्यों, माला नक्षत्र सुनाम व्रत तैं छूटिये विधि-दाव स्यों ॥४०
अथ सर्वार्थसिद्धि व्रत
कातिक सुकल अष्टम दिवस तें अष्ट वास कीजिए, तसु आदि अंत इकंत दस दिन सील सहित गनीजिए । जिनराज श्रुत गुरु पूज उत्सव सहित नृत्यादिक करै, सर्वार्थसिद्धि जु नाम व्रत इह मोक्ष सुख कों अनुसरे ॥४१
अथ तीन चोविसी व्रत । दोहा
व्रत चौबीसी तीन को, सुकल भाद्रपद तीज । प्रोषध कीजे शील जुत, सुर-सुख शिव को बोज ॥४२
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२१९
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
बब श्रुत-स्कन्ध व्रत श्रुत-स्कन्ध ब्रत तीन विधि, उत्तम मध्य कनिष्ट । षोड़श प्रोषध तीस दुय, वासर माहिं गरिष्ट ॥४३ दस प्रोषध दिन बीस में, मध्य सुविधि लखि लेह। वसु प्रोषध इक वास में, है कनिष्ट व्रत एह ॥४४ कथन विशेष कथा-मही, द्वादशांग के भेद । त्रिविध जिनेश्वर भाषियो, करके कर्म उछेह ।।४५
अथ जिनमुखावलोकन व्रत जिन मुखावलोकन व्रत, करिये भादों मास।। जिन मुख देखे प्रति उठि, अवर न पैखै तास ।।४६
चाल छन्द प्रोषध इक मास इकन्तर, कांजो जुत करिये निरन्तर । अथवा चन्द्रायण करिहै, लघु सकति इकन्त जू धरिहै ।।४७ संख्या धरि वस्तु जु केरी, तातें अधिक ले नहि केरी। इह वरत महा सुखदाई, चहुँ गति-भव-भ्रमण नसाई ॥४८
अब लघु सुख-संपत्ति बत सुख-संपत्ति व्रत दुय भेद, तिनको विधि भवि सुनि एव । षोड़श तिथि प्रोषध षट दश, लहुंही सुखदाय अनेकश ।।४९
बड़ा सुख-संपत्ति वत पडिवा इक दोयज दोई, तिहुँ तोज चौथ चहुँ जोई। पांचे पण छठ छह जाणो, सातें पुनि सात बखाणो ॥५० आठ के प्रोषध आठ, नवमी नव आगम पाठ। दसमी दस ग्यारस ग्यारे, वारसि के प्रोषध वारै ॥५१ तेरसि तेरा गनि लीजे, चौदसि के चौदह कीजै। पंदरसि पंदरह शिवकारी, मीसरु सो प्रोषध धारी ॥५२ इह सुख-संपत्ति व्रतनिको, भव भव सुखदायक जी को। मन वच काया शुध कीजे, भविजन नर-भवफल लीजे ॥५३
____ अथ बाराव्रत । चौपाई बारा व्रत तणी विधि जिसी, बारा भांति बखाणो तिसी। प्रोषध कीजे बारा भाँति, अरु बारा ही करिए एकन्त ॥५४ वारा कांजी तंदुल लेय, निगोरसे गोररस तजि देय । अलप अहार असन इक भाग, लेहै करिहै दुय बट भाग ॥५५
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२२०
श्रावकाचार-संग्रह इकठाणी भोजन जल सबै, ले पुरसाय बार इक तबै । मूंग मोट चौला अरु चिणा, लेहि इकोण बोणी तत छिणा ॥५६ पाणी लूण थकी जो खाय, नयड नाम ताको कहवाय।। घिरत छोड़िये सब परकार, सो जाणो लूखी जु अहार ॥५७ त्रिविधि पात्र साधरमी जाण, ताहि आहार देय विधि जाण । ले मुख सोधि निरन्तर थाय, पाछै व्रत धर असन लहाय ॥५८ अंतराय हुए उपवास, करै नाम मुख सोध्यो तास । घर के लोक बुलाय कहेई, बिन जाँचे भोजन जल देई ॥५९ धरै थाल माहीं जो खाय, किरिया जैन अयाची थाय । लूण सर्वथा त्यागे जदा, भाँति अलुणा की द्वै तदा ॥६० जिन पूजा सुन शास्त्र बखान, एक गेह को करि परिमाण । जाय उडंड तास के बार, भोजन लेहु कहै नर नार ॥६१ ठाम असन जल को जो गहै, बरतमान निरमान जु कहै । बारा बरत भाँति दस दोय, अनुक्रमि सेत पक्ष भवि लोय ॥६२ समकित-सहित जु व्रत को धरै, त्रिविध शुद्ध शीलहि आचरे । करिहै पूरण वरष मंझार, सो सुर पद पावे नर नार ॥६३
___ अथ एकावली व्रत । अडिल्ल सुनहु भव्यक एकावली विधि है जिसी, सुकल प्रतिपदा पंचम अष्टम चउदसी । कृष्ण चतुरथी आठे चउदसि जाणिए; चउरासी उपवास वरष-मधि ठाणिये ॥६४ वीर्य कान्ति नृप प्रौषध विधि है तिसी, उद्यापन की रीति करी आगम जिसी। दोक्षा धरि मुनि होय घोर तप को गह्यो, केवल ज्ञान उपाय मोक्ष पदवी लह्यो ॥६५
अथ दुकावली व्रत । दोहा विधि दुकावलो बरत की, श्री जिन भाषी ताम । बेला सात जु मास में, करिए सुनि तिय नाम ॥६६
चाल छन्द पक्षि श्वेत थकी व्रत लीजै, पडिवा दोयज वृद्धि कीजे । पुनि पाँचै षष्टी जाणो, आठ नवमी छठि ठाणो ॥६७ चौदसि पुण्यो गिन लेह, बेला चहं पखि सित एह । तिथि चौथी पांचमी कारी, आठ नौमो सुविचारी ॥६८ चौदसि मावस परवीन, पखि किसन करै छठ तीन । इम सात मास इक माहीं, बारा मासहि इक ठाही ॥६९ चौरासी बेला कोजे, उद्यापन करि छांडीजे । इस व्रत ते सुर शिव पावे, सुख को तहाँ वोर न आवै ॥७०
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
अथ रतनावली व्रत । चाल छन्द रतनावलि व्रत इम करिये, प्रोषध सुदि तीजहि धरिये। पंचम अष्टम उपवास, सित पक्ष तिहूँ प्रोषध तास ।।७१ दोयज पंचम अंधियारी, आ3 प्रोषध सुखकारी। इक मास माहिं छह जानो, वरष सतरि दुय ठानों ॥७२ उद्यापन सकति समान, करिके तजिए मतिमान । दृग-जुत धरि शील धरीजै, तातें उत्तम फल लीजे ॥७३
अथ कनकावली व्रत कनकावलीय व्रत जैसे, आगम भाष्यो सुणि तैसे। सितपक्ष थकी उपवास, करिये विधि सुनिए तास ।।७४ प्रोषध सित पडिवा कीजै, पुनि वास पंचमी लीजै । सुदि दशमी पुनि होय जबहीं, वदि छठ बारस व्रत सजहीं ॥७५ छह मास मास इक माहीं, करिए भवि भाव धराहीं । उपवास बहत्तरि जास, इक वरष मध्य कर तास ॥७६
अथ मुक्तावली व्रत मुक्तावली व्रत लघु एम, करिहे भवि करि प्रेम । भादों सुदि सातें जाणों, पहिलो उपवास बखाणो ॥७७ आसोज किसन छठि तेरस, उजियारी करिये ग्यारस। कातिक वदि बारस ताम, सुदि तीज रु ग्यारस ठाम ॥७८ मगसिर वदि ग्यारसि जानो, प्रोषध सुदि तीजहि ठानो। नव नव प्रति वरष गहीजे, प्रोषध इक असी करीजे ॥७९ पूरो नव वरष मझारी, जुत शील करहु नर नारी। तातें फल पावें मोटो, मिटि है विधि उदय जु खोटो॥८०
अब मुकुटसप्तमी व्रत । बोहा सावण सुदि सप्तमी दिवस, प्रोषध को नर वाम । सात वरष तक कीजिये, मुकुट सप्तमी नाम ॥८१
अथ नंदीश्वर पंक्ति वत नंदीश्वर पंकति बरत, सुनह भविक चित लाय । किये पुण्य अति ऊपजे, भव-आताप मिटाय ॥८२
चौपाई प्रथमहि चार इकंतर बोस, करहु पछै बेलो इकतीस । ता पीछ जु एकंतर करै, द्वादश प्रोषध विधि जुत धरै ॥८३
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श्रावकाचार संग्रह
पुनि बेलो करिये हित जानि, बारा बास इकंतर ठानि । पाछे इक बेलो कीजिए, इक अंतर दश दुय लीजिए ॥८४ फिरि इक वेलो करि घरि प्रेम, वसु उपवास एकंतर एम । सब उपवास आठ चालीस, बिचि बेलो चहुं गहे गणीस ॥ ८५ दधिमुख रतिकरके उपवास, अंजनगिरि चहुं बेला तास । दिवस एक सो आठ मंझार, बरत यहै पूरणता धार ॥८६ छप्पन प्रोषध भवि मन आन, करे पारणा वाचन जान । लगत करें ना अंतर परे, अघ अनेक भव-संचित हरै ॥८७
अथ लघु मृदंग-मध्य व्रत । अडिल्ल
दो वास फिर असन फिर तिहुं चउ करें, पांच वास धरि चार तीन दुय अनुसरे। दिवस तीस में वास कहे तेईस हैं, लघु मृदंग मघि सात पारणा जुत है ॥८८ अथ बड़ो मृदंग-मध्य व्रत । गोता छन्द
उपवास इक करि दोय थापे तीन चहु पण छह घरं, पुनि सात आठ रु चढ़े नवलों फेरि वसु सात जु करें । छह पांच चार रु तीन दुय इक वास इक्यासी है, मिरदंग मघि जु नाम दीरघ पारणा सत्रह लहै ॥८९ अथ धर्मचक्र व्रत । अडिल्ल छन्द
एक वास करि दोय तीन पूनि चहुँ घरे, ता पीछे करि पांच एक पुनि विस्तरे । दिन बाईस मझार बास षोडश कहे, धरम चक्र व्रत धारि पारणा छह गहे ॥ ९०
बड़ी सुक्तावली व्रत
एक वास दुय तीन चार पण थापई, चार तीन दुय एक धार अघ कांचई । सर्बे वास पणबीस पारणा नव गही, गुरु मुक्तावली व्रत दिवस चौतीसही ||९१
अथ भावना - पचीसी व्रत
दसमी दस उपवास पंचमी पंच है, आठे बसु उपवास प्रतिपदा दुय गहै । सब प्रोषघ पच्चीस शील युत्त कीजिए, ए भावना - पचीसी बरत गहीजिए ॥९२
अथ नवनिधि व्रत
चौदा चोदसि चौदा रतन तणी करें, नव निधि की तिथि नवमी नव प्रोषध धरे । रतनत्रय तिहुं तीज ज्ञान पण पंचमी, नवनिधि प्रोषध एक तीस करि अघ गमी ॥ ९३
अथ श्रुतज्ञान व्रत । दोहा
प्रोषध व्रत श्रुत ज्ञान के, जिनवर भाषे जेम ।
सकल आठ ने एक सौ, बुधि सुणि भवि घर प्रेम ॥९४
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
चौपाई
सकल पाप में व्रत लीजिए, पोड़स तिथि ताकी कीजिए ।
सोला पडिवा प्रोषध सार, सित मित करि पख में निरधार ॥९५ और कहूँ तिथि तिन कर तीज, चौथ चार पण पांच लीज । छह छठि सातें सात वखाणि आठे आठ नवमी नव जाणि ॥९६ बीस दसैँ ग्यारा ग्यारसी, प्रोषध करि बारा बारसी । तेरसि तेरस वास वखाणि, चौदसि चौदह प्रोषव ठाणि ॥९७ पून्यो पन्दरह करि उपबास, अमावस पन्दरह करि तास । शील सहित प्रोषध सब करे, भव भव के संचित अघ हरे ॥९८
ar सिंहनिःकोडित व्रत । दोहा
सिंहनि: क्रीडित तप तणो, कहुँ विशेष वखाण । विधि सों कीजे भावजुत करम निरजरा ठाण ॥९९
चालछन्द
प्रथम हि करि इक उपवास पुनि दोय एक तिहुं जास । दोय चारि तीन पणि कीजे, चव पाँच थापि करि दीजे ॥ १७००
चहुं पाँच तीन चहुं दोई, तिहुं एक दोय इक होई । सब वास साठि गण लीजे, तसु वीस पारणा कीजे ॥१ अस्सी दिन में व्रत एह, करि कह्यों जिनागम जेह । इह तप शिव-सुख के दायक, कीन्हों पुरब मुनि-नायक ॥२ अथ लघु चौतीसी व्रत । दोहा
अतिशय लघु चौतीस व्रत, तास तणो कछु भेद । कथा - माहिं सुनियो जिसो, किये होय दुख छेद ॥३ अडिल्ल छन्द
दस दसमी जनमत के अतिसय दस तणी, फिरि दस केवल ज्ञान ऊपजं दस भणी । चोदसि चौदह अतिशय देवाकृत कही, चार चतुष्टय चौथ चार इह विधि गही ॥४ षोडश आ प्रतिहार्य की बसु भणी, ज्ञान पाँच की पाँच पाँच कही गणी । अरु षष्ठी छह लही सबै प्रोषध सुनो, पाँच अधिक भवि सांठ कीए फल बहु गुणो ॥५
अथ बारासे चौतीसी को व्रत
दोयज पांच आठे ग्यारस चउदसी, इनके प्रोषध करे सकल अघ जैन सी । प्रोषध सब बारह सौ अरु चौतीस ही, नाम बरत बारासे चौतीसी कही ॥६
अथ पंचपरमेष्टी का गुणव्रत । उक्तं च गाथा अरहंता याला सिद्धा अट्टेव सूरि छत्तीसा । उवझायापणवीसा साहूणं हुति अडवीसा ॥७
२२३
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१२४
श्रावकाचार -संग्रह
बोहा
कहूं पंच परमेष्ठि के, जे जे गुण सगरीस । छयालीस बसु तीस छह, अरु पचीस अडवीस ॥८ अरहंत के गुण वर्णन
कहूं छियालीस गुण अरहन्त, दस अतिसय जनमत ह्वे सन्त । केवलज्ञान भये दश थाय, दुहुं की वीस दसे करवाय ॥ प्रातिहार्य को आठें आठ, चौथि चतुष्टय चहुं ए पाठ । सुरकृत अतिशय चवदह जास, चौदहस चौदसि गनिए तास ||१० सिद्ध
गुणवर्णन
अब सुनिए वसु सिद्धन भेद, करिए वास आठ सुणि तेह | समकित दूजो णाण बखाण, दंसण चौथो वीरज जाण ॥११ सूक्षम छट्ठो अवगाहण सही, अगुरुलघु सप्तम गुण गही । अव्याबाध आठमो धरै, इन आठों की आठें करें ॥१२
आचार्य के छत्तीस गुण
आचारिज गुण जे छतीस, तिनकी विधि सुनिए निसि दीस । बारसि बारा तप दश दोय, षडावश्यकी छठि छह होय ॥ १३ पांर्चे पांच पांच आचार, दश लक्षण की दशमी धार । तीन तीज तिहुँ गुप्त जो तणी, प्रोषध ए छह तोस जो भणी ॥ १४ उपाध्याय के पच्चीस गुण
गुण पचीस उवझाया जानि, चौदह पूरब कहे बखान । ग्यारा अंग प्रकाशै धीर, ए पचीस गुण लखिये वीर ॥ १५ चौदा चौदस के उपवास, ग्यारां ग्यारसि प्रोषध तास । उपाध्याय के गुण हैं जिते, वास पचीस वखाणें तिते ॥ १६ साधु के अट्ठाईस गुण
साधु अठाईस गुण जाणिये, तिनि प्रोषध इनि विधि ठाणिए । पंच महाव्रत समिति जु पंच, इन्द्री विजय पंच गणि संच ॥ १७ इनकी पंद्रह पक्षे करे, षडआवसिको छठि छह धरे । भूमि सयन मञ्जन को त्याग, वसन-त्यजन कचलोंच विराग ॥१८ भोजन करे एक ही बार, ठाड़ो होइ सो लेइ अहार । करे नहीं दांतण की बात, इनि सातों को पडिवा सात ॥ १९ सब मिलि प्रोषध ए अठबीस करिहै भवि तरिहै शिव ईस । पंच परम गुरु गुण सब जोड़, सौ पर तियालीस धरि कोड ॥ २०
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
करिए प्रोषध तिनके भव्व, सुरपद के सुखदायक सब्ब । अनुक्रम शिव पावै तहकीक, जिनवर भाष्यो है इह ठीक ॥२१
अथ पुष्पांजलि व्रत । अडिल्ल
भादों तें वसु चैतमास परयंत ही, तिनके सित पख मैं व्रत पुष्पांजलि कही । पंचम तें उपवास पांच नवमी लगे, किये पुण्य उपजाय पाप सिगरे भनेँ ॥२२ अथवा पांच नवमी वास दुय ही करै, छठि सातैं दिन आठे तिहुं कांजी करें । छठि आ एकन्त वास तिहु कीजिए, दोय वास एकंत तिनहूँ लीजिये ॥२३ पांच वरष लौ बरत इह, करि त्रिशुद्धता धार । ता फल उतfकष्ट हूं, यामैं फेर न सार ॥२४
अथ शिवकुमार का बेला | चौपाई
शिवकुमार का बेला जान, सुनी कथा जिन कहूँ बखान । चक्रवत्ति का सुत सुखधाम, शिवकुमार है ताको नाम ||२५ घर में तप कीनो तिह सार, बेला चौसठि वर्ष मझार । त्रिया पांच से के घर मांहि, करें पारणे कांजी आहि ॥२६ पुरण आयु महेन्द्र सुर थयो, तहंतें जंबू स्वामी भयो । दीक्षा धर तपकरि शिव गयो, गुण अनंत सुख अंत न पयो ॥ २७ वर हजार एक प्रति एक, बेला चौसठि घरि सुविवेक । करे आयु लघु जानी अवै, शील सहित धारो भवि सर्वै ॥२८ लगते कारण सकति को नाहि, आठ चौदस कर सक नाहि । इनमें अंतर पाड़े नहीं, सो उत्तकिष्ट लहै सुखग्रही ॥ २९ अथ तीर्थङ्करों का वेला । दोहा
ऋषम आदि तोर्थेश के, बेला बीस रु चार । आठ चौदस कीजिए, अंतर भूर न पार ||३० चौपाई
सातै आठमि बेलो ठान, नौमी दिवस पारणों जान । तेरसि चोदसि दुय उपवास, मावस पूण्यों भोजन तास ||३१ अब पारणा की विधि जिसी, सुणो वखाणत हों मैं तिसी । बेला प्रथम पारण एह, तोन आंजली शर्वत लेह ||३२ अरु तेईस पारणा जान, तीन आंजली दूध बखान । इम बेला कीजे चौबीस, तिन तैं फल अति लहे गरीस ||३३
अथ जिनपूजा पुरंदर व्रत गीताछन्द
बरत जिन पूजा पुरंदर सुनहु भवि चित्त लाय के, बारा महीना मांझ कोई मास इक हित दायकै ।
२९
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श्रावकाचार-संग्रह ताकी सुकल पडिवा थकी ले अष्टमी लौ कीजिए, प्रोषध इकंतर आठ दिन में पूज जिन शुभ लीजिए ॥३४
दोहा
बरत यह दिन आठ को, बार एक करि लेह । मन वच तन तिरकाल जिन, पूजे सुरपद देह ॥३५
___ अथ रोहिणी व्रत ब्रत अशोक रोहणि तनो, करिहै जे भवि जीव । सात बीस प्रोषध सकल, धरि त्रिशुद्धता कीव ॥३६
অজিত গুৰ जिह दिन मांझे नक्षत्र रोहिणी आय है, ताको प्रोषध करै सकल सुखदाय है। अनुक्रमते उपवास सताईस जानिए, वरष सवा दुय मांहि पूर्णता मानिए ॥३७
अथ कोकिला पञ्चमी व्रत । दोहा अबे कोकिला पञ्चमी, बरत कहो विधि सार। शील सहित प्रोषध किये, सुरपति को दातार ॥३८
द्रुत विलंबित छन्द पक्ष अंधयारे मास असाढ ही, करिये प्रोषध कातिक लों सही। तिथि मु पंचमी के उपवास ही, प्रति सुकोकिल पंचमि को लही ॥३९
दोहा
मरयादा या बरत की, सुनहु भविक परवीन । पांच वरष लों कीजिए, त्रिविध शुद्धता कीन ।।४०
अथ कवल चंद्रायण व्रत वरत कवल चंद्रायणा, बारह मास मंझार । एक महीना में करै, एक बार चित धार ॥४१
चौपाई करहि अमावस को उपवास, पार्छ तें इक चढ़ता ग्रास । पडिवा दिवस ग्रास इकलीन, दोयज दोय तीज दिन तीन ॥४२ चौथ चार पण पांचै सही, छट्टि छह सातें सत लही। आळं आठ नवमि नो टेक, दशमी दस ग्यारहि दस एक ॥४३ बारसि बारह तेरसी जान, तेरसि चौदस चौदह ठांन । पून्यो दिवस लेई दस पांच , सुकल पक्ष की ए विधि सांच ॥४४
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष कृष्ण पक्ष की पडिवा जास, चौदह गास तणो परगास । दोयज तेरह बारह तीज, चौथ ग्यार पंचमी दस लीज ॥४५ छह नव सात आठ वखाण, आउँ सात नवमि छह जाण । दसमी पांच ग्यारसी चार, बारसि तिहुं तेरसि दुय धार ॥ चौदस दिनहि गास इक जाण, मावस दिवस पारणी ठाण । एक मास को व्रत है एह, गास लीजिये तिम सुणि लेह ॥४७ गास लैंन कों ऐसी करे, मुख में देत न करतें परे। बीच पिवो पाणी न गहाय, अतराय गल अटके थाय ॥४८ जिन पूजा विधि जुत दिन तोस, करै वन्दना गुरु नमि सोस । शास्त्र वखाण सुणे मन लाय, धरम कथा में दिवस गमाय ॥४९ पाले शील वचन मन काय, इह विधि महा पुण्य उपजाय । यात सुरपद होवै ठीक, अनुक्रम शिव पांव तहकीक ॥५०
अथ मेक पंक्ति वत बरत मेरु पंकति जो नाम, तास करन विधि सुनि अभिराम । दीप अढ़ाई मध्य सुजाण, पंचमेरु जो प्रकट वखाण ॥५१ जंबूद्वीप सुदर्शन सही, विजय सु पूरब धातकी सही। अपर धातकी अचल प्रमान, प्राची पोहकर मंदर मान ॥५२ पुहकर अपर जु विद्युन्मालि, पंच मेरु वन बीस सम्हालि। तिन में असी चैत्यगृह सार, तिनके व्रत प्रोषध निरधार ॥५३ सुनहु सुदरशन भूधर जेह, भद्रसाल वन चहुँ दिसि तेह । जिन मंदिर तिह चार वखाण, प्रोषव चार इकंतर ठाण ॥५४ पाछे बैलो कीजे एक, वन सौमनस दूसरो टेक। चार जिनेश्वर भवन प्रकाश, चार वास पुनि बेलो तास ॥५५ नंदन वन जिन प्रोषध चार, पीछे ताके बेलो धार । पांडुक वन चउ जिनवर गेह, ताके चहु प्रोषध धरि एह ॥५६ पुनि बेलो धारो भवि सार, मेरु सुदरसन इह बिसतार। प्रोषध सोलह बेला चार, व्रत दिन चहु चालीस मंझार ॥५७ चार बीस उपवास वखाण, बोस जु तास पारणा जाण। ऐसे अनुक्रम करिए भव्व, पंच मेरु व्रत विधि सों सब्ब ॥५८ ध्यावत मेरु सुदरशन नाम, तेई नाम सबनि सुख धाम । वाही विधि सब वरत जुतणी, जाणों सही जिनागम भणी ॥५९ इनमें अन्तर पाडे नहीं, लगते प्रोषध बेला गही। सब प्रोषध को ऐसे जोड़, बेला बास करे चित कोड़ ॥६० बास सकल एक सौ बीस, करे पारणा सत्तर तीस । सात महीना दिन दस माहि, सकल बरत इम पूरण थाहि ॥६१
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श्रावकाचार-संग्रह
सकल वास बेला विच जाण, बीस इकंत जु कहे वखाण । ऐसे बीस दिवस जानिए बरत मेरु पंकति मानिए ॥६२ शील सहित शुभ व्रत पालिये, हीण उदे विधि के टालिए । सुरपद पावे संशय नाहि, अनुक्रम भव लहि शिवपुर जाहि ॥६३
बोहा
वरत मेरु पंकत इहे, वरन्यो सुख-दातार ।
करहु भविक समकित - सहित, ज्यों पावे भाव पार ॥६४ पंचमेरु के बीस वन, तहाँ असी जिन गेह । तिनके व्रत की विधि सकल, पूरण कीनी एह ॥६५
अथ पल्य विधान व्रत । दोहा
सुनहु पल्य विधान व्रत, जिन आगम अनुसार । वरष बहत्तर कीजिए, बारा मास मझार ॥६६
चाल छन्द
आसोज किसन छठि तेरस, सुदि बेलो ग्यारस बारस । चौदसि सित प्रोषध धरिये, कातिक वदि बारस वरिए ॥६७ प्रोषध सुदि तीजरु बारसि, मगसिर वदि वारसु ग्यारसि । सुदि तीज अबर करि बारसि, वदि पोसह दुतिया पंदरसि ॥६८ सुदि पाँच सातें कीजे, पून्यूं को वास घरीजे ।
वदि माघ चौथ सातें गनि, चौदस उपवास धरो मनि ॥ ६९
सुदि सातें आठ बेलो, दशमी करि वास अकेलो । फागुण पाँच छठि कारी, बेलो सुणि तिथि उजियारी ॥७०
पुनि पडिवा ग्यारसि लीजे, दोनों दिन भेलो कीजे । afe पडिवा दोयज बेलो, चैत की करो इकेलो ||७१ चौथ छठि इकादस अठमी, सुदि सातें को अर दसमी । वैशाख चौथ वदि धारी, दशमी वास पुनि कारी ॥७२ सित दोयज तीज धरीजे, नौमी तेरसि दुहुँ लीजे । दसि प्रोषध तेरसि ठान, चौदस मावस तेलो जान ।७३ सुदि आठ दसमी पंदरस, उपवास करो करि मन वस । अब सांवण मधि जे वास, कहि हों भवि सुनियो तास ॥७४ छठि चौथि अष्टमी सावण, पुनि चोदसि सित तृतीया भण । बारसि तेरस को भेलो, पून्यं को वास अकेलो ॥७५ भादों वदि दोयज वास, छठि सातें वेलो तास । बारस उपवास धरीजें, सित पाखज एक करीजै ॥ ७६
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
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ममावत
तेलो पांचे छठि सातें, सुत नौमी वास क्रियातें। ग्यारस बारस तेरस कों, प्रोषध तेलों पन्दरस कों ॥७७ उपवास आठ चालीस, तेला चहु कहे गरीस। वेला छह जिनवर भाखे, जिन आगम में इह आखे ॥७८ ए वरष एक में बास, सत्तरि दुय आगम में भास। धारणे पारणों सन्त, करिये एकन्त महन्त ॥७९ धरि शील त्रिविधि नर नारी, व्रत करहु न ढील लगारो। सुर ह अनुक्रम शिव जाई, विधिपल्यतणी इह गाई ॥८०
अथ रुक्मिणी व्रत
सर्वया इकतीसा लक्षमी मती का भव वाहिं व्रत कीनो इह श्वेत भाद्र पद आउँ प्रोषध अदाय के। दोय जाम धरणे और चार उपवास दिन पूजा रचे दोय याम पारणो बनायकें ॥८१ कीनों आठ वरष लौं शुद्ध भाव देह त्यागि अच्युत सुरेश इंद्राणी पद पायकै । भई रुक्मिणी कृष्ण वासुदेव पट तिया रुक्मिणो नाम ब्रत जाणो चित लायक ॥८२
अथ विमानपंक्ति व्रत । दोहा व्रत विमान पंकति तणे, विधि सुनिये भवि सार । मन वच क्रम करिए सही, सुर सुरेश पद धार ॥८३
अरिल्ल सौधर्म रु ईशान स्वर्ग दुई ते गही, पंच पिचोत्तर लगै पटल वेसठ कही। तिनको चहुंदिस माहि बद्ध श्रेणी जहां, जैन भवन है अनेक अकृत्रिम हो तहां ॥८४
दोहा
तिनके नाम विधान को, बरत इहे लखि सार । जहां जहां जेते पटल, सो सुनिये विस्तार ॥८५
चौपाई दुय सुर गनि इकतीस विख्यात, सनत कुमार महेंद्रहि सात । चार ब्रह्म ब्रह्मोत्तर सही, लांतव कापिष्ठ है द्वय सही ।८६ एक सुक्र महासुक्रह धार, एकहि शतार अरु सहसार । आणत प्राणत आरण तीन, अच्युत लग छह पटल प्रवीन ॥८७ नव नव ग्रैवेयक जानिये, नव नवोत्तर इक मानिये । पंच पंचोत्तर पटल जु एक, ए ग्रेसठ मुणि धरि सुविवेक ।।८८ अबै वरत प्रोषध विधि जिसी, कथा प्रमाण कहों सुनि तिसी। एक पटल प्रति प्रोषध चार, करे एकंतर चित अवधार ॥८९
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२३.
श्रावकाचार-संग्रह
प्रोषध लगते बेलो एक, करि भविजन मन धरि सुविवेक । ता पीछेप्रोषध चहुंजान, तिनके पीछे बेलो ठान ॥९. चहुं प्रोषध बेलो चहुं वास, छट चहु अनसन पुनि छठ तास । इह विधि प्रेसठ बार विधान, चहुं प्रोषध छठ अनुक्रम जान ॥९१ वेसठ बार जु पूरण थाय, इक लगतो तेलो करवाय । बीच इकंतर असन जु करै, एक भुक्त अंतर नहीं परै ९२ इनके वेला अरु उपवास, अनसन दिवस रु तेलो जास। अरु सब दिन इकठे कर जोड़, सो सुणल्यौं भवि चित धरि कोड़॥९३ छह सौ दिबस सताण जाण, वरत दिवस मरयाद बखाण । बास इकन्तर दुइसे जाण, तिन ऊपर बावन परवान ॥९४ प्रेसठ छठ तेलो इक जान, अब सब वास जोड़ इम मान। वास इक्यासी पर सय तीन, असन तीन से सोला जान ॥८५ इह व्रत तीन भवन में सार, विधिजुत किए देवपद धार । अनुक्रम शिव जैहै तहकीक, अवधारहु व चित धरि ठीक ॥९६
अथ निर्जर पंचमी व्रत
सर्वया इकतीसा प्रथम असाढ़ सेत पंचमी को वास करे कातिकलो मास पांच प्रोषध गहीजिये । आठ परकार जिनराज पूजा भावसेती उद्यापन विधि करि सुकृत लहीजिये ॥ कीयो नागश्रिय सेठ सुता एक वरष लों सुरगति पाय विधि कथातें पाईजिये । निर्जर पंचमी को व्रत इह सुखकार भाव शुद्ध कीए दुःख को जलांजलि दीजिये ॥९७
अथ कमंनिर्जरणी व्रत दरसण के निमति चौदसि आसाढ़ सुदि, सावण की चौदस सुज्ञानकाज कीजिये । भादों सुदि चौदस को प्रोषध चारित केरो तपजोग चौदसि असौज सित लीजिये ।। एई चार प्रोषध वरष मांहि विधि सेती कर्म निर्जरनी वरत सुन लीजिये । धनश्रीय सेठ सुता करि सुरपद पायो अजों भबि भावि करिव को चित दीजिये ॥९८
अथ आदित्य वार व्रत
बोहा सुणो वरत आदित्यको, विधि भाषी है जेम । कथा प्रमाण सु कहत हों, दायक सब विधि क्षेम ॥९९
चौपाई प्रथम एक माहे आसाढ, आठई पून्यू विचि आठ। सांवण मांहि करे पुनि चार, चार वास कर भादों मझार ॥१८००
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२१
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष तजे चकार मकार विचार, वरष एक माहें नव बार। करें वरष नवलों निरधार, उजुमण करो सकति संमार ॥१ उत्तम प्रोषध की विधि जाण, आमिल दूजी जगत वखाण। तृतीय प्रकार कह्यो इकठान, एक भुक्ति विधि चौथी जान ॥२ संयम शील सहित निरधार, वरष जु नव को इह विसतार । वरष एक में कीयो चहै, दीत याठ चालीस जु गहे ॥३ विधि वाही चहुं बार बखाण, पार्श्वनाथ जिन पूजा ठाण । कीजे उद्यापन चहँ सार, पीछे तजिए व्रत निरधार ॥४ उद्यापन की शक्ति न होय, दूणों व्रत करिये भवि लोय । सेठ नाम मति सागर जाण, त्रिया गणवती जास बखाण ॥५ तिह इह व्रत को फल पाइयो, विधि तें कथा माहिं गाइयो। इह जाणी कर भविजन करी, व्रत फल तें शिवतिय कू वरो॥६
अथ कर्म-चूर व्रत कर्म चूर व्रत की विधि एह, आठ भांति भाषत हों जेह । आठ आठ आठ में करै, चौसठि आठे पूरा परै ॥७ प्रोषध आठ करै विधि सार, इक ठाणा वसु एक ही बार । एक गास ले इक दिन मांहि, आठहि नयेड करे सक नाहिं ॥८ करहि इक फल्यो हरित तजेय, सीत दिवस तन्दुल इक लेय। लाडू तिथि इक लाडू खाय, कांजी आठ करें सुखदाय ॥९
बोहा वरष दोय बसु मास में, व्रत पूरो द्वै एह । शील सहित व्रत कीजिये, दायक सुर शिवगेह ॥१०
अथ अनस्तमित वत
चौपाई अनस्तमित व्रत विधि इम पाल, घटिका दुय रवि अथवत टालि। दिवस उदय घटिका दुय चढे, तजि आहार चहु विधि व्रत बढे ॥११ याकी कथा विशेष विचार, भाषी वेपन क्रिया मझार । याते कहीं नहीं इह ठाम, निसि भोजन तजिये अभिराम ||१२
अथ पंचकल्याणक व्रत
वोहा
व्रत कल्याणक पंचमी, प्रोषध तिथि विधि जाण । आचारज गुणभद्रकृत, उत्तर पुराण प्रमाण ॥१३ तीर्थकर चौबीस के, गरभकल्याणक सार । तिथि उपवास तणी सुनो, करिये तिस मन धार ॥१४
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२३२
श्रावकाचार-संग्रह
गर्भ कल्याणक । पद्धड़ी छन्द
दोय असाढ वदि वृषभधीर, छठि वासुपूज्य सुदि छठि जु बीर । मुनिसुव्रत सांवण दुतीय श्याम, दसम करी जिन कुंथुनाम ॥ १५ सित दोयज सुमति सुगरभ एव, भादों बदि सातैं सांति देव । सुदि छठि सुपारस उदर-मात, नमि बदि कुवारि दोयज विख्यात ॥ १६ कातिक बदि पड़िवा जिन अनन्त, सुदि छठि नेमि प्रभु सूर महंत । पद्मप्रभु वदि छठि माघमास, फागुणवदि नौमी सुविधि तास ॥१७ अरहनाथ सुकल त्रितिया वखाण, आठ संभव उर मात ठाण । शसि प्रभ वदि पांचे चैत एव आठ सीतल दिन गरभमेव ||१८ सुदि एकैं जिनवर मल्लि जानि, वदि तीज पार्श्व वैशाख मानि । सुदि छठि अभिनन्दन गरभवास, जिन धर्मनाथ तेरसि प्रकाश ॥ १९ श्रेयांस जेठ वदि छठि गरीस, दशमी दिन उच्छव विमल ईश । जिन अजित अमावसि उदरमात, चौबीस गरभ उत्सव विख्यात ॥ २०
दोहा
बीस चार जिनवर गरभ, बासर कहे बखान |
अ जनम दिन तिथि सकल, सुनि भवि चित हित आन ॥ २१ जन्म कल्याणक | पद्धड़ी छन्द
आसाढ दसमी वदि नमि जिनेश, सावण वदि छठि नेमीश्वरेश | कार्तिक वदि तेरस पदम संत, मगसिर सुदि नौमी पुष्पदंत ||२२ ग्यारसि मल्लिनु जनमावतार, अरहनाथ जनम चौदसि सुसार । पूरणमासो सम्भव सुदेव, शसिप्रभ वदि ग्यारसि पौष एव ॥ २३ ग्यारस दिन पारश नाथ जान, शीतल जिन वारसि किसन मान । सित चौथ विमल नाम जु उछाह, दसमी सित उच्छव अजित नाह ॥ २४ बारसि अभिनन्दन जनम लीय, तेरसि जिन धर्म प्रकाशकीय | ग्यारसि फागुण श्रेयांसस्वामि, जिन वासुपूज्य चोदसि प्रणामि ||२५ बदि चैत नवमि रिसस स्वामि, दसमी सुनि सुव्रत पय नमामि । सुदि तेरस जन्मे वीरनाथ, सुमति दसमी वैशाख श्याम ||२६ सुदि पड़िवा जनमें कुंथुवीर, बारसि वदि जेठ अनन्त धीर । चौदसि श्री शांति कियो प्रकाश, सित बारसि जनमें श्री सुपाश ॥ २७
तप कल्याणक
नमि नाथ दशमी आसाढ श्याम, सावण सुदि छठ तप नेमिनाथ । कातिक वदि तेरस वीर धीर, मगसिर वदि दशमो पद्म वीर ||२८ सुदि एक दीक्षा पुहुप दन्त, दशमी दिन अरह जिन तप महन्त । जिन मल्लि तजो ग्यारसि सुगेह, सुदि पून्यों शंभव तप नेह ॥ २९
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३०
किशनसिंह- कृत क्रियाकोष
चन्द्रप्रभ बारस कृष्ण पोष, ग्यारसि पास तप्यो उ पखि पौष ।
सीतल जिन वदि द्वादसीय माह, सुदि चौथ विमल तप लियहु नाह ॥३० नवमी दिन दीक्षा अजित देव, बारस अभिनन्दन सु तप भेव । तेरस जिन धर्मं तपो प्रशंस, फागुण वदि ग्यारसि श्री श्रेयांस ॥३१ प्रभु वासुपूज्य चौदस सुजान, वदि चैतर नवमी रिसहमान । सुव्रत दशमी वैशाख श्याम, सुदि पडिवा कुन्थु जिनेस ताम ||३२ सित नवमी लियो तप सुमति वीर, तिन शांति जेठ वदि चौथ धीर । बदि बारस तप जिनवर अनंत, बारस सुपार्श्व सित जेठ सन्त ||३३
दोहा
तप कल्याणक को कथन, उत्तर पुराणह माहि ।
काढ़ि कियो अब ज्ञान को, सुनिहुँ चित्त इक ठाहि ||३४
ज्ञान कल्याणक । पचड़ीछन्द
जिन नेमीश्वर पड़िवा कुंवार, संभव जिन चौथाह ज्ञान धारि । कातिक सुदि दोयज पुहपदन्त, लहि केवल बारस अर महंत ||३५ मगसिर सुदि ग्यारस मल्लि सुबोध, ग्यारस नमि हणिया कर्म जोध । शीतल वदि चोदसि पोष ज्ञान, सुदि दसमी सुमति केवल महान ||३६ सुदि ग्यारसि अजित सुबोध पाय, चौदस अभिनन्दन ज्ञान पाय । पून्यों लहि केवल धर्म वीर, श्रेयांस अमावस माघ धीर ॥३७ सुदि वासुपूज्य दोयज प्रकाश, छोठ विमल नाथ केवल विभास । फागुण बदि छट्टी सुपावं ईश, सार्ते चन्द्रप्रभु नमूँ सीश ॥ ३८ फागुण वदि ग्यारस वृषभ जान, बदि चैत चौथ पारश बखान । अमावस श्री जिनवर अनंत, सुदि तीज कुंथु केवल लहंत ॥३९ सुदि ग्यारस सुमति जु बोध पाय, पदम प्रभु पून्यों ज्ञान थाय । सुव्रत नौमी बैशाख श्याम, सुदि दसै वीर जिन बोध पाम ॥४०
दोहा
ज्ञान कल्याणक वर्णयो, उत्तर पुराण में जेम । अनिर्वाण प्रमाण तिथि, सुनहु भविक धर प्रेम ॥४१ निर्वाण कल्याणक । पद्धड़ी छन्
आसाढ विमल आठे असेत, सुदि सातें शिव नेमी सहेत । सावण सुदि सातैं पार्श्वनाथ, पून्यों श्रेयांस लहिं मोक्ष साथ ॥४२ भादों सुदि आठें पुहपदंत, जिन वासुपूज्य चौदस नमंत । सीतल जिन आसित कुमार, कातिक मावस भव वीर पार ॥४३ दि महा चतुर्दशि वृषभनाम, पद्म प्रभु फागुन चौथ श्याम । सातें सुपार्श्व शिव लहीय धीर, चंद्र प्रभु सातें त्रिजग तीर ॥४४
२३३
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श्रावकाचार-संग्रह वदि बारसि मुनि सुव्रत बखाण, सुदि पांचें मल्लि जिनेस बाण। वदि चेत मावसी नंत नाथ, अमावस अर जिन मोक्ष साथ ।।४५ सुदि पांचे शिव जिन अजित पाय, सुदि छठ संभव निर्वाण थाय । सुदि ग्यारसि सुमति सु मोक्ष धीर, नमि वदि चौदसि बैशाख तीर ॥४६ सुदि एक शिव-दिन कुंथु जाण, अभिनंदन छठ निर्वाण ठाण। वदि चौदसि जेठ सु शांतिनाथ, सुदि चौथ धर्म शिव कियो साथ ॥३७
बोहा कल्याणक निर्वाण की, तिथ चौबीस विचार । कही जेम भाषी तिसी, उत्तर पुराण मझार ॥४८ है सम्पूरण व्रत जबे, कर उद्यापन सार । आगम में जिन भाषियो, सो भवि सुन निरधार ॥४९
उखापन की विधि । चौपाई पांच कीजिये जिनवर गेह, पांच प्रतिष्ठा कर शुभ लेह । झालरि झांझ कंसाल, ताल, छत्र चमर सिंघासन सार ॥५० भामंडल पुस्तक भंडार, पंच-पंच सब कर निरधार । घंटा कलश ध्वजा पण थाल, चंद्रोपक बहु मोल विशाल ॥५१ पुस्तक पांच चैत गृह धरै, तिन बांचे भवि जन भव तरे। चार संघ को देय आहार, जिन आगम भाषी विधि सार । ५२ इतनी विधि जो करी न जाय, सकति प्रमाण करे सो आय । सकति उलंघन न करनी कहीं, सकति बान कर परहै नहीं ।।५३ काहू भांति कछू नहिं थाय, तो दूणो व्रत कर चित लाय । बब बरत करिहै नर नार, करै दान सुन हिये अवधार ॥५४ गरम कल्याणक की दत्त जान, मैदा का करि खाजा आन । बांटे सबको घर अहलाद, करे इसी विधि हर परमाद ।।५५ जनम कल्याणक दत्त विस्तरे, चिणा भिजोय रु बिरहा करे । मैदा फल घर वाटे नार, चित्त माहि अति हित अवधार ॥५६ तप कल्याणक दत्त अवधार, बाजर पापर खिचड़ी धार । बिन बागम ही बखाणी नहीं, युक्ति मान मानस विधि गही ॥५७ शान कल्याणक पूरा थाय, बबे दान दे मन चित लाय। पाठ मंगाय बांटै तिया, मन में हरष सफल निज जिया ।।५८ करके कल्याणक निर्वाण, तास दान को करे बखान ! मोतीचूर रु मगद कसार, लाडू कर बांटे सब ठार ॥५९ बीस चार घर की मरयाद, दे अति मान हिये अहलाद । मन को उकति उपावै घणी, जिन शास्त्रनि माहें नहीं भणी ॥६०
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किशनसिह-कृत क्रियाकोष यातें सुनिये परम सुजान, जिन आगम भाष्यो परमान। थोड़ो किये अधिक फल देय, भाव-सहित कर सुर-पद लेय ६१
अडिल्ल जिम निज आगम को दान तिम दीजिये, निज मन युक्ति उपाय कबहु नहिं कीजिये। कलीकाल नहिं जोग संग नहिं पाइये, जास बराबर धर्म तिनहि चित लाइये ॥६२ भोजनादि निज सकति जत, दानादिक विधि सार। करि उपजावे पुण्य बहु, यामें फेर न सार ॥६३ एकासन कर धारणे, अवर पारणे जान। शील सहित प्रोषध सकल, करहु सुभवि चित आन ॥६४
मरहटा छन्द कल्याणक सारं पंच प्रकारं गरभ जनम तप णाण, पंचम निर्वाणं वरत प्रमाणं कहियो महापुराण । तिनकी विधि भाखी जिम जिन आखी किए लहै सुर गेह, अनुक्रम शिव पावै जे मन भावे ते सब जानी एह ॥६५
निर्वाण कल्यानक काबेला । चौपाई जे जे तीर्थकर निर्वाण, गए तास दिन की तिथि ठाण । तिह दिन को पहिलो उपवास, लगतो दूजो वास प्रकाश ॥६६ इह विधि बारह मास मझार, बेला करिये बीस रु चार । वेला कल्याणक निर्वाण, वरत नाम लखिये बुध माण ॥६७
लघुकल्याणक को व्रत । दोहा गरभ जनम तप ज्ञान शिव, तीर्थङ्कर चौबीस । वरस मांहि तिथि सबन की, करै एक सो बीस ॥६८
छप्पय रिषभ गरभ वदि दुतिय गर्भ छठि वासु पूज गन, आ विमल सुज्ञान दशमी नमि जनम रु तप मन । वर्धमान छठि सुकल गरभ माता के आए, सुदि सातें जिन नेमि करन हणि मोक्ष सिधाए। आसाढ़ मास माहे दिवस, छह माहे ही जांणियो, छह कल्याणक सातमो, छह जिनवर को ठाणियो ॥६९
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श्रावकाचार-संग्रह
मुनि सुव्रत जिन देव गरभ बदि दोयज वासर, कुंथु गरभ वदि दसे सुमति सित वीज गरभ वर । नेमनाथ सित छठी जनम दिन तप पुनि धरियो, साते पारशनाथ मोक्ष लहि भव दधि तरियो । श्रेयांसनाथ निरवान पद, पून्यं के दिन सरदही। सावण सुमास छठि दिन विषे, सात कल्याणक है सही ॥७० वदि भादौं जिन शांति गरभ सातें माता उर, सुदि छठि गरभ सुपास अष्टमी मोक्ष सुविधि पर । वासुपूज्य निर्वाण चतुर्दसि भादौं जाणो, वदि दोयज आसोज गरभ नमि जिनवर मानो। लहि मोक्ष नेमि एक सकल, आउँ शीतल शिव गए । दुह मास मांहि दिन सात मैं, कल्याणक सातहि भए ।।७१ गरभ अनन्त जिनेश प्रतिपदा कातिक करियो, संभव केवल चौथ त्रयोदसि पद्म जनम लियो। तप पुनि तेरसि पद्म मोक्ष नमति जु अमावस, सुविधि ज्ञान सित बीज नेमि छठि मात गरभ वस । अरनाथ चतुष्टय विधि हणिवि, केवल ज्ञान उपानियो । दिन सात कल्याणक आठ सब, काती मांहि सुजानियो ॥७२ सन्मति तप वदि दसें सुविधि सुदि एकै तप गन, पुहपदन्त नय जनम दसम तप अरहनाथ मन । मल्लि जनम तप ज्ञान कल्याणक चिहुँ सित ग्यारस, नमि तिस ग्यारसि ज्ञान जनम अरनाथ सु चौदस । संभव जु कल्याणक जनम तप, दुहूं पूरणवासी थए । दिन सात कल्याणक, एकदस मगसिर माहीं वरणए ।।७३ पारशनाथ सु जनम अवर तप ग्यारसि कारी, जनम चन्द्र प्रभ तास दिवस दिक्षाहू धारी। चौदस शीतल ज्ञान शांति सुदि दशमी विधि तसु, ग्यारस केवल अजित जिनेश्वर प्रगट भयो जसु। प्रभु अभिनन्दन चौदसि दिवस, लोकालोक प्रकासियो। दिन पाँच कल्याणक आठ जुत, पौष महीनो भासियो ।।७४
दोहा
फागुण दिन ग्यारसि विषे, कल्याणक जिनराय । पंदरह किये त्रिजगत-पति, नमै किसन सिर नाय ॥७५
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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
छन्द त्रिभंगी अष्टाह्निक धारण सोलह कारण व्रत दशलक्षण रतनत्रयं, शुभ लब्धि विधानं अखय निधानं मेघ सु मालो षडरसयं । ज्येष्ठादिक जिनवर रसपाण्यावर ज्ञान पचीसी अखय दसै, समवादिक सरणं व्रत सुख करणं सुखं पंचम आकास लसै ॥७६ खंडेलीवाल वंसबिसालं नागर वालं देस धियं, रामापुर वासं देव निवासं धर्म प्रकासं प्रकट कियं । संघ ही कल्याणं सब गुण जाणं गोत्र पाटणी सुजस लियं, पूजा जिनरायं श्रुत गुरुपायं नमै सकति जिन दान दियं ॥७७ तसु सुत दोय एवं गुरु सुखदेवं लहुरो आणदसिंघ सुणी, सुखदेव सुनंदन जिनपद वंदन ज्ञान मान किसनेस मुणो। किसनै इह कीनी कथा नवीनी निज हित चीनी सुरपदकी, सुखदाय क्रिया भनि इह मन वच तन शुद्ध पलें दुरगति रदकी ॥७८
बोहा मधुर राय बसन्त को, जाने सकल जहान । तस प्रधान सुत कोन जू, किसन सिंह मनमान ॥७९
अडिल्ल क्षेत्र विपाकी कर्म उदै जब आइयो, निज पुर तजि कै सांगानेर बसाइयो। तह जिन धर्म प्रसाद गर्न दिन सुखलही, साधरमी जन सजन मान दे हित गही ।।८०
दोहा इह विचार मन आनियो, क्रिया कथन विधिसार । होय चौपई बंध तो, सब जन कुं उपगार ॥८१ सब ही जन वांचो पढौ, सुणी सकल नर नार। सुखदाई मन आणिये, चलो क्रिया अनुसार ॥८२
छन्दचाल व्याकरण न कबही देख्यो, छन्द न नजरां अवलेख्यो। लघु दीरघ वरण न जाणूं, पद मात्रा ह न पिछाणं ॥८३ मति-हीन तहां अधिकाई, पटुता कबहूँ नहि पाई। मनमांही बोहि आई, श्रेपन किरिया सुख दाई ॥८४ इह कथा संस्कृत केरी, भाषा रचिहों शुभ बेरी। कछु अवर ग्रंथ ते जानी, नानाविध किरिया आनी ।।८५ घर क्रियाकोष तिस नाम, पूरण करिहो अभिराम । जिम मूढ़ समुद्र अबगाहै, जिन भुजतें उतरो चाहै ॥८६ गिरि परि तरु को फल जानी, कुबजक मनि तोरन ठानी शशि नीर कुंड के मांहीं, करतें शशि-बिम्ब गहाही ॥८७
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२१८
श्रावकाचार-संग्रह तिम सज्जन मुझको भारी, हंसिहै संशय नहिं कारी। बुधजन मो क्षिमा करीजे, मेरो कछु दोष न लीजे ।।८८ जो अशुद्ध होय पद याही, शुध करि पढियो भवि ताही । अधिको नहिं कहनो जोग, बुधजन को यही नियोग ।।८९
बडिल्ल किसन सिंह इह अरज करे सब जन सुनो, कर मिथ्यात को नाश निजातम पद सुनो। क्रिया सहित व्रत पाल करण बश कीजिये, अनुक्रम लहि शिव थान शाश्वता जीजिए ॥९०
॥ सवैया इकतीसा ३१॥ सत्रह सौ सम्बत् चौरासो यासु भादों मास वर्षारितु स्वेत तिथि पून्यो रविवार है। शतिभिषा रवि धृतनाम जोग कुम्भ ससि सिंघको दिनेस मुहूरत अति सार है । ढुंढाहर देस जान बसे सांगानेर थान सिंह सवाई महाराज नीति धार है। ताके राज-समय परिपूरण की इह कथा भव्यनि को हिरदय हुलास देनहार है ॥९१ द्वैसे चौवन पैतीस इकतीसा मरहटा पचास पांच से बीस ठाने हैं।। सातसै छाणवे सु चौपई छबीस छप्पै पीड़ी पैंतीस तेरा सोरठा बखाने हैं। अडिल्ल बहत्तर नाराच आठ गीता दस कुण्डलिया तीन छह तेईसा प्रमान है। दूत विलंबितं चार आठ हे भुजगी तीन त्रोटक त्रिभंगी नव छन्द ऐते आने हैं ॥९२
॥सवैया तेईसा २३ ॥ छन्द कहे इस ग्रन्थ मझार लीए गनि जे उक्तं च धराई, दोय हजार मही लखि घाट पंचसीय एह प्रमान कराई। जो न मिले तुक अक्षर मात तदा पुनरुक्क न दोष ठराही, तो मुझको लखि दीन प्रवीन दसो मति में तुम पाय पराही ॥९३ ग्रन्थ लिखै इह लेखक को इक है मरयाद सिलोक किती है, छन्दनि के सब अक्षर जोरि रूप ध्वनि अंक जु मांधि तिठी है। ते सब वर्ण बतीस प्रमाण श्लोकनि को गणती जुइती है, दोय हजार परी नवसे लखि लेहु जिके भवि शुद्धमती है ।।९४
छप्पय छन्द मंगल श्री अरिहंत सिद्ध मंगल सिव-दायक, आचारज उवझाय साधु गुरु मंगल-लायक । मंगल जिनमुख खिरी दिव्य धुनि मय जिनवाणी, मंगल श्रावक नित्य समकिती मंगल जानी। मंगल जु ग्रन्थ इह जानियो, वक्ता-मुख मंगल सदा । श्रोता जु सुनै निज गुण मु., मंगल कर तिनको सदा ॥९५
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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
दोहा किसनसिंह कवि वीनती, जिन श्रुत गुरु सों एह । मंगल निज तन सुपद लखि, मुझहि मोझ पद देह ॥९६ चौपाई
जब लों धर्म जिनेश्वर सार, जगत मांहि वरते सुखकार । तब लों विस्तारो यह ग्रन्थ, भविजन सुर- शिव-दायक पंथ ॥ ९७
इति श्री क्रियाकोष भाषा मूल त्रेपन क्रिया ते आदि दे और ग्रन्थों की साख का मूल कथन ऊपर व्रत सम्पूर्णम् ॥
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श्री दौलतराम कृत क्रियाकोष
मंगलाचरण
दोहा
प्रणमि जिनन्द मुनिंद को नमि जिनवर-मुख वानि । क्रियाकोष भाषा कहूं, जिन आगम परवानि ॥१ मोक्ष न आतम-ज्ञान बिन, क्रिया ज्ञान बिन नाहि । ज्ञान विवेक विना नहीं, गुन विवेक के मांहि ॥२ नहिं विवेक जिनमत विना, जिनमत जिन बिन नाहिं । मोक्ष मूल निर्मल महा, जिनवर त्रिभुवन माहिं ॥३ तातें जिनको बन्दना, हमरी बारंबार । जिनतें आपा पाइये, तीन भुवन में सार ॥४ द्वीप अढाई के विर्षे, आरज क्षेत्र अनूप । सौ ऊपर सत्तरि सबे, ब्रतभूमि शुभरूप ॥५ जिनमें उपजे जिनवरा, व्रतविधान निरूप । कबहूँ इक इक क्षेत्र में, इक इक है जिनभूप ॥६ तब सत्तरि सौं ऊपरें, उतकिष्टे भुवनेस । तिनमें महा विदेह में, अस्सी दूण असेस ॥७ भरतैरावत क्षेत्र दस, तिनके दस जिनराय । ए दस अर वे सर्व ही, सौ सत्तरि सुखदाय ॥८ घटि है तो जिन बीसतें, धटै न काहू काल । पंच विदेह विष महा, केवल रूप विशाल ॥९ चले धर्म द्वय सासता, यति श्रावक व्रतरूप । टलै पाप हिंसादिका, उपजें पुरुष अनूप ॥१० कालचक्र की फिरणि बिन, कुलकर तहां न होय । नाहिं कुलिंगम वरति है, तातें रुद्र न जोय ॥११ तीर्थाधिप चक्री हल, हरि प्रतिहरि उपजन्त । इन्द्रादिक आवें जहां; करें भक्ति भगवन्त ॥१२ तीर्थकर अर केवली, गणधर मुनि विहरन्त । जहां न मिथ्यामारगी, एक धर्म अरहन्त ।।१३ तात मात जिनराज के, अर नारद फुनि काम । परगट पुरुष पुनीत बह, शिवगामी गुण धाम ॥१४ हवें विदेह मुनिवर जहां, पंच महाव्रत धार । तातें महाविदेह में, सत्यारथ सुखकार ॥१५
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मंगलाचरण
भरतैरावत दस विर्षे, कालचक्र है दोय । अवसप्पिणी उतसप्पिणी, षट् षट् काला सोय ॥१६ तिनमें चौथे काल ही, उपजें जिन चौबीस। द्वादश चक्री नव हली, हरि प्रतिहरि अवनीस ॥१७ त्रिसठि सलाका पुरुष ए, जिन मारग धर धीर । इनमें तीर्थंकर प्रभू, और भक्ति वर वीर ॥१८ तात मात जिनदेव के, चौबीसा चौबीस । नौ नारद चौदा मनूं, कामदेव चौबीस ॥१९ एकादश रुद्र महा, इत्यादिक पद धार। उपजें चौथे काल ही, ए निश्चय उर धार ॥२० या विध भए अनन्त जिन, होसी देव अनन्त । सबको मारग एक ही, ज्ञान क्रिया बुधिवन्त ।।२१ सब ही शान्ति-प्रदायका, सबही केवल रूप । सब ही धर्म-निरूपका, हिंसा-रहित सरूप ॥२२ सबही आगम भासका, सब अध्यातम मूल । युक्ति-मुक्ति-दायक सबै, ज्ञायक सूक्षम थूल ॥२३ बरणन में आवें नहीं, तीन काल के नाथ । सर्व क्षेत्र के जिनवरा, नमों जोरि जुग हाथ ॥२४ भरत क्षेत्र यह आपनो जम्बूद्वीप मझारि । ताके में चौबीसिका, बन्दू श्रुत-अनुसारि ॥२५ निर्वाणादि भये प्रभू, निर्वाणी चौबीस । ते अतीत जिन जानिये, नमों नाय निज शीस ॥२६ जिन भाष्यो द्वे विधि धरम, परम धाम को मूल । यति श्रावक के भेद करि, इक सूक्षम इक थूल ॥२७ बहुरि वर्तमाना जिना, रिषभादिक चौबीस । नमों तिनें निज भाव करि, जिनके राग न रीस ॥२८ तिनहूँ सो ही भाषियो, द्वे विधि धर्म विसाल । महाव्रत अणुव्रतमय, जीवदया प्रतिपाल ॥२९ बहुरि अनागत काल में होंगे तीरथनाथ । महापद्म प्रमुख प्रभु, चौबीसा बड़हाथ ॥३० तातें सो ही भासि है, जे जो अनादि प्रबन्ध । सबको मेरी वन्दना, सबको एक निबन्ध ॥३१ चौबीसी तीनूं नमू, नमों तीस चौबीस । सीमंधर आदिक प्रभू, नमन करों पुनि बीस ॥३२ पन्द्रा कर्मधरा सवै, तिनमें जे जिनराय । अर सामान्य जु केवली, वर्ते निर्मल काय ॥३३
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श्रावकाचार-संग्रह
तिन सबकों परणाम करि, प्रणमों सिद्ध अनंत । आचारिज उपाध्याय कों, बिनऊं साधु महन्त ॥३४ तीन काल के जिनवरा, तीन काल के सिद्ध । तीन काल के मुनिवरा, वंदों लोक प्रसिद्ध ॥३५ पंच परमपद-पद प्रणमि, वन्दों केवलवानि । वदों तत्त्वारथ महा, जैनधर्म गुण-खानि ॥३६ सिद्धचक्रकू वंदिके सिद्धमंत्रकू वंदि। नमि सिद्धान्त-निबन्धकों, समयसार अभिनंदि ॥३७ वंदि समाधि तन्त्रकू, नमि समभाव-सरूप । नमोकारकू करि प्रणति, भाषों ब्रत्त अनूप ।।३८ चउ अनुयोगहि वंदिकें, चउ सरणा ले सुद्ध । चउ उत्तम मंगल प्रणमि, कहूँ क्रिया अविरुद्ध ॥३९ देव-धर्म गुरु प्रणति करि, स्यादवाद अवलोकि । क्रियाकोष भाषा कहूं, कुदकुद मुनि ढोकि ॥४० अरचों चरचा जैनकी, चरचों चरचा जैन । क्रोध लोभ छल मोह मद, त्यागि गहूँ गुन वैन ॥४१ कृत्रिम और अकृत्रिमा जिनप्रतिमा जिनगेह । तिन सबकू परणाम करि, धारूं धर्म सनेह ॥४२ गाऊं चउविधि दान शुभ, गाऊं दसधा धर्म। गाऊं षोडश भावना, नमि रतनत्रय धर्म ॥४३ स्तवळं सर्व यतीसुरा, विनऊं आर्या सर्व । सब श्रावक अर श्राविका, नमन करों तजि गर्व ।।४४ करों बीनती मना धर, समदृष्टिसो एह । अपनों सौं धीरज मुझे, देहु धर्म में लेह ॥४५ लोक-शिखर पर थान जो मुक्ति क्षेत्र सुख-धाम । जहां सिद्ध शुद्धातमा, तिष्ठे केवल राम ॥४६ नमो नमों ता क्षेत्र कों, जहां न कोई उपाधि । आधि ब्याधि असमाधि नहिं, वरतै परम समाधि ।।४७ प्रणमि ज्ञान कैवल्य को केवलदर्शन ध्याय । यथाख्यात चारित्रकूबंदों सीस नमाय ॥४८ प्रणमि सयोगिस्थानकों, नमि अजोग गुणथान । क्षायिक सम्यक वंदिके, वरणों ब्रत्तविधान ॥४९ वन्दों चउ आराधना, वंदों उपशमभाव । जाकरि क्षायिकभाव है, होय जीव जिनराव ॥५० मूलोत्तर गुण साधुके, द्वै जिनकरि जन सिद्ध । तिनकू वंदि कहूँ क्रिया, त्रेपन परम प्रसिद्ध ॥५१
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मंगलाचरण
जहां मुनी निजध्यान करि, पावें केवलज्ञान । वंदों ठौर प्रशस्त जो, तीरथ महानिधान ॥५२ जा थानकसों केवली, पहुंचे पुर निर्वाण । वंदों धाम पुनीत जो, जा सम थान न आन ॥५३ तीर्थकर भगवान के, वंदों पंच कल्याण ।
और केवली कों नमों, केवल अर निर्वाण ॥५४ नमों उभैविधि धर्म को, मुनि श्रावक निरधार। धर्म मुनिन को मोक्ष दे, काटे कम अपार ॥५५ तातें मुनि-मत अति प्रबल, बार-बार थुति जोग । धन्य धन्य मुनिराज तें, तजें समस्त अजोग ॥५६ पर परणति जे परिहरें, रमें ध्यान में धीर।। ते हमकू निज दास करि, हरी महा भव-पीर ॥५७ मुनि की क्रिया बिलोकि के, हम पे वरनि न जाय । लौकिक क्रिया गृहस्थ की, वरणूं मुनि-गुण ध्याय ॥५८ यतिव्रत ज्ञान विना नहीं, श्रावक ज्ञान विना न । बुद्धिवंत नर ज्ञान विन खोवें वादि दिनान ॥५९ मोक्ष मारगी मुनिवरा, जिनकी सेव करेय । सो श्रावक धनि धन्य है, जिनमारग चित्त देय ॥६० जिन-मंदिर जो शुभ रचे, अरचे जिनवर देव । जिनपूजा नित-प्रति करे, करे साधुकी सेव ॥६१ करे प्रतिष्ठा परम जो, जात्रा करै सुजान। जिन शासन के ग्रन्थ शुभ, लिखवावै मतिमान ॥६२ चउविधि संघतणो सदा, सेवा धारे वीर। पर उपकारी सर्व की, पीड़ा हरे जु वीर ॥६३ अपनी शक्ति प्रमाण जो, धार तप अर-दान । जीवमात्र को मित्र जो, शीलवन्त गुणधाम ॥६४ भाव शुद्ध जाके सदा, नहिं प्रपंच को लेश । पर-धन पाहन सम गिनै, तृष्णा तजी विशेष ॥६५ तातें गृहपति हू प्रबल, ताकी क्रिया अनेक । जिनमें त्रेपन मुख्य है, तिनमें मुख्य विवेक ॥६६ नमस्कार गुरुदेव कों, जे सब रीति कहेय । जिनवानी हिरदै धरी, ज्ञानवन्त व्रत लेय ॥६७ क्रियाकांड कों करि प्रणति, भाषों किरिया कोष । जिनशासन अनुसार शुभ, दयारूप निरदोष ॥६८ प्रथमहि त्रेपन जे क्रिया, तिनके वरणों नाम । ज्ञान-विराग-सरूप जे, भविजनकू विश्राम ॥६९
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श्रावकाचार-संग्रह
बेपन क्रिया गाथा-गुण-वय-तव-सम-पडिमा, दाणं जलगालणं च अणथमियं । दसण णाण चरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया ॥१
चौपाई गुण कहिये अठमूल जु गुणा, वय कहिये व्रत द्वादस गुणा। तव कहिये तप बारह भेद, सम कहिये समदष्टि अमेद ॥७० पडिमा नाम प्रतिज्ञा सही, ते एकादस भेद जु लही। दाणं कहिये दान जु चार, अर जलगालण रोति विचार ||७१ निसिकों खान-पान नहिं भला, अन्न औषधी दूध न जला। रात्रि विर्षे कछु लेवी नाहि, अति हिंसा निसि-भोजन मांहिं ।।७२ कह्यो "अणत्यमिय' शब्द जु अर्थ, निसि भोजन सम नाहिं अनर्थ । दंसण णाण चरित्र जु तीन ए त्रेपन किरिया गिणि लोन ॥७३ प्रथमर्हि आठ मूलगुण कहों, गुण-परसाद विषाद न कहों। मद्य मांस मधु मोटे पाप, इन करि पावे अतुलित ताप ॥७४ बर पीपर पाकर नहिं लीन, ऊमर और कठूमर हीन । तीन पंच ए आठों वस्तु, इनको त्यागे सकल प्रशस्त ॥७५ मन-वच-काय तजो नर नारि, कृत-कारित-अनुमोद विचारि । जिनमें इनको दोष जु लगै, तिन वस्तुनितें बुधजन भगें ॥७६ अमल जाति सबही नहिं भक्ष, लगै मद्यको दोष प्रत्यक्ष । रस चलितादिक सड़िय जु वस्तु, ते सब मदिरा तुल्यउ वस्तु ॥७७ जाये खाये मन ठोक न रहै, सो सब मदिरा दूषण लहै । अर्क अनेक भांतिके जेह, खइबे में आवत है तेह ।।७८ आली वस्तु रहै दिन धना, तामें दोष लगै मदतना । अब सुनि आमिष दोष जु भया, चर्मादिक घृत तेल न लया ॥७९ हींग कदापि न खावन बुधा, बौंधौ सीधौ भखिवौ मुधा। चून चालियो चलनी चाम, नीच जाति पीस्यो हु न काम ॥८० फूल आयो धान अखान, फूल्यो साग तजो मतिवान । कन्द अथाणा माखन त्याग, हाट मिठाई तज बड़भाग ।।८१ निसि भोजन अणछण्यू नीर, आमिष तुल्य गिनें वर-वीर । निसि पोस्यो निसि रांध्यो होय, हाड़ चाम को परस्यो जोय ॥८२ मांस अहारी के घर तनी, सो सब मांस समानहिं गिनों। विकलत्रय अर तिर नर जेह, तिनको मांस रुविरमय जेह ।।८३ तजो सबै आमिष अघ-खानि, या सम पाप न और प्रमानि । त्यागो सहत जु मदिरा समा, मधु दोउको नाम निरभ्रमा ।।८४ अर जिन वस्तुनि में मधुदोष, सो सब तजह पापगण-पोष । काकिब और मुरब्बा आदि, इनहिं खाहिं तिनको व्रत वादि ॥८५
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मंगलाचरण
मधु मदिरा पल जे नर गहें, ते शुभ गतितें दूरहिं रहें। नरक निगोद माहिं दुख सहें, अतुल अपार त्रासना लहे ॥८६ तातें तीन मकार धिकार, मद्य मांस मधु पाप अपार । ये तीनों औ पंच कुफला, तीन पांच ये आठों मला ॥८७ इन आठों में अगणित सा, उपजे मरण करें परवसा । जीव अनंता बहुत निगोद, तातें कृत कारित अनुमोद ॥८८ इनको त्याग किये वसु मूल गुणा होहिं अघतें प्रतिकूल । पांच उदम्बर तीन मकार. इनसे पाप न और प्रकार ||८९ बार-बार इनको धिक्कार. जो त्यागै सो धन्य विचार । इन आठनिसें चौदा और, भखै सु पावै अति दुख ठौर ॥९०॥ बहुत अभक्षनमें बाईस, मुख्य कहे त्यागें व्रतईस । ओला नाम बड़ा जु बखानि, जीव-रासि भरिया दुख-खानि ॥९१ अणछणयां जलके बंधाण, दोष करै जैसे संघाण । भखै पाप लागे अधिकाय, तातें त्याग करौ सुखदाय ।।९२ घोल बड़ा में दूषण बड़ा, खाहिं तिके जाणे अति जड़ा। दही मही में बिदल जु वस्तु, खाये सुकृत जाय समस्त ॥९३ तुरत पंचेन्द्री उपजे तहां, बिदल दही मुख में ले जहां। अन्न मसूर मूग चणकादि मोठ उड़द मट्टर तूरादि ।।९४ अर मेवा पिस्ता जु बदाम, काजू चारौली अति नाम । जिन वस्तुनि की ह द्वे दाल, सो सो सब दधि भेला टालि ॥९५ जानि निशाचर जे निशि चरें, निशि-भोजन करि भव दुख करें। ताते निशि-भोजन तजि भया, जो चाहें जिनमारग लया ॥९६ दोय मुहरत दिन जब रहै, तबतें चउबिहार वुध गहै। जौलौं जुगल मुहरत दिना, चढि है तौलौं अनसन गिना ॥९७ रात-बसौं अर रातहि कियो, रात-पिस्यौ कबहूँ नहिं लियो । जहां होय अंधेरो वीर, तहां दिवस हू असन न वीर ॥९८ दृष्टि देखि भोजन करि शुद्ध, दृष्टि देखि पग धरहु प्रबुद्ध । बहुबीजा जामें कण धणा, ते फल कुफल जिनेसुर भणा ॥९९ प्रगट तिजारा आदिक जेह, बहुबीजा त्यागौ सब तेह । बेंगण जाति सकल अघ-खानि, त्याग करौ जिन आज्ञा मानि ॥१०० संधाणा दोषीक विसेस, सो भव्या छांडो जु असेस । ताके भेद सुनो मन लाय, सुनि यामें उपजें अधिकाय ॥१०१ अत्थाणा संधाणा मथाण, तीन जाति इनकी जु बखानि । राई लूणी कलंजी आदि, अंबादिक में डारहिं वादि ॥१०२ नाखि तेल में करहिं अथाण, या सम दोष न सूत्र प्रमाण । अस जीवा तामें उपजन्त, मखियां आमिष दोष लहन्त ॥१०३
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श्रावकाचार-संग्रह
नीबू आम्रादिक जे फला, लूण माहिं डारे नहि भला । याको नाम होय संघाण, त्यागें पण्डित पुरुष सुजाण ॥ १०४ अथवा चलित रसा सब वस्त, संघाणा जाणों अप्रशस्त । बहुरि जलेबी आदिक जोय, डोहा राव मथाणा होय ॥ १०५ लूण छांछ माहीं फल डारि, केर्यादिक जे खांहि गंवारि । तेहि विगारें जन्म स्वकीय, जैसें पापी मदिरा पीय ॥ १०६ अब सुनि चुन तनी मरजाद, भाषै श्री गुरुजी अविवाद । शीतकाल में सातहि दिना, ग्रीषम में दिन पांचहि गिना ॥ १०७ वरषा रितु माहीं दिन तीन, आगे संधाणा गण लीन । मरजादा बीतें पकवान, सो नहीं भक्ष कहें भगवान || १०८ ताहि भखें जु असूत्री लोक, पावैं दुरगति में दुख शोक । मर्यादा की विधि सुनि धीर, जो भाषी गौतम प्रति वीर ॥ १०९ अन्न जलादिक नाहि, कछु सरदी जामांहि नाहि ।
बूरा और बतासा आदि, बहुरि गिंदौडादिक जु अनादि ।। ११० ताकी मर्यादा दिन तीस, शीतकाल में भाषी ईश । ग्रीष्म पंदरा वर्षा आठ, यह धारी जिनवाणी पाठ ॥ १११ अर जो अन्नतणों पकवान, जलको लेश जु याहे जान । आठ पहर मरजादा तास, भाषें श्री गुरु धर्म प्रकाश ॥ ११२ जल - वर्जित जो चूनहि तनीं, घृत मीठी मिलिके जो बनीं । ताकी चून समानहिं जानि, मरजादा जिन-आज्ञा मानि ॥११३ भुजिया बड़ा, कचौरी पुवा, मालपुवा घृत तेलहि हुआ । इत्यादिक है अवरहु जेह, लुचई सीरा पूरी एह ॥ ११४ ते सब गिनी रसोई समा, यह उपदेश कहे पति रमा । दारि भात कड़ही तरकारि, खिचड़ी आदि समस्त विचारि ॥ ११५ दो पहर इनकी मरजाद, आगे श्री गुरु कहें अखाद । केई नर संधारक त्यागि, ल्यूजी खाँय सवादह लागि ।। ११६ ha नीबू आदि उकालि, नाना विधि सामग्री घालि । सरस्यू ं केरी तेल तपाय, तामें तलें सकल समुदाय ||११७ जिह्वालंपट बहु दिन राख, खांय तिन्हें मतिमंद जु भाख । तरकारी सम ल्यूजी एह, आगे संधाणा समुझेह ॥ ११८ अणजाण्यू फल त्यागहु मित्र, अणछाण्यो जल ज्यों अपवित्र । त्यागी कंदमूल बुधिवंत, कंदमूल में जीव अनंत ॥ ११९ गरि न कबहुँ भखहु गुणवन्त, गारी कबहु न काढ़उ संत । डरी गरि में जीव असंख, निन्दै साधु अशंक, अकख ॥ १२० जा खाये छूटें निज प्राण, सो विषजाति अभक्ष प्रवान । आफू और महोरा आदि, तजी सकल मुनि सूत्र अनादि ॥ १२१
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मंगलाचरण
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काची माखण अति हि सदोष, भखिया करै सबै शुभ सोख । पहले आमिष दूषण माहिं, पुनि-पुनि निन्द्यौ संशय नाहिं ॥१२२ फल अति तुच्छ खाहु मति वीर, निन्दे महावीर जगधीर।। पालौ राति जमावै कोय, ताहि भखत दुरगति फल होय ॥१२३ निज सवाद तजि बै विपरीत, सो रस-चालित तजो भवभीत । आगे मदिरा दूषण महे, निद्यौ ताहि सु बुध नहिं गहै ।।१२४ ए बाईस अभख तजि सखा, जो चाही अनुभव रस चखा। अवर अनेक दोषके भरे, तजो अभख भव्यनि परिहरे ॥१२५ फूल जाति सब ही दोषीक, जीव अनन्त फिरे तहकीक । कबहुं न इनकों सपरस करो, इह जिन आज्ञा हिरदै धरौ ॥१२६ खावो और संघिवी सदा, इनकू तजहु न ढांकहु कदा। शाक पत्र सब निंद बखानि, त्याग करौ जिन आज्ञा मानि ॥१२७ नेम धर्म व्रत राख्यौ चहै, तो इन सबकू कबहुं न गहै। झाड़ तनें बड़ वोरि जु तने, तजी वीर त्रस जीव जु घनें ॥१२८ पेठा और कोहला तजौ, तजि तरबूज जिनेसुर भजौ । जांबू और करोंदा जेहु, दूध झरै त्यागौ सहु तेह ।।१२९ कन्द शाक दल फल जु त्यागि, साधारण फलतें दुर भागि । जो प्रत्येकहु छांड़े वीर, ता सम और न कोई धीर ॥१३० जो प्रत्येक न त्यागे जाय, तो परमाण करो सुखदाय । तेहु अलप ही कबहुंक खाय, नहिं तोड़े न तुडावन जाय ॥१३१ ताजा ले बासी नहिं भखै, रस चलितादिक कबहुँ न चखै। हरित कायसों त्यागे प्रीति, सो जानें जिन-मारग रीति ।।१३२ जे अनन्तकाया दुखदाय, सब साधारण त्यागौ राय । तजि केदार तूंबड़ी सदा, खाहु म नाली ढिस तुम कदा ॥१३३ कचनारादिक डौंड़ी तजौ, तजि अण फोड़यो फल जिन भजौ । पहली बिदलतनं अति दोष, भाख्यो भेद सुनहु तजि रोष ॥१३४ अन्न मसूर मूंग चणकादि, तिनकी दालि जु होय अनादि । अर मेवा पिस्ता जु निदाम, चारोली आदिक अतिनाम ॥१३५ जिन जिन वस्तुनि को है दालि, सो सो सब दधि भेला टालि । अर जो दधि भेलो, भिष्टान तुरतहिं खावा सूत्र प्रमान ॥१३६ अन्तमुहरत पीछे जीव, उपजें इह गावें जगपीव । तातें मीठा जुत जो दही, अन्तमुहूरत पहले गही ॥१३७ दधि-गुड़ खावो कबहुं न जोग, वरजें श्री वस्तु अजोग। पुनि तुम सुनहुं मित्र इक बात, राई लण मिलें उतपात ॥१३८ . तातें दही मही में करै, तजी रायता कांजी वरै।। घी ताजा गहिबी भवि लोय, सूद्रनिको घृत जोगि न होय ॥१३९
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श्रावकाचार-संग्रह स्वाद-चलित जो खावै घीव, सो कहिये अविवेकी जीव । धिरत सोधिको लेवी अल्प, भजिवी जिनवर त्यागि विकल्प ॥१४० घृतहू छाड़े तो अति तपा, नीरस तप धरि श्रीजिन जपा । सिंघव लोंन वतिनिको लेन, कृत्रिम लोन सबै तजि देन ॥१४१ जो सिंघवहू त्यागे भया, महा तपस्वी श्रुत में लया। अब तुम गोरस की विधि सुनों, जिनवर की आज्ञा उर गुणों ॥१४२ दोहत जब महिषी अर गाय, तबतें इह मरजाद गहाय । काचो दूध न राखै सुधी, 8 घटिका राखें तो कुधी ॥१४३ काचो दूध न लेवौ वीर, अणछायूं पय तजिवो धीर । अंतर एक मुहूरत बसा, उपजे जीव अंसखित वसा ॥१४४ जाको पय है तैसे जीव, प्रगटें इह भावे जगपीव। पंचेन्द्री सम्मूर्छन प्राणि, भैया तू जिनवचन प्रवाणि ॥१४५ . इह तो दूध तणी विधि कही, अब सुनो दही महीकी सही। जामण दीयो ह जिंह दिना, ताके दूजो दिन शुभ गिना ॥१४६ पीछे दधि खावी नहिं जोगि, इह भा जिनराज अरोगि। दधि को मथियौ पानी डारि, ताको नाम जु छांछि विचारि ॥१४७ ताही दिवस होय सो भक्ष, यह जिन आज्ञा हैं परतक्ष । मथता ही जा माहीं तोय, बहुर्यो वारि न डार्यो होय ॥१४८ माथिया पाछे काचौ वारि, नाख्यो सो लेवी जु विचारि । जेतो काचा जलको काल, तेती ही ताको जु विचारि ॥१४९ छणयूं जल सो काचौ रहै, एक मुहूरत जिनवर कहै । आगें त्रसजीवा उपजंत, अणछणयां को दोष लगत ॥१५० तिक्त कषाय मिल्यो जो नीर, सो प्राशुक भाख्यौ जिन वीर । दोय पहर पहिली ही गहो, यह जिन आज्ञा हिरदै बहो ॥१५१ तातो जल जो भात उकाल, आठ पहर मरजादा काल । आगे सनमर्छन उपजाहि, पीवत धर्मध्यान सब जाहिं ॥१५२
दोहा अघ-तरुवर को मूल इह, मोह मिथ्यात जु होय । राग द्वेष कामादिका, ए सकंध बहु जोय ॥१५३ अशुभ क्रिया शाखा धनी, पल्लव चंचल भाव । पत्र असंजम अव्रता छाया नाहिं लखाव ।।२५४ इह भव दुख भादं पहुप, फल निगोद नरकादि । इह अघ-तरु को रूप है, भव-वन मांहि अनादि ॥१५५
चौपाई क्रिया कुठार गहै कर कोय, अघ-तरुवरको काटै सोय । जे बेचें दधि और जु मठा, उदर भरण के कारण शठा ॥१५६
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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
तिनकों मोल लेय जे खाहिं, ते नर अपनों जन्म नसाहिं । तातें मोलतनों दघि तजौ, यह गुरु आज्ञा हिरदे भजी ॥ १५७ दधी जमावे जा विधि व्रती, सो विधि धारहु भाषह जती । दूध दुहाकर ल्यावे जबे, ततछिन अर्गानि चढावे तबे ॥ १५८ रूपी गरम करे पयमांहि, जामण देय जु संसै नाहि । जमें दही या विधि कर जोहु, बाधे कपरा माहीं सोहु ॥ १५९ बूंद रहे नहिं जल की एक, तबहिं सुकाय घरै सुविवेक । दही बड़ी इह भाषी सही, गृही जमावे तासों दही ||१६० अथवा दधि में रूई भेय, कपरा मेय सुकाय घरेय । राखे इक द्वै दिन ही जाहि, बहुत दिना राखे नहि ताहि ॥ १६१ जल में घोलिर जामण देय, दधि ले तो या विधि करि लेय । और भाँति लेवो नहि जोगि, भाखें जिनवर देव अरोगि ॥ १६२ शीतकाल की इह विधि कहीं, उष्णऊ बरषा राखे नहीं ! जो हि सर्वथा छाँड़े दधी, तासम और न कोई सुधी ॥१६३ सुद्रतनें पात्रनि को दुग्ध, दधि घृत छाछि भखें ते मुग्ध । उत्तम कुल हू जे मतिहीन, क्रियाहीन जु कुविसन अधीन ॥ १६४ तिनके घरको कछहु न जोगि, तिनकी किरिया बहुत अजोगि । दूध ऊँटणी भेनि तनों, निद्यौ जिनमत माहीं घनों ॥। १६५ गो महिषी बिन और न भया, कबहु न लेनों नाहीं पया । महिषी दूध प्रमाद करेय, तातें गायन की पय लेय ॥ १६६ नीरसव्रत घर दूध तजे, तातें सकल दोष ही भजे । हा बिकते चूनरु दालि, बुधजन इनको खावी टालि ॥१६७ बोधो खोटो पीसै दले, जीवदया कैसे करि पले । चूनो संखतणो कसरि इनकों निंद कहें जिनसूरि ॥१६८
बोहा
चरम - सपरसी वस्तु को, खातें दोष जु होय । ताको संक्षेप कथन, कहों सुनों भवि लोय ॥। १६९. मूये पसूके चर्मकों, चीरे जो चंडार ।
ता चंडालहि परसिके, छोति गिने संसार ॥ १७० तो कैसे पावन भयो, मिल्यो चर्म सों जोहि । आमिष तुल्य प्रभू कहें, याहि तजी बुध सोहि ॥ १७१ उपजें जीव अपार सुनि, जिनवानी उर धारि । जा पसुको हैं चर्म जो, तेसे ही निरधारि ॥ १७२ सन्मूर्छन उपजे जिया, तातें जल घृत तेल । चर्म सपरसे त्यागिये, भार्पे साघु अचेल ॥१७३
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श्रावकाचार-संग्रह जैसे सूरज कांच के, रूई बीचि घरेय । प्रगटै अगनि तहाँ सही, रूई भस्म करेय ॥१७४ तैसे रस अर चर्म के जोगै, जिय निपजांहि । खावे वारे के सकल, धर्मब्रत लुपि जाहि ॥१७५ जीमत भोजन के समैं, मुवी जिनावर देखि । तजै नहीं जे असनको, ते दुरबुद्धि विशेखि ।।१७६ जे गंवार पाठातनी. फली खाय मतिहीन । तिनके घट नहिं समुझि है, यह भावे परवीन ॥१७७
रसोई, परंडा, चक्की आदि क्रियाओं का वर्णन । चौपाई जा घर माँहि रसोई होय, धारे चंदवा उत्तम सोय। बहुरि परंडा ऊपर ताणि, उखली चाकी आदिक जाणि ॥१ फटके नाज बीणिये जहाँ, चून चालिये भैय्या तहाँ । अर जिंह ठौर जीमिये धीर, पुनि सोवे की ठोहर वीर ॥२ तथा जहाँ सामायिक करै, अथवा श्री जिनपूजा धरै । इतने थानक चंदवा होय, दीखै श्रावक को घर सोय ॥३ चाकी अर उखली परमाण, ढकणा दीजे परम सुजाण । श्वान विलाव न चाटै ताहि, तब श्रावक को धर्म रहाहि ॥४ मूसल धोय जतन सों धरै, निशि घोटन पीसन नहिं करै। छाज तराजू अर चालणी, चर्मतणी भविजन टालणी ॥५ निशिकों पीसै घोटे दले, जीवदया कबहूँ नहिं पले । चाकी गाले चून रहाय, चोटी आदि लगै तसु आय ॥६ निसिको पीसत खबर न परे, तातें निशि पीसन परिहरे । तथा रातिको भीज्यो नाज, खावी महापाप को साज ॥७ अंकूरे निकसे ता माहिं, जीव अनन्ता संशय नाहिं । तातै भीज्यौ नाज अखाज, तजौ मित्र अपने सुखकाज ।।८ सुल्यो सड़यो गडियो जो धान, फूली आयो होय नखान । स्वाद चलित खावी नहिं वीर, रहिवो अति विवेकसूं घीर ॥९ नहिं छीवै गोवर गोमूत, मल, मूत्रादिक महा अपूत । छाणा ईधन काज अजोगि, लकड़ी हू वीधी नहिं जोग ॥१० जेती जाति मुरब्बा होय, लेणा एक दिवस ही सोय । पीछे लागे मधुको दोष, तासम और न अध को पोष ।।११ आथाणा का नाम अचार, भखें अविवेकी अविचार । या सम अणाचार नहिं कोय, याको त्याग करें बुध सोय ॥१२
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष राह चल्यो भोजन मति खाहु, उत्तम कुलको धर्म रखाहु । निकट रसोई भोजन करो, अणाचार सब ही परिहरी ॥ करी रसोई भूमि निहारि, जीव-जन्तु की बाधा टारि ॥१३
वेसरी छन्द दोब खोदि मति करी रसोई, तहां जीव की हिंसा होई। मलिन वस्तु अवलोकन होवे, सो थानक तजि औरहिं जोवै ॥१४ नरम पूजणी सों प्रतिलेखे, करै रसोई चर्म न देखें। माटी के वासण इक बारा, दूजी विरियां नाहीं अचारा ॥१५ जो दूजे दिन राखै कोई, सो नर सूद्रनि सदृश होई। मिटै न सरदी करै न कोई, मिट्टी के वासण की भाई ॥१६ उपजें जीव असंख्य जु तामें, बासी भोजन दूषण जामें। दया न किरिया उत्तम ताई, माटी के वासण में भाई ॥१७ तातें भले धातु के बासन, इह आज्ञा गावै जिन शासन । धातु-पात्र ही नीका मंजे, सोई अशन-अक्रिया भंजै ॥१८ रहै अशन को लेश जु कोई, सो बासन मांज्यौ नहिं होई। दया क्रिया को नास जु तामें, अन्न जोग उपजे जिय जामें ॥१९ मांजि धोय अर पूंछ जु राछा, राखै उन्जल निर्मल आछा। दया सहित करणी सुखदाई, करुणा बिन करणी दुखदाई ॥२० जीवनिकू सन्ताप न देवै, तब आचार तणी विधि लेवै। बिन जिनधर्मा उत्तम वंसा, देइ न लेय सुराक्ष नृशंसा ॥२१ श्रावक कुल किरिया करि युक्ता, तिनके करको भोजन युक्ता। अथवा अपने करको कोयो, आरम्भी श्रावक ने लीयो ॥२२ अन्यमती अथवा कुलहीना, तिनके करको कबहु न लीना। अन्य जाति जो भीटै कोई, तो भोजन तजवी है सोई ॥२३ नीली हरी तजे जो सारी, ता सम और नहीं आचारी। जो न सर्वथा छांड़ी जाई, तो प्रत्येक फला अलपाई ॥२४ हरी सुकावी योग्य न भाई, जामें दोष लगे अधिकाई। सूके पत्र औषधी लेवा, भाजी सूकी सब तजि देवा ॥२५ पत्र-फूल-कन्दादि भर्ख जे, साधारण फल मूढ चखें जे। ते नहिं जानों जैनी भाई, जीभ-लंपटी दुरगति जाई ॥२६ पत्र-फूल-कन्दादि सबै ही साधारण फल सर्व तजै ही। अर तुम सुनहु विवेकी भैय्या, भेले भोजन कबहु न लेया ॥२७ मात तात सुत बांधव मित्रा, भेले भोजन अति अपवित्रा। महा दोष लागै या मांही, आमिष को सो संशय नाहीं ॥२८
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श्रावकाचार-संग्रह
अपने भोजन के जे पात्रा, काहूकूं नहि देय सुपात्रा । बुधजन भेलें जीमें कैसें, भाषें श्री जिन नायक ऐसें ॥ २९ माहि सराय न भोजन भाई, जब श्रावक को व्रत्त रहाई । अन्तिज नीचनि के घर माहीं, कबहुँ रसोई करणी नाहीं ॥ ३० मांस त्यागि व्रत जो नि धारै, नीचन को संगर्ग न कारे । उत्तम कुलहू परमट धारी, तिनहू के भोजन नहि कारी ॥३१ जैन धर्म जिनके घट नाहीं, अन्य देव पूजा घर माहीं । तिनको छूयो अथवा करको, कबहू न खावै तिनके घरको ॥ ३२ कुल किरिया करि आप समाना, अथवा आप थकी अधिकाना । तिनको छुयौ अथवा करको भोजन पावन तिनके घरको ॥ ३३ अर जे छाणि न जाणें पाणी, अन्न वीण की रीति न जाणी । भक्षाभक्ष भेद नहि जानें, कुगुरु कुदेव मिथ्यामत मानें ॥ ३४ तिनतें कैसी पांति जुमित्रा, तिनको छूयो है अपवित्रा । चर्म रोम मल हाथी दन्ता, जेहिं कचकड़ा विमल कहन्ता ॥३५ तिनतें नहिं भोजन सम्बन्धा, यह किरिया को कह्यौ प्रबन्धा । जङ्गम जीवनि के जु शरीरा, अस्थि चर्म रोमादिक वीरा ॥३६ सब अपवित्रा जानि मलीना, थावर दल भोजन लीना । रोमादिक को सपरस होवे, सो भोजन श्रावक नहि जोवे ॥ ३७ नीला वस्त्र न भीटे सोई, नाहि रेशमी वस्त्र हु कोई । बिन धोया कपरा नाहीं, इह आचार जैनमत नाहीं ॥ ३८ दया लिया किरिया धारी, भोजन करें सोधि आचारी । पांच ठांव भोजन नाहीं, धोति दुपट्टा विमल धराहीं ॥३९ विन उज्ज्वलता भई रसोई, त्याग करे ताकू विधि जोई । पंचेन्द्री पसु हू को छूयो, भोजन तजे अविधितें हुयो || ४० सोधनी सब वस्तु जु लेई, वस्तु असोधी त्याग तेई । अन्तराय ओ परे कदापी, तजै रसोई जीव निपापी ॥४१
दया क्रिया बिन श्रावक कैसे, बुद्धि पराक्रम विन नृप जैसे ।
मांस रुधिर मल अस्थि जु, चामा तथा मृतक प्राणी लखि रामा ॥४२
अर जो वस्तु तजी है भाई, सो कबहू जो थाल धराई ।
तो उठ बैठे होउ पवित्रा, यह आज्ञा गावे जगमित्रा ॥ ४३ दान बिना जीमो मति बीरा, इह आज्ञा धारौ उर धीरा । बिना दान भोजन अपवित्रा, शक्ति प्रमाणें दान दो चित्रा ॥ ४४ मुनी अर्जिका श्रावक कोई, के सुश्राविका उत्तम होई । अथवा अन्नत सम्यकदृष्टी, जिंह उर अमृतधारा वृष्टी ॥४५ इन महाभक्ति करि देहो, तिनके गुण हिरदा में लेहो । error दुखित भुखित नर नारी, पसु पंखी दुखिया संसारी ॥४६
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष अन्न वस्त्र जल सबको देना, नर भव पाये का फल लेना। तिर्यंचनिकू तृण हु देना, दान तणों गुण उरमें लेना ॥४७ भोजन करत ओंठि जिन छोड़ो, ओंठि खाय देही मति भांडौ। काहूकू उच्छिष्ट न देनो, यही बात हिरदै धरि लेनी ॥४८ अन्तराय जो पर कदापी, अथवा छीवें खल जल पापी। तब उच्छिष्ट तजन नहिं दोषा, इह भाषे वुधजन व्रत पोषा ॥४९ घृत दधि दूध मिठाई मेवा, जोहि रसोई माहिं जु लेवा। सो सब तुल्य रसोई जानों, यह गुरु आज्ञा हिरदै मानो ॥५० जहां बापरै अन्न रसोई, ताते न्यारे राखै जोई। जेतौ चहिये तेती ल्यावै, आवै, सो वर्तन में आवै ॥५१ पाका वस्तु रु भोजन भाई, एक भये वाहिर नहिं जाई । जल अर अन्न तणों पकवाना, सो भोजन ही सादृश जाना ॥५२ असन रसोई बाहर जावै. सो बढ वोपा नाम कहावे। मौन बिना भोजन वरज्या है, मौन सात श्रुत मांहि कह्या है ॥५३ भोजन भजन स्नान करता, मैथुन वमन मलादि करता। मूत्र करंता मौन जु होई, इह आज्ञा धारै बुध सोई ॥५४ अन्तराय अर मौन जु सप्ता, पालै श्रावक पाप अलिप्ता। अब जल की किरिया सुनि धर्मी, जे नहिं धारें तेहि अधर्मी ॥५५ नदी तीर जो होय मसाणा, सो तजि घाट जु निन्द्य वखाणा। और घाटको पाणी आणों, इह जिन आज्ञा हिरदै जाणों ॥५६ लोक भरत जे निजरमां आवै, तिनके ऊपरलौ जल ल्यावै। सरवर माहिं गांव को पानी, आवै सो सरवर तजि जानी ॥५७ गांवथकी जो दूरि तलाबा, ताका जल ल्यावौ सुभ भावा । तजो अपावन नदी किनारा, अब वापी की विधि सुनि वीरा ॥५८ जा माहीं न्हावै नर नारी, कपरा धोवहिं दांतुनि कारी। ता वापी को जल मति आनों, तहां न निर्मलताई जानों ।।५९ कपतणी विधि सुनहु प्रबीना, जहां भरै पानो कुल हीना। तहां जाहि मति भरवा भाई, तब ऊंचको धर्म रहाई ॥६० उत्तम नीच यहै मरजादा, यामें है कहुँ हू न विवादा। यवन अन्तिजा सबसे हीना, इनको कूप सदा तजि दीना ॥६१ अब तुम बात सुनो इक ओरे, शंका छांडि बखानी चौरै। धर्म रहित के पानी घर को, त्यागौ वारि अधर्मी नरको। बिन साधर्मी उत्तम बंसा, पर घर की छांडो जल अंसा ॥६२
दोहा जल के भाजन धातु के, जो होवें घर माहिं। पूंछ मांजि नित धोयवा, यामें संशय नाहिं ॥६३
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श्रावकाचार-संग्रह अर जे वासण गारके, गागर घट मटकादि । ते हि अल्प दिन राखिवी, इह आज्ञा जु अनादि ॥६४ राति सुकाय घराय वा, माटी वासण बीर। तिनमें प्रातहि छाणिवी, आछी विधिसों नीर ॥६५ जो नहिं राखै गारके, जल भाजन बुधिवान। राखे बासण धातु ही, सो अति ही शुचिवान ॥६६
चौपाई
इह तो जल की क्रिया बताई, अब सुनि जल-गालन विधि भाई। रंगे वस्त्र नहिं छानों नीरा, पहरे वस्त्र न गाली वीरा ॥६७ नाहिं पातरे कपड़े गालो, गाढे वस्त्र छांडि अघ टालो। रेजा दिढ आंगल छत्तीसा. लंबा अर चौरा चौबीसा ॥६८ ताको दो पुड़ता करि छानों, यही नांतणा की विधि जानों। जल छाणत इक बूदहु धरती, मति डारहु भार्षे महावरती ॥६९ एक बूद में अगणित प्राणी, इह आज्ञा गावै जिनवाणी। गलना चिउंटी धरि मति दाबी, जीव दयाको जतन धरावी ॥७० छाणे पाणी बहुते भाई, जल गलणा घोव चिव लाई। जीवाणी को जतन करो तुम, सावधान ह विनवे क्या हम ॥७१ राखहु जलकी किरिया शुद्धा, तब श्रावक व्रत लघौ प्रबुद्धा । जा निवांणको ल्यावौ वारी, ताही ठौर जिवाणी डारी ॥७२ नदी तालाब बावड़ी माहीं, बलमें जल डारो सक नाहीं। कूप माहिं नाखौ जु जिवाणो, तो इह बात हिये परवाणी ॥७३ ऊपरसू डारी मति भाई, दयाधर्म धारी अधिकाई । भवंरकली को डोल मंगावी, ऊपर नीचे डोरि लगावौ ॥७४ द्वैगुण डोल जतन करि वीरा, जीवाणी पधरावी धीरा । छाण्यां जल को इह निरधारा, थावरकाय कहें गणधारा ||७५ द्वे घटिका तीते जो जाकों, अणछाण्यां को दोष जु ताकों। तिक्त कषाय मेलि किय फासू, ताहि अचित्त कहें श्रुत-भासू ।।७६ पहर दोय बीते जो भाई, अगणित अस जीवा उपजाई । ड्योढ़ तथा पौणा दो पहरा, आगे मति वरती बुधि-गहरा ॥७७ भात उकाल उष्ण जल जो है, सात पहर ही लेणो सो है। बीतें बसु जामा जल उष्णा, स भरिया इह कहै जु विष्णा ॥७८ विष्णु कहावें जिनवर स्वामी, सर्व व्यापको अन्तर-यामी। या विधि पाणी दिवसें पीवी, निसिकू जल छाड़ो भवि जीवी ।।७९ अशन पान बर खादिम स्वादी, निशि त्यागे बिन व्रत सब वादी। दया बिना नहिं व्रत जु कोई, निश भोजन में दया न होई ।।८०
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दोलतराम-कृत क्रियाकोष
२५५ छायूं जाय न निसकों नीरा, वीण्यूं जाय न धानहुँ वीरा। छाण बीण विन हिंसा होवै, हिंसातै नारक पद जोवें ॥७१ अवर कथन इक सुनने योगा, सुनकर धारहु सुबुधि लोगा। नारिन को लागै बड़ रोगा, मास मास प्रति होहि अजोगा ॥८२ ताको किरिया सुनि गुणवन्ता, जा विधि भा श्रीभगवन्ता। दिवस पांच बीतें सुचि होई, पांच दिनालों मलिन जु सोई ॥८३ उक्तं च श्लोक-त्रिपक्षे शुद्धयते सूती, रजसा पंच वासरे ।
अन्यशक्ता च या नारी, यावज्जीवं न शुद्धयते ॥१ अर्थ-प्रसूता स्त्री डेड़ महीनेमें शुद्ध होय है, रजस्वला पांच दिवस गये पवित्र होय है अर जो स्त्री परपुरुष सों रत भई सो जन्म पर्यन्त शुद्ध नाहीं, सदा अशुचि ही है।
बेसरी छन्द पांच दिवस लौं सगरे कामा, तजिकर, रहिवो एक ठामा । कछु धंधा कखौ नहिं जाकों भई अजोग अवस्था ताको ।।८४ निज भर्ताहं कों नहिं देखे, नीची दृष्टि धर्म को पेखें । दिवस पांचलों न्हावी उचिता, नितप्रति कपड़ा धोवो सुचिता ॥८५ कांहूँ सों सपरस नहिं करिवौ, न्यारे आसन बासन धरिवौ। जो कबहूँ ताके बासन सों, छुयो राछ अथवा हाथन सों ॥८६ तो वह बासन ही तजि देवी, या विधि शुद्ध जिनाज्ञा लेवी। अन्न वस्त्र जल आदि सबैही, ताको छुऔ कछू नहिं लेही ॥८७ कोरो पीस्यो कछु नहिं गहिवी, ताको ताके ठामहिं रहिवौ। ठौर त्याग फिरवी न कितही, इह जिनवर की आज्ञा है ही ॥८८ करवी नाहीं अशन गरिष्ठा, नाहीं जु दिवसें शयन वरिष्ठा। हास कुतूहल तैल फुलेला, इन दिन माहिं न गीत न हेला ॥८९ काजल तिलक न जाकों करिवौ, नाहिं महावर महेंदो धरिवो। नख केशादि सुधार न करनों, या विधि भगवत-मारग धरनों ॥९. और त्रियन में मिलवो जाकों, पंच दिवस है वजित ताकों। चंडाली छूतें अति निद्या, भाषे जिनवर मुनिवर वंद्या ।।९१ पंच दिवस पति ढिग नहिं जावी, अर नहिं वाके सज्या रचावौ। भूमि-सयन है जोग्य जु ताको, सिंगारादि न करनों जाकों ॥९२ छट्टे दिवस न्हाय गुणवन्ती, शुभ कपड़ा पहरै बुधिवन्ती। ह पवित्र पतिजुत जिन अर्चा, कर वातै धारै शुभ चर्चा ॥९३ पूजा दान कर विधि सेती, सुभ मारग माहीं चित देती। निसि को अपने पति ढिग जावै, तो उत्तम बालक उपजावै ॥९४
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श्रावकाचार-संग्रह सुबुधि विवेकी सुवत-धारी, शीलवन्त सुन्दर अविकारी। दाता सूर तपस्वी श्रुतधर, परम पुनीत पराक्रम भर नर ॥९५ जिनवर भरत बाहुबलि सगरा, रामहणू पांडव अर विदरा । लव अंकुश प्रद्युम्न सरीसा, वृषभसेन गोतम स्वामी सा ॥९५ सेठ सुदर्शन जंबू स्वामी, गज कुमार आदि गुण-धामी। पुत्र होय तो या विधि को है, अर कबहूं पुत्री हो जो है ॥९७ तो सुशील सौभाग्यवती अति, नेम धरम परवीन हंस गति । बाल सुब्रह्मचारिणी शुद्धा, ब्राह्मी सुन्दरि सी प्रतिबुद्धा ।।९८ चन्दन बाला अनन्तमतीसी, तथा भगवती राजमतीसी । अथवा पतिव्रता जु पवित्रा, हसुशील सीतासी चित्रा ॥९९ के सुलोचना कौशल्या सी, शिवा रुकमनी वीशल्या सी। नीली तथा अंजना जैसी, रोहणि द्रौपद सुभद्रा तैसी ॥१०० अर जो कोऊ पापाचारी, पंच दिवस वीतें बिन नारी। सेवे विकल अन्ध अविवेकी, ते चंडालनि हते एको ॥१ अति ही घृणा उपजै ता समये, तातें कबहुं न ऐसे रमिये । फल लागै तौ निपट हि विकला, उपजै संतति सठ बे-अकला ॥२ सुत जन्में तो कामी क्रोधी, लापर लंपट धर्म विरोधी । राजा बक बसु से अति मूढ़ा, ग्रन्थनि माहिं अजस आरूढा ॥३ सत्यघोष द्विज पर्वत दुष्टा, धवल सेठ से पाप सपुष्टा। पुत्री जन्में तोहो कुशीली, पर-पुरुषा रति अवहीली ॥४ राव जसोधर की पटरानी, नाम अमृतादेवि कहानी। गई नरक छ? पति मारे, किये कुबज सों कर्म असारे ॥५ रात्रि विर्षे कपरा है नारी, तो इह बात हिये में धारी । पंच दिवस में सो निसि नाहीं, ता बिन पंच दिवस श्रुत माहीं॥६ इह आज्ञा धारौ तजि पापा, तब पावो आचार निपापा । अब सुनि गृहपति के षट् कर्मा, जो भा जिनवर को धर्मा ।।७ निज पूजा अर गुरु की सेवा, पुनि स्वाध्याय महासुख देवा । संजम तप अर दान करो नित, ए षट् कर्म धरौ अपने चित ॥८ इन कर्मनि करि पाप जु कर्मा, नासें भविजन सुनि निज धर्मा । चाकी उखरी और बुहारी, चूला बहुरि परंडा धारी ॥९ हिंसा पांच तथा घर धन्धा, इन पापनि करि पाप हि बंधा। तिनके नासन कों षट कर्मा. सभ भावें जिनवर को धर्मा ॥१० ए सब रीति मूल गुण माहीं, भाषे श्री गुरु संस नाहीं। आठ मूल गुण अंगीकारा, करौ भव्य तुम पाप निवारा ॥११ अर तजि सात विसन दुखकारी, पाप मूल दुरगति दातारी। जूवा आमिष मदिरा दारी, आखेटक चोरी पर नारी ॥१२
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष जूवा सम नहिं पाप जु कोई, सब पापनि को यह गुरु होई। जूवारी को संग जु त्यागी, चूत कर्म के रंग न लागौ ॥१३ पासा सारि आदि बहु खेला, सब खेलनि में पाप हि भेला। सकल खेल तजि जिन भजि प्रानी, जाकर होय निजातम ज्ञानी ॥१४ ठौर और मद मांस जु निंद, तातें तजिये प्रभू कों बंदै। तज घेश्या जो रजक-शिला सम, गनिका को घर देखहु मति तुम ॥१५ त्यागि अहेरा दुष्ट जु कर्मा, कै दयाल सेवी जिन धर्मा। करे अहेरातें जु अहेरी, लहै नर्क में आपद ढेरी ॥१६ क्षत्री को इह होय न कर्मा, क्षत्री को है उत्तम धर्मा । क्षत् कहिये पीरा को नामा, पर-पीरा-हर जिनको कामा॥१७ क्षत्री दुर्बल कों किम मारे, क्षत्री तो पर-पीरा टारे। मांस खाय सो क्षत्री केसो, वह तो दुष्ट अहेरी जैसो ॥१८ अर जु अहेरी तजे अहेरा, दयापाल ह जिनमत हेरा। तो वह पावै उत्तम लोका, सबकों जीव-दया सुख थोका ॥१९ त्यागो चोरी जो सुख चाही. ठग विद्या तजि लोभ विलाही । पर धन भूले विसरें बायो, राखी मति यह जिन श्रुत गायौ ।।२० लुटि लेहु मति काहू को धन, पर धन हरवेंकों न धरो मन । चुगली करन, लुटावी काकों, छाड़ों भाई अन्य रमा कों ॥२१ काहू की न, धरोहरि दावी, सूधी राखौ मित्र हिसावी । तौल माहिं घटि-बधि मति कारो, इह जिन आज्ञा हिरदै धारो ॥२२
बोहा तजी चोर की संगती, तासू नहिं व्यवहार । चोरयो माल गृही मती, जो चाहो सुख सार ॥२३ परदारा सेवन तजौ, या सम दोष न और। याकों निदे जिनवरा, जो त्रिभुवन के मौर ॥२४ पापी सेवें पर तिया, परें नरक में जाय। तेतीसा-सागर तहाँ, दुख देखें अधिकाय ॥२५ तातें माता बहन अर, पुत्री सम पर-नारि। गिनों भव्य तुम भाव सों, शील वृत्त उर धारि ॥२६ जे जेठी ते मात सम, समवय बहन समान । आप थकी छोटी उमरि, सो बिन सुता प्रमान ।।२७ निन्दे बिसन जु सात ए, सात नरक दुखदाय।। मन बच तिन ए परिहरी, भजी जिनेसुर पाय ॥२८ इन बिसननि करि बहु दुखी, भये अनन्ते जोव। तिनको को वर्णन करै, ए निर्दे जग-पोव ।।२९
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श्रावकाचार-संग्रह कैयक के भाखें भया, नाम, सूत्र अनुसार । राव जुधिष्ठर सारिखे, धर्मात्तम अविकार ॥३० दुर्योधन के हठ थकी, एक बारही द्यूत ।
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हारि गये पांडव प्रगट, राज सम्पदा मान । दुखी भये जो दीन जन, ग्रन्थनि माहिं बखान ||३२ पीछे तजि सब जगत कों, जगदीश्वर उर ध्याय । श्री जिनवर के लोक को, गये जुधिष्ठर राय ॥३३ मांस भखनतें बक नृपति, गये सातवें नर्क। तीस तीन सागर महा, पायौ दुख संपर्क ॥३४ अमल थकी जदुनन्दना, रिषिकों रिस उपजाय । भये भस्मभावा सबे, पाप करम फल पाय ॥३५ कैयक उबरे जिन जपी, भये मुनीसुर जेह । येह कथा जिनसूत्र में, तुम परगट सुन लेह ॥३६ चारुदत्त इक सेठ हो, करि गनिकासो प्रीति । लही आपदा जिह धनी, गई संपदा बीति ||३७ ब्रह्मदत्त पापी महा, राजा हो मृग मार। आखेटक अपराधतें, बूडयो नरक मझार ॥३८ चोरी करि शिवभूति शठ, लहे बहुत दुख दोष । ताकी कथा प्रसिद्ध है, कहिवे को सतघोष ॥३९ परदारा पर चित्तधरी, रावण से बलवन्त। अपजस लहि दुरगति गये, जे प्रतिहरि गुणवन्त ॥४० बिसन बुरे बिसनी बुरे, तजो इनों तें प्रीति । ब्रत क्रियाके शत्रु ये, इनमें एक न नीति ॥४१ अब सुनि भैया बात इक, गुण इकबीसौ जेह । इनहीं मूल गुणानिको, परिवारों गनि लेह ॥४२ लज्जा दया प्रशांतता, जिन मारग परतीति । पर औगुनको ढांकिवो, पर उपगार सुप्रीति ॥४३ सोमदृष्टि गुणग्रहणता, अर गरिष्ठता जानि । सबसों मित्राई सदा, वैरभाव नहिं मानि ॥४४ पक्ष पुनीत पुमान की, दोरघदरसी सोय । मिष्ट बचन बोले सदा, अर बहु शाता होय ॥४५ अति रसज्ञ धर्मज्ञ जो, है कृतज्ञ पुनि तज्ञ । कहै तज्ञ जाकू बुधा, जो होवे तत्त्वज्ञ ॥४६ नहीं दीनता भाव कछु, नहिं अभिमान धरेय । सबसों समताभाव है, गुण को विनय करेय ॥४७
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष पापक्रिया सब परिहरी, ए गुण होंय एकीस । इनकों धारै सो सुघी, लहै धर्म जगदीश ।।४८ इन गुण बाहिर जीव जो, स्रावक नाहिं गनेय । श्रावक व्रत के मूल ए, श्री जिनराज कहेय ।।४९ श्रावक ब्रत सब जाति को, जति-ब्रत तीन गहेय । द्विज क्षत्री वाणिज बिना, जति व्रत नाहिं जु लेय ॥५० अर एते विणज न करे, श्रावक प्रतिमा धार । धान पान मिष्टान अर, मोम हींग हरतार ॥५१ मादक लवण जु तेल घृत, लोह लाख लकड़ादि । दल फल कन्दादिक सबै, फूल फूस सीसादि ।।५२ चीट चाबका जेबड़ा, मूंज डाभ सण आदि । पसु पंखी नहिं विणजवो, साबुन मधु नीलादि ॥५३ अस्थि चर्म रोमादि मल, मिनखा बेचवी नाहिं। बन्दि पकड़नी नाहिं कछु, इह आज्ञा श्रुत माहिं ।।५४ पशु-भाड़े मति द्यो भया, त्यागि शस्त्र व्यापार। वध बंधन व्यवहार तजि, जो चाही भव-पार ।।५५ जहाँ निरंतर अगिनि को, उपजे पापारंभ । सो व्यौहार तजौ सुधी, तजौ लोभ छल दंभ ॥५६ कन्दोई लोहार अर, सुवर्णकार शिल्पादि । सिकलीगर बाटी प्रमुख, अबर लखेरा आदि ॥५७ छीपा रंगरेजादिका. अथवा कुम्भ जु कार । बत धारी ए नहिं करै, उद्यम हिंसाकार ।।५८ रंग्यो नीलथको जिको, सो कपरा तजि बीर । अति हिंसाकर नीपनों, है अजोगि वह चीर ॥५९ कप तड़ाग न सोखियो, करिये नहीं अनर्थ । हिंसक जीव न पालिये, यह श्रुत धारी अर्थ ॥६. विषनि विणजवो है भला, इसा विणजवी नाहिं। नहीं सीदरी सूतली, होय विणज के मांहि ॥६१ बिणज करो तो रतन को, के कंचन रूपादि। के रूई कपड़ा तनों, मति खोवो भव बादि ॥६२ जिनमें हिंसा अल्प है, ते व्यापार करेय । अति हिंसा के विणज जे, ते सब ही तज देय ॥६३ ए सब रोति कही बुधा, मूल गुणनि में ठीक । ते धारौ सरधा करी, त्यागी बात अलीक ॥६४ . जैसें तरु के जड़ गिनी, अह मंदिर के नींव ।
तैसें ए बसु मूलगुण, तप जप व्रत की सीव ॥६५
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श्रावकाचार-संग्रह
वेसरी छन्द ए दुरगति दाता न कदेही, शिव-कारण हूँ कहइ विदेही। सम्यक सहित महाफल दाता, सब व्रत्तनि को सम्यक त्राता ॥६६ समकित सों नहिं और जु धर्मा, सकल क्रिया में सम्यक पर्मा। जाके भेद सुनो मन लाए, जाकरि आतम तत्व लखाए ॥६७ भेद बहुत पर द्वै बड़ मेदा, निश्चय अर व्यवहार अछेदा। निश्चय सरधा निज आतम की, रुचि परतोति जु अध्यातम की ॥६८ सिद्ध समान लखे निज रूपा, अतुल अनन्त अखंड अनूपा । अनुभव रसमें भोग्यो भाई, धोई मिथ्या मारग काई ।।६९ अपनों भाव अपुनमें देखो, परमानन्द परम रस पेखो। तीन मिथ्यात चौकड़ी पहली, तिन करि जीवनि की मति गहली ॥७० मोह-प्रकृति है अट्ठाबीसा, सात प्रबल भाषे जगदीसा। सात गये सबही नसि जावें, सर्व गये केवल पद पावें ॥७१ उपशम क्षय-उपशम अथवा क्षय; सात तनों कोयौ तजि सब भय । ये निश्चय समकित को रूपा, उपजै उपशम प्रथम अनूपा ।।७२ सुनि सम्यक व्यवहार प्रतीता, देव अठारा दोष बितीता। गुरु निरग्रन्थ दिगम्बर साधू, धर्म दयामय तत्व अराधू ॥७३ तिनकी सरधा दिढ़ करि धारै, कुगुरु कुदेव कुधर्म निवारे। सप्त तत्व को निश्चय करिवी, यह व्यवहार सु सम्यक धरिवौ ॥७४ जीव अजीवा आस्रव बंधा, संवर निर्जर मोक्ष प्रबन्धा। पुण्य पाप मिलि नव ए होई, लखै जथारथ सम्यक सोई ।।७५ ये हि पदारथ नाम कहावै, एई तत्व जिनागम गावै । नव पदार्थ में जीव अनन्ता, जीवनि मांहि आप गुणवंता ॥७६ लखै आपको आपहि माहीं, सो सम्यक दृष्टि शक नाहों । ए दोय भेद कहै समकित के, ते धारौ कारण निज हितके ॥७७ सम्यकदृष्टि जे गुण धारे, ते सुनि जे भव-भाव विडारै। अठ मद त्यागे निर्मद होई, मार्दव धर्म धरै गुन सोई ।।७८ राज गर्व अरु कुलको गर्वा, जाति मान बल मान जु सर्वा । रूप तनूं मद तपको माना, संपति अर विद्या अभिमाना ||७९ ए आठों मद कबहु न धारै, जगमाया तृण-तुल्य निहारे। अपनी निधि लखि अतुल अनन्ती, जो परपंचनि में न वसंती ॥८. अविनश्वर सत्ता विकसंती. ज्ञान-दृगोत्तम द्युति उलसंती। तामें मगन रहै अति रंगा, भवमाया जाने क्षण भंगा ।।८१ तीन मूढ़ता दूरी नाखे, देव धर्मगुरु निश्चय राखे । कुगुरु कुदेव कुधर्म न पूजा, जैन बिना मत गहै न दूजा ।।८२
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दौलतराम-त क्रियाकोष छह जु अनायतनी बुधि त्यागे, त्याग मिथ्यामत जिनमत लागे। कुगुरु कुदेव कुधर्म बड़ाई, अर उनके दासनि की भाई ॥८३ कबहुं करै नहिं सम्यकदृष्टी, जे करि ते मिथ्यादृष्टी। शंका आदि आठ मल छांडे करि, परपंच न आपो भाडे || जिनवच में शंका नहिं ल्यावै, जिनवाणी उर धरि दिढ भावे । जग की वांछा सब छिटकावे, निःस्पृह भाव अचल ठहरावें ॥८५ जिनके अशुभ उदै दुख पीरा, तिनको पीर हरै वर वीरा। नाहि गिलानि धरै मन माहीं, सांची दृष्टि धरै शक नाहीं ॥८ कबहुं परको दोष न भाखै, पर उपगार दृष्टि नित राखे । अपनो अथवा परको चित्ता, चल्यो देखि थांभै गुणरत्ता ।।८७ थिरीकरण समकित को अंगा, धारै समकित धार अभंगा। जिनधर्मीसू अति हित राखे, सो जिनमारग अमृत चाखे ॥८८ तुरत जात बछरा परि जैसें, गाय जीव देय है तैसें। साधर्मी परि तन धन बार, गुण वात्सल्य घरै अघ ढारे ॥८९ मन वच काय करै वह ज्ञानी, जिनदासनि को दासा जानी। जिनमारग की करें प्रभावन, भावे ज्ञानी चउ विधि भावन ।।९. सब जीवनि में मंत्रीभावा, गुणवंतनिकू लखि हरसावा । दुखी देखि करुणा उर आने, लखि विपरीत राग न ठानें ।।९१ दोषहु माहीं है मध्यस्था, ए चउ भावन भावै स्वस्था। जिन चैत्याले चैत्य करावे, पूजा अर परतिष्ठा भावे ॥१२ तीरथ जात्रा सूत्र सु भक्ती, चउविधि संघ सेव है युक्ती। एहै सप्त क्षेत्र परिसिद्धा, इनमें खरचै धन प्रतिबुद्धा ।।९३ जीरण चैत्यालय की मरमती, करवावं, अर पुस्तक की प्रति । साधर्मी कू बहु धन देवे, या विधि परभावन गुन लेवे ॥९४ कहे अंग ए अष्ट प्रतक्षा, नाहिं धरवौ सोई मल लक्षा। इन अंगनि करि सोझै प्रानी, तिनको सुजस करै जिन वानी ।।९५ जीव अनन्त भये भवपारा, को लग कहिये नाम अपारा। कैयक के शुभ नाम बखानों, श्रुत-अनुसार हिए में आनों IR६ अंजन और अनन्तमती जो, राव उढायन कर्म हतीजो। रेवति राणी धर्म-गढ़ासा, सेठ जिनेन्द्र भक्त बघ नासा ॥९७ पर औगुन ढांके जिह भाई, जिनवर की आज्ञा उर लाई। वारिषेण ओ विष्नुकुमारा, वजकुमार भवोदबि तारा ॥८ अष्ट अंग करि अष्ट प्रसिद्धा, और बहुत हूए नर सिद्धा। अठ मद त्यागि अष्ट मल त्यागा, तीन मूढ़ता त्यागि सभागा ॥९९ षट जु अनायतना को तजिवी, ए पच्चीस महागुण मजिवी । अर तजिवो तिनकू भय सप्ता, निर्भय रहिवी दोष अलिप्ता ॥१००
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श्रावकाचार-संग्रह
इह भव पर भव को भय नाही, मरण वेदना भय न धराहीं। हमरो रक्षक कोळ नाहीं, इह संशय नाहीं घट माहीं ॥१०१ सबको रक्षक आयु जु कर्मा, के जिनवर जिनवर को धर्मा । और न रक्षक कोई काकों, इह गुरु गायो गाढ जु ताकों ॥१०२ बर नहिं चोर तनों भय जाकों, अपनो निज धन पायो ताकों। चिद धन चोरयो नांही जावे, तातें चित्त अडोल रहावै ॥१०३ अर नहिं अकस्मात भय कोई, जिन-सम लखियो निज तन जोई। चेतन रूप लख्यौ अविनासी, तातें ज्ञानी है सुख रासी ॥१०४ काहू को भय तिनकों नाहीं, भय-रहिता निरबैर रहा हीं। सप्त भया त्यागे गुण होई, सप्त बिसन तजियो शुभ जोई ॥१०५ सप्त सप्त मिलि चौदा गुन ए, मिलि पचीसा गुणताल जुए। पंच दुरगंछा भाव कब हो, नहिं मिथ्यात सराह करही। नहीं स्तवन मिथ्यादृष्टी को, यह लक्षण सम्यक दृष्टी को ॥१०७ पंच अतीचारनि । त्यागा, सो हपंच गुणा बड़ भागा। मिलि गुणताली चौवालीसा, गुणा होंहि भाषे जगदीसा ॥१०८ “इनकूधारै सम्यकती सो, भव भ्रम तजि पावे मुक्ती सो। ए गुन मिथ्याती के नाही, आतमज्ञान न मथ्या माहीं ॥१०९
उक्तं च गाथा मयमूढमणायदणं संकाइवसण्णभयमईयारं ।
एहिं चउदालेदै ण संति ते हंति सट्ठिी ॥१ बर्थ-जिनके अष्ट मद नाहीं, तीन मूढता नाही, षट आयतन नाहीं, शंकादि अष्ट मल नाही, सप्त ब्यसन नाही, सप्त भय नाहीं, पंच अतीचार नाही, ए चवालीस नाही ते सम्यकदृष्टि कहे।
बोहा व्रत के मूल जु मूल गुण, सम्यक सबको मूल । कह्यो मूलगुण को सुजस, सुनि व्रतविधि अनुकूल ॥११० इति क्रियाकोषे मूलगुण निरूपणम् ।
बारह व्रत वर्णन
वोहा
द्वादस व्रतनि की सुविधि, जा विधि भाषी वीर । सो भाषों जिन गुन जपी, जे धारे ते धीर ॥१ द्वादस व्रत माहें प्रथम, पंच अणुव्रत सार । तीन गुण व्रत चारि पुनि, शिक्षा व्रत आचार ॥२
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
हिंसा मृषा अदत्तधन, मैथुन परिग्रह साज। एकदेश त्यागी गृही, सब त्यागी रिषिराज ॥३ सब अत्तनि के आदिही. जीवदया-व्रतसार। दया सारिसी लोक में, नहिं दूजो उपगार ||४ सिद्ध समान लख्यौं जिनें, निश्चय आतम राम । सकल आतमा आपसे, लख चेतना-धाम ॥५ ते सब जीवनि की दया, करें विवेकी जीव । मन वच तन करि सर्व को, शुभ वांछ जु सदीव ॥६ सुख सों जीवो जीव सहं, क्लेश कष्ट मति होह । तजी पाप को सर्व ही, तजी परस्पर द्रोह ॥७ काहू को हु पराभवा, कबहु करी मति कोइ । इह हमरी बांछा फलौ, सुख पावो सह लोइ ॥८ सबके हितकी भावना, राखै परम दयाल । दयाधर्म उरमें धरी, पावै पद जु विशाल ॥९ थावर पंच प्रकार के, चउविधि स परवानि । सबसों मैत्री भावना, सो करुणा उर आनि ॥१० पृथीकाय जलकाय का, अग्निकाय अर वाय । काय बहुरि है वनस्पति, ए थावर अधिकाय ।।११ वे इन्द्री ते इन्द्रिया, चउ इन्द्रिय पंचेन्द्रि । ए त्रस जीवा जानिये, भावें साधु जितेन्द्रि ॥१२ कृत-कारित-अनुमोद करि, धरै अहिंसा जेह । ते निर्वाण पुरी लहै, चउ गति पाणी देह ॥१३ निरारंभि मुनि की दशा, तहां न हिंसा लेस। छहूं काय पीराहरा, मुनिवर रहित कलेश ॥१४ गृहपति के गृहजोगते, कछु आरम्भ जु होइ । ताते थावरकाय को, दोष लगै अघ सोइ ॥१५ पै न करे त्रस घात वह, मन वच तन करि धीर । त्रस कायनि को पीहरा, जाने परकी पीर ॥१६ विना प्रयोजन वह सुधी, थावर हू पीरै न । जो निशंक थावर हने जिनके जिननी रेन ॥१७ हिंसाको फल दुरगती, दया स्वर्ग-सुख दे। पहुंचावे पुनि शिवपुरे, अविनाशी जु करेइ ॥१८ दया मूल जिन धर्म को, दया समान.न और । एक अहिंसा व्रतही, सव व्रतनि को मोर ॥१९ यम नियमादिक बहुत जे, भावे श्री जिनराय । ते सहु करुणा कारणें, और न कोई उपाय ॥२०
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बावकाचार-संग्रह
बिना जैन मत यह दया, दूजे मत दीखै न । दया मई जिनदास है, हिंसा विधि सीखे न ॥२१ दया दया सब कोउ कहै, मर्म न जाने मूर । अणछान्यूं पाणी पिवे, ते हि दयातें दूर ॥२२ दया भली सबही रटे, मेद न पावै कोय । वरते अणगाल्यो उदक, दया कहां ते होय ॥२३ दया बिना करणी वृथा, यह भावे सब लोक । न्हावै अणगाले जलहि, बांधे अघ के धोक ॥२४ छायूं जल घटिका जुगल, पाछे अगाल्यो होय । विना जैन यह बारता, और न जाने कोय ॥२५ दया समान न धर्म कोउ, इह गावे नर-नारि। निशा माहि भोजन करें, जाहि जमारो हारि ॥२६ दया जहां ही धर्म है, इह जाने संसार। पै नहिं पावै भेदकों, भखें अभक्ष आहार ॥२७ दया बड़ी सब जगत में, धरै न मूढ़ तथापि । परदारा परधन हरे, परै नरक में पापि ।।२८ दया होय तो धर्म है, प्रगट बात है एह ।। तजे न तोहू द्रोह पर, घरै न धर्म सनेह ।।२९ व्रत करे पुनि मूढधी, अन्न त्यागि फल खाय । कंदमूल भक्षण करै, सो व्रत निष्फल जाय ॥३० दया धर्म कीजे सदा, इह जपे जग सर्वे । नहिं तथापि सब सम गिने, हने न आढू कर्म ॥३१ परम धर्म है यह दया, कहै सकल जन इह । चुगली-चांटी नहिं तजे, दया कहां ते लेह ॥३२ दया व्रत के कारणे, जे न तजें आरम्भ । तिनके करुणा होय नहिं, इह भाषे परब्रह्म ॥३३ दया धर्म को छांडिके. जे पश घात करेप । ते भव भव पीड़ा लहै, मिथ्या मारग सेय ॥३४ दया ब्रता- सब मता, समझ न काहू मांहि । धर्म गिने हिंसा विर्षे, जतन जीव को नांहि ॥३५ दया नहीं परमत विर्षे, दया जैनमत मांहि । विना फैन यह जैन है, यामें संशय नांहि ॥३६ दया न मिथ्या मत विर्षे, कहै कहां लों वोर । करुणा सम्यक भाव है, यह निश्चय धरि धीर ॥३७ काहे के वे देवता, करें जु मांस अहार। ते चंडाल बखानिये, तथा श्वान मार्जार ॥३८
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष देवनिको आहार ह्व, अमृत और न कोय । मांसाशी देवानिकू, कहै सु मूरखि होय ॥३९ मंगल कारण जे जणा, जीवनि को जु निपात । करें अमङ्गल ते लहें, होय महा उतपात ॥४० जे अपने जीवे निमित, करे औरकों नास । ते लहि कुमरण वेग ही महें नरक कों वास ॥४१ मद्य मांस मधु खाय करि, जे बांधे अघ कर्म । ते काहे के मिनख हैं, इह भाखे जिनधर्म ॥४२ कन्दमूल फल खाय करि, करै जु वनको वास । तिनको वनवासा वृथा, होय दयाको नास ॥४३ बिना दया तप है कुतप, जाकरि कर्म न जाय । किसक मिथ्यामत धरा, नरक निगोद लहाय ।। ४४ जैसो अपनों आतमा, तैसे सबही जीव । यह लखि करुणा आदरो, भाखें त्रिभुवन-पीव ॥४५
छन्द जोगीरासा काहे के ते तापस, करुणा नाहिं धरावें। कर अपनी आरम्भ सपष्टा, जीव अनेक जरावें॥ जे तजि कपड़ा तपके कारण, धारें शठमति चर्मा । ते न तपस्वी भवदधि कारण, बांधे अशुभ जु कर्मा ॥४६ रिषि तो ते जे जिनवर-भक्ता, नगन दिगम्बर साधा। भव तनु भोग थकी जु विरक्ता, करै न थिर चर बाधा ।। मैत्री मुदिता करुणा भावा मध्यस्था जु धारै। राग दोष मोहादि अभावा ते भवसागर तारै ॥४७ बिना दया नहिं मुनिवत होई, दया विना न गृही है। उभय धर्म को सरवस करुणा जा विन धर्म नहीं है। दया करौ मुखसब भाखें भेद, न पावे पूरा। बासी भोजन भखि करि, भोदू रहे धर्म तें दूरा ॥४८ बासी भोजन माहि जीव बह, भखें दया नहिं होई। दया बिना नहिं धर्म न वत्ता, पावे दुरगति सोई ।। अत्थाणा संधाण मथाणा, कांजी आदि आहारा। करें विवेक बाहिरा कुबुधी, तिनके दया न धारा ॥४९ मांसाशी के घरको भोजन, करें कुमति के धारी। तिनके घट करुणा कह कैसे, कहां शोध आचारी ।। तातो पाणी आठ हि पहरा, आगें त्रस उपजाही। ताको तिनका सुधि बुधि नाहीं, दया कहां तिन माहीं ॥५०
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श्रावकाचार-संग्रह निशिको पीस्यो निसि को रांध्यौ थींधौ सीधौ खावै । हरितकाय रांधी सब स्वादै, दया कहां तें पावै ।। चर्म-पतितं घृत तेल जलादिक, तिसमें दोष न मानें । गिनें न दोष हींग में मूढा, दया कहां ते आने ॥५१ हाटें बिकते चून मिठाई, कहें तिने निरदोषा। भखें अजोगि अहार सबै ही, दया कहां तें पोषा ॥ दूध दही अरु छाछि नीर को, जिनके कछु न विचारा। दया कहां है तिनके भाई, नहीं शुद्ध आचारा ॥५२ सूडा नहीं मल मूत्रादिक की, ढोर समाना तेई । तिनकू जो नर जैनी जाने, ते नहिं शुभ मति लेई ।। बाधक जिन शासन सरधाके, साधकता कछु नाहीं। साधु गिनें तिनकं जे कोई, ते मुरख जग माहीं ।।५३ एक बारको नियम न कोई, बार-बार जल पाना । बार-बार भोजन को करिवो, तिनके व्रत्त न जाना। अस काया को दूषण जामें, सो नहिं प्रासुक कोई। भखै असूत्री शठमति जोई, नाहीं ब्रत धर होई ॥५४ दयाधर्म को परकाशक है, जिन मन्दिर जगमाहीं। ताहि न पूजें पापी जीवा, तिनके समकित नाहीं ॥ कारण आतम-ध्यान तणों है, श्रीजिन प्रतिमा शुद्धा । नाहि न बन्ने निन्द जु तेई, जानहु महा अबुद्धा ॥५५ बूढ़े नरक मझार महा शठ, जे जिन प्रतिमा निंदे । जाहिं निगोद विवेक-वित्तीता, जे जिनगृह नहिं वन्दें । अज्ञानी मिथ्याती मूढा, नहीं दया को लेशा। दयावन्त तिनकू जे भाणे, ते न लहें निज देशा ॥५६
दोहा सुर नर नारक पशुगती, ए चारों परदेश । पंचमगति निज देश है, यामें भ्रांति न लेश ॥५७ पंचमगति की कारणा, जीवदया जग माहि । दया सारिखौ लोक में, और दूसरी नाहिं ॥५८ दया दोय विधि है भया, स्व-पर दया श्रुत माहिं । सो धारौ दृढ़ चित्त में, जाकरि भव-भ्रम जाहिं ॥५९ स्वदया कहिये सो सुधी, रागादिक अरि जेह । हने जीव की शुद्धता, टारि तिन्हें शिव लेह ॥६० प्रगट कर निज शुद्धता, रागादिक मन मोरि । निज आतम रक्षा करे, डारे कर्म जु तोरि ॥६१
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
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सो स्वदया भाषे गुरू, हरै कर्म-विस्तार । निजहि बचावै कालतें, करै जीव निस्तार ॥६२ षट कायाके जीव सह, तिनते हेत रहाय । वैरभाव नहिं कोइर॑, सो पर-दया कहाय ॥६३ दया मात सब जगत की, दया धर्म को मूल । दया उधारै जगत ते, हरै जोव की भूल ॥६४ दया सुगुन की बेलरी, दया सुखन की खान । जीव अनन्ता सीजिया, दयाभाव उर आन ॥६५ स्व-पर दया दो विधि कही, जिनवाणी में सार । दयावन्त जे जीव है, ते भावे भवपार ॥६६
सवैया इकतीसा सुकृत की खानि इन्द्रपुरी की निसेंनी जानि, पापरज खंडन कों पौनराशि पेखिये । भवदुख-पावक बुझाय व कू मेघमाला, कमला मिलायवे को दूतो ज्यविसेखिये ।। मुकति-बधूसों प्रीति पालिवे को आलो सम, कुगति के द्वार दिढ़ आगलसी देखिये। ऐसी दया कीजै चित्त तिहूँ लोक प्राणी हित, और करतूति काहू लेखे में न लेखिये ॥६७
दोहा जो कहं पाषाण जल, माहि तिरै अर भान । ऊगै पश्चिम की तरफ, दैवयोग परवान ॥६८ शीतल गुन ह अगनि में, धरा पीठ उलटेय । तोहू हिंसा-कर्मतें, नाहीं शुभ गति लेय ॥६९ जो चाहै हिंसा करी, धर्म मुकति को मूल । सो अगनीसू कमल-वन, अभिलाषै मति भूल ॥७० प्राणि-घात करि जो कुधी, बांछै अपनी वृद्धि । सो सूरज के अस्त तें, चाहे वासर शुद्धि ।।७१ जो चाहै व्रत धर्म को, करै जीव को नास । सो शठ अहिके वदन ते, करै सुधा की आस ॥७२ धर्म बुद्धि करि जो अबुध, हनै आपसे जीव । सो विवाद करि जस चहै, जल-मंथन तें घीव ॥७३ जैसे कुमतो नर महा, काल कूटकू पीय । जीवौ चाहै जीव हति, तैसे श्रेय स्वकीय ॥७४
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श्रावकाचार-संग्रह करि अजीर्ण दुर्बुद्धि जो, इच्छे रोग-निवृत्ति । तैसे शठ पर-घात करि, चाहै धर्म-प्रवृत्ति ।।७५ दया थकी इह भव सुखी, पर-भव सब सुख होय । सुरग मुकति दायक दया, धारै उधरै सोय ॥७६ इन्द नरिन्द फणिन्द अर, चंद सूर अहमिन्द । दया थकी इह पद लहे, होवै देव जिणंद ॥७७ भव सागर के पार है, पहुंचे पुर निर्वान । दया तणों फल मुख्य सो, भाषे श्री भगवान ॥७८ हिंसा करिकै राज-सुत, सुबल नाम मति-हीन । इह भव पर भव दुख लह्यो, हिंसा तजौं प्रवीन ॥७९ चौदसिके इक दिवस की, दया धारि चंडार । इह भव नृप पूजित भयौ, लह्यौ स्वर्ग-सुख सार ।।८० जे सीझे जे सीझि हैं, ते सब करुणा धार । जे बूढ़े जे बूढ़ि हैं, ते सब हिंसा कार ॥८१ अतीचार भजि व्रत तजि, करुणा तिनतें जाय । बध बंधन छेदन बहुरि, बोझ धरन अधिकाय ॥८२ अन्न पान को रोकिबी, अतीचार ए पंच । त्यागी करुणा धारिक, इनमें दया न रंच ।।८३ हिंसा तुल्य न पाप है, दया समान न धर्म । हिंसक बूड़े नरक में, बांधे अशुभ जु कर्म ।।८४ हुती धन श्री पापिनी, वणिक-नारि व्यभिचारि । गई नरक में पुत्र हति, मानुष जन्म बिगारि ॥८५ हिंसा के अपराधते, पापी जोव अनंत । नये नरक पाये दुखा, कहत न आवे अंत ॥८६ जे निकसे भव-कूपते, ते करुणा उर धारि । जे बूड़े भव कूपते, ते सब हिंसा कारि ॥८७ महिमा जीव दया तनी, जानें श्री जगदीश । गणधर हू कहि ना सकें, जे चउ ज्ञान अधीश ॥८८ कहि न सकें इन्द्रादिका, कहि न सकें अहमिंद्र । कहि न सकें लोकान्तिका, कहि न सकें जोगीन्द्र ॥८९ कहि न सकें पाताल-पति, अगणित जीभ बनाय । सो महिमा करुणा तणी, हम पे बरणि न जाय ॥९० दया मात को आसरो, और सहाय न कोय । करि प्रणाम करुणा व्रतें, भाषों सत्य जु सोय ।।९१
इति दयावत निरूपण
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
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हिसा है परमादतें अर प्रमादतें झूठ। तातें तो प्रमादकू, देय पापसों पुठ ।।९२
चौपाई श्री पुरुषारथ सिद्धि उपाय, ग्रन्थ सुन्यां सब पाप लुभाय । जहँ द्वादश व्रत कहे अनूप, सम दम यम नियमादि स्वरूप ।।९३ सम जु कहावै समताभाव, सम्यकरूप भवोदधि नाव । दम कहिये मन इन्द्रिय-रोध, जाकर लहिये केवल बोध ॥९४ जीवो जाव वरत यम कह्यौ, अवधिरूप सो नियम जु लह्यो। ऐसे भेद जिनागम कहै, निकट भव्य है सो ही गहै ।।९५ तामैं सत्य कह्यो चउ भेद, सो मुनि करि तुम धरहु अछेद । चउविधि झूठ तनों परिहार, सो है सत्य महागुण सार ॥९६ प्रथम असत्य तजौ बुध वहै, वस्तु छत्तीकू अछती कहै । दूजे अलती को जो छती, भाषे अविवेकी हतमती ।।९७ तीजे कहै औरसों और, विरथा मूढ़ करै झकझोर । चौथे झूठ तने वय-भेद, गहित सवद प्रति उछेद ॥९८ ए सब कृत कारित अनुमंत, मन वच तन करि तज गुनवंत । चगली-चारी परकी हासि, कर्कश वचन महा दुख-राशि ॥९९ विपरीत न भाषौ बुघिवान, सबद तजौ अन्याय सुजान । वचन प्रलाप विलाप न बोलि, भजि जिन नायक तजि सहु भोलि ॥१०० भाषौ मत उतसूत्र कदेह, मिथ्यामत सों तजो सनेह । ए सल गहित न तजेह, जिनशासन की सरधा लेह ॥१ बहुरि सबै सावध अजोग, वचन न बोलौ सुबुधी लोग। छ दन भेदन मारण आदि, त्यागौ अशुभ बचन इत्यादि ॥२ चोरी जोरी डाका दौर, ए उपदेश पाप सिरमौर । हिंसा मृषा कुशील विकार, पाप वचन त्यागौ वत धार ॥३ खेती विणज विवाह जु आदि, वचन न बोले व्रती अनादि । तजहु दोषजुत वानी भया, बोलह जामें उपजै दया ॥४ ए सावध बचन तजि धीर, तजि अप्रीति वचन वर वीर। अरति-करन भय-करन न बोल, शोक-करन त्यागो तजि भोल ॥५ कलह-करन अध-करन तजेहु, बैर-करन वाणी न भजेहु । ताप-करन अर पाप-प्रधान, त्यागहु बचन जु दोष-निधान ॥६ मर्म-छद को वचन न कहो, जो अपने जियको शुभ चहो । इत्यारिक जे अप्रिय बैन, त्यागहु, सुनि करि मारग जैन ॥७ बोलो हित मित वानी सदा, संशय वानी बोलि न कदा। सत्य प्रशस्त दया रस भरी, पर उपगार करन शुभ करी ॥८
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२७.
श्रावकाचार-संग्रह
afar अव्याकुलता लिए, बोलहु करुणा धरिकै हिये । . कबहु ग्रामणी वचन न लपौ सदा सर्वदा श्री जिन जपो ॥९ अपनी महिमा कबहुँ न करो, महिमा जिनवर की उर धरौ । जो शठ अपनी कीरति करें, ते मिथ्यात सरूप जु धरै ॥ १० निन्दा परकी त्यागहु भया, जो चाहो जिनमा रंग लया । अपनी निन्दा गरहा करो, श्री गुरु पै तप व्रत आदरौ ॥११ पापनि को प्रायश्चित लेह, माया मच्छर मान तजेह । होवे जहां धर्म को लोप, शुभ किरिया होवे पुनि गोप ॥१२ अर्थशास्त्र के विपरीत, मिथ्यामत की ह्न परतीत । तहां छांड़ि शंका प्रतिबुद्ध, भावै सत्य वचन अविरुद्ध ।। १३ इनमें शंका कबहुं न रहू यही बुद्धि निश्चय उर धरहु । सत्य मूल यह आगम जैन, जैनो बोले अमृत बैन ॥ १४ चार्वाक बौद्ध विपरीत, तिनके नाहि सत्य परतीति । कौलिक कापालिक जे जानि, इनमें सत्य लेश मति मानि ॥ १५ सत्य समान न धर्म जु कोय, बड़ो धर्म इह सत्य जु होय । सत्य थकी पावै भव पार, सत्यरूप जिनमारग सार ॥१६ सत्य प्रभाव शत्रु मित्र, सत्य समान न और पवित्र । सत्य प्रसाद अनि शीत, सत्य प्रसाद होय जग-जीत ॥ १७ सत्य प्रभाव भृत्य ह्वै राव, जल ह्वै थल धरिया सत भाव । सुर किंकर वन पुर होय, गिरि घर सतकरि जोय ॥१८ सर्प माल हरि मृगरूप, बिल सम हाॅ पाताल विरूप । को करै शस्त्र की घात, शस्त्र होय सो अंबुज-पात ||१९ हाथी दुष्ट होय समश्याल, विष अमृतरूप रसाल । for सुगम सत्य-प्रभाव, दानव दीन होय निरदाव || २० सत्य-प्रभाव लहैं निज ज्ञान, सत्य धरे पावै वर ध्यान । सत्य-प्रभाव होय निरवाण, सत्य बिना ना पुरुष बखान ॥२१ सत्य- प्रसाद वणिक धनदेव, राजा करि पाई बहु सेव । इह भव पर भव सुखमय भयौ, जाको पाप करम सब गयौ ॥ २२ झूठ थकी वसु राजा आदि, पर्वत, विप्र सत्यघोषादि ।
जग देवादिक वाणिज घनें, गये दुरगती जाय न गिनें ॥ २३ सत्य दया को रूप न दोय, दया बिना नहि सत्य जु होय । सत्य तनें द्वय भेद अछेद, व्यवहारो निश्चय निरखेद ||२४ निश्चय सत्य निजातम बोध, व्यवहारो जिन वचन प्रबोध । सत्य बिना सब व्रत तप बादि, सत्य सकल, सूत्रनिमें आदि ||२५ सत्य प्रतिज्ञा बिन यह जीव, दुरगति लहें कहें जग-पीव । सूकर कूकर वृक चंडार, घूघू श्याल काग मंजार ॥२६
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष नाग आदि जे जीव विरूप, लापर सबतें निंद्य प्ररूप । सबतें बुरो महा असपर्श, लापरका लखिये नहिं दर्श ॥२७ चुगली-सांचहु झूठ हि जानि चुगल महा चंडाल समान । चुगली उगली मुखतें जबै, इह भव पर भव खोये तबै ॥२७ सत्य-हेत धारौ भवि मौन, सत्य बिना सब संजम गौन । थोरो बोलह कारण सत्य, मन वच तन करि तजी असत्य ॥२९ मुनि के सत्य महाव्रत होय, गृहि के सत्य अणुव्रत होय । मुनि तो मौन गहें के जैन, वचन निरूपें अमृत बैन ॥३० लौकिक वचन कहें नहिं साध, सब जीवन के मित्र अगाध । मषावाद नहीं बोले रती, सो जिनमारग सांचे जती ॥३१ श्रावक कों किंचित आरम्भ, त्यागै कुविणज पापारम्भ । लौकिक वचन कहन जो परै, तौ पनि पाप वचन परिहरै ॥३२ पर उपगार दया के हेत, कबहुक किंचित झूठहु लेत। जेती आटे माहें लोन, ते तो बोलै अथवा मौन ॥३३ झूठ थकी उचरै पर-प्रान, तो वह झूठ सत्य परमान। अपने मतलब कारिज झूठ, कबहुं न बोले अमृत बूठ ॥३४ प्राण तजै पर सत्य न तजै, यद्वा तद्वा वचन न भजे । यहै देह अर भोगुपभोग, सब ही झूठ गिनें जग रोग ॥३५ परिग्रह की तृष्णा नहिं करै, करि प्रमाण लालच परिहरै। पाप झूठ को है यह लोभ, याहि तजे पावै व्रत शोभ ॥३६ सत्य प्रताप सुजस अति बधै, सत्य धरै जिन आज्ञा सधै। राजद्वार पंचायति माहि, सत्यवन्त पूजित सक नाहिं ॥३७ इन्द्र चन्द्र रवि सुर धरणेद, सत्य बचे अहमिन्द मुणिन्द। करें प्रशंसा उत्तम जानि, इहे सत्य शिव-दायक मानि ॥३८ दया सत्य में रंच न भेद, ए दोऊ इकरूप अभेद। विपति हरन सुख करन अपार, याहि धरें तें 8 भव-पार ॥३९ याहि प्रसंसें श्री जिनराय, सत्य समान न और कहाय । भुक्ति मुक्ति दाता यह धर्म, सत्य बिना सब गनिये भर्म ॥४० अतीचार पांचों तजि सखा जो तें जिन वच अमृत चखा। तजि मिथ्योपदेश मतिवान, भजि तन मन करि श्री भगवान ।।४१ देहि मूढ़ मिथ्या उपदेश, तिनमें नाहिं सुमति को लेश । बहुरि तजी जु रहोऽभ्याख्यान, ताको व्यक्त सुनों व्याख्यान ।।४२ गुप्त बारता परकी कोइ, मति परकासौ मरमी होइ । कूट कुलेख क्रिया तजि वीर, कपट कालिमा त्यागहु धीर ॥४३ करि न्यासापहार परिहार, ताको भेद सुनहु व्रत धार । पेलो आय धरोहरि धरै, अर कबहूं विसरन वह करे ॥४४
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श्रावकाचार-संग्रह तो वाकों चित एम जु भया, देहु परायो माल जु लया। भूलिर थोरो मांगे वहै, तो वाकों समझा कर कहै ।।४५ तुमरो दनों इतनों ठीक, अलप बतावन बात अलीक।। ले जावो तुमरो यह माल, लेखा में चूको मति लाल ।।४६ घटि देवे को जो परिणाम, सो न्यासापहार दुखधाम । अथवा धरी पराई बस्त, जाकी बुद्धि भई विध्वस्त ।।४७ और ठौरकी और जु ठौर, करै सोइ पापनि सिरमौर । पुनि साकारमन्त्र है भेद, तजौ सुबुद्धी सुनि जिन वेद ।।४८ दुष्ट जीव परको आकार, लखतो रहै दुष्टता कार । लखि करि जानै परको भेद, सो पावै भव-वन में खेद ॥४९ परमंत्रनि को करइ विकास, सो खल लहै नरक को वास। जो परद्रोह धरै चित-मार्हि इह भव दुख लहि नरकहिं जाहि ॥५० अतीचार ए पांचों त्यागि, सत्य धरम के मारग लागि । परदारा परद्रव्य समान, और न दोष कहें भगवान ॥५१ परद्रोहसो पाप न और, निद्यो श्रुत में ठौर जुठोर । जिन जान्यं निज आतमराम, तिनके परधन सों नहि काम ॥५२ सत्य कहें चोरी पर-नारि, त्यागी जाइ यहै उर धारि । झूठ बकें तें जैनी नाहि. परधन हरन न इह मत माहिं ॥५३
दोहा सत्य-प्रभावै धर्म-सुत, गये मोक्ष गुण कोष । लहे झूठ अर कपटतें, दुर्योधन दुख दोष ॥५४ जे सुरझे ते सत्य करि, और न मारग कोय । जे उरझे ते झंठ करि, यह निश्चय अवलोय ॥५५ सत्यरूप जिनदेव हैं, सत्यरूप जिनधर्म । सत्यरूप निर्ग्रन्थ गुरु, सत्य समान न पर्म ॥५६ सत्यारथ आतम-धरम, सत्यरूप निर्वाण । सत्यरूप तप संयमा, सत्य सदा परवाण ॥५७ महिमा सत्य सुब्रत्त की, कहि न सकें मुनिराय । सत्य वचन परभावतें, सेवें सुर नर पाय ॥५८ जैसो जस है सत्य को, तैसौ श्री जिनराय।। जाने केवल ज्ञान में, परमरूप सुखदाय ॥५९ और न पूरण लखि सके, कीरति सुर नर नाग। या व्रतकं धारें सदा, तेहि पुरुष बड़भाग ॥६० नमस्कार या ब्रतकों, जो व्रत शिव-सुख देय । अर याके धारीनिकों, जे जिनशरण गहेय ॥६१
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दौलतराम-कृत कियाकोष दया सत्य को कर प्रणति, भाषों तोजो प्रत्त। जो इन द्वय विन ना हुबे, चोरी त्याग प्रवृत्त ।।६२
चोरी छांड़ी बड़ भाई, चोरी है अति दुखदाई।। चोरी अपजस उपजावे, चोरी तें जस नहिं पावै ॥६३ चोरी तें गुणगण नाशा, चोरी दुर्बुद्धि प्रकाशा। चोरी तें धर्म नशावै, इह आज्ञा श्रीगुरु गावे ॥६४ चोरी सों माता ताता, त्यागें लखि अपनो धाता। चोरी सों भाई-बंधा, कबहुं न राखे संबंधा ॥६५ चोरी ते नारि न नीरे, चोरी तें पुत्र न तीरे । चोरी सों मित्र बिडारे, चोरी सों स्वामी न धारै ॥६६ चोरी सों न्याति न पांती, चोरी सों कबहँ न सांती। चोरी तें राजा दंडे, चोरी तें सीस बिहंडे ॥६७ चोरी तें कुमरण होई, चोरी में सिद्धि न कोई। चोरी तें नरक निवासा, चोरो तें कष्ट प्रकाशा ॥६८ चोरी तें लहै निगोदी, चोरी तें जोनि जु बोदी। चोरी में सुमति न यावे, चोरी तें सुमति न पावै ॥६९ चोरी तें नासे करुणा, चोरी में सत्य न धरणा। चोरी तें शील पलाई, चीरी में लोभ धराई ॥७० चोरी ते पाप न छूट, चोरी तें तलवर कूटे। चोरी तें इज्जति भंगा, त्यागो चोरनि को संगा ॥७१ चोरी करि दोष उपावै, चोरी करि मोक्ष न पावै। चोरी के मेद अनेका, त्यागौ सब धारि विवेका ॥७२ परको धन भूले-विसरे, राखौ मति ल्यों गुण पसरै। परको धन गिरियो परियो, दाबो मति कबहु न धरियो ।।७३ तोला घटि बघि जिन राखै, बोलो मति कूडी साखे । कबहुं ओंटा जिन देहो, डाका दे धन मति लेहो ॥७४ मति दगड़ा लूटो भाई, दौड़ाई है दुखदाई।। ठग विद्या त्यागौ मित्रा, परधन है अति अपवित्रा ॥७५ काहूकं द्यो मति तापा, छांडो तन मन के पापा। पासीगर सम नहिं पापी, पर प्राण हरै संतापी ॥७६ सो महानरक में जावे, भव-भव में अति दुख पावे । हाकिम है धन मति चोरो, ले चूंस न्याव मति बारौ ॥७७ लेखा में चूक न कार, इहि नरभव मूढ़ ! न हारे । जे हरियो पर को वित्ता, ते पापी दुष्ट जु चित्ता १७८
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श्रावकाचार-संग्रह
रुलिहें भव माहिं अनंता, जे परधन प्राण हरता। चुगली करि मतिहि लुटावो, काहूकू नाहिं कुटावौ ॥७९ परको इज्जति मति हरि हो, परको उपगार जु करिहो। धन धान नारि पसु बाला, हरिये कछुके नहि लाला ।।८० काहू को मन नहिं हरिये, हिग्दा में श्री जिन धरिये। तिर नर जीवन की जीवी, मेटो मति करुणा कीवी ।।८१ तुम शल्य न राखो बीरा, कर शुद्ध चित्त गुण धीरा। रोका बांधी मति करिहो, काहू की सोंपि न हरिहो ॥८२ बोलो मति दुष्ट जु बांके, तुम दोष गही मति काके । काहू को मर्म न छेदौ, काहू को क्षेत्र न भेदौ ।।८३ काहू की कछु नहिं बस्ता, मति हरहु होय शुभ अस्ता। इह व्रत धारो वर वीरा, पावो भव सागर तीरा ॥८४ जाकरि कै कर्म विध्वस्ता, सो भाव धरी परशस्ता। तृण आदि रत्न परजंता, पर घन त्यागौ बुधिवंता ।।८५ हरिवी रागादिक दोषा, करवौ कर्मन को सोषा। हरि मर्म धर्म धरि भाई, हूजे त्रिभुवन के राई ॥८६ अपनो अर परको पापा, हरिये जिन वचन प्रतापा। छांई जु अदत्तादाना, करि अनुभव अमृत पाना ॥८७ चोरी त्यागें शिव होई चोरी लागे शठ सोई। चोरी के दोय प्रकारा, निश्चै ब्योहार विचारा ॥८८ निश्चै चोरी इह भाई, तजि आतम जड़ लव लाई । पर परणति प्रणमन चोरी, छोड़ें ते जिनमत धोरी ॥८९ तजिकै पर परणति जीवा, त्यागी सब भाव अजीवा । यह देह आदि पर वस्ता, तिनसों नहिं प्रीति प्रशस्ता ॥९० बिन चेतन जे परपंचा, तिनमें सुख ज्ञान न रंचा। इनमें नहिं अपनों कोई, अपनों निज चेतन होई ॥९१ तातें सुनि के अध्यातम, छांडौ ममता सब आतम । अपनो चेतन धन लेहो, परकी आसा तजि देहो ॥९२ जे ममता पंथ न लागे, निश्चै चोरी ते त्यागे। जब निश्चै चोरी छूटै, तब काल भूपाल न कूटै ॥९३ इह निश्चे व्रत बखाना, या सम और न कोई जाना। शिव पद दायक यह वृत्ता, करिये भवि जीव प्रवृत्ता ॥९४ जिन त्यागी परकी ममता, तिन पाई आतम-समता। अब सुनि व्यवहार सरूपा, जा विधि जिनराज प्ररूपा ॥९५ इक देव जिनेसुर पूजौ, सेवौ मति जिन बिन दूजी। बिन गुरु निरग्रन्थ दयाला, सेवी मति औरहि लाला १६
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष सुनि श्री जिन जूके ग्रन्था, मति सुनहु और अप-पंचा। मिय्यात समान न चोरी, धार तिनकी मति भोरी ॥९७ इह अंतर बाहिज त्यागें, तब वृत्त विधान हिं लागें। सम्यक् ह आतम भावा, मिथ्यात अशुद्ध विभावा ॥९८ सम्यक निश्चय व्यवहारा. सो धारो तजि उरमारा। वर व्रत्त अचौरज धारें, ते सर्व दोष को टारें ॥९९ या बिन नहिं साधु गनिया, या बिन नहिं श्रावक भनिया। श्रावक मुनि द्वय विध धर्मा, यह व्रत्त दुहुनि को मर्मा ॥१०० मुनि के सब ममता छूटी, समता तें दुरमति टूटी। मुनि उपधि न एक धराहो, कछु छाने नाहिं कराहीं ॥१ देहादिक सों नहिं नेहा, बरसै घट आनंद मेहा । मुनि के सब दोष जु नासें, तातें सु महाव्रत भाषे ॥२ मुनि के कछु हरनों नाही, चित लागै चेतन माहीं। श्रावक के भोजन लेई, नहिं स्वाद विर्षे चित देई ॥३ काम न क्रोध न छल माना, नहिं लोभ महा बलवाना। जे दोष छियालिस टालें, जिनवर को आज्ञा पालें ॥४ ते मुनिवर ज्ञान सरूपा, शुभ पंच महाव्रत रूपा । गृहपति के कछु इक धंधा, कछु ममता मोह प्रबन्धा ॥५ छानें कछु करनों आवै, तातें अणुव्रत कहावै । कूपादिक को जल हरिवो, इह किंचित दोषहु परिवो॥६ मोटे सब त्यागें दोषा, काहु को हरिये न कोषा। त्यागी परधन को हरिवो, छांडो पापनि को करिवौ ॥७ संक्षेप कही यह बाता, आगे जु सुनहु अब भ्राता। इह अणुव्रत को जु सरूपा, जिनश्रुत अनुसार प्ररूपा ।।८ अब अतीचार सुनि भाई, त्यागी पंचहि दुखदाई। है चोरी को जु प्रयोगा, सो पहलो दोष अजोगा ॥९ चोरी को माल जु लेनों, इह दूजो अघ तजि देनों। थोरे मोले बड़ बस्ता, लेवी नहिं कबहु प्रशस्ता ॥१० राजा को हासिल गोपे, राजा की आणि जु लोपे । इह तीजो दोष निरूपा, त्यागौ व्रत धारि अनूपा ॥११ देवे के तोला घाटै, लेवे के अधिका बाटै।। इह अतिचार है चौथो, त्यागो शुभमति ते थोथो ॥१२ वधि मोल में घटि मोला, भेले है पाप अतोला। इह पंचम है अतिचारा, त्यागें जिन मारग धारा ॥१३ ए अतीचार गुरु भाखे, जैनी जीवनिनें नांखे। चोरो करि दुरगति होई, चोरी त्यागें शुभ सोई ॥१४
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श्रावकाचार-संग्रह
चोरी तजि अंजन चोरा, तिरियो भव-सागर थोरा । लहि महामंत्र तप गहिया, ध्यानानल भववन दहिया ॥१५ अंजन हूओ जु निरंजन, इह कथा भव्य मनरंजन । बहुरि यो नृपश्रेणिक पुत्रा, है वारिषेण जगमित्रा ।। १६ कर परघन को परिहारा, पायौ भवसागर पारा । चोरी करि तापस दुष्टा, पंचागन साधनि पुष्टा ॥। १७
हि कोटपालकी त्रासा, मरि नरक गयौ दुख भाषा । दलिद्दर का मूल जु चोरी, चोरी तजि अर तजि जोरी ॥१८ सब अघ तजि जिनसों जोरी, बिनऊँ भैय्या कर जोरी । चोरी तजियाँ शिव पावैं, यह महिमा श्री जिन गावे ॥१९ चोरी तें भव-भव भटके, चोरी तें सब गुन सटकै । जो बुधजन चोरी त्यागे, सो परमारथ पथ लागे ॥२०
बोहा
परधन के परिहार बिन, परम धाम नहि होय । भये पार ते तीसरे, व्रत्त बिना नहि कोय ॥ २१ जे बूढ़े नर नरक में, गये निगोद अजान । ते सब परधनहरणतें, और न कोई बखान ॥ २२ ब्रत्त अचोरिज तीसरो, सब व्रत्तनि में सार । जो याकों धारै व्रत्ती, सो उतरे संसार ॥ २३ याकी महिमा प्रभु कहें, जो केवल गुणरूप । पर गुण रहित निरंजना, निर्गुण निर्मलरूप ॥२४ कहें गणिद मुनिन्दवर, करें भव्य परमान । जे धारें ते पावही, पूरण पद निर्वान ||२५ अल्पमती हम सारिखे, कहें कौन विधि बीर । नमस्कार या वृत्तकों, धारे धर्मी धीर ॥२६ जे उरझे ते या बिना, इह निश्चय उर धारि । जे सुरझे ते या करी, यह व्रत है अघहारि ॥ २७ दया सत्य संतोष अर, शीलरूप है एह । उतरै भवसागर थकी, धरै या थकी नेह ॥२८ दया सत्य अस्तेयकौ, करि वन्दन मन लाय । भाषों चौथो शीलव्रत, जो इन विगर न थाय ॥२९
इति अचौर्याणुव्रत वर्णन
प्रणमि परम रस शांति कों, प्रणमि धरम गुरुदेव । बरण सुजस सुशील को, करि शारद की सेव ||३०
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२५७
दौलतराम-कृत क्रियाकोष शीलव्रत को नाम है, ब्रह्मचर्य सुखदाय । जाकरि चर्या ब्रह्म में, भव वन भ्रमण नशाय ॥३१ब्रह्म कहावें जीव सब, ब्रह्म कहावें सिद्ध । ब्रह्मरूप कैवल्य जो, ज्ञान महा परसिद्ध ॥३२ ब्रह्मचर्य सो वृत्त ना, न पर ब्रह्म सो कोय । व्रतो न ब्रह्म-लवलीन सो, तिरै, भवोदधि सोय ॥३३ विद्या ब्रह्म-विज्ञान सी, नहीं दूसरी जान । विज्ञ नहीं ब्रह्मज्ञ सो, इह निश्चय उर आन ॥३४ ब्रह्म वासना सारिखी, और न रस की केलि । विषय वासना सारिखी, और न विष की बेलि ॥३५ आतम अनुभव सिद्ध सी, और न अमृत बेलि । नहीं ज्ञान सो बलवता, देहि मोह को ठेलि ॥३६ अव्रत नाहिं कुशील सो, नरक निगोद प्रदाय । नहीं सील सो संजमा, भाषे श्री जिनराय ॥३७ धर्म न श्री जिनधर्म से, नहिं जिनवर से देव । गुरु नहिं मुनिवर सारिखे, रागी सो न कुदेव ॥३८ कुगुरु न परिग्रह धारित, हिंसा सो न अधर्म । मर्म न मिथ्या सूत्र सो, नहीं मोह सो कर्म ॥३९ द्रष्टा न कोई जीव सो, गुन न ज्ञान सो आन । ज्ञान न केवल ज्ञान सो, जीवं न सिद्ध समान ॥४० केवलदर्शन सारिखो, दर्शन और न कोई। यथाख्यात चारित्र सो, चारित और न होइ ।।४१ नहिं विभाव मिथ्यात सो, सम्यक सो न स्वभाव । क्षयिक सो सम्यक नहीं, नहीं शुद्ध सो भाव ॥४२ साधु न भीण कषाय से, श्रेणि न क्षपक समान । नहिं चौदम गुण थान सो, और कोई गुणथान ॥४३ नहिं केवल प्रत्यक्ष सों, और कोई परमाण । सुकल ध्यान सो ध्यान नहिं, जिनमतसो न बखाण ॥४४ अनुभव सो अमृत नहीं, नहि अमृत सो पान । इन्द्री रसनासी नहीं, रस न शांति सो आन ॥४५ मनोगुप्ति सी गुप्ति नहि, चचंल मन सो नाहिं । निश्चल मुनि से और नहिं, नहीं मौन मन माहिं ॥४६ मुनि से नहिं मतिवंत नर, नहिं चक्रो से राव । हलधर अर हरि सारिखो, हेत न कहूँ लखाव ॥४७ प्रतिहरि से न हठी भए, हरि से और न सूर। हर से तासम धार नहिं, बहु विद्या भरपूर ||४८
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श्रावकाचार-संग्रह . . नारद से न भ्रमंत नर, भ्रमें अढाई दीप । कामदेव से सुन्दर न, नहिं जिनसे जगदीप ॥४९ जिन-जननी जिन-जनक से, और न गुरुजन जानि । मिष्ट न जिनवानी समा, यह निश्चय परमान ॥५० जिनमूरति सी मूरति न, परमानंद सरूप। जिनसूरति सी सूरति न, जासम और न रूप ॥५१ जिनमंदिर से मंदिर नहीं, जिन तन सो न सुगन्ध । जिन विभूति सी भूति नहिं, जिन श्रुति सो न प्रबंध ॥५२ जिनवर से न महाबली, जिनवर से न उदार । जिनवर से न मनोहरा, जिनसे और न सार ॥५३ चरचा जिन चरचा समा, और न जग में कोइ । अर्चा जिन अर्चा समा, नहीं दूसरी होइ ॥५४ राज न श्री जिनराज से, जिनके राग न रोस । ईति भीति नहिं राज में, नहीं एक भी दोस ॥५५ सेर्वे इन्द नरिन्द सब, भजहिं फणीस मुनीस । रटें सूर ससि सुर सबै, जिनसम और न ईस ।।५६ अर्चे अहमिंद्रा महा, अरचे चतुर सुजान । हरि हर प्रति हरि हलि मदन, पूजें चक्रि पुमान ॥५७ गुरु कुल कर नारद सबै, सेवें तन मन लाय । जग में श्री जिन राय सों, पूज्य न कोइ लखाव ॥५८ तीर्थकर पर सारिखा, और न पद जग माहिं । बज्र वृषभ नाराच सो, संहनन कोई नाहिं ॥५९ सम चतुस्र संठान सो, और नहीं संठाण । पुरुष सलाका सारिखा, और न कोई जाण ॥६० चक्रायुध हल-आयुधा, कुसुमायुध इत्यादि । धर्मायुध के दास सब, वज्रायुव नृप आदि ॥६१ जे हैं चरम शरीर धर, तद भव मुक्ति मुनीश । तिन सौ कोई न मानवा, नमें सुरासुर सीस ॥६२ नहीं सिद्ध पर्याय सी, और शुद्ध पर्याय । नहीं केवली कायसी, और दूसरी काय ॥६३ अर्हत सिध साधू सबै, केवल भाषित धर्म । इन चउ से नहिं मंगला, उत्तम और न पर्म ॥६४ इन चउ शरणनि सारिखे, शरण नाहिं जग माहि। . संघ न चरविधि संघ से, जिनके संशय नाहिं ॥६५ चोर न इन्द्री-चित से, मुसें धर्म धन भूरि । चारित से नहिं तलवरा, डारै तिनकों चूरि ॥६६
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दौलतराम-कृत क्रियाकोप
जैसें ए उपमा कही, तैसें शील समान । व्रत न कोई दूसरो, भा श्री भगवान ॥६७ वक्ता सर्वज्ञ से नहीं, श्रोता गणधर से न । कथन न आतम ज्ञान सो, साधक साधु जिसे न ॥६८ बाधक नहिं रागादि से, तिनहिं तजें जोगिन्द । नहिं साधन समभाव से, धारें धीर मुनिन्द ॥६५ पाप नहीं परद्रोह सो, त्यागें सज्जन संत । पुण्य न पर उपकार सो, घारें नर मतिवंत ।।७० लेण्या शुक्ल समान नहिं, जाम उज्ज्वल भाव । उज्ज्वलता निकषाय सी, और न कोई लखाव ॥७१ दया प्रकाशक जगत में, नहीं जैन सो कोइ । पर्म धर्म नहिं दूसरो, दया सारिखो होइ ॥७२ कारण निज कल्याण को, करुणा तुल्य न जानि । कारण जिन विश्वास को, नहीं सत्य सो मानि ॥७३ सत्यारथ जिन सूत्र सो, और न कोइ प्रबानि । सर्व सिद्धि को मूल है, सत्य हिये में आनि ॥७४ नहिं अचौर्य व्रत सारिखौ, भय हरि भ्रांति निवार । नहिं जिनेन्द्रमत सारिखौ. चोरी बरज उदार ॥७५ नहीं सील सो लोक में, है दूजो अविकार । कारण शुद्ध स्वभाव को, भव-जल तारणहार ॥७६ नहिं जिनशासन सारिखो, शील प्रकाशन हार । या संसार असार में, जा सम और न सार ||७७ नहिं संतोष समान है, सुख को मूल अनूप । नहीं जिनेसर धर्म सो, वर संतोष स्वरूप ||७८ कोमल परिणामानि सो करुणाकरण नाहिं। नहिं कठोर भावानि सों, दयारहित जग मांहि ॥९ नहिं निरलोभ स्वभाव सो, सत्य मूल है कोइ । नहीं लोभ सो लोक में, कारण मिथ्या होइ ॥८० मूल अचीरिज व्रत को, निस्पृहतासो नाहिं । चोरी मूल प्रपंच सो, नहीं लोक के मांहि ॥८१ राजवृद्धि को कारणा, नहीं नीति सो जानि । नाहिं अनीति प्रचार सों, राज विघन परवानि ।।८२ कारण संजम शील को, नहिं विवेक सो भान । नहिं अविवेक विकार सो, मूल कुशील बखान ॥८३ मूल परिग्रह त्याग को, नहिं वैराग समान । परिग्रह संग्रह कारणा, तृष्णा तुल्य न आन ॥८४
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२८.
श्रावकाचार-संग्रह करुणा निधि न जिनेन्द्र सो, जगत मित्र है सोय । नहिं क्रोधी सो निरदई, सर्वनाश को होय ।।८५ सतवादी सर्वज्ञ से, नहीं लोक में कोइ।। कामी लोभी से महा, लापर और न होइ ॥८६ सम्यक दृष्टी जीव सो, और न मन मद मोर । मिथ्या दृष्टी जीव सो, और न परधन चोर ॥८७ समताभाव न सत्य सो, सीलवंत नहिं धीर । लंपट परिणामी जिसो, नाहिं कुशीली वीर ।।८८ निसप्रेही निरकुंदसो, परिग्रह त्यागी नाहिं । तृष्णावंत असंतसो, परिग्रह वंत न काहिं ।।८९ दारिद-भंजन, जस-करण, कारण संपति कोइ । नहीं दान सो दूसरो, सुरग मुक्ति दे सोइ ।।९० चउ दाननि से दान नहि, औषध और आहार । अभयदान अर ज्ञान को, दान कहें गण-धार ॥९१ रागादिक परिहार सो, और न त्याग बखान । त्याग समान न सूरता, इह निश्चय परवान ।।९२ तप समान नहिं और है, द्वादश माहि निधान । नहीं ध्यान सो दूसरो, भार्षे श्री भगवान ॥९३ ध्यान नहीं निज ध्यान सो, जो कैवल्य स्वरूप। जा प्रसाद भवरूप मिटि, जीव होय चिद्रूप ।।९४ क्षीण मोह से लोक में, ध्यानी और न जानि । कारण बातम ध्यान को मन निश्चलता मानि ॥९५ कारण मन वशि करण को, नहीं जोग सो और । जोग न निज संजोग सो, है सबको सिर मौर ।।९६ भोग न निज रस भोग सो, जामें नाहिं विजोग । रोग न इन्द्री भोग सो, इह भा भवि लोग ॥९७ शोक न चिन्ता सारिखो, विकलपरूप बिड़रूप । नहिं संशय अज्ञान सो, लखै न चेतनरूप ॥९८ विकलपजाल-परित्याग सो, और नहीं वैराग। . वीतराग से जगत में, और नहीं बड़भाग।।९९ छती संपदा चक्रि की, जो त्यागे मतिवंत । ता सम त्यागी और नहि, भाषे श्री भगवंत ॥१०० चाहे अछती भूमिकों, करै कल्पना मूढ़ । ता सम रागी और नहिं, सो शठ विषयारूढ़ ॥१ नव जोबन में व्याह तजि, बाल ब्रह्म व्रत लेय । ता सम वैरागी नहीं, सो भवपार लहेय ॥२
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष कंटक नहिं क्रोधादि से, चढ़ि जु रहे गिर मान । मुनिवर से जोधा नहीं, शस्त्र न शुकल समान ॥३ भाव समान न भेष है, भाव समान न सेव । भाव समान न लिंग है, भाव समान न देव ।।४ ममता-माया रहित सो, उत्तम और न भाव । सोइ शुद्ध कहिये महा, बजित सकल विभाव ॥५ कारण आतम ध्यान को, भगवत भक्ति समान ।
और नहीं संसार में, इह धारौ मतिमान ।।६।। विघन-हरण मंगल-करन, जप सम और न जानि । जप नहिं अजप जाप सौ, इह श्रद्धा उर आनि ।।७ कारण रागविरोध को, भाव अशुद्ध जिसी न । कारण समताभाव को, विरक्ति भाव तिसौ न ।।८ कारण भव वन-भ्रमण के, नहिं रागादि समान । कारण शिवपुर गमन को, नहीं ज्ञान सो आन ॥९ सम्यग्दर्शन ज्ञान व्रत, ए रतनत्रय जानि । इनसे रतन न लोक में, ए शिव दायक मानि ॥१० निज अवलोकन दर्शना, निज जानें सो ज्ञान । निजस्वरूप को आचरण, सो चारित्र निधान ॥११ निजगुण निश्चय रतन ये, कहे अभेद स्वरूप । व्यवहारे नव तत्व की, सरधा अविचल रूप ॥१२ तत्त्वारथ श्रद्धान सो, सम्यग्दर्शन जानि । नव पदारथ को जानिवौ, सम्यग्ज्ञान बखानि ॥१३ विषय कषाय व्यतीत जो, सो व्यवहार चरित्र । ए रतनत्रय भेद हैं, इनसे और न मित्र ॥१४ देव जिनेसुर गुरु जती, धर्म अहिंसारूप।। इह सम्यक् व्यवहार है, निश्चय निज चिद्रूप ।।१५ नहिं निश्चय व्यवहार सी, सरधा जग में कोइ। ज्ञान भक्ति दातार ए, जिन भाषित नय दोइ ।।१६ भक्ति न भगवत भक्ति सी, नहिं आतम सो बोध । रोध न चित्त निरोध सो, दुरनयसो न विरोध ॥१७ दुर्मतिसी नहिं शाकिनी, हरै ज्ञान सो प्रान । नमोकार सो मंत्र नहिं, दूरमति हरे निधान ।।१८ नहिं समाधि निरूपाधि सी, नहिं तृष्णा सी व्याधि । तन्त्र न परम समाधि सो, हरै सकल असमाधि ॥१९ भवयन्त्र ज भयदाय को ता सम विघन न कोय । सिद्धयन्त्र सो सिद्धकर, और न जग में होय ॥२९
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श्रावकाचार-संग्रह
सिद्धक्षेत्र सो क्षेत्र नहिं. सर्व लोक के सीस। यात्री जतिवर से नहीं, पहुँचै तहां मुनीस ॥२१ षोड़सकारण सारिखा, और न कारण कोय । तीर्थेश्वर पद सारिसा और न कारज होय ॥२२ नाहीं दर्शन शुद्धि सा, षोड़श माहीं जान । केवल रिद्धि बराबरी, और न रिद्धि बखान ।।२३ नहिं लक्षण उपयोग से, आतम तें जु अभेद । नाहिं कुलक्षण कुबुधि से, करै धर्म को छेद ॥२४ धर्म अहिंसारूप के, भेद अनेक बखान । नहिं दशलक्षण धर्म से, जग में और निधान ॥२५ क्षमा उत्तमा सारिखो और दूसरी नाहिं । दशलक्षण में मुख्य है, क्रोध-हरण जगमाहिं ॥२६ नीर न शांति स्वभाव सो, अगनि न कोप समान । मान समान न नीचता, नहिं कठोरता आन ॥२७ मानी को मन लोक में, पाहन-तुल्य बखान । मान समान अज्ञान नहिं भाखें श्री भगवान ॥२८ निगरवभाव समान सो, मदु नहिं जगमें और । हरै समस्त कठोरता, है सब को सिरमौर ।।२९ कीच न कपट समान को, वक्र न कपट समान । सरल भाव सो उज्जवल, न सूधौ कोइ न आन ॥३० आपद लोभ समान नहि, लोभ समान न लाय । लोभ समान न खांड़ है, दुख औगुन समुदाय ॥३१ नहिं सन्तोष समान धन, ता सम सुक्ख न कोय। नहिं ता सम अमृत महा, निर्मल गुण है सोय ॥३२ श्रेष्ठ नहि निर्मल भाव सो, जहां न अशुभ सुभाव । नाहिं मलिन परिणाम सो, दूजौ कोई कुभाव ॥३३ सन्देह न अयथार्थ सो, जाकरि भर्म न जाय । नहिं यथार्थ सो लोक में, निस्सन्देह कहाय ॥३४ नाहिं कलंक कषाय सो, भाषे श्री भगवन्त । निःकलंक न अकषाय से, करै कर्म को अन्त ॥३५ शुचि नहिं मन-शुचि सारिखी, करै जीव को शुद्ध । अशुचि नहीं मन-अशुचिसी, इह भाषे प्रतिबुद्ध ॥३६ नहीं असंजम सारिखौ, जगत डबोवनहार । नहिं संचय सो लोक में, ज्ञान बढ़ावन हार ॥३७ बंचक नहिं परपंच से, ठगें सकल कों सोइ । विष-बांछना सारिखी, नांहि ठगौरी कोइ ॥३८
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दौलतराम - कृत क्रियाकोब
नहि त्रिलोक में दूसरो, तप सो ताप-निवार ।
त्रिविध ताप से ताप नहि, जरा जन्म मृति धार ॥३९ इच्छासी न अपूरणा, पूरी होइ न सोइ । नहि इच्छा जु निरोध सी, तपस्या दूजी होइ ॥ ४० त्याग समान न दूसरो, जग-जंजाल निवार । नहीं भोग- अनुराग सो, नरकादिक दातार ॥४१ नहीं अकिञ्चन सारिखौ, निरभय लोक मँझार । नर परिगरही सारिखौ, भय-रूप न निरधार ॥४२ परिग्रह सोनहि पापगृह, नहि कुशील सो काद । ब्रह्मचर्य सो और नहिं ब्रह्मज्ञान को वाद ॥४३ नहीं विषय रस सारिखौ, नीरस त्रिभुवन माहिं । . अनुभव रस आस्वाद सो, सरस लोक में नाहि ॥४४ अयासी नहि दुष्टता, अनृत सो न प्रपंच । छल नहि चोरी सारिखी, चोर समान न टंच ॥४५ हिंसक सोनहि दुर्जन, हरै पराये प्राण । नहि दयाल सो सज्जना, पीरा हरै सुजाण ॥४६ नहि विश्वास घाती अवर, झूठे नर सो कोय । नहि व्यभिचारी सो अनाचारी जग में होय ॥४७ विकथा सो न प्रलाप है, आरति सो न विलाप । पाप न द्वय नय थाप सो, जिनवर तो न प्रताप ॥४८ सन्ताप न कोई सोक सो, लोक न सिद्ध समान । धन प्राणन के नाश सो, और न शोक बखान ॥४९ जड़ जिय सो अभिलाष नहि, गुण-मणि सो न मिलाप । श्री जिनवर गुणगान सो, और न कोई अलाप ॥ ५० नहि विकथा नारीनिसी, कथा न धर्म समान । नहि आरति भोगात्तिसी, दुरगति दाई आन ॥ ५१ ॐकार समान नहि सर्व शास्त्र की आदि । महा मङ्गलाचार है, यह उपचार अनादि ॥ ५२ नाद न सोऽहं सारिखो, नहीं स्वरस सो स्वाद । स्यादवाद सिद्धान्त सो, और नहीं अविवाद ॥५३ एक एक नय पक्ष सो, और न कोई वाद । नाहि विषाद विवाद सो, निद्रा सो न प्रमाद ॥५४ स्त्यान गृद्धि निद्रा जिसी, निद्रा निद्य न और । परनिन्दा सो दोष नहि, भाषें जिन जग-मौर ॥५५ निन्दा चउविधि संघ की, ता सम अघ नहि कोय । नाहि प्रसंसा जोगि कोउ. जिन आगम सो होय ॥५६
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श्रावकाचार-संग्रहे
सार न अध्यातम जिसी, निज अनुभव को मूल । नहि मुनि से अध्यातमी, सर्व विषय प्रतिकूल ॥५७ विषय कषाय बराबरी, बेरी जियके नाहि ।
ज्ञान विराग विवेक से, हितू नाहि जग माहि ॥ ५८ अध्यात्म चरचा समा चरचा और न कोय । जिनपद अरचा सारिखी, अरचा और न होइ ॥ ५९ नाहिं गणाधिप से महा-चरचा - कारक जानि । नाहि सुरधिप सारिखे, अरचा कारक मानि ॥ ६० गमन न करघ गमन सो, नहीं मोक्ष सो धाम | रोधक नाहीं कर्म से हरो कर्म तजि काम ॥ ६१ शत्रु न कोई अधर्म सो, मित्र न धर्म समान । धर्म न वस्तु स्वभाव सो हिंसा-रहित बखान ॥६२ निज स्वभाव को विस्मरण, नहि ता सम अपराध । साधे केवलभाब को, ता सम और न साध ॥ ६३ नर देहा सम देह नहि, लिङ्ग न पुरुष समान । वेद नहीं नर वेद सो, सुमन समो न सयान ॥६४
स- काया सम काय नहि, पंचेन्द्री जा मांहि । पंचेन्द्री नहि मनुष से, जे मुनिव्रत धराहिं ॥६५ मुनि नहि तदभवमुक्ति से, जे केवल पद पाय । पहुँचे पंचमगति महा, चहुंगति भृमण नशाय ॥ ६६ गति नहि पंचम गति जिसी, जाहि कहें निजधाम । अविनश्वर पुर नाम जा, जा सम नगर न राम ॥६७ नाहिं शुद्ध उपयोग सो मारग सूधी होय । नाहीं मारग मुक्ति को, भव- विरक्ति सो कोय ॥ ६८ लोक शिखर सो ऊंच नहि, सबके शिरपर सोय । नहीं रसातल सारिखौ नीचो जग में जोय ॥६९ जित मन इन्द्री धीर से और न वंद्य वखानि । विषयी विकलन सारिखे, और न निद्य प्रवानि ॥७०
हि अरिष्ट अघ कर्म से, शिष्ट न सुभग समान । नाहिं पञ्च परमेष्ठि से, और इष्ट परवान ॥७१ जिन - देवल से देवल न, नहीं जैन से विम्ब । केवल सो ज्ञायक नहीं, जामें सब प्रतिविंब ॥७२ नाहि अकृत्रिम सारिखे, देवल अतिसयरूप । चैत्य वृक्ष से वृक्ष नहि, सुरतरु से हु अनुप ॥७३ जोगी जिनवर से नहीं, जिनकी अचल समाधि । निजरस भोगी ते सही, बर्जित सकल उपाधि ॥७४
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष इन्दिय भोगी इन्द्र से, नाहिं दूसरे जानि । इन्द्रा जीत मुनीन्द्र से, इन्द्र नरेन्द्र न मानि ॥७५ राग द्वेष परपंच से, असुर और नहिं होय । दर्शन-ज्ञान-चारित्र से, असुर-नाशक न कोय ॥७६ काम-क्रोध-लोभादि से, नाहिं पिशाच बखानि । सम संतोष विवेक से. मंत्राधीश न मानि ||७७ माया मच्छर मान से, दुखकारी नहिं वीर। निगरव निकपटभाव से, सुखकारी नहिं धीर ॥७८ मैल न कोई मिथ्यात सो, लग्यो अनादि विरूप । साबुन भेद विज्ञान सो, और न उज्ज्वलरूप ॥७९ मदन दर्प सो सर्प नहि, डस देव नर नाग । गरुड़ न कोई शील सो, मदन जीत बड़भाग ।।८० मैल न मोहासुर समो, सकल कर्म को राव । महामल्ल नहिं बोध सो, हरै मोह-परभाव ॥८१ भर्म न कोई कर्म से, कारण संशय जानि । भ्रमहारी सम्यक्त्व से, और न कोई मानि ।।८२ विष नहिं विषयानंद से, देहि अनंता मर्ण । सुधा न ब्रह्मानंद सो, अनुभवरूप अवर्ण ॥८३ कर न क्रोधी सारिखे, नहीं क्षमी से शांत । नीच न मानी सारिखे, निगरवसे न महांत ॥८४ मायावी सो मलिन नहि, विमल न सरल समान । चिंतातुर लोभीनसे, दीन न दुखी अयान ||८५ दुष्ट न दोषी सारिखे, रागी से नहिं अंध । अहंकार ममकार सो, और न कोई बंध ॥८६ मोही से नहिं लोक में, गहलरूप मतिहीन । कामातुर से आतुर न, अविवेकी अधलीन ।।८७ ऋण नहिं आस्रव-बंध से, राखे भव में रोकि । मुनिवर से मतिवंत नहि, छूटे ब्रह्म विलोकि ।।८८ संवर निर्जर सारिखे, रिण-मोचन नहिं कोई। दुर्जर कर्म हरें महा, मुक्तिदायक सोइ ।।८९ विपति न वांछा सारिखी, वांछा-रहित मुनीश । मृगतृष्णा मिथ्या जिसो, और न कहें रिषीश ॥९० समतासी संसार में, साता कोइ न जानि । सातासी न सुहावणी, इह निश्चय उर आनि ।।९१ ममतासी मानों भया, और असाता नाहिं । नाहिं असाता सारिखो, है अनिष्ट जगमाहिं ।।९२
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श्रावकाचार-संग्रह उदासीनता सारिखी, समता-करण न कोय । जग अनुराग समानता, समता मूल न जोय ॥९३ नाहिं भोग-अभिलाष सी, भूख अपूरण वीर । नाहिं भोग वैराग सी. परणता है वीर ॥९४ नाहीं विषयाशक्ति, सी त्रिसा त्रिलोकी मांहि । विरकततासी विश्व में, और तुषा-हर नांहि ॥९५ पराधीनता सारिखी, नहीं दीनता कोइ । नहिं कोई स्वाधीनता, तुल्य उच्चता होइ ॥९६ नहीं समरसी भाव सी, समता त्रिभुवन माहि । पक्षपात बकवाद सी, और न विसमता नांहि ॥९७ जगतकोमना कल्पना,-तुल्य कालिमा नांहि । नहीं चेतना सारिखी ज्ञायक त्रिभुवन मांहि ॥९८ ज्ञान चेतना सारिखी, नहीं चेतना शुद्ध । कर्म कर्मफल चेतना, ता सम नाहिं अशुद्ध ॥९९ नर निरलोभी सारिखे, नाहिं पवित्र बखान । सन्तोषी से नहिं सुखी, इह निश्चय परवान ।।१०० निरमोही अर निरममत, ता सम सन्त न कोय । निरदोषी निरवर से, साधु और न कोय ॥१ दोष समान न मोषहर राग समान न पासि । मोह समान न बोध हर, ए तीनू दुखरासि ॥२ व्रती न कोई निशल्य सो, माया तुल्य न शल्य । हीन न जाचिक सारिखो त्यागी से न अतुल्य ।।३ कामी से न कलकंघी, काम समान न दोष । परदारा परद्रव्य सा, और न अघ को कोष ।।४ शल्य समान न है सली, चभी हिये के मांहि । नहिं निरदयी स्वभाव सो, मूढ़ा और कहाहिं ॥५ शोच न संग समान है, संग न अंग समान । अंग नहीं द्वय अंग से, तिनहिं तजै निरवान ॥६ कारमाण अर तेज सा. ए द्वय देह अनादि । लगे जीव के जगत में, रोग महा रागादि ॥७ गेह समान न दूसरो, जानू' कारागेह । देह समान न गेह है, त्यागो देह-सनेह ॥८ ए काया नहिं जीव को, सो है ज्ञान शरीर । मृत्यु न ज्ञान गरीर की, नहीं रोग को पीर ॥९ नाहीं इष्ट-वियोग सो, शोक-मूल है कोइ। काया माया सारिखौ, इष्ट न जग के जोइ ॥१०
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष नहिं संकल्प विकल्प सो, जाल दूसरो जानि । नहिं निरविकलप ध्यान सो, छेदक जाल बखानि ॥११ नहीं एकता सारिखी, परम समाधि स्वरूप । नहीं विषमतासी अवर, सठता रूप विरूप ॥१२ चिन्ता सी असमाधि नहिं, नहिं तृष्णा सी व्याधि । नहिं ममता सी मोहनी, मायासी न उपाधि ।।१३ ज्ञानानन्दादिक महा, निजस्वभाव निरदाव । तिनसों तन्मय भाव जो, सो एकत्व कहाव ।।१४ आशासी न पिशाचिनी, आसासी न असार । नहीं जाचना सारिखी, लघुता जगत मंझार ॥१५ दान-कलासी दूसरी, दुख-हरणी नहिं कोइ । ज्ञान कलासो जगत में, सुखकारी नहिं कोइ ॥ १६ नाहिं क्षुधासी वेदना, व्यापै सबकों सोइ। अन्न-पान दातार से, दाता और न होइ ॥१७ पर दुख हरणी सारिखी, गुरुता और न जानि । पर पीड़ा करणी समा, खलता कोइ न भानि ।।१८ शुद्ध पारणामिक समा, और नाहिं परिणाम। सकल कामना त्याग सो, और न उत्तम काम ॥१९ धर्म-सनेही सारिखा, नाहिं सनेही होइ। विषय-सनेही सारिखा, और कुमित्र न कोइ ॥२० सर्व वासना त्याग सी, और न थिरता वीर । कष्ट न नरक निगोद से, नहीं मरणसी पीर ॥२१ राज-काज अभ्यास सो, और न दुरगति-दाय । जोगाभ्यास अभ्यास सो, और न सिद्धि उपाय ॥२२ नहिं विराधना सारखी, बाधाकरण कहाहि । आराधन सी दूसरो, भव-बाधा-हर नाहिं । २३ निजसरूप आराधना, अचल समाधि स्वरूप । ता सम शिव साधन नहीं, यह भावें जिनभूप ॥२४ निज सत्ता सी निश्चलता, और न मानों मित्त। आधि-व्याधि तें रहित जो, ध्यावौ ताहि निचित ॥२५ निज सत्ता को भूलि जे, राचे माया माहि । धरि धरि काया में भ्रमें यामें संशय नाहिं ॥२६ मुनिव्रत तजि भवभोग कों, चाहे जे मति मंद । तिनसे मूढ़ न लोक में, इह भाषे जिनचन्द ॥२७ वृद्ध भये हू गेह कों, जो न तजे मतिहीन । तिनसे गृद्ध न जगत में, कापुरुषा न मलीन ॥२८
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श्रावकाचार-संग्रह
गेह तजें नव वर्ष के, धरें महाव्रत सार । तिनसे पूज्य न लोक में, ते गुण वृद्ध अपार ॥२९ नहिं वैरागी जीव से, निरबंधन निरुपाधि । नहीं जु रागी सारिखे, धारक आधि र व्याधि ॥३० निजरस आस्वादन-विमुख, भुगतें इन्द्रीभोग । नरकवासना ते लहे, तिनसे नाहिं अजोग ।।३१ अभविनि से न अभागिया, भव्यनि से न सभाग। निकटभव्य से भव्य नहि, गहें ज्ञान वैराग ।।३२ नहिं दरिद्र दुरबुद्धि सो, दलिद्दर सो न दुकाल । नहिं संपति सन्मति जिसी, नहीं मोह सो जाल ॥३३ नहीं शमी से संयमी, व्रत सो नाहिं विधान। नहि प्रधान जिनबोध सो, निज निधि सो न निधान ॥३४ कोष न गणभंडार सो. सदा अटूट अपार | औगुन सो नहिं गुणहरा. भव-भव दुख-दातार ।।३५ खल स्वभाव सो औगुन न, गुण न सुजनता तुल्य । सत्य पुरुष निरवैर से, जिनके एक न शल्य ॥३६ खलजन दुरजन सारिखे, और न दूसरे नाहि । भववन सो वन नाहि को, भ्रमै मूढ़ जा माहिं ।।३७ विषवृक्ष न वसुकर्म से, नानाफल दुखदाय । बेलि न मायाजाल सी, जगजन जहाँ फँसाय ॥३८ दुग्नय पक्षी सारिखे, नाहिं कुपक्षी आन | देत्य न निरदय भाव से, तिमिर न मोह समान ॥३९ मन-उनमाद गयंद सो, और न वनगज कोइ । कूरभाव सो सिंह नहिं, ठग न मदन सो सोइ ॥४० नहिं अजगर अज्ञान सो, ग्रस जगत को जोड । नहिं रक्षक निज ध्यान सो, काल हरण है सोइ ॥४१ थिर चर से नहि वनचरा, बसे सदा भव माहि। नहिं कंटक क्रोधादि से, दया तिनूं महिं नाहिं ॥४२ विष-पहप न विषयादि से, रहै कुवासनि पूरि । नाहिं कुपात्र कुसूत्रसे, ते या वन में भूरि ॥४३ पंथ न पावें जगत में. मुकति तनों जग जंत। कोइक पावै ज्ञान निज, सोई लहै भव-अंत ॥४४ नहिं सेरो जिनबानि सी, दरसक गुरु से नाहिं। नगर नहीं निरवाण सो, जहां संत ही जाहि ॥४५ नहि समुद्र संसार सों, अति गंभीर अपार । लहर न विषय तरंगसी, मच्छ न जमसो भार ॥४६
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दौलतराम-क्त क्रियाकोष भ्रमण न चहुंगति भ्रमण सो, भरमें जीव अपार । पोत न मुनिव्रत सो महा, करै भवोदधि पार ||४७ द्वीप नहीं शिवद्वीप सो, गुन रतनन को रासि । तीरथनाथ जिनंद से, सारथवाह न भासि ॥४८ अंधकूप नहिं जगत सो, परै तहां तनधार । जिन विन काढे कौन जन, करिके करुणा सार ९ नाहिं भवानल सारिखी, दावानल जग माहिं। जगत चराचर भस्म कर, यामें संशय नाहिं ॥५० जिनगुण अंबुधि शरण ले, ताहि न याको ताप। तातें सकल विलाप तजि सेवी आप निपाप ॥५१ नहिं वायु जगवायु सी, जगत उड़ावे जोय । काय टापरी वापरी, याकै टिके न कोय ॥५२ जिन पद परचित आसिरी, जो नर पकरै आय । सोई यामें ऊवरै, और न कोइ उपाय ॥५३ नाहिं अतिंद्री, सुख समो, पूरण परमानन्द । नाहिं अफंद मुनीन्द्र सो, आनंदी निरद्वन्द ॥५४ नहिं दीक्षा दुख-हारिणी, जिनदीक्षासी कोय । नहिं शिक्षा सुख-कारिणी, जिनशिक्षा सी होय ॥५५
चाल जोगीरासा . फंद न कनककामिनी सरिसा, मृग नहि मूरख नरसा। नाहिं अहेरी काम लोभसा, सूर न अंध सु नरसा ॥१ काटक फंद न बोध वृत्त सा, मंदमती न अभविसा। बुद्धिवंत नहिं भव्यजीव सा, भव्य न तद्भव शिवसा ॥५६ पुरुष शलाका महाभाग से, तथा चरम तन धर से । और न जानों पुरुष प्रवीना, गुरु नहिं तीर्थकरसे ।। ते पहली भार्षे गुणवंता, अब सुनि देवस्वरूपा । इन्द्र तथा अहमिंद्र न सरखे, और न देव अनूपाः॥५७ इन्द्र न षट इंद्रनि से कोई, सौधर्म सनतकुमार। ब्रह्मेन्द्र जु अर लांतव इंद्रा, आनत आरण सारा॥ ए एका भवतारी भाई, नर है शिवपुर लेवे। सम्यकदृष्टी इंद्र सबै ही, श्री जिनमारग सेर्वे ॥५८ लोकपालहु सम्यकदृष्टी, इक भव घरि भव-पारा। इंद्र सारिखे सुर ये सोहै, इनसे देव न सारा॥ देवरिषी लोकांतिक देवा, तिनसे इन्द्रहु नाहीं। ब्रह्मचर्य धारत ए देवा, इनसे भुवन न माहीं ॥५९
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श्रावकाचार-संग्रह तप कल्याणक समये सेवा, करें जिनेसुर की ये । नर ह पावें पद निरबाना, राखे जिनमत हीये ॥ इंद्राणी सी देवी नाहीं, इन्द्राणी न शचीसी। इक भव धरि पावै सुखबासा, तीर्थंकर जननीसी ॥६० सेवक देव जिनेसुरजू के, नाहिं सुरेसुर तुल्या। शची सारिखी भक्त न कोई, घारे भाव अतुल्या ॥ कल्याणक ए पांचू पूर्ज, शची शक्र जिनदासा । अहनिशि जिनवर चरचा इनके, धारे अतुल विलासा ॥६१
दोहा अब सुनि अहमिंद्रा महा, स्वर्ग ऊपरै जेहि। नव ग्रीवक नव अनुदिसा, पंचानुत्तर लेहि ॥६२ तेईसौं शुभ थान ए, तिनमें चौदा सार । नव अनुदिश पंचोत्तरा, ये पावें भवपार ॥६३ सम्यकदृष्टी देव ए, चौदहथान निवास । चौदह में नहिं पंच से, महा सुखनि की रास ॥६४ पंचनि में सरवारथी, सिद्ध नाम है थान । सकल स्वर्ग को सीस जो, ता सम लोक न आन ।।६५ एका भवतारी महा, सरवारथसिधि बास । तिनसे देव न इन्द्र कोउ, अहमिंद्रा न प्रकाश ॥६६ कहे देवमें सार ए, तैसे व्रत में सार । शील समान न गरु कहें, शील देय भवपार ॥६७ देव माहिं जे समकिती, देव देव हैं जेहि । देव माहिं मिथ्या मती, पशु तें मूरख तेहि ।। नारक में जे समकिती, तिनसे देव न जांनि । तिरजेचनि में श्राविका, तिनसे मनुज न मांनि ॥६९ मनुजनि में जे अवती, अज्ञानी मतिमंद । तिनसे तिरजंचा नहीं, से विषय सुछंद ॥७० मनुजनि माहिं मुनन्द्रि जे, महाव्रती गुणवान । तिनसे अहमिन्द्रा नहीं, ताको सुनहु बखान ॥७१ थावर नहिं कृमिकोट से, ते सकलिन्द्री से न । पंचेन्द्री नहिं नरनि से, नर जु नरेन्द्र जिसे न ॥७२ महामंडलिक से न नृप, ते अर्धचक्री से न । अर्धचक्री नहिं चक्री से, चक्री इन्द्र जिसे न ॥७३ इन्द्र नहीं अहमिन्द्र से, ते न मुनीन्द्र समान । नाहिं मुनीन्द्र गणीन्द्र से, ज्ञानवान गुणवान ॥७४
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
नाहि गणीन्द्र जिनेन्द्र से, जे सबके गुरुदेव । इन्द्र फणिन्द्र नरेन्द्र मुनि, करें सुरासुर सेव ॥७५ ते जिनेन्द्र हू तप समय, करें सिद्ध को ध्यान । सिद्धनि सो संसार में, नाहिं दूसरो आन ॥७६ सिद्धनि सो यह आत्मा, निश्चय नय करि होय । सिद्धलोक दायक महा, नहीं शौल सो कोय ॥७७ भूमि न अष्टम भूमि सी, सर्वभूमि के शीश । • कर्म भूमि तें पावही अष्टम भूमि मुनीस ॥ ७८ द्वीप अढ़ाई से नहीं, असंख्यात ही द्वीप । जहां ऊपजे जिनवरा, तीन भुवन के दीप ॥७९ नहि जिन प्रतिमा सारिखी, कारण वर वैराग । नहीं आन मूरति जिसी, कारण दोष रु राग ॥८० नहि अनादि प्रतिमासमा, सुंदर रूप अपार । नाहि अकृत्रिम सारखे, चैत्यालय विसतार ॥८१ क्षेत्र न आरिज सारिखे, सिद्धक्षेत्र है सोइ । भरतैरावत दस सबै, नहि विदेह से कोइ ॥ ८२ गिरि नहिं सुरगिरि सारिखे, तर सुरतरु से नाहिं । नदी सुरनदी सी नहीं, सर्व नदी के माहि ॥ ८३ शिला न पांडुकशिला सम, जा परि न्हावे ईश । सिद्ध सिलासी पांडु नहिं, सा त्रिभुवन के शीश ॥८४ उदधि न क्षीरोदधि समा द्रह पदमादि जिसे न । मणि नहि चिंतामणि समा, कामधेनु सी धेनु ॥ ८५ निधि नहि नवनिधि सारिखी, सो निजनिधि सी नाहिं ।
समुद्र गुणसिंधु सो, है निज निधि जा माहिं ॥८६ नन्दनादि से बन नहीं, ते निज बन से नाहि । . निज बन में क्रोडा करें, ते आनन्द लहाहिं ॥८७ केवल परिणति सारिखी, नदी कलोलनि कोइ । निज गंगा सोई गनों, ता सम और न होइ ||८८ देव न आतम देव सो, गुण आतम सो, नाहि । धर्म न आतम धर्म सो. गुण अनन्त जामाहिं ॥८९ बाजा दुन्दुभि सारिखा, नहीं जगत में और । राजा जिनवर सो नहीं, तीन भुवन सिरमौर ॥९० नाह अनाहत तूर से देव दुन्दभी तूर ।
"
सूरन तिनसे जे नरा, डारे मनमथ चूर ॥९१ वाहन नहीं विमान से, फिरें गगन के माहि । नाहि विमान जु ज्ञान से, जा करि शिवपुर जाहि ॥९२
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श्रावकाचार-संग्रहै
हीन दीन अति तुच्छ तन, नहिं निगोदिया तुल्य । सरवारथ सिधि देव से, भववासी नहिं कुल्य ॥९३ दीरघ देह न मच्छ से, सहसर जोजन देह । चौइन्द्री नहिं भ्रमर से, जोजन एक गनेह ॥९४ कान खजुरया से नहीं, ते इन्द्री त्रय कोस । बेइन्द्री नहिं संख से, तन अढ़तालीस कोश ॥९५ एकेन्द्री नहिं कमल से, सहसर जोजन एक । सब परि करुणा राखिवी, इह जिनधर्म विवेक ॥९६ धातु न कनक समान सो, काई लगै न जाहि । सोहु न चेतन धातु सों, नहिं कबहुं विनसाहि ॥९७ पारस से पाषाण नहि, लोहा कनक कराय । पारसनाथ समान कोउ, पारस नाहिं कहाय ॥९८ करै जीव कों आप सम, हरै सबै दुःख दोय। धरै मोक्ष थानक विर्षे, करै कर्म गण सोय ।।९९ ध्यावौ पारसप्रभु महा, बसै सदा सो पास । राशि सकल गुणरतन की, काट कर्म जु पासि ।।१०० चातुर्मासिक सारखे, उत्तपत जीव न आन । व्रती जति से नाहिं कोउ, गमन तजें गुणवान ॥१ जिन कल्याणक क्षेत्र से और न तीरथ जान । तेहु न निज तीरथ जिसै, इह निश्चय कर मान ।।२ निज तीरथ निज क्षेत्र है, असंख्यात परदेश । तहां विराजै आतमा, जानै भाव असेस ॥३ अष्टमि चउदसि सारिखी, परवी और न जानि । आष्टाह्निक से लोक में, पर्व न कोइ प्रवानि ॥४ नंदीसुर सो धाम नहिं, जहां हरख अति होय । नंदादिक वापनि सी, नहीं वापिका कोय ॥५ नारक से क्रोधी नहीं, शठ नर सो न गुमान । विकल न पशुगण सारिखे, लोभ न दंभ न समान ॥६ नारक से न कुरूप कोउ, देवनि से न सुरूप । नर से धन्धाधर नहीं, नहिं पशु से वहुरूप ॥७ कारण भोग न दान सो, तप सो स्वर्ग न मूल । हिंसारम्भ समान नहिं, कारण नरक सथूल ॥८ पशुगति कारण कपट सो, ओर न कोइ बखान । सरल निगर्व सुभाष सो, नरभव मूल न आन ॥९ सुख कारण नहिं शुभ समो, अशुभ समा दुख मूल । नहीं शुद्ध सो लोक में, मोक्ष-मूल अनुकूल ॥१०
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष पोसह पडिक्रमणादि सो, शुभाचरण नहि होइ । विषय कषाय कलंक सो, अशुभाचरण न कोइ ।।११ आतम अनुभव सारिखा, शुद्धभाव नहीं वीर। नहीं अनुभवी सारिखे, तीन भवन में धीर ।।१२ नारि समान न नागिनी, नारी सम न पिशाच । नारि समान न व्याधि है, रहें मूढजन राचि ॥१३ ब्रह्मज्ञान को विश्व में, वैरी है व्यभिचार । ब्रह्मचर्य सो मित्र नहिं, इह निश्चै उर धारि ।।१४ कायर कृपण समान नहि, सुभट न त्यागी तुल्य । रंक न आसादास से, लहै न भाव अतुल्य ।।१५ संत न आशा रहित से, आशा त्यागें साध । साध समान अबाध नहिं, करहि तत्त्व आराध ॥१६ निजगण से नहिं भूषणा, भूख न चाहि समान । वस्त्र न दश दिश सारिखे, इह भाषे भगवान ॥१७ भोजन तृपति समान नहि, भाजन गगन जिसी न । राज न शिवपुर राज सो, जामें काल धको न ॥१८ राव न सिद्ध अनन्त से, साथ न भाव समान । भाव न ज्ञानानन्द से, इह निश्चय परवान ॥१९ चेतनता सत्ता महा, ता सम पटरानी न । शक्ति अनन्तानन्त सी, राजलोक जानी न ॥२० नारक से दुखिया नहीं, विषयी देव जिसै न । चिन्तावान मनुष्य से, असहाई पशु से न ॥२१ सूक्षम अलप प्रजापता, जीव निगोद निवास । ता सम सूक्षम थावर न, इह जिन आज्ञा भास ॥२२ अलस्या से बेइन्द्रिया, और न अलप शरीर । नहीं कुंथिया से अलप, ते इन्द्रिय तनवीर ॥२३ काणमच्छिकासे न तुच्छ, चौइन्द्रिय तन धार । तन्दुलमच्छ समान तुच्छ, पंचेन्द्री न विचार ॥२४ चुगली-चोरी अति बुरी, जोरी जारी ताप । चोरी चमचोरी तथा, जुवा आमिष पाप ॥२५ मदिरा मृगया मांगना, पर महिलासू प्रीति । परद्रोह परपंच अर, पाखंडादि प्रतीत ॥२६ तजो अभक्षण भक्ष्य अरु, तजौ अगम्यागम्य । तजो विपर्यय भाव सहु, त्यागहु पाप अरम्य ॥२७ इनसी और न कुक्रिया, नरक निगोद प्रदाय । सकल कुक्रिया त्याग-सों और न ज्ञान उपाय ।।२८
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श्रावकाचार-संग्रह उज्जल जल गल्यो उचित, सोध्यौ अन्न अडंक । ता सम भक्ष्य न लोक में, भावें विबुध निशंक ॥२९ मद्य मांस मधु मांखणा, ऊमरादि फल निदि । इनसे अभख न लोक में, निदें नर जगवंदि ॥३० वेश्या दासी परत्रिया, तितसी धारै प्रीति । . एहि अगम्या गम्य है, या सम नाहि अनीति ॥३१ होय कलंक को सारखे, नाहि अनीतो कोय । वज्र चक्री सारिखे, नीतिवान नहिं जोय ॥३२ खग जग कोउ गजेन्द्र से, मग मृगेन्द्र से नाहिं । खग नहिं कोउ खगेन्द्र से, जे अति जोर धराहि ॥३३ वादित्र न कोइ बोन से, सुरपति से न प्रवीन । बाण न कोइ अमोघ से, हिंसक से न मलीन ॥३४ अशन न पान पियूष से, व्यसन न द्यूत समान । वस्त्राभरण न लोक में, देवलोक सम आन ॥३५ वाजित्री न महेन्द्र से, पंच कल्याणक माहि । सदा बजावें राग धरि, गावैं संशय नाहिं ॥३६ अश्व नहीं जात्यश्व से, कटक न चक्रि-समान । अलंकार नहिं मुकट से, अंग न सीस समान ॥३७ पाले बाल जु ब्रह्मब्रत, ता सम पुरुष न नारि । खोवै वृद्धहिं ब्रह्मव्रत, ता सम पशु न विचारि ॥३८ वज्र चक्र से लोक में, आयुध और न वीर । वज्रायुध चक्रायुधी, तिनसे प्रबल न धीर ॥३९ हल मुसलायुध सारिखे, भद्रभाव नहि भूप। नहिं धनुषायुध सारिखे, केलि कूतहल रूप.॥४० नाहिं त्रिशूलायुध जिसै, ओर न भयंकर कोइ। नहिं पुष्पायुध सारिखे, महा मनोहर होइ ॥४१ धर्मायुध से धर्मधर, सर्वोत्तम सब नाथ । और न जानो लोक में, सकल जिनों के साथ ॥४२ नहिं व्यभिचारी सारिखा, पापाचारी और । नाहिं ब्रह्मचारी समा, आचारी सिरमौर ॥४३ मायासी कुलटा नहीं, लगी जगत के संग। विरचे क्षण में पापिनी, परकीया बहु रंग ॥४४ नहिं चिद्रूपा सिद्धि सी, सुकिया जगत मझार । नहिं नायक चिद्रूप सो, आनन्दो अविकार ॥४५ न्यारी होय न चेतना, है चेतन को रूप । रामरूप सी नहिं रमा, रामस्वरूप अनूप ॥४६
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष कनक कामिनी रागते, लखी जाय नहिं सोइ । संयम शील स्वभावतें, ताको दरसन होइ ॥४७ सील ओपमा बहुत है, कहै कहांलो कोय । जानें श्री जिनराज जु, शीलशिरोमणि सोय ॥४८ दौलति और न ऋद्धि सी, ऋद्धि न बुद्धि समान । बुद्धि न केवल सिद्धि सी, इह निश्चय परवान ।।४९
इति शील-उपमा वर्णन
अथ शील स्वरूप निरूपण कह्यो दोय विध शीलव्रत, निश्चय अर व्यवहार । सो धारो उर में सुधी, त्यागौ सकल विकार ॥५० निश्चय परम समाधितें, खिसवौं नाहिं कदाचि । लखिवौ आतमभाव को, रहियो निज में राचि ॥५१ निज परिणति परगट जहां, पर परिणति परिहार । निश्चय शील-निधान जो, वर्जित सकल विकार ॥५२ पर परिणति जे परिणमें, ते व्यभिचारी जानि । मानि ब्रह्मचारी तिके, लेहि ब्रह्म पहिचान ॥५३ परम शुद्ध परिणति विषै, मगन रहै धरि ध्यान । पावें निश्चय शील को, भावें आतमज्ञान ॥५४ निज परिणति निज चेतना, ज्ञान सरूपा होइ। दरसन रूपा परम जो, चारितरूपा सोइ ॥५५ जड़रूपा जगबुद्धि जो, आपापर न लखेह । पर परिणति सो जानिए, तन-धन मांहि फसेह ॥५६ पर परिणति के मूल ए, राग दोष मद मोह । काम क्रोध छल लाभ खल, परनिंदा परद्रोह ॥५७ दंभ प्रपंच मिथ्यात मल, पाखंडादि अनंत । इन करि जीव अनादि के, भव-भव में भटकंत ॥५८ जो लग मिथ्या परिणती, सठजन के परकास। तो लग सम्यक् परिणती, होय न ब्रह्म-विकास ॥५९
जोगीरासा
तजि व्यभिचारी भाव, सबै ही भए ब्रह्मचारी जे । ते शिवपुर में जाय विरजे, भव्यनि भव तारीजे ॥६० व्यभिचारी जे पापाचारी, ते भरमें भव-भवमें। पर परिणति सों रचिया जोलों, तोलों जाय न शिव में ॥६१
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श्रावकाचार-संग्रह
जग में जड़ अनुरागे, लागे नाहीं निज में ।
कर्म कर्मफल रूप होय के, परे भंवर भ्रम रज में ॥६२ ज्ञान चेतना लखी न अबलों, तत्त्वस्वरूपा शुद्धा । जामें कर्म न भर्मकलपना, भाव न एक अशुद्धा ||६३ मिथ्या परणति त्यागै कोई, सम्यक दृष्टी होई । अनुभव रस में भीगे जोई, शीलवन्त है सोई ॥६४ निश्चय शील बखान्यूं एई, अचल अखण्ड प्रभावा । परमं समाधि मई निजभावा, जहां न एक विभावा ॥ ६५
छन्द चाल
अब सुनि व्यवहार सुशीला, धारन में करहु न ढीला । दृढ़ व्रत आखड़ी धरिवौ, नारिको संग न करिवौ ॥६६ नारी है नरक प्रतोली, नारिन में कुमति अतोली । ए महा मोह की टोली, सेवें जिनकी मति भोली ॥६७ नारी जग-जन-मन चोरै, नारी भवजल में बोरै ।. भव भव दुखदायक जानों, नारी सों प्रीति न ठानों ॥६८ त्यागें नारी को संगा, नहि करें शीलव्रत भंगा । ते पावें मुक्ति निवासा, कवहु न करें भव-वासा ॥६९ इह मदन महा दुखदाई, याकूं जीतें मुनिराई । मुनिराय महा बलवन्ता, मनजीत मानजित सन्ता ॥७० शीलहि सुरपति सिर नावे, शीलहि शिवपुर जति जावै । साधू हैं शील सरूपा, यह शील सुव्रत्त अनूपा ॥७१ मुनि के कछु न विकारा, मन वच तन सर्व प्रकारा । चितवौ व्रत चेतन माहीं, नारी को सपरस नाहीं ॥७२ गृहपति के कछुक विकारा, तातें ए अणुव्रत धारा । परदारा कबहुं न सेवें, परधन, कबहुँ नहि लेवें ॥७३
ती जग में परनारी, बेटी बहनी महतारी । इह भांति गिनै जो भाई, सो श्रावक शुद्ध कहाई ॥७४ निजदारा पर सन्तोषा नहि, काम राग अति पोषा । विरकत भावे कोउ समये, सेवें निज नारी कम ये ॥७५ दिनको न करे ए कामा, रात्री कबहुक परिणामा । मैथुन के समये मवना, नहि राव करै रति रमना ॥७६ परवी - सब हो प्रति पाले, व्रत शील धारि अघ टाले । अष्टान्हिक तीनों घारे, भादव के मास हु सारै ॥७७ ये दिवस धर्म के मूला, इनमें मैथुन अघ थूला । अबर हुजे व्रत के दिवसा, पालै इन्द्रिनि के न वसा ॥७८
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दौलतराम-क्त क्रियाकोष अपने अर तियके व्रत्ता, सबहीं पाले निरवृत्ता। या विधि जिन नारी सेवे, पर मनमें ऐसें बेवै ॥७९ कब तजि हो काम-विकारा, इह कर्म महा दुख-भारा। यामें हिंसा बह होवे, या कर्म करें शुभ खोवे ।।८० जैसे नाली तिल भरिये, रंचह खाली नहिं धरिये। तातो कोलो ता माहै, लोहे को संसे नाहै ॥८१ घालें तिल भस्म जु होई, यह परतछि देखो कोई। तैसे ही लिंग करि जीवा, नासें भग माहिं अतीवा ।।८२ तातें यह मैथुन निद्या, याको त्यागें जगवंद्या। धन धन्य भाग जाको है, जो मैथुनतें जु बच्यो है ।।८३ जो बाल ब्रह्मव्रत धारें, आजनम न मैथुन कारें। तिनके चरणनि की भक्को, दे भव्य जीवकू मुक्ती ॥४ हमहू ऐसे कब होहे, तजि नारी व्रत करि सोहें। या मैथुन में न भलाई, परतछ दीखै अघ भाई ॥८५ अपनीहू नारी त्यागे, जब जिनवर के मत लागे । यह देहह अपनी नाही, चेतन बैठो जा माहीं ॥८६ तो नारी कैसे अपनी, यह गुरु आज्ञा उर खपनी । या विधि चितवे मन माहीं, कब घर तजि वनकू जाहीं ॥८७ जबलों बलवान बु मोहा, तबलों इह मनमथ द्रोहा। छोड़े नहिं हमसों पापी, तातें ब्याही त्रिय थापी ॥८८ जबलों बलवान ज होहै, मारै मनमथ बर मोहै। असमर्था नारी राखे, समरथ आतम-रस चाखें ॥८९ यह भावन नित भावंतो, घर माहिं उदास रहती। जैसें पर-घर पाहुणियो, तैसें ये श्रावक गिणियो ॥९० वह तो घर पहुंची चाहै, यह शिवपुर कों जो उमाहै। अति भाव उदासी जाको, निज चेतन में चित ताको ॥९१ छांड़े सब राग रु दोषा, धार सामायिक पोषा। कबहू न रक्त घरमें, है नगन त्रियासों न रमें ॥९२ मुख आदि विकारा जे हैं, छांड़े नर ज्ञानी ते हैं। इह त्रिय सेवन विधि भाखी, विन पाणिग्रह नहिं राखी ॥१३ श्रावक व्रतधरि सुरपति है, सुरपति तें चय नरपति हे। पुनि मुनि है पावै मुक्ती, इह शील प्रभाव सु जुक्ती ॥९४ नहिं शील सारिखो कोई, दे सुरपुर शिवपुर होई । जे बाल ब्रह्मचारी हैं. सम्यग्दर्शन धारी हैं ॥९५ तिनके सम है नहिं दूजा, पावै त्रिभुवन करि पूजा। जे जीव कुशीले पापा, पार्वे भव-भव संतापा ॥९६
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श्रावकाचार-संग्रह
व्यभिचारी तुल्य न होई, अपराधी जग में कोई । लै नरक निगोद निवासा, पापनि का अति दुख भासा ॥९७ जेते जु अनाचारा हैं, व्यभिचार पिछै सारा हैं । त्यागौ भविजन व्यभिचारा, पालो श्रावक आचारा ॥९८
दोहा मुख्य बारता यह भया, बाल ब्रह्मवत लेय । जो यह व्रत धार न सके, तो इक ब्याह करेय ।।९९ दूजी नारी न जोग्य है, व्रतधारनि को वीर । भोग समान न रोग है, इह धारै उर धीर ॥२०० जो अभिलाषा बहुत है, विषय-भोग की जाहि । तो विवाह औरहु करै, नहिं परदारा चाहि ॥१ परदारा सम पाप नहि, तीन लोक में और। जे सेवे परनारि को, लहैं नरक में ठौर ॥२ नरक मांहि बहु काल लों, दुख देवें अधिकाय । वज्रागनि पुतलीनिसों तिनको अंग तपाय ॥३ जरि जरि तिनकी देह जो, जैसे को तैसो हि । रहै सागरावधि तहां, दुःख सहंता सोहि ॥४ कहिवे में आवें नहीं, नरकवास के कष्ट । ते पावें पापी महा, परदारा तें दुष्ट ॥५ नारक के बहु कष्ट लहि, खोट नर तिर होय । जन्म-जन्म दुरगति हैं, दुख देखें अघ सोय ॥६ अर याही भव में सठा, अपजस दुःख लहेय । राजदण्ड परचण्ड अति, पावें पर-तिय सेय ।।७
बेसरी छन्द जग में धन बल्लभ है भाई, धनहतें जीतव अधिकाई । जीतवतें लज्जा है वल्लभ, लज्जातें नारी नर दुल्लभ ॥८ जे पापी परदारा सेवें, ते बहुतनि की लज्जा लेवें । वैर बढ़े जु बहु सेती वीरा, परदारा सेवें नहिं धीरा ॥९ धन जीतव लज्जा जस माना, सर्व जाय या करि व्रत ज्ञाना । कुलकों लागै बड़ो कलंका, या अघकों निदे अकलंका ।।१० पर-नारी रत पापनि कों, जे दस वेगा उपजें मनसों जे । चिन्ता अर देखन अभिलाषा, पुनि निसास नाखन भय भाषा ।।११ काम-ज्वर होवै परकासा, उपजै दाह महादुख भासा। भोजन की रुचि रहै न कोई, बहुरि महामूरछा होई ॥१२
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
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तथा होय सो अति उनमन्ता, अंध महा अविवेक प्रभन्ता। जानों प्राण रहन को संसै, अथवा छुटै प्राण निसंसै ॥१३ कहे वेग ए दश दुखदाई, व्यभचारी के उपजें भाई। को लग वर्णन कीजै मित्रा, परदारा सेवें न पवित्रा ॥१४ इही पाप है मेरु समाना, और पाप है सरस्यूँ दाना। याके तुल्य कुकर्म न कोई, सर्व दोष मूल जु सोई ॥१५ नर ते ही पर-दारा त्यागें, नारी जे पर पुरुष न लागें। सर्वोत्तम वह नारि जु भाई, ब्रह्मचर्य आजन्म धराई ॥१६ व्याह करै नहिं जो गुणवन्ती, विषय-भाव त्यागै गुणवन्ती। ब्राह्मी सुन्दरि ऋषभ-सुता जे, रहित विकार सुधर्म-रता जे ॥१७ चेटक पुत्री चंदनबाला, ब्रह्मचारिणी व्रत्त विशाला। बहरि अनन्तमती अति शद्धा, वणिक-सूता व्रत शील प्रबद्धा ॥१८ इत्यादिक की रीति चितारै, निरमल, निरदूषण व्रत पारै। महा सती जाकै न विकारा, विषयनि ऊपरि भाव न डारा ॥१९ आतम तत्त्व लख्यौ निरवेदा, काम कल्पना सबै निषेदा। पुरुष लखै सहु सुत अरु भाई; पिता समाना रंच न काई ।।२० धारै बाल ब्रह्मव्रत शुद्धा, गुरु प्रसाद भई प्रति बुद्धा। ऐसी समरथ नाही पावै, तो पतिव्रत वृत्त धरावै ॥२१ मात पिता की आज्ञा लेती, एक पुरुष धारै विधि सेती। पाणिग्रहण कर सो कुलवन्ती, पतिकी सेव करै गुणवन्ती ॥२२
और पुरुष सह पिता समाना, के भाई पुत्रा करि माना। मेधेश्वर राजा की राणी, तथा राम की राणी जाणी ॥२३ श्रीपाल भूपति की नारो, इत्यादिक कीरति जु चितारी। जग सों विरकत भाव प्रवर्तं, औसर पाय सिताव निवर्तं ॥२४ मैथुन को जाने पशुकर्मा, यह उत्तम नारिन को धर्मा। तजि परिवार जु सम्यकवंती, द्वै आर्या तप संजमवन्ती ।।२५ ज्ञान विवेक विराग प्रभावै, स्त्रीपद छांडि स्वर्गपुर आवै । सुरग माहिं उतकिष्टा सुर कै, बहुत काल सुख लहि पुनि नर है ॥२६ धारे महाव्रत निज ध्यावै, कर्म काटि शिवपुर को जावै । शिवपुर सिद्धक्षेत्रकू कहिये, और न दूजो शिवपुर लहिये ॥२७ शिव है नाम सिद्ध भगवन्ता, अष्टकर्म-हर देव अनन्ता । भुक्ति मुक्तिदायक इह शीला, या धरवे में ना कर ढीला ॥२८ शील सुधारस पान करै जो, अजरामर पद कोय धरे जो। शील बिना नारी धिग जन्मा, जन्म-जन्म पावे हि कुजन्मा ॥२९ रानी राव जशोधर केरी, शील विना आपद बहुतेरी। लही नरक में तातें त्यागौ, कदै कुशीलपंथ मति लागौ ॥३०
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श्रीवकाचार-संग्रह
शील समान न धर्म जु होई, नाहिं कुशील समो अघ कोई। जे नर नारि शीलवत धारे, ते निश्चय परब्रह्म निहारें ॥३१ त्यागे दशों दोष व्रतवन्ता, ते सुनि एकचित करि सता । अञ्जन मञ्जन बहु सिंगारा, करना नहीं बतिनकों भारा ||३२ तजिवो तिनको अशन गरिष्ठा, अर तजिवौ संसर्ग सपष्टा । नरकों नारीकों संसर्गा, नारिन को उचित न नरवर्गा ॥३३ है संसर्ग थकी जु विकारा, अर तजिवी तौर्यत्रिक सारा। तौर्यत्रिक को अर्थ जु भाई गीत नृत्य बाजित बजाई ॥३४ मुनि को इनतें कछुह न कामा, श्रावक के पूजा विश्रामा । करे जिनेश्वर पद की पूजा, जिन प्रतिमा बिन और न दूजा ॥३५ अष्टद्रव्य से पूजा करई, तहाँ गीत वादित्र जु धरई । नत्य करै प्रभु जी के आगे, जिनगुन में भविजन मन लागै ॥३६
और न सिंगारादिक गावै, केवल जिनपद सों उर लावै । नारी-विषयनि को संकलपा, तजिवौ बुध को सर्व विकलपा ॥३७ अंग-उपंग निरखनों नाहीं, जो निरखै तो दोष धराही । सतकारादिक नारी जनसों, करनों नाहीं मन-वच-तनसो ॥३८ पूरव भोग-विलास न चितवी, अर आगामी बांछा हरिवौ । सुपनें हैं नहिं मनमथ कर्मा, ए दश दोष तजै ब्रत धर्मा ॥३९ व्रत नहिं शील बराबर कोई, जिनशासन की आज्ञा होई। ..... .... ... ... ... ... ... ... ... ... ... .... ||४०
उक्तंच श्री ज्ञानार्णवमध्ये आद्यं शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते ॥१ योषिद्विषसंकल्पं पंचमं परिकीर्तितम् । तदंगवोक्षणं षष्ठं सत्कारः सप्तमो मतः ॥२ पूर्वानुभूतसंभोग: स्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवमे भावनी चिन्ता दशमे वस्तिमोक्षणम् ॥३
कवित्त तिय-थल-वासि प्रेम रुचि निरखन, देखि रीझ भाषत मधु बैन, पूरव भोग केलिरस चितवन, गुरु व अहार लेत चित चैन । करि सुचि तन सिंगार बनावत, तिय परजंक मध्य सुख सैन, मनमथ कथा उदर भरि भोजन, ए नव वाड़ि जानि मत जैन ।।४१
दोहा अतीचार सुनि पाँच अब, सुनि करि तजि वर वीर । जब चौथो ब्रत शुद्ध है, इह भाषे मुनि धीर ।।४२
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष ब्याह सगाई पारको, किरिया अव्रत पोष । शीलवन्त नर नहिं करै, जिन त्यागे सहु दोष ॥४३ इत्वरिका कुलटा त्रिया, ताकी है द्वजाति । परिग्रहीता एक है, जाके सामिल खाति ॥४४ अपरिग्रहीता दूसरी जाके, स्वामि न कोय । ए इत्वरिका द्व बिधा, पर पुरुषा-रत होय ॥४५ जिन सों रहनों दूर अति, तिनकों संग तजेय । तिन सों संभाषण नहीं, तबै जनम सुधरेय ॥४६ गमन करै नहिं वा तरफ, विचरै तहाँ न नारि । डारि नारि को नेह नर, धरै व्रत्त अघ टारि ॥४७ तजि अनंग क्रीड़ा सबै, क्रीड़ा अघ की एहि । मदन मारि मन जीति कर, ब्रह्मचर्य व्रत लेहि ॥४८ निज नारी हूतें सुधी, करै न अधिकी प्रीति । भाव तीव्र नहिं काम के, धरै धर्म की रीति ।।४९ कहै अतिक्रम पंच ए, इनमें भला न कोय । ए सब ही तजि या थका, शील निर्मला होय ॥५० नीलो सेठ-सुता शुभा शील व्रत परसाद । देवनि करि पूजा लही, दूरि भयो अपवाद ॥५१ शील प्रभावै जय-प्रिया, शुभ सुलोचना नारि । लही प्रशंसा सुरनि करि, सम्यग्दर्शन धारि ॥५२ शील-प्रमादै राम की, जनकसुता शुभ भाव । पूज्य सुरासुर नरनि करि, भये जगत की नाव ।।५३ सेठ विजय अर सेठनी, विजया शील प्रसाद । भई प्रशंसा मुनिन करि, भये रहित परमाद ।।५४ शुक्ल पक्ष अर कृष्ण पक्ष, धारि शील व्रत तेहि । तीन लोक पूजित भये, जिन आज्ञा उर लेहि ॥५५ सेठ सुदर्शन आदि बह, सीझे शील-प्रताप । नमस्कार या व्रत्त कों, जो मेटै भव-ताप ॥५६ जे सीझे ते शील करि, और न मारग कोय । जनम जरा मरणादि को, नाशक यह व्रत होय ।।५७ धरि कुशील बहु पापिया, बड़े नरक मंझार । तिनको को निरणय करै, कहत न आवै पार ॥५८ रावण खोटे भाव धरि, गये अधोगति माँहि । धवल सेठ नरकें गयो, यामें संशय नाहिं ॥५९ कोटपाल जमदंड शठ, करि कुशील अति पाप । गयो नरक की भूमि में, लहि राजातें ताप ॥६०
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श्रावकाचार-संग्रह बहुरि हुतो जमदंड इक, कोटपाल गुणवन्त । नीति धर्म परभाव तें, पायौं जस जयवन्त ॥६१ सर्व गुणां हैं शील में, अरु कुशील में दोष । नाहिं कुशील समान कोउ, और पाप को पोष ॥६२ इन दोउनि के गुण अगुण, कहत न आवै थाह । जाने श्री जिनराय जू, केवल रूप अथाह ॥६३ महिमा शील महंत को, कहें महा गणधार । भाषै श्री जिन भारती, रटै साधु भव तार ॥६४ सरवारथसिधि के महा, अहमिन्द्रा परवीन । गावें गुण व्रत शील के, जे अनुभव रसलीन ॥६५ क कांति इन्द्रादि का, जपें सुजस जोगीन्द्र । लोकान्तिक वरणन करें, रटें नरिन्द्र फणीन्द्र ॥६६ चन्द्र सूर सुर असुर खग, महिमा शील करैय । सूरि सन्त अध्यापका, मन वच काय धरेय ॥६७ हम से अलपमती कहो, कैसे गुण वरणेह । नमो नमों व्रत शील कों, रहैं ऋषि शरणेह ॥६८ दया सत्य अस्तेय अर, शीले करि परणाम । भाषों पंचम व्रत्त जो, परिग्रह त्याग सुनाम ॥६९
इति चतुर्थ व्रत निरूपण ।
इन चारनि विन ना हुवै, परिग्रह के परिहार । परिग्रह के परिहार बिन, नहिं पावे भव-पार ॥७० मुनिकों सर्वहि त्यागवौ, अतंर बाहिज-संग । धर्म अकिंचन धारिवौं, करिवौ तृष्णा-भंग ||७१ अपने आतमभाव विनु, जो पररूपा वस्त । सो परिग्रह भाषौ सुधी, ताको त्याग प्रशस्त ॥७२ सर्व भेद चउबीस हैं, चउदस अर दस भेलि । अंतर बाहिज संग ये, दुरगति फलकी बेलि ॥७३ परिग्रह द्वविध त्यागिये, तब लहिये निज भाव । ब्रह्मज्ञान के शत्रु ये, नरक निगोद उपाय ॥७४ अंतरंग परिग्रह तने, भेद चतुदर्श जान । मिथ्यात्वादिक जो सबै, जिन आज्ञा उर आन ॥७५ राग द्वष मिथ्यात अर, चउ कषाय क्रोधादि । षट हास्यादिक वेद पुनि, चउदस भेद अनादि ॥७६ राग कहावै प्रीति अरु, द्वष होइ अप्रीति । राग दोष तज भव्य जन, धरै धर्म की रीति ॥७७
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
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जहां तत्त्व श्रद्धा नहीं, सो मिथ्यात कहाय । जड़ चेतन को ज्ञान नहीं, भर्मरूप दरसाय ॥७८ क्रोध मान चउ लोभ ये, चउ-कषाय बलवन्त । हतिये ज्ञान सुबानतें, लहिये भाव अनन्त ॥७९ हास्य अरति अरु शोक भय, बहुरि ग्लानि बखान । तजिये षट हास्यादि का, मोह प्रकृति दुखदानि ।।८० वेद भेद हैं तीन पुनि, पुरुष नपुंसक नारि । चेतन तें न्यारै लखौ, जिनवानी उर धारि ।।८१ एक समय इक जीव के, उदय होय इक वेद । तातें गनिये वेद इक, यह गावें निरवेद ॥८२ संख असंख अनन्त हैं, इनि चउदह के भेद । अन्तरंग ये संग तजि, करिये कर्म विछेद ॥८३ अन्तर संग तजे विना, होइ न सम्यक ज्ञान । विना ज्ञान लोभ न मिटै, इह भाष भगवान ||८४ अब सुनि बाहर संग जे, दसधा हैं दुखदाय । मुनिनें त्यागे सर्वही, दीये दोष उड़ाय ।।८५ क्षेत्र वास्तु चौपद द्विपद, धान्य द्रब्य कुप्यादि । भाजन आसन सेज ये, दस परकार अनादि ।।८६ तजें संग चउबीस सहु, भजे नाथ चउबीस । सजें साज शिवलोक कों, सबमें बड़े मुनीस ॥८७ मूर्छा ममता सहु तजी, तृष्णा दई उड़ाय । नगन दिगम्बर भव तिरें, धरें न बहुरी काय ॥८८ श्रावक के ममता अलप, बहु तृष्णाकों त्याग । राग नहीं पर द्रव्य सों, एक धर्म को राग ।।८९ धरम हेत खरचै दरव, गर्व नाहिं मन माहिं । सर्व जीवसों मित्रता, दुराचारता नाहिं ॥९० जीव दया के कारणों, तजो बहुत आरम्भ । परिग्रह को परिमाण करि, तजौ सकल ही दम्भ ॥९१ लोभ लहरि मेटी जिनौ, धरियो धर्म संतोष । ते श्रावक निरदोष हैंनहीं पाप को पोष ।।९२ क्षेत्र आदि दस संग को, कियौ तिने परिमाण । राख्यो परिग्रह अलप ही, तिन सम और न जाण ॥९३ कह्यो परिग्रह दसविधा, बहिरंगा जे वीर । तिनके भेद सुनू भया, भाखे मुनिवर धीर ॥९४
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श्रावकाचार-संग्रह
चौपाई क्षेत्र परिग्रह खेत बखान, जहां ऊपजे धान्य निधान । वास्तु कहावे रहवा तना, मन्दिर हाट नौहरा बना ।।९५ हस्ती घोटक ऊंट रु आदि, गाय बलध महिषी इत्यादि । होय राखणों जो तिरजंच, चोपद परिग्रह जानि प्रपंच ॥९६ द्विपद परिग्रह दासी दास, पुत्र कलत्रादिक परकास । धान्य कहावे गेहूँ आदि, जीवन जनको अन्न अनादि ॥९७ धन कनकादिक सबही घात, चिन्तामणि आदिक मणि जात । चौवा चन्दन अगर सुगन्ध, अतर अगरजा आदि प्रबन्ध ॥१८ तेल फुलेल घृतादिक जेह, बहुरि वस्त्र सब भांति कहेह । ये सब कुप्य परिग्रह कहे, संसारी जीवनिने गहे ।।९९ भाजन नाम जु बासन होय, धातु पषाणा काठके कोय । माटी आदि कहाँ लग कहें, साधन भाजन ए कहु गहें ।।३०० आसन बैसनके बहु जान, सिंघासन प्रमुखा परवान । गद्दी गिलम आदि जेतेक, त्यागौ परिग्रह धारि विवेक ॥१ सज्या नाम सेजको कहो, भूमि-शयन मुनिराजनि गह्यो। ए दसधा परिग्रह द्वय रूप, कैइक जड़ कैइक चिद्रप ॥२ द्विपद चतुष्पद आदि सजीव, रतन धातु वस्त्रादि अजीव । अपने आतमतें सब भिन्न, परिग्रहतें है खेद जु खिन्न ॥३ हैं परिग्रह चिन्ताके धाम, इनको त्याग लहें शिवठाम । जिनवर चक्री हलधर धीर, कामदेव आदिक वर बीर ।।४ तजि परिग्रह धारें मुनिरूप, मुनिसम और न धर्म अनूप । मुनि होवे की शक्ति न होय, श्रावक ब्रत धारै नर सोय ॥५ करै परिग्रहको परमाण, त्यागै तृष्णा सोहि सुजाण । इह परिग्रह अति दुखको मूल, है सुखते अतिही प्रतिकूल ॥६ जैसे बेगारी सिर भार, तैसे यह परिग्रह अधिकार । जेतो थोरौ तेतौ चैन, यह आज्ञा गावें जिन बैन ॥७ तातें अल्पारम्भी होय, अल्प परिग्रह धारे सोय । ताहूको नित त्यागी चहै, मन माहीं अति विरकत रहै ।।८ जैसे राहु केतु करि कान्ति, रवि शशिकी है और हि भांति । तैसें परणति होय मलीन, आतमकी परिग्रह करि दोन ॥९ ध्यान न उपजै या करि कबै, याहि तर्जे पावें शिव तबै । समताको यह वैरी होय, मित्र अधीरपनाको सोय ॥१० मोह तनों विश्राम निवास, यातें भविजन रहहिं उदास । नासै सुखकों सुभतें दूर, असुभ भावतें है परिपूरि ॥११
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष खानि पाप की दुख की रासि, रह्या आपदा को पद भासि ।
आरति रुद प्रकाशइ कंग, धर्म ध्यान का धरइ न संग। गुण अनन्त धन धारयां चहै, सो परिग्रह तें दूरहि रहै ॥१२
दोहा लोला बनि दुरध्यान को, बहु आरम्भ सरूप । आकुलता की निधि महा, संशय रूप विरूप ॥१३ मद का मंत्री काम घर, हेतु शोक को सोई। कलह तनों क्रीड़ा ग्रह, जनक वैर को होय ॥१४ धन्य घरी वह होयगी, जब तजियेगो संग । यामें बड़पन नाहिं कछु, महादोष को अंग ॥१५ हिंसादिक अपराध का, कारण मूल बखानि । जनम जनम में जीव को, दुखदाई सो जानि ॥१६ धिग धिग द्विविधा संग को, जो रोके शिव-संग । चहँ गति माहिं भ्रमाय करि, करै सदा सुख भंग ॥१७ जो यामें बडपन गिने सो मरख मति-हीन । परिग्रहवान समान नहिं, और जगत में दीन ॥१८ धन्य धन्य धरमज्ञ जे, या तुच्छ गिनेय । माया ममता मूरछा, सर्बारम्भ तजेय ॥१९ यही भावना भाव तो, भविजन रहै उदास । मन में मनिव्रत की लगन, सो श्रावक जिनदास ॥२० बहुरि बिचारै सो सुधी, अगनि धरै गुण शोत । जो कदापि तौह न कबै, परिग्रहवान अभीत ॥२१ काल कूट जो अमृता, होइ दैव संयोग । नहिं तथापि सुख होय ये, इन्द्रिन के रस भोग ॥२२ विषयनि में जे राचिया, ते रुलिहै भव-माहिं । सुख है आतन-ज्ञान में, विषय माहिं सुख नाहिं ॥२३ थिर है तड़ित प्रकाश जो, तौह देह थिर नाहिं। देह नेह करिवो वृथा, यह चितवै मन मांहिं ॥२४ इन्द्रजाल जो सत्य है, दैव जोग परवान । तौ पनि संसारी जना नाहिं कदे सुखवान ।।२५ च गति में नहिं रम्यता, रम्य आतमाराम । जाके अनुभव तें महा, है पंचमगति धाम ।।२६ इह विचार जाके भयौ, देहह अपनी नाहिं । सो कैसे परपंच करि, बढ़े परिग्रह माहिं ।।२७
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श्रावकाचार-संग्रह
सर्वया तेईसा हय गय पायक आदि परिग्रह, पुण्य उदै गृह होय विभौ अति । पाय विभौ पुनि मोहित होत, सरूप विसारि करें परसौं रति ॥ नारहि पोषण काज, रच्यो बहु आरम्भ बांधत दुर्गति । ज्ञानि कहै हमकू कबहूं मन, राम वहै पुनि देहहु द्यो मति ।।२८ नाहिं संतोष समान जुआन है, श्रीभगवान प्रघान सुघर्मा । है सुखरूप अनूप इहै गुण, कारण ज्ञान हरै सब कर्मा ।। पापनिको यह बाप जुलोभ, करै अतिक्षोभ करै अति मर्मा। धारि संतोष लहै गुणकाष, तजै सब दोष लहै निज-मर्मा ॥२९ रंक सबै जग राव रिषीसुर, जो हि धरै शुभ शील संतोषा । सो हि लहै निज आतम भेद, करै अघ छेद हरें दुख दोषा ।। श्रावक धन्य तजे सहु अन्य, हुए जु अनन्य गहै गुण कोषा। काम न मोह न लोभ न लेश, गहे नहिं भान दहै रति रोषा ॥३० लोभ समान न आँगुण आन, नहीं चुगली सम पाप अरूपा । सत्य हि बेन कहै मुखतें सुभ, तो सम व्रत न तथ्य निरूपा ॥ पावन चित्त समान न तीरथ, आतम तुल्य न देव अनूपा। सज्जनता सम और कहा गुण, भूषन और न कीरति रूपा ॥३१ ब्रह्म सुज्ञान समान कहा धन, औजस तुल्य न मृत्यु कहाई । देवनिको गुरु देव दयानिधि, ता सम कोई न है सुखदाई॥ रोष समान न दोष कहें वुध, मोक्ष समान न आनन्द भाई। तोष समान न कारण मोक्ष, कहें भगवन्त कृपा उर लाई ॥३२ अंग प्रसंग भये बहु संग, तिनी महिं नाहि अभंग जु कोई। शुद्ध निजातम भाव अखंडित, ता महि चित्त धरै बुध सोई। बंध-विदारण, दोष-निवारण, लोक-उधारण और न होई । जा सम कोई न जान महामति, टारइ राग विरोध जु दोई ॥३३
दोहा धन्य-धन्य श्रावक ब्रती, जो समकित धर धोर । तन धन आतम भावतें न्यारे देखै वीर ॥३४ तन धनको अनुराग नहि. एक धर्म को राग । संतोषी समता धरा, करै लोभ को त्याग ॥३५ मोह तनी ग्यारह प्रकृति शांत होय जब वीर । तब धारे श्रावक व्रता, तष्णा बजित घोर ॥३६ तीन मिथ्यात कषाय बसु, ये ग्यारह परवान । पंचम ठानें श्रावका, इनतें रहित सुजान ||३७ गई चौकरी द्वय प्रबल, जै दुरगति दुखदाय । रह्यो चौकरी द्वय अबै, तिनको नाश उपाय ॥३८
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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
चितवै मनमें सासतो, है जीलग अवसाय । तौलग तीजी चौकरी उदे धरै रहवाय || ३९
अल्प परिग्रह धारई, जाके अल्पारम्भ । अवसर पाय सिताब ही, त्यागे सर्वारम्भ ॥४०
मुनितके परसाद शिव, ह्वे अथवा अहमिन्द्र | श्रावकवरत प्रभावतें, सुर तथा सुरिन्द्र ॥४१ परिग्रहको परमाण करि जयकुमार गुणधार । सुर-नर कर पूजित भयो, लह्यौ भवोदधि पार ॥४२ परिग्रहकी तृष्णा करे, लुबधदत्त गुणवीत । गयो दुरगती दुख लहे ज्यों समश्रु नवनीत ॥४३ करैजु संख्या संगकी, हरै देहतें नेह । अति न भ्रमाने नर पसू, गिनै आप सम तेह ||४४ बोझ बहुत नहि लादिबो, करनों बहुत न लोभ ।
अति संग्रह तजिवी सदा, करनों बहुत न क्षोभ ॥४५
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अति विस्मय नहिं धारिवाँ रहनों निःसन्देह । झूठी माया जगतकी, अचिरज नाहि गनेह ॥ ४६
परिग्रह संख्या वरत के, अतीचार हैं पंच | तिनकूं त्यागे जे ब्रती, तिनके पाप न रंच ॥४७ क्षेत्र वास्तु संख्या करी, ताको करै उलंघ । अतीचार है प्रथम यह, भाषै चउविधि संघ ॥४८ काहु प्रकारै भूलि करि, जोहि उलंघे नेक । अतीचार ताकों लगे, भाषै पंडित एम ॥४९ द्विपद चतुष्पद संग को, करि प्रमाण जो वीर । अभिलाषा अधिक धरे, सो न लहे भव-तीर ॥५० अतीचार दूजी इहे, सुनि तीजो अघरास । धन धान्यादिक वस्तु को, करि प्रमाण गुरु पास ।।५१ चित संकोचि सकै नहीं, मन दौरावे मूढ़ । सोन लहै व्रत शुद्धता, होय न ध्यानारूढ ॥५२ हम राख्यो परिग्रह अलप, सरै न एते माहिं । ऐसे बिकलप जो करै, वर्तमान सो नाहि ॥५३ कुप्य भांड परिग्रह तनौं, करि प्रमाण तन घारि । चित्त चाहि मेटै नहीं, सो चौथो अतिचार ॥५४ शयन नाम सेज्या तनों, आसन द्वय विधि होय । थिर आसन चर आसना, करै प्रमाण जु कोय ॥५५ पुनि अधिको अभिलाष धरि, लावे व्रत में दोष । अतीचार सो पांचमो, रोके मारग मोष ॥५६ थिर आसन सिंहासनों, ताहि आदि बहु जानि । त्यागे चक्री मंडलो, जिन आज्ञा उर आनि ॥५७ स्यन्दन कहिये रथ प्रगट, शिविका है सुखपाल । एथल के चर आसना, त्यागे भव्य भूपाल ॥५८ बहुरि विमानादिक जिके, चर आसन शुभ रूप | ते आकाश के जानिये, त्यागें खेचर भूप ॥५९
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श्रावकाचार-संग्रह
नाव जिहाजादिक गिनें, चर आसन जल माहि । चर आसन कों पंडिता, यान कह सक नाहिं ॥६० सकल परिग्रह त्यागिवौ, सो मुनि मारग होय । किंचित मात्र जु राखिवौ, व्रत श्रावक को सोय ॥६१ व्याधि न तृष्णा सारखी, तृष्णा सी न उपाधि । नहिं सन्तोष समान है, कारण परम समाधि ॥६२ तृष्णा करि भव वन भ्रमै, तृष्णा त्यागें सन्त । गृह परिग्रह बन्धन गिनें, ते निर्वाण लहंत ॥६३ व्रत पांचमो इह कह्यो, सम सन्तोष स्वरूप । धन्य धन्य ते धीर हैं, त्याग लोभ विरूप ॥६४ जे सीझे ते लोभ हरि, और न मारग होय । मोह प्रकृति में लोभ सो, और न परवल कोय ॥६५ सर्व गणनि को शत्रु है, लोभ नाम बलवन्त । ताहि निवारें व्रत्त ए. करें कर्म को अन्त ।।६६ नमस्कार संतोष कों, जाहि प्रशंसे धीर । जाकी महिमा अगम है, जा सम और न बोर ॥६७ जानें श्री जिनराय जू , या व्रत के गुण जेह ।
और न पूरन ना लखै, गणधर आदि जिकेह ॥६८ हमसे अलपमती कहां, कैसें कहें बनाय । नमो नमों या व्रत्त कों, जो भव पार कराय ॥६९ सन्तोषी जीवानिकों, बार-बार परणाम । जिन पायौ संतोष धन, सर्व सुखनि को धाम ।७० नहिं सन्तोष समान गुरु, धन नहिं या सम और । निर विकलप नहिं या समा, इह सबको सिरमौर ॥७१
इति पंचम व्रत निरूपण।
दया सत्य असतेय अर, ब्रह्मचर्य सन्तोष । इन पांचनिकों कर प्रणति, छ?म व्रत निरदोष ॥७२ भाषों दिसि परिमाण शुभ, लोभ नासिवे काज | जोवदयाके कारणों, उर धरि श्री जिनराज ॥७३ द्वादश ब्रत में पंच ब्रत, सप्त शील परवानि । सप्त शील में तीन गुण, चउ शिक्षा ब्रत जानि ।।७४ जैसे कोट जु नगरके, रक्षा कारण होय । तैसें ब्रत रक्षा निमित, शीत सप्त ये जोय ।।७५ वरत शील धारें सुधी, ते पावें सुखराशि । कहें व्रत अब शील के, भेद कहां परकाशि ।।७६
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष पहलो गुणवत, गुणमई, छट्ठा व्रत सो जानि । दसों दिशा परमाण करि, श्रीजिन आज्ञा मानि ॥७७ तीन गुणव्रत में प्रथम, दिग्व्रत कह्यो जिनेश । ताहि धरे श्रावक व्रती, त्यागें दोष असेस ।।७८ लोभादिक नाशन निमित, परिग्रहको परिमाण । कीयौ तैसें ही करी, दिशि परमाण सुजाण ।।७९
बेसरी छन्द पूरव आदि दिशा चउ जानों, ईशानादि विदिशि चउ मानों। अध ऊरध मिलि दस दिशि होई, करै प्रमाण व्रती है सोई ॥८० शीलवान व्रत धारक भाई, जाके दरशनतें अघ जाई। या दिशिकों एतोही जाऊँ, आगे कबहुं न पाँव धराऊँ ॥८१ या विधिसों जु दिशाको नेमा, करै सुबुद्धि धरि व्रतसों प्रेमा। मरजादा न उलंघे जोई, दिग्वत धारक कहिये सोई ।।८२ दसों दिशा की संख्या धारे, जिती दूरलौ गमन विचारै। आगै गये लाभ है भारी, तो पनि जाय न दिग्व्रत धारी ।।८३ संतोषी समभावी होई, धनकू गिनै धरि-सम सोई। गमनागमन तज्यो बहु जाने, दया धर्म धार्यों उर तानै ॥८४ लगै न हिंसा तिनको अधिकी, त्यागी जिन तृष्णा धन निधिकी। कारण हेत चालनो परई, तो प्रमाण माफिक पग धरई ॥८५ मेरु डिगै परि पैंड न एका, जाय सुबुद्धी परम विवेका। व्रत करि नाश करै अघ कर्मा, प्रगटै परम सरावक धर्मा ।।८६ बिना प्रतिज्ञा फल नहिं कोई, रहै बात परगट अवलौई। अतोचार पाँचों तजि बीरा, छट्ठो व्रत धारौ चित धीरा ।।८७ पहली करघ व्यतिक्रम होई, ताको त्याग करो श्रुति जोई। गिरि परि अथवा मन्दिर परि, चढनो परई करध भूपरि ॥८८ ऊरध की संख्या है जेती, ऊंची भूमि चढे बुध तेती। आगें चढिवो कौं जो भावा, अतीचार पहलो सु कहावा ।।८९ दूजो अध-व्यतिक्रम तजि मित्रा, जा तजिये व्रत होइ पवित्रा। वापी कूप खानि अर खाई, नीची भूमि माहिं उतराई ॥९० तौ परमाण उलंघि न उतरी, अधिकी भू उतरीं व्रत खतरौ। अधिक उतरने को जो भावा, अतीचार दूजो सु कहावा ॥९१ तीजो तिर्यग व्यतिक्रम त्यागौ, तब छट्टे व्रत माहीं लागो। अष्ट दिशा जे दिशि विदिशिा हैं, तिरछे गमने माहिं गिना हैं ॥९२ बहुरि सुरंगादिक में जावी, सोऊ तिरछे गमन गिनावी। चउदिशि चउविदिशा परमाणा, ताको नाहिं उलंघ बखाणा ॥९३
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श्रावकाचार-संग्रह जो अधिक जावेको भावा, मतीचार तीजो सु कहावा । चौथो क्षेत्रवृद्धि है दूषन, ताको त्याग करें व्रत भूषन ॥९४ जेती दूर जानका नेमा सो स्वक्षेत्र भार्षे श्रुति-प्रेमा। जो स्वक्षेत्रतें बाहिर ठौरा, सो परक्षेत्र कहावे औरा ॥९५ जो परक्षेत्र थको इह संधा, राखै सठमति हिरदे अंधा। ह्वातें क्रय विक्रय जो राखे, क्षेत्रवृद्धि दूषण गुरु भाखें ।।९६ पंचम अतीचारकों नामा, स्मृत्यंतर भासें श्रीरामा। ताको अर्थ सुनों मनलाई, करि परमाण भूलि जो जाई ॥९७ जानत और अजानत मूढ़ा, सो नहिं होई व्रत आरूढ़ा। ए पांचू दोषा जे ठारें, ते ब्रत निर्मल निश्चल धारें ॥९८ श्री कहिये निजज्ञान विभूती, शुद्ध चेतना निज अनुभूती । केवल सत्ता शुद्ध स्वभावा, आतमपरिणति-रहित विभावा ।।९९ ता परिणतिसों रमिया जोई, कर्म-रहित श्रीराम जु होई । तिनकी आज्ञारूप जु धर्मा, धारे ते नाशें सब भर्मा ।।८०० अब सुनि व्रत सातमों भाई, जो दूजो गुणव्रत कहाई । दिशा तणों कीयो परिमाणा, तामें देश प्रमाण बखाणा ॥१ देश नगर अर गाँव इत्यादी, अथवा पाटक हाट जु आदी। पाटक कहिये अर्ध जु ग्रामा, करै प्रमाण ब्रती गुण-धामा ॥२ जिन देशनि में धर्म ज नाहीं, जाय नहीं तिन देशनि माहीं। जब वह बहु देशनितें छूटे, तब यासों अति लोभ जु टूटे ॥३ बहु हिंसा आरंभ निवा, जीवदया मन माहिं प्रवा। दिश अरु देशनिको जु प्रमाणा, लोभ नाशने निमित्त बखाना ॥४ जिनवर मुनिवर अर जिन धामा, जिनप्रतिमा अर तीरथ ठामा । यात्राकाज गमन निरदोष, द्वीप अढाई लौं व्रत पोसा ।।५ अतीचार पाँचों तजि धीरा, जाकरि देश ब्रत ब धीरा । चित पसरन-रोकन के कारन, मन वच तन मरजादा धारन ॥६ कबहूं नाहिं उलंघि सु जाई, अर बातें आसा न धराई।। प्रेष्य नाम है सेवक को जी, ताहि पठावौ जो अधिको जी ॥७ वस्तु भेजिवो लोभ निमित्ता, प्रेष्य प्रयोग दोप है मित्ता। तातें जेतो देश जु राख्यौ, मृत्य भेजिवौ हां तक भाख्यौ ॥८ आगे वस्तु पठेवी नाहीं, इह बातें धागै उर माहीं। दूजो दोष आनयन त्यागे, तब हि ब्रत विधानहि लागै ॥९ परक्षत्र जु तें वस्तु मँगावै सा गुणब्रतको दूपण लावै। जो परमाण बाहिरा ठौरा, सो परक्षेत्र कहे वृषमौरा ॥१० तीजो दोष शब्दविनिपाता, ताको भेद सुनों तुम भ्राता। जाय नहीं परि शब्द सुनावै, सो निरदूषण ब्रत्त न पावै ॥११
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
चौथा दूषण रूपनिपाता, रूप दिखावण जोगि न बाता । पंचम पुद्गलक्षेप कहावै, कंकर आदिक जोहि बगावै ॥१२
भावार्थ - दिशा और देशको जावजीव नियम कियो छे, ताहूमें वर्ष छमासी दुमासी मासी पाखी नेम धार्यो छे, ती में भी निति नेम करे छे । सो निति नेम मरजादामें क्षेत्र निपट थोड़ा राख्यो सो गमन तो मरजादा बाहिर क्षेत्रमें न करै । परि हेलो मारि सवद सुनावै, अथवा जिह तरफ जिह प्रानीसों प्रयोजन होय तिह तरफ झांकि झरौकादिक में बंठि करि सिंह प्राणीनें आपनो रूप दिखाय प्रयोजन जणावें, अथवा कंकर इत्यादि बगाय पैलाने मतलब जताव सो अतीचार लगाय व्रतने मलीन करै ।
बेसरी छन्द
अब सुनि वरत आठमो भाई, तीजौ गुणव्रत अति सुखदाई । अनरथदण्ड पापको त्यागा, यह व्रत धारें ते बड़भागा ॥ १३ पंच भेद हैं अनरथदोषा, महापापके जानहु पोषा । पहला दुर्ध्यान जु दुखदाई, ताको भेद सुनों मन लाई ||१४ पर औगुण गहना उरमाहीं, परलक्ष्मी अभिलाष धराहीं । परनारी अवलोकन इच्छा, इन दोषनितें सुधी अनिच्छा ॥१५ कलह करावन करन जु चाहै, बहुरि अहेरा करन उमाहे । हारि जीति चितवे काहूका, करै नहीं भक्ति जु साहूकी ||१६ चौर्यादिक चितवे मनमाहीं, सो दुरगति पावे शक नाहीं । दूजौ पापतनों उपदेशा, सो अनरथ तजि भजौ जिनेशा ॥१७ कृषि पशु धन्धा वणिज इत्यादी, पुरुष नारि संजोग करा दी । मंत्र यंत्र तन्त्रादिक सर्वा, तजी पापकर वचन सगर्वा ॥१८ सिंगारादिक लिखन लिखावन, राज-काज उपदेश बतावन । सिलपि करम आदिक उपदेशा, तजो पाप कारिज आदेशा ॥ १९ तजहू अनरथ विफला चर्या, सो त्यागौ श्री गुरुने बर्ज्या । भूमि खनन अरु पानी ढारन, अगनि-प्रजालन पवन - विलोरन ॥२० वनस्पती छेदन जो करनों, सो विफला चर्याकों धरनों । हरित तृणांकुर दल फल फूला, इनको छेदन अघको मूला ॥२१ अब सुनि चौथी अनरथदण्डा, जा करि पावौ कुगति प्रचण्डा । हिंसादान नाम है जाको, त्याग करो तुम बुधजन ताको ॥२२ दयादान करिवा जु निरन्तर, इह बार्ता धारी उर अन्तर । छुरो कटारी खडगरु भाला, जूती आदिक देहि न लाला ॥२३ विष नहि देवा अर्गानि न देनी, हल फाल्यादिक दे नहि जैनी । धनुष बान नहि देनों काकों, जो दे अघ लागे अति ताकों ॥ २४ हिंसाकारक जेती वस्तु, सो देवी तो नाहिँ प्रसस्तु । वध बन्धन छेदन उपकरणा, तिनको दान दयाको हरणा ||२५
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श्रावकाचार-संग्रह पापवस्तु मांगी नहिं देवे, जो देवे सो शुभ नहिं लेवै । जामें जीवनिको उपकारी, सो देवो सबको हितकारी ॥२६ अन्न वस्त्र जलाऔषध आदी, देवौ श्रुतमें कह्यौ अनादी । दान समान न आन जु कोई, दयादान सबके सिर होई ॥२७ मंजारादिक दुष्ट सुभावा, मांस अहारी मलिन कुभावा । तिनको धारन कबहु न करनों, जीवनिकी हिंसातें डरनों ।।२८ नखिया पखिया हिंसक जेही, धर्मवन्त पाल नहिं तेही । आयुधको व्यापार न कोई, जाकर जीवनिको बध होई ॥२९ सीसा लौह लाख साबुन ए, बनिज जाग नहिं अधकारन ए। जेती वस्तू सदोष बताई, तिनको बनिज त्यागवौ भाई ॥३० धान पान मिष्टादि रसादिक, लवण हींग घृत तेल इत्यादिक । दल फल तृण पहपादिक कंदा, मधु मादिक बिणिजे मतिमन्दा ॥३१ अतर फुलेल सुगन्ध समस्ता, इनको बिणज न होइ प्रशस्ता । तथा अजोग्य मोम हरतारें, हिंसाकारन उद्यम टारै ।।३२ बध बन्धनके कारिज जेते, त्यागह पाप बिणज तुम तेते । पशु पंखी नर नारी भाई, इनके विणज महा दुखदाई ।।३३ काष्ठादिकको विणज न करै, धर्म अहिंसा उरमें धरै । ए सब कुबिणज छांडै जोई, धरम सरावक धारै सोई ।।३४ मूलगुणनिमें निंदै एई, अष्टम व्रतमें निंदे तेई । बार-बार यह बिणज जु निद्या, इनकू त्यागें ते नर वंद्या ॥३५ सुवरण रूपा रतन प्रसस्ता, रूई कपरा आदि सुवस्ता। बिणज करै तो ए करि मित्रा, सबै तजौ अति ही अपवित्रा ॥३६ सुनो पांचवों और अनर्था, जे शठ सुनहि मिथ्यामत अर्था । इह कुसूत्र सुणवौ अघ मोटा, और पाप सब यातें छोटा ॥३७ पाप सकल उपजें या सेता, उपजै कुबुधि जगतमें तेती। भंडिम बात सुनों मति भाई, वशीकरण आदिक दुखदाई ।।३८ बशीकरण मनको करि संता, मन जीत्यौ है ज्ञान अनन्ता । कामकथा सुनिवौ नहिं कबहू, भूलै घनें चेत परि अबहू ॥३९ परनिंदा सुनियां अति पापा, निंदक लहै नरक सन्तापा। कबहुं न करिवौ गग अलापा, दोष त्यागिवौ होय निपापा ॥४० विकथा करिवो जोगि न बीरा, धर्मकथा सुनिवौ शुभ धीरा । आलवाल बकिवौ नहिं जोग्या, गालि काढिवौ महा अजोग्या ।।४१ बिना जैनवानी सुखदानी, और चित्त धग्विौ नहिं प्रानी । केवलिश्रुत केवलिकी आणा, ताको लागै परम सुजाणा ॥४२ ते पावे निर्वाण मुनीशा, अजरा होवें जोगीशा।। सीख श्रवण रचना कुकथाको, नहीं कगै जु कदापि वृथाकौ ॥४३
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दौलतरामात क्रियाकोष
जीवदयामय जिनवर-पन्या, धारै श्रावक बर-निरग्रन्था। काम क्रोष मद छल लोभादी, टारे जैनी जन रागादी ॥४४ आगम अध्यातम जिन बानी, जाहि निरूपें केवलज्ञानी। ताकी श्रद्धा दृढ़ धरि धीरा, करणगोचरी कर वर वीरा ॥४५ जाकरि छूटे सर्व अनर्धा, लहिये केवल आतम अर्था । धर्म धारणा धारि अखण्डा, तजी सर्व ही अनरथदण्डा ॥४६ इन पंचनिके भेद अनेका, त्यागी सूबधी धारि विवेका। बड़ो अनर्थदण्ड है जूवो, या सर्व पाप महिं डूबौ ॥४७ या सम और न अनरथ कोई, सकल वरतको नाशक होई । द्यूत कर्म के विसन न लागे, तब सब पाप पन्थतें भागे ॥४८ द्यूत कर्ममें माहिं बड़ाई, जाकरि बूड़े भवमें भाई। अनरथ तजिवो अष्टम व्रत्ता, तीजो गुणवत्त पाप निवृत्ता ॥४९ ताके अतीचार तजि पंचा, तिन तजियां अघ रहे न रंचा। पहलो अतीचार कन्दर्पा, ताको भेद सुनों तजि दर्पा ॥५० कामोद्दीपक कुकथा जोई, ताहि तजे बुधजन है सोई । कौतकुच्य है दोष द्वितीया, ताको त्याग व्रतिनिनें कीया ॥५१ बदन मोरिवी बांको करिवौ, भौंह नचैवो मच्छर धरिवी । नयनादिकको जो हि चलावी, विषयादिकमें मन भटकावी ॥५२ इत्यादिक जे भंडिम बातें, तजी व्रती जे सुव्रत धातें। कौतकुच्यको अर्थ बखानो, पुनि सुनि तीजा दोष प्रवानों ॥५३ भोगानर्थक है अति पापा. जारि पइये दर्गति तापा। ताकों सदा सर्वदा त्यागौ. श्री जिनवरके मारग लागौ ॥५४ बहुत मोल दे भोगुपभोगा, सेवै सो पावे दुख रोगा। भोगुपभोग-थकी यह प्रीतो, सो जानों अधिकी विपरीती ॥५५ बहुरि भूखतें अधिकों भोजन, जल पीवी जो विनहि प्रयोजन । शक्ति नहीं अह नारी सेवौ, करि उपाय मैथुन उपजेवो ॥५६ वृथा फूल फल पानादिक जे, बाधा करै लहें शठ अघ जे । इत्यादिक जे भोगै अर्था, जो सेवौं सो लहै अनर्था ॥५७ है मौखर्य चतुर्था दोषा, ताहि तजे श्रावक व्रत-पोषा । जो बाचालपनाको भावा, सो मौखर्य कहें मुनिरावा ।।५८ बिना बिचार्यो अधिको बकिबी, झूठे वाग्-जालमें छकिवी। असमीक्षित अधिकरण जु बीरा, अतीचार पंचम तजि धीरा ॥५९ विन देख्यो विन पूछ्यो कोई, घड़ी मुसल उखली जोई। कछु भी उपकरणा बिन देख्या, बिन पूड्यां गृहिवौ न असेखा ॥६० तब हिंसा टरिहै परवीना, हिंसा-तुल्य अनर्थ न लीना। ए सब अष्टम व्रत के दोषा, करै जु पापी व्रतकों सोखा ॥६१
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श्रावकाचार-संग्रह इन तजिसी व्रत निर्मल होई, तातें तजे धन्य हैं सोई। गुणव्रत काहेतें जु कहाये, ताको अर्थ सुनों मनलाये ॥६२ पंच अणुव्रतकों गुणकारी, तातें गुणवत नाम जु धारी। जैसें नगर-तने है कोटा, तैसें व्रत-रक्षक ए मोटा ॥६३ क्षेत्रनि होय बाडि जो जैसे, पंचनिके ए तीनं तैसें।। अब सनि चउ शिक्षाव्रत मित्रा. जिन करि होवें अष्ट पवित्रा ॥६४ अष्टनिकों शिक्षा-दायक ए, ज्ञानमूल तप व्रत नायक ए। नवमो व्रत पहिलो शिक्षाव्रत, चित्त धीर धर धारहु अणुव्रत ॥६५ सामायिक है नाम जु ताको, धारन करत सुधीजन याका । सामायिक शिवदायक होई, या सम नाहि क्रिया निधि कोई ॥६६
दोहा प्रथम हि सातों शुद्धता, भासों श्रुत अनुसार । जिन करि सामायिक विमल, होय महा अविकार ॥६७ क्षेत्र काल आसन विनय, मन वच काय गनेह । सामायिककी शुद्धता, सात चित्त धरि लेहु ॥६८ जहां शब्द कलकल नहीं, बहु जनको न मिलाप । दंसादिक प्राणी नहीं, ता क्षेत्रे करि जाप ॥६९ क्षेत्र-शुद्धता इह कही, अब सुनि काल-विशुद्धि । प्रात दुपहरां सांझकों, करै सदा सद्बुद्धि ॥७० षट षट घटिका जो करें, सो उतकृष्टी रीति। चउ चउ घटिका मध्य है, करै शुद्धि धरि प्रीति ॥७१ द्व द्वै घटिका जघनि है, जेती थिरता होइ। तेती बेला योग्य है, या सम और न होइ ।।७२ धरै सुधी एकाग्रता, मन लावै जिन-माहिं । यहै शुद्धता कालको, समय उलंघे नाहिं ।।७३ तीजी आसन-शुद्धता, ताको सुनहु विचार । पल्यंकासन धारिकै, ध्यावै त्रिभुवन सारि ||७४ अथवा कायोत्सर्ग करि, सामायिक करतव्य । तजि इंद्रिय-व्यापार सहु, कै निश्चल जन भव्य ॥७५ विनय-शुद्धता है भया, चौथी जिनश्रुति माहिं । जिनवचनें एकाग्रता, और विकल्पा नाहिं ॥७६ हाथ जोड़ि आधीन है, शिर नवाय दे ढोक । तन मन करि दासा भयो, सुमरै प्रभु तजि शोक ।।७७ विनय समान न धर्म कोउ, सामायिकको मूल । अब सुन मनकी शुद्धता, द्वै व्रतसों अनुकूल ।।७८
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
मन लावे जिन रूपसों, अथवा जिन-पद माहिं । सो मन-शुद्धि पंचमो, यामें संशय नाहि ॥७९ छट्ठी वचन-विशुद्धता, बिन सामायिक और । वचन कदापि न बोलिये, यह भाषें जगमौर ॥८० काय - शुद्धता सातमी, ताको सुनहु विचार । काय - कुचेष्टा नहि करे, हस्त-पदादिक सार ॥८१ क्षेत्र - प्रमाण कियो जितौ, तजे पापके जोग । मुनि सम निश्चल होयके, करै जाप भविलोक ॥८२ राग द्वेष के त्यागतें, समता सब परि होइ । ममताको परिहार जो, सामायिक है सोइ ||८३ सामायिक अनिशि करें, ते पावें भव- पार । सामायिक सम दूसरो, और न जगमें सार ॥८४ राति दिवस करनों उचित, बहु थिरता नहि होय ।
त्रिकाल नटारिवौ, यह धारै बुध सोय ॥८५ जो सामायिकके समय, थिरता गहै सुजान । अणुव्रत धारै सो सुधी, तो पनि साधु समान ॥८६
चाल छन्द
सामायिक सोनहि मित्रा, दूजो व्रत सोई पवित्रा । गृहपतिको जतिपति तुल्या, करई इह व्रत जु अतुल्या ॥८७ तसु अतीचार तजि पंचा, जब होइ सामायिक संचा । मन वच तन दुःप्राणिधाना, तिनको सुनि भेद बखाना ॥८८ जो पाप काज चितवना, सो मनको दूषण गिनना । पुनि पाप वचनको कहिवौ, सो वचन व्यतिक्रम लहिवी ॥८९ सामायिक समये भाई, जो कर चरणादि चलाई ।
सो तनको दोष बतायो, सतगुरु ने ज्ञान दिखायो ॥९० चौथो जु अनादर नामा, है अतीचार अघ धामा । आदर नहिं सामायिकको, निश्चय नहि जिन - नायकको ॥ ९१ समरण अनुपस्थाना है, इह पंचम दोष गिना है । ताको सुनि अर्थं विचारा, सुमरणमें भूलि प्रचारा ॥९२ नहि पूरो पाठ पढे जो, परिपूरण नाहिं जपै जो । कछुको कछु बोलै बाल, सो सामायिक नहि काल ॥ ९३ ए पंच अतीचारा हैं, सामायिक में टारा हैं । समता सब जीवन सेती, संयम शुभ भावनि लेती ॥९४ आरति अरु रोद्र जु त्यागा, सो सामायिक बड़भागा । सामायिक धारों भाई, जाकरि भव-पार लहाई ।। ९५
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श्रावकाचार-संग्रह
बेसरी छन्द क्षमा करौ हमसों सब जीवा, सबसों हमरी क्षमा सदोवा । सर्व भूत हैं मित्र हमारे, वैर-भाव सबहीसों टारे ॥९६ सदा अकेलो में अविनाशी, ज्ञान-सुदर्शनरूप प्रकाशी। और सकल हैं जो परभावा, ते सब मोतें भिन्न लखावा ॥९७ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अखंडा, गुण अनन्तरूपी परचंडा । कर्मबन्धते रुलै अनादि, भटको भव-वन माहिं जु वादि ॥९८ जब देखे अपनों निजरूपा, तब होवो निर्वाण-सरूपा । या संसार असार मंझारे, एक न सुखकी ठौर करारे ।।९९ यहै भावना नित भावंतो, लहें आपनों भाव अनंतो। अब सूनि पोसहको विधि भाई, जो दसमो व्रत है सुखदाई ॥९०० दूजा शिक्षाव्रत अति उत्तम, याहि धरें तेई जु नरोत्तम । न्हावन लेपन भूषन नारो,-संगति गंध धूप नहिं कारी ॥१ दीपादिक उद्योत न होई, जानहु पोसहकी विधि सोई । एक मासमें चउ उपवासा, द्वे अष्टामि द्वै चउदसि भासा ॥२ षोड़श पहर धारनो पोसा, विधि पर्वके निर्मल निर्दोषा। सामायिकको सो जु अवस्था, षोडश पहर धारनी स्वस्था ॥३ पोसह करि निश्चल सामायिक, होवै यह भासे जगनायक । पोसह सामायिकको जोई, पोसह नाम कहावै सोई ।।४ जे शठ चउ उपवास न धारें, ते पशु-तुल्य मनुष-भव हारें। बहुत करे तो बहुत भला है, पोसा तुल्य न और कला है ॥५ चउ टारै चउगतिके माहीं, भरमें यामें संशय नाहीं।
उपवासा पखवारेमें, इह आज्ञा जिनमत भारेमें ।।६ व्रतकी रीति सुनों मन लाये, जाकरि चेतन तत्त्व लखाये। सप्तमि तेरसि धारन धारै, करि जिनपूजा पातक टारै ॥७ एकभुक्ति करि दो पहरातें, तजि आरम्भ रहै एकांते । नहिं ममता देहादिक सेती, धरि समता बहु गुणहि समेती ।।८ चउ अहार चउ विकथा टार, चउ कषाय तजि समता धारै। धरमो ध्यानारूढमती सो, जगत उदास शुद्धवरती सो ॥९ स्त्री पशु षंढ बालकी संगति, तजि करि उरमें धारै सन्मति । जिनमन्दिर अथवा वन उपवन, तथा मसानभूमिमें इक तन ॥१० अथवा और ठौर एकान्ता, भजे एक चिद्रूप महंता । सर्व पाप जोगनितें न्यारा, सर्व भोग तजि पोसह धारा ।।११ मन वच काय गुप्ति धरि ज्ञानी, परमातम सुमरे निरमानो। या विधि धारण दिन करि पूरा, संध्या करै साँझकी सूरा ॥१२
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दौलतरम्म-कृत क्रियाकोष सुचि संथारे रात्रि गुमावे, निद्राको लवलेश न आवे । के अपनों निजरूप चितारै, के जिनवर चरणा चित धारै ॥१३ कै जिनबिम्ब निरखई मनमें, भूल न ममता धरई तनमें। अथवा ओंकार अपारा, जपे निरन्तर धीरज धारा ॥१४ नमोकार ध्यावे वर मित्रा, भयो भर्मतें रहित स्वतन्त्रा। जग-विरक्त जिनमत आसक्तो, सकल-मित्र जिनपति अनुरक्तो॥१५ कर्म शुभाशुभको जु विपाका ताहि विचारै नाथ क्षमाका । निजकों जाने सवतें भिन्ना, गुण-गुणिकों माने जु अभिन्ना ।।१६ इम चितवनतें परम सुखी जो, भववासिन सो नाहिं दुखी जो। पंच परमपदको अति दासा, इन्द्रादिक पदतें हु उदासा ॥१७ रात्रि धारनाकी या विधिसों, पूरी कर भर्यो ब्रतनिधिसों। पुनि प्रभात संध्या करि वीरा, दिन उपवास ध्यान धरि धीरा ॥१८ पूरो करै धर्मसों जोई, संध्या कर सांझकों सोई। निशि उपवासतणी ब्रतधारी, पूरी करै ध्यानसों सारी ॥१९ करि प्रभात सामायिक सुबुधी, जाके घटमें रंच न कुबुधी, पारण दिवस करै जिनपूजा, प्रासुक द्रव्य और नहिं दूजा ॥२० अष्ट द्रव्य ले प्रासुक भाई, श्री जिनवरकी पूज रचाई। पात्र-दान करि दो पहरांजे, करै पारणू माप घरां जे ॥२१ ता दिन हू यह रीति बताई, ठौर अहार अल्प जल पाई। घारन पारन अर उपवासा, तीन दिवसलों बरत निवासा ॥२२ भमि-शयन शीलब्रत धार. मन वच तन करि तजैविकार। इह उतकृष्टी पोसह विधि है, या पोसह सम और न निधि है ॥२३ मध्य जु पोसह बारह पहरा, जपनि आठ पहरा गुण गहरा । अतीचार याके तजि पंचा, जाकरि छुटै सर्व प्रपंचा ॥२४ बिन देखी बिन पूंछे वस्तू, ताको प्रहिवौ नाहिं प्रशस्तू । ग्रहिवौ अतीचार पहलो है, ताको त्यागसु अति हि भलो है ॥२५ बिन देखे बिन पूछे भाई, संथारे नहिं शयन कराई। अतीचार छूटै तब दूजो, इह आज्ञा धरि जिनवर पूजो ॥२६ बिन देखो बिन पूछो जागा, मल मूत्रादि न कर बड़भागा। करिवी अतीचार है तीजो, सर्व पाप तजि पोसह लीजो ॥२७ पर्व दिनाको भूलन चौथो, अतीचार यह गुणतें चौथो। बहुरि अनादर पंचम दोषा पोसहको नहिं आदर पोषा ॥२८ ये पाँचो तजियां 8 पोषा, निरमल निश्चल अति निरदोषा। सामायिक पोषह जयवन्ता, जिनकर पइये श्रीभगवन्ता ॥२९ मुनि होनेको एहि अभ्यासा, इन सम और न कोइ अध्यासा । मुक्ति मुक्ति दायक ये ब्रता, धन्य धन्य जे करहिं प्रवृत्ता ॥३०
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श्रावकाचार-संग्रह अब सुनि ब्रत ग्यारमों मित्रा, तीजो शिक्षाबत पवित्रा। जे भोगोपभोग हैं जगके, ते सहु बटमारे जिनमगके ॥३१ त्याग राग हैं सकल विनासी, जो शठ इनको होय विलासी। सो रुलिहै भवसागर माही, यामें कछु संदेहा नाहीं ॥३२ एक अनंतो नित्य निजातम, रहित भोग उपभोग महातम । भोजन तांबूलादिक भोगा, वनिता वस्त्र आदि उपभोगा ३३ एक बार भोगनमें आगे, ते सहु भोगा नाम कहा। बार बार जे भोगे जाई, ते उपभोगा जानहु भाई ॥३४ भोगुपभोग तनों यह अर्था, इन सम और न कोइ अनर्था । भोगुपभोग तनों परमाणा, सो तीजो शिक्षावत जाणा ॥३५ छता भोग त्यागें बड़भागा, तिनके इन्द्राद्रिक पद लागा। अछताहू न तजें जे मूढ़ा, ते नहि होय ब्रत आरूढा ॥३६ करि प्रमाण आजन्म इनू का, बहुरि नित्य नियमादि तिनू का। गृहपतिके थावरको हिंसा, इन करि ह पुनि तज्या अहिंसा ॥३७ त्याग बराबर धर्म न कोई, हिंसाको नाशक यह होई। अंग विर्षे नहिं जिनके रंगा, तिनके कैसे होय अनंगा ||३८ मुख्य बारता त्याग जु भाई, त्याग समान न और बड़ाई । त्याग बनै नहिं तोहु प्रमाणा, तामें इह आज्ञा परवाणा ॥३९ भोग अजुक्त न करनें कोई, तजने मन वच तन करि सोई। जुक्त भोगको करि परिमाणा, ताहूमें नित नियम बखाणा ॥४० नियम करो जु घरी हि घरीको, त्याग करौ सबही जु हरीको । जे अनंतकाया दुखदाया, ते साधारण त्याग कराया ॥४१ पत्र जाति अर कन्द समूला, तजने फूलजाति अघ थूला। तजनें मद्य मांस नवनीता, सहत त्यागिवौ कहैं अजीता ॥४२ तजने कांजी आदि सबैही, अत्थाणा संघाण तजैही। तजने परदारादिक पापा, तजिवौ परधन पर संतापा ॥४३ इत्यादिक जे वस्तु विरुद्धा, तिनकों त्यागै सो प्रतिबुद्धा । सबही तजिवो महा अशुद्धा, अर जे भोगा हैं अविरुद्धा ।। ४४ भोग भावमें नाहिं भलाई, भोग त्यागि हूजे शिवराई । अपने गुण पर-जाय स्वरूपा, तिनमें राचै रहित विरूपा ॥४५ वस्त्राभरण व्याहिता नारी, खान पान निरदूषण कारी। इत्यादिक जे अविरुध भोगा, तिनहूको जाने ए रोगा ॥४६ जो न सर्वथा तजिया जाई नो परमाण करी बहु भाई । सर्व त्यागवों कहें विवेकी, गृहपति के कछु इक अविवेकी ॥४७ तो लगि भोगुपभोगहि अल्पा, विधिरूपा धारै अविकल्पा। मुनि के खान-पान इकवारा, सोहू दोष छियालिस टारा ।।४८
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
और न एको है जु बिकारा, तातें महाव्रती अणगारा । तजै भोग-उपभोग सबैही, मुनिवरका शुभ विरद फबेहो ॥४९ शक्ति प्रमाण गृही हू त्यागें, त्याग बिना व्रतमें नहिं लागे। राति दिवसके नेम विचारै, यम-नियमादि धरै अघ टारै ।।५० यम कहिये आजन्म जु त्यागा नियम नाम मरजादा लागा। यम नियमादि बिना नर देही, पसुहतें मूरख गनि एही ॥५१ खान पान दिनहीको करनों, रात्रि चतुर्विध हार हि तजनों । नारी सेवे रैनि विष ही, दिन में मैथुन नाहिं फबै ही ।।५२ निसि ही नितप्रति करनों नाही, त्याग विराग विवेक धराहीं । नियम माहिं करनों नित नेमा, सीम माहिं सीमाको प्रेमा ॥५३ करि प्रमाण भोगनिको भाई, इन्द्रिनको नहिं प्रबल कराई। जैसे फणिकू दूध जु प्यावौ, गुणकारी नहिं विष उपजावी ॥५४ जो तजि भोग भाव अधिकाई, अलप भोग सन्तोष धराई । सो बहुती हिंसातें छूटयौ, मोहवटें नहिं जाय जु लूटयौ ।।५५ दया भाव उपजौ घट ताके, भोगभावकी प्रीति न जाके । भोगुपभोग पापके मूला, इनकू सेवें ते भ्रम मूला ॥५६
दोहा हिंसाके कारण कहे, सर्व भोग उपभोग । इनको त्याग करै सुधी, दयावन्त भवि लोग ॥५७ सो श्रावक मुनि सारिखा, भोग अरुचि परणाम । समता धरि सब जीव परि, जिनके क्रोध न काम ॥९८ भोगुपभोग प्रमाण सम, नहीं दूसरो और । तृष्णाको क्षयकार जो, है ब्रत्तनि सिरमौर ॥५९ अतीचार या वृत्तको, तजो पंच दुखदाय । तिन तजियां व्रत्त बिमल है, लहिये श्री जिनराय ॥६० नियम कियौ जु सचित्तको, भूलिर करै अहार । सो पहलो दूषण भयो, तजि हूजे अविकार ॥६१ प्रासुक वस्तु सचित्त सों, मिश्रित कबहूँ होय। उष्ण जले ज सीतल उदक, मिल्यो न लेव होय ॥६२ गृहें दोष दूजो लगे, अब सुनि तीजो दोष । जो सचित्त सम्बन्ध है, तजो पापको पौष ॥६३ पातल दूनां आदि जे, वस्तु सचित्त अनेक । तिनसों ढक्यौ अहार जो, जीमें सो अविवेक ॥६४ सुनि चौथो दूषण सुधी, नाम जु अभिषव जास । याको अर्थ अयोग्य है, ते न भखै जिनदास ॥६५
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श्रावकाचार-संग्रह
अथवा काम-उद्दीपका, भोजन अति हि अजोगि । ते कबहूँ करनें नहीं, बरजें देव अरोगि ||६६ बहुरि तजी बुध पंचमों, अतीचार अघरूप । दुःपक्व आहार जो अव्रतको जु स्वरूप ॥६७ अति दुर्जर आहार जो, वस्तु गरिष्ठ सु होय । नहीं योग्य जिनवर कहें, तजें धन्य हैं सोय ॥ ६८ कछु क्यो कछु अपक हो, दुखसों पचे जु कोय । सोनहि लेबो व्रतनिकों, यह जिन आज्ञा होय ॥६९ अतीचार पाँचौ तज्या, व्रत निर्मल हृ' वीर । निर्मल व्रत प्रभाव, लहै ज्ञान गम्भीर ॥७०
चाल छन्द
घरि वरत बारमो मित्रा, जो अतिथि-विभाग पवित्रा । इह चौथो शिक्षाबत्ता, जे याकों करें प्रवृत्ता ॥७१ पावें सुर शिव भूती, वा भोगभूमि परसूती । सुनि या ब्रतको विधि भाई, जा विधि जिनसूत्र बताई ॥७२ त्रिबिधा हि सुपात्रा जगमें, जगको नौका जिन-मगमें। महाव्रत अणुव्रत समदृष्टी, जिनके घट अमृतवृष्टि ॥७३ तिनकों नवधा भक्ती तें, श्रद्धादि गुणनि जुक्ती तें । देवी चउदान सदा जो, सो है व्रत द्वादशमो जो ॥७४ चउ दान सबों में सारा, इनसे नहि दान अपारा । भोजन औषध अरु ज्ञाना, पुनि दान अभय परवाना ।।७५ भोजन दानहिं धन पावे, औषधि करि रोग न आवे । श्रुत-दान बोध जु लहाई, इह आज्ञा श्रीजिन गाई || ७६ अभया है अभय प्रदाता, भाषें प्रभु केवल ज्ञाता । इक भोजन दानें माहीं, चउ दान सधैं शक नाहीं ॥७७ नहि भूख समान न व्याधी, भव माहीं बड़ी उपाधी । तातें भोजन सों अन्या, नहि दूजी औषध धन्या ॥७८ पुनि भोजन-बल करि साधू, करई जिन-सूत्र अराधू | भोजनतें प्राण अधारा, भोजनतें थिरता धारा ॥७९ तातें चउदान सधे हैं, दानें करि पुण्य बंधे हैं । सो सहु बांछा तजि ज्ञानी, होवे दानी गुण-खानी ॥८० इह भव पर भवको भोगा, चाहें नहि जानहि रोगा । दे भक्ती करि सुपात्रनिकों, निजरूप ज्ञानमात्रनिकों ॥ ८१ सिंह रतनत्रयमें संघो, थाप्यो चउविधिको नर संघो । सो पावे भुक्ति विमुक्ती, इह केवलि भाषित उक्ती ॥८२
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष नहिं दान समान जु कोई, सब व्रतको मूल जु कोई । यामें भविजन चित धारो, संसारपार जो चाहो ॥८३ जो भाषे त्रिविधा पात्रा, तिनिमें मुनि उत्तम पात्रा। हैं मध्यम पात्र अणुव्रती, समद्दष्टो जघन्य अवत्ती ।।८४ इन तीननिके नव भेदा, भाषे गुरु पाप-उछेदा । उत्तममें तीन प्रकारा, उतकृष्ट मध्य लघु धारा ॥८५ उत्तम तीर्थकर साधू, मध्य सु गणधर आराधू । तिनतें लघु मुनिवर सर्वे, जे तप व्रतसूं नहिं गर्वे ॥८६ ए त्रिविध उत्तमा पात्रा, तप संजम शील सुमात्रा । तिनकी करि भक्ति सु वीरा, उतरै जा करि भव-नीरा ॥८७ मुनिवर होवै निरग्रंथा, चालै जिनवरके पंथा। जे विरकत भव-भोगनितें, राग न द्वष न लोगनितें ॥८८ विश्राम आपमें पायौ, काहूमें चित्त न लायो । रहनों नहिं एकै ठौरा, करनों नहिं कारिज औरा ॥८९ धरनूं निज-आतम-ध्यान, हरनूं रागादि अज्ञान । नहिं मुनिसे जगमें कोई. उतरें भव-सागर सोई ।।९०
वोहा मोह कर्मकी प्रकृति सहु, होय जु अट्ठाईस । तिनमें पन्द्रह उपशमें, तब होवे जोगीस ॥९१ पन्द्रा रोकें मुनिव्रतें, ग्यारा अणुव्रति रोध । सात जु रोक पापिनी, सम्यग्दरसन बोध ।।९२ क्रोध मान छल लोभ ए, जीवोंकों दुखदाय । सो चंडाल जु चौकरी, वरजें श्रीजिनराय ॥९३ अनंतानुबन्धी प्रथम, द्वितीय अप्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान जु तीसरी, अर चौथी संजुलान ॥९४ तिनमें तीन जु चौकरी, अर तीन मिथ्यात। ए पंदरा प्रकृत्तियां, तजि व्रत होइ विख्यात ॥९५ पहली दूजी चौकरी, बहुरि मिथ्यात जु तीन । ए ग्यारां प्रकृती गया, श्रावकव्रत लवलीन ॥९६ प्रथम चौकरी दूरि है, टरै तीन मिथ्यात । ए सातों प्रकृति टयां उपजे समकित भ्रात ॥९७ तीन चौकरी मुनिव्रतें, वे अणुवत विधान । पहली रोकें समकिती, चौथी केवलज्ञान ॥९८ तीन मिथ्यात हा महा, मुनिव्रत अर अणुव्रत। अव्रत सम्यककू हतें, करहिं अधर्म प्रवृत्त ।।९९
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श्रावकाचार-संग्रह प्रथम मिथ्यात अबोध अति, जहां न निज-परबोध । अघ अधर्म विचार नहि, तीव्र लोभ पर क्रोध ॥१००० दूजी मिश्र मिथ्यात है, कछु इक बोध प्रबोध । तीजी सम्यक प्रकृति जो, वेदक सम्यक बोध ॥१ कछु चंचल कछु मलिन जो, सर्वघाति नहिं होइ। तीन माहि इह शुभ तहूँ, वरजनीक है सोइ ॥२ ए मिथ्यात जु तीन विधि, कहे सूत्र अनुसार । सुनों चौकरी बात अब, चारि चारि परकार ॥३ क्रोध जु पाहन-रेख सो, पाहन-यंम जु मान। माया बांस जु जड़-समा, अति परपंच बखान ॥४ लोभ जु लाखा रंग सो, नरक-योनि दातार। भरमावै जु अनंत भव, प्रथम चौकरी भार ॥५ हलरेखा सम क्रोध है, अस्थि-थंभसम मान। माया मीढ़ा सींगसी, तिथि षट मास प्रमान ॥६ रंग आलके सारखो, लोभ पशुगति दाय । इह दूजी है चौकरी, अप्रत्याख्यान कहाय ॥७ रथरेखा सम क्रोध है, काठथंभ-सो मान । गोमूत्रकी जु वक्रता, ता सम माया जान ||८ लोभ कसूमा रंगसो, नरभव-दायक होय। दिन पंदरा लग वासना, तृतीय चौकरी सोइ ॥९ जलरेखा सो रोस है, बेंतलता सो मान । माया सुरभी चमरसी, लोभ पतंग समान ॥१० तथा हरिद्रारंग सो, सुरगति-दायक जेह । एक महरत वासना, अन्त चौकरी लेह ॥११ कही चौकरी चारि ये, च्यार हि गतिको मूल । चारि चौकरी परिहरै, करै करम निरमूल ||१२ मुनिने तीन जु परिहरी, धरी शांतता सार। चौथी हुको नाश करि, पावै भवजल पार ॥१३ सकल कर्मको प्रकृति सौ, अर ऊपरि अड़ताल । मुनिवर सर्व खपावहीं, जीवनिके रिछपाल ॥१४ मनिपद बिन नहिं मोक्ष पद, यह निश्चय उर-धारि । मुनिराजनिकी भक्ति करि, अपनों जन्म सुधारि ॥१५
मुनि हैं निर्भय वनवासी, एकान्त वास सुखरासी । निज ध्यानी आतमरामा, जगकी संगति नहि कामा ॥१६
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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
जे मुनि रहनेको थाना, बनमें कारहिं मतिवाना । ते पावें शिव सुर थाना, यह सूत्र प्रमाण वखाना ॥ १७ मुनि लेइ अहारइ मित्रा, लघु एक बार कर-पात्रा । जे मुनिकों भोजन देहीं, ते सुरपुर शिवपुर लेहीं ॥१८ जौ लग नहि केवलभावा, तो लग आहार धरावा । केवल उपजें न अहारा, भागें भव-दूषण सारा ॥१९ नहि भूख तृषादि सबै ही, जव केवल ज्ञान फबेही । केवल पायें जिनराजा, केवल पद ले मुनिराजा ॥२० मुनिकी सेवा सुखकारी, बड़भाग करें उरधारी । पुस्तक मुनिपै ले जावें, मुनि सूत्र अर्थ ते आवें ॥२१ ते पावें आतमज्ञाना, ज्ञानहि करि ह्न निरवाना | भेष भोजनमें युक्ता, मुनिकों लखि रोग प्रव्यक्ता ॥२२ देवें ते रोग नसावें, कर्मादिक फेरि न आवें । मुनि उपसर्ग निवारें, ते आतम भवदधि तारें ||२३ मुनिराज समान न दूजा, मुनि पद त्रिभुवन करि पूजा । मुनिराज त्रिवर्णा होणे, शूद्दर नहिं मुनिपद जोवै ॥२४ मुनि आर्या एल महा ए, ह्व े क्षत्री द्विज बणिजा ए । अव मध्यपात्रके भेदा, त्रिविधा सुनि पाप उछेदा ||२५ उतकृष्ट रु मध्य जघन्या, जिनसे नहिं जगमें अन्या । पहली पडिमासों लेई, छुट्टी तक श्रावक जेई ॥२६ मध्यनिमें जघन कहावे, गुरु धर्म देव उर लावे | जे पंचम ठाणें भाई, अणुवृत्ती नाम धराई ॥२७ पहली पड़िमा घर बुद्धा, सम्यक् दरसन गुण शुद्धा । त्यागे जे सातों बिसना, छांडें विषयनिकी तृष्णा ॥२८ जे अष्ट मूल गुण धारें, तजि अभख जीव न संघारें । दूजी पड़िमा धर धीरा, व्रतधारक कहिये वीरा ॥ २९ बारा व्रत पालै जोई, सेवे जिनमारग सोई । जे धारें पंच अणुव्रत, त्रय अणुव्रत चउ शिक्षाव्रत ||३०
चौपाई
तीजी पडिमा धरि मतिवंत, सामायिक में मुनिसे संत । पोसा में आरूढ़ विशाल, सो चौथी पडिमा प्रतिपाल ||३१ पंचम पडिमा धर नर धीर, त्याग सचित्त वस्तु वर वीर । पत्र फूल फल कूंपल आदि, छालि मूल अंकुर वीजादि ॥ ३२ मन वच तन कर नीली हरी, त्यागे उरमें दृढ़ व्रत धरो । जीवदयाको रूप निधान, षट कायाको पीहर जान ||३३
३२३
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श्रावकाचार-संग्रह पाल्यो जैन वचन जिन धीर, सर्व जीवकी मेटी पोर । छट्टी प्रतिमा धारक सोई, दिवस नारिको परस न होई ॥३४ रात्रि विर्षे अनसन व्रत धरै, चउ अहारकों है परिहरै। गमनागमन तजै निशि माहि. मन वच तन दिन शील धाराहिं ॥३५ ए पहलीसों छट्टी लगें, जघन्य श्रावकके व्रत जगें। पतिव्रता व्रतवन्ती नारी, मध्यम पात्र जघन्य विचारी ॥३६ श्रावक और श्राविका जेह, घरवारी व्रतचारी तेह । मध्यम पात्तर कहे जघन्य, इनकी सेव करे सो अन्य ॥३७ वस्त्राभरण अन्न जल आदि, थान मान औषध धानादि । देनें श्रुत सिद्धांत जु वीर, हरनी तिनकी सबही पीर ॥३८ अभय दान देवो गुणवान, करनी भगति कहें भगवान । भवजल के द्रोहण ए पात्र, पार उतारें दरसन मात्र ॥३९
दोहा सप्तम प्रतिमा धारका, ब्रह्मचर्य व्रत धार । नारीकों नागिनि गिनें, लख्यौ तत्त्व अविकार ॥४० मन वच तन करि शीलधर, कृत कारित अनुमोद । निज नारीहूकू तजै, पावै परम प्रमोद ॥४१ जेसे ग्यारम दशम नव, अष्टम पड़िमाधार । मन वच तन करि शील धरि, तैसे ए अविकार ॥४२ तिनतें एतो आंतरो, ते आरंभ वितीत । इनके अलपारंभ है, क्रोध लोभ छल जीत ४३ लख्यो आपनों तत्व जिन. नाहिं मायासों मोह । तजै राग दोषादि सब, काम क्रोध पर द्रोह ॥४४ कछ इक धनको लेस है, ताते घरमें वास । जे इनकी सेवा करें, ते पावे सुखरास ॥४५
चाल छन्द अब सुनि अष्टम पडिमा ए, त्रस थावर जीवदया ए। कछु हि धंधा नहिं करनों, आरंभ सबै परिहरनों ॥४६ भजनों जिनकों जगदीसा, तजनों जगजाल गरीसा। तनसों तहिं स्वामित धरनों, हिंसासों अतिही डरनों ॥४७ श्रावकके भोजन करई, नवमी सम चेष्टा धरई । नवमीतें एतो अंतर, ए हैं कछुयक परिग्रह-धर ॥४८ वन माहीं थोरो रहनों, शीतोष्ण जु थोरो सहनों । जे नवमी मडिमावंता, जगके त्यागी विकसंता ॥४९ जिन धातु मात्र सब नांखे, कपड़ा कछुयक ही राखे । श्रावकके भोजन भाई, नहिं माया मोह धराई ॥५०
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष आवै जु बुलायें जीवा, जिनको नहिं माया छीवा । है दशमीतें कछु नूना, परिकीय कर्म अघ चूना ॥५१ एतौ ही अन्तर उनतें, कबहुँक लौकिक बच जनतें। बोलें परि विरकतभावा, धनको नहिं लेश धरावा ॥५२ आतेको आरुकारा, जाते सो हल भल धारा। दसमीते अतिहि उदासा, नहिं लोकिक वचन प्रकाशा ॥५३ सप्तम अष्टम अर नवमा, ए मध्य सरावग पडिमा । मध्यनिमें मध्य ज पात्रा. व्रत शील ज्ञान गण गात्रा ॥५४ अथवा हो श्राविका शुद्धा, व्रत धारक शील प्रबृद्धा । जो ब्रह्मचारिणी बाला, आजनम शील गुण माला ॥५५ सो मध्यम पात्रा मध्या, जानों व्रस शौल अवध्या। अथवा निजपतिको त्यागै, सो ब्रह्मचर्य अनुरागै ॥५६ सो परम श्राविका भाई, मध्यनिमें मध्य कहाई । इनको जो देय अहारा, सो ह्व भवसागर पारा ॥५७
बोहा अन्न वस्त्र जल औषधी, पुस्तक उपकरणादि । थान ज्ञान दान जु करें, ते भव तिरें अनादि ।।५८ हरें सकल उपसर्ग जे, ते निरुपद्रव होंहिं। सुर-नर पति द्वै मोक्षमें, राजे अति सुखसों हि ॥५९
चालछन्द जो दशमी पडिमा धारा, श्रावक सु विवेकी चारा। जग धंधाको नहिं लेशा, नहिं धंधाको उपदेशा ॥६० वनमें हु रहै वर वोरा, ग्रामे हु रहै गुणधीरा। आवै श्रावक घरि जीवा, नहि कनकादिक कछु छींवा ॥६१ एकादशमीतें छोटे, परि और सकलतें मोटे । जिनवानी बिन नहिं बोलें, जे कितहूँ चित न डोलें ॥६२ मुनिवरके तुल्य महानर, दशमी एकादशमी धर । एकादशमी कै भेदा, एलिक छुल्लक अघछेदा ॥६३ इनसे नहिं श्रावक कोई, सबमें उत्तकृष्टे होई। त्यागी जिन जगत असारा, लाग्यो जिन रंग अपारा॥६४ पायो जिनराज सुधर्मा, छांड़े मिथ्यात अधर्मा। जिनके पंचम गुणठाणा, पूरणतारूप विधाना ॥६५ द्वय माहिं महंत जु ऐला, निश्चलता करि सुरशैला। जिनके परिग्रह कोपीना, अर कमण्डल पीछी तीना ॥६६
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श्रावकाचार-संग्रह
जिनशासनको अभ्यासा, भव-भोगनिसं जु उदासा। श्रावक के घर अविकारा, ले आप उदंड अहारा ॥६७ गुणवान साध सारीसा, लुचितकेसा बिन रीसा। ए ऐलि त्रिवर्णा होई, शूद्रा नहिं ऐलि जु कोई ॥६८ इनतें छुल्लक कछु छोटे, परि और सकलतें मोटे । इक खंडित कपरा राखे, तिनको छुल्लक जिन भाखें ॥६९ कमडलु पीछी कोपीना, इन बिन परिग्रह तजि दीना। जिनश्रुत-अभ्यास निरंतर, जान्यूं है निज पर अंतर ॥७० जे हैं जु उदंड विहारा, ले भाजनमाहिं अहारा। कातरिका केस करावै, ते छुल्लक नाम कहावै ॥७१ चारों हे वर्ण जु छुल्लक, राखें नहिं जगसूं तल्लुक । आनन्दो आतमरामा, सम्यग्दृष्टी अभिरामा ॥७२ ए द्वै है भेद बड़ भाई, ग्यारम पड़िमा जु कहाई । वन-माहिं रहैं वर वीरा, निरभय निरव्याकुल धीरा ॥७३ तिनकी करि सेव जु भाया, जो जीवनिकों सुखदाया। तिनके रहनेकों थाना, वनमें करने मतिवाना ||७४ भोजन भेषज जिनग्रन्था, इनकों दे सो निजपंथा। पावै अर दे उपकरणा, सो हरै जनम जर मरणा ॥७५ उपसर्ग उपद्रव टारे, ते निरभय थान निहारै । दसमी अर ग्यारस दोऊ, मध्यम उतकृष्टे होऊ ॥७६ अथवा आर्या व्रतधारी, अणुव्रतमें श्रेष्ठ अपारी । आर्या घर-बार जु त्यागै, श्रीजिनवरके मत लागै ॥७७ राखै इक बस्त्र हि मात्रा, तप करि है क्षीण जु गात्रा । कमडलु पीछी अर पोथी, ले भूति तजी सह थोथी ॥७८ थावर जंगम तनवाना, जानें सब आप समाना। जे मुनि कर-पात्र अहारा, सिर लोंच करें तप धारा ॥७९ तिनकी सो रीति जु धारै, जगसों ममता नहि कारै । द्विज क्षत्री बणिक कुला ही, द्वै आर्या अति विमला ही ॥८० अणुव्रत परि महाव्रत तुल्या, नारिनमें एहि अतुल्या । माता त्रिभुबनकी भाई, परमेसुरसों लवलाई ॥८१ आर्याकों वस्त्र जु भोजन, देनें भक्ती करि भो जन । पुस्तक औषधि उपकरणा, देने सहु पाप जु हरणा ॥८२ उपसर्ग हरै बुधिवाना, रहनेकों उत्तम थाना । देवे पुन अविनासी, लेवं अति आनंदरासी ।।८३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
दोहा
छं पड़िमा जानों जवनि, मध्य जु नवमी ताइ । दस एकादशमी उभय, उतकृष्टी कहवाइ ॥८४ पतिव्रता जो श्राविका, मध्यम माहिं जघन्य । ब्रह्मचारिणी मध्य है, आर्या उत्तम धन्य ॥८५ पंचम गुण ठाणें व्रती श्रावक मध्य जु पात्र | छठें सातवें ठाण मुनि, महापात्र गुणगान ॥ ८६ कहे मध्यके भेद त्रय, अर उत्तकिष्टे तीन । सुनों जघन्य जु पात्रके, तीन भेद गुणलीन ॥८७ चौथे गुणठाणे महा, क्षायिक सम्यकवन्त । सो उतकृष्टे जघनमें, भाषें श्रीभगवंत ॥८८ क्रोध मान छल लोभ खल, प्रथम चौकरी जानि । मिथ्या अर मिश्रहि तथा, सम्यक् प्रकृति पर वानि ॥८९ सात प्रकृति ए खय गई, रह्यो अलप संसार ।
जीवनमुक्त दशा धरं, सो क्षायिकसम धार ॥९० सातो जाके उपसमे, रमें आपमें धीर । सो उपसम- सम्यक धनी, जघन माहि मघि वीर ॥९१
सात माहि षट उपस में, एक तृतीय मिथ्यात ।
उदै होय है जा समें, सो वेदक विख्यात ॥९२ वेदक सम्यकवन्त जो, जघनि जघनिमें जानि । कहे तीन विधि जघन ए, जिन आज्ञा उर आनि ॥ ९३ जन पात्रकूं अन्न जल, औषध पुस्तक आदि । वस्त्राभूषण आदि शुभ, थान मान दानादि ॥९४ देवो गुरु भाषें भया, करनों बहु उपगार । हरनी पीरा कष्ट सहु, धरनों नेह अपार ॥९५ सब ही सम्यकधारका, सदा शांत रसलीन । निकट भव्य जिनधर्मके, घोरी परम प्रवीन ॥९६ नव भेदा सम्यक्तके, तामें उत्तम एक ! सात भेद गनि मध्यके, जर्घान एक सुविवेक ॥९७ वेदक एक जघन्य है, उत्तम क्षायिक एक । और सबै गनि मध्य ए, इह धारी जु विवेक ॥९८
क्षयोपसम वरते त्रिविध, वेदक चारि प्रकार । क्षायिक उपसम जुगल जुत, नवधा समकित घर ॥९९ वेदक कछुयक चंचला, तौ पनि मर्म-उछेद | लखे आपको शुद्धता जानें निज पर मेद ॥ ११००
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श्रावकाचार-संग्रह
सेवा जोग्य सुपात्र ए, कहे जिनागम माहिं । भक्ति सहित जे दान दें, ते भवभ्रांति नसाहिं ॥ १ त्रिविध पात्रके भेद नव, कहे सूत्र परवान । मुनिको नवधा भक्ति करि, देहि दान बुधिमान ॥२ विधिपूर्वक शुभ वस्तुकों, स्वपर अनुग्रह हेत । पातरकों दान जु करें, सो शिवपुरको लेत ॥ ३ नवधा भक्ति जु कौनसी, सो सुनि सूत्र - प्रवानि मिथ्या मारग छाड़ि करि, निज श्रद्धा उर आनि ॥४ आवो आवो शब्द कहि, तिष्ठ तिष्ठ भासेहि । सो संग्रह जानों बुधा अध-संग्रह टारेहि ॥५ ऊँची आसन देय शुभ, पात्रनिकों परवीन । पग धो अरचे बहुरि, होय बहुत आधीन ||६ करे प्रणाम बिनय करी, त्रिकरण शुद्धि धरेहि । खान-पानकी शुद्धता, ये नव भक्ति करेहि ॥७ सुनों सात गुण पंडिता, दातारनिके जेह । धारै धरमी घोर नर, उधर भव- जल तेह ॥८ इह भव फल चाहे नहीं, क्रियावान अति होय । कपट रहित ईर्षा - रहित, धरै विषाद न सोय ||९ हुइ उदारता गुण सहित, अहंकार नहिं जानि । ए दाताके सप्त गुण, कहे सूत्र परवानि ॥ १० श्रद्धा धरि निज शक्तिजुत लोभ रहित ह्वै धीर । दया क्षमा दृढ़ चित्त करि, देय अन्न अर नीर ॥११ राग द्वेष मद भोग भय, निद्रा मन्मथपीर । उपजावै जु असंजमा, सो देवौ नहि वोर ॥१२ यह आज्ञा जिनराजकी, तप स्वाध्याय सु ध्यान । वृद्धि-करण देवी सदा, जाकरि लहिये ज्ञान ॥१३ मोक्ष कारणा जे गुणा, पात्र गुणनिके धीर । तातें पात्र पुनीत ए, भाषें श्रीजिनवीर ॥१४ संविभाग अतिथीनको, व्रत्त बारमों सोइ । दया तनों कारण इहै, हिंसा नाशक होइ ॥ १५ हिंसा के कारण महा, लोभ अजसकी खानि । दान करे नासै भया, इह निश्चय उर आनि ॥ १६ भोग-रहित निज जोग धरि, परमेश्वर के लोग । जिनके दर्शन मात्र ही, मिटे सकल दुख सोग ॥१७ मधुकर वृति धारें मुनी, पर पीड़ा न करेय । पुण्यजोग आवे घरे, जिन आज्ञा जु धरेय ||१८
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष तिनकों जो सु अहार दे, ता सम और न कोइ । दानधर्मतें रहित जे, किरपण कहिये सोइ ॥१९ कियो आपने अर्थ जो, सोही भोजन भ्रात । मुनिकों अरति विषाद तजि, दे भवपार लहात ॥२० शिथिल कियो जिह लोभकों, परम पंथके हेत । तेई पात्रनिकों सदा, विधि करि दान जु देत ॥२१ सम्यग्दृष्टी दान करि, पावै पूर निरवान। अथवा भव धरनों परै, तो पावै सुरथान ||२२ विन सम्यक्त जु दान दे, त्रिविधि पात्रको जोहि । पावै इन्द्री भोग सुख, भोगभूमि में सोहि ॥२३ उत्तस पात्र सु दानतें, भोगभूमि उतकृष्ट । पावै दशधा कल्पतरु, जहां न एक अनिष्ट ॥२४ मध्य पात्रके दान करि, मध्य भोगभू माहि । जधनि पात्रके दानकरि, जघनि भोगभू जाहिं ।।२५ पात्रदानको फल इहै, भाषे गणधरदेव । धन्य धन्य जे जगतमें, करें पात्रको सेव ॥२६
चाल छन्द देने औषध सु अहारा, देने श्रुत पाप प्रहारा। रहने को देनी ठौरा, करने अति ही जु निहौरा ॥२७ हरने उपसर्ग तिन्होंकें, धरने गुण चित्त जिन्होंके । सुख साता देनी भाई, सेवा करनी मन लाई ॥२८ ए नवविधि पात्र जु भाखे, आगम अध्यातम साखे । बहुरी त्रय भेद कुपात्रा, धारें बाहिज व्रतमात्रा ॥२९ जे शुभ किरिया करि युक्ता, जिनके नहिं रीति अयुक्ता। सम्यग्दर्शन बिन साधु, तप संजम शील अराधू ॥३० पावें नहिं भवजल पारा, जावें सुरलोक विचारा । पहुंचे नव ग्रीव लगै भी, जिनतें अघकर्म भगै भी ॥३१ पण भावलिंग बिनु भाई, मिथ्यादृष्टी हि कहाई। द्रयलिंग धारक जति जेई, उतकृष्ट कुपात्रा तेई ॥३२ जे सम्यक बिन अणुव्रत्ती, द्रव्य-श्रावकव्रत प्रवृत्ती । ते मध्य कुपात्र बखाने, गुरुने नहिं श्रावक मानें ॥३३ आपा पर परचें नाहीं, गनिये बहिरातम माहीं। षोडश सुरगलों जावें, आतम अनुभव नहिं पावें ॥३४
दोहा जघनि कुपात्रा अवती, बाहिर धर्मप्रतीति । दीखें समदृष्टी समा, नहिं सम्यककी रीति ॥३५
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श्रावकाचार-संग्रह
शभगति पावै तो कहा, लहै न केवल भाव । ये संसारी जानिये, भार्षे श्रोजिनराव ॥३६ इनको जानि सुपात्र जा, धारें भक्ति विधान। सो कुभोगभूमी लहे, अल्पभोग परवान ॥३७ पर उपगार दया निमित्त, सदा सकलकों देय । पात्रनिकी सेवा करै, सो शिवपुर सुख लेय ॥३८ नहिं श्रावक नहिं व्रत जती, नहिं श्रावक वत जानि । नहिं प्रतीति जिनधर्मकी, ते अपात्र परवानि ॥३९ बिनै न करनों तिनतनों, दया सकल परि जोग । करनी भक्ति सुपात्रकी, भक्ति अपात्र अजोगि ॥४० करनी करुणा सकल परि, हरनी सबकी पीर । धरनी सेवा सन्तकी, इह मा श्रीबीर ॥४१ पात्रापात्र द्विभेद ए, कहे सूत्र अनुसार । अब सुनि करुणादानको, मेद विविधि परकार ॥४२ सबै आतमा आपसे, चेतनगुण भरपूर । निज परकी पहिचान बिन, भ्रमें जगतमें कूर ॥४३ उदय कर्मके हैं दुखो, आधि व्याधिके रूप । परे पिंडमें मूढधी, लखें नहीं चिद्रूप ॥४४ तिन सब पर परिके दया, करे सदा उपगार। नर तिर सब ही जीवको, हरे कष्ट व्रतधार ।।४५ अपनी शक्ति प्रमाण जो, मेटे परकी पीर । तन मन धन करि सर्वको, साता दे वर वीर ॥४६ अन्न वस्त्र बल औषधी, त्रण आदिक जे देय । जाने अपने मित्र सह, करुणाभाव घरेय ॥४७ बाल वृद्ध रोगोनिको, अति ही जतन कराय । अन्ध पंगु कुष्टीनि परि, करै दया अधिकाय ॥४८ बन्दि छुडावै द्रव्य दे, जीव बचावै सवं । अभयदान दे सर्वकों, धरै न धनको गर्व ॥४९ काल दुकाले माहि जो, अन्नदान बहु देय । रंकनिकी पीहर जिको, नरभवको फल लेय ॥५० जाको जगमें कोउ नहीं, ताको भोरी सोइ । दुरबलको बल शुभमती, प्रभुको दासा होइ ।।५१ शीतकालमें शीतहर, दे वस्त्रादिक वीर । उष्णकालमें तापहर, वस्तु प्रदायक घोर ॥५२ वर्षाकालै धर्मधी, दे आश्रय सुखदाय । जल बाधाहर वस्तु दे, कोमल भाव घराय ॥५३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष भाँति भाँतिकी औषधी, भांति भाँतिके चीर । भाँति भाँतिको वस्तु दे. सो जैनो जगवीर ॥५४ दान विधी जु अनन्त है, को लग करें बखान । जानें श्रीजिनरायजू, किह दाता बुधिवान ||५५ भक्ति दया द्वे विधि कही, दानधर्मकी रीति । ते नर अंगीकृत करें, जिनके जैन प्रतीति ।।५६ लक्ष्मी दासी दानकी, दान मुकतिको मूल । दान समान न आन कोउ, जिन मारण अनूकूल ॥५७ अतीचार या ब्रत्तके, तजे पंच परकार । तव पावै ब्रतशुद्धता, लहै धर्म अविकार ।।५८ भोजनकों मुनि आवहीं, तब जो मूढ कदापि । मनमें ऐसी चितवे, दान करंता क्वापि ॥५९ लगि है बेला चूकिहों जगतकाजतें आज । ताते काहूकों कहै, जाय करें जगकाज ॥६० मो बिन काम न होइगो, तातें जानों मोहि । दान करेंगे भातृ-सुत, इहहू कारिज होहि ॥६१ घनको जाने सार जो, धर्म न जाने रंच । सो मूढ़नि सिरमौर है, घटमें बहुत प्रपंच ॥६२ कहै भ्रात पुत्रादिको, दानतनों शुभ काम। आप सिधारै जड़मती, जग धंधाके ठाम ।।६३ परदात्री उपदेश यह, दूषण पहलो जानि । पराधीन है या थकी, यह निश्चै उर आनि ॥६४ मुनि सम वैगी धन कहा, इह धारै उर धीर । मुक्ति-मुक्ति दाता मुनि, षटकायनिके वीर ॥६५ पनि सचित्तनिक्षेप है, दूजो दोष अजोगि। ताहि तजें तेई भया, दानवत्तकों जोगि ॥६६ सचित्त वस्तु कदली दला, ढाक पत्र इत्यादि । तिनमें मेलो वस्तु जो, मुनिकों देवो वादि ॥६७ दोष लग ज सचित्तको, मनिके अचित अहार । तातै सचितनिक्षेपको. त्याग करें व्रत धारा ॥६८ तीजी सचितपिधान है, ताहि नजौ गुणवान । कमलपत्र आदिक सचित, तिन करि ढाक्यो धान ॥६९ नहिं देनों मुनिरायको, लगे सचितको दोष । प्रासुक आहारी मुनी. व्रत तप संजम कोष ॥७० काल उलंघन दानको, योग्य होत नहिं दान । सो चौथो दूषण भया त्यागें ते मतिवान ॥७१
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श्रावकाचार-संग्रह
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है मत्सरता पंचमों, दूषण दुखकी खानि । करें अनादर दानको, ता सम मूढ़ न आनि ॥७२ देखि न सके विभूति पर, पर-गुण देखि सकै न । सहि न सकै पर उच्चता, सो भव-वास तजै न ॥ ७३ नहि मात्सर्य समान कोउ, दूषण जगमें आन । जाहि निषेधें सूत्रमें तीर्थंकर भगवान ॥७४ अतीचार ए दानके कहे जु श्रुत अनुसार | इनके त्याग किये शुभा, होवै व्रत अविकार ॥७५ नमो नमो च दानको जे द्वादश व्रत मूल । भोजन भेषज भय हरण, ज्ञानदान हर भूल || ७६ भोजन दानें ऋद्धि है, औषध रोग निवार । अभयदानते निर्भया, श्रुति दानें श्रुत-पार ॥७७ कहे व्रत द्वादश सबै, दया आदि सुखदाय । दान पर्यन्त शुभंकरा, जिन करि सब दुख जाय ॥७८ एक एक व्रत्तके कहे, पंच पंच अतिचार | पालें निरतीचार व्रत्त, ते पावें भव पार ॥७९ सम्यक बिन नहिं व्रत है, व्रत विन नहि वैराग । बिन वैराग न ज्ञान, राग तजे बड़भाग || ८०
चाल छन्द
ra सुनि सब व्रतको कोटा, देशावकाशिव्रत मोटा । ताकी सुनि रीति भाई, जैसी जिनराज बताई ॥८१ पहले जु करी परमाणा, दिसि विदिशाको विधि जाणा । इन्द्री विषयनिका नेमा, कीयौ घरि व्रतसों प्रेमा ॥८२ धन धान्य अन्न वस्त्रादी, भोजन पानाभरणादी । मरजादा सबकी धारी, जीवितलों धर्म सम्हारी ॥ ८३ जामें मरजादा बरसी, तामें छै मासी दरसी । करनी चउमासो तामें, बहुरि द्वौ मासी जामें ॥८४
तामें मासी नेमा, मासीमें पाखी प्रेमा । पाखीमें आधी पाखी, ताहूमें दिन-दिन भाखी ॥८५ दिन माहीं पहरां धारे, पहरनिमें घरी विचार । पल-पल के धारै नेमा, जाके जिनमतसों प्र ेमा ॥८६ भोगनिसो' घटतो जाई, व्रतहै चढ़तो अधिकांई । सीमा में सीमा कारै, जिन-मारग जतनें धारै ॥८७ बाड़ फले क्षेत्रनिके, जैसें कोट जु नगरीके । तैसे यह द्वादश व्रतके, देशावकाशि व्रत सबके ||८४
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष देसावकाशि व्रत माहीं, सतरा नेम जु सक नाहीं। तिनको सुनि रीति जु मित्रा, जिन करि ह्र व्रत पवित्रा ॥८९
दोहा
नियम किये व्रत शोभ ही, नियम बिना नहिं शोभ । तातें व्रत धरि नेमको, धारै तजि मद लोभ ।।९.०
सतरा नेमके नाम उक्तं च श्रावकाचारे भोजने घटग्से पाने. कुंकुमादिविलेपने । पुष्पताम्बूलगीतेषु, नृत्यादौ ब्रह्मचर्यके ।।? स्नानभूषण वस्त्रादौ, वाहने शयनाशने । सचित्तवस्तुसंख्यादौ, प्रमाणं भज प्रत्यहम् ।।२
चौपाई भोजनको मरजादा गहै, वारंवार न भोजन लहै । पर घर भोजन तोहि जु कर, प्रात समै जो संम्बा धरै ।।९१ अन्न मिठाई मेवा आदि, भोजन माहिं गिने जु अनादि । बहरि चवीणी अर पकवान. भोजन जाति कहे भगवान ॥९२ सब मरजादा माफिक गहै, बार-बार ना लीयौ चहै। षट रसमें राखे जो रसा, सोई लेय नेममें बसा ।।९३ और न रस चाखौ बुधिवन्त, इह आज्ञा भाषे भगवन्त । काम-उदीपक हैं रसजाति, रस परित्याग महातप भांति ॥९४ जो रसजाति तजी नहिं जाय, करि प्रमाण जियमें ठहराय। पानी सरबत दूध रु मही, इत्यादिक पीवेके सही ।।९५ तिनमें लेवौ राखै जोहि, ता मापिक लेवौ बुघ सोहि । चोवा चन्दन तेल फुलेल, कुंकुम और अरगजा मेल ॥९६ औषधि आदि लेप हैं जेह, संख्या बिन न लगावै तेह । जाने येह देह दुरगन्ध, याके कहा लगावै सुगन्ध ।।९७ जो न सर्वथा त्यागै वीर, तोहु प्रमाण ग्रहै नर धीर । पहपजातिसो छांडै प्रेम, अति दोषीक कहे गुरु एम ॥९८ भोग उदय जो त्यागि न सके, थोरे लेप पापा सके। पान सुपारी डोड़ा आदि, लोंगादिक मुखसोध अनादि ।।९९ दालचिनी जावित्री जानि, जातीफल इत्यादि बखानि । सबमें पान महा दोषीक, जैसे पापनि माहिं अलोक ॥१२०० पान त्यागिवी जावो जीव, पाननिमें प्राणी जु अतीव । जो अतिभोगी छांडि न सके, थोरे खाय दोषतें सकै ॥१
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श्रावकाचार-संग्रह गोत नृत्य वादित्र जु सर्व, उपजावै अति मनमथ गर्व । ए कौतूहल अधिके बन्ध, इनमें जो राचे सो अन्ध ।।२ जो न सर्वथा छाड़े जाय, तोहु न अधिक न राग धराय । मरजादा माफिक ही भजे, औसर पाय सकल ही तजे ॥३ एक भेद या माहीं, और, आपुन बैठौ अपनी ठौर । गावत गीतत्रिया नीकली, सुनिकर हर चितधरि रलो ।।४ तामें दोष लगै अधिकाय, भाव सराग महा दुखदाय । पातरि नृत्य अखारे माहि, नट नटवा अथ नृत्य कराहिं ।।५ बादीगर आदिक बहु ख्याल, बिनु परमाण न देखौ लाल । अब सुनि ब्रह्मचर्यकी बात, याहि जु पाले तेहि उदात ॥६ परनारोको है परिहार, निजनारी में इह निरधार । जावो जीव दिवसको त्याग, रात्रि विष हूँ अलपहि राग ॥७ पाँच परवी शील गहेय, अर सब व्रतके दिवस धरेय । कबहक मैथुन सेवन परै सो मरजादा माफिक करै ।।८ महा दोषको मूल कुशील, या तजिवेमें ना करि ढील । सेबत मनमथ जीव-विघात, इहै काम है अति उतपात ॥९ जा न सर्वथा त्याग्यो जाहि. तौहू अलप सेववौ ताहि । नदी तलाव बापिका कूप, तहाँ जाय न्हावौ जु विरूप ॥१० जो न्हावै बिनछाणे जले. ते सब धर्म-कर्मत टलैं।। जसौ रुधिरथकी है स्नान, तैसो अनगाले जल जान ॥११ अचित जले न्हावी है भया, प्रासुक निर्मल विधिकरि लया। ताहूकी मरजादा धरै, बिना नेम कारिज नहिं करै ॥१२ रात्री न्हावी नाहिं कदापि, जीव न सूझै मित्र कदापि । हिंसा सम नहि पाप जु और दया सकल धर्मनि सिर मौर ॥१३ आभूषण पहिरे हैं जिते, घरमैं और घरे हैं तिते । नियम बिना नहि भषण धरै, सकल वस्तुको नियम जु करै ॥१४ परके दीये पहरे जे हि, नियम माहि राखै हैं तेहि । रतनत्रय भूषण बिनु आन, पाहन सम जाने मतिवान ॥१५ वस्त्रनिकी जेती मरजाद, ता माफिक पहरै अविवाद । अथवा नये ऊजरे और, नियमरूप पहरै सुभतौर ॥१६ सुसरादिकके दीने भया, अथवा मित्रादिकतें लया। राजादिकने की बकसीस, अदभुत अंबर मोल गरीस ॥१७ नित्य नेममें राखे होइ, तो पहिरे नातर नहि कोइ । पावनिकी पनही है जेहि, तक वस्त्रान माहिं गिनेहि ॥१८ नई पुरानी निज परतणी, राखै सो पहिरै इम भणी। पनही तजे पहरवी भया, तो उपजे प्राणिनिकी दया ।।१९
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष रथ वाहन सुखपाल इत्यादि, हस्ती ऊंट रु घोटक आदि । एहें थलके वाहन सबै, पुनि बिमान आदिक नभ फबै ॥२० नाव जिहाज आदि जलकेह, इनमें ममता नाहिं धरेह । कोइक जावो जावै तजै, कोइक राखे नियमा भर्जे ॥२१ तिनहूँमें निति नेम करंइ, बहु अभिलाषा छांडि जु देइ । मुनि एवौ चाहे मन मांहि, जगमाहीं जाको चित नाहिं ।।२२ वाहन चढ़े होइ नहिं दया, तात तर्जे धन्य ते भया। मुनि आर्या अर श्रावक बड़े, हैं जु निरारंभी अति छड़े ॥२३ ते बाहनको नाम न धरै, जीवदया मारग अनुसरें। आरम्भी श्रावक राजादि, तिनके बाहन है जु अनादि ।।२४ तेऊ करै प्रमाण सुवीर, नित्यनेम धारै जगधीर । तीर्थकर चक्रो अरु काम, मुनि है फिर पयाद राम ॥२५ ताते पगां चालिवो भला, पर सिर चलिवो है अघमिला। इहै भावना भावत रहै, सो वेगा शिवकारन लहै ॥२६ रतनत्रय शिवकारण कहे, दरसन ज्ञान चरण जिन लहे । अब सुनि शयनासनको नेम, धारै श्रावक ब्रतसों प्रेम ॥२७ जोहि पलंगपरि सोवो तनों, सोहू शयन परिग्रह गनों। सौड़ दुलाई तकिया आदि, ए सब सज्जा माहिं अनादि ॥२८ इनको नेम धरै व्रतवान, भूमि-शयन चाहै मतिवान । भूमि-शयन जोगीश्वर करें, उत्तम श्रावक हू अनुसरै ॥२९ आरंभी गहपतिके सेज, तेह नियम सहित अधिकेज । जापरि परनारी सोवेहि, सो सज्ज्या बध नहिं जोवेहि ॥३० निज सज्जा राखी है भया, ताहम पमित आत लया। व्रतके दिन भू-सन्जा करै, भोग भावतें प्रेम न धरै ॥३१ गादी गाऊ तकिया आदि, चौकी चौका पाट इत्यादि। सिंहासन प्रमुखा जेतक. आसन माहिं गिनी ज अनेक ॥३२ गिलम गलीचा सतरंजादि, जाजम चादर बादि अनादि । इन चीजोंसे मोह निवार, जासें होय पार संसार ॥३३ जेतो जाति बिछौनाको हि, सो सब आसन माहिं गनीहि । निज धरके अथवा परठाम, जेते मुकते राखे धाम ||३४ तिनपरि बैसे और जु त्याग, है जाको बतसूअनुराग । सचित वस्तुको भोजन निंद. जाहि निषेधे त्रिभुवनचंद ॥३५ मुनि आर्या त्यागेंहि सचित्त, उत्तम श्रावक लें हि अचित । पंचम पड़िमा आदि सुधीर, एकादस पडिमा लों वीर ॥३६ कबहु न लेइ सचित्त अहार, गहै अचित्त वस्तु अबिकार । पहलो पडिमा आदि चतुर्थ, पडिमा लोले सचितहि अर्थ ॥३७
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श्रावकाचार-संग्रह
पै मनमें कम्पै सु विवेक, तजे सचित्त ज वस्तु अनेक । केइक राखी तामें नेम, नितप्रति धारै ब्रतसो प्रेम ।।३८ कहा कहावै वस्तु सचित्त, सो धारी भाई निज चित्त । पत्र फूल फल छांडि इत्यादि, कूपल मूल कन्द बीजादि ॥३९ पृथिवी पाणी अग्नि जु वाय, ए सह सचित कहे जिनराय । जीव-सहित जो पुदगल पिंड, सो सब सचित तर्ज गुणपिंड ॥४० ये सह भाति सचित्त तजेय, सो निहचै जिनराज भजेय । जो न सर्वथा त्यागी जाय, तो कैयक ले नेम धराय ॥४१ संख्या सचित वस्तुकी कर, सकल वस्तुको नियम जु धरै । गिनती करि राखै सब वस्तु, तबहि जानिये वृत्त प्रशस्त ॥४२ लाडू पेड़ा पाक इत्यादि, औषधि रस अर चूरण आदि । बहुत वस्तु करि जे निपजेह, एक द्रव्य जानो बुध तेह ।।४३ वस्तु गरिष्ठ न खावे जोग, ए सब काम तने उपयोग। जो कदापि ये खाने परै, अलप-थकी अलपज आहरे ॥४४ सत्रह नेम चितारै नित्य, जानो ए सहु ठाठ अनित्य । प्रातथकी संध्यालोकरे, पुनि संध्या समये बुध धरै ॥४५ इती वस्तु तो त्यागै वीर, राति परै नहिं सेवै वीर । भोजन षटरस पान समस्त, चंदनलेप आदि परसस्त ॥४६ तजे राति तंबोल सुवीर, दया धर्म उर धारै धीर । गीत श्रवण जो होय कदापि, राखै नेम माहिं सो क्वापि ॥४७ नृत्यहंसो नहिं जाको भाव, पै न सर्वथा छांडयो चाव । जौ लग गृहपति कबहुँक लखै, सोह नेममाहिं जो रखे ॥ ४८ ब्रह्मचर्यसो जाको हेत. परनारीसों वीर सचेत । निज नारीहीमें संतोष, दिनको कबहु न मनमथ पोष ॥४९ रात्रि में पहले पहरी न, चौथी पहरो मनमथको न । दूजी तीजो पहर कदापि, परै सेवनी मैथुन क्वापि ॥५० सोहू अलप-थको अति अल्प, नित प्रति नहिं याको संकल्प। राखै नेम माहिं सह बात, बिना नेम नहिं पांव धरात ॥५१ स्नान रातिकों कबहु न करै, दिनको स्नान तनी विधि धरै । भूषण वस्त्रादिकको नेम, राखै जाबिधि धारै प्रेम ॥५२ वाहन शयनासनकी रीत. नेम माहिं धारै सहु नीति । वस्तु सचित नहिं निशिकों भख, रजनीमें जलमात्र न चखै ॥५३ खान-पानकी वस्तु समस्त. रात्रिविर्षे कोई न प्रशस्त । याविधि सतरा नेम जु धरै, सो व्रत धारि परम गति वरै ॥५४ नियम बिना धिग विग नर जन्म, नियमवान होवेहि अजन्म । यमनियमासन प्राणायाम, प्रत्याहार धारना राम ॥५५
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दौलतराम-कत क्रियाकोष ध्यान समाधि अष्ट ए अंग, योगतर्ने भाषे जु असंग। सबमें श्रेष्ट कही सुसमाधि, नियमथकी उपजे निरुपाधि ॥५६ राग-द्वषको त्याग समाधि, जाकरि टरै आघि अरु व्याधि । परम शांतता उपजे जहां, लहिए आतम भाव जु तहां ॥५७ मरण-काल उपजै जु समाधि, आय प्राप्त है आधि र व्याधि । नित्य अभ्यासी होय समाधि, तो न नीपजै एक उपाधि ॥५८ जो समाधितें छाडै प्राण, तो सदगति पावैहि सुजाण । नाहिं समाधिसमान जु और, है समाधि वृत्तनि सिरमौर ॥५९
छन्द चाल अब सुनि सल्लेखण भाई, जाकरि सहु व्रत सुधराई । उत्तम जन याकौं भावे, याकरि भवभ्रांति नसावें ॥६० जे द्वादस व्रत संजुक्ता, सल्लेखण कारई युक्ता ।। होवें जु महा उपशांता, पावें सुरसौख्य सुकांता ॥६१ अनुक्रम पहुंचै थिर थान, परकी सहु परणति भाने । यह एकहु निर्मलव्रत्ता, समदृष्टी जो दृढ़चित्ता ।।६२ करई सौ सुरपति होवै, पुनि नरपति कै शिव जोवे । इह भुक्ति मुक्तिदायक है, सब व्रत्तनिको नायक है ॥६३
सोरठा मेरो जो निजधर्म, ज्ञान सुदर्शन आचरण । सो नाशक वसु कर्म, भासक अमित सुभावको ॥६४ मैं भूल्यो निज धर्म, भयो अधर्मा जगविर्षे । तातें बाँधे कर्म, किये कुमरण अनंत मैं ॥६५ मरि-मरि चहुंगति माहि, जनम्यो मैं शठ भ्रांति घर । सो पद पायो नाहिं, जहां जन्म मरण न हुवै ॥६६ विना समाधि जु मर्ण, मर्ण मिटै नहिं हमतनों। यह एकैव जु सर्ण, है सल्लेखण अति गुणौ ॥६७ निज परणतिसों मोहि, एकत्त्व करिवे सक इहै। देख्यौ श्रुतिमें टोहि, ठोर ठौर याको जसा ॥६८ धरै निरंतर याहि, अंतिम सल्लेखण वरत । उपजै उत्तम ताहि, मरणकाल निस्संकता ॥६९ करिहों पंडित मर्ण, किये बाल मर्णा अमित । ले जिनवरको सर्ण तजिहों काया कालिमा ॥७० जिन आज्ञा अनुसार, अवश्य करूंगो अन्नसन । सल्लेखणव्रत धार, इहै भावना नित धरै ॥७१
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श्रावकाचार-संग्रह
बेसरी छन्द मरण काल धरियेगो भाई, परि याकों नित प्रति चितराई। व्रत्त अनागत या विधि पालै, या व्रत करि सहु दूषण टालै ॥७२ मरणो नाहीं आतमतामें, तातें निरभय होय रह्या मैं। पर संबंध ऊपनी काया, ताका नाशा अवश्य बताया ॥७३ इनका ज्ञान हुए यह जीव, पावे निश्चय सुगति सदीव । मे अनादि सिद्धों अविनाशी, सिद्धसमानो अति सुखरासी ॥७४ सो अनादि कालहतें भूल्यो, परपरिणतिके रसमें फल्यौ । परपरिणति करि भयौ सदोषी, कर्म-कलंक उपार्जक रोषी ॥७५ जातें देह अनन्ती धारी, किये कुमर्ण अनन्ता भारी। मैं नहिं कबहं उपज्यो मूवी, मैं चेतन मायातें दूवौ ॥७६ मोते भिन्न सकल परभावा, मैं चिद्रूप अनन्त प्रभावा । भयो कषाय-कलंकित चित्ता, मैं पापी अति ही अपवित्ता ॥७७ बहु तन धरि धरि डारै भाई, तन तजिवौ इह मरण कहाई। तातें कुमरण मूल कषाया, क्षीण करै ध्याऊं जिनराया ॥७८ रागादिक तजि करौं सुमरणा, बहुरि न मेरे होइ कुमरणा। इहै धारना धरि व्रत धारी, दुर्बल करै कषाय जु सारी ॥७९ के गुरुके उपदेशथकी जो, कै असाध्य लखि रोग अती जो। मरणकाल जानै जब नीरे, तब कायरता धरइ न तीरे ।।८० चउ अहार तजि चारि कषाया, तजि करि त्यागै त्यागी काया। तन-सम्बन्ध उदय मति आवौ, तनमें हमरो नाहिं सुभावो ॥८१
सोरठा कर्म संजोगे देह, उपज्यो सो न रहायगो। तातें यासौं नेह, करनौ सो अति कुमति है ।।८२
चौपाई इहै भावना धारि विरागी, तजे कारिमा काय सभागी। सो श्रावक पाने शुभ लोका, षोड़श स्वर्ग लगे सुखथोका ॥८३ नर ह फिर मुनिके व्रत धार, सिद्ध लोककों शीघ्र निहारै। सल्लेखण सम व्रत नहिं दूजा, इह सल्लेखण त्रिभुवन पूजा ।।८४ तजि कषाय त्यागै बुध काया, सो संन्यास महा फलदाया। सल्लेखण संन्यास समाधी, अनसन एक अर्थ निरुपाधी ॥८५ पंडित मरणा वीरियमरणा, ये सब नाम कहें जु सुमरणा। सुमरणते कुमरण सब नासे, अविनासी पद शीघ्र प्रकासे ॥८६ यह संन्यास न आतम-घाता, कर्म-विधाता है सुख-दाता । अर जो शठ करि तीव्र कषाया, जलमें डूबि मरे भरमाया ॥८७
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष जीवत गड़े भूमिमें कुमती, सो पावै दुरगति अति विमती । अगनि दाह ले अथवा विष करि, तजै मूढधी काया दुख करि ॥८८ शस्त्र प्रहारि जो त्यागै प्राणा, अथवा झंपापात बखाणा । ए सब आतम-धात बतावे, इनकरि बड़ भव-भव भरमाये ॥८९ हिंसाके कारण ये पापा, हैं जु कषाय प्रदायक तापा। तिनको क्षीण पारिवो भाई, सौ संन्यास कहें जिनराई ॥९० जीव-दयाको हेतु समाधी, विना समाधि मिटै न उपाधी। दया उपाधि मिटै बिन नाहीं, तातै दया समाधि ही माहीं ॥९१ व्रत शीलनिको सर्वस एही, इह संन्यास महा सुख देही । मुनिकों अनशन शिवसुख देई, अथवा सुर अहमिन्द्र करेई ॥९२ श्रावककों सुर उत्तम कार, नर करि मुनि करि भवदधि तारै । उभय धर्मको मल समाधो, मेटे सकल आधि अर व्याधी ॥९३ कायर मरणे बहुतहिं मूवा, अब धरि वीर मरण जगदूवा । बहत मेद हैं अनशनके जी, सबमें आराधन चउ ले जी ॥९४ दरसन ज्ञान चरन तप शुद्धा, ए चारों ध्या८ प्रतिबुद्धा। निश्चय अर व्यवहार नयनि करि, चउ आराधन से चितरि ॥९५ ताको सुनहु विचारि पवित्रा, जा करि छूटै भव भ्रम मित्रा। देव जिनेसर गुरु निरग्रन्था, सूत्र दयामय जैन सुपन्था ॥९६ नव तत्त्वनिकी श्रद्धा करिवी, सो व्यवहार सुदर्शन धरिवो। निश्चय अपनो आतमरामा जिनवर सो अविनश्वर धामा ॥९७ गुण-पर्याय स्वभाव अनन्ता, द्रव्य थकी न्यारे नहिं सन्ता। गुण-गुणिको एकत्व सुलखिवी, आतमरुचि श्रद्धाको धरिवी ।।९८ करि प्रतीति जे तत्त्वतनी जो, हनै कर्मकी प्रकृति घनी जो। सो सम्यकदर्शन तुम जानों, केवल आतम भाव प्रवानों ॥९९ अब सुनि ज्ञान अराधन भाई, सम्यकज्ञानमयी सुखदाई । नव पदार्थकों जातें भेदा, जिनवानी परमान सुवेदा ॥१३०० पंच परम पदकों प्रभु जानै, भयो जु दासा बोध प्रवाने । इह व्यवहारतनों हि स्वरूपा, निश्चय जानै हूँ जु अरूपा ॥१ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध प्रवृद्धा, अतुल शक्तिरूपी अनुरुद्धा।
.... ... .... ॥२ चेतन अनन्त गुणातम ज्ञानी, सिद्ध सरीखो लोक प्रमानी । अपनो भाव भायवो भाई, सो निश्चय ज्ञान जु शिवदाई ॥३ पनि सनि सम्यकचारित रतना. स-थावरको अति ही जतना। आचरिवौ भक्ति जिन मुनिकी, आदरिवौ विधि जोहि सु पुनको ॥४ पंच महाव्रत पंच सु समिती, तीन गुपति धारै हि जु सुजती। अथवा द्वादस व्रत्त सुधरिवी, श्रावक संयमको अनुसरिवौ ॥५
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श्रावकाचार-संग्रह ए सब हैं व्यवहार चरित्रा, निम्चय आतम अनुभव मित्रा। जो सु स्वरूपाचरण चवित्रा, थिरता निजमें सो सु पवित्रा ॥६ ए रतनत्रय भाषे भाई, चौथो सम्यक तप सुखदाई। ब्यवहार द्वादस तप सन्ता, अनसन आदि ध्यान परजन्ता ॥७ निश्चय इच्छाको जु निरोधा, पर परिणति तजि आतम शोधा। अपनो आतम तेजकरी जो, सो तप भाषहि कर्महरी जो ।।८ ए चउ आराधन आराधै, सो संन्यास घरै शिव साधे । अरहन्ता सिद्धा साधू जे, केवलि कथित सुधर्म दया जे ॥९ ए चउ शरणा लेइ सु ज्ञानी, ध्यावे परम ब्रह्मपद ध्यानी। णमोकार मन्तर जपतो जो, ओंकार प्रणवे रटतो जो ॥१० सोहं अजपा अनादह सुनतो, श्रीजिन बिम्ब चित्तमो मुनतौ। धर्मध्यान धरन्तौ धोरी, लगो जिनेसुर पदसों डोरी ॥११ ध्यावन्तौ जिनवर गुन धीरा, निजरस रातौ विरकत वीरा । दुर्बल देह अनेह जगतसों, करि कषाय दुर्बल निज धृतिसों ॥१२ क्षमा करै सब प्राणी गणसों, त्यागै प्राण लाय लव जिनसों । सो पण्डितमरणा जु कहावै, ताको जस श्रुतिकेवलि गावै ॥१३ सल्लेखणके बहुते भेदा, भाषे जिनमत पाप उछेदा। है प्रायोपगमन सब माहें, उत्तमसों उत्तम सक नाहे ॥१४ ताको अर्थ सुनौ मनलाये, जाकरि अपनों तत्त्व लखाये । प्रायः कहिये मित्र सर्वथा, उप कहिये स्वसमीप निर्व्यथा ।।१५ गमन जु कहिये जाग्रत होवो, रात दिवस कबहूं नहिं सोवौ । सो प्रायोपगमन संन्यासा, सर्व गुणाकरि धर्म अध्यासा ॥१६ जिनकों बारंबार चितारे, क्षण-क्षण चेतन तत्त्व निहारे । जग सन्तति तजि होइ इकाकी, कीरति गावें श्रीगुरु ताकी ।।१७ तजै आहार विहार समस्ता, भजै विचार समस्त प्रशस्ता । इह भव पर भवकी अभिलाषा, जिन करि होइ निरोह अभासा ॥१८ या जड़ तनका सेवा आपु न, करै न करावे विधि सों थापु न । अति वराग्य परायण सोई, तजे अनातम भाव सवोई ॥१९ गहन बनें भू सज्जा धारी, निसाह जगतजोगथो भारी । चित्त दयाल सहनशीलो जो, सहै परिसह नहिं ढोलो जो ॥२० जो उपसर्ग थको नहि कंपै, जाकों कायरता नहि चंपै । भागो लोक प्रपंच-थकी जो, परपरिणति जातें दिसिकी जो ॥२१ या संन्यास थकी जो प्राणा, त्यागै सो नहिं मुवी सुजाणा । सुर-शिवदायक है यह व्रता, यामैं बुधजन करै प्रवृत्ता ॥२२ पंच अतिचारा जो त्यागै, तब संन्यास-पंथकों लागे । सो तजि पांचों ही अतिचारा, ये तो सल्लेखण व्रत धारा ॥२३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
जीवित- अभिलाषा अघ पहिला, ताकों वारइ सो गिनि गहिला । देखि प्रतिष्ठा जीयौ चाहै, सो सल्लेखण नहि अवगाहै ॥२४ दूजौ मरण- तर्नी अभिलाषा, जो धारे निज रस नहि चाखा । रोग कष्ट कर पीड्यो अति गति, मरिवौ चाहे सो है शठमति ॥ २५ ताजी सुहृदनुराग सुगनिये, मित्रथकी अनुराग सु धरिये । रवी आनि बन्यू परि मित्रा, मिल्यौ न हमसां जाहु पवित्रा ||२६ दूरि जु सज्जन तामँ भावा, मिलिवेको अति करहि अपावा । अथवा मित्र कनारे जो है, ताके मोह-थको मन मोहै ॥२७ यों अज्ञानथको भव भरमै, पावै नहिं सल्लेखण धरमैं | पुनि सुखानुबंधो है चौथो, सुख संसार तनों सहु थोथी ॥ २८ या तनमें भुगते सुख भोगा, सो सब यादि करें शठ लोगा । यों नहि जानें भव सुख दुख ए, तोन कालमें नाहीं सुख ए ।। २९ इनको सुख जानें जो भाई, भोंदू इनसों चित्त लगाई । सो दुख लहे अनंता जगके, पात्रै नहि गुण जे जिन-मगके ॥३० पंचम दोष निदान प्रबंधा, जो धारइ सो जानहु अंधा । परभवमैं चाहे सुख भोगा, यों नहिं जाने ए सहु रोगा ||३१ इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रा, हूवाँ चाहे पुनि अहमिन्द्रा । व्रतको बेचै विषयनि साटे, सो जड़ कर्मबंध नहि काटे ||३२ ए पाचौं तजि धरहि समाधी, सो पावै सद्गति निरुपाधी । या व्रतसम नहि दूजो कोई, सबमैं सार जु इह व्रत होई ॥३३ याको जस सुर नर मुनि गावें, धीर चित्त यासों लव लावें । नमो नमों या सुमरणकों है, जो काटै जलदी कुमरणको है ||३४
दोहा
उदय होउ सल्लेखणा, जोहि निवारे भ्रांति । आवै बोध जु घटिविषै, पइये परम प्रशांति ॥ ३५ कहे बरत द्वादश सबै, अर सल्लेखण सार । अब सुनि तप द्वादश तनों, भेद निर्जराकार ॥३६ प्रथमहिं बारह तपविषै, है अनशन अविकार । जाहि क हैं उपवास गुरु, ताकी सुनहु विचार ॥ ३७ इन्द्रिनिकी उपसांतता, सो कहिये उपवास । भोजन करते हू मुनी, उपवासे जिनदास ||३८ जो इन्द्रिनिके दास है, अज्ञानि अविवेक । करै उपासा तउ शठा नहि व्रत धार अनेक ||३९ मुनि श्रावक दोनिकों, अनशन अति मुणदाय । जाकरि पाप विनाश ह्वे, भाषे श्रीजिनराय ॥४०
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श्रावकाचार-संग्रह इन्द्रिनिकों उपशांत करि, करै चित्तको रोध। ते उपवासे उत्तमा, लहें आपको बोध ॥४१ गनि उपवासे ते नरा, मन इन्द्रिनिकों जीति । करें वास चेतनविष, शुद्धभावसों प्रीति ।।४२ इस भव परभव भोगकी, तजि आशा ते धीर । करम-निर्जरा कारणे. करें उपास सु वीर ||४३ आतम ध्यान धरै बुधा, के जिन श्रुत अभ्यास । तब अनसनको फल लहै, केवल तत्त्व अध्यास ॥४४ चऊ अहार विकथा चक, तजिवो चारि कषाय । इन्द्री विषया त्यागिवी, सो उपवास कहाय ॥४५ द्वै विधि अनसनकी कहैं, महामुनी श्रुतिमाहिं । सावधि निरवधि गुण धरी, जाकरि कर्म नशाहिं ॥४६ एक दिवस द्वै तीन दिन, च्यारि पांच पखवार । मासा द्वय त्रय च्यारि हू, मास छमास विचार ॥४७ वर्षावधि उपवास करि, करै पारनों जोहि । सावधि अनसन तप भया, भाषे श्री गुरु सोहि ॥४८ आयु-कर्म थोरी रहै, तब ज्ञानी व्रत धीर । जावौजीव तर्जे सबै, असन पान जगवीर ॥४९ मरणावधि अनसन करें, सो निरवधि उपवास । जे धारै उपवासकों, ते जु करें अघ नाश ॥५० करते थके उपासकों, जे न तजै आरम्भ । जग धंधे में चित धरै, तजें न शठमति दंभ ॥५१ मोहगहल चंचल दशा, लहै न फल उपवास । कछुयक काय-कलेशका, फल पावै जगवास ॥५२ कम-निर्जरा फल सही, सो नहिं तिनकों होइ। इह निश्चय सतगुरु कहें, धार, बुधजन सोइ ॥५३ धन्य धन्य उपवास हैं, देइ सासतो वास । अब सुनि अवमोदर्य जो, दूजौ तप सुखरास ।।५४ जो मुनि करै अनोदरी, तजि अहारकी वृद्धि । प्रासुक योग सु अलप अति, ले अहार तप-बृद्धि ।।५५ कर सु अवमौदर्यकों, करै निर्जरा हेत। नहिं कीरतिको लोभ है, सो मुनिजिन पद लेत ॥५६ श्रावक होइ जु व्रत कर, लेइ अलप आहार । जब स्वाध्याय सु ध्यान है, मिटें अनेक विकार ॥५७ संध्या पोसह पडिकमण, तासों सधै अदोष । जो अहार बहुत न करे, धरै महागुण कोष ॥५८
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष के अनसन अघ नाश कर, के यह अवमोदर्य । इन सम और न जगविष, ए तप अति सौंदर्य ॥५९ इन बिन कदै न जो रहे, सो पावै ब्रतशुद्धि । ध्यान कारणें जो करै, सो होवे प्रतिबुद्ध ॥६० अरु जो मायावी अधम, धरि कीरतिको लोभ । करै सु अलप अहारकों, सो नहिं होइ अक्षोभ ॥६१ अथवा जो शठ अंधधो, यह विचार जियमाहिं । करै सु अलप अहार जो, सोहू व्रतधरि नाहि ।।६२ जो करिहों जु अहार अति, तो जैसो तैसो हि । मिलि हैं मोदक स्वादकरि, ताक् इह न भलौ हि ॥६३ अलप अहार जु खाहुंगो, बहुत रसीली वस्तु । इहैं भाव धरि जो करै, सो नहिं व्रत्त प्रशस्त ॥६४ मिष्ट भोज्य अथवा सुजस, कारण अल्प अहार । करे न फल तपको प्रबल, कर्म निर्जराकार ॥६५ केवल आतमध्यानके, अर्थ करै व्रत धार । कै स्वाध्याय सु व्रतके, कारण अल्प आहार ॥६६ अल्प अहार-थकी बुधा, रोग न उपजे क्वापि । निद्रा मनमथ आदि सहु, नहिं पीरै जु कदापि ॥६७ बहु अहार सम दोष नहिं, महा रोगकी खानि । निद्रा मनमथ प्रमुख जो, उपजै पाप निदान ॥६८ लोकमाहिं कहवत इहै, मरै मूढ़ अति खाय । के विन बुद्धि जु बोझकों, भोंदू मरै उचाय ॥६९ तातें धनों न खाइवौ, करिबो अलप अहार। याहि करैं सतगुरु सदा, व्रतको बीज अपार ॥७० व्रतपरिसंख्या तीसरो तप ताकों सु विचार । सुनों सुगुरु भा भया, परम निर्जराकार ॥७१ मुनि उतरें आहारकों, करि ऐसी परतिज्ञ । मनमें तौक छांटकों (?) सो धारो तुम विज्ञ ॥७२ एक घरें नहिं पाय हो, तो न आन घर जाहुँ। और कछू नहिं खाय हों, यह मिलि हैं तो खाहुं ॥७३ अथवा ऐसी मन धरै, या विधिके तन चीर । पहिरे होंगी श्राविका, तो लेहूँ अन नीर ।।७४ तथा विचारै सो सुधी, कारों बलधा जोहि । धरै सींग परि गुड़-डला, मिले पंथमें मोहि ॥७५ जाऊँ भोजन कारनें, नांतरि नहीं अहार । इत्यादिक जे अटपटी, करै प्रतिज्ञा सार ॥७६
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श्रावकाचार-संग्रह व्रतपरिसंख्या तप लहें;जे मुनिराय महत। श्रावक हू इह तप करें, कौन रीति सुन संत ॥७७ प्रातहिं संध्या विधि करें, धारहिं सतरा नेम । तासम कबहुं व्रत करें, परिसंख्यासों प्रेम ॥७८ धारि गुप्ति चितवै सुधी, अपने चित्त मॅझारि । साखि जिनेश्वर देव हैं, ज्ञायक ज्ञेय अपार ॥७९ और न जाने बात इह, जो धारें बुध नेम । नहीं प्रेम भव-भावसों, जप तप व्रतसों प्रेम ।।८० अनायास भोजन समय, मिलि हैं मोहि कदापि । रूखी रोटी मूगकी, लेहूँ और न क्वापि ॥८१ इत्यादिक जे अटपटी, धरै प्रतिज्ञा धीर। व्रतपरिसंख्या व्रत लहे, ते श्रावक गंभोर ।।८२ अब सुनि चौथा तप महा, रस परित्याग प्रवीन । मुनि श्रावक दोऊनिकों, भाषे आतमलीन ।।८३ अति दुखको सागर जगत, तामें सुख नहिं लेश । चहुंगति भ्रमण जु कब मिटे, कटै कलंक अशेष ||८४ जगके झूठे रस सबै, एक सरस अतिसार । इहै धारना धर सुधा, होइ महा अविकार ।।८५ भवत अति भयभीत जो, डर्यो भ्रमणतें धीर । निर्वानी निर्वान जो, चाखें निजरस वीर ॥८६ विषहूतें अति विषम जे, विषया दुख की खानि । भव-भव मोकू दुख दियौ, सुख परिणतिको मानि ॥८७ तातें इनकों त्याग करि, धरौं ज्ञानकों मित्र । तप जो भव आतप हरै, करण पुनीत पवित्र ॥८८ इह चितवतो धीर जो, रसपरित्याग करेय । नीरस भोजन लेयके, ध्यावै आतम ध्येय ||८९ दूध दही घृत तेल अर, मीठो लवण इत्यादि । रस तजि नीरस अन्न ले, काटै कर्म अनादि ॥९० अथवा मिष्ट कषायलो, खारो खाटो जानि । कड़वो और जु चिरपरौ, यह षटरस परवानि ॥९१ तजि रस नीरस जो भखै, सो आतम-रस पाय । देय जलांजलि भ्रमणकों, सूधो शिवपुर जाय ॥९२ भव बाकी ह्वे जो भया, तो पावै सुर-लोक । सुरथी नर 8 मुनिदशा, धारि लहै शिव-थोक ॥९३ अथवा सिंगारादिका, नव रस जगत विख्यात । तिनमें शांति सुरस गहै, जो सब रसको तात ।।९४
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष पर रस तजि जिनरस गहै, जाके राग न रोष । सो पावै समभावकों, दूरि करै सहु दोष ॥९५ रसपरित्याग समान नहिं, दूजो तप जगमांहि । जहां जीभके स्वाद सहु, त्यागै संशय नाहिं ।।१६ अब विविक्तशय्यासना, पंचम तप सुनि वीर । राग द्वेषके हेतु जे, आसन सज्जा चीर ॥९७ तजि मुनिवर निरग्रन्थ ह्व, वसे आपमें धीर । तन खीणां मन उनमना, जगतरूढ़ गंभीर ॥९८ पूजा हमरी होयगी, बहुत भजेंगे लोक । इह बांछा नहिं चित्तमें, नहीं हरष अर शोक ॥९९ सकल कामना-रहित जे, ते साधू शिवमूल। पापथको प्रतिकूल ह्व, भये व्रह्म अनुकूल ॥१४०० ते संसार शरीर अरु, भोगथकी जु उदास । अभ्यंतर निज बोध घर, तप कुशला जिनदास ॥१ उपशमशीला शांतधी, महासत्त्व परवीन । निवसे निर्जन वनविणे, ध्यान लीन तन खीन ॥२ गिरिसिर गुफा मंझार जे, अथवा बसें मसान । भूमिमाहिं निरव्याकुला, धीर वीर बहु जान ॥३ तरुकोटर सूना घरी, नदी-तीर निवसंत । कर्म-क्षपावन उद्यमी, ते जैनी मतिवंत ॥४ कंकरीली धरतीवि, विषम भूमिमें साध । तिष्ठं ध्या तत्त्वकों, आराधन आराधि ॥५ जगवासिनको संगती, ध्यान-विघनको मूल। तार्ते तजि जड़ मंगतो, भये ज्ञान अनुकूल ॥६ स्त्री-पशु-बाल-विमूढ़की, संगति अति दुखदाय । कायरकी संगति थकी, सूरापन विनसाय ॥७ जे एकांत वसे सुधी, अनेकांत घरि चित्त । ते पावै परमेसुरो, लहि रतनत्रय चित्त ॥८ मुनिकी रोति कही भया, सुनि श्रावकको रीति । जा विधि पंचम तप करे, धरि जिन वचन प्रतीत ॥९ निज नारीहूते विरत, परनारीका वीर । शीलवान शांतिक अती, तप घारे अति धीर ॥१. परनारीको सेज अर, आसन चोर इत्यादि। कबहुं न भीटे भव्य जो, तजे काम रागादि ॥११ निज नारीहूकों तजे, जौलग त्याग न होय । तोलग कवहंक सेवही, बहुत राग नहिं कोय ॥१२
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श्रावकाचार-संग्रह एक सेज सोवे नहीं, जुदो जु सोवे जोहि । जब विविक्तशय्यासना, पावै तप अति सोहि ॥१३ करै परोस न दुष्टको, तजे दुष्टको संग। व्यसनीतें दूरी रहै, पाले वत्त अभंग ॥१४ जे मिथ्यामत धारका, अलगौ तिनसों होइ । जिनधरमीकों संगती, धारै उत्तम सोइ ॥१५ कुगुरु कुदेव कुधर्मका, करै न जो विश्वास । है विश्वासी जैनको, जिनदासनिको दास ॥१६ सामायिक पोषा समै, गहै इकंत सुथान । सो विविक्तशय्यासना, भाषै श्रीभगवान ॥१७ करनों पंचम तप भया, अब छट्ठो तप धार । कायकलेस जु नाम है कहूं सूत्र अनुसार ।।१८ अति उपसर्ग उदय भयो, ताकरि मन न डिगाय । क्षमावान शांतिक महा, मेरु समान रहाय ॥१९ देव मनुज तिरजंच कृत, अथवा स्वतः स्वभाव। उपजो जो उपसर्ग है, तामै निर्मल भाव ॥२० खेद न आने चित्तमें, कायकलेस सहेय । सो कलेस नहिं पावई, ज्ञान शरीर लहेय ॥२१ गिरि-सिर ग्रीषममैं रहै, शीतकाल जल-तीर । वर्षाऋतु तरु-तल वसइ, सो पावै अशरीर ॥२२ आतापन जोग जु धरै, कष्ट सहै जु अशेष । अति उपवास करै सुधी, सो तप कायकलेश ॥२३ कायकलेसें सहु मिटै, तन मनके जु कलेस। महापाप कर्म जु कट, गुण उपजेंहि अशेष ।।२४ मुनि श्रावक दोऊनिकों, करिव कायकलेश । संकलेसता भाव तजि, इह आज्ञा जगतेश ॥२५ वनवासीके अति तपा, धरवासीके अल्प । अपनी शक्ति प्रमाण तप, करिवां त्याग विकल्प ॥२६ ए षट बाहिज तप कहै, अब अभ्यन्तर धारि । इह भार्षे श्रुतकेवली, जिनवाणी अनुसार ।।२७ दोष न करई आप जो, करवा न कदापि । दोषतनो अनुमोदना, करै नहीं बुध कापि ॥२८ मन वच तन करि गुणमई, निरदोषो निरुपाधि । आनन्दी आनंद मय, धारै परम समाधि ॥२९ अथवा कदै प्रमादतें, किंचित लागै दोष । तो अपने आंगुण सुधी, नहिं गोपै ब्रतपोष ॥३०
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष श्रीगुरु पास प्रकाशई, सरल चित्तकरि धीर । स्वामी लाग्यो दोष मुझ, दण्ड देहु जगवीर ॥३१ तब जो श्रीगुरु दण्ड दे, व्रत तप दान सुयोग । सो सब श्रद्धा तें करै, पावै पंथ निरोग ॥३२ ऐसी मनमें ना धरै, अलप हुतो यह दोष ।। दियो दण्ड गुरुने महा, जाकरि तनको शोष ॥३३ सबै त्यागि शंका सुधी, सकल विकलपा डारि । प्रायश्चित्त करै तपा, गुरु आज्ञा अनुसारि ॥३४ बहरि इच्छै दोषकों, त्यागै मन वच काय । देहतने सौ ट्रॅक , तोहु न दोष उपाय ॥३५ या विधिके निश्चय सहित, वरतै ज्ञानी जीव । ताके तप कै सातमों, भाषे त्रिभुवन-पीव ॥३६ जो चितवै निजरूपकों, ज्ञानस्वरूप अनूप । चेतनता मंडित विमल, सकल लोकको भ प ॥३७ बार बार ही निज लखै, जानें बारम्बार । बार बार अनुभव करे, सो ज्ञानी अविकार ॥३८ विकथा विषय कषायतें, न्यारों वरतै सन्त । ता विरकतके दोष कहु, कैसे उपजे मित ॥३९ निरदोषी बहुगुण धरै, गुणी महाचिद्प । तासों परचै पाइयो, सो तप धारि अनूप ॥४० दोषतनों परिहार जो, कहिये प्रायश्चित्त। धारै सो निजपुर लहै, गहै सासतो वित्त ॥४१ अव सुनि भाई आठमो, विनय नाम तप धार । विनय मूल जिनधर्म है, विनय सु पंच प्रकार ॥४२ दरसन ज्ञान चरित्र तप, ए चउ उत्तम होइ । अर इन चउके धारका, उत्तम कहिये सोइ ।।४३ इन पांचनिको अति विनय, सो तप विनय प्रधान । ताके भेद सुनूं भया, जाकरि पद निरवान ॥४४ दरसन कहिये तत्त्वकी, श्रद्धा अति दृढरूप । ज्ञान जानिवौ तत्त्वको, संशय रहित अनूप ॥४५ चारित थिरता तत्त्वमें, अति गलतानी होइ । तप इच्छाकों रोकिवौ, तन मन दण्डन सोइ ॥४६ ए है चउ आराधना, इन बिन सिद्ध न कोय । इनको अति आराधिवौ, विनयरूप तप सोय ।।४७ रतनत्रय-धारक जना, तप द्वादश विधि धार । तिनकी अति सेवा करै, तन मन करि अविकार ||४८
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श्रावकाचार-संग्रह सो उपचार कह्यो विनय, ताके बहुत विभेद । जिनवर जिन प्रतिमा बहुरि, जिनमन्दिर हर खेद ।।४९ जिनवानी जिन तीरथा. मुनि आर्यावत धार । श्रावक और सु श्राविका समदृष्टी अविकार ॥५० इनको विनय जु धारिवी, गुण अनुरागी होइ । सो तप विनय कहावई, धारै उत्तम सोइ ।।५१ जैसे सेवक लोग अति, सेवें नरपति-द्वार । तैसे चउविधि संघकों, सेवै सौ तप घार ॥५२ आप थकी जो उत्तमा, तिनको दासा होइ । सबसों समता भावई, विनयरूप तप सोइ ॥५३ व्रत बिन छोटे आपते, जे सम्यक्त निवास । जिनधर्मी जिनदास हैं, तिनहूँ सों हित पास ॥५४ धर्मराग जाके भयो, सो इह विनय धरेय । पंच प्रकार विनय करि, भव-सागर उतरेय ।।५५ अब सुनि वैयावृत्त जो नवमो तप सुखदाय । जो उपचार करै सुधी, पर दुखहर अधिकाय ॥५६ हरै सकल उपसर्ग जो, ज्ञानिनिके तप धार । सुघी वृद्ध रोगीनिकों, करै सदा उपगार ।।५७ महिमादिक चाहे नहीं, निरापेक्ष व्रतधार । वैयावृत्त करै भया, जिनवाणी अनुसार ॥५८ मुनिकों उचित मुनी करें, टहल मुनिनिकी धीर । मुनि सेवासम नाहिं कोउ, त्रिभुवनमें गंभीर ॥५९ श्रावक भोजन पथ्य दे, औषधि आश्रय आदि । करै भक्ति साधूनिकी, इह विधि है जु अनादि ॥६० जो ध्यावै निजरूपको, सर्व विकलपा टारि। सम दम भाव हि दृढ़ धरै, वैयावृत्त सो धारि ॥६१ सम कहिये समदृष्टिता, सकल जीवकों तुल्य । देखें ज्ञान विचारतें, इह दृष्टी जु अतुल्य ॥६२ दम कहिये मन इन्द्रियां, दमै महा तप धारि । चित्त लगावै आपसों, सहै लोककी गारि ॥६३ तजे लोक व्यवहारकों, धरै अलौकिक वृत्ति । सो चउगतिकों दे जला, पावें महानिवृत्ति ॥६४ सुनों सुबुद्धी कान धरि, दसमो तप स्वाध्याय । सर्व तपनिमें है सिरे, भार्षे त्रिभुवनराय ॥६५ नहिं चाहै जु महंतता, करवावे नहिं सेव । चाह नहीं परभावकी, सेवै श्रीजिनदेव ॥६६
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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
दुष्ट विकलपनिकों भया, जो नासन- समरत्थ । सो पाव स्वाध्यायकों, फल केवल परमत्य ॥६७तत्त्व सुनिश्चय कारनें, करें शुद्ध स्वाध्याय । सिद्धि करें निज ऋद्धिकों, सो आतम लवलाय ॥६८ आगम अध्यातममई, जिनवरको सिद्धान्त । ताहि भक्ति कर जो पढ़ें सो स्वाध्याय सुकान्त ॥ ६९ केवल आतम अर्थ जो, करे सूत्र अभ्यास । अपनी पूजा नहिं चहै, पार्व तत्त्व अध्यास ॥७० अपने कर्म कलंकके, काटनकों श्रुतपाठ । करें निरन्तर धर्मधी, नासै कर्म जु आठ ॥७१ भेद पंच स्वाध्यायके, उपाध्याय भाषेहिं । जे धारें ते शांतघी, आतम रस चाखहि ॥७२ कही वाचना पृच्छना, अनुप्रेक्षा गुरु देव । आमनाय पुनि धर्मको, उपदेशौ बहुमेव ॥७३ ग्रन्थ बांचवी वाचना, पूछना पूछनरीति । बारंबार विचारिवौ, अनुप्रेक्षी परतीति ॥७४ आमनायको जानिवौ, जिनमारगकी वीर । धर्म - कथन करिव सदा, कहें धर्मघर धीर ७५ निसही भवभावतें, जो स्वाध्याय करेय । पाव निजज्ञानकों, भवसागर उतरेय ॥७६ जो सेवें जिनसूत्रकों, जग अभिलाष धरेय । गर्व घरे विद्यातनों, सो चउगति भरमेय ॥७७ हम पंडित बहुश्रुत महा, जानें सकल जु अर्थ | हम न सेवै मूढधी, देखो. बड़ो अनर्थ ॥७८ इहे वासना जो धरै, सो नहिं पंडित कोइ । आतम भावे जो रमैं, सो बुध पंडित होइ ॥७९ मान बढ़ाइ कारनें, जे श्रुति सेवें अंध । ते नहि पाव तत्त्वों, करै कर्मको बन्ध ॥८० जेनसूत्र मद मान हर, ताकरि गर्वित होय । ताहि उपाय न दूसरी, भ्रमें जगतमें सोय ॥८१ अमृत विषरूपो भयो, जाकी और इलाज । कहो, कहा जु बताइये, भाषे पंडितराज ॥८२ जो प्रतिकूल विमूढधी, साघमिनितें होइ । पढ़िवो गुनिवो तासके, हालाहल सम जोइ ॥ ८३ रागद्वेष करि परिणम्यू, करे असूत्र अभ्यास । सो पावे नहि धर्मकों, करे न कर्म विनास ॥८४
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श्रीवकाचार-संग्रह युद्ध कथा कामादिका, कुकथा चावै मूढ़ । लोक-रिझावन कारणे, सो पद लहै न गूढ़ ||८५ जो जानै निजरूपकू, अशुचि देहत भिन्न । सो निकसै भवकूपतै, भटकै भाव अभिन्न ॥८६ जानैं निज पर भेद जो, आतमज्ञान प्रवीन । सो स्वामी सब लोकको, सदा सांत-रस लीन ॥८७ बिना निजातम जानिवै, है न कर्म को रोध । आगम पाठ करै तऊ, नाहिं नाहिं कछु बोध ।।८८ लखिवौ आतमभावको, सो स्वाध्याय बखानि । मुनि श्रावक दोऊनिको, यह परमारथ जानि ॥८९ अब सुनि ग्यारम तप महा, कायोत्सर्ग शिवदाय । कायाको उतसर्ग जो, निर्ममता ठहराय ॥९० त्याग्यां बैठयो देहकों, नहीं देहसों नेह । लग्यौ रंग निजरूपसों, बरसै आनंद मेह ॥९१ छिदौ भिदौ ले जाहु कोउ, प्रलय होउ निजसंग । यह काया हमरी नहीं, हम चेतन चिद अंग ॥९२ इहै भावना उर धरै, जल-मल-लिप्त शरीर । महारोग पीडै तऊ, भजै न औषध धीर ॥९३ व्याधितनों न उपायको, शिवको करै उपाय । इन्दी-विषय न सेवई, सेवै चेतनराय ।।९४ भयौ विरक्त जु भोगतें, भोजन सज्जा आदि । काहूकी परवा नहीं, भेटौ ब्रह्म अनादि ॥९५ निजस्वरूप चितवन जग्यौ, भग्यौ भोगको भाव । लग्यो चित्त चेतनथकी प्रकटयो परम प्रभाव ।।९६ शत्रु मित्र सहु सम गिन, तजै राग अरु दोष । बंध-मोक्षतें रहित निज, रूप लख्यौ गुण कोष ॥९७
बेसरी छन्द हे विरकत पुरुषनिकों भाई, इह कायोतसर्ग सुख-दाई। अरु जे तन पाषनहै लागा, ते पावै नहिं भाव विरागा ॥९८ उपकरणादिकमे मन राखें, ते नहि ज्ञान सुधारस चाखें । जग व्यवहार तजै नहिं जौलों, नहिं कायोत्सर्ग तप तौलों ॥९९ नाम त्यागको है उतसर्गा, कंपैं नहिं जा है उपसर्गा । तब कायोत्सर्ग तप पावै, निज चेतनसों चित्त लगावै ॥१५०० एक दिवस द्वै दिवसा भाई, पाख मास ऊभौ हि रहाई। चउमासी छहमासी वर्षा, रहै जु ऊभी चितमें हरषा ॥१
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष लहि निज ज्ञान भयो अति पुष्टा, जाहि न धेरै विकलप दुष्टा। सो कायोत्सर्ग तपधारी, पावै शिवपुर आनन्दकारी ॥२ मुनिके यह तप पूरण होई, श्रावकके किंचित तप जोई। श्रावक हू नहिं देह-सनेही, जानो आतम तत्त्व विदेहो ॥३ मरणतनों भय तिनके नाही, ते कायोत्सर्ग तपमाहीं। अब सुनि बारम तप है ध्याना, जा परसाद लहे निज ज्ञाना ॥४ अन्तर एक मुहूरत काला, है एकाग्रचित्त व्रत पाला। ताको नाम ध्यान है भाई, च्यारि भेद भाषै जिनराई ॥५ द्वै प्रशस्त द्वै निंद्य बखान, श्रुत अनुसार मुनिनने जाने । आरति रौद्र अशुभ ए दोई, धर्म सुकल अति उत्तम होई ॥६ आरति तीब्र कषायें होई; महा तीव्रतें रौद्र ज सोई। मन्द कषायें धर्म सु ध्याना, जाहि न पावै जीव अज्ञाना ||७ धर्मध्यानतें सुकल सु ध्यान, सुकलध्यान केवल ज्ञान । रहित कषाय सुकल है सूधा, जा सम और न ध्यान प्रबूधा ।।८ चार ध्यान ए भा भाई, तिनके सोला भेद कहाई। ते तुम सुनहु चित्त धरि मित्रा, त्यागी आरति संद्र विचित्रा ।।९ आरतिके चउ भेद जु खोटे, पशुगति दायक औगुण मोटे । इष्टवियोग अनिष्टसंजोगा, पीरा चिंतन होई अजोगा॥१० चौथो बंधनिदान कहावै, जो जीवनिको भव भरमावै । वस्तु मनोहरको जु वियोगा, होय तबै धारै शठ सोगा ॥११ इष्ट वियागारत सो जानों, दुःखतरुवरको मूल बखानों। दूजो भेद अनिष्ट संजोगा, ताको भाव सुनो भविलोगा ॥१२ वस्तु अनिष्ट मिलै जब आई, शोच करै तब भोंदू भाई। भववनमें भरमैं शठमति सो, पाप बांधि पावै दुरगति सो ॥१३ रोगनिकरि पीडया अति शठजन, आरति धार जो अपने मन । सो पीरा-चितवन है तीजौ, आरतध्यान सदा तजि दीजो ॥१४ चौथौ आरति त्यागौ भाई, बंधनिदान महा दुखदाई। . जप तप व्रत करि चाहै भोगा, ते जगमाहिं महाशठ लोगा ॥१५ ए चारों आरति दुखदाई, भव-कारण भार्षे जिनराई। रौद्रध्यानके चारि विभेदा, अब सुनि जे दायक अतिखेदा १६ हिंसाकरि आनन्द जु माने, हिंसानन्दी धर्म न जाने । ' मृषावाद करि धरै अनंदा, मृषानन्द सो जियको फन्दा ॥१७ चोरीतें आनंद उपजावै, सो अघ चौर्यानन्द कहावै। परिग्रह बढ़े होय आनन्दा, सो जानों जु परिग्रहानन्दा ॥१८ ए चउ भेद हरें सुख साता, दुरमतिरूप उग्र दुखदाता । पर विभूतिकी घटतौ चाहें, अपनी संपत्ति देखि उमाहे ॥१९
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श्रावकाचार-संग्रह रौद्रध्यानके लक्षण एई, त्यागें धन्य धन्य हैं तेई। आरति रुद्र ध्यान ए खोटा, इनकरि उपजे पाप जु मोटा ॥२० दुखके मूल सुखनिके खोवा, ए पापी हैं जगत डबोवा । चउ आरतिके पाये भाई, तिर्यग्गतिकारण दुखदाई ॥२१ रौद्रध्यानके चार ए पाये, अधोलोकके दायक गाये। अशुभध्यान ये दोय विरूपा, लगे जीवके विकलप रूपा ॥२२ नरक निगोद प्रदायक तेई, वसे मिथ्यात धरामें एई। कबहुं कदाचित अणुव्रत ताई, काहूके रौद्र जु उपजाई ॥२३ महावृत्तलों आरतध्याना, कबहुँक छट्टे परमित थाना । काइके उपजें त्रय पाये, सप्तम ठाणे सर्व नसाये ॥२४ भोगारति उपजे नहिं भाई, जो उपजै तो मुनि न कहाई । अब सुन धर्मध्यानकी बातें, जे सह पाप पंथकों घातें ॥२५ धर्म जु स्वते स्वभाव कहावै, पण्डितजन तासों लब लावै । क्षमा बादि दशलक्षण धर्मा, जीवदया बिनु कटइ न कर्मा ॥२६ इत्यादिक जिन-भाषित जेई, धारै धर्म धीर हैं तेई। धर्मविर्षे एकाग्र सुचित्ता, विषय-भोगसे अतिहि विरत्ता ॥२७ जे वैराग्यपरायण ज्ञानी, धर्मध्यानके होंहिं सु ध्यानो। जो विशुद्धभावनिमें लागा, जिनर्ते रागदोष सहु भागा ।।२८ एक अवस्था अंतर बाहिर, निरविकल्प निज निधिके माहिर । घ्यावे आतमभाव सुधीरा, है एकाग्रमना वर वीरा ॥२९ जे निजरूपा है समभावा, ममत वितीता जग निरदावा । इन्द्री जोति भये जु जितिन्द्री, तिनकों ध्यानी कहें अतिन्द्री ॥३० चितवन्ता चेतन गुण-धामा, ध्यानहिं लीना आतमरामा । निरमोहा निरदुन्द सदा हो, चितमें कालिम नाहिं कदा ही ॥३१ जेहि अनुभवें निज चितधनकों, रोक मनकों सौखें तनकों। आनन्दी निज ज्ञानस्वरूपा, तिनके धर्म रु ध्यान निरूपा ॥३२ मैत्री मुदिता करुणा भाई, बर मध्यस्थ महासुखदाई। एहि भावना भाव जोई, धर्मध्यानको ध्याता सोई॥३३ सर्वजीवसों मैत्रीभावा, गुणी देखि चितमें हरषावा । दुखो देखि करुणा उर आने, लखि विपरीत राग नहिं ठाने ॥३४ द्वष जु नाहिं धरै जु महन्ता, है मध्यस्थ महा गुणवन्ता । बहुरि धर्मके चारि जु पाया, ते सम्यकदृष्टिनिकों भाया॥३५ आज्ञाविचय कहावै जोई, श्रोजिनवरने भाष्यो सोई । ताकी दृढ़ परतीति करै जो, संशय विभ्रम मोह हरै जो ॥३६ कर्म नाशको उद्यम ठान, रागद्वेषको परणति भान । सो अपायविचयो है दूजौ, तिरै जगतथी धारै तू जौ ॥३७
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
करे उपाय शुद्ध भावनिको, अर निरवाणपुरी पावनिको । तीजी नाम विपाकविचय है, भव-भावनितं भिन्न रहे हैं ॥ ३८ शुभ उदय संपदा आवे, अशुभ उदय आपद बहु पावें । दोऊ जाने तुल्य सदाही, हर्ष विषाद धरै न कदा ही ॥ ३९ पुनि संठाणविचय है चौथो, सर्व जगतकों जानें थोथौ । तीन लोकको जानि सरूपा, जिनमारग अनुसार अनूपा ॥४० सबको भूषण चेतनराया, चेतनसों नहिं दूजी भाया । सर्व लोक छांड़िजु प्रीती, चेतनकी धारै परतीतो ॥४१ चेतन भावनिमें लौ लाव, अपनों रूप आपमें ध्याव । ए हैं धरमध्यानके भेदा, सुकल-प्रदायक पाप-उछेदा ॥४२ चौथे गुण ठाणें होइ धर्मा, संपूरण गुण ठाणें परमा । धर्मध्यानके चउ गुणठाणा, ते देवाधिदेवने जाणा ॥४३ अहमिन्द्रादिक पद फल ताकी, वरणे जाहि न अति गुण जाको । कारण सुकल ध्यानको एही, धर्मध्यानतें सुकल जु लेही ॥४४ मुनि श्रावक दोऊके गाया, धर्मध्यान सो नहीं उपाया । मुनिको पूरणरूप प्रवानों, श्रावकके कछु नून बखानों ॥ ४५ मुनि अति ही निश्चलताई, श्रावकके किंचित थिरताई । परिग्रह चंचलताको मूला, जातें धर्म न होय सथूला ||४६ पै तृष्णा छांड़ी बहुतेरी, करि मरजादा परिग्रहकेरी । तात धर्मध्यानके पात्रा, श्रावक हू जाणों गुणगात्रा ॥ ४७ धर्मध्यानके च्यारि स्वरूपा, और हु श्रीगुरु कहे अनूपा । इक पिंडस्थ पदस्थ द्वितीया, रूपस्था तीजौ गनि लीया ॥४८ रुपातीत चतुर्थम भेदा, हद्द धर्मकी पाप उछेदा । इनके भेद सुनौ मन लाये, जाकरि सुकलध्यानकूं पाये ॥४९ fusमाहिं सब लोक विभूती, चितवे ज्ञानी निज अनुभूती । पिंडलोकको राजा चेतन, जाहि स्पर्श सकै न अचेतन ॥५० ताको ध्यान करे जो ध्यानी, सो होवे केवल निज ज्ञानी । बहुरि पदस्थ ध्यान बुघ धारे, जिनभाषित पद मन्त्र विचारं ॥ ५१ पंच परमगुरुमंत्र अनादी, ध्यावै धीर त्याग क्रोधादी । नमोकारके अक्षर भाई, पें तीसौ पूरण सुख दाई ॥५२ षोड़श अक्षर मंत्र महंता, पंच परमगुरु नाम कहन्ता ।
मन्त्र षड़ाक्षर अ र हं त सिद्धा, असि आ उ सा पंच प्रबुद्धा ||५३ नमोकारके पैतिस अक्षर, प्रसिद्ध छे अरु षोड़स अक्षर । अरहंत सिध आयरिय उवझाया, साहू जपेंते अंक गिनाया ॥५४ चउ अक्षर म र हं त जपौ जू, सिद्ध नाम उरमाहि थपी जू । अक्षर भूलो मति भाई, सिद्ध-सिद्ध यह जाप कराई ॥५५
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श्रावकाचार-संग्रह
मन्त्र इकाक्षर है ओंकारा, ब्रह्मबीज इह प्रणव अपारा । पंच परमपद या अक्षरमें, याहि ध्याय जगमैं नहिं भरमैं ||५६ शुक्लरूप अति उज्जल सजला, ध्यावै प्रणवातें हैं विमला । सोऽहं सोऽहं अजपाजापा, हरे सन्तके सब सन्तापा ॥५७ इह सुर सबही प्राणीगणके, होवै श्वास उश्वास सबनिके ।
हियाको भेदजु पावे, तातै भोंदू भव भरमावै ॥५८ जो यह नाद सुनें बरवीरा, पावै शुक्लध्यान गुणधीरा । उज्जलरूप दाय ए अंका, ध्यावै सो नासै अघ-पंका || ५९ जिनवर सोनहि देव जु कोई, अजपा सो नहिं जाप सु होई । . मन्त्र अनेक जिनागम गाये, ते ध्यानी पुरुषनिने ध्याये ॥ ६० सबमें पंच परम गुरु नामा, पंच इष्ट बिन मंत्र निकामा । मन्त्राक्षरमाला जो ध्यावै, नाम पदस्थ ध्यान सो पावै ॥ ६१ अब सुनि तीज भेद सु भाई, है रूपस्थ महासुखदाई । कृत्रिम और अकृत्रिम मूरति जिनवरको ध्यावै शुभ सूरति ॥६२ जिनवरकी साकार स्वरूपा, तेरम गुणठाणें जु अनूपा । अतिशय प्रातिहार्यधर स्वामी, धरै अनंत चतुष्टय नामी ||६३ समवसरण शोभित जिनदेवा, ताहि चितारै उर धरि सेवा । पुनि तजि रूप रंग गुणवाना, ध्याव े चौथो भेद सुजाना ॥ ६४ रूपातीत समान न कोई, धर्मध्यानको भेद जु होई । ध्याव सिद्धरूप अतिशुद्धा, निराकार निरलेप प्रबुद्धा ॥६५ पुरुषाकार अरूप गुसांई, निरविकार निरदूषण सांई । वसु गुण आदि अनंत गुणाकर अवगुण रहित अनंत प्रभाधर ||६६ लोकशिखर परमेसुर राजे, केवलरूप अनूप विराजै । जिनकों उर-अन्तर जे ध्याव, रूपातीत ध्यान ते पाव ॥ ६७ सिद्ध समान आपकों देखे, निश्चयनय कछु भेद न पेखै । व्यवहारे प्रभु हम दासा निश्चय शुद्ध बुद्ध अविनाशा ॥६८ ए चारू ध्याव जो धर्मा, ते हि पिछाने श्रुतको मर्मा । धर्मध्यान चहुं गतिमैं होई, सम्यक बिन पाव नहिं कोई ॥६९ छट्टम सप्तम मुनिके ठाणा, पंचम ठाणें श्रावक जाणा । चौथे अवत सम्यकज्ञानी, तेऊ धर्मध्यानके ध्यानी ॥७० चौथेसों ते सप्तमताई, धर्मध्यानकों कहैं गुसांई । धर्मध्यान परभाव सुज्ञानी, नासै दस प्रकृती निजध्यानी ॥ ७१ प्रथम चौकरी तीन मिथ्याता, सुर नारक अर आयु बिख्याता । अष्टमसों चौदमलों सुकला, सुकल समान न कोई विमला ॥७२ शुकलध्यान मुनिराज हि ध्यावै, शुकलकरी केवलपद पावें । शुकल नसावें प्रकृति समस्ता, करें शुकल रागादि विध्वस्ता ||७३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
जै जिन आतमसों लव लाव शुकल तिनोंके श्रीगुरु गाव । शुकलध्यानके चारि जु पाये, ते सर्व ज्ञदेवने गाये ||७४ द्वै सुकला द्वे सुकल जु पर्मा, जानै श्रीजिनवर सहु मर्मा । प्रथम पथक्त वितर्कविचारा, पथक नाम है भिन्न प्रचारा॥७५ भिन्न भिन्न निज भाव विचार. गण पर्याय स्वभाव निहारै। नाम वितर्क सूत्र को होई, श्रुति अनुसार लखै निज सोई ॥७६ भावथकी भावांतर भावं', पहलो शुकल नाम सो पाव । दुजो है एकत्ववितर्का, अवीचार अगणित दुति अर्का ।।७७ भयो एकतामें लवलीना, एकीभाव प्रकट जिन कीना। श्रुत अनुसार भयौ अविचारी, भेदभाव परिणति सब टारी ॥७८ तीजो सूक्षम किरियाधारी, सूक्षम जोग करै अविकारी । चौथो जोगरहित निहकिरिया, जाहि ध्याय साधू भव तिरिया ॥७९ अष्टम ठाणे पहलो पायो, बारमठाणे दूजो गायो। तीजो तेरमठाणे जानों, चौथो चौदमठाणे मानों ।।८० इनके भेद सुनों धरि, भावा, जिनकरि नासै सकल विभावा। होहिं पवित्र भाव अधिकाई, जे अब तक हुए नहिं भाई ॥८१ भाव अनन्त ज्ञान सुख आदी, तिनको धारक वस्तु अनादी। लिये अनन्ता शक्ति महन्ती, धरै विभूति अनन्तानन्ती ॥८२ अपनी आप माहिं अनुभूती, अति अनंतता अतुल प्रभूती। अपने भाव तेहि निज अर्था, और सबै रागादि अनर्था ॥८३ अपनो अर्थ आपमें जानै, आतम सत्ता आप पिछाने ।। इक गुणतें दूजो गुण जावै, ज्ञानथकी आनन्द बढ़ावै ॥८४ गुण अनन्तमें लीलाधारी, सो पृथक्त वीतर्क विचारी। अर्थथकी अर्थान्तर जावै, निज गुण सत्ता माहिं रमावै ॥८५ योगथको योगान्तर गमना, राग द्वेष मोहादिक वमना। शब्दथकी शब्दान्तर सोई, ध्याव शब्द-रहित है सोई ॥८६ व्यंजन नाम शुद्ध परजाया, जाको नाश न कबहुँ बताया। वस्तुशक्ति गुणशक्ति अनन्ती, तेई पर्यय जानि महन्ती ॥८७ व्यंजनतें व्यंजन परि आवे, निज स्वभाव तजि कितहु न जावे । श्रुति अनुसार लखै निजरूपा, चिनमूरति चैतन्य स्वरूपा ।।८८ जैनसूत्रमें भाव श्रुती जो, प्रगटै अनुभव ज्ञानमतो जो। सो पृथक्कवितर्क विचारा, ध्याव साधू ब्रह्म विहारा ॥८९
दोहा जानि पृथक्त अनन्तता, नाम वितर्क सिद्धत । है विचार अविचार निज, इह जानों विरतन्त ॥९०
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श्रावकाचार-संग्रह
बेसरी छन्द लश्या सुकल भाव अति शुद्धा, मन वच-काय सबै जु निरुद्धा। यामें एक और है भेदा, सो तुम धारहु टारहु खेदा ॥९१ उपशमश्रेणी क्षपक जु श्रेणी, तिनमें क्षायक मुक्ति निसैनी। पहलो शुक्ल जु दोऊ धारै, दूजो क्षपकविना न निहारै ॥९२ उपशम बारे ग्यारम ठाणा, परम्परै उतरै गुणठाणा। जो कदाचि भवहूर्ते जाई, तौ अहमिन्द्रलोककों जाई ॥९३ नर है करि धारे फिर धर्मा, चढें क्षपकश्रेणी जु अमर्मा। क्षपक श्रेणिधर धीर मुनिन्द्रा, होवे केवलरूपजिनिन्द्रा ।।९४ बारम ठाणे दूजो सुकला, प्रकटै जा सम और न बिमला। द्वमें क्षपकणि अधिकाई, कही जाय नहिं क्षपक बढ़ाई ॥९५ अष्टम ठाणे प्रगटै श्रेणी, सप्तमलों श्रेणी नहिं लेणी। क्षपक श्रेणिधर सुकल निवासा, प्रकृति छतीस नवें गुण नासा ॥९६ दशमें सूक्षम लोभ खिपार्व, दशमाथी बारमकों जावें। ग्यारमकों पैंडौ नहिं लेवे, दूजो सुकलध्यान सुख बेवे ॥९७ साधकताकी हद्द बताई, बारमठाण महा सुखदाई । जहां षोड़शा प्रकृति खिपावं, शुद्ध एकतामें लव लावै ॥९८
सोरठा मार्यो मोह पिशाच, पहले पायेसे श्रीमुनी। तजौ जगतको नाच, पायो ध्यायो दूसरौ ॥९९ है एकत्ववितर्क, अवीचार दूजी महा। कोटि अनन्ता अर्क, जाको सो तेज न लहै ॥१६०० ज्ञानावरणीकर्म, दर्शनावरणी हू हते। रह्यो नाहिं कछु मर्म, अन्तराय अन्त जु भयौ ॥१ निरविकल्प रस मांहि, लीन भयो मुनिराज सो। जहाँ भेद कछु नाहि, निजगुण पर्ययभावतें ॥२ द्रव्य सूत्र परताप, भावसूत्र दरस्यो तहाँ । गयो सकल सन्ताप, पाप पुण्य दोऊ मिटै ॥३ एक भावमें भाव, लखै अनन्तानन्त हो । भागे सकल विभाव, प्रगटे ज्ञानादिक गुणा ॥४ अपनों रूप निहार, केवलके सन्मुख भयो । कर्म गये सब हारि, लरि न सके जासें न को ॥५ एकहि अर्थे लीन, एकहि शब्दै माहिं जो। एकहि योग प्रवीन, एकहिं व्यंजन धारियौ ॥६
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
एकत्व नाम अभेद, नाम वितर्क सिद्धंतकों । निरविचार निरवेद, दूजी पायो इह कह्यी ॥७ जहाँ विचार न कोय, भागे विकलप जाल सहु । क्षीणकषायी होइ, ध्यानारूढ़ भयो मुनी ॥८
जो पायो येह, गायो गुरु आज्ञा थकी । करं कर्मको छेह, अब सुनि तीजौ शुकल तू ॥९ सूक्षमकिरिया नाम, प्रगटै तेरम ठाण जो । जो निज केवल धाम, श्रुतज्ञानीके है परे ॥१० लोकालोक समस्त, भासै केवल बोधमें । केवल सो न प्रशस्त, सर्वलोकमें और कोउ ।।११ जे अघातिया नाम, गोत्र वेदनी आयु हैं । तिनकों नाश राम, परम शुकल केवल थकी ॥१२ पिच्यासी प्रकृतो जु, जिनके ठाणें तेरमें । जरो जेवरी सी जु, तिनकूं नाशै सो प्रभू ॥१३ सूक्षमक्रिया प्रवृत्ति, ध्यावै तीजी शुकल सो । वादरजोग निवृत्ति, कायजोग सक्षम रहै ॥१४ करै जु सूक्षम जोग, तेरम गुणके छेहु रै । पावे तबै अजोग, चौदम गुणठाणें प्रभू ॥१५ तहां सु चौथो ध्यान, है जु समुच्छिन्नक्रिया । ताकर श्रीभगवान, बेहतरि तेरा हतै ॥१६ गई प्रकृति समस्त, सौ ऊपरि अड़ताल जे । भये भाव जड़ अस्त, चेतन गुण प्रगटे सबै ॥ १७ करनी सकल उठाय, कृत्यकृत्य हूवी प्रभू । सो चौथो शिवदाय, परम शुकल जानों भया ॥ १८ पंच लघुक्षर काल, चौदम ठाणें थिति करे । रहित जगत जंजाल, जगत - शिखर राजे सदा ।।१९ बहुरि न आवै सोय, लोकशिखामणि जगततें । त्रिभुबनको प्रभु होय, निराकार निर्मल महा ॥२० सबकी करनी सोइ, जाने अंतरगत प्रभू । सर्व व्यापको होइ, साखीभूत अव्यापको ||२१ ध्यान समान न कोइ, ध्यान ज्ञानको मित्र है । सो निज ध्यानी होइ, ताकों मेरी वंदना ॥२२ धर्ममूल ए दोय, ध्यान प्रशंसा योग्य हैं । आरति रूद्र न होय, सा उपाय करि जीव तू ॥२३ धर्म अगनिक दीप, शुकल रतनको दौप है । निज गुण आप समीप, तिनकों ध्यावौ लोक तजि ॥२४
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श्रावकाचार-संग्रह ध्यान तनूं विस्तार, कहि न सके गणधर मुनी। कैसे पावें पार, हमसे अलपमतो भया ।।२५ तप जप ध्यान निमित्त, ध्यान समान न दूसरो। ध्यान धरौ निज चित्त, जाकरि भवसागर तिरौ ॥२६ तपकू हमरी ढोक, जामें ध्यान जु पाइये । मेटै जगको शोक करै कर्मको निर्जरा ॥२७ अनशन आदि पवित्र, ध्यान लगै तप गाइया। बारा भेद विचित्र, सुनों अबै समभाव जो ॥२८
इति द्वादश तप निरूपणम् ।
अथ सम भाव वर्णन
छप्पय चाल राग द्वेष अर मोह, एहि रोके समभावें। जिनकरि जगके जीव, नाहिं शिवथानक पावै । तेरा प्रकृति राग, द्वेषकी बारा जानो। मोहतनी हैं तीन, ए अट्ठाईस बखानों ।। एक मोहके भेट दो, दर्शन चारित्र ए। दर्शन मोह मिथ्यात भव, जहां न सम्यक सोहए ॥२९ राग द्वेष ए दोय. जानि चारित्र जु मोहा । इनकरि तप नहीं व्रत, एह पापो पर द्रोहा॥ इनकी प्रकृति पचीस, तेहि तजि आतमरामा। छांडो तीन मिथ्यात, यही दोषनिके धामा । स्वपर विवेक विचार विना, धर्म अधर्म न जो लखै। सो मिथ्यात अनादि प्रथम, ताहि त्यागि निजरस चलें ॥३० दूजो मिश्र मिथ्यात, होय तीजे गुण ठाणे । जहां न एक स्वभाव, शुद्ध आतम नहिं जाणे ॥ सत्य असत्य प्रतीति, होय दुविधामय भावें। ताहि त्यागि गुणखानि, शुद्ध निजभाव लखावै ॥ तीजी सम्यक् प्रकृति मिथ्यात, समकितमैं उदवेग कर । भलो दोयतें तीसरौ, तो पन चंचलभाव धर ॥३१
बोहा
कहे तीन मिथ्यात ए, दरशन मोह विकार । अब चारित्र जु मोहको, भेद सुनौ निरधार ॥३२ कही कषाय जु षोडसो, नो-कषाय नव मेलि । ए पच्चीसों जानिये, राग द्वेषकी वेलि ॥३३
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३५९.
दौलतराम-कृत क्रियाकोष चउ माया चउ लोभ अर, हासि रती त्रय वेद । ए तेरा हैं रागकी, देहिं प्रकृति अति खेद ॥३४ चार क्रोध अर मान चउ, अरति शोक भय जानि। दुरगंधा ये द्वादशा, प्रकृति द्वेषकी मानि ॥३५ लगीं अनादि जु कालकी, भरमावै जु अनंत । विनसें भव्यनिके भया, है न अभविके अन्त ॥३६
रोकै सम्यकदृष्टिकों, कोकै सकल विभाव । ढोकै मिथ्याष्टिकों, नहिं जामें समभाव ॥३७ अनंतानुबन्धी इहै, प्रथम चौकरी जानि । त्यागै तीन मिथ्यात जुत, सो समदृष्टी मानि ॥३८
छप्पय छन्द समकित बिनु नहिं होत, शांतिरूपी समभावा । चौथे गुण ठाणे जु कछुक, समभाव लखावा। द्वितिय चौकरी बहुरि, सोह अव्रतमय भाई। नाम अप्रत्याख्यान, जा छतें व्रत न पाई ॥ दोय चौकरी तीन मिथ्या, त्याग होय श्रावकव्रती। प्रगटै गुणठाण जु पंचमैं, पापनिकी परिणति हती ॥३९ चढे तहां समभाव, होय रागादिक नूना। अवततें गनि ऊंच, साधुव्रत्तनितें ऊना। ततिय चौकरी जानि, नाम है प्रत्याख्यानी। रोकै मुनिव्रत एह, ठाण छट्ठो शुभध्यानी ॥ तीन चौकरी तीन मिथ्या, छांडि साधु वै संजमो । वृद्धि होय समभावई, मन इन्द्री सब ही दमी ॥४०
दोहा चौथी संजुलना सही, रोकै केवलज्ञान । जाके तीव्र उदय-थकी, होय न निश्चल ध्यान ॥४१
छप्पय छन्द चौथी चौकरि टारे, नाम संजुलन जवै ही। नो-कषाय नव भेद, नाशि जावै जु सबै ही ॥ यथाख्यात चारित्र, ऊपजै बारम ठाणे। पूरण तब समभाव, होय जिनसूत्र प्रमाणे । क्रोध मान छल लोभ, चारू एक एक चउ भेद ए। हृ षोडश नव युक्त ये, मोह प्रकृति अति खेद ए ॥४२
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३१.
श्रावकाचार-संग्रह
दोहा अनंतानुबंधी प्रथम, द्वित्तीय अप्रत्याख्यान । तीजी प्रत्याख्यान है, चउथी है संजुलान ॥४३ कही चौकरी चारि ए, चारों गतिको मूल । चार-तनी सोला भई, भेद मोक्ष प्रतिकूल ||४४ हास्य अरति रति शोक भय, दुरगंधा दुखदाय । नो-कषाय ए नव कही, पंचबीस समुदाय ॥४५ राग द्वेषकी प्रकृति ए, कही पचीस प्रमान । तीन मिथ्यात समेत ए, अट्ठाईस बखान ॥४६ जायं जब सब ही भया, तब पूरण समभाव । यथाख्यातचारित्र है, क्षीणकषाय प्रभाव ॥४७ मुनिके जातें अलप हैं, छठे सातमें ठाण । पन्द्रा प्रकृति अभावर्ते, ता माफिक सम जाण ॥४८ श्रावकके यातें अलप, पंचम ठाणे जाण । ग्यारा प्रकृति गयां थकों, ता माफिक परवाण ॥४९ श्रावकके अणुवृत्त है, इह जानों निरधार । मुनिके पंच महाव्रता, समिति गुपति अविकार ।।५० श्रावकके चौथे अलप, चौथो अव्रत ठाण । तहां सात प्रकति गई, ता माफिक ही जाण ॥५१ गुणठाणा समभावके, 8 ग्यारा तहकीक । चौथे सू ले चौदमा-तक नहिं बात अलीक ।।५२ चौथे जघन जु जानिये, मध्य पंचमे ठाण । छट्ठासूदसमा लगै, बढ़तो बढ़तो जाण ॥५३ बारम तेरम चौदवें, है पूरण समभाव । जिन शासनको सार यह, भव-सागरकी नाव ॥५४
छप्पय छट्ठमसों ले....."जुगल मुनीके जाणा। तिनको सुनहुं विचार, जैनशासन परवाणा ॥ छट्टम सप्तम ठाण, प्रकृति पंद्रा जब त्यागी। तीन मिथ्यात विख्यात, चौकरी ईक तीन उ भागी । तब उपजे समभावई, श्रावकके अधिको महा। पे तथापि तेरा रही, तातें पूरण नहिं कहा ॥५५ रहो चौकरी एक, और गनि नो-कषाय नव । तिनको नाश करेय, सो न पावै कोई भव ।।
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष छट्टतीव्र जु उदे, सातवें मंद जु इनको । इनमें षट हास्यादि, आठवें अन्त जु तिनको ॥ क्रोध मान अर कपट नो वेद तीनही नहिं यां । चौथे चौकरि लोभ सूक्षम दश वेठाण विनाशिया ॥५६
चाल छन्द एकादशमा द्वादशमा, पुनि तेरम अर चौदशमा। समभावतने गुणथाना, ए चार कहे भगवाना ॥५७ ग्यारम है पतन स्वभावा, डिगि जाय तहाँ समभावा । बारहमें परम पुनीता, जासम नहिं कोइ अजीता ॥५८ तेरम चोदम गुणठाणा, परमातरूप बखाना। समभाव तहाँ है पूरा, कीये रागादिक चूरा ॥५९ नहिं यथाख्यात सौ कोई, समभाव-सरूपी सोई॥ इह सम उतपत्ति बताई. रागादिक नाश कराई॥६० अब सुनि सम लक्क्षण संता, जा विधि भार्षे भगवंता। जीवो-मरिवौ सम जाने, अरि-मित्र समान बखाने ॥६१ सुख-दुख अर पुण्य जु पापा, जानै सम ज्ञान-प्रतापा। सब जीव समान विचारे, अपने से सर्व निहारै ॥६२ चिंतामणि-पाहन तुल्या, जिसके समभाव अतुल्या। सुरगति अर नरक समाना, सब राव रंक सम जाना ॥६३ जिनके घर में नहिं ममता, उपजी सुखसागर समता। वन-नगर समान पिछार्ने, सेवक साहिव सम जानें ॥६४ समसान-महल सम भावै, जिनके न विषमता आवै । है लाभ-अलभ समाना, अपमान-मान सम जाना ॥६५ गिरि-ग्राम समान जिनूंके, सुर-कीट समान तिनूंके । सुरतरु-विषतरु सम दोऊ, चन्दन-कर्दम सम होऊ॥६६ गुरु-शिष्य न भेद विचारै, समता परिपूरण धारें। जाने सम सिंह-सियाला, जिनके समभाव विशाला ॥६७ संपति-विपदा द्वै सरिखी, लघुता-गुरुता सम परखी। कंचन लोहा सम जाके, रंच न है विभ्रम ताके ॥६८ रति-अरति हानि अर वृद्धी, रज सम जानें सब ऋद्धी। खर-कुंजर तुल्य पिछाने, अहि फूलमाल सम जानें ॥६९ नारी नागिन सम देखै, गृह कारागृह सम पेखे । सम जानें इष्ट-अनिष्टा, सम मानें अबलि-बलिष्टा ॥७० जे भोग रोग सम जाने, सब हर्ष रोग सम मार्ने । रस नीरस रंग कूरंगा, सुसबद कुसबद सम अंगा ॥७१
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श्रावकाचार-संग्रह शीतल अर उष्ण समाना, दुरगंध सुगंध प्रमाना । नहिं रूप कुरूप जु भेदा, जिनके समभाव निवेदा ॥७२ चक्री अर निरधन दोई, कछु भेदभाव नहिं होई। चक्राणी अर इन्द्राणी, अति दीन नारि सम जाणी ॥७३ इन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रा, पुनि सर्वोत्तम अहमिन्द्रा। सूक्षम जीवनि सम देखे, कछु भेद भाव नहिं पेखें ॥७४ थुति निंदा तुल्य गिर्ने जो, पापनिके पुज हनें जो । कृमि कुन्थुकृष्ण सम तुल्या, पायो समभाव अतुल्या ॥७५ सेवा उपसर्ग समाना, वैरी बांधव सम माना। जिनके द्विज शुद्र सरीखा, सीखी सदगुरुकी सीखा ॥७६ बन्दै निन्दै सो सरिखो, समभावनि तन जिन परिखो। समतारस पूरण प्रगटयो, मिथ्यात महाभ्रम विघटयो ।।७७ तिनकी लखि शांत सु मुद्रा, रौद्र जु त्यागै अति रुद्रा। चीता मृगवर्ग न मारे, अति प्रीति परस्पर धारै ॥७८ गरड़ा नहिं नाग विनास, नागा नहिं दादर नासै । उन्दर मारै न विडाला, पंखिनिसौं प्रीति विशाला ॥७९ तिर विद्याधर नर कोई, सुर असुर न वाधक होई । काहूकू राव न दंडे, दुरजन दुरजनता छंडै ।।८० काहूके चोर न पैसे, चोरी होवे कहु कैसे। लखि समता-धारक मुनिकों, त्यागै पापी पापनिकों ॥८१ डाकिनिको जोर न चाले, हिंसक हिंसा सब टाले । भूता नहिं लागन पावै, राक्षस व्यंतर भजि जावें ॥८२ मंतर न चलें जु किसीके, ये हैं परभाव रिषीके । कोहू काहू नहिं मारे, सब जीव मित्रता धारै ।।८३ हरिनी मृगपतिके छावा, देखै निज-सुत समभावा । बाघनिषू गाय चुखावे, मार्जारो हंस खिलावै ॥८४ ल्याही अर मीढ़ा इकठे, नाहर अर बकरा बइठे। काहको जोर न चाले, समभाव दुखनिकों टाले ।।८५ रोगिनि के रोग नसावे, सोगिनि सोग बिलावै । कारागृह तें सब छूटें, कोउ काहू कोनहिं लूटे ।।८६ इह ब्रह्म सुविद्यारूपा, निरदोष विराग अनूपा । अति शांतिभावको मूला, समसों नहिं शिव अनुकूला ।।८७ नहिं समता पर छै कोऊ, सब श्रुतिको सार जु होक। जो ममताको परित्यागी, सो कहिये सम बड़भागी ॥८८ मन इन्द्रीको जु निरोधा, सो दम कहिये प्रतिबोधा। समतें क्रोधादि नशाया, दमतें भोगादि भगाया ।।८९
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दौलतराम-कृत क्रियाकोव
सम दम निरवाण प्रदाया, काहे धारौ नहि भाया । सब जेनसूत्र समरूपा, समरूप जिनेश्वर भूपा ॥९० समताघर चउविधि संघा, समभाव भवोदधि लंघा । पूरण सम प्रभुके पइये, तिनतें लघु मुनिके लइये ॥९१ तिनतें श्रावकके नूना, सम करे कर्मगण चूना । श्रावकर्ते चौथे ठाणें, कछुइक घटता परमाणें ॥९२
सम्यक बिन समता नाहीं, सम नाहि मिथ्यामत माहीं । ममता है मोह सरूपा, समता है ज्ञान प्ररूपा ॥ ९३ सब छांड़ि विषमता भाई, ध्यावी समता शिवदाई | समकी महिमा मुनि गावे, समको सुरपति शिर नावे ॥ ९४ समस नहि दूजो जगमें, इह सम केवल जिनमगमैं । सम अर्थ सकल तप वृत्ता, सम है मारग निरवृत्ता ॥ ९५ जो प्राणी समरस भावै, सो जनम मरण नहि पावे । यम नियमादिक जे जोगा, सबमें समभाव अलोगा ||९६ समको जस कहत न आवै, जो सहस जीभ करि गावै । अनुभव अमृतरस चाखे, सोई समता दिढ़ राखे ॥९७
इति समभाव निरूपण ।
अथ सम्यक्त्व वर्णन
सवैया इकतीसा ।
अष्ट मूलगुण कहे, बारह बरत कहे, कहे तप द्वादश जु समभाव साधका ।
सम सा न कोऊ और सर्वको जु सिरमोर, याही करि पावै ठौर आतम आराधका । विषमता त्यागि अर समताके पंथ लागि, छाडौ सब पाप जेहि धर्मके विराधका । ग्यारे पड़िमा जु भेद दोषनिको करै छेद, धारै नर धीर धरि सके नाहिं बाधका ॥९८
दोहा
पड़िमा नाम जु तुल्यकौ, मुनिमारगकी तुल्य । मारग श्रावकको महा, भाषै देव अतुल्य ॥९९ बहुरि प्रतिज्ञाकों कहें, पड़िमा श्रोभगवान । होंहि प्रतिज्ञा धारका, श्रावक समतावान || १७०० मुनिके लहुरे वीर हैं, श्रावक पड़िमाधार । मुनि श्रावकके धर्मको, मूल जु समकित सार ॥१ सम्यक चउ गतिके लहैं, कहै कहालों कोइ । पै तथापि वरणन करूं, संवेगादिक सोइ ॥ २
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श्रावकाचार-संग्रह सम्यकके गुण अतुल हैं, श्रावक तिरि नर होय । मुनिव्रत मनुजहि धारहीं, द्विज छत वाणिज होय ॥३ संवेगो निरवेद अर, निंदन गहा जानि । समता भक्ति दयालुता, बात्सल्यादिक मानि ।।४ धर्म जिनेसुर कथित जो, जीवदयामय सार । तासौं अधिक सनेह है, सो संवेग विचार ॥५ भव तन भोग समस्ततें, विरकत भाव अखेद । सो दूजो निरवेद गुण, करै कर्मको छेद ॥६ तीजी निंदन गुण कह्यो, निजकों निंदै जोइ । मनमैं पछितावो करें, भव भरमणको सोइ ।।७ चौथौ गरहा गुन महा, गुरुपै भाषै वीर । अपने औगुन समकिती, नहीं छिपावै धीर ।।८ पंचम उपशम गुण महा, उपशमता अधिकाय । प्राण हरे वाहू थकी, बैर न चित्त धराय ॥९ छट्टो गुण भक्ती धरै, सम्यकदृष्टी संत । पंच परमपदकी महा, धारै सेव महंत ॥१० सप्तम गुण वात्सल्य जो, जिन धमिनिसों राग। अष्टम अनुकंपा गुणो, जीवदया व्रत लाग ।।११
उक्तं च गाथासंवेओ णिव्वेओ, जिंदण गरुहा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा, अट्ट गुणा हुंति सम्मत्ते ॥१२
चौपाई
भव्यजीव चहुँगतिके माहीं, पा समकित संशय नाहीं । पंचेन्द्री सैनी बिनु कोय, और न सम्यकदृष्टी होय ॥१३ जब संसार अलप ही रहै, तब सम्यक दरशनकों गहै। प्रथम चौकरी तीन मिथ्यात, ए सातों प्रकृती विख्यात ॥१४ इनके उपशमतें जो होय, उपशम नाम कहावै सोय।। इनके क्षयते क्षायिक नाम, पावै मनुष महागुण धाम ॥१५ क्षायिक मनुष बिना नहिं लहै, क्षायिक तुरत ही भव-वन दहै। केवल आदि मूल इह होय, क्षायिक सो नहिं सम्यक कोय ॥१६ अब सुनि क्षय-उपसमको रूप, तीन प्रकार कह्यो जिनभूप । प्रथम चौकरी क्षय है जहां, तोन मिथ्यात उपसमें तहां ॥१७ पहलो क्षय-उपशम सो जानि, जिनवानी उरमैं परवानि । प्रथम चौकरी पहल मिथ्यात, ए पांचों क्षय ह्वे दुखदात ॥१८
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष द्वे मिथ्यात उपशमें जहां दूजी क्षय-उपशम है तहां।। प्रथम चोकरी द्वै मिथ्यात, ए षट क्षय होवे जड़तात ॥१९ तृतिय मिथ्यात उपशमैं भया, तीजो क्षय-उपशम सो लया। वेदकसम्यक चार प्रकार, ताके भेद सुनों निरधार ॥२० प्रथम चौकरी क्षय है जहां, दोय मिथ्यात उपशमैं तहाँ । तृतिय मिथ्यात उदय जब होय, पहली वेदक जानी सोय ॥२१ प्रथम चौकरी प्रथम मिथ्यात, ए पांचौ क्षय होय विख्यात । द्वितिय मिथ्यात उपशमैं जहां, उदय होय तीजेको तहां ॥२२ भेद दूसरी वेदकतणों, जिनमारग अनुसारें भणों। प्रथम चौकरी दो मिथ्यात, ए षट प्रकृति होय जब घात ॥२३ उदय तीसरी मिथ्या होय, तीजो वेदक कहिये सोय । प्रथम चौकरी मिथ्या दोय, इन छहँको उपशम जब होय ॥२४ उदय होय तीजो मिथ्यात, सो चौथो वेदक विख्यात । ए नव भेद सु सम्यक कहे, निकट भव्य जीवनिनें गहे ॥२५
दोहा
क्षय-उपशम वरतै त्रिविध, वेदक च्यारि प्रकार । क्षायिक उपशम भेलि करि, नवधा समकित धार ॥२६ नवमे क्षायिक सारिखौ, समकित होय न और । अविनाशी आनंदमय, सो सबको सिर मौर ॥२७ पहली उपशम ऊपजै, पहली और न कोय । उपशमके परसादतें पाछे क्षायिक होय ॥२८ क्षायिक बिनु नहिं कर्मक्षय, इह निश्चय परवानि । क्षायिक दायक सर्व ए, सम्यकदर्शन मानि ।।२९ उपशमादि सम्यक्त सर्व, आदि अन्त जुत जानि । क्षायिकको नहि अन्त है. सादि अनन्त बखानि ॥३० सम्यकदृष्टी सर्व ही, जिनमारगके दास । देव धर्म गुरु तत्त्वको, श्रद्धा अविचल भास ॥३१ अनेकांत सरधा लिया, शांतभाव धर धीर । सप्तभंग वाणी रुचै, जिनवरकी गंभीर ॥३२ जीव अजीवादिक सबै, जिन आज्ञा परवान । जाने संशय रहित जो, धारै दृढ़ सरधान ॥३३ सप्त तत्व षट द्रव्य अर, नव पदार्थ परतक्ष । अस्तिकाय हैं पंच ही, तिनको धारे पक्ष ॥३४ इष्ट पंच परमेष्ठिको, और इष्ट नहिं कोय । मिष्ट वचन बोले सदा, मनमें कपट न होय ॥३५
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श्रावकाचार-संग्रह तजै अष्ट ही गर्व जो, है निगव' गुणवान । पुत्र-कलत्रादिक उपरि, ममता नाहिं बखान ॥३६ तण सम माने देइकों, निजसम जाने जीव । धरै महा उपशांतता, त्यागै भाव अजीव ॥३७ सेवै विषयनिकों तक, नहीं विषयसूं राग। वरतै गृह आरम्भमैं, धारि भाव वैराग ।।३८ कबे दशा वह होयगी, धरियेगा मुनिवृत्त । अथवा श्रावक वृत्त ही, करियेगो जु प्रवृत्त ॥३९ धिग धिग अवतभावकों, या सम और न पाप । क्षणभंगुर विषया सबै, देहिं कुगति दुख ताप ॥४० इहै भावना भावतो, भोगनितें जु उदास । सो सम्यकदरसी भया पाने तत्त्वविलास ॥४१ सप्तम गुणके ग्रहणकों, रागी होय अपार । साधुनिकी सेवा करै, सो सम्यक गुण धार ॥४२ साधर्मिनसौं नेह अति, नहिं कुटुम्बसौं नेह। मन नहिं मोह-विलासमें, गिर्ने न अपनी देह ॥४३ जीव अनादि जु कालको, बसै देहमें एह। बंध्यो कर्म प्रपंचसों, भवमें भ्रमो अच्छेह ।।४४ त्याग जोग जगजाल सब, लेन जोग निजभाव । इह जाके निश्चय भयो, सो सम्यक परभाव ॥४५ भिन्न भिन्न जाने सुधी, जड-चेतनको रूप । त्यागै देह सनेह जो, भावै भाव अनूप ॥४६ क्षीर नीरकी भांति ये, मिलें जीव अर कर्म । नांहिं तथापि मिलें कदै, भिन्न भिन्न हैं धर्म ॥४७ यथा सर्पकी कंचुकी, यथा खडगको म्यान । तथा लखै बुध देहकों, पायौ आतमज्ञान ।।४८ दोष समस्त वितीत जो, वीतराग भगवान । ता बिन दूजी देव नहिं, इह धारै सरधान ॥४९ सर्व जीवकी जो दया, ताहि सरदहै धर्म । गुरु माने निरग्रन्थकों, जाके रंच न भर्म ॥५० जपे देव अरहंतकों दास भाव धरि धीर । रागी दोषी देवकी, सेव तजे वर वीर ॥५१ रागी दोषी देवकों, जो मानै मतिहीन । धर्म गिनै हिंसा विर्षे, सो मिथ्या मत लीन ॥५२ परिग्रह धारककों गुरु, जो जाने जग माहि । सो मिथ्यादृष्टी महा, यामैं संशय नांहिं ।।५३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
कुगुरु कुदेव कुधर्मकों, जो ध्यावे हिय अंध । सो पावै दुरगति दुखा, करै पापकों बंध ॥५४ सम्यकदृष्टी चितवै, या संसार मंझार । सुखको लेश न पाइये, दीखै दुःख अपार ॥५५ लक्ष्मी-दाता और नहिं, जीवनिकों जग माहि । लक्ष्मी दासी धर्मकी, पापथकी विनसाहि ॥५६ जैसी उदय जु आवही, पूरब बांध्यौ कर्म । तैसो भुगतें जीव सब, यामैं होय न भर्म ॥५७ पुण्य भलाई कार है, पाप बुराई कार । सुख-दुखदाता होय यह, और न कोइ विचार ॥५८ निमितमात्र पर जीव हैं, इह निहचै निरधार । अपने कोये आप हो, फल भगते संसार ॥५९ पुण्यथकी सुर नर हुवै, पापथकी भरमाय । तिर नारक दुरगति विषै, भव-भव अति दुख पाय ॥६० पाप समान न शत्रु है, धर्म समान न मित्र । पाप महा अपवित्र है, पुण्य कछुक पवित्र ॥६१ पुण्य-पापते रहित जो, केवल आतमभाव । सो उपाय निरवाणको, जामैं नहीं विभाव ॥६२ झूठी माया जगतकी, झुठो सब संसार । सत्य जिनेसुर धर्म है, जा करि है भव-पार ॥६३ व्यंतर देवादिकनिकों, जे शठ लक्ष्मीहेत । पूर्जे ते आपद लहें, लक्ष्मी देय न प्रेत ॥६४ भक्ति किये पूजे थके, जो व्यन्तर धन देय । तो सब ही धनवन्त है, जगजन तिनकों सेय ॥६५ क्षेत्रपाल चंडी प्रमुख, पुत्र कलत्र धनादि । देन समर्थ न कोइकों, पूर्जे शठ जन बादि ॥६६ जो भवितव्यता जीवको, जा विधान करि होय । जाहि क्षेत्र जा कालमैं, निःसंदेह है सोय ।।८७ जान्यो जिनवर देवने, केवलज्ञान मंझार । होनहार संसारको, ता विधि व निरधार ॥६८ इह निश्चय जाके भयो, सो नर सम्यकवन्त । लखै भेद षट द्रव्य के, भावे भाव अनन्त ॥६९ शंका भागी चित्ततें, भयो निशंकित वीर । गुण परजाय स्वभाव निज, लखें आप मैं धीर ॥७० दृढ़ प्रतीत जिनवैन की, सम्यकदृष्टी सोय ।
जाके संशय जीव में, सो मिथ्याती होय ॥७१
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श्रावकाचार-संग्रह
सोरठा जो नहिं समझी जाय, जिनवाणी अति सूक्षमा। तो ऐसे उर लाय, संदेह न मन आने सुधी ॥७२ बुद्धि हमारी मन्द, कछु समझ कछु नाहिं । जो भाष्यो जिनचन्द, सो सब सत्य स्वरूप है ॥७४ उदय होयगो ज्ञान, जब आवरणु नसाइगौ। प्रगटेगो निज ध्यान, तब सब जानी जायगी ॥७४ जिनवानी सम और, अमृत नाहिं संसार में। तीन भुवन सिरमौर, हरै जन्म जर-मरण जो ॥७५ जिनर्मिनि सों नेह, लग्यो नेह जिनधर्मसू । बरसै आनन्द मेह, भक्त भयो जिनराज को ॥७६ सो सम्यक धरि धीर, लहै निजातम भावना। पावै भवजल तोर, दरसन ज्ञान चरित्त तॆ ॥७७ ऋद्धिनि में बड़ ऋद्धि, रतननि में रतन जु महा। या सम और न सिद्धि, इह निश्चय धारौ भया ॥७८ योगिनि में निज योग, सम्यक दरसन जानि तू । हने सदा सब शोक, है आनन्दमयी महा ॥७९
जोगीरासा वन्दनीक है सम्यकदृष्टी, यद्यपि व्रत्त न कोई। निन्दनीक है मिथ्यादृष्टी, जो तपसी हू होई ॥ मुक्ति न मिथ्यादृष्टी पावै, तपसी पाव स्वर्गा । ज्ञानी व्रत्त बिना सुरपुर ले, तपरि ले अपवर्गा ॥८० दुरगति बन्ध करै नहिं ज्ञानी, सम्यकभावनि माहीं। मिथ्याभावनि में दुरगति को, बन्ध होय बुधि नाहीं । समकित बिन नहिं श्रावकवत्ती, अर मुनिव्रत हू नाहीं। मोक्ष हु सम्यक बाहिर नाही, सम्यक आपहि माहीं ।।८१ अंग निशंकित आदि जु अष्टा, धारै सम्यक सोई। शंका आदि दोष मल रहिता, निरमल दरशन होई ॥ जिनमारग भाष जु अहिंसा, हिंसा परमन भाष । हिंसा मारगकी तजि सरधा, दयाधर्म दृढ़ राखै ।।८२ संदेह न जाके जिय माहीं, स्यादवादको पंथा। पकर त्यागि एक नयवादी, सुनै जिनागम प्रथा ॥ पहली अंग निसंसै सोई, दूजो कांक्षा रहिता! जामें जगकी वांछा नाही, आतम अनुभव सहिता ॥८३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष शुभ करणी करि फल नहिं चाहै, इह भव परभवके जो। कर कामना-रहित जु धर्मा, ज्ञानामृत फल ले जो॥ इह भाष्यो निःकांक्षित अंगा, अब सुनि तीजे मेदा । निरविचिकित्सा अंग है भाई, जा करि भव-भ्रम छेदा ।।८४ जे दश लक्षण धर्म धरैया, साधु शांतरस लीना। तिनको लखि रोगादिक युक्ता, सेव करै परवीना ॥ सूग न आने मनमैं क्यूं ही, हरै मुनिनिकी पीरा। सो सम्यकदृष्टी जिनधर्मा, तिरै तुरत भवनीरा ॥८५ चौथो अंग अमूढ़ स्वभावा, नहीं मूढता जाकै। जीवघातमैं धर्म न जाने, संशयमोह न ताके । अति अवगाढ़ गाढ़ परतीती, कुगुरु कुदेव न पूजे । जिन शासनको शरणो ले करि, जाय न मारग दूजे ॥८६ जानें जीवदयामै धर्मा, दया जैन ही माहीं। आन धर्ममें करुणा नाही, परतछ जीव हताई ॥ जो शठ लज्जा लोभ तथा, भय करिके हिंसा माहीं। माने धर्म सो हि मिथ्याती, जामैं समकित नाहीं ॥८७ पंचम अंग नाम उपगृहन, ताको सुनहु विवेका। पर जीवनिकें आंखिनि देखै, ढांक दोष अनेका ।। आप जु दोष करै नहि, ज्ञानी सुकृत रूप सदा ही। अपने सुकृत नाहिं प्रकाशै, धरै न एक मदा ही ॥८८
दोहा ढांकै अपने शुभ गुणा, ढाके परके दोष । गावै गुण परजीवके, रहै सदा निरदोष ।।८९ जो कदाचि दूषण लगै, मन वच काय करेय । तो गुरु पै परकाशिके, ताको दंड जु लेय ॥९० जप तप व्रत दानादि कर, दूषण सर्व हरेय। कर जु निंदा आपकी, परनिंदा न करेय ॥९१ जे परकासै पारके, औगुन तेहि अयान । जे परकासै आपके, औगुण ते हि सयान ॥९२ जे गावै गुन आपने, ते मिथ्याती आनि । जे गावै गुन गुरुनिके, ते समदृष्टी जानि ॥९३ छद्रो अंग कहों अब, थिरकरणा गुणवान । धर्मथकी विचलेनिकू प्रतिबोधे मतिवान ॥९४ था धर्म मंझार जो, करै धर्मको पक्ष। आप डिगै नहिं धर्मते, भावे भाव अलक्ष ॥९५
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श्रावकाचार-संग्रह
थिरता गुण सम्यक्तको, प्रगट बात है एक । चित्त अधिरता रूप जो, तो मिथ्यात गिनेह ॥९६ सुनों सामू अंग अब, जिन मारगसों नेह । जिनधर्मीकू देखि करि, बरसे आनंद मेह ॥९७ तुरत जात बछरानि परि, नेह घरें न्यूं गाय । त्यं यह साधर्मी उपरि, नेह करें अधिकाय ॥९८ जे ज्ञानी धरमातमा, मुनि श्रावक व्रतवंत । आर्या और सुश्राविका, चउविधि संघ महंत ॥९९ तथा अव्रती समकिती, जिनधर्मी जग माहि । तिनसों राखे प्रीति जो, यामै संशय नाहि ||१८०० तन मन धन जिनधर्म परि, जो नर वारे डारि । सो वात्सल्य जु अंग है, भाख्यौ सूत्र विचारि ॥१ अष्टम अंग प्रभावना, कह्यो सुनों धरि कान | जा विधि सिद्धान्तनि विषे, भाख्यौ श्रीभगवान ॥२ भाँति-भाँति करि भासई, जिनमारगकों जो हि । करै प्रतिष्ठा जैनकी, अंग आठमो होहि ॥३ जिनमंदिर जिनतीरथा, जिनप्रतिमा जिनधर्म । जिनधर्मी जिनसूत्रकी, करें सेव बिन भर्म ॥४ जो अति श्रद्धा करि करें, जिनशासनकी सेव । बोले प्रिय वाणी महा, ताहि प्रशंसे देव ॥५ जो दशलक्षण धर्मकी, महिमा करे सुजान । इन्द्रि के सुखकों गिने, नरक निगोद निसान ॥६ कथनी करें न पारकी, पुनि-पुनि ध्यावै तत्त्व | भाव आतमभाव जो, त्यागे सर्व ममत्व ॥७ कहे अंग ये प्रथम ही, मूलगुणनिके माहि । अब हू पड़िमा मैं कहै, इन सम और जु नाहि ॥८ बार-बार थुति जोग ये, सम्यकदरसन अंग । इनकों धारे सो सुधी, करै कर्मको भंग ॥९ अष्ट अंगको धारिवो, अष्ट मदनिको त्याग । षट अनायतन त्यागिवी, अतीचार नहि लाग ॥१० ते भाषे गुरु पंचविधि, बहुरि मूढ़ता तीन । तजिवी सातों व्यसनको, भय सातौं नहिं कीन ॥११ ए सब पहले हू कहै, अब हू भाषे वीर । बार-बार सम्यक्त्व की, महिमा गार्ने धीर ॥१२ अंग निशंकित आदि बहु, अठ गुण संवगादि । अष्ट मदनिको त्याग पुनि, अर वसु मूलगुणादि ॥१३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष सात व्यसनको त्यागिवी, अर तजिवी भय सात । तीन मूढ़ता त्यागिवी, तीन शल्य पुनि भ्रात ।।१४ षट अनायतन त्यागिवी, अर पांचों अतिचार । ए वेसठ त्यागे जु कोउ, सो समदृष्टी सार ॥१५ चौथे गुणठाणे तनी, कही बात ए भ्रात । है अव्रत परि जगत तें, विरकित रूप रहात ॥१६ नहिं चाहै अव्रत दशा, चाहे व्रत्त-विधान । मन में मुनिव्रत को लगन, सो नर सम्यकवान ।।१७ जैसे पकरयो चोरकू, दे तलवर दुख घोर । परवश बध बन्धन सहै, नहीं चोरको जोर ॥१८ त्यूं हि अप्रत्याख्यानने, पकरयो सम्यकवन्त । परवश अव्रत में रहै, चाहै व्रत्त महन्त ॥१९ चाहै चोर जु छूटिवाँ, यथा बन्धतें वीर । चाहै गृहतै छूटिवाँ, त्यों सम्यक धर धीर ॥२० सात प्रकृतिके त्यागते, जेती धिरता जोय । तेती चोये ठाणि है, इह जिन आज्ञा होय ॥२१
अथ ग्यारा व्रत वर्णन । दोहा ग्यारा प्रकृति वियोगते, होय पंचमो ठाण। तब पडिमा धारै सुधी, एकादश परिमाण ॥२२ तिनके नाम सुनों सुधी, जा विधि कहै जिनंद । धारे श्रावक धीर जे, तिन सम नाहिं नरिंद ॥२३ दरसन प्रतिमा प्रथम है, दूजी व्रत अधिकार । तोजी सामायिक महा, चौथो पोसह धार ॥२४ सचितत्याग है पंचमी, छ8ो दिन-तिय-त्याग । तथा रात्रि-अनसन व्रती, धारै तपसों राग ॥२५ जानों पडिमा सातवीं, ब्रह्मचर्यब्रत धार । तजी नारि नागिन गिनै, तजे मोह जंजार ॥२६ निरारंभ ह अष्टमी, नवमी परिग्रह त्याग । लौकिक वचन न बोलिवो, सो दशमी बड़भाग ॥२७ एकादशमी दोय विधि, क्षुल्लक ऐलि विवेक । है उदंडाहार ढे, तिनमैं मुनिव्रत एक ॥२८ ऐलि महा उतकृष्ट हैं, ऐलि समान न कोय । मुनि आर्या अर ऐलि ए, लिंग तीन शुभ होय ॥२९ भाषो एकादश सबै, प्रतिमा नाम जु मात्र । अब इनको विस्तार सुनि, ए सब मध्य सुपात्र ॥३०
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श्रावकाचार-संग्रह चौपाई
प्रथम हि दरशन प्रतिमा सुणों, आतमरूप अनूप जु मुणों । दरशन मोक्ष- बीज हैं सही, दरशन करि शिव परसन लही ।। ३१ दरशन सहित मूलगुण घरे, सात व्यसन मन बच तन हरे । बिन अरहंत देव नहि कोय, गुरु निरग्रन्थ बिना नहि होय || ३२ जीवदया बिन और न धर्म, इह निहचै करि टारे भर्म । संजम बिन तप होय न कदा, इह प्रतीति धारे बुध सदा ||३३ पहली प्रतिमाको सो धनी, दरशनवन्त कुमति सब हनी । आठ मूल गुण व्यसन जु सात, भाषे प्रथम कथन में भ्रात ॥ ३४ ता कथन किया अब नाहि, श्रावक बहु आरम्भ तजाहि । है स्वारथ में सांची सदा, कूट कपट धारे नहिं कदा ||३५
धरे शुद्ध व्यवहार सुधीर, परपीड़ाहर है जगवीर । सम्यक् दरशन दृड़ करि धरै पापकर्मकी परणति हरै ||३६ क्रय विक्रयमैं कसर न कोय, लेन देनमैं कपट न होय । कियौ करार न लोपे जोहि, सा पहिली पड़िमा गुण होहि ||३७ जाके उर कालिम नहि रंच, जाके घटमैं नाहिं प्रपंच | जिनपूजा जप तप व्रत दान, धर्मध्यान धारे हि सुजान ॥ ३८ गुण इकतीस प्रथम जे कहे, ते पहली पड़िमामें लहै । अब सुन दूजी पड़िमाधार, द्वादश व्रत पाले अविकार ||३९ पंच अणुव्रत गुणव्रत तीन, शिक्षाव्रत धारै परवीन । निरतीचार महामतिवान, जिनको पहली कियौ बखान ॥४० अब तीजी पड़िमा सुनि संत, सामायिक धारी गुणवन्त । मुनिसमसामायिककी वार, थिरताभाव अतुल्य अपार ॥४१ करि तनको मनतें परित्याग, भव भोगिनत होइ विराग । धरि कायोत्सर्ग वर वीर, अथवा पदमासन धरि धीर ॥४२
टट घटिका तीनूं काल, ध्यावै केवलरूप विशाल । सब जीवनिसूं समता भाव, पंच परम पद सेवे पांव ॥४३
सो सब वर्णन पहली कियौ, बारा वरत कथनमें लियो । चौथी प्रतिमा पोसह जानि, पोसह मैं थिरता परवानि ॥४४ सो पोसहको सर्व सरूप, आगे गायौ अब न प्ररूप । पोसा समये साधु समान होवें चौथी प्रतिमावान ॥४५ दूजी पड़िमा धारक जेहि, सामायिक पोसह विधि तेहि । धारै परि इनकी सम नाहि, नहि ऐसी थिरता तिन मांहि ||४६ तीजी सामायिक निरदोष, चौथी पड़िमा पौसह पोष । पंचम पड़िमा घरि बड़भाग, करे सचित्त वस्तुनिको त्याग ॥४७
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष काचो जल अर कोरो धान, दल फल फूल तजै बुधिवान । छाल मूल कन्दादि न चखे, कुंपल बीज अंकुर न भखै ॥४८ हरितकायको त्यागी होय, जीवदयाको पालक सोय । सको फल फोड्या बिन नाहि, लेवी जोगिन ग्रन्थनि मांहि ॥४९ लोन न ऊपरसे ले धोर, लोन ह सचित्त गिनै वर वीर । माटी हाथ धोयवे काज, लेय अचित्त दयाके काज ॥५० खार तथा माटी जो जलो, सोई लेय न काची डली । पृथ्वीकाय विराधे नाहिं, जीव असंख कहैं ता मांहि ॥५१ जलकायाकी पालै दया, सर्व जीवको भाई भया । अगनिकायसों नाहिं बिरोध, दयावन्त पाव निज बोध ॥५२ पवन करे न करावे सोय, षट कायाको पीहर होय । नाहिं वनस्पति करै विराघ, जिनशासनको धरै अगाध ॥५३ विकलत्रय अर नर तियंच, सबको मित्र रहित परपंच । जो सचित्तको त्यागी होय, दयावान कहिये नर सोय ॥५४ आप भखै नहिं सचित्त कदेय, भोजन सचित्त न औरहिं देय । जिह सचित्तको कीयो त्याग, जीती जीभ तज्यो रस-राग ॥५५ दयाधर्म धारयो तिह धीर, पाल्यौ जैन वचन गम्भीर । अब सुनि छट्ठी प्रतिमा सन्त, जा विधि भाषी वीर महन्त ॥५६ द्व मुहूर्त जब बाकी रहै, दिवस तहांते अनशन गहै। द्वं मुहर्त जब चढिहै भान, तो लग अनशनरूप बखान ॥५७ दिनमें शील धरै जो कोय, सो छट्ठी प्रतिमाधर होय । खान पान नहिं रैनि मझार, दिवस नारिको है परिहार ॥५८ पूछे प्रश्न यहाँ भवि लोग, निशिमोजन अर दिनको भोग । ज्ञानी जीव न कोई करै, छट्ठो कहा विशेष जु धरै ॥५९ ताको उत्तर धारौ एह, औरनिको व्रत न्यून गिनेह । मन वच तन कृत कारित त्याग, करै न अनुमोदन बड़भाग ॥६० तब त्यागी कहिते श्रुति माहि, या माहीं कछु संशय नाहिं । गमनागमन सकल आरम्भ, तजै रैनिमें नाहिं अचंभ ॥६१ महाधीर वर वीर विशाल, दिनको ब्रह्मचर्य प्रतिपाल । निरतीचार विचार विशेष, त्यागै पापारम्भ अशेष ॥६२ जेनी जिनदासनि को दास, जिनशासनको करे प्रकाश । जो निशिभोजन त्यागी होय, छ: मासा उपवासी सोय ॥६३ वर्ष एकमें इहै विचार, जावो जीव लगै विस्तार । है उपवासनिकों सुनि वीर, तातें निशिभोजन तजि धीर ॥६४ जो निशिकों त्यागै आरम्भ, दिनहूं जाके अलपारम्भ । अब सुनि सप्तम पडिमा धनी, नारिनकू नागिन सम गिनी ॥६५
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श्रावकाचार-संग्रह धारयो ब्रह्मचर्य व्रत शुद्ध, जिनमारगमें भयो प्रबुद्ध । निशि वासर नारीकों त्याग, तज्यौ सकल जाने अनुराग ॥६६ मन वच काय तजी सब नारि, कृत कारित अनुमोद विचारि । योनिरंध्र नारीको महा, दूरगति-द्वार इहै उर लहा ॥६७ इन्द्राणी चक्राणी देखि, निंद्य वस्तु सम गिनै विशेष । विषय-वासनामें नहिं राग, जाने भोग जु काले नाग ॥६८ विषय-मगनता अति हि मलीन, विषयी जगमें दीखे दोन । विषय समान न बैरी कोय, जीवनिकू भरमावै सोय ॥६९ शील समान न सार न कोय. भवसागर तारक है सोय । अब सुनि अष्टम पडिमा भेद, सर्वारम्भ तजै निरखेद ॥७० आप करै नहिं कछु आरम्भ, तजे लोभ छल त्यागै दंभ। करवावै न करै अनुमोद, साधुनिकों लखि धरै प्रमोद ||७१ मन वच काय शद्ध करि संत, जग धंधा धारै न महंत । जीव घाततें कांप्यो जोहि, सो अष्टम पडिमाधर होहि ॥७२ असि मसि कृषि वाणिज इत्यादि, तजै जगत कारज गति वादि। जाय पराये जीनै सोइ, गृह आरम्भ कछू नहिं होइ ।।७३ कहि करवावै नाहीं वीर, सहज मिले तो जीमें धीर । ले जाव कुल किरियावन्त, ताके भोजन ले बुधिवन्त ॥७४ जगत काज तजि आतम काज, करै सदा ध्याव जिनराज । दया नहीं आरम्भ मँझार, करि आरम्भ भ्रमै संसार ॥७५ तातें तजै गृहस्थारंभ, जीवदयाको रोप्यो थंभ । करि कुटुम्बको त्याग सुजान, हिंसारम्भ तजै मतिवान ।।७६ दया समान न जगमें कोइ, दया हेत त्यागै जग सोइ । अब नवमी प्रतिमा को रूप, धारी भवि तजि जगत विरूप ॥७७ नवमी पडिमा धारक धीर, तजै परिग्रहका वर वीर । अन्तरंगके त्यागै संग, रागादिकको नाहिं प्रसंग ||७८ बाहिरके परिग्रह घर आदि, त्यागै सर्व धातु रतनादि । वस्त्र मात्र राखै बुधिवन्त, कनकादिक भीटे न महंत ॥७९ वस्त्र हु बहु मोले नहिं गहै, अलप वस्त्र ले आनन्द लहै । परिग्रहकों जानै दुःखरूप, इह परिग्रह है पापस्वरूप ॥८० जहां परिग्रह लोभ तहां हि, या करि दया सत्य विनशाहि । हिंसारम्भ उपावै एह, या सम और न शत्रु गिनेह ॥८१ तजै परिग्रह सो हि सुजान, तृष्णा त्याग करै बुधिवान । जाको चाह गई सो सुखी, चाह करें ते दोखें दुखी ।।८२ बाहिज ग्रन्थ-रहित जग माहि, दारिद्री मानव शक नाहिं । ते नहिं परिग्रह-त्यागी कहैं, चाह करते अति दुख लहें ।।८३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष जे अभ्यन्तर त्यागै संग, मूर्छा रहित लहैं निजरंग । ने परिग्रहत्यागी हैं राम, बांछा-रहित सदा सुखधाम ॥८४ ज्ञानी बिन भीतरको संग, और न त्यागि सकें दुख अंग। राग-द्वेष मिथ्यात विभाव, ए भीतरके संग कहाव ॥८५ तजि भीतरके बाहिर तजै, सो बुध नवमी पडिमा भजे । वस्त्र मात्र है परिग्रह जहाँ, धातुमात्रको लेश न तहां ॥८६ नर्म पूंजणी धारै धीर, षट कायनिको टार पीर । जल-भाजन राखे शुचि-काज, त्यागै धन धान्यादि समाज ||८७ काठ तथा माटीको जोय, और पात्र राखे नहिं कोय । जाय बुलायो जीमें जोय, श्रावकके घर भोजन होंय ।।८८ दशमी प्रतिमा-धर बड़भाग, लौकिक वचनथको नहिं राग । बिना जैनवानी कछु बोल, जो नहिं बोले चित्त अडोल ॥८९ जगत काज सब ही दुखरूप, पापमूल परपंच स्वरूप। तातें लौकिक वचन न कहै, जिनमारगकी सरधा गहै ॥९० मौन गहै जगसेती सोय, सो दशमी पडिमाधर होय । श्रुति अनुसार धर्मकी कथा, करै जिनेश्वर भाषी यथा ॥९१ जगतकाजको नहिं उपदेश, घ्यावे धीरज धारि जिनेश । बोलै अमृत वानी वीर, षट कायनिकी टारे पीर ॥९२ तजे शुभाशुभ जगके काम, भयो कामना-रहित अकाम । जे नर करे शुभाशुभ काज, ते नहिं लहैं देश जिनराज ॥९३ राग-द्वेष कलहके धाम, दीसे सकल जगतके काम । जगतरीतिमें जे नर बसा, सो नहिं पावै उत्तम दसा ९४ दशमी पडिमा धारक सन्त, ज्ञानी ध्यानी अति मतिवन्त । गिर्ने रतन-पाहन सम जेह, तृण-कंचन सम जाने तेह ॥९५ शत्रु-मित्र सम राजा-रंक, तुल्य गिर्ने मनमें नहिं संक । बांधव-पुत्र कुटुम्ब धनादि, तिनकू भूलि गये गनि वादि ॥९६ जाने सकल जीव समरूप, गई विषमता भागि विरूप । पर घर भोजन करें सुजान, श्रावककुल जो किरियावान ॥९७ अल्प अहार तहां ले धोर, नहिं चिन्ता धारें वर वोर। कोमल पीछी कमंडल एक, बिना धातुको परम विवेक ॥९८ इक कोपिन कणगती लया, छह हस्ता इक वस्त्र हु भया। इक तह एक पाटको जोय, यही राति दशमीकी होय ॥९९ जिन शासनको है अभ्यास, आगम अध्यातम अध्यास । अब सुनि एकादशमी धार, सबमें उतकृष्ट निरधार ॥१०० वनवासी निरदोष अहार, कृत कारित अनुमोदन कार । मन वच काय शुद्ध अविकार, सो एकादश पडिमा धार ॥१
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श्रावकाचार-संग्रह ताके दोय भेद हैं भया, क्षुल्लक ऐलिक श्रावक लया । क्षुल्लक खण्डित कपड़ा धरै, अरु कमण्डल पीछी आदरै ॥२ इक कोपीन कणगतो गहै, और कछु नहिं परिग्रह चहै। जिनशासनको दासा होय, क्षुल्लक ब्रह्मचारि है सोय ॥३ ऐलि धरे कोपीन हि मात्र, अर इक शोचतनूं है पात्र । कोमल पीछी दया निमित्त, जिनवानीको पाठ पवित्त ॥४ पंच घरनिमें एक घरेहि, भोजन मुनिकी भांति करेहि । ये है चिदानन्दमैं लोन, धर्मध्यानके पात्र प्रवीन ॥५ क्षुल्लक जीमें पात्र मंझार, ऐलि करें करपात्र अहार । मुनिवर ऊभा लेय अहार, ऐलि अर्यिका बैठा सार ॥६ क्षुल्लक कतरावै निज केश, ऐलि करें शिरलोंच अशेष । पहली पडिमा आदि ज लेय, क्षुल्लकलों व्रत सबकू देय ॥७ श्रीगुरु तीन वर्ण बिन कदे, नहिं मुनि ऐलितने व्रत दे । पहलीसों छट्ठीलों जेहि, जघन्य श्रावक जानों तेहि ॥८ सप्तमि अष्टमि नवमी धार, मध्य सरावक है अविकार । दशमी एकादशमीवन्त, उतकृष्ट भाषे भगवन्त ॥९ तिनहूमें ऐलि जु निरधार, ऐलिथको मुनि बड़े विचार । मनिगगमें गणधर हैं बड़े, ते जिनवरके सनमुख खड़े ॥१० जिनपति शुद्धरूप हैं भया, सिद्ध परें नहिं दूजो लया। सिद्ध मनुज बिन और न होय, चहुंगतिमै नहिं नर सम कोय ॥११ नरमें सम्यकदृष्टी नरा, तिनतें वर श्रावक व्रत धरा। षोडश स्वर्गलोकलों जाहिं, अनुक्रम मोक्षपुरी पहुंचाहिं ॥१२ पंचमठाणे ग्यारा भेद, धारे तेहि करें अघछेद । इह श्रावककी रीति जु कही, निकट भव्य जीवनिनें गही ॥१३ ऊपरि ऊपरि चढ़ते भाव, विरकतभाव अधिक ठहराव । नींव होय मन्दिरके यथा, सर्व व्रतनिके सम्यक तथा ॥१४
अथ दान वर्णन । दोहा प्रतिमा ग्याराको कथन, जिन आज्ञा परवान । परिपूरण की भया, अब सुनि दान बखान ॥१५ कियो दान वरणन प्रथम, अतिथिविभाग के माहिं । अबहू दान प्रबन्ध कछु, कहिहौं दूषण नाहिं ॥१६
मनोहर छन्द ए मूढ़ अचेतो कछु इक चेतो, आखिर जगमें मरना है। धन रह ही इहां हो संग न जाहीं, तार्ते दान सु करना है ।।१७
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रोखतराम-कृत क्रियाको विन दान न सिद्धी ह अधवृद्धी, दुरगति दुख अनुसरना है। करपणता धारी शठमति भारी, तिनहिं न सुभ गति वरना है ।।१८ यामें नहिं संसा नृप श्रेयंसा, कियउ दान दुख हरना है। सो ऋषभ प्रता त्याग त्रितापे, पायो धाम अमरना है ।।१९ श्रीषेण सुराजा दान प्रभावा, गहि जिनशासन सरना है। लहि सुख बहु भांती ह जिन शांती, पायो वर्ण अवर्णा है ॥२० इक अकृतपुण्या कियउ सुपुण्या, लहिउ तुरत जिय मरना है। ह्व धन्यकुमारा चारित धारा, सरवारथ सिधि धरना है ।।२१ सूकर अर नाहर नकुल रु वानरु, नमि चारन मुनि चरना है। करि दान प्रशंसा लहि शुभ वंशा, हर जनम जर मरना है ॥२२
बोहा
वनजंघ अर श्रीमती, दानतने परभाव। नर सुर सुख लहि उत्तमा, भये जगत की नाव ॥२३ वनजंघ आदीश्वरा, भए जगतके ईश। भये दानपति श्रीमती, कुल कर माहिं अघोश ॥२४ अन्नदान मुनिराजकों, देत हुते श्रीराम । करि अनुमोदन गीष इक, पंछी अति अभिराम ॥२५ भयो धर्मयी अणुव्रती, कियो रामको संग । राममुखै जिन नाम सुनि. लह्यो स्वर्ग अतिरंग ॥२६ अनुक्रम पहुंचेगी भया, राम सुरग वह जीव । धारैगो निजभाव सहु, तजिके भाव अजीव ॥२७ दानकारका अमित ही, सीझे भवथी भ्रात । बहुरि दान अनुमोदका, को लग नाम गिनात ॥२८ पात्रदान सम दान अर, करुणादान बखान । सकल दान है अन्तिमो, जिन आज्ञा वरवान ।।२९ आपथकी गुण अधिक जो, ताहि चतुरविधि दान । देवो है अति भक्ति करि, पात्रदान सो जान ॥३० जो पुनि सम गुन आपत, ताकों दैनों दान । सो समदान कहें बुधा, करिकै बहु सनमान ॥३१ दुखी देखि करुणा करे, देवे विविध प्रकार । सो है करुणादान शुभ, भाषे मुनिगणधार ॥३२ सकल त्यागि ऋषिव्रत धरै, अथवा अनशन लेइ। सो है सकल प्रदानवर, जाकरि भव उत्तरेइ ॥३३ दान अनेक प्रकारके, तिनमें मुखिया चार । भोजन औषधि शास्त्र अर, अभयदान यविकार ॥३४
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श्रावकाचार-संग्रह
तिनको वर्णन प्रथम ही, अतिथि विभाग मंझार । कियो अबै पुनरुक्तके, कारण नहिं विसतार ॥३५
सप्तक्षेत्र अर्णन जो करवावै जिनभवन, धन खरचे अधिकाय । सो सुर नर सुख पायक, लहै धाम जिनराय ॥३६ जो करवावै विधिथकी, जिनप्रतिमा बुधिवन्त । मन्दिरमैं पधरावई, सो सुख लहै अनन्त ॥३७ यव-समान जिनराजकी, प्रतिमा जो पधराय । किंदूरीसम देहुरो, सोहू धन्य कहाय ।।३८ शिखर बंध करवावई, जिन चैत्यालय कोय । प्रतिमा उच्च करावई, पावे, शिवपुर सोइ ॥३९ जल चंदन अक्षत पहुप, अर नैवेद्य सुदीप । धूप फलनि जिन पूजई, सो ह्व जग अवनीप ॥४० जो देवल करि विधिथकी, करै प्रतिष्ठा धीर । सुर नर पतिके भोग लहि, सो उतरै भवतीर ॥४१ जो जिन तीरथको महा, यात्रा करै सुजान । सफल जनम ताही तनों, भाषपुरुष प्रधान ॥४२ चउ अनुयोगमई महा, द्वादशांग अविकार । सो जिनवाणी है भया, करै जगतथी पार ॥४३ ताके पुस्तक बोधकर, लिखै लिखावै शुद्ध । धन खरचै या वस्तु में, सो होवै प्रतिबुद्ध ॥४४ ग्रन्थनिकू पूठे करै, करवावै धरि चित्त । भले भले वस्त्रनि विर्षे, राखै महा पवित्त ॥४५ जीरणि ग्रन्थनिके महा, जतन करै बुधिवान । ज्ञानदान देवै सदा, सो पावै निरवान ।।४६ जीरण जिनमंदिरतणी, मरमत जो मतिवान । करवावै अति भक्ति सों, सो सुख लहै निदान ।।४३ शिखर चढ़ावै देहुरा, धन खरचे या भांति । कलश धरै जिनमंदिरां, पावै पूरण शांति ।।४८ छत्र चमर घंटादिका, बहु उपकरणां कोय । पधरावै चेत्यालये, पावै शिवपुर सोय ।।४९ टीप कराव द्रव्य दे, धवलावै जिनगेह । धुजा चढ़ाव देवलों, पावै धाम विदेह ॥५०
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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
जो जिनमंदिर कारनें, धरती देय सु वीर । सो पावे अष्टम धरा, मोक्ष काम गंभीर ॥५१ उविधि संघनिकी भया, मन वच तनकरि भक्ति । करे हरै पीरा सबे, सो पावे निजशक्ति ॥५२ सप्त क्षेत्र ये धर्मके, कहे जिनागमरूप । इनमें धन खरचे बुधा, पावै वित्त अनूप ॥५३
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प्रतिमा करावें, देवल करावे, पूजा तथा प्रतिष्ठा करें, जिन तीरथकी यात्रा करै शास्त्र लिखावे, चउविधि संघकी भक्ति करें ए सप्त क्षेत्र जानि । यहां कोई प्रश्न करें, प्रतिमाजी अचेतन छै, निग्रह अनुग्रह करवा समर्थ नाहीं, सो प्रतिमाका सेवनथकी स्वर्गमुक्ति फलप्राप्ति किसी भाँति होय ? ताका समाधान । प्रतिमाजी शांत स्वरूपने धार्या छै ध्यानकी रीतिने दिखावे छै । दृढ़ आसन, नासाग्र दृष्टी, नगन, निराभरण, निर्विकार जिसौ भगवानको साक्षात् स्वरूप छै तिस्यौ प्रतिमाजीने देख्यां याद आवे छे। परिणाम ऐते निर्मल होइ छे । अर श्रीप्रतिमाजीने सांगोपांग अपना चितमैं ध्यावै तो वीतराग भावने पावें । यथा स्त्रीको मूरति चित्रामकी, पाषाणकी काष्ठादिक्की देखि विकारभाव उपजै छै, तथा वीतरागकी प्रतिमाका दर्शनथको ध्यानथकी निर्विकार चित्त होइ छै । अर आन देवकी मूरति रागी द्वेषी छे । उन्मादने धारै छै सो वाका दरशन ध्यान करि राग द्वेष उन्माद बढै छै । तीसौं आराधवा जोग्य, दरसन जोग्य, ध्यान जोग्य जिनप्रतिमा ही छे । जीवांने भुक्ति, मुक्तिदाता छे । यथा कलपवृक्ष, चितामणि औषधि मन्त्रादिक सर्व अचेतन छै, पणि फलदाता छै, तथा भगवतकी प्रतिमा अचेतन छै, परन्तु फलदाता छै । ज्ञानी तो एक शांतभावका अभिलाषी छे । सो शांतभावने जिनप्रतिमा मूर्तवन्त दिखावे छे। तीसूं ज्ञानी जनांने सदा वन्दिवा ध्यावा जोग्य छे। अर जगतका प्राणी संसारीक भोग चावै छे । सो जिन प्रतिमाका पूजनथकी सर्व प्राप्ति होय छै । ऐसो जानि, हित मानि, संशय भानि जिनप्रतिमाकी सेवा जोग्य छे ।
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कवित्त श्रीजिनदेवतनी अरचा अर साधु दिगम्बरकी अतिसेव ।
श्री जिनसूत्र सुनै गुरु सन्मुख, त्यागै कुगुरु कुधर्म कुदेव ॥५४ धारे दान शील त्तप उत्तम, ध्यावै आतमभाव अछेव । सो सब जीव लखे आपन सम, जाके सहज दयाकी टेव ॥५५ दातनी विधि है जु अनन्त, सवै महिं मुख्य किमिच्छक दाना । ताके अर्थ सुनूं मनवांछित, दान करे भवि सूत्र प्रवाना ॥५६ तीरथकारक चक्र जु धारक, देहि सकें इह दान निधाना। और सबै निज शक्ति प्रमाण, करें शुभ दान महा मतिवाना ॥५७ सोरठा
को कुबुद्धी कूर, चितवै चितमें इह भया । हि धन अतिपूर, तब करिहूं दानहि विधी ॥५८
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श्रावकाचार-संग्रह
अब तो धन कछु नाहि, पास हमारे दानकों। किस विधि दान कराहिं, इन मनमें धरि कृपण द्वै ॥५९ यो न विचारे मूढ, शक्ति प्रमाणे त्याग है। होय धर्म आरूढ़, करे दान जिनवैन सुनि ॥६० कछु हू नाहिं जुरै जु, तोहू रोटी एक ही। ज्ञानी दान करै जु, दान विना घृग जनम है ॥६१ रोटी एक हु माहिं, तोहू रोटी आध हो । जिनमारगके माहि, दान बिना भोजन नहीं ॥६२ एक ग्रास ही मात्र, देवै अतिहि अशक जो। अर्घ ग्रासही मात्र, देव, परि नहि कृपण है ॥६३ गेह मसान समान, भाष किरपणको श्रुति । मृतक समान बखान, जीवत ही क पणा नरा ॥६४ जानो गृद्ध समान, ताके सुत दारादिका। जो नहिं करै सुदान, ताको धन आमिष समा ॥६५ जैसे आमिष खाय, गिरध मसाणा मृतकको । तैसे धन विनशाहिं, कृपणतनों सुत-दारका ।।६६ सबकों देनौ दान, नाकारौ नहिं कोइसू । करुणाभाव प्रधान, सब ही आतमराम हैं ॥६७ सब ही प्राणिनकों जु, अन्न वस्त्र जल औषधी । सूखे तण विधिसों जु, देनें तिरजंचानिकों ॥६८ गुनी देखि अति भक्ति, भावथकी देनी महा। दान भुक्ति अरु मुक्ति, कारण मूल कहें गुरु ॥६९ पर परिणतिको त्याग, ता सम आन न दान कोउ । देहादिकको राग, त्यागें ते दाता बड़े ॥७० कह्यो दान परभाव, अब सुनि जलगालण विधी । छांडो मुगध स्वभाव, जलगालण विधि आदरो ॥७१
जलगालण विधि । अडिल्ल छन्द अब जल गालन रीति सुनौ बुध कान दे, जीव असंखिनिको हि प्राणको दान दे। जो जल बरते छांणि सोहि किरिया धनी, जलगालणकी रीति धर्ममें मुख भनी ।।७२ नूतन गाढ़ी वस्त्र गुड़ी बिनु जो भया, ताको गलनो करै चित्त धरिके दया । डेढ़ हाथ लम्बो जु हाथ चौरो गहै, ताहि दुपड़तो करै छांणि जल सुख लहै ॥७३
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
३८१ वस्त्र पुरानो अवर रंगको नांतिनां, राखे तिनत ज्ञानवन्तकी पाति नां। छाणन एक हु बूंद महीपरि जो परै,
भार्षे श्रीगुरुदेव जीव अगणित मरें ॥७४ बरतें मूरख लोग अगाल्यो नीर जे, तिनकों केतो पाप सुनो नर धीर जे। असी बरसलों पाप करै धीवर महा, अवर पारधी मोल वागुरादिक लहा ।।७५ तेतो पाप लहें जु एक ही वार जे, अणछाण्यं बरतें हि वारि तनधार जे। ऐसौ जानि कदापि अगाल्यौ तोय जी, बरतो मति ता माहिं महा अघहोय जी ॥७६ मकरीके मुखथकी तन्तु निकलें जिसौ, अति सूक्षम जो वीर नीर कृमि है तिसौ। तामें जीव असंखि उ. द्वै भ्रमर ही जम्बूद्वीप न भाय जिनेश्वर यों कही ।।७७ शुद्ध नातणे छांणि पान जलकों करै, छाण्यां जलथी धोय नांतणो जो घरै। जतनथकी मतिवन्त जिवाण्यूँ जलविणे, पहुंचावै सो धन्य श्रुतविर्षे यूं लिखें ॥७८ जा निर्वाणको होय नीर ताही महै, पधरावै बुधिवान परम गुरु यों कहें।। ओछ कपड़े तीर गालही जे नरा, पावै ओछो योनि कहें मुनि श्रुतधरा ॥७९ जलगालन सम किरिया और नाहीं कही, जलगालणमें निपुण सोहि श्रावक सही। चउथी पडिमा लगें लेई काचो जला, आगे काचौ नाहिं प्रासुको निर्मला ॥८० जाण्यूं काचौ नीर इकेन्द्रो जानिये, द्वै घटिका त्रसजीव रहित सो मानिये । प्रासुक मिरच लवंग कपूरादिक मिला, बहुरि कसेला आदि वस्तुतें जो मिला ॥८१ सों लेनों दोय पहर पहली ही जैनमें, आगें त्रस निपजन्त कह्यौ जिनवैनमें । तातो भात उकालि वारि वसु पहर ही, आगे जंगम जीवहु उपजे सहज हो ।।८२
चौपाई
जे नर जिन आज्ञा नहिं जाने, चित्तमें आवै सो ही ठाने । भात उकाल कर नहिं पानी, कछू इक उष्ण करै मनमानी ॥८३ ताहि जु वरतें अष्टहि पहरा, ते व्रत वर्जित अर श्रुति बहरा। मरजादा माफिक नहिं सोई, ऐसें वरतो भवि मति कोई ॥८४ जो जन जैनधर्म प्रतिपाला, ता घरि जलकी है इह चाला । काचौ प्राशुक तातो नीरा, मरजादामें वरतै वीरा ॥८५ प्रथमहिं श्रावकको आचारा, जलगालण विधि है निरधारा । जे अणछाप्यों पी पाणी, ते धीवर वागुर सम जाणी॥८६ बिन गाल्यो औरै नहिं प्याजे, अभख न खाजै और न ख्वाजे । तजि आलस बर सब परमादा, माले जल चित धरि अहलादा ॥८७ जलगालण नहिं चित करे जो, जल छाननमें चित धरै जो। अणछाण्यांकी बूंद हु धरती, नाखै नहीं कदाचित वरती ॥८८ बून्द पर तो ले प्रायश्चित्ता, जाके घटमें दया पवित्ता। यह जलगालणकी विधि भाई, गुरु आज्ञा अनुसार बताई ॥८९
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श्रावकाचार-संग्रह निशि-भोजनका दोष । दोहा अब सुनि रात्रि अहारका, दोष महा दुखदाय । हूँ मुहरत दिन जब रहै, तबतें त्याग कराय ॥९० दिवस मुहूरत द्वैचढ़े, तबलों अनसन होय । निशि अहार परिहार सो, व्रत न दूजो कोय ॥९१ निशिभोजनके त्यागर्ते, पाव उत्तम लोक । सुर नर विद्या धरनके, लहै महासुख थोक ॥९२ जे निशि भोजन कारका, तेहि निशाचर जानि । पाव नित्य निगोदके, जनम महा दुखखानि ॥९३ निशि वासरको भेद नहिं, खात तृप्ति नहिं होय । सो काहेके मानवा, पशुहूत अधिकोय ॥९४ नाम निशाचर चारको, चोर समाना ते हि । चरै निशाकों पापिया, हरै धर्ममति जे हि ॥९५ बहरि निशाचर नाम है, राक्षसको श्रुतिमाहि । राक्षस सम जो नर कुधी, रात्रि अहार कराहिं ॥९६ दिन भोजन तजि रैनिमैं, भोजन करै विमूढ़ । ते उलूक सम जानिये, महापाप आरूढ़ ॥९७ मांस अहारी सारिखे, निशिभोजी मतिहीन । जनम जनम या पापत, लहैं कुगति दुखदोन ॥९८
नाराच छन्द उलक काक औ बिलाव श्वान गर्दभादिका, गहै कुजन्म पापिया जु ग्राम शूकरादिका । कुछारछोवि १ माहिं कीट होय रात्रिभोजका, तजै निशा अहारकों विमुक्ति पंथ खोजका ||९९ निशा महैं करें अहार ते हि मूढ़धी नरा, लहैं अनेक दोषकू सुधर्महीन पामरा। जु कीट माछरादिका भखै अहार माहिं ते, महा अधर्म धारिके जु नर्क माहि जाहिं ते ॥२०००॥
छन्द चाल निशिमाहीं भोजन करही, ते पिंडु अभखते भरही । भोजनमें कीडा खाये तातै बधि मल नशाये ॥१ जो जूंका उदरें जाये, तो रोग जलोदर पाये। मांखी भोजनमें आवै, ततखिन सो वमन उपावै ॥२ मकरी आवे भोजनमें, तो कुष्ट रोग होय तनमें । कंटक अरु काठजु खंडा, फसि है जा गले परचंडा ॥३
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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
तौ कंठविथा विस्तारे, इत्यादिक दोष निहारे । भोजन में आवे बाला, सुर भंग होय ततकाला ॥४ निशिभोजन करके जीवा, पाव दुख कष्ट सदीवा । हो अति ही जु विरूपा, मनुजा अति विकल कुरूपा ॥१५. अति रोगी आयुस थोरा, ह्वे भागहीन निरजोरा । आदर - रहिता सुख- रहिता, अति ऊंच-नीचता सहिता ||६ इक बात सुनो मन लाई, हथनापुर पुर है भाई । ताइक हूतौ विप्रा, मिथ्यामत धारक लिप्रा ॥७ रुद्रदत्त नाम है जाकी, हिंसामारग मत ताको । सोरात्रि - अहारी मूढ़ा, कुगुरुनिके मत आरूढ़ा ॥८ इक निशिकों भोंदू भाई, रोटीमें चींटी खाई ।
मैं मोडक खायो, उत्तम कुल तिहं विनशायौ ॥९ कालान्तर तजि निज प्राणा, सो घूघू भयो अयाणा । पुनि मरि करि गयौ जु नर्का, पायौ अति दुख सम्पर्का ॥१० नीसरि नरकतें कागा, वह भयौ पाप-पथ लागा । बहु नर्कजुके कष्टा, पायौ ताने जु सपष्टा ॥ ११ पुनि भयौ विडाल सु पापी, जीवनिकूं अति संतापी । सो गयौ नर्क मैं दुष्टा, हिंसा करिके वो पुष्टा ॥१२ तहां जु भयो वह गृद्धा, पुनि गयौ नर्क अघवृद्धा ।
जुनीसरि पापी, हूवो पसु पाप-प्रतापी ॥ १३ बहुरें जु गयौ शठ कुगती, घोर जु नर्के अति विमती । नीसरिकै तिरजंच हूवौ, बहु पाप करी पशु मूवी ॥१४ पुनि गयौ नर्क में कुमती, नारकतें अजगर अमती । अजगर बहुरी नर्का, पायौ अति दुख सम्पर्का ।।१५ नर्कजुतै भयो वघेरा, तहां किये पाप बहुतेरा । बहुरें नारकगति पाई, तहातै गोधा पशु जाई ॥१६ गोधा नर्क निवासा, नारकतें मच्छ विभासा । सो मच्छ नरक जायो, नारकमें बहु दुख पायो ॥१७ नारकतें नीसरि सोई, वहुरी द्विजकुलमें होई । लोमस प्रोहितको पुत्रा, सो धर्मकर्मके शत्रा ॥१८ जो महीदत्त है नामा, सातों विसनजुसों कामा । नजुतें लौ निकासा, मामाके गयौ निरासा ॥ १९ मामे हू राख्यो नाहीं, तब काशीके वनमाहीं । मुनिवर भेटे निरग्रन्था, जे देहि मुकतिको पन्था ॥२० ज्ञानी ध्यानी निजरत्ता, भव-भोग- शरीर-विरता । जानें जनमान्तर बातें, जिनके जियमें नहि घातें ॥२१
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३८३
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बावकाचार-संग्रह तिनकों लखि द्विज शिर नायौ, सब पापकर्म विनशायो। पूछी जनमान्तर बातां, जा विधि पाई बहु घातां ॥२२ सो मुनिने सारी भाखी, कछु बात चीच नहिं राखी। निशिभोजन सम नहिं पापा, जाकरि पायो दुखतापा ॥२३ सुनि करि मुनिवरके बैना, ब्राह्मण धार्यो मत जैना। सम्यक्त अणुव्रत धारी, श्रावक हूवी अविकारी ।।२४
बोहा मात पिता अति हित कियो, दियो भूप अति मान । पुण्य उदय लक्षमी अतुल, पाप किये बहु हान ।।२५
चौपाई पूजा करे जपे अरहन्त, महीदत्त हवी अतिसन्त । जिनमन्दिर जिनबिम्ब रचाय, करी प्रतिष्ठा पुष्य उपाय ॥२६ सिद्धक्षेत्र वन्दै अधिकाय, जिनसिद्धांत सुनै अधिकाय। केतो काल गयो इह भांति, समय पाय धारी उपशांति ॥२७ शुभ भावनितें छांडे प्रान, पायो षोडश स्वर्ग विमान । ऋद्धि महा अणिमादिक लई, आयु बीस सागर भई ॥२८ चयो स्वर्ग थी सो परवीन, राजपुत्र हूवौ शुभ लीन । देश अवन्ती उत्तम बसे, नगर उजैणी अति ही लसे ॥२९ तहां नरपती पृथ्वीमल्ल, जिनधर्मी सम्यक्ति अचल्ल । प्रेमकारिणी रानी महा, ताके उदर जन्म सो लहा ॥३० नाम सुधारस ताको भयो, मात पिता अति आनन्द लयो । अनुक्रम वर्ष सातको जबे, विद्या पढ़ने सोप्यौ तबै ॥३१ । शस्त्र शस्त्रमें बहु परवीण, भयो अणुव्रती समकित लोन । जोवनवंत भयो सुकुमार, व्याह कियो नहिं धर्म सम्हार ॥३२ एक दिवस वनक्रीड़ा गयो, बड़तरु विजुरीतै क्षय भयो । ताको लखि उपनो वैराग, अनुप्रेक्षा चितई बड़भाग ।।३३ चन्द्रकोति मुनिके ढिग जाय, जिनदाक्षा लीनी शिर नाय । अभ्यन्तर बाहिर चौबीस, ग्रन्थ तजे मुनिकू नमि शीश ॥३४ पंच महाव्रत गुप्ति जु तीन, पंच समिति धारी परवीन । सुकल ध्यान करि कर्म विनाशि, केवल पायो अति सुखराशि ॥३५ बहुत भव्य उपदेशे जिनें, आयुकर्म पूरण करि तिनें। शेष अघातियको करि नाश, पायौ मोक्षपुरी सुखवास ॥३६ निशि भोजनतें जे दुख लये, वर त्यागेतें सुख अनुभये।। तिनके फलको वर्णन करी, कथा अणणमी पूरण करी ॥३७
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
३८५
छप्पय इक चंडाली सुरझि ब्रत सेठनिपें लीयो। मन बच तन दृ६ होय त्यागि निशिभोजन कीयो । ब्रत्ततनों परभाव त्याग तन अंतिज जाया । वाही सेठनिके जु उदर उपनी वर काया । गहि जैनधर्म धरि शीलव्रत, पापकर्म सब ही दहा । लहि सुरगलोक नरलोक सुख, लोकसिखरको पथ गहा ॥३८ एक हुतौ जु शृगाल कर सुदरशन मुनिराया। त्यागौ निशि को खान पान जिनधर्म सुहाया। मरि करि हूवौ सेठ नाम प्रीतंकर जाको । अदभुत रूपनिधान धर्ममैं अति चित ताको । भयौ मुनीश्वर सब त्यागिकै, केवल लहि शिवपुर गयो। नहिं रात्रिभुक्ति परित्याग सम, और दूसरौ ब्रत लयौ ॥३९
सोरठा निशि भोजन करि जीव, हिंसक है चहुंगति भ्रमैं । जे त्यागें जु सदीव, निशिभोजन ते शिव लहें ॥४० अर्ध उमरि उपवास, माहीं बीते तिन तनी । जे जन है जिनदास, निशिभोजन त्यागें सुधी ॥४१ दिवस नारिको त्याग, निशिकों भोजन त्यागई। निशिदिन जिनमत राग, सदा व्रतमूरति बुधा ॥४२ एक मासमें भ्रात, पाख उपास फर्ले फला। जे निशि माहिं न खात, चारि अहारा धीधना ॥४३ निशि भोजन सम दोष, भयो न है है होयगौ। महा पापको कोष, मद्य मांस आहार सम ॥४४ त्यागे निशिको खान, तिन्हें हमारी वंदना। देही अभय प्रदान, जीवगणनिकों ते नरा ॥४५ कोलग कहें सुबीर, निशि भोजनके अवगुणा । जाने श्रीमहाबीर, केवलज्ञान महंत सब ॥४६
रत्नत्रय वर्णन
सोरठा अब सुनि दरसन ज्ञान, चरण मोक्षके मूल हैं। रतनत्रय निज ध्यान, तिन बिन मोक्ष न हूँ भया ।।७ सम्यकदर्शन सो हि, आतम रुचि श्रद्धा महा। करनों निश्चय जो हि, अपने शुद्ध स्वभावकों ॥४८
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श्रावकाचार-संग्रह
निजको जानपनो हि, सम्यकज्ञान कहें जिना । थिरता भाव घनो हि, सो सम्यकचारित्र है ॥४९
चौपाई
प्रथमहि अखिल जतन करि भाई, सम्यकदरशन चित्त धराई । ताके होत सहज ही होई, सम्यकज्ञान चरन गुन दोई ॥५० जीवाजीवादिक नव अर्था, तिनकी श्रद्धा बिन सब व्यर्था । है श्रद्धान-रहित विपरीता, आतमरूप अनूप अजीता ॥५१ सकल वस्तु हैं उभय स्वरूपा, अस्ति नास्तिरूपी ज् निरूपा । अनेकांतमय नित्य अनित्या, भगवतने भाषे सहु सत्या ॥ ५२ तामैं संशय नाहिं जु करनी, सम्यक दरसन ही दिढ़ धरनौ । या भवमैं विभवादि न चाहै, परभव भोगनिकूं न उमाहै ॥५३ चक्री केशवादि जे पदई, इन्द्रादिक शुभ पदई गिनई । कबहू वांछे कछु हि न भोगा, ते कहिये भगवतके लोगा ॥५४ जो एकांतवाद करि दूषित परमत गुण करि नाहिं जु भूषित । ताहि न चाहे मन वच तन करि, तै दरसन धारी उरमें धरि ॥५५ क्षुधा तृषा भर उष्ण जु सीता, इनहिं आदि सुखभाव वितीता । दुखकारण मैं नाहि गिलानी, सो सम्यकदरशन गुणखानी ॥५६ लोकविर्षे नहि मूढ़तभावा, श्रुति अनुसार लखे निरदावा । जैनशास्त्र बिनु और जु ग्रंथा, शास्त्राभास गिनै अघपंथा ||५७
समय विनु और जु समया, समयाभास गिनै सहु अदया । विनु जिनदेव और हैं जेते, लखे जु देवाभास सु ते ते ॥ ५८ श्रद्धानी सौ तत्त्वविज्ञानी, धरै सुदर्शव आतमध्यानी । करै धर्मकी जो बढ़वारी, सदा सु मार्दव आर्जवधारी ॥५९ पर औगुन ढ़ाकै वुधिवंता, सो सम्यकदरशनधर संता । काम क्रोध मद आदि विकारा, तिनकरि भये विकलमति धारा ॥६० न्यायमार्गत विचल्यौ चाहै, मिथ्यामारगको जु उमाहै । तिनको ज्ञानी थिर चित कारै, युक्तथकी भ्रमभाव निवारै ॥ १ आप सुथिर औरें थिर कारै, सो संम्यकदरशन गुण धारे । दयाधर्ममैं जो हि निरन्तर, करे भावना उर अभ्यंतर ॥ ६२ शिवसुख लक्ष्मी कारण धर्मो, जिनभाषित भवनाशित पर्मो । तासौं प्रीति धरै अधिकेरी, अर जिनधर्मिनसूं बहुतेरी || ६३ प्रीति करे सो दर्शनधारी, पावै लोकशिखर अविकारी । यथा तुरतके बछरा ऊपरि, गौ हित राखे मन वच तन करि ॥६४ तथा धर्म धर्मनिसों प्रीती, जाके ताने शठता जीती । आतम निर्मल करणों भाई, अतिशयरूप महा सुखदाई ॥६५
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३८७
दौलतराम-कृत क्रियाकोष दर्शन ज्ञान चरण सेवन करि, केवल उतपति करनी भ्रम हरि। सो सम्यक परभावनि होई, पर-भावनिको लेश न कोई ॥६६ दान तपो जिनपूजा करिके, विद्या अतिशय आदि जु धरिके। जैनधर्मको महिमा कारे, सो सम्यकदरशन गुण धारै ॥६७ ए दरशनके अष्ट जु अंगा, जे धारै उर माहिं अभंगा। ते सम्यक्ती कहिये वीरा, जिन आज्ञा पालक ते धीरा ॥६८ सेवनीय है सम्यकज्ञानी, माया मिथ्या ममता भानी । सदा आत्मरस पीवे धन्या, ते ज्ञानी कहिये नहिं अन्या ॥६९ यद्यपि दरशन ज्ञान न भिन्ना, एकरूप हैं सदा अभिन्ना। सहभावी ए दोऊ भाई, तो पनि किंचित भेद धराई ।।७० भिन्न, भिन्न आराधन तिनका, ज्ञानवंतके होई जिनका। एक चेतनाके हुँ भावा, दरसन ज्ञान महा सुप्रभावा ॥७१ दरसन है सामान्य स्वरूपा, ज्ञान विशेष स्वरूप निरूपा। दरसन कारन ज्ञान सु कार्या, ए दोऊ न लहे हि अनार्या ॥७२ निराकार दर्शन उपयोगा, ज्ञान धरै साकार नियोगा। कोळ प्रश्न करे इह भाई, एककाल उत्पत्ति बताई ॥७३ दरसन ज्ञान दुहुनिको तातें, कारन कारिज होइ न तातें। ताको समाधान गुरु भार्षे, जे धार ते निजरस चाखै ।।७४ जैसे दीपक अर परकासा, एककाल दुहुँ को प्रतिभासा । पर दीपक है कारनरूपा, कारिजरूप प्रकाशनरूपा ॥७५ तेसै दरशन ज्ञान अनूपा, एककाल उपजै निजरूपा । दरशन कारनरूपी कहिये, कारिजरूपी ज्ञान सु गहिये ॥७६ विद्यमान हैं तत्त्व सबै ही, अनेकांततारूप फबै ही। तिनको जानपनों जो भाई, संशय विभ्रम मोह नशाई ॥७७ जो विपरीत रहित निजरूपा, आतमभाव अनूप निरूपा । सो है सम्यकज्ञान महंता, निजको जानपनों विलसंता ॥७८ अष्ट अंगकरि शोभित सोई, सम्यकज्ञान सिद्ध कर होई। ते धारो भवि आठों शुद्धा, जिनवाणी अनुसार प्रबुदा ॥७९ शब्द-शुद्धता पहलो अंगा, शुद्ध पाठ पढ़ई जु अभंगा। अर्थ-शुद्धता अंग द्वितीया, करै शुद्धअर्थ जु विधि लोया ॥८० शब्द अर्थ दुहको निर्मलता, मन वच तन काया निहचलता। सो है तीजो अंग विशुद्धा, सम्यन्ता धारै प्रतिबुद्धा ॥८१ कालाध्यायन चतुर्थम अंगा, ताको भेद सुनो अतिरंगा । जा विरियां जो पाठ उचित्ता, सोहा पाठ करै जु पवित्ता ॥८२ विनय अंग है पंचम भाई, विनयरूप रहिवौ सुखदाई। सो उपधान हैं छट्टम अंगा, योग्य क्रिया करिवी जु अभंगा ।।८३
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श्रावकाचार-संग्रह
जिनभाषितकों अंगी करनी, सो उपधान अंगको घरनी । सप्तम है बहुमान विख्याता, ताको अर्थं सुनू तजि घाता ॥८४ बहुसतकार आदर करिके, जिन आज्ञा पाले उर घरिके । अष्टम अंग बनिन्हव घारे, ते अष्टम भूमी जु निहारे ॥ ८५ जा गुरुके ढिग तत्त्वविज्ञाना पायो अदभुत रूप निधाना। ता गुरुको नहि नाम छिपावे, बार बार महागुण गावे ॥८६ को कहिये जु अनिन्हव अंगा, ज्ञानस्वरूप अनूप अभंगा । सम्यक ज्ञान तनू आराधन, ज्ञानिनिकों करनू शिव-साधन ॥८७ दरशन मोह रहित जो ज्ञानी, तत्त्वभावना दृढ़ ठहरानी । जे हि जथारथ जानें भावा, ते चारित्र धरे निरदावा ॥८८ बिना ज्ञान नहिं चारित सोहै, बिना ज्ञान मनमथ मन मोहै । तातें ज्ञान पीछे जु चरित्रा, भाष्यो जिनवर परम पवित्रा ॥८९ सर्व पाप-मारग परिहारा, सकल कषाय-रहित अविकारा । निर्मल उदासीनता रूपा, आतमभाव सु चरन अनूपा ॥९० सो चारित्र दोय विधि भाई, मुनि श्रावक व्रत प्रगट कराई । मुनिको चारित सर्व जु त्यागा, पापरीतिके पंथ न लागा ॥९१ ताके तेरह भेद बखानें, जिनवानी अनुसार प्रवानें ।
पंच महाव्रत पंच जु समिती, तीन गुपतिके धारक सुजती ॥९२ चउविधि जंगम पंचम थावर, निश्चयनय करि सब हि बराबर । तिन सर्वनिकी रक्षा करिवौ, सो पहलो सु महाब्रत घरिवी ॥९३ संतत सत्य वचनको कहिवो, अथवा मौनव्रतकों गहिवौ । मृषावाद दौले नहि जोई, दूजी महाब्रत है साई ॥९४ कौड़ी आदि रतन परजंता, घटि अघटित तसु भेद अनन्ता । दत्त दत्त न परसे जोई, तीजो महाब्रत है सोई ॥९५ पशु पंछी नर दानव देवा, भववासा रमनी-रत मेवा । तर्ज निरन्तर मदन विकारा, सो चौथो जु महाब्रत भारा ॥९६ द्विविधि परिग्रह त्यागे भाई, अन्तर बाहिर संग न काई । नगन दिगम्बर मुद्रा धारा, सो हि महाव्रत पंचम सारा ॥ ९७ ईर्यासमिति ऋषी जो चालै, भाषासमिति कुभाषा टाले । भखै अहार अदोष मुनीशा, ताहि एषणा कहै अधीशा ॥९८ है आदान निक्षेपा सोई, लेहि निरखि शास्त्रादिक जोई । अर रिठवणा पंचम समिति, निरखि शास्त्रादिक जोई। अर परिठवणा पंचम समिती, निरखि भूमि डारै मल सुजती ॥९९ मनोगुप्ति कहिये मन- रोघा, वचन गुप्ति जो वचन निरोधा । कायगुप्ति काया बस करिवो, ए तेरह विधि चारित घरिवौ ॥ २१००
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दौलतराम-कृत क्रियाकोष एकदेश गृहपति चारित्रा, द्वादश व्रतरूपी हि पवित्रा। जो पहली भाख्यौ अब तातें, कहो नहीं श्रावकवत तातें ॥१ इह रतनत्रय मुनिके पूरा, हो। अष्टकर्म दल चूरा । श्रावक के नहिं पूरण होई, धरै न्यूनतारूप जु सोई ॥२ इह रतनत्रय करि शिव लेवे, चहुं गतिकों व पानी देवे । या करि सीझे अरु सीझेंगे, यह लहि परमें नहिं रीझेंगे ॥३ या करि इन्द्रादिक पद होवे, सो दूषण शुभको बुध जोवै । इह तो केवल मुक्ति प्रदाई, बंधनरूप होय नहिं पाई ॥४ बंध-विदारन मुक्ति-सुकारण, इह रतनत्रय जगत उधारण । रत्नत्रय सम और न दूजो, इह रतनत्रय त्रिभुवन पूजो ॥५ रतनत्रय बिनु मोक्ष न होई, कोटि उपाव करे जो कोई । नमस्कार या रतनत्रयकों, जो दै परम भाव अक्षयकों ॥६ रतनत्रय की महिमा पूरन, जानि सकै वसु कर्म-विचूरन । मुनिवर हू पूरण नहिं जानें, जिन-आज्ञा अनुसार प्रवाने ।।७ सहस जोभ करि वरणन करई, तिनहूँ पै नहिं जाय वरणई । हमसे अलपमती कहो कैसे, भाषे बुधजन धारहु ऐसे ॥८
पन किरिया को यह मूला. रतनत्रय चेतन अनुकूला । जिन धार्यो तिन आपो तार्यों, याकरि बहुतनि कारिज सार्यो ॥९ धन्य घरी वह हगी भाई, रतनत्रयसों जीव मिलाई। पहुंचेगो शिवपुर अविनाशी, होवेगो अति आनन्द राशी ॥१० सब ग्रन्थनि में पन किरिया, इन करि, इन बिन भववन फिरिया। जो ए वेपन किरिया धारे, सो भवि अपना कारिज सारै ॥११ सुरग मुकति दाता ए किरिया, जिनवानी सुनि जिनि ए धरिया। तिन पाई निज परणति शुद्धा, ज्ञानस्वरूपा अति प्रतिबुद्धा ॥१२ है अनादि सिद्धा ए सर्वा, ए किरिया धरिवी तजि गर्वा । ठोर ठौर इनको जस भाई, ए किरिया गावै जिनराई ॥१३ गणधर गावें मुनिवर गावै, देव भाषमें शबद सुना। पंचम काल माहिं सुर-भाषा, विरला समझे जिनमत साखा ॥१४ तातें यह नर-भाषा कीनी, सुर-भाषा अनुसारे लीनी। जो नर-नारि पढ़े मन लाई, सो सुख पावै अति अधिकाई ॥१५ संवत सत्रासै पच्याण्णव, भादव सुदि बारस तिथि जाणव । मंगलवार उदयपुर माहे, पूरन कीनी संशय नाहे ॥१६ आनन्द-सुत जयसुतको मंत्री, जयको अनुचर जाहि कहै । सौ दौलत जिन दासनि दासा, जिनमारग की शरण गहै ॥१७
इति ।
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परिशिष्ट
क्रियाकोषों में उद्धृत गाथा - श्लोक-सूची श्री किसनसिंह - कृत क्रियाकोषमें
गुण-वय-तव-सम-पडिमा दाणं जलगालणं च अणत्थमियं । दंसण - णाण-चरितं किरिया तेवण्ण सावया भणिया । ( पृष्ठ ११५ )
हेमंते तीस दिणा, गिम्हे पणरस दिणाणि पक्कण्णं ।
वासासु य सत्त दिणा, इय भणियं सूय- जंगेहिं ॥ ( पृष्ठ ११६ ) इक्खु - दही-संजुत्तं भवंति सम्मुच्छिमा जीवा । अंतोमुहुत्त-मज्झे, जम्हा भणति जिणणाहा ।। ( पृष्ठ ११८ ) चउ एइंदी विण छह-अठ्ठह तिणिणि भणति दह ।
चौरिंदी जीवङा बार बारह पंच भणति ॥ ( पृष्ठ ११९ )
अन्न जलं किचि ठिई, पञ्चक्खाणं न भुंजए भिक्खू । घड़ी दोय अंतरीया, णिगोइया हुंति बहु जीवा ॥ ( पृष्ठ १४२ ) संवत्सरेण-मेकत्वं चैवर्तकस्य हिंसकः ।
दवादा
एकादश अपूतजल-संग्रही || (पृष्ठ १६२ ) लूतास्यतन्तु-गलिते ये बिन्दौ सन्ति जन्तवः । सूक्ष्मा भ्रमरमानापि, नैव मान्ति त्रिविष्टपे । ( पृष्ठ १६२ ) षट्त्रिंशदङ्गुलं वस्त्रं चतुर्विंशतिविस्तृतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् ॥ ( पृष्ठ १६२ )
तस्मिन् मध्यस्थिताञ्जीवान् जलमध्ये तु स्थाप्यते । एवं कृत्वा पिबेत्तोयं स याति परमां गतिम् ।। (पृष्ठ १६२ )
राहु-अरिट्ठविमाणं किंचूणा कि पि जोयणं अधोगंता । छम्मासे पव्वन्ते चन्दं रवि छादयदि कमेण ॥ ( पृष्ठ २०१ )
स्नानं पूर्वामुखी भूप, प्रतीच्यां दन्त-धावनम् । उदीच्यां श्वेतवस्त्राणि, पूजा पूर्वोत्तरामुखी || ( पृष्ठ २०३ )
अरहंता छेयाला सिद्धा अट्ठेव सूरि छत्तीसा । उवझाया पणवीसा साहूणं हुति अडवीसा ॥ ( पृष्ठ २२३ )
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श्री दौलतराम-कृत क्रियाकोष में गुण-वय-तव-सम-पडिमा, दाणं जलगालणं च अणत्यमियं । दसण णाण चरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया ॥ ( पृष्ठ २२४ ) मय-मूढमणायदणं संकाइ वसण्ण भयमईयारं । एहिं चउदालेदे ण संति ते हंति सद्दिट्ठी ॥ (पृष्ठ २६२ ) आद्यं शरीर-संस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्य भण्यते ॥ ( पृष्ठ ३०० योषिद्विषसंकल्प पञ्चमं परिकीर्तितम् । तदङ्गवीक्षणं षष्ठं सत्कारः सप्तमो मतः ।। ( पृष्ठ ३००) पूर्वानुभूत-सभोगः स्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवमे भावनी चिन्ता दशमे वस्तिमोक्षणम् ॥ ( पृष्ठ ३०० ) भोजने षट्रसे पाने, कुंकुमादि-विलेपने । पुष्पताम्बूल-गीतेषु, नृत्यादौ ब्रह्मचर्यके । (पृष्ठ ३३३ ) स्नान-भूषण-वस्त्रादौ, वाहने शयनाशने । सचित्त वस्तु-संख्यादौ, प्रमाणं भज प्रत्यहम् ॥ ( पृष्ठ ३३३ )
पं० दौलतराम जीने भी अपने क्रिया-कोषका आधार संस्कृत क्रिया-कोषको ही बताया है। जैसा कि उनके निम्न पद्यसे स्पष्ट है
'ताते नर-भाषा यह कोनी, सुर-भाषा अनुसार लीनी ।
पंचम काल मांहि सुर-भाषा, विरला समझै जिन-मत साखा ।। इस पद्यमें 'नर-भाषा' से अभिप्राय वर्तमानमें बोली जानेवाली हिन्दी भाषासे है और सुर-भाषासे अभिप्राय देवभाषा संस्कृतसे है।
इस उल्लेखसे यह सिद्ध है कि उनके सम्मुख कोई संस्कृत क्रिया-कोष विद्यमान था।
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श्रावकाचार-संग्रह पदम कविने अपने श्रावकाचार की प्रशस्तिमें जिन आचार्यों, भट्टारकों एवं ब्रह्मचारियोंका उल्लेख किया है । उनके नाम इस प्रकार है
आचार्य-१. आ० कुन्दकुन्द, २. समन्तभद्र, ३. जिनसेन, ४. गुणभद्र, ५. अकलंक, ६. अमृतचन्द्र, ७. प्रभाचन्द्र, ८. वसुनन्दि ।
पंडित-आशाधर।
भट्टारक-१. पद्मनन्दी, २. सकलकीति, ३. भुवनकोति, ४. ज्ञानभूषण, ५. विजयकीर्ति, ६. शुभचन्द्र, ७. कुमुदचन्द्र ।। गुरुजन-आम्नाय गुरु-शुभचन्द्र ।
आगम गुरु-विनयचन्द्र। अध्यात्मगुरु-कर्मश्री ब्रह्म।
शिक्षागुरु-हीरब्रह्मेन्द्र । श्रावकाचारके आधारभूत ग्रन्थोंके नाम
१. स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्ड श्रावकाचार । २. आचार्य वसुनन्दीका श्रावकाचार । ३. पं० आशाधरका सागारधर्मामृत ।
४. श्री सकलकोत्तिका प्रश्नोत्तर श्रावकाचार । पदम कविने त्रेपन क्रियाओंके वर्णनका आधार किसी ग्रन्थको न बता करके श्रेणिकके प्रश्न पर गौतमके द्वारा श्रावकके सम्पूर्ण आचारका वर्णन कराया है। जैसा कि इसकी मंगलाचरणके पश्चात् दी गई उत्थानिकासे प्रकट है।
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